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निर्देशन करेंगे अरशद

मुन्नाभाई सीरीज के सर्किट यानी अभिनेता अरशद वारसी ने फिल्म ‘जौली एलएलबी’ के जरिए काफी वाहवाही बटोरी थी लेकिन कमाई का गणित यह कहता है कि सफल फिल्मों के सीक्वल्स में बड़े सितारे की मौजूदगी से फिल्म ज्यादा कारोबार करती हैं. लिहाजा, जब ‘जौली एलएलबी’ का सीक्वल प्लान हुआ तो फिल्म में उन की जगह अक्षय कुमार को ले लिया गया और हताश अरशद ने यही कहा कि आप चाहे कितनी भी अच्छी ऐक्ंिटग कर लें, आप की फिल्म नैशनल अवार्ड जीत ले, लेकिन बड़े सितारे को ले कर जो कमाई हो सकती है वह अच्छे अभिनेता से भरपाई नहीं हो सकती है. खैर, अरशद हिम्मत हारने वालों में से नहीं हैं. जल्द ही वे डायरैक्टर के अवतार में नजर आने वाले हैं. अरशद के मुताबिक उन की फिल्म निश्चित तौर पर बोरिंग नहीं होंगी. वे कुछ फिल्मों की कहानी भी लिख चुके हैं.

 

आत्मविश्वास से लबरेज लीजा

अभिनेत्री लीजा रे ब्लड कैंसर से काफी अरसा पीडि़त रहीं. इस दौरान न सिर्फ उन का फिल्मी कैरियर ठप रहा बल्कि इलाज के दौरान हुई थेरैपी से उन के सारे बाल भी चले गए. इतना सब होने के बाद लीजा ने हिम्मत नहीं हारी और कैंसर को पटखनी दे कर न सिर्फ अपना आत्मविश्वास बनाए रखा बल्कि फिल्मों में सम्मानजनक वापसी भी की. लीजा फिल्मों में काम करने के अलावा सोशल ऐक्टिविस्ट भी हैं. हालांकि इन दिनों वे अपने संघर्ष को, आत्मविश्वास से जीतने की खुशी को कविताओं के माध्यम से जाहिर कर रही हैं. जब से उन्होंने अपनी लिखी कविताओं को सोशल मीडिया अकाउंट ‘इंस्टाग्राम’ पर शेयर करना शुरू किया है, उन के चाहने वालों से उन्हें काफी सराहना मिल रही है. लीजा जल्द ही कई फिल्मों में नजर आएंगी.

सलमान के ‘अच्छे दिन’

कई सालों से लगातार कमाऊ फिल्में दे रहे अभिनेता सलमान खान के वाकई अच्छे दिन आ गए लगते हैं. पहले ‘सुलतान’ की रिकौर्डतोड़ कमाई और अब चिंकारा शिकार मामले में राहत की खबर ने उन्हें खुश कर दिया है. जोधपुर हाईकोर्ट ने काला हिरण और चिंकारा शिकार के मामले में सलमान खान को बड़ी राहत देते हुए उन्हें बरी कर दिया है. यह मामला करीब 18 साल से चल रहा था और सलमान को कई बार जेल के दरवाजे तक भी ले गया था. इस केस से जुड़े 2 मामलों में सलमान पर अरेस्ट होने का खतरा मंडरा रहा था. लेकिन अब कोर्ट ने उन्हें रिहा करने का फैसला सुनाया है तो इस फैसले के खिलाफ राजस्थान सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की बात की है.

लोगों की संवेदनाएं सीमित हो रही हैं: कैलाश सत्यार्थी

मानव तस्करी एवं बाल व बंधुआ मजदूरी विषय पर दिल्ली में आयोजित सम्मेलन में देशभर से आए कई लोगों ने भाग लिया जो इस दिशा में काम कर रहे हैं. सम्मेलन में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी से बात करने का मौका मिला. उन्होंने सरकार की नीतियों, बालशोषण, मानव तस्करी जैसे संवेदनशील मुद्दों के साथसाथ आज के समाज पर भी खुल कर बातचीत की.

हमारा समाज बहुत संवेदनहीन होता जा रहा है. इस की मुख्य वजह क्या है?

मैं यह नहीं मानता कि समाज संवेदनहीन हो रहा है. मैं कहूंगा कि समाज की संवेदनाएं सीमित हो रही हैं. यह स्वार्थ की वजह से है, समाज में स्वार्थ की भावना बढ़ रही है. हम अपने भाईबहनों और अपने बच्चों के लिए बड़े संवेदनशील हैं लेकिन हमारी वह संवेदना हमारे पड़ोसी के बच्चे के लिए नहीं है. समाज के अन्य बच्चों के लिए नहीं है. जो बच्चे सड़क पर अपनी जिंदगी बिता रहे हैं उन के लिए नहीं है. मुझे लगता है कि इस के पीछे दोतीन चीजें हैं. एक तो समाज में बहुत ज्यादा लालच बढ़ता जा रहा है क्योंकि इतनी चीजें बिक रही हैं बाजार में. इतनी सुविधाएं हैं. विलासिता की सामग्री, मौजमस्ती के तरीके. ऐसे में लोगों को लगता है कि पैसे होंगे तभी ये चीजें उन के पास होंगी. लोग यह भी समझने लगे हैं कि पैसा कमाया जा सकता है केवल अपने लिए सोच कर और अपने समय का, बस अपने लिए इस्तेमाल कर के. इसलिए समाज में लालच बढ़ रहा है. दूसरा कारण यह है कि समाज में स्वार्थ बढ़ रहा है. हम बहुत ज्यादा स्वार्थी होते जा रहे हैं. हमें लगने लगा है कि अपने छोटे से दायरे में रह कर हम ज्यादा खुश रह सकते हैं. तीसरी वजह है, भविष्य को ले कर असुरक्षा का भाव. यह भी लोगों में बढ़ता जा रहा है. लोगों को लग रहा है कि पता नहीं, कल क्या होगा? इसलिए अभी कमा लो. अभी जो करना है, कर लो. इस प्रकार असुरक्षा का डर भी इंसान को बहुत स्वार्थी बनाता है. इन सभी चीजों का जो तालमेल है उस में इजाफा कर रहा है हमारा विज्ञापन उद्योग. मीडिया की भी भूमिका है. सोशल मीडिया की भी बहुत बड़ी भूमिका है.

इंसान स्वार्थ और लालची सोच की वजह से अपना दायरा सीमित करता जा रहा है, जबकि हम वसुधैव कुटुंबकम की बात करते हैं. ग्लोबलाइजेशन तेजी से हुआ है और हो रहा है, ऐसे में सीमित संवेदनाएं, स्वार्थ और आत्मकेंद्रित सोच के साथ आगे कैसे बढ़ा जा सकता है?

इस का समाधान यह है कि हम यह सोचना शुरू करें कि जिस दुनिया में हम रह रहे हैं वह दुनिया बहुत ज्यादा एकदूसरे से जुड़ी हुई है. एकदूसरे के डर, एकदूसरे की सुरक्षा, एकदूसरे का भविष्य, यह सब जुड़ा हुआ है और अब और तेजी से जुड़ रहा है. पिछले 20 से 30 साल पहले यह हमारी समझ में नहीं आता था. हम बोलते जरूर हैं कि भारत में वसुधैव कुटुंबकम की सोच को ले कर हम आगे बढ़ रहे हैं. विश्व हमारा परिवार है लेकिन अब आप खुद देखिए कि जब से ग्लोबल टेरैरिज्म बढ़ा है, कोई कहीं कुछ करता है और उस का खमियाजा किसी को कहीं और भुगतना पड़ता है. आज दुनिया में कोई यह नहीं बोल सकता कि भई, यह तो पाकिस्तान की समस्या है या भारत की समस्या है या किसी अन्य देश की समस्या है. लगभग सभी समस्याएं विश्वव्यापी हो गई हैं.

इसी प्रकार ग्लोबल वार्मिंग है. क्लाइमेट चेंज की बात है. अब सब को पता है कि कोई एक देश इस का समाधान नहीं खोज सकता. इसी प्रकार जब मंदी का दौर आया तो उस ने पूरी दुनिया को हिला दिया. ये सब बातें हमारे दिमाग में आनी बहुत जरूरी हैं. आज के समय में सभी समस्याएं और उन के समाधान आपस में जुड़े हुए हैं. कोई सरकार या व्यक्ति अकेले इन समस्याओं का समाधान नहीं निकाल सकता. ये बातें हम सभी को समझनी चाहिए.

अब, सिर्फ उपदेशों से काम नहीं चलेगा. हमें उपदेशात्मक बातें करने के बजाय उन बातों को व्यवहार में लाने के नए तरीके खोजने की जरूरत है. इस काम में सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जा सकता है.

क्या इस का कोई सटीक समाधान आप देखते हैं?

समस्याओं का समाधान तभी होता है जब लोग सामाजिक समस्याओं का समाधान करने में दिल से दिलचस्पी लेते हैं. समाज स्वार्थ के दायरे से बाहर आ कर चुप्पी तोड़े बालविवाह के खिलाफ, बाल मजदूरी के खिलाफ, शोषण के खिलाफ, बंधुआ मजदूरी के खिलाफ, महिलाओं के साथ हो रहे दुर्व्यवहार के खिलाफ. एक सामान्य भारतीय नागरिक के तौर पर हमें अपने आसपास दुकानों में, फैक्टरियों में यदि कोई बाल मजदूरी करा रहा है या किसी के घर में डोमैस्टिक हैल्पर है तो हम मेहरबानी कर के उस से कहें कि देखिए, हम आप के घर में पानी भी नहीं पिएंगे, चाय पीना तो दूर की बात है. इस प्रकार समाज के हर तबके को आगे आना होगा. अगर हमारी सिविल सोसाइटी सख्ती से इस बात का विरोध करे कि किसी बच्चे से मजदूरी नहीं कराई जाएगी, इस संबंध में जो कानून हैं उन का सख्ती से पालन होगा, तो बदलाव जरूर आएगा. कानून की बात करें तो हमारे देश में कानून तो बहुत अच्छे हैं लेकिन समस्या यह है कि उन का असर कुछ ठोस नजर नहीं आता. न ही उन कानूनों का सख्ती से पालन किया जाता है. ऐसा अधिकांश मामलों में हम देखते हैं. यही बाल मजदूरी और बंधुआ मजदूरी जैसी समस्याओं के संदर्भ में भी साफ दिखाई देता है.

हम यही चाहते हैं कि अच्छा और सख्त कानून होना चाहिए और उस कानून का सख्ती से पालन भी होना चाहिए. इस की पूरी जिम्मेदारी अकेले सरकार की नहीं है बल्कि सभी एजेंसियों की है और समाज के सभी तबकों की भी है.

समाज में प्यार का माहौल किस प्रकार बनाया जा सकता है? क्योंकि यदि इंसान दूसरे इंसान से प्यार करेगा तो वह फिर उस का शोषण नहीं करेगा.

मुझे लगता है कि इस की शुरुआत हमें खुद से ही करनी चाहिए. सब से प्रेम करो, यह उपदेश की बात नहीं होनी चाहिए बल्कि यह हमारे चरित्र का हिस्सा होनी चाहिए, हमारे जीवन जीने के तरीके में शामिल होनी चाहिए. इस बात को मैं बारबार कहता हूं, अपनी नोबेल स्पीच में भी मैं ने कहा कि हम ने सूचनाओं का, बाजार का, व्यापार का, वैश्वीकरण कर दिया. बहुत तेजी से भूमंडलीकरण हो गया लेकिन दूसरी तरफ जो करुणा है, कंपैशन है उस का वैश्वीकरण नहीं हो पा रहा है. मैं यह कहता हूं कि बच्चों के अधिकार के लिए, बच्चों की शिक्षा के लिए, उन की आजादी के लिए जो मेरा संघर्ष है वह कहीं न कहीं वैश्वीकरण का हिस्सा है. वैचारिक तौर पर या दार्शनिक तौर पर मैं इस को मानता हूं कि यह करुणा के वैश्वीकरण का जनआंदोलन है. इसे कुछ लोग कानूनी तौर पर देखते हैं, कुछ एक प्रोजैक्ट के रूप में देखते हैं तो कुछ एनजीओ के तरीके से देखते हैं. लेकिन मेरा जो वैचारिक आधार है वह यही है.

सरकार के प्रयासों से आप कितने संतुष्ट हैं?

पिछले दिनों जो सब से अच्छी घटना हुई है वह यह कि केंद्र सरकार ने बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास का प्रावधान जारी किया है. यह स्वागतयोग्य है. पहली बार पुनर्वास की जो राशि है वह 20 हजार रुपए से बढ़ा कर 3 लाख रुपए तक कर दी गई है. हम मोटे तौर पर जो मांग कर रहे हैं वह यह है कि नियमों में संशोधन कर के सुनिश्चित किया जाए कि जो समरी ट्रायल का प्रावधान है वह 30 दिनों के भीतर पूरा कर के जो दोषी हैं उन्हें सजा मिलनी चाहिए. जो संबंधित अधिकारी हैं उन्हें इस के लिएजिम्मेदार ठहराना चाहिए, जवाबदेह बनाना चाहिए.

मुसलमानों का दुश्मन क्यों है इसलामिक स्टेट?

दुनियाभर के मुसलमान रमजान बहुत हर्ष व उल्लास के साथ मनाते हैं. लेकिन इस बार इसलामिक स्टेट यानी आईएस के कारण रमजान का महीना रक्तरंजित रहा. रमजान के दौरान सऊदी अरब में धार्मिक शहर मदीना में फिदायीनी हमला हुआ, इराक की राजधानी बगदाद में 2 बार आतंकी हमले हुए जिन में 300 लोग मारे गए, ढाका  में 20 लोगों की गला रेत कर हत्या कर दी गई, इस्तांबुल में विमानतल पर फिदायीनी हमले में 32 लोग मारे गए. यानी आईएस ने रमजान के महीने के दौरान खून बहा कर उसे नापाक कर दिया. यदि ढाका की घटना को छोड़ दें, तो बाकी सभी घटनाओं में मारे गए मुसलमान ही थे. फिर इसलामी कहलाने वाले आईएस ने मुसलमानों की हत्याएं कर के क्या हासिल किया? अब आ रही खबरें बताती हैं कि आईएस ने जानबूझ कर ऐसा किया.

रमजान की शुरुआत में आईएस के प्रवक्ता ने कह दिया था कि यह महीना काफिरों के लिए संकट ले कर आएगा. लेकिन आईएस की नजर में काफिर केवल गैरमुसलिम ही नहीं हैं. वरन वे सभी मुसलमान भी काफिर या मुशरिक हैं जो इसलाम में संशोधन कर रहे हैं. मुशरिक उसे कहते हैं जो शिर्क करता है और शिर्क का अर्थ बहुदेववाद है. इसलाम के अनुसार, अल्लाह के अलावा किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु की उपासना करना, उस की स्तुति करना या उस का वंदन करना शिर्क है. इस तरह आईएस ने मुसलमान की परिभाषा ही बदल दी है. इराक और सीरिया के एक हिस्से पर बने इसलामिक राज्य ने हाल ही में 2 साल पूरे कर लिए. इस दौरान आईएस ने नृशंसता का प्रदर्शन किया. रूस, पश्चिमी सैनिक गठबंधन और अरब देशों के आसमान से बरसती हजारों मिसाइलों के कारण उस की अपनी जमीन पर उस की हालत खस्ता है. अब वह इराक और सीरिया की अपनी जमीन का कुछ हिस्सा खो भी चुका है. इस का बदला लेने के लिए वह दुनियाभर में आतंकवादी वारदातों को अंजाम दे कर कई देशों को दहला रहा है.

खलीफा और खिलाफत

अलकायदा हमेशा से कहता आया है कि पिछली सदी में विश्वभर में मुसलिम परेशान हुए हैं, क्योंकि मुसलिम हितों की रक्षा करने वाली कोई खिलाफत नहीं थी. इस दावे की एक व्यापक अपील है, और आईएसआईएस उसे भुना रहा है. अधिकांश मुसलमानों के लिए खिलाफत मुसलिम शक्ति का वह स्वर्णकाल है जब खलीफा की तलवार के नीचे ‘शुद्ध इसलामी कानूनों’ का शासन चलता था. ‘खिलाफत’ शब्द अरबी शब्द खिलाफा से बना है, जिस का अर्थ है ‘उत्तराधिकार’. खिलाफत का आशय हुआ ‘मोहम्मद के उत्तराधिकारी का शासन’ और शासक खलीफा कहलाया, जो सैद्धांतिक रूप से संसार के सारे मुसलमानों का मजहबी नेता और नायक होता है.

इसलामी परंपराओं के मुताबिक, खलीफा धर्म और राजतंत्र दोनों का प्रमुख होता है. खलीफा को इमाम का दरजा भी दिया गया है. यह सही है कि इसी खिलाफत ने इसलाम को बहुत बड़े हिस्से पर फैलाया और उसे दूसरा बड़ा धर्म बना दिया परंतु इसी खिलाफत में मुसलिम जगत के विभाजन के बीज भी छिपे हुए हैं. इसलाम की सारी अंतरधाराओं की टकराहट, शिया-सुन्नी संघर्ष का इतिहास इसी स्रोत से निकला है. इसलामी इतिहास के मुताबिक, पहले 4 खलीफाओं को ‘खिलाफत ए राशिदून’ कहा जाता है. इतिहासकारों की नजर में यह खलीफाओं का स्वर्णयुग था. लेकिन मुसलिमों का इतिहास पढ़ने पर यह दावा खरा उतरते हुए नहीं लगता. इस के बाद उम्याद, अब्बासी और आखिरी उस्मानी खिलाफते आईं. उस्मानी खिलाफत को 1920 में अंगरेजों ने खत्म कर दिया.

आखिरी खिलाफत आटोमन साम्राज्य थी जो 16वीं शताब्दी में अपनी कीर्ति के शिखर पर पहुंची. 1924 में तुर्की के तानाशाह कमाल अता तुर्क ने उसे खत्म कर दिया. लेकिन इसलामी राज्य के समर्थक उसे वैध खिलाफत नहीं मानते क्योंकि उस ने पूरी तरह से शरीया कानून लागू नहीं किया था जिस में गुलामी, पत्थर मार कर हत्या करना और शरीर के अंग काटना आदि भी शामिल हैं. इस के अलावा, उस के खलीफा पैंगबर के कुरैश कबीले के नहीं थे जो खलीफा बनने के लिए एक आवश्यक योग्यता मानी गई है. अबूबकर बगदादी के रूप में एक ऐसा खलीफा मिला है जो मोहम्मद पैगंबर के कुरैश कबीले का होने का दावा करता है. खलीफा के बारे में इसलामिक स्टेट का कहना है, खलीफा का एक काम है हमलावर जिहाद शुरू करना. इस का मतलब है गैरमुसलिमों द्वारा शासित देशों में जिहाद को फैलाना. आईएस के मुताबिक, खिलाफत का विस्तार करना खलीफा का कर्तव्य है और यही काम आज आईएस कर रहा है. खलीफा के बगैर हमलावर जिहाद की अवधारणा काम नहीं करती. आईएस का यह भी कहना है कि जिन नियमों के तहत इसलामिक स्टेट काम करता है वे क्रूरता पर नहीं, दया पर आधारित हैं. खलीफा राज का दायित्व दुश्मनों को आतंकित करना है. दरअसल, फांसी देने, सिर कलम करने, महिलाओं व बच्चों को गुलाम बनाने से विजय जल्दी मिलती है और संघर्ष लंबा नहीं होता.

अपने को खलीफा घोषित कर के आईएस नेता अबूबकर बगदादी दुनिया के मुसलमानों का स्वघोषित मसीहा बन गया है. इस तरह से उस ने बाकी आतंकवादी संगठनों को पीछे छोड़ दिया है. इसलामी आतंकवाद की दुनिया में उस का कथित शुद्ध इसलामी ब्र्रैंड इन दिनों सब से ज्यादा लोकप्रिय है. तभी तो लगभग 50 देशों से पहुंचे मुसलमान वहां लड़ रहे हैं. आईएस की हैवानियतभरी हरकतों की मुसलिम जगत में भी तीखी आलोचना हो रही है. कुछ अरसे पहले दुनिया के 126 मुसलिम धर्मशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों ने  कथित खलीफा बगदादी को खुली चिट्ठी लिख कर इसलामिक स्टेट की करतूतों की कड़ी निंदा की है. इस से पहले मिस्र की एक प्रमुख मसजिद के इमाम भी इसलामिक राज्य को मुसलिम विरोधी बता चुके हैं.

कुछ लोग मानते हैं कि यह केवल मनोविक्षिप्तों और दुस्साहसी लोगों का संगठन मात्र है. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि इसलामिक राज्य गैरइसलामिक है. यह अलकायदा का नया संस्करण है. इस संगठन की सोच और रणनीति को न समझ पाने के कारण ही तमाम देश मिल कर भी इस संगठन को हरा नहीं पाए और वह फलताफूलता जा रहा है. पिछले कुछ समय से पश्चिमी देशों में उस का गंभीरता से अध्ययन हो रहा है. आखिरकार दुनियाभर के देशों से हजारों लड़ाकों को आकर्षित करने वाले आईएस में कोई तो बात है. इसलिए इसलामिक स्टेट अब सचमुच में वैश्विक आतंकी संगठन बन चुका है जो दुनिया के कई देशों में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दे रहा है.

इसलाम की गलत व्याख्या

अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का अध्ययन करने वाले शोध संस्थानों के मुताबिक, आईएस ने इराक और सीरिया के अलावा 21 देशों में 75 हमले किए जिन में  लगभग 1,500 लोग मारे गए और 2,000 जख्मी हुए. अपने स्वरूप को वैश्विक बनाने के लिए

आईएस ने अलकायदा की तरह का फ्रेंचाइजी आतंकवाद विकसित किया है. जिस में आतंकवादी वारदातों को अंजाम देने के लिए सहयोगी संगठनों को आउटसोर्स किया जाता है. आईएस इसलाम की गलत व्याख्या करता है. वह अपनी व्याख्या के अनुरूप ही इसलाम को मनवाना चाहता है. वह इसलाम के 1400 साल पहले की पहली पीढ़ी के यानी मोहम्मद और उन के साथियों के तौरतरीकों या कार्यप्रणाली पर विश्वास करने को कहता तो है पर वह खुद ही उसे नहीं मानता. और अपने मानने के तरीके को ही सही ठहराता है.

अमेरिकी पत्रिका ‘एटलांटिक’ में प्रकाशित अमेरिकी प्रोफैसर ग्राहम वुड का इसलामिक राज्य पर लिखा लेख बौद्धिक क्षेत्रों में बहुत चर्चा में रहा है. वे कहते हैं, ‘‘हम ने इसलामी आतंकवाद या जिहादवाद को समझने में गलतियां की हैं. हम अलकायदा पर जो तर्कशास्त्र लागू करते हैं वही उसे चुनौती देने वाले आईएस पर भी लागू करते हैं. ओसामा बिन लादेन का संगठन लचीला, भौगोलिक आधार पर स्वायत्त संगठनों के जरिए काम करता था. इस के विपरीत आईएस को वैध रहने के लिए एक क्षेत्र की जरूरत है और उस पर शासन करने के लिए ऊपर से नीचे तक की संरचना चाहिए. विदेशी विचारक यह मानने को तैयार नहीं हैं कि आधुनिक समय में जन्मने के बावजूद आईएस का चरित्र मध्यकालीन है. वे यह सोचते हैं कि जिहादी आधुनिक पढ़ेलिखे लोग हैं जिन की राजनीतिक चिंताएं आधुनिक हैं लेकिन उन्होंने मध्ययुगीन धार्मिक नकाब पहन रखा है.’’

इसलामिक स्टेट सही मानों में इसलामिक है. इस में मध्यपूर्व और यूरोप के बहुत से मनोविक्षिप्त और दुस्साहसी लोग शामिल हो गए हैं लेकिन इस के ज्यादातर अनुयायी इसलाम के एकात्म और गहन अध्ययन पर आधारित भाष्यों को मानते हैं. इसलाम में तकफीर यानी बहिष्कार की अवधारणा है. इराक के इसलामिक राज्य के पूर्वज  यानी अलकायदा, इराक के नेता जरकावी ने इस धारणा को बहुत विस्तार दे दिया था. कुरआन या मोहम्मद के कथनों को नकारना पूरी तरह से धर्मद्रोह माना जाता है. जरकाबी और इसलामिक राज्य ने कई और मुद्दों पर भी मुसलमानों को इसलाम से बाहर निकालना शुरू कर दिया है. इस में शराब, ड्रग बेचना, पश्चिमी कपड़े पहनना, दाढ़ी बनाना, चुनाव में वोट देना और मुसलिमों को धर्मद्रोही कहने में आलस बरतना आदि शामिल हैं. इस पैमाने पर उन के मुताबिक, कुछ मुसलमानों के अलावा पूरे शिया मुसलमान धर्मद्रोह के दोषी निकलते हैं. शिया होने का मतलब है इसलाम के मूल स्तंभों को यथावत रखने के साथ सामाजिक क्रियाकलापों में जरूरत के मुताबिक संशोधन करना.

इस के अलावा शियाओं में इमामों की कब्र की पूजा करने और उन की शहादत की याद में मातम करना और ताजिए निकालने की परंपरा है. इन सब को आईएस इसलाम विरोधी मानता है और शियाओं को वह धर्मद्रोही कहता है. उस की नजर में करोड़ों शियाओं की हत्या की जा सकती है. आईएस ने अपने देश में सब से ज्यादा हत्याएं शियाओं की ही की हैं. यही बात सूफियों पर भी लागू होती है. दूसरी तरफ उन राज्यों के प्रमुख भी धर्मद्रोही हैं जिन्होंने शरीया के ऊपर मनुष्य निर्मित कानून बनाया और उसे लागू किया. इसलामिक राज्य या आईएस विश्व को अपने हिसाब से शुद्ध करने के लिए बड़े पैमाने पर लोगों की हत्या करने के लिए प्रतिबद्ध है.

इसलामिक राज्य और ओसामा बिन लादेन के अलकायदा में फर्क यह है कि अलकायदा ने कभी नहीं कहा कि वह गुलामी को स्थापित करना चाहता है. गुलामी पर चुप्पी उस का रणनीतिगत फैसला था. जबकि इसलामिक राज्य ने लोगों को गुलाम बनाना शुरू किया तो कुछ लोगों ने विरोध जताया लेकिन इसलामिक राज्य ने कोई अफसोस जताए बगैर गुलामी और धर्म विरोधियों को सूली पर चढ़ाना जारी रखा. इसलामिक राज्य के प्रवक्ता अदनानी ने कहा, ‘‘हम तुम्हारे रोम को जीतेंगे, तुम्हारे सलीब तोड़ेंगे, तुम्हारी औरतों को गुलाम बनाएंगे. अगर हम नहीं कर सके तो हमारे बेटेपोते यह कर के दिखाएंगे. वे तुम्हारे बेटों को गुलाम बना कर गुलाम बाजार में बेचेंगे.’’

खिलाफत की स्थापना

दूसरे इसलामी आतंकी संगठनों और इसलामी स्टेट आतंकी संगठन में एक बहुत बड़ा फर्क यह है कि उस ने खिलाफत की स्थापना की. ब्रिटेन से भी ज्यादा क्षेत्रफल वाला स्वतंत्र देश स्थापित किया. खिलाफत की स्थापना के लिए कोई न कोई क्षेत्र जरूरी भी है. इस कारण दुनियाभर के खिलाफत की स्थापना चाहने वालों को बगदादी द्वारा अपने को खलीफा घोषित करने पर खुशी हुई. इसलामिक स्टेट के समर्थक अकसर उस की तुलना कंबोडिया के खमेर रुज या कम्युनिस्ट पोलपोट की सरकार से करते हैं जिस ने अपने देश की एकतिहाई जनता की हत्या कर दी थी. इसलामी राज्य के समर्थक लोगों को  इसलाम की 1,400 साल पुरानी दुनिया में ले जाना चाहते हैं जहां तथाकथित ईश्वरीय कानून शरीया पूरी तरह से लागू होगा. इस सपने की भी दुनिया के मुसलमानों के बडे़ तबके में अपील है. इसलामी राज्य के एक समर्थक का बयान अखबार में छपा था कि ईश्वरीय कानून यानी शरीया में जीने का अपना आनंद है. इसी आनंद का आस्वाद लेने के लिए दुनिया के कई देशों के हजारों मुसलमान वहां पहुंच रहे हैं. यह बात अलग है कि बाकी लोग इसलामी राज्य की करतूतों को हैवानियत मानते हैं.

राजनीति में महिलाएं : हिलेरी के हौसले से बदलेंगे हाल?

अमेरिका में हिलेरी क्लिंटन डैमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी हासिल करने के बाद अब पूरी तरह चुनाव प्रचार अभियान में जुट गई हैं. दुनिया के सब से शक्तिशाली देश अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव पर सभी की निगाहें हैं जो हिलेरी रोढम क्लिंटन की उम्मीदवारी से कड़ा और दिलचस्प हो चला है. दिलचस्प इसलिए कि अमेरिकी लोकतंत्र में पहली बार किसी महिला को राष्ट्रपति पद के लिए टिकट मिला है. 227 साल के इतिहास में कोई महिला नेता हिलेरी क्लिंटन जितने मुकाम पर नहीं पहुंची. लेकिन इस का यह मतलब भी नहीं कि अमेरिकी मतदाता पहली बार किसी महिला को राष्ट्रपति बनाने को बहुत उतावला है. हिलेरी को अपने प्रतिद्वंद्वी रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप से कड़ी टक्कर मिल रही है. 8 नवंबर को पता चलेगा कि हिलेरी क्लिंटन अमेरिका की पहली महिला राष्ट्रपति बन पाईं या नहीं.

बिलाशक फैशनेबल हिलेरी क्लिंटन खूबसूरत और लोकप्रिय महिला हैं जिन्हें अपने प्रतिद्वंद्वी के मुकाबले राजनीति का खासा तजरबा है. पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी होने के नाते वे 1999 से ले कर 2001 तक अमेरिका की प्रथम महिला होने का ताज पहने रहीं. न्यूयार्क से सीनेटर हिलेरी अमेरिका की विदेश मंत्री हैं. साल 2008 में भी हिलेरी डैमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति पद की तगड़ी दावेदार थीं लेकिन रहस्यमय और हैरतअंगेज तरीके से उन्होंने मौजूदा राष्ट्रपति बराक ओबामा के समर्थन में अपना नाम, नाटकीय अंदाज से ही सही, वापस ले लिया था, यानी हालात देख झुकना उन्हें आता है. अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव किसी ग्रैंड स्लैम टूर्नामैंट के फाइनल मैच सरीखा होता है जिस में दावे से कोई नहीं कह सकता कि फलां खिलाड़ी ही जीतेगा या जीत रहा है. लंबी पर दिलचस्प चुनावी प्रक्रिया से गुजर रहा अमेरिका का व्हाइट हाउस नए राष्ट्रपति का इंतजार कर रहा है. बराक ओबामा की विदाई पार्टियां शुरू हो गई हैं जिन के साथ ही अमेरिकी राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय खत्म हो जाएगा. अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा जिन कई वजहों से याद किए जाएंगे उन में से एक भारत के प्रति उन का झुकाव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अनौपचारिक दोस्ती भी रहेगी.

अपनी खास हेयरस्टाइल के लिए पहचानी जाने वाली हिलेरी क्लिंटन के बारे में यह गलत नहीं कहा जा रहा कि वे अगर जीतीं तो ओबामा की नीतियों पर ही चलेंगी और भारत से प्रगाढ़ हो गए संबंधों को निभाएंगी. 8 नवंबर सुपर ट्यूज्डे का इंतजार पूरी दुनिया के देश इस नजरिए से भी कर रहे हैं कि अगर हिलेरी क्लिंटन राष्ट्रपति बनीं तो उन पर क्या फर्क पड़ेगा और अगर डोनाल्ड ट्रंप बने तो क्या असर पड़ेगा.

हिलेरी और डैमोक्रेटिक पार्टी

हिलेरी क्लिंटन राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली महिला नहीं हैं और अपवादस्वरूप अमेरिका परिवारवाद की राजनीति से मुक्त ही रहा है. चूंकि वह प्रवासियों और व्यापारियों का देश है, इस के चलते राष्ट्रपति चुनने में वहां के मूल निवासियों की भूमिका गौण हो चली है. अमेरिका के इलियान प्रांत में जन्मी हिलेरी क्लिंटन एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार से हैं जिन के पिता ह्यूज रोढम कपड़े की दुकान चलाते थे. 1969 में बेलस्ले यूनिवर्सिटी से उन्होंने राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि ली थी. फिर 4 साल बाद उन्होंने कानून की भी डिगरी ली और वकालत करने लगीं. 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में उन का नाम अमेरिका के 100 प्रभावशाली अधिवक्ताओं में शुमार किया जाता था. येल ला स्कूल में कानून की पढ़ाई के दौरान उन का परिचय बिल क्लिंटन से हुआ था. साल 1975 तक दोस्ती प्यार में और प्यार शादी में तबदील हो गई. उस वक्त ये दोनों ही अरकासांस विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे. इन दोनों की इकलौती बेटी 35 वर्षीय चेलसी क्लिंटन है.

महत्त्वाकांक्षी बिल क्लिंटन राजनीति की तरफ मुड़े तो हिलेरी ने उन्हें पर्याप्त प्रोत्साहन और सहयोग दिया. जब मोनिका लेविंस्की से बिल क्लिंटन के नाजायज संबंध उजागर हुए तब भी वे पति के साथ खड़ी रहीं.

डैमोक्रेटिक पार्टी दुनिया की सब से पुरानी पार्टी है जिस का गठन साल 1828 में हुआ था. इस पार्टी ने अब तक 15 राष्ट्रपति दिए हैं जिन में जौन एफ कैनेडी के अलावा जिम्मी कार्टर, बिल क्लिंटन, जौर्ज बुश और फ्रेंकलिन रूजवेल्ट के नाम उल्लेखनीय हैं. यह पार्टी मध्यवर्गीय अमेरिकियों में गहरी पैठ रखती है क्योंकि इस का एजेंडा सामाजिक न्याय और उदारता है. वाम झुकाव वाले इस दल का प्रवासियों में भी खासा प्रभाव है. मौजूदा चुनाव के तमाम सर्वे बता रहे हैं कि 93 फीसदी अश्वेत मतदाताओं का झुकाव डैमोक्रेटिक पार्टी की तरफ है और इस की एक बड़ी वजह बराक ओबामा भी हैं जो खुल कर हिलेरी क्लिंटन का प्रचार कर रहे हैं.

डैमोक्रेटिक पार्टी का रंग नीला और चुनाव चिह्न गधा है. भारत के साथ संबंधों की जो शुरुआत जौन एफ कैनेडी ने की थी वह बराक ओबामा तक न केवल कायम रही बल्कि अमेरिका का झुकाव भारत की तरफ और बढ़ा, कहना न होगा कि इस की एक बड़ी वजह भारत का बाजार है जिस के बारे में हर कोई मानने लगा है कि माल कहीं भी बने, ग्राहक तो भारत में ही मिलेंगे.

उलट इस के, 18 राष्ट्रपति देने वाली रिपब्लिकन पार्टी, जिस ने अब्राहम लिंकन के रूप में अमेरिका को पहला राष्ट्रपति दिया था, की विचारधारा सामाजिक मसलों पर संकीर्ण रही है. यह पार्टी हथियारों की पक्षधर है और चीन व भारत से आउटसोर्सिंग की विरोधी है. पेशे से रियल एस्टेट व्यवसायी डोनाल्ड ट्रंप एक हद तक पार्टी की गाइडलाइन से हट कर भारत के प्रति झुकाव दिखा रहे हैं तो इस की बड़ी वजह अमेरिका में रह रहे भारतीय मूल के लगभग 40 लाख लोग हैं, जिन में से

10 लाख को वोट देने का अधिकार है. अब रिपब्लिकन पार्टी भी मानने लगी है कि पाकिस्तान के मुकाबले भारत कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक मित्र साबित हो सकता है. रिपब्लिकन पार्टी पर कारोबारियों की पार्टी होने का ठप्पा लगा है.

भूमिका हिलेरी की

स्वभाव से नम्र हिलेरी क्लिंटन पर डोनाल्ड ट्रंप कम भारी नहीं पड़ रहे जिन के बारे में कहा जाता है कि वे विदेशी नीति के बारे में खास कुछ नहीं जानते और आर्थिक नीतियों पर मतदाता से कह रहे हैं कि चिंता मत करो, मुझे जिताओ और बेफिक्र हो जाओ. मेरे राष्ट्रपति बनते ही चीन सुधर जाएगा और दोस्त बन जाएगा.

3 शादियां कर चुके डोनाल्ड की छवि मुंहफट नेता की है. इस के बाद भी वे हिलेरी के बराबर ही लोकप्रिय हैं और प्रभावी भी हैं. उन्हें एक बड़ी उम्मीद डैमोक्रेटिक सरकार से वोटर की ऊब है जिस के चलते मतदाता सत्ता परिवर्तन की बात सोच सकते हैं. यह बात एक सर्वे में जाहिर हो चुकी है कि मतदाता असमंजस में हैं कि लगातार तीसरी बार डैमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार को जिताएं या नहीं.

चुनावप्रचार में चूंकि नीतियोंरीतियों पर कम, व्यक्तित्व पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है तो आरोपप्रत्यारोप भी खूब लग रहे हैं. ट्रंप और हिलेरी एकदूसरे पर व्यक्तिगत हमले करने से चूक नहीं रहे और इस लड़ाई में भी दोनों बराबरी पर हैं. ट्रंप हिलेरी को विश्वस्तरीय झूठी बताते रहे हैं और साथ ही, यह भी कह रहे हैं कि वे अपने पति बिल क्लिंटन द्वारा शोषित महिलाओं को बरबाद करने वाली हैं.

वाकयुद्ध में माहिर हिलेरी को दरअसल अपनी भूमिका तय करने में परेशानी पेश आ रही है. हालांकि विश्लेषकों की राय में उन की स्थिति तमाम उतारचढ़ावों के बाद भी बेहतर है. पर ऐन वक्त पर क्या कुछ हो जाए, कहा नहीं जा सकता और यही अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की खूबी है. युवा मतदाता इन दोनों से ही निराश हैं क्योंकि ट्रंप 70 के और हिलेरी 68 साल की हैं. साल 2008 में बराक ओबामा को चुने जाने की एक अहम वजह उन की कम उम्र (तब 54 साल) भी थी.

अप्रिय अनुभव

चुनाव प्रणाली के अंतर के अलावा भारतीय और अमेरिकी चुनाव में कोई खास फर्क अब नहीं रह गया है. हिलेरी क्लिंटन के महिला होने को भारतीय पृष्ठभूमि से देखें तो अगर वे राष्ट्रपति बनीं तो लगता नहीं कि कोई चमत्कार कर पाएंगी या गुल खिला पाएंगी.

भारत में अमेरिका के मुकाबले महिला नेताओं की बड़ी फौज है. देश की पहली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी लोकप्रिय जरूर थीं पर सफल नहीं कही जा सकतीं जिन्हें राजनीति विरासत में और पद बैठेबिठाए मिल गए थे. पंडित जवाहरलाल नेहरू की इस इकलौती वारिस को अब महज आपातकाल लगाने की वजह से याद किया जाता है. वे अच्छा भाषण देती थीं पर भारत को समझने में नाकाम रही थीं. मूलतया इंदिरा गांधी आंशिक तानाशाह भी थीं. 1975 में लगाई गई इमरजैंसी उन की हताशा और कुंठा की देन थी.

एक वक्त में उन के नाम पर वोट झड़ते थे लेकिन मतदाताओं की उम्मीदों पर वे कभी खरी नहीं उतर पाईं. उन का ‘गरीबी हटाओ’ का नारा नरेंद्र मोदी के डिजिटल इंडिया सरीखा ही लोकप्रिय हुआ था. लेकिन गरीबी नहीं हटी. 70 के दशक में इंदिरा गांधी की निरंकुशता को ले कर देश के चिंतक और बुद्धिजीवी हैरान थे लेकिन कर कुछ नहीं सकते थे क्योंकि इंदिरा गांधी सबकुछ अपने हाथ में रखती थीं, सत्ता भी और संगठन भी. चंद चाटुकारों से घिरी इंदिरा का दबदबा तोड़ने के लिए जयप्रकाश नारायण ने पहल की और देशभर में उन के खिलाफ अभियान छेड़ दिया.

युवाओं को जयप्रकाश नारायण यह बताने में कामयाब रहे कि इंदिरा गांधी देश के लिए कर कुछ नहीं रही हैं. उलटे, अपनी जिद व अहं के चलते उसे गर्त में ले जा रही हैं. तमाम विरोधी दलों को इकट्ठा कर उन्होंने जनता पार्टी बनाई तो 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस के चिथड़े उड़ गए थे. ऐसा लगने लगा था कि कांग्रेस अब खत्म हो गई. लेकिन विभिन्न मतों और विचारधाराओं वाले दल ज्यादा दिन एकजुट नहीं रह पाए और जल्द ही जनता पार्टी कई हिस्सों में बंट गई. इस का फायदा कांग्रेस को मिला और 1980 में इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बनीं.

यह वह दौर था जब इंदिरा भक्त कांग्रेसी ‘इंदिरा इज इंडिया’ और ‘इंडिया इज इंदिरा’ का नारा लगाने लगे थे. खुशामद और चाटुकारिता की आदी हो गईं इंदिरा गांधी एक बार जो शोबाजी का शिकार हुईं तो फिर उस से उबर नहीं पाईं.

उन की बहू सोनिया गांधी चाहतीं तो प्रधानमंत्री बन सकती थीं पर नहीं बनीं क्योंकि उन के विदेशी होने का घोर विरोध था. भाजपा की 2 महिला नेता सुषमा स्वराज और उमा भारती, जो वर्तमान में मंत्री हैं, ने तो तिलमिलाते हुए ऐलान कर डाला था कि अगर सोनिया प्रधानमंत्री बनीं तो वे सिर मुंडा लेंगी और पूरी जिंदगी जमीन पर सोएंगी. इस विरोध से सोनिया नहीं घबराई थीं. हकीकत में वे सीधे देश की जिम्मेदारी लेने से डर गई थीं, इसलिए सीधेसादे मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना डाला. 10 साल सोनिया ने मनमोहन सिंह के कंधे पर रख कर बंदूक चलाई और खूब घोटाले इस दौरान परवान चढ़े. चूंकि कांग्रेस हमेशा ही नेहरूगांधी परिवार की मुहताज रही है, इसलिए सोनिया गांधी बड़ी मानमनौव्वल के बाद राजनीति में आई थीं और जब आईं तो सास की तरह पार्टी को अपनी मुट्ठी में बंद रखा यानी जिस ने विरोध किया या किसी गलत बात पर एतराज जताया, उसे चलता कर देने में उन्होंने देर नहीं की.

सोनिया गांधी के अप्रत्यक्ष सत्ता में रहते कांग्रेस किस और कितनी दुर्गति का शिकार हुई, यह बात अब किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई है. नरेंद्र मोदी अगर प्रधानमंत्री बने तो इस बाबत उन्हें बजाय सोनिया गांधी को कोसने के, उन का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने जनता को इतना त्रस्त कर डाला था कि उस ने भगवा ब्रिगेड की दूसरी पंक्ति के नेता को प्रधानमंत्री बनाना मंजूर कर लिया.

कांग्रेस से अलग हो कर अपनी खुद की पार्टी तृणमूल कांग्रेस बना लेने वाली ममता बनर्जी ने दोबारा बंगाल फतह जरूर कर लिया है पर वे भी कोई गुल नहीं खिला पाई हैं. सारदा घोटाला जैसा विवाद उन के कैरियर पर एक ब्लैक सर्टिफिकेट की तरह चिपक गया है. वामपंथियों का गढ़ तोड़ने वाली ममता बनर्जी को अब समझ नहीं आ रहा कि क्या करें, राज्य की समस्याएं ज्यों की त्यों हैं. वहां की कानून व्यवस्था चरमराई हुई है और टीएमसी के नेता भी कांग्रेसियों व भाजपाइयों की तरह बेलगाम हो चले हैं.

ममता दिखने में साधारण हैं और सादगी पसंद हैं लेकिन अपने गुस्से और जबान को काबू में रख पाने का हुनर उन में नहीं है. लोकप्रियता और सफलता में बड़ा फर्क होता है, लोकप्रियता ममता ने भी भुनाई और उन्हें बिखरे विपक्ष का फायदा भी मिला लेकिन इस से आम लोगों का कोई भला नहीं हुआ. जिस पश्चिम बंगाल में नक्सलियों के खौफ के चलते भ्रष्टाचार कभीकभार सुनने में आता था, वह अब वहां रोजमर्रा की बात हो चला है.

तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता फिर सत्ता में हैं तो उन गरीबों की वजह से जो उन के पिछले कार्यकाल में भी गरीब थे. अपने जमाने की ये लोकप्रिय अभिनेत्री सलीके से सरकार चलाने से ज्यादा साडि़यों और गहनों के शौक के कारण जानी जाती हैं. तमिलनाडु में पसरा जातिवाद, भेदभाव और छुआछूत किसी सुबूत के मुहताज नहीं पर जयललिता को इन समस्याओं से कोई वास्ता नहीं है. भूखे लोग चिल्लाएं नहीं, इस के लिए वे सस्ते खाने वाली कैंटीन खोल कर समय गुजार रही हैं.

भ्रष्टाचार के कुछ मामलों से घिरीं जयललिता में भी कुछ कर गुजरने का जज्बा नहीं है. वे भी महज भाषणबाजी के दम पर टिकी हैं. मुमकिन है अगली दफा जनता उन्हें चलता कर दे. इस से साबित यही होगा कि महिला नेता कोई खास करिश्मा नहीं कर पातीं जबकि जनता उन्हें हाथोंहाथ लेती है.

शीला दीक्षित ने 15 साल दिल्ली पर राज किया पर जब पिछले चुनाव में जनता ने उन का मूल्यांकन किया तो उन्हें एकएक वोट के लिए तरसा दिया. हैरानी की बात है कि नई दिल्ली सीट से बुरी तरह मुंह की खा चुकीं शीला दीक्षित को कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की भावी मुख्यमंत्री के तौर पर पेश कर दिया है.

क्या है फर्क

अमेरिका और भारत की राजनीति बहुत भिन्न नहीं रह गई है. अमेरिका में भी विज्ञापनबाजी है, भ्रष्टाचार के आरोप हैं, धार्मिक आस्था पर कटाक्ष है, तूतड़ाक है और इस माहौल में हिलेरी क्लिंटन प्रतिद्वंद्वी डोनाल्ड ट्रंप पर उसी तरह के ताने कस रही हैं जैसे सोनिया गांधी और ममता बनर्जी यहां नरेंद्र मोदी पर कसती रहती हैं.

मसलन, हिलेरी कहती हैं कि इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन की तारीफ करने वाले डोनाल्ड ट्रंप अगर राष्ट्रपति बने तो कितना बड़ा खतरा साबित होंगे और ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर आने का स्वागत कर रहे हैं तो व्हाइट हाऊस जाने के काबिल ही नहीं है. वहीं, शुरुआती प्रचार में ट्रंप ने हिलेरी के धर्म पर सवाल उठाया तो उसे भी मुद्दा बनाने में हिलेरी चूकी नहीं थीं.

यह राजनीतिक विवशता हो सकती है पर इसे नेतृत्व क्षमता या गुण नहीं कहा जा सकता. हिलेरी अगर जीतीं तो अमेरिका की शक्ल नहीं बदल देंगी क्योंकि वे भी एक मजबूरी की देन होंगी. जब नेताओं के व्यक्तित्व विचारधाराओं पर हावी हो जाते हैं तो मतदाता भी भ्रमित हो जाता है. भारत की तरह अमेरिका में भी यही हो रहा है.

विवादित ईमेल प्रकरण हिलेरी पर भारी पड़ रहा है जिस के चलते अधिकांश मतदाता उन्हें भरोसेमंद नहीं मानते.

ईमेल मामले में ही जांच में यह बात साफ हो गई है कि विदेश मंत्री रहते उन्होंने निजी सर्वर का इस्तेमाल करते न केवल देश की सुरक्षा को खतरे में डाला

बल्कि एक जिम्मेदार पद पर रहते गैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाया. जांच एजेंसी एफबीआई की लिस्ट में हिलेरी का नाम आते ही उन की लोकप्रियता में गिरावट दर्ज की गई थी. जुलाई के तीसरे हफ्ते के एक सर्वे में दोनों उम्मीदवारों को कम से कम 40-40 फीसदी मतदाताओं का समर्थन हासिल था.

फर्क सिर्फ इतना भर है कि पहली दफा कोई महिला प्रत्याशी सब से ताकतवर देश के राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार है. हिलेरी क्लिंटन के प्रचार का तरीका बता रहा है कि वे अगर व्हाइट हाउस गईं तो विकासशील देशों के दोहन का सिलसिला जारी रखेंगी. और जोजो बराक ओबामा छोड़ कर जा रहे हैं उसे बनाए रखेंगी. और अगर वे हारीं तो भी उन का कुछ खास नहीं बिगड़ना. हार कर भी वे रिकौर्ड ही बनाएंगी और साबित

यह होगा कि एक कुशल प्रशासक की छवि मतदाताओं को नहीं दिखी.

बैसाखी के सहारे राजनीतिक कैरियर                                 

जिस तरह भारतीय परिवार और समाज की संरचना के मुताबिक महिलाएं पुरुषों की बैसाखी के बिना एक कदम भी नहीं चल सकतीं, उन के निर्णय को अपना फैसला मानती हैं, ठीक उसी तरह भारतीय राजनीति में ज्यादातर महिला राजनेता या तो पारिवारिक पुरुष नेता की बदौलत किसी सियासी मुकाम पर पहुंची हैं या फिर उन की कामयाबी के पीछे कोई न कोई राजनीतिक शख्सीयत रही है. कहने का मतलब यह है कि हमारे यहां ऐसी महिला राजनेता कम हैं जो अपने दम पर, जमीन से संघर्ष कर राजनीति के किसी मुकाम पर पहुंची हैं. अगर महिलाएं राजनीति में आगे आती भी हैं तो इस के पीछे किसी न किसी पुरुष का हाथ होता है वरना अपने बलबूते पर समाज या सियासत में ऊपर आना उन के लिए संभव नहीं हो पाता.

 बसपा सुप्रीमो मायावती की कामयाबी के पीछे जहां कांशीराम का हाथ रहा, वहीं तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का पौलिटिकल कैरियर भी उस दौर के मशहूर अभिनता और राजनेता एम जी रामचंद्रन की बैसाखी के सहारे आगे बढ़ा. हिलेरी क्लिंटन जहां पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हैं वहीं डिंपल यादव की कामयाबी के पीछे सपा प्रमुख व ससुर मुलायम सिंह यादव और उत्तर प्रदेश के सीएम अखिलेश यादव का सहारा है. यादव परिवार में ऐसी आधा दर्जन महिला नेता हैं. इसी तरह दिवंगत अभिनेता सुनील दत्त के नाम का सहारा ले कर उन की पुत्री प्रिया दत्त सियासत में आईं तो इंदिरा गांधी के पीछे नेहरू परिवार की बैसाखी थी. बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी, जिन्हें रबर स्टांप भी कहा जाता था, लालू की छाया

से कभी बाहर न आ सकीं. इसी तरह लालू की बेटी मीसा भारती भी लालू के नाम पर सियासी कैरियर स्टार्ट कर चुकी हैं. फिलहाल सोनिया गांधी, मेनका गांधी, मीरा कुमार, सुप्रिया सुले, वसुंधरा राजे आदि जितनी भी महिलाएं राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय हैं,  उन्हें यह या तो विरासत में मिली है या फिर उन के राजनीतिक कैरियर में किसी न किसी पुरुष का हाथ रहा है. 

दुनियाभर की जिन महिला राजनीतिक हस्तियों को आज कद्दावर नेता माना जाता है उन के पीछे भी सियासी विरासत का पेंच काम करता रहा है. मसलन, पाकिस्तान की पहली महिला प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो को अपने पिता और देश के पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो से राजनीति विरासत में मिली थी. जबकि बंगलादेश की वर्तमान प्रधानमंत्री शेख हसीना के पिता शेख मुजीबुर्रहमान को बंगलादेश का संस्थापक माना जाता है. श्रीलंका की सिरिमाओ भंडारनायके विश्व की पहली महिला प्रधानमंत्री जरूर थीं लेकिन उन्होंने भी अपने पति और पूर्व प्रधानमंत्री सोलोमन भंडारनायके की विरासत को ही आगे बढ़ाया. इंडोनेशिया की पहली महिला राष्ट्रपति मेगावती सुकर्णोपुत्री के पिता सुकर्णो देश के पहले राष्ट्रपति थे. जबकि खालिदा जिया बंगलादेश की प्रधानमंत्री बनने वाली पहली महिला नेता थीं. खालिदा को राजनीति पारिवारिक विरासत के तौर पर मिली थी.

आंकड़ों में बदहाल महिला राजनीति

वीमेन इन लीडरशिप वैबसाइट के आंकड़े बताते हैं कि फिलहाल विश्व में केवल 24 महिला नेता हैं. यह हाल तब है जब इन में ब्रिटेन की महारानी व डेनमार्क की रानी को भी शुमार किया गया है. अगर भारत की बात करें तो 1991 में लोकसभा में 8.04 प्रतिशत महिलाएं थीं और 2004 में यह संख्या थोड़ी बढ़ कर 8.3 प्रतिशत हो गई. ये आंकडें़ सुबूत हैं इस बात के कि एक दशक से भी ज्यादा वक्त में राजनीति में महिलाओं की जर्जर हालत सुधर नहीं सकी.

वैसे तो कई महिलाएं राजनीति में हैं लेकिन ज्यादातर महिलाएं अहम पदों के बजाय दोयम दरजे के पद संभालती हैं. हमारे यहां हमेशा से ही सियासत में पुरुषों का वर्चस्व रहा है. भले ही महानगरों और मल्टीनैशनल व कौर्पोरेट जगत में महिलाएं ऊंचे ओहदे संभालने लगी हों लेकिन गरीबी, शिक्षा में कमी या फिर पिछड़े समाज की वजह से इन्हें मुख्यधारा की राजनीति में आने का मौका नहीं मिला है.

सितंबर 1996 में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण को ले कर एक बिल का प्रस्ताव रखा गया लेकिन उस के बाद किसी भी सियासी दल ने  इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की. यहां तक कि कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्य, जो अपेक्षाकृत विकसित और संपन्न माने जाते हैं, से आने वाली महिला राजनेताओं का आंकड़ा भी दयनीय है, जबकि उत्तर प्रदेश या बिहार में उन की संख्या कहीं ज्यादा है.

पिछले साल की इंटर पार्लियामैंट्री यूनियन यानी आईपीयू की रिपोर्ट में देखा गया कि दुनिया के किन देशों में महिलाओं की सियासी भागीदारी कैसी है. इस मोरचे पर भारत को 103वें नंबर पर रखा गया. इस सूची में पहले 10 नंबर पर रवांडा, बोलिविया, अंडोरा, क्यूबा, सेशेल्स, स्वीडन, सेनेगल, फिनलैंड, इक्वाडोर व दक्षिण अफ्रीका जैसे देश थे. तब भी और आज भी सीरिया, नाइजीरिया, बंगलादेश, नेपाल व पाकिस्तान के अलावा चीन व सिएरा लियोन जैसे देश इस मामले में भारत से आगे हैं. कई यूरोपीय देश भी ऐसे हैं जहां कोई महिला प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति नहीं रही. इन में स्पेन, इटली, स्वीडन और हौलैंड के नाम सहसा ध्यान में आते हैं.

महिला नेताओं की सैक्स अपील अजूबा क्यों?

बंगाल की मशहूर अभिनेत्री रूपा गांगुली ने जब सियासी मैदान में उतरते हुए बीजेपी जौइन की तो उन को ले कर तरहतरह की टिप्पणियां सुनने को मिलीं लेकिन सब से ओछी अभिव्यक्ति खुद को स्वतंत्र फिल्मकार मानने वाले पार्थदास गुप्ता की थी. टिप्पणी कुछ यों थी, ‘‘इस उम्र में भी उन की कमर और नाभि का हिस्सा किसी भी पुरुष की कामेच्छा जगाने व दूसरी महिलाओं के उन से ईर्ष्या करने का कारण है.’’

ऐसा क्यों है कि हम महिला राजनेताओं को खूबसूरत और ग्लैमरस देखते ही मर्यादा की तमाम सीमाएं लांघने लगते हैं. अगर वह सिनेमा, कौर्पोरेट जगत, मौडलिंग या एयरहोस्टैस जैसे क्षेत्र में है तो हमें कोई एतराज नहीं, लेकिन जैसे ही कोई महिला राजनीति में ग्लैमरस अवतार में नजर आती है तो उस की काबिलीयत, संघर्ष और मेहनत उस की फिगर, सैक्सी इमेज और क्लीवेज की नीचे दम क्यों तोड़ने लगती है. जब हर क्षेत्र में महिलाओं की देह की सुंदरता को तरजीह दी जाती है तो फिर राजनीति के मैदान में यह भेदभाव क्यों? अभी ज्यादा दिन नहीं  हुए जब असम की नवनिर्वाचित विधायक अंगूर लता डेका की खूबसूरती और पुराने फोटोशूट को ले कर खूब तंज कसे गए.

राजनीति में भला सैक्स अपील क्यों अजूबा सरीखी मानी जाती है. क्या भारतीय समाज में अभी भी महिला एक देह से इतर कुछ नहीं हैं. अभिनेत्री से नेता बनीं हेमा मालिनी के गालों की तुलना चिकनी सड़क से करने वाले लालू प्रसाद यादव हों या फिर महिला नेताओं के पहनावे की तुलना रैंप वाक सा करने वाले अन्य नेता, सब औरत को उस के काम से नहीं, सौंदर्य से ही संबोधित करते हैं. कुछ अरसा पहले एक नेता ने टिप्पणी की कि ये काम करने कहां आती हैं, ये तो मानो रैंप वाक करने आई हों. अभिनेत्री जयाप्रदा हों या गुल पनाग, सब को ले कर पुरुषों के कुछ ऐसे ही पूर्वाग्रह देखने को मिलते हैं.

प्रभावशाली महिला नेता

मारग्रेट थैचर : मारग्रेट थैचर बिटिश राजनीतिज्ञ थीं, जो 20वीं शताब्दी में सब से लंबी अवधि यानी 1979 से 1990 तक यूनाइटेड किंगडम की प्रधानमंत्री रही थीं. मारग्रेट एकमात्र महिला थीं जिन्होंने यह कार्यभार संभाला. 13 अक्तूबर, 1925 को जन्मीं मारग्रेट का निधन  8 अप्रैल, 2013 को हो गया.

एंजेला मार्केल : 60 वर्षीय एंजेला मार्केल दुनिया की सब से ताकतवर महिला में शुमार की जाती हैं. एंजेला  2005 से जरमनी की चांसलर हैं. वे जरमनी की पहली महिला चांसलर हैं. 17 जुलाई, 1954 को हैम्बर्ग में पैदा हुई मार्केल रिसर्च साइंटिस्ट हैं. उन्होंने 1990 में क्रिश्चियन डैमोक्रेटिक यूनियन में शामिल हो कर अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत की थी.

डिलमा रोसेफ : ब्राजील की राष्ट्रपति डिलमा रोसेफ इस पद पर पहुंचने वाली पहली महिला हैं. ब्राजील में आयरन लेडी के नाम से मशहूर डिलमा का जन्म 14 दिसंबर, 1947 को हुआ. रोसेफ ने आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों की सामाजिक सुरक्षा को मजबूती प्रदान करने के लिए सामाजिक सुरक्षा खर्च 10 प्रतिशत बढ़ाया. इस से ब्राजील के 3.60 करोड़ लोगों को फायदा हुआ.

आंग सान सू की : 19 जून, 1945 को रंगून में पैदा हुई आंग सान लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई प्रधानमंत्री, प्रमुख विपक्षी नेता और म्यांमार की नैशनल लीग फौर डैमोक्रेसी की नेता हैं. उन्हें 1990 में राफ्तो पुरस्कार व विचारों की स्वतंत्रता के लिए सखारोव पुरस्कार से नवाजा गया. आंग सान ने अपने संघर्ष के दौरान कई साल जेल में गुजारे.

शेख हसीना : बंगलादेश की वर्तमान प्रधानमंत्री शेख हसीना बंगलादेश अवामी लीग की नेता हैं. पिता शेख मुजीबुर्रहमान को बंगलादेश का संस्थापक माना जाता है. 28  सितंबर, 1947 में जन्मीं शेख हसीना ने 1996 में चुनाव जीता और कई वर्षों तक देश का शासन चलाया. उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा.

सिरिमाओ भंडारनायके : 20 जुलाई, 1960 को दुनिया में पहली बार एक महिला को किसी देश की प्रधानमंत्री बनते देखा गया और वे श्रीलंका की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं सिरिमाओ भंडारनायके. श्रीलंका की सिरिमाओ भंडारनायके विश्व की पहली महिला प्रधानमंत्री तो थीं ही, साथ में उन्होंने अपने पति और पूर्व प्रधानमंत्री सोलोमन भंडारनायके की विरासत को भी आगे बढाया.

बेनजीर भुट्टो : बेनजीर भुट्टो 2 बार पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रह चुकी हैं. पहली दफा 1988 में वे पाकिस्तान की 12वीं प्रधानमंत्री बनीं और दूसरी बार 1993 में उन्होंने यह पद संभाला. रावलपिंडी में एक राजनीतिक रैली के दौरान उन की हत्या कर दी गई. बेनजीर भुट्टो किसी भी मुसलिम देश की पहली महिला प्रधानमंत्री तथा 2 बार चुनी जाने वाली पाकिस्तान की पहली प्रधानमंत्री थीं.

पार्क ग्युन : दक्षिण कोरिया की राष्ट्रपति पार्क ग्युन को दक्षिण कोरिया के इतिहास की सब से प्रभावशाली और शक्तिशाली महिला नेताओं में शुमार किया जाता है. दक्षिण कोरिया की वे पहली महिला राजनेता हैं जिन्हें राष्ट्रपति चुना गया. वे कंजर्वेटिव ग्रांड नैशनल पार्टी की चेयर वीमेन भी रह चुकी हैं.

इजाबेल पेरोन : 1974 में  दुनिया की पहली महिला राष्ट्रपति के रूप में अर्जेंटीना की इजाबेल पेरोन ने एक इतिहास रच डाला. इजाबेल अर्जेंटीना के पूर्व राष्ट्रपति की तीसरी पत्नी थीं. अपने पति के राष्ट्रपति काल के दौरान इजाबेल ने वाइस प्रैसिडैंट और फर्स्ट लेडी दोनों ही पोजीशन को बखूबी संभाला. पति की मौत के बाद उन्होंने 1 जुलाई, 1974 से 24 मार्च, 1976  तक राष्ट्रपति पद संभाला.

विद्या देवी भंडारी : 54 वर्षीय विद्या देवी भंडारी नेपाल में राजशाही खत्म होने के बाद लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई दूसरी राष्ट्रपति हैं. साथ ही नेपाल की प्रथम महिला राष्ट्रपति होने का गौरव भी इन्हें हासिल है. वे नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी की उपाध्यक्ष भी हैं. ये नेपाल रक्षा मंत्रालय में पूर्व रक्षा मंत्री भी रह चुकी हैं. उन के पति मदन भंडारी विख्यात कम्युनिस्ट नेता थे. 

– साथ में राजेश कुमार

मेरे चेहरे पर बहुत डार्क स्पौट्स हैं और सनबर्न के निशान भी हैं. कोई उपाय बताएं.

सवाल

मैं 40 वर्षीय महिला हूं. मेरे चेहरे पर बहुत डार्क स्पौट्स हैं और सनबर्न के निशान भी हैं. इन से छुटकारा पाने के लिए मैं ने कई महंगेमहंगे उपचार करा लिए, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ. ऐसा कोई उपाय बताएं, जिस से मेरे चेहरे के डार्क स्पौट्स खत्म हो जाएं और चेहरा बेदाग हो जाए?

जवाब

चेहरे की त्वचा को सनबर्न से बचाने के लिए घर से बाहर निकलते समय सनस्क्रीन का प्रयोग करना न भूलें, साथ ही चेहरे को सूर्य की हानिकारक किरणों से बचाने के लिए छाते या स्कार्फ का प्रयोग करें.

जहां तक चेहरे के डार्क स्पौट्स को हटाने की बात है, तो आप नीबू के रस को रुई में भिगो कर डार्क स्पौट्स पर लगाएं. सूखने पर धो लें. नीबू में मौजूद ब्लीचिंग एजेंट चेहरे के डार्क स्पौट्स को हलका करने में मदद करेगा. इस के अलावा दही में नीबू का रस मिला कर भी सनबर्न वाले स्थान पर लगाएं. दही में मौजूद लैक्टिक ऐसिड त्वचा को ठंडक देने के साथसाथ उसे बेदाग बनाने में भी मदद करेगा.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

और बेहतर हुआ पोकेमॉन गो

सारी दुनिया में पोकेमॉन का जादु छाया हुआ है, लोगों को इसे खेलने में मजा आ रहा है, वो पैदल चलना सीख गए हैं इसे खेलने की फिराक में. हाल ही में पोकेमॉन को अपडेट किया गया है गेमर के फोन की बैट्री भी कम खर्च होगी और उसे कई नए फीचर्स भी मिलेंगे.

क्‍या आप जानना चाहते हैं कि पोकेमॉन में क्‍या-क्‍या नए फीचर्स आएं हैं और उनसे आपको क्‍या फायदा होगा.

पोकेमॉन आपके नजदीक है या नहीं जान सकते हैं

अब आप जान पाएंगे कि आपके पास नजदीक में ही कोई पोकेमॉन है या नहीं.

डुप्‍लीकेट के बारे में चिंता न करें

आप सिर्फ पोकेमॉन को पकड़ने पर अपना ध्‍यान लगाएं. बाकी के डुप्‍लीकेट को खुद एप ही हैंडल कर लेगा.

बैट्री सेविंग
पोकेमॉन खेलने वालों को सबसे बड़ी दिक्‍कत थी कि उनकी डिवाइस की बैट्री खत्‍म हो जाती है. ऐसे में इस गेम में बैट्री सेवर मोड आया है.

बदलें यूजरनेम

आप इस गेम में एक बार अपना यूजरनेम बदल सकते हैं.

कर्वबॉल की एक्‍यूरेसी सुधरी

इस गेम में कर्वबॉल की एक्‍यूरेसी काफी सुधर गई है.

रिवॉर्ड

अब इस गेम से बग आदि को हटा दिया गया है. आप गेम को खेलते हुए रिवॉर्ड अर्न कर सकते हैं. बेकार, उम्‍दा, बेहतरीन आदि को प्राप्‍त किया जा सकता है.

शान पर न पड़े कहीं नुकसान भारी

अमीरों के बच्चों के हाथों बड़ी तेज पावरफुल गाडि़यों से निर्दोषों की हत्याओं के मामले बढ़ रहे हैं. अब किस्तों में मर्सिडीज, औडी, जगुआर काफी आसानी से मिलने लगी हैं और नए पैसे वालों के बच्चे इन का मोह छोड़ नहीं पाते और इन्हें सैरसपाटे के लिए निकाल इन की पूरी पावर टैस्ट करने में लग जाते हैं.

हमारे देश में जहां रोड सैंस बिलकुल नहीं, तेज दौड़ती गाड़ी खाली सड़क पर भी खतरा है, क्योंकि कब कहां से कौन बिना देखे रुके निकल जाए, पता नहीं.‘जौली एलएलबी’ में युवा बेटे के हाथों पटरी पर हुई मौत के से मुकदमे देश भर की अदालतों में चल रहे हैं. राजस्थान में सीकर के विधायक के बेटे ने जयपुर में 3 को बीएमडब्लू से मार डाला. अब वह 1-2 माह जरूर जेल में रहे, पर शानशौकत से मानो बैंगलुरु के जिंदल के स्वास्थ्य केंद्र में आया हो और फिर घर लौट जाएगा.

इस देश में बड़ी गाडि़यां शान के लिए जरूरी हैं स्पीड के लिए नहीं, क्योंकि यहां की सड़कों पर अनुशासन का नामोनिशान नहीं है. सड़कों का प्रबंध करने वाले असल में बिगड़ैल बच्चों से भी ज्यादा बिगड़े हैं और उन्हें कोई दोष नहीं देता.

नई तकनीक के कारण सड़कों की बनावट तो ठीक हो गई है पर उन पर चलने वालों की नहीं. पढ़ेलिखे कार वाले, स्कूटर वाले, अनपढ़ औटोरिकशा वाले, साइकिल वाले सब सड़कों को बेघरों के शौच करने की जगह सा मानते हैं, जहां जो मरजी जैसा मरजी करा जा सके.

इन सड़कों पर वे बच्चे जिन के खून में उबाल हो, दिमाग में मांबाप के पैसे की गरमी हो और हाथ में पावरफुल गाड़ी हो, वे मिनटों में  आपे से बाहर हो जाते हैं. अगर साथ में शराब की बोतल, 2 गर्लफ्रैंड और 2 लड़के हों तो कहने ही क्या.

कानून इस में कुछ नहीं कर सकता. मातापिता भी बेबस से ही होते हैं. इकलौते बच्चे उन के पीछे क्या करते हैं, उस पर उन का जोर बहुत कम होता है. बच्चों के साथियों का प्रैशर इतना होता है कि मौजमस्ती एक वर्ग के लिए पिता की कमाई का सदुपयोग करने का अकेला तरीका बचा है.

यह जिम्मेदारी असल में मातापिता की ही है कि वे अपने बच्चों को अनुशासन में रखें वरना उन्हें ही नुकसान उठाना होगा. यह नुकसान उस शान से कहीं भारी होगा जिस पर वे इतरा रहे होते हैं. शान के लिए महंगे कपड़े खरीदें, बड़ा मकान बनवाएं, महंगी घड़ी दिलाएं, पर पावरफुल गाड़ी न दें. हो सके तो सरकार को 120 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से ज्यादा तेज चलने वाली गाडि़यां ही न बनने दे.                     

क्या सिद्धार्थ आनंद लौटाएंगे 35 करोड़ रुपये

‘‘सलाम नमस्ते’’, ता रा रम पम’’, ‘‘बचना ऐ हसीनो’’, ‘‘अनजाना अनजानी’’ फेम लेखक व निर्देशक सिद्धार्थ आनंद आज उस दिन को कोस रहे हैं, जिस दिन उन्होंने हृतिक रोशन के साथ फिल्म ‘‘बैंग बैंग’’ निर्देशित करने के अलावा संजय दत्त को लेकर एक्श्न फिल्म ‘‘बदला’’ निर्देशित करने की जिम्मेदारी स्वीकार की थी. जी हां! हृतिक रोशन अभिनीत फिल्म ‘‘बैंग बैंग’’ की असफलता के साथ ही सिद्धार्थ आनंद के सितारे भी गर्दिश में चले गए. ‘बैंग बैंग’ की असफलता के बाद सिद्धार्थ आनंद भी बेरोजगार हो गए थे. उन्होंने हृतिक रोशन के साथ अपनी दूसरी एक्शन फिल्म ‘रफ्तार’ को शुरू करने की बजाय बड़ी मुश्किल से एक निर्माता से बात करके संजय दत्त के साथ फिल्म ‘‘बदला’’ की योजना बनायी.

सूत्रों की माने तो जेल से सजा काटकर वापस आने से पहले ही सिद्धार्थ आनंद व संजय दत्त के बीच एक्शन फिल्म ‘‘बदला’’ को लेकर बातचीत हो गयी थी. तय यह हुआ था कि संजय दत्त फरवरी माह में जेल से बाहर आएंगे और अप्रैल माह से वह इस फिल्म की शूटिंग शुरू कर देंगें. सब कुछ तय हो जाने के बाद सिद्धार्थ आनंद ने सोचा था कि अभिनेता संजय दत्त के जेल से बाहर आते ही उनके सितारे भी चमक जाएंगे. सूत्रों का दावा है कि फिल्म ‘बदला’ के निर्माण के लिए निर्माता ने सिद्धार्थ आनंद को पैंतीस करोड़ रुपये भी दे दिए थे. पर जेल से बाहर निकलने के बाद भी संजय दत्त के सितारे नहीं चमके. और न ही सिद्धार्थ आनंद के  सितारे चमके. अंततः निर्माता के दबाव में सिद्धार्थ आनंद को मजबूरन ‘‘बदला’’ हमेशा के लिए बंद करने का ऐलान करना पड़ गया. पर सिद्धार्थ आनंद की मुसीबतें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही हैं. सूत्रों के अनुसार अब निर्माता ने सिद्धार्थ आनंद से कह दिया है कि उन्हें ‘बदला’ के निर्माण के लिए दिए गए 35 करोड़ रूपए वापस कर दें. मगर सिद्धार्थ आनंद इन पैंतीस करोड़ रूपए को वापस करने के लिए तैयार ही नहीं है.

इतना ही नहीं संजय दत्त के साथ वाली फिल्म ‘‘बदला’’ के बंद होने के बाद सिद्धार्थ आनंद ने एक बार फिर हृतिक रोशन पर दांव लगाने का निर्णय लेते हुए फिल्म ‘‘रफ्तार’’ पर काम शुरू किया. सिद्धार्थ आनंद फिल्म ‘‘रफ्तार’’ की शूटिंग नवंबर माह में शुरू करने का फैसला भी कर लिया. इस इस फिल्म के लिए सिद्धार्थ आनंद ने निर्माता की तलाश जोर शोर से शुरू की, पर कोई भी निर्माता हृतिक रोशन की इस फिल्म के साथ जुड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ. हर तरफ से निराश होने के बाद सिद्धार्थ आनंद ने सफल फिल्म ‘अनजाना अनजानी’ के निर्माता रहे साजिद नाड़ियादवाला से संपर्क किया, लेकिन अफसोस साजिद ने भी हृतिक का नाम सुनते ही इस फिल्म से जुड़ने से साफ इंकार कर दिया. सूत्रों के अनुसार साजिद नाड़ियादवाला का मानना है कि हृतिक रोशन के साथ ‘रफ्तार’ का बजट ज्यादा है, इतने बड़े बजट में वह हाथ नहीं डाल सकते.

‘‘बदला’’ और ‘‘रफ्तार’’ के बाद दोनों पर ग्रहण लगने के बाद अब सिद्धार्थ आनंद की समझ में नहीं आ रहा है कि वह क्या करें? मगर बौलीवुड में किसी को भी सिद्धार्थ आनंद से सहानुभूति नहीं है. बल्कि बौलीवुड के बिचौलिए तो सवाल उठा रहे हैं कि सिद्धार्थ आनंद यह कैसे भूल गए कि बौलीवुड में हर शुक्रवार को लोगों की किस्मत बदलती है और किस्मत बदलने के साथ ही सारे रिश्ते व दोस्त बदल जाते हैं…

सिद्धार्थ आनंद की परवरिश इसी फिल्मी माहौल में हुई है. सिद्धार्थ आनंद के पिता बिट्टू आनंद ने अमिताभ बच्चन के साथ फिल्म ‘‘शहंशाह’’ का निर्माण किया था. जबकि सिद्धार्थ आनंद के दादा यानी कि ग्रैंड फादर इंदर राज आनंद मशहूर फिल्म लेखक रहे हैं. इंदर राज आनंद ने ‘सफर’, ‘संगम’, ‘एक दूजे के लिए’ सहित 120 फिल्में लिखी थी. इतना ही नहीं वह मशहूर फिल्म अभिनेता व निर्देशक टीनू आनंद के भतीजे हैं. इसके बावजूद यदि सिद्धार्थ आनंद को बौलीवुड कार्यशैली समझ में नहीं आ रही है, तो फिर उन्हें कौन समझा सकता है? बौलीवुड में हमेशा से सफलता व सफल लोगों को ही सलाम किया जाता रहा है. असफल लोगों को बौलीवुड में लोग बहुत जल्दी भूल जाते हैं.

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