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जीवन सरिता: क्या पता कल हो न हो

रोजाना हम कई लोगों से मिलते हैं. कुछ से रिश्ते हमेशा के लिए जुड़ जाते हैं और कुछ से रिश्ते नहीं बन पाते. लेकिन क्या कभी आप खुद से मिले हैं, खुद को जाना है? अपनी पसंद, नापसंद को पहचाना है? कभी अपनी हंसी को जिया है? अपनी उदासी पर खुल कर कभी रोए हैं? क्या आप अब तक खुद को पहचान पाएं हैं? इन का जवाब शायद ‘न’ में ही होगा. दरअसल, आजकल की अतिव्यस्त जिंदगी में हमारे पास दूसरों के लिए तो छोडि़ए, खुद के लिए वक्त कम पड़ गया है. शायद वक्त है ही नहीं अपने लिए. जरूरतों को पूरा करतेकरते हमारा शरीर और दिलोदिमाग मशीन सा बन गया है. बस, हम करते जा रहे हैं अपनों के लिए और उन के भविष्य के लिए.

लेकिन हमारा आज हमारे हाथ से रेत की तरह फिसलता जा रहा है. हम, बस, जी रहे हैं रोबोट बन कर जबकि हम धरती पर आए थे इंसान बन कर. लेकिन यह जिंदगी है बाबू मोशाय, इसे जी लीजिए क्या पता कल हो न हो.

वक्त को करें मुट्ठी में कैद

रोज का वही औफिस, वही घर का काम, वही रूटीन. रोजाना की लाइफ से जरा हट कर देखिए. खुद को आईने में न जाने कब से नहीं निहारा आप ने? सोचिए, रोज बस तैयार होते हैं जल्दीजल्दी और रफूचक्कर हो जाते हैं. आज जरा खुद को ध्यान से देखिए, कैसे लगते हैं आप. क्या फर्क आया है आप में जनाब इन बीते सालों में. खुद के लिए कुछ तो कीजिए. बाहर निकलिए, बेपरवाह घूमिए, प्रकृति से मिलिए कभी. कब से पेड़पौधे आप से मिलने के इंतजार में बैठे हैं. देखिए, जरा इन पक्षियों को, कब से मुलाकात नहीं हुई है आप की इन से. ये सब वे चीजें हैं जो न केवल आप को मन से सुकून देंगी बल्कि दिलोदिमाग में ताजगी भर भी देंगी.

निकल जाइए नए सफर पर

घर व औफिस से छुट्टी लीजिए और निकल जाइए एक नए सफर पर. जहां भीड़ न हो, भागमभाग न हो, चारों ओर शांति पसरी हो, सिर्फ आप हों और सुहाना मौसम हो. जी लीजिए दिल खोल कर इन पलों को. हो सके तो कुछ दिनों के लिए फोन को भी बंद कर दीजिए. जब भी बाहर जाने का प्लान बने तो फेसबुक, व्हाट्सऐप बंद कर दीजिए. घूमने जा रहे हैं तो इस का मतलब यह कतई नहीं है कि आप लैपटौप भी साथ ले जा रहे हैं ताकि औफिस के जरूरी काम निबटाए जा सकें. इस से न तो आप एंजौय कर पाएंगे, न ही खुद को कभी पहचान पाएंगे. लिहाजा,  कुछ दिनों के लिए इन सब को बायबाय कर दीजिए.

मिलिए अपने दिल से

अपने दिल से बातें कीजिए, अपने मन की बातें सुनिए जिस की बातें अकसर हम दबाव में आ कर नकार देते हैं. अगर मन उदास है तो सोचिए क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ. इस में कहीं आप की गलती तो नहीं? अगर नहीं है, तो आप उदास क्यों है? क्या गम है जो आप को सता रहा है, अंदर ही अंदर खाए जा रहा है. इन सब बातों पर विचार कीजिए. आप को आप के सवालों का समाधान खुद ही मिल जाएगा.

कदमों से नाप लीजिए दुनिया

घूम आइए जहां दिल चाहता हो. देख आइए पूरी दुनिया. चाहे आप के पास किसी का साथ हो या न हो, अकेले ही सही. खुद के साथ मौज कीजिए. मन मलंग हो जाए कुछ इस तरह खुद के साथ वक्त बिताएं. इस से आप को खुद को पहचानने का मौका भी मिलेगा. जरूरी नहीं, जब कोई साथ हो तभी आप मस्ती कर पाएंगे. कभीकभी खुद के लिए भी कुछ करना पड़ता है. हर बार पैसे बचा कर भी आप को कुछ हासिल नहीं होगा. बचत में से कुछ पैसा निकालिए. दुनिया न सही, देश ही घूम आइए. आजकल टूर ऐंड ट्रैवल्स कंपनियां भी कम पैसों में आकर्षक टूर पैकेज उपलब्ध कराती हैं. न होटल की टैंशन है और न खाने की झिकझिक. बैग उठाइए और निकल जाइए तरोताजा होने.

प्रकृति की खूबसूरती को करें कैद

याद रखिए जब भी आप ऐसी किसी जगह जाते हैं जहां आप का मन करे कि इन तसवीरों को कैमरे में कैद कर लिया जाए तो अपने साथ कैमरा ले जाना न भूलें. अकसर हम जब एक जगह घूम आते हैं तो वापस वहां कम ही जाते हैं. लिहाजा, आप जहां भी जाएं वहां की तसवीरें कैमरे में जरूर उतार लीजिएगा ताकि अरसे बाद जब भी आप उस तसवीर को देखें तो आप का मन मयूरी हो जाए.

लिखिए अपने लिए

हर इंसान के पास शब्द होते हैं. कुछ समाज पर लिखते हैं, कुछ अपनी जिंदगी पर. अगर आप का बाहर घूमने का मन न हो तो एकांत में कौपीकलम ले कर बैठिए और लिखिए अपनी जिंदगी पर. हम यह नहीं कह रहे कि आप किताब लिख दीजिए. शायर बन जाइए. अपने लिए लिखें. अगर तनहाई का साथ हो और कौपीकलम हाथ में हो तो बड़े से बड़ा राइटर आप के सामने कुछ नहीं. एकदो बार? आप की कलम लड़खड़ाएगी, डगमगाएगी लेकिन थोड़े समय बाद उसी कलम की नोक बस चलती ही जाएगी.

बस आप और संगीत हों

एकांत में बैठ कर आप गाने सुन सकते हैं, जो आप को पसंद हों. जिन्हें काफी अरसे से आप ने सुना न हो. प्यारभरे गीत, जिन्हें सुन कर आप खो जाएं अलग दुनिया में, जिन्हें आप गुनगुनाए तनहाई में. कुछ ऐसे गानों का अच्छाखासा कलैक्शन अपने पास जरूर रखिए ताकि जब भी दिल करे या अकेले हों तो उन गानों के साथ आप कुछ पल बिता सकें. कभीकभी ही सही, लेकिन इन चीजों को आजमा कर जरूर देखिए. रूटीन से छुट्टी ले कर देखिए, पलभर की देर होगी, लेकिन आप की खुद से मुलाकात जरूर होगी.

रियो में साक्षी की जीत से बौखलाया पाकिस्तान, देखिए ये दो VIDEO

आतंकवाद का गढ़ और भारत जैसी दुनिया की सबसे मजबूती से बढ़ रही अर्थव्यवस्था को धमकाने वाले पड़ोसी देश पाकिस्तान के पास खेल और खिलाड़ियों के नाम पर कुछ नहीं है और यही कारण है कि 20 करोड़ की जनसंख्या वाले देश के मात्र 7 खिलाड़ी ही रियो ओलिंपिक खेलों के लिए क्वालिफाई कर पाए.

हालांकि रियो ओलिंपिक में पाकिस्तान को एंट्री नहीं मिल पायी. कहने का मतलब यह है कि रियो ओलिंपिक कमेटी ने ढेर सारी तकनीकि दिक्कतों के कारण पाकिस्तान को रियो ओलिंपिक से बाहर कर दिया. हालांकि पहले यह कहा जा रहा था कि पाकिस्तान के सात एथलीट रियो जायेंगे, लेकिन उन्हें भी वीजा नहीं मिला. पाकिस्तान के सात एथलीटों को वाइल्ड कार्ड एंट्री मिली थी लेकिन वीज़ा और कई तरह की तकनीकी दिक्कतों की वजह से एक भी खिलाड़ी रियो नहीं जा पाया.

धार्मिक कट्टरता, महिला एथलीटों के साथ भेदभाव, खेलों के लिए आधारभूत ढांचे की भारी कमी और खिलाड़ियों को प्रोत्साहन की कमी के कारण पाकिस्तान में खेलों का स्तर बेहद निचले स्तर पर चला गया है.

पाकिस्तान के ओलंपिक इतिहास में रियो ओलिंपिक इसलिए भी शर्मनाक साबित हुआ क्योंकि उसकी हॉकी टीम रियो ओलिंपिक के लिए क्वालीफाई ही नहीं कर सकी. यह पहली बार है, जब पाकिस्तानी हॉकी टीम ओलिंपिक में नहीं खेलेगी. पाकिस्तान ने आखिरी बार ओलिंपिक में पदक वर्ष 1992 के बार्सिलोना में जीता था, जब उसकी हॉकी टीम ने कांस्य पदक अपने नाम किया था.

ओलिंपिक इतिहास में पाकिस्तान के नाम कुल 10 पदक हैं जिनमें तीन स्वर्ण, तीन रजत और दो कांस्य सहित 8 पदक तो सिर्फ हॉकी में हैं. पाकिस्तान ने कुश्ती और मुक्केबाजी में एक एक कांस्य जीता है.

पाकिस्तान ने पिछले लंदन ओलिंपिक में 19 पुरुष और 2 महिलाओं सहित 21 खिलाड़ियों का दल चार खेलों में उतारा था. इसमें 16 सदस्य तो पुरुष हॉकी टीम के ही थे. इस बार हॉकी टीम के न होने के कारण पाकिस्तान के दल की संख्या 7 ही रह गई.

दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाले पहलवान इनाम बट ने मौजूदा स्थिति पर निराशा जताते हुए कहा कि हम दुनिया से बहुत पीछे रह गए हैं. हमारे पास न बजट है, न ट्रेनिंग है और न ही सुविधाएं हैं. ऐसे में हम कैसे दूसरे देशों से मुकाबला कर पाएंगे? देश के अन्य एथलीटों की तरह बट का कहना है कि यदि पाकिस्तान सरकार खेलों में पैसा नहीं डालेगी तो इस देश में खेलों का भविष्यकार अंधकारमय रहेगा.

दरअसल, पाकिस्तान के खिलाड़ी रियो के लिए क्वालीफाई नहीं कर पाए और उन्हें वाइल्ड कार्ड के जरिए ओलिंपिक टिकट दिया गया. हसन ने कहा कि ये सिर्फ नाममात्र के लिए भागीदारी की औपचारिकता पूरी करने जा रहे थे ताकि कुछ अनुभव हासिल कर सकें. हम उम्मीद करते हैं कि अगले ओलिंपिक में हम बेहतर कर पाएंगे.

पाकिस्तान स्पोर्ट्स बोर्ड के उपनिदेशक वकार अहमद का कहना है कि सभी फेडरेशन के पास शीर्ष कोच लेने और आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करने की हैसियत नहीं है. अहमद के अनुसार अधिकतर फेडरेशन अब भी पुरानी तकनीक पर निर्भर हैं और उन्हीं पर काम कर रही हैं. अहमद ने कहा कि एथलीट हताश हैं, क्योंकि कोच पढ़े-लिखे नहीं हैं और वही सिखा रहे हैं, जो उन्हें 30 साल पहले सिखाया गया था. आधारभूत ढांचे और तकनीक के बिना आप जीत नहीं सकते. हमारे देश में खेलों की तो जैसे दुर्दशा हो गई है.

पाकिस्तान हॉकी का पतन और भी चौंकाने वाला है. यह वह टीम थी जिसमें 1960 और 1994 के बीच ओलंपिक स्वर्ण और विश्व कप जीते थे. पाकिस्तान हॉकी टीम के कोच ताहिर जमान ने कहा कि सरकार के समर्थन के बिना युवा खिलाड़ियों के सामने कोई भविष्य नहीं है. हॉकी की हालत यह है कि शीर्ष खिलाड़ियों को 500-600 रुपए प्रतिदिन मिलते हैं जबकि पाकिस्तानी क्रिकेटरों को महीने में साढ़े तीन लाख रुपए की रिटेनरशिप दी जाती है और ये साथ ही प्रायोजन से भी पैसा कमाते हैं.

वर्ष 1992 के ओलिंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली टीम के सदस्य रहे जमान ने कहा कि खिलाड़ियों के सामने कोई आकर्षण और भविष्य नहीं है. सरकार खिलाड़ियों को कोई नौकरी नहीं देती है, ऐसे में कोई युवा कैसे खेल में उतरना चाहेगा? हसन ने सामाजिक रोक को महिला खिलाड़ियों के रास्ते की बड़ी बाधा बताते हुए कहा कि इससे महिला खिलाड़ी सामने नहीं आ रही हैं और जो हैं उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ता है. नीलम रियाज 16 साल की उम्र में साइकलिंग करना चाहती थीं लेकिन उसके पिता ने उसे सड़क पर साइकल चलाने से रोक दिया है, क्योंकि रास्ते में पुरुष उसे घूरेंगे. इसके बाद उसने कराते अपनाया और फिर भारोत्तोलन में उतर गईं.

25 वर्षीय रियाज ने कहा कि पाकिस्तान में लड़कियों को खेलने से रोका जाता है और कोच भी उनके आड़े आते हैं. रियाज गत वर्ष राष्ट्रीय चैंपियन बनी थीं और विदेश में हिस्सा लेने वाली पाकिस्तान की पहली महिला भारोत्तोलक भी बनी थीं.

वे, उन की किताब और को-राइटर

मैं अपने महल्ले का स्थापित लेखक हूं. मेरे महल्ले में दूसरे महल्ले का लेखक पर भी नहीं मार सकता. महल्ले के शादी के निमंत्रण कार्डों से ले कर श्राद्ध के कार्डों तक का मैटर जब तक मेरे द्वारा पास नहीं कर दिया जाता तब तक वह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ता. शादी हो जाए तो हो जाए, श्राद्ध हो जाए तो हो जाए. कल वे अपने मुंडन के कार्ड का मैटर फाइनल करवाने आए थे, आज उन का बेटा आ धमका. आते ही हांफते हुए बोला, ‘‘अंकल, अंकल, पापा पूछ रहे हैं कि आप के पास समय है? वे आप से कुछ जरूरी टौपिक पर बात करना चाहते हैं.’’ तो उस के मुंह से यह सुन मैं चौंका.

मित्रों, सच तो यह है कि अब मेरी लेखकाई से तंग आ मेरी सात फेरों वाली कर्मपत्नी तक मुझ से बात करना नहीं चाहती. हीरे का मोल लुहार क्या जाने. हीरे का मोल तो जौहरी को ही पता होता है. पर आज वैसे जौहरी कहां बचे हैं. हौलमार्क के नाम पर पता नहीं क्याक्या बेचे जा रहे हैं. मैं ने उस से उस के पिताश्री को आधे घंटे बाद आने को कहा तो वह चैन की सांस ले अपने घर को लौटा. उन के मुंडन के कार्ड का मैटर आननफानन फाइनल किया तो वे चौंके, ‘‘हे मेरे प्रिय लेखक, जिस द्रुतगति से तुम ने मेरे मुंडन का मैटर फाइनल किया है, उस से मुझे शक है कि यह मैटर मुंडन का ही है न? कहीं मेरे श्राद्ध का तो नहीं?’’ उन के यह कहने पर मुझे बहुत गुस्सा आया पर मैं चुप रहा क्योंकि पिछली बार ऐसा ही अनर्थ मेरे हाथों से हो चुका था. जन्मदिन के कार्ड में श्राद्ध का मैटर निकल गया था मेरे हाथों से.

उन के स्वागत के लिए कमरे को आजूबाजू से झाड़, जरा सजाधजा, मेज को करीने से कलमोंकागजों से सजा, अपने को लेखकीय टच दे आराम से चिंतन की मुद्रा में बैठा ही था कि वे पौने बालों पर खिजाब, पिचके गालों पर शबाब लगाए आ धमके पांव लड़खड़ाते हुए. आते ही कुरसी का सहारा ले बोले, ‘‘मित्र, बहुत परेशान हूं.’’

‘‘तो हम किस मर्ज की दवा हैं, मित्र? अपना मर्ज हम से कहो. और अगले ही क्षण बिना किनारों के नाले से बहो.’’

‘‘तो बात यह है कि मैं किताब लिखना चाहता हूं.’’

उन्होंने कहा तो मैं हतप्रभ रह गया. न भंडारे का पोस्टर लिखा न किसी की रस्मपगड़ी का विज्ञापन ही, सीधे किताब पर? अब मुझे ही देखिए, इतने बरसों से लेखन में हूं पर मेरी आज तक किताब लिखने की तो छोडि़ए, एकआधी किताब पढ़ने तक की हिम्मत नहीं हुई. और बेटेजी पहली ही छलांग में चले हैं सीधे माउंट एवरेस्ट फतह करने. अरे बेटा, पहले छोटेछोटे टीले तो चढ़ कर देख लो कि टांगों में कितना दम है. पर यहां पेशेंस है किस में? पहले दिन गाड़ी का स्टेयरिंग पकड़ा और दूसरे रोज निकल पड़े नैशनल हाइवे पर. ऐसा लगा, बंदे के दिमाग का कोई पेंच ढीला हो गया है.

‘‘किताब?’’ मैं चौंका.

‘‘हां मित्र,’’ इन लोगों ने तो परेशान कर के रख दिया. जो मन में आया लिख रहे हैं. अब मैं और चुप नहीं रह सकता. मैं भी किताब लिखना चाहता हूं ताकि अब तो किताब बोलेगी, हम नहीं…बकने में हम भी किसी से कम नहीं…अब देखो न, नटवर सिंह ने न जाने क्या लिख मारा. सोनिया गांधी ने जवाब दिया कि वे लिखेंगी. मनमोहन सिंह की बेटी ने बहुतकुछ लिख दिया. तो ईंट का जवाब ईंट से नहीं, ईंट का जवाब पत्थर से दो न. किताब के बदले कुछ और ऐसा लिख मारो कि वे पढ़ दांतों तले दोनों हाथों की उंगलियां दबा लें और आगे से पैंशन के कागजों पर साइन करने लायक भी न रहें.

फिलहाल, मुझे तो बस किताब लिखनी है. मुझ से शुरुआत भर करवा दो कि लिखने के लिए पेन कैसे पकड़ते हैं. आगे तो मैं खुद लिख लूंगा. पता ही नहीं चल रहा कि पेन पकड़ने की शुरुआत कैसे करते हैं. हाय रे होनहार लेखक तेरे चिकने पात.

‘‘अरे मित्र, पेन पकड़ना नहीं तो कम से कम बकना तो आता है न? जब किताब में आग ही उगलनी है तो क्या शुरुआत, क्या अंत. क्या पेन, क्या माचिस की तीली. जो लिखना है लिख मारो. जैसे लिखना है लि मारो. पहले बीच के पन्ने लिखो, फिर शुरू के. ऐसी किताबों का अंत तो होता ही नहीं. ये लो कागज, पेन. जो बकना है, बक मारो. आज अपने संसार में जो बकता है, वही बिकता है. बकना ही बिकने की गारंटी है. ‘‘मेरे पास हारने के बाद भी वक्त नहीं. ऐसे में तुम मेरे को-राइटर मेरा मतलब है सहायक राइटर हो जाते तो किताब के कवर से ही बीसियों के मुंह जन्मोंजन्मों को बंद कर देता? रेट की चिंता मत करो. मेरे पास राजनीति का दिया बहुत है,’’ वे मेरे आगे गिड़गिड़ाए तो मैं कैसे न को-राइटर बनता, परजीवी लेखक हूं न. इस बहाने मेरे मन की भड़ास भी निकल जाएगी और उन के मन की भी. लेखक क्या चाहे, कोई किताब लिखवाने वाला, छपवाने वाला…बस.

यह भी खूब रही

यह बात उस वक्त की है जब हमें हमारे परिचित के यहां शादी में जाना था. शादी बड़ी धूमधाम वाली थी. बाद में सब से खाना खाने की विनती की गई. खाने में बढि़याबढि़या हर तरह के पकवान रखे गए थे. भीड़ बहुत थी. हर आदमी कतार में लग कर हाथ में थाली ले कर तैयार था. हम और हमारे करीबी भी कतार में खड़े रहे थे. खाने में पावभाजी, बटर वगैरा चीजें रखी गई थीं. खाने वालों की तादाद अधिक होने की वजह से हर चीज ज्यादा मात्रा में रखी गई थी. यैलो कलर का बटर 5-6 किलो रखा था. मेरे आगे वाले लोग, जो देहात से थे, बटर कटोरी भरभर कर ले जा रहे थे. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ये लोग कटोरी भर कर बटर क्यों ले जा रहे हैं. मुझ से रहा नहीं गया, मैं ने पूछ ही लिया. उन में से एक आदमी ने कहा, ‘‘अरे भाई, यह केसर श्रीखंड है, इसीलिए हम लोग कटोरी भर के ले जा रहे हैं.’’

जब उन लोगों ने उस का स्वाद लिया, और मीठे की जगह नमकीन घी की तरह का स्वाद मुंह में आया तो सभी लोग थूथू करने लगे. तब मैं ने उन्हें समझाया कि यह बटर है. भाजी तथा पाव पर जरा सा लगा कर खाने के लिए है.

उस वक्त उन सभी के चेहरे देखने लायक थे.

प्रेम जैन, बुलडाणा (महा.)

*

मैं विवाह से पहले टौमबौय की तरह रहती थी. इस के विपरीत मुझे ससुराल एकदम उलटी मिली. मेरी एक दोस्त नमिता ने मुझ से पूछा, ‘‘छोटी (मेरे घर का नाम), क्या तुम्हें अभी भी साड़ी ही पहननी पड़ती है, पल्लू से सिर ढक कर रखना पड़ता है?’’

मैं ने कहा, ‘‘हां.’’ वह बोली, ‘‘मुझे तुम्हारी बातों पर बिलकुल भी यकीन नहीं होता कि तुम एक पारंपरिक परिवेश में ढल गई हो. उस ने मजाकमजाक में हंसते हुए आगे कहा, तुम सच बोल रही हो या फेंक रही हो. तुम यहां (मायके) तो बिलकुल पहले की तरह ही व्यवहार करती हो और वही टौमबौय टाइप ही लगती हो. तो वहां कैसे मैनेज करती हो?’’ मैं हमेशा से हाजिरजवाब रही हूं. मैं ने नहले पे दहला मारा, कहा, ‘‘महामहिम राष्ट्रपति (तब प्रतिभा पाटिल थीं) को नहीं देखा क्या? वे सिर पर पल्लू डाल कर राष्ट्रपति जैसा गरिमापूर्ण पद संभाल सकती हैं, तो क्या मैं एक संयुक्त परिवार नहीं संभाल सकती.’’ वह निरुत्तर हो कर जोरजोर से हंसने लगी.

श्यामसुंदर गट्टानी, जोरहाट (असम)

कौन थे वे लोग

बिसात से बाहर रखे मोहरे की कोई कीमत नहीं होती, राजनीति में यह बात भाजपा के पितृपुरुष और पितामह के खिताब से नवाजे गए लालकृष्ण आडवाणी को देख सहज याद आ जाती है. वे आडवाणी अब मौजूदा सियासत में कहीं दखल देते नहीं दिखते. आडवाणी एक बार फिर एक किताब में दिखेंगे जिस का

नाम है ‘आडवाणी के साथ 32 साल’. इसे एक नवोदित लेखक विशंभर श्रीवास्तव ने लिखा है और जोर दे कर यह बात कही है कि एक वक्त में लालकृष्ण आडवाणी का प्रधानमंत्री बनना तय था पर उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को पीएम बनवा डाला. यानी आडवाणी जब खुद को इस अहम जिम्मेदारी के काबिल नहीं समझते थे तो नरेंद्र मोदी का क्या दोष.

मुंह ढक कर सोइए

हुआ यों कि दलित अत्याचारों पर चल रही बहस के दौरान राहुल गांधी संसद में ही सो गए तो खासा हल्ला मच गया. राहुल क्यों सोए, इस पर कांग्रेसियों ने सफाई यह दी कि वे तो सोच रहे थे, सोचने की यह अदा सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुई और लोगों ने अपने हिसाब से कमैंट्स किए.

शायद ही कोई राहुल का दलितप्रेम समझ पाए जिन्हें घूमतेफिरते और दलितों को गले लगाते यह ज्ञान प्राप्त हो गया है कि कुछ भी कर लो, वर्णव्यवस्था मेें शूद्र के नाम से वर्णित दलितों की हालत नहीं सुधरने वाली. ये लोग अब कांग्रेस पर भरोसा नहीं करते, इसलिए बजाय बहस में पड़ने से बेहतर है कि एक झपकी मार ली जाए, वह भी शोरशराबे के बीच कुरसी पर बैठेबैठे, उसी तरह जैसे सरकारी दफ्तरों में बाबू और चैंबर्स में साहब सोते हैं.

गुरु बिन ज्ञान

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अदालत में नवजोत सिंह सिद्धू का मुकदमा 2 साल से लंबित पड़ा था जिस में सिद्धू ने अपनी व्यथा बताते इंसाफ की गुहार लगाई थी कि या तो केंद्रीय मंत्री बना दो या फिर पंजाब का मुख्यमंत्री प्रोजैक्ट कर दो वरना मुझे पार्टी छोड़ने को मजबूर होना पड़ेगा. इधर, इस डबल बैंच को मामले यानी सिद्धू में दम नजर नहीं आया. लिहाजा, तारीख पर तारीख लगती रहीं और आखिर में थकहार कर खुद सिद्धू ने अपना वाद पत्र वापस ले लिया यानी भाजपा से इस्तीफा दे दिया.

अब अपना फैसला खुद सिद्धू को करना है कि वे लोगों को कौमेडी शो के जरिए हंसाते रहेंगे या दिल में जनता की सेवा व कल्याण का जज्बा लिए सियासी मैदान में ताल ठोकेंगे. इस बाबत वे आम आदमी पार्टी का दामन भी थाम सकते हैं और चाहें तो खुद की भी छोटीमोटी पार्टी बना सकते हैं जिस की सचिव जाहिर है उन की पत्नी नवजोत कौर रहेंगी.

धर्म के माने

धर्म का दुरुपयोग रोजरोज और तरहतरह से हो रहा है जिस में धर्मगुरुओं के साथ राजनेताओं का बड़ा हाथ है. इन के डर से भगवान भी अवतरित नहीं हो पा रहा, इसलिए भक्तों ने इन्हें पार्टटाइम भगवान मानते खुद को तसल्ली दे रखी है और दानदक्षिणा में बदस्तूर जुटे हुए हैं.

यह सिलसिला टूटे नहीं, इस के लिए वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने धर्म और मौजूदा समस्याओं का संबंध उजागर करते एक पुरानी घिसीपिटी बात यह कही कि फिल्मों में हिंसा और अश्लीलता की वजह से बच्चों के मस्तिष्क पर बुरा असर पड़ रहा है. अब इन धर्मप्रचारकों को कौन बताए कि असल फसाद की जड़ धर्म ही तो है जो हिंसा और अश्लीलता से भरा पड़ा है. वेंकैया नायडू धार्मिक वास्तविकता से भाग तो सकते हैं पर उसे बदल नहीं सकते. चूंकि कुछ कहना है, इसलिए वे कह बैठे. समस्याओं के समाधान धर्म से इतर भी हैं, यह ये जानते ही नहीं और न ही जानना चाहते हैं.        

पाइरेसी का फैलता जाल

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सैंसर बोर्ड से लंबी लड़ाई लड़ने के बाद फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ बौंबे हाईकोर्ट के फैसले से सिनेमाघरों तक पहुंचने में कामयाब रही, लेकिन रिलीज होने से पहले ही इसे औनलाइन लीक कर दिया गया था. फिल्म से जुड़े लोगों ने शक जताया कि इस करतूत में सैंसर बोर्ड से जुड़े लोगों का हाथ है. कुछ साल पहले रितिक रोशन और कैटरीना कैफ की फिल्म ‘बैंग बैंग’ रिलीज से पहले ही इंटरनैट की कई वैबसाइट्स पर दिखने लगी, तो इस के निर्माता ने दिल्ली हाईकोर्ट की शरण ली. कोर्ट ने फौरन कार्यवाही करते हुए इंटरनैट और टैलीकौम सर्विस प्रोवाइडरों को अपनी 72 वैबसाइट्स ब्लौक करने का फैसला सुनाया था.

फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ कई टुकड़ों में इंटरनैट पर दिखी, तो निर्माता ने यह कह कर लोगों को सिनेमाहौल की तरफ खींचने की कोशिश की कि वैबसाइट्स पर दिख रही फिल्म वास्तविक नहीं है. यानी लोगों को सही फिल्म देखनी हो, तो टिकट खरीद कर हौल में देखें पर ऐसा न हो सका. हालांकि यह फिल्म आज तक रिलीज नहीं हो पाई. ‘मोहल्ला अस्सी’ की तरह ही पिछले साल आई फिल्म ‘मांझी : द माउंटेन मैन’ भी रिलीज होने से पहले लीक हो गई, जिस से निर्माताओं को काफी नुकसान हुआ.

पिछले साल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एक इंटरव्यू में यह स्वीकार किया कि उन्हें आमिर खान की फिल्म ‘पीके’ काफी पसंद आई, जो उन्होंने इंटरनैट से डाउनलोड कर के देखी थी. सोशल मीडिया पर फिल्म की इस तरह चोरी करने के लिए उन की काफी आलोचना हुई. उन के बयान पर काफी हंगामा मचा. अंगरेजी फिल्म ‘द इंटरव्यू’ को डिजिटल प्लेटफौर्म पर रिलीज किए जाने के बाद इसे पाइरेसी का झटका लगा. फिल्म का हाई डैफिनेशन प्रिंट पाइरेसी से जुड़ी कई वैबसाइट्स पर उपलब्ध हो गया था. इस फिल्म को अपलोड किए जाने के 24 घंटे के भीतर दुनिया में 9 लाख से भी ज्यादा लोगों ने इसे डाउनलोड कर डाला था.

औस्कर  के लिए नौमिनेशन होने के बाद ‘सेल्मा’, ‘वाइल्ड’, ‘अमेरिकन स्नाइपर’, ‘स्टिल एलिस’ और ‘बर्डमैन’ जैसी फिल्मों को एक लाख से भी ज्यादा बार डाउनलोड किया गया. ये कुछ घटनाएं हैं जो फिल्म इंडस्ट्री में पाइरेसी यानी फिल्मों की चोरी, इंटरनैट पर उन की कौपी उपलब्ध होने और वहां से कौपी कर के चोरीछिपे देखे जाने के कारण होने वाले नुकसान की बानगी पेश करती हैं. पाइरेसी यानी गीत, संगीत और फिल्मों की अवैध कौपियां बनाना और उन्हें कम कीमत में या लगभग मुफ्त, लोगों को मुहैया करा देना. दुनिया का शायद ही कोई कोना ऐसा बचा हो जहां पाइरेसी के उस्ताद न बैठे हों. सिनेमाहौल में बैठ कर स्मार्टफोन से या फिल्म अथवा गीतों की रिकौर्डिंग की चोरी कर के इंटरनैट के जरिए या फिर डीवीडी से उन की नकल बाजार में पहुंचाई जा रही है.

बिजनैस के नजरिए से देखें तो पाइरेसी की वजह से हर साल पूरी दुनिया की फिल्म इंडस्ट्री को कम से कम 250 अरब डौलर की चपत लग रही है. हालांकि सभी देशों में नियम और कानून हैं, इस के बावजूद पाइरेसी रूक नहीं पा रही है. समस्या इस से भी कहीं ज्यादा गंभीर है. आतंकी और संगठित रूप से अपराध करने वाले संगठन वीडियो पाइरेसी के जरिए धन उगाही कर उस से आपराधिक करतूतों को अंजाम दे रहे हैं. इंटरपोल की हाउस कमेटी औन इंटरनैशनल रिलेशन की रिपोर्ट के मुताबिक, गैरकानूनी तरीके से सीडी बनाना या इंटरनैट पर फिल्मों आदि की डाउनलोडिंग से उत्तरी आयरलैंड से ले कर अरब देशों तक में अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों को आर्थिक मदद मुहैया कराने में मदद मिल रही है.

मुश्किल नहीं चोरी

पाइरेसी की समस्या इतनी आम क्यों हो गई है? इस का एक जवाब यह है कि अब इंटरनैट घरघर पहुंचने लगा है. जरूरी नहीं कि कोई फिल्म इंटरनैट पर पहले से मौजूद हो, तभी उस की नकल तैयार की जा सकती है. एक बार सिनेमाहौल जा कर यदि कोई अपने मोबाइल फोन से उसे रिकौर्ड कर लेता है और फिर उसे इंटरनैट पर अपलोड कर देता है, तो भी पाइरेसी का रास्ता खुल जाता है. इंटरनैट पर कुछ जानीमानी वैबसाइट्स हैं जो लोगों को ऐसे चोर रास्ते उपलब्ध कराती हैं. अगर कोई फिल्म आसानी से यूट्यूब पर नहीं मिलती, तो इन वैबसाइट्स पर जा कर उसे चुराया यानी डाउनलोड किया जा सकता है.

पंख लगाती वैबसाइट्स

वैबसाइट्स के जरिए फिल्मों की पाइरेसी के मामले में एक कुख्यात नाम बिट टोरेंट का है. यह वन टू वन फाइल शेयरिंग प्रोटोकोल या सिस्टम है, जिस ने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया है. वन टू वन फाइल शेयरिंग का आशय इस से है कि यदि किसी व्यक्ति के पास किसी फिल्म की कौपी है, तो वह उस वैबसाइट पर जा कर उसे अपलोड कर सकता है. इसी तरह दुनिया में कोई भी शख्स इसी वैबसाइट पर वांछित फिल्म की मांग डाल सकता है या उपलब्ध होने पर उसे डाउनलोड कर सकता है. हाई स्पीड में फाइलें डाउनलोड होने, आसान इस्तेमाल और सीमित अपलोड बैंडविड्थ के प्रभावी उपयोग की वजह से बिट टोरेंट से जुड़ना आसान हो जाता है. दावा किया जाता है कि कुल इंटरनैट ट्रैफिक में 35 प्रतिशत हिस्सेदारी बिट टोरेंट की है.

हमारे देश में एक दशक के भीतर ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जब किसी फिल्म का आधिकारिक वर्जन (संगीत या पूरी फिल्म ही) उस की रिलीज से पहले ही इंटरनैट पर आ गया. वर्ष 2010 में ऐसी ही एक घटना अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘पा’ के साथ घटित हुई थी. फिल्म की रिलीज के दिन ही इस की क्लिपिंग्स यूट्यूब पर जारी हो गई थीं. ‘पा’ के प्रोड्यूसर और डायरैक्टर ने इस मामले की शिकायत मुंबई पुलिस में की, लेकिन उस से कोई हल नहीं निकला. इस से बड़ा हादसा मनु कुमारन और सुधीर मिश्रा की फिल्म ‘तेरा क्या होगा जौनी’ के साथ हुआ. 2 साल में 12 करोड़ रुपए की लागत से बनी यह फिल्म रिलीज होने से पहले ही 10-10 मिनट के 11 टुकड़ों में यूट्यूब पर आ गई थी. निर्माताओं ने यूट्यूब से इस फिल्म को तत्काल अपनी साइट से हटाने का आग्रह किया, तो फिल्म कुछ समय में वहां से हटा तो ली गई, लेकिन इस से जो नुकसान होना था, वह तो हो ही गया.

समस्या का सब से मुश्किल पहलू यह है कि अब फिल्मों और उन के गीतसंगीत की चोरी कोई कठिन काम नहीं रह गया है. पहले तो इस धंधे में लगे लोगों को सिनेमाहौल में जा कर वीडियो कैमरे से पूरी फिल्म की कौपी करनी पड़ती थी लेकिन अब अगर कोई सीधा स्रोत मिल जाए तो सिर्फ एक क्लिक करने भर से उस के हजारों डिजिटल संस्करण तैयार किए जा सकते हैं. जैसा कि, फिल्म ‘तेरा क्या होगा जौनी’ के मामले में हुआ कि उस फिल्म को पोस्ट प्रोडक्शन स्टेज पर एडिटिंग या डबिंग लैब से चुराया गया था.  वीडियो पाइरेसी में लगे लोग आमतौर पर फिल्म रिलीज होने के बाद सिनेमाहौलों में छिपे कैमरों से एक ही बार में अथवा टुकड़ोंटुकड़ों में फिल्में चुराते हैं और बाद में उन्हें एडिट कर के पूरी फिल्म बना लेते हैं.

नुकसान कितना

भारतीय सिनेमा यानी बौलीवुड को हर साल पाइरेसी के कारण कितना नुकसान उठाना पड़ रहा है, इस का अंदाजा 2008 में एक संस्था अर्नस्ट ऐंड यंग ने लगाया था. इस संस्था ने अपने अध्ययन में बताया था कि मुंबई फिल्म इंडस्ट्री को पाइरेसी के कारण हर साल लगभग 16 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान हो रहा है. यह इस इंडस्ट्री की सालाना आमदनी का 40 प्रतिशत है.

चीन में पनप रहा कारोबार

एशिया और यूरोप में ही नहीं, ब्राजील, अर्जेंटीना और पराग्वे जैसे लैटिन अमेरिकी देशों में भी पाइरेसी का जाल फैला हुआ है. एशिया प्रशांत क्षेत्र में इस तरह की पाइरेसी के मामले में चीन भारत से ऊपर है. चीन में इस की दर 79 प्रतिशत है. अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों की देरी से रिलीज की वजह से या रिलीज की अनुमति नहीं मिलने की वजह से चीन जैसे देश में हर साल करीब 2.5 अरब डौलर की पाइरेटेड सीडी का कारोबार होता है. पश्चिमी देशों में कौपीराइट की अवधि 70 साल या फिर कलाकार की मौत तक होती है. लेकिन चीन ने यह अवधि 50 साल तय कर रखी है. इस पर तुर्रा यह है कि इस नियम का वहां ठीक से पालन भी नहीं हो रहा है.

क्या रुक सकती है पाइरेसी

पाइरेटेड फिल्मवीडियो और इंटरनैट पर अवैध डाउनलोडिंगअपलोडिंग का धंधा इस लिहाज से भी ज्यादा आकर्षक बनता जा रहा है कि इस में जोखिम नहीं के बराबर है. इस अपराध में काफी कम लोगों को दंडित किया जाता है. हालांकि फ्रांस में इस तरह के कारोबारी का दोष साबित होने पर 2 साल की कैद और 1.9 लाख डौलर जुर्माने की सजा है. अमेरिका में साल 2014 में लाए गए औनलाइन पाइरेसी विधेयक के मुताबिक सर्च इंजनों के माध्यम से पाइरेसी की सूचना मिलने पर संबंधित गीत, संगीत और फिल्म का कौपीराइट रखने वाले लोग अमेरिकी न्याय विभाग के जरिए अदालती कार्यवाही कर पाएंगे.

जहां तक भारत की बात है, तो वर्ष 2012 में फिल्मों की पाइरेसी रोकने के उद्देश्य से भारत के कौपीराइट कानून में संशोधन कर के गीतकार, संगीतकार, संवाद और पटकथा लेखक के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए नियमों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ सख्त सजा का प्रावधान किया गया था. लेकिन इस संशोधन के बावजूद दृश्य और संगीत की नकल का कारोबार करने वाली कंपनियों के संबंध में स्थिति स्पष्ट नहीं की गई, जिस का फायदा पाइरेसी में संलिप्त लोग उठाते हैं.

फिल्म इंडस्ट्री की चिंता

पाइरेसी फिल्म इंडस्ट्री के जीवनमरण का प्रश्न बन गई है, इसलिए यह इंडस्ट्री अपने स्तर पर इस से निबटने का प्रयास कर ही रही है. कुछ साल पहले रिलायंस बिग इंटरटेनमैंट, यशराज फिल्म्स, यूटीवी मोशन पिक्चर्स, इरोज इंटरनैशनल और स्टूडियो 18 ने अमेरिका की मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन के साथ ऐंटीपाइरेसी गठबंधन कायम किया था. लेकिन पाइरेसी के खिलाफ चलाई जाने वाली मुहिम में आम लोगों को भी जोड़ने की जरूरत है ताकि वे अपना तात्कालिक लाभ देखने की जगह फिल्म इंडस्ट्री और व्यापक स्तर पर राजस्व के रूप में देश की अर्थव्यस्था को होने वाले नुकसान को भी देख सकें.

एक पहलू यह भी

पाइरेसी के दूसरे पहलू पर भी गौर फरमाना उतना ही जरूरी है जितना कि इस की रोकथाम करना. यह पहलू है सिनेमाहौलों में फिल्मों के महंगे टिकट का. असल में, अब ज्यादातर शहरों में ऐसे मल्टीप्लैक्स खुल गए हैं, जहां 4 लोगों के एक परिवार के फिल्म देखने के लिए जाने का मतलब है कम से कम 1000-1200 रुपए की चपत. ऐसे में एक आम मध्यवर्गीय परिवार मन मसोस कर रह जाता है और अच्छी फिल्में भी नहीं देख पाता है. ऐसे में लोग बरास्ता इंटरनैट संगीत और फिल्म की पाइरेटेड कौपियां अपने कंप्यूटर या टीवी पर चलाते हैं और बिना कुछ ज्यादा खर्च के, घरबैठे मनोरंजन पा जाते हैं. जो सिनेमा उद्योग पाइरेसी पर सख्ती की मांग करता है, वह जरा आम लोगों की जेब से जुड़े पहलुओं पर भी नजर डाले. अन्यथा हालात यही हो जाएंगे कि फिल्म बनने के बाद या तो डब्बों में पड़ी रहेंगी या फिर उन्हें खरीद कर सिनेमाहौलों में चलवाने वाले वितरक सिर धुनेंगे क्योंकि महंगे टिकट खरीद कर जनता तो उन फिल्मों को देखने के लिए आने से रही.

इंटरनैट और युवा वर्ग

सामाजिक चलन में विवाह की आयु 18 से बढ़ कर 30-35 हो जाने से अकेलेपन की समस्या बढ़ती जा रही है खासतौर पर उन अकेले रह रहे युवकयुवतियों के लिए जो मातापिता के साथ नहीं रहते. आज समाज ऐसा हो गया है कि भाईबहन भी बिना मातापिता के एकसाथ नहीं रह पाते. मातापिता तो प्राइवेसी की शर्त को मान जाते हैं पर भाईबहन, बचपन में सुखदुख शेयर करने के कारण, इस के माने के बारे में नहीं जानते. अब ऐसे मोबाइल ऐप्स बन गए हैं जो आप को अपने आसपास के किसी अपने जैसे से मिलने का मौका दे सकते हैं. टिंडर इन में से एक है जिस में बिना हाड़मांस के बिचौलिए के एक साथी, चाहे एक शाम या एक रात के लिए, को ढूंढ़ा जा सकता है. भारत में बड़े शहरों में अकेले रह रहे युवा इस का उपयोग करने लगे हैं पर यह खतरे से खाली नहीं क्योंकि टिंडर पर हजारों ऐसे प्रोफाइल भरे हैं जो फेक हैं, शातिरों द्वारा बनाए गए हैं. उन का मकसद लूटना होता है. लूटे जाने वाली लड़कियां ही हों, जरूरी नहीं, लड़कों को भी लूटा जा सकता है.

समस्या का एक पहलू यह भी है कि आज का युवासमाज भी स्वार्थी और अंतर्मुखी होता जा रहा है. ‘दूसरों को अपनी खुशियां व अपने दुख खुद झेलने दो’ की भावना उन में भरती जा रही है. स्कूली दिनों से ही उन में भर रही प्रतियोगिता की दौड़ ने जिगरी दोस्ती को समाप्त कर दिया है. कोई अगर अकेला है तो कोई उस के लिए साथी ढूंढ़ने की कोशिश नहीं करता. आज दफ्तरों में भी अपने जैसों को पाना कठिन होता जा रहा है क्योंकि कोई बिचौलिया बनने को तैयार नहीं है कि जो चोरीछिपे तथ्य प्रमाणित कर आगापीछा ढूंढ़ने में सहायता कर सके. दफ्तर में काम करने वाला कौन, क्या है, कंपनियों को इस से कुछ लेनादेना नहीं होता. आजकल नई ऐप्स बहुत सी जानकारी जमा ही नहीं कर देती हैं, मोबाइल को खंगाल कर पूरा कच्चा चिट्ठा खोल भी सकती हैं, व्यक्ति की पसंदनापसंद, दोस्तों, राजनीतिक सम्मान और घूमने की जगहों का डेटा सैकंडों में जमा कर भी सकती है.

युवाओं का इन पर भरोसा तो बढ़ रहा है और काफी सारी शादियां नहीं, तो दोस्तियां तो होने ही लगी हैं. मुसीबत तब आती है जब चेहरे आमनेसामने देखने जाते हैं और हाड़मांस के मित्र संबंधी, भाईबहन, मातापिता जुटते हैं और तब व्यक्ति की असलियत सामने होती है. तब अकसर प्रेम के गाए गीत ‘लंच बौक्स’ के पात्रों की तरह हवा होने लगते हैं. इस तरह के मामले में किसी को दोष भी नहीं दिया जा सकता है. महीनों तक लगे रहने पर एक बार इंटरनैटी प्रेमी जमा लिया जाए और पता चले कि दही तो काला व खट्टा है तो दूसरा जमाने में फिर महीनों लगते हैं. लड़कियों की और मुसीबत है क्योंकि यदि वे पहल करें तो लगता है बाजार में बैठी हैं बिकने को, जो चाहे चारा फेंक दे. इंटरनैट को केवल बढि़या पोस्टऔफिस समझना चाहिए. उस में पोकेमौन की तरह का अकेलेपन का साथी न ढूंढ़ें. ठीक है कागज पर लिखना कठिन हो गया है पर जैसे पहले, प्रेम कागजों से नहीं, कागज पर लिखने और उसे पढ़ने वाले से होता था, वैसा ही इंटरनैट का प्रयोग करें. कभीकभार कागज का हवाईजहाज बना लिया और नाव बना ली, उतने ही मनोरंजन के लिए इंटरनैट को रखें.  

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