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जल्द ही टेनिस कोर्ट पर वापसी करेंगी शारापोवा

टेनिस स्टार मारिया शारापोवा के लिए राहत की खबर है कि 'द कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन ऑफ स्पोर्ट' (CAS) ने शारापोवा पर लगे प्रतिबंध की समयसीमा को कम कर दिया है. शारापोवा के डोप टेस्ट में पॉजिटिव पाए जाने के बाद उन दो साल का बैन लगाया गया था.

CAS ने इस बैन की अवधि को कम कर 15 महीने कर दिया है. रूस ने रसियन टेनिस फेडरेशन के अध्यक्ष शमिल तार्पीशेव के हवाले से इसकी जानकारी दी है.

अब अपने 15 महीने के बैन को पूरा करने के बाद शारापोवा अप्रैल 2017 से टेनिस के कोर्ट पर फिर से दिखाई दे सकेंगी. 29 वर्षीय शारापोवा पर इसी साल जनवरी में डोप टेस्ट में पॉजिटिव पाए जाने के बाद दो साल का बैन लगाया गया था.

उल्लेखनीय है कि शारापोवा को डोप टेस्ट से पहले पांच बार प्रतिबंधित दवा के प्रयोग को लेकर चेतावनी दी गई थी. इसके बावजूद वह डोप टेस्ट में पॉजिटिव पाई गईं. जून में शारापोवा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इस बाद की जानकारी दी थी कि वह डोप टेस्ट में फेल हो गईं हैं.

स्मार्टफोन से शक को करें डिलीट

अमन के वाशरूम में घुसते ही रुचि ने उस का फोन उठा लिया और न जाने क्या खंगालने लगी. कुछ देर बाद अमन वाशरूम से निकला, तो उसने रुचि को अपने फोन के साथ छेड़छाड़ करते पकड़ लिया.

अमन: जासूसी कर रही हो मेरी.

रुचि: नहीं, यह पता लगा रही हूं कि आखिर पूरे दिन तुम किस से बात करते रहते हो.

अमन: औफिस का काम करता हूं. कहो तो छोड़ दूं नौकरी?

रुचि: नौकरी क्यों छोड़ोगे, छोड़ना है तो उस लड़की को छोड़ो.

अमन: तुम्हारे बेबुनियाद इलजामों से मैं थक चुका हूं. जब देखो तब शक करती रहती हो.

अमन रुचि का झगड़ा यहीं समाप्त नहीं हुआ. बातों से बातें निकलती गईं और रिश्ता उलझता गया. नौबत तलाक तक पहुंच गई. अमन और रुचि का किस्सा अनोखा नहीं है. ऐसे लोगों की कमी नहीं जो स्मार्टफोन पर अपने पार्टन के इनवौल्वमैंट से चिढ़ते हैं और उन की चिढ़ नफरत और शक में तबदील हो जाती है. वहीं कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके ईगो को बहुत ठेस पहुंचती है जब उन का पार्टनर उन के मैसेजेस या चैट पढ़ लेता है. हैरानी की बात तो यह है कि ऐसे लोग आत्मसम्मन के नाम पर अपने पार्टनर को चोट तक पहुंचाने से नहीं चूकते.

पढ़े लिखे हैं ज्यादा बेवकूफ  

कुछ दिन पहले ऐसा ही बंगलूरू की सुनीता सिंह के साथ हुआ. पेशे से इंजीनियर सुनीता ने अपने पति पर चाकू से केवल इसलिए अटैक कर दिया क्योंकि वे उस के मोबाइल पर आए मैसेज को चोरी से पढ़ रहा था.

लखनऊ हाईकोर्ट में एडवोकेट राकेश त्रिपाठी इस मसले पर कहते हैं, “ बहुत आश्चर्यचकित बात है कि आज की पीढ़ी, जो ज्यादा पढ़ी लिखी और समझदार है, मात्र एक छोटे से स्मार्टफोन के चलते रिश्तों की गंभीरता और सम्मान को दरकिनार कर बेवकूफी की सारी सीमाएं पार कर रही है. जब कि स्मार्टफोन का इस्तेमाल हर तबके के लोग कर रहे हैं. मगर स्मार्टफोन ने सब से अधिक प्रभाव पढ़े लिखे वर्ग के लोगों की जिंदगी पर डाला है. सब से अधिक शक के चलते तलाक, मारपीट, मर्डर के केस इसी वर्ग के लोगों में हो रहे हैं. क्योंकि यह वर्ग अब वर्चुअल वर्ल्ड को ही एक्चुअल वर्ल्ड समझने लगा है. जब कि वास्तविक जीवन की हर जरूरत को स्मार्टफोन के जरिए पूरा नहीं किया जा सकता है. खासतौर से पतिपत्नी के रिश्ते में स्मार्टफोन का दखल गलत परिणामों को दर्शा रहा है.”

शक कर देता है  रिश्ते को खोखला 

स्मार्टफोन की उपयोगिता को नजरअंदाज  नहीं किया जा सकता. इसने मनुष्य के कई काम आसान बना दिए हैं, लेकिन दूसरी तरफ मनुष्य के सोचने के दायरे को छोटा कर दिया है. उदाहरण के तौर पर यदि कोई महिला पति के आगे अपने स्मार्टफोन में व्यस्त है तो पति को यह बात नहीं पचती. उस के मन ही मन 100 विचार कौंध जाते हैं. अतिसंवेदनशील स्थिति में पति अपनी पत्नी के चरित्र पर भी शक करने लगता है. मगर उसे यह विचार नहीं आता कि पत्नी की अपनी नीजता है. यही स्थिति महिलाओं के साथ भी है. पति का स्मार्टफोन उन्हें अपनी सौतन से के समान लगता है.

इस बाबत क्लीनिकल साइकोलौजिस्ट प्रतिष्ठा त्रिवेदी कहती हैं, “ हर पति पत्नी के संबंधों में पारदर्शिता जरूरी है लेकिन अपनी प्राइवेसी खोने के मूल्य पर नहीं. यहां समझने वाली बात यह है कि यदि पार्टनर की किसी बात से परेशानी है तो उस पर खुल कर बात की जाए ना कि उस की जासूसी कर के अपने शक को गहरा किया जाए. शक का क्या है, इस की कोई सीमा नहीं होती. यह रिश्ते को खोखला बना देता है.” इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि यदि पार्टनर कहे कि वो 10 मिनट अकेले बैठना चाहता है तो इस का मतलब यह नहीं कि उस 10 मिनट अकेले बैठ कर वो आप से कुछ छुपा रहा है. यहां उस की निजता को सम्मान देने वाली बात आती है. प्रतिष्ठा कहती हैं, “ प्राइवेसी की अलगअलग लोगों की अलगअलग परिभाषाएं हो सकती हैं. इसे शक की नजर से देखना अकलमंदी नहीं है.”

पासवर्ड शेयरिंग से नहीं बनेगी बात

मैरिटल थैरेपिस्ट एंव माई हसबैंड डजेंट लव मी एंड ही टैक्सटिंग समबडी एल्स के लेखक एंड्रियू जी मार्शल की माने तो, “स्मार्टफोन ने रिश्तों को उलझा दिया है और लोग यह भूल चुके हैं कि किसी की प्राइवेसी में किस हद तक दखल स्वीकार किया जा सकता है.”  यह बात मियां बीवी के रिश्ते में सब से अधिक लागू होती है. पुरानी मानसिकताओं के अनुसार शादी एक ऐसा बंधन है जिस में पति पत्नी को एक दूसरे से सब कुछ शेयर करना चाहिए. इस मानसिकता को अब मौर्डन कपल्स स्मार्टफोन पर भी थोपने लगे हैं. उन का मानना है कि शादी की है तो पार्टनर की हर वस्तु पर हक जताया जा सकता है.

साइकोलौजिस्ट प्रतिष्ठा कहती हैं, “हक जताने तक ठीक है मगर शक करना गलत हैं. पार्टनर की हर बात आप जान सकें यह मुमकिन नहीं क्योंकि हर घटना, जो पूरे दिन में उस के साथ घटी उस का लाइव टैलीकास्ट तो आपका पार्टनर नहीं कर सकता. मगर उस के हाइलाइट्स जरूर आप को पता चल सकते हैं. ऐसे में कुछ छूट जाए तो यह समझना की जानबूझ कर नहीं बताया और उस पर जंग छेड़ देना अकलमंदी नहीं. हो सकता है कुछ बातें आप का पार्टनर आपको समय आने पर ही बताना चाहे, ऐसे में थोड़ा समझदारी से काम लें और पार्टनर को पूरा वक्त दें. बात कैसे भी पता चल जाए इस के पीछे न पड़े. यह पार्टनर को चिड़चिड़ा बना देता है और फिर इस चिड़चिड़ाहट से बचने के लिए पार्टनर बाते छुपाने लगता है.” 

कई बार कुछ लोग अपने बेटरहाफ को इस बात के लिए मजबूर करते हैं कि वो अपने फोन का पासर्वड बता दे. कुछ स्थितियों में तो पार्टनर्स एक दूसरे को  इस डर से अपना पासवर्ड बता भी देते हैं कि शक की कोई गुंजाइश न रहे. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या गायरेंटी है कि फोन में मौजूद सामग्री से कोई छेड़छाड़ न की गई हो. इस बाबत प्रतिष्ठा कहती हैं, “स्मार्टफोन रखने वाला हर व्यक्ति स्मार्ट होता है. उसे पता होता है कि फोन में कौन सी सामग्री रखी जाए और कौन सी डिलीट कर दी जाए. इतना ही नहीं नई तकनीक के मोबाइल में हिडेन फीचर्स भी होते हैं, जिनकी मदद से सामग्री को फोन में ही छुपाया जा सकता है. ऐसे में पासवर्ड शेयर करने से क्या फायदा.” 

कई बार ऐसा भी होता है कि पार्टनर के फोन पर कुछ ऐसी सामग्री हाथ लग है कि मन में शक पनपने लगता है. इस स्थिती को कैसे संभाला जाए? एक आम दंपति पोरस चड्ढा और उनकी पत्नी स्मिता इस सवाल का जवाब कुछ इस प्रकार देते हैं: पोरस: शक तो एक बीमारी होती है. किसी सही सामग्री को भी शक की नजर से देखा जाए तो उस में भी खामिया निकाली जा सकती हैं. इस लिए अपने साथी पर शक न करें इससे रिश्ते में दरार पड़ जाती है. यदि कोई बात परेशान कर रही हो तो हलके अंदाज में पार्टनर से पूछ लें.  स्मिता: स्मार्टफोन पर ही क्यों पार्टनर यदि चीट करना चाहे तो जरिए और भी हैं. इस लिए पार्टनर के फोन को बारबार चैक करना समय बरबाद  करने जैसा है. इससे अच्छा है कि अपना समय रिश्ते को बहतर बनाने में लगाया जाए.

तीसरे को न करें शामिल

एक  सर्वे से पता चलता है कि लोग अपने पार्टनर के फोन में विपरीत सैक्स द्वारा आए मैसेज को पढ़ने में काफी रुचि लेते हैं, जिस में महिलाओं का अनुपात पुरुषों की अपेक्षा अधिक है. इस बाबत एडवोकेट राकेश त्रिपाठी कहते हैं, “मेरे पास ज्यादातर जो केस आते हैं उनमें महिलाओं को पतियों द्वारा दूसरी औरतों से चैट करने या औरतों द्वारा भेजे गए मैसेजेस से परेशानी होती है वहीं पुरुषों को ज्यादा परेशानी पत्नी के मायके पक्ष के लोगों से अधिक बात करने में होती है. महिलाओं को डर होता है कि पति उन्हें धोखा न दें और पुरुषों को चिंता होती है कि कहीं मायके पक्ष के लोग पत्नी को बहका न दे. दरअसल पति का फोन चैक करने के बाद जब शक करने वाली सामग्री मिल जाती है तो पत्नी का दूसरा कदम मायके पक्ष को इस मसले से जोड़ना होता है. बस यहीं बात बिगड़ जाती है.”

प्रतिष्ठा कहती हैं, रिश्ते में किसी तीसरे को शामिल करना मतलब रिश्ते को बिगाड़ना है. पतिपत्नी जितना आपस में एक दूसरे को समझा सकते हैं, तीसरा व्यक्ति उसका 1 प्रतिशत भी उन्हें नहीं समझा सकता. इसलिए किसी तीसरे व्यक्ति की दखल रिश्ते को उलझा सकती है सिर्फ. अत: निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि स्मार्टफोन के इस दौर में न सिर्फ स्मार्ट बनिए बल्कि अपने पार्टनर को रिश्ते में थोड़ी स्पेस दे कर अपने अहंकार से ऊपर उठ कर अपने रिश्ते में ताउम्र गर्माहट बनाए रखें. फिर देखिये किस तरह शक की गुंजाइश ही खत्म हो जाएगी.

सैक्स, सपने और सच्चाई

डा.पौम स्पर के अनुसार, सपनों  की दुनिया आप के यथार्थ की दुनिया से एकदम अलग हो सकती है. सपने में आप औफिस में बौस के साथ सैक्स कर रहे हैं, जबकि आप उसे पसंद तक नहीं करते. डा. पौम स्पर का मानना है कि लोग अमूमन अपने पुराने साथी के साथ सैक्स के सपने देखते हैं, जबकि वे एक नए रिश्ते में बंध चुके होते हैं. यह एक आम बात है. इस में कुछ भी असामान्य नहीं है.

रवि फैंटेसी की दुनिया में जीता था. हमेशा उस के दिमाग में उथलपुथल मची रहती थी. वह काफी परेशान भी दिखता था. उस के दोस्तों ने जब उसे काफी कुरेदा, तो उस ने बताया कि उसे लगभग रोजाना ऐसा सपना आता है. ऐसे सपने देखना कोई बुरी बात नहीं है और न ही अप्राकृतिक है, लेकिन उस की परेशानी की वजह यह थी कि उसे सपने में केवल सैक्स की बातें आती थीं. आखिर क्यों? कहीं यह दिनभर फैंटेसी में रहने का नतीजा तो नहीं था?

असल में कई लोग सैक्स को ले कर काफी उतावले रहते हैं, लेकिन इसे मन में दबाए रखते हैं. इस कमी को पूरी करने के लिए वे सपनों में इस का अनुभव करते हैं. ऐसा नहीं कि सैक्सी सपनों पर केवल जवां दिलों का ही अधिकार है. मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि सभी उम्र के लोगों को सैक्सी सपने आते हैं. सैक्स से संबंधित सपने अकसर बढ़ती उम्र के साथ बढ़ जाते हैं, लेकिन इन का हमारी सैक्स लाइफ से कोई संबंध नहीं है.

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि उम्र बढ़ने के साथसाथ रचनात्मक प्रवृत्ति वाले लोेगों को ऐसे सपने भी अधिक आते हैं. वाकई सपनों की दुनिया अजीब है, सोने के बाद हम किस दुनिया में चले जाते हैं हमें मालूम भी नहीं होता. यह दुनिया हमारे असल जीवन से कितनी भिन्न होती है और इस का हमारी जिंदगी से क्या रिश्ता है, कई बार यह सम झना मुश्किल हो जाता है.

आप जब सपने में किसी के साथ सैक्स कर रहे होते हैं और उत्तेजित हो कर जागते हैं, तब आप ने क्या कभी सोचा है कि यह एहसास कहां से आता है? क्या इन सपनों के माने कुछ और भी हो सकते हैं?

सैक्स से जुड़ा विचार भी यदि सपने में आए तो इस का भी एक अर्थ होता है. ऐसा कई लोगों के साथ होता है और काफी आम बात भी है, लेकिन यह एक ऐसा सपना है जो व्यक्ति को हैरत में डाल देता है. आप कोई डरावना या किसी की मृत्यु का सपना देखेंगे तो उसे कुछ समय बाद भुला देने में सफल हो जाएंगे, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि सैक्स से जुड़ा सपना ऐसा होता है जिसे भुलाने का विचार काफी दूर होता है. काफी देर तक तो व्यक्ति यह नहीं सम झ पाता कि उसे ऐसा सपना आया क्यों?

लोग अमूमन अपने पुराने साथी के साथ सैक्स के सपने देखते हैं जबकि वे एक नए रिश्ते में बंध चुके होते हैं. यह एक आम बात है. इस में कुछ भी असामान्य नहीं है. जब कभी आप को मदभरी हसीनाओं की रंगीनियां ख्वाबों में सराबोर कर दें, तो जागने पर शर्मसार न हों, क्योंकि यह केवल आप के रंगीन सपनों की आवारगी का नतीजा नहीं है.

मनोवैज्ञानिकों ने कुछ सपनों के कारण बताए हैं, जिन्हें जान कर आप हैरान हो जाएंगे. अगर आप सेम जैंडर के पार्टनर के साथ सैक्स का सपना देखते हैं, तो परेशान न हों. इस का यह मतलब नहीं है कि आप की बौडी या सोच में सैक्स को ले कर चेंज आ रहा है, बल्कि इस का मतलब है कि आप विश्वास से भरे व्यक्ति हैं और खुद को बहुत प्यार करते हैं. अगर आप सपने में खुद को सिर्फ एक नहीं बल्कि कई पार्टनर्स के साथ सैक्स करते हुए देखते हैं, तो यह आप की दबी हुई सैक्सुअल भावनाओं का प्रतीक है. इस का मतलब है कि आप का मन कुछ प्रयोग करने के लिए तड़प रहा है.

डा. पौम स्पर ने अपनी किताब ‘ड्रीम्स ऐंड सिंबल्स अंडरस्टैंडिंग यौर सबकौंशस डिजायर्स’ में लोगों के बिस्तर के रहस्यों का खुलासा किया है. उन के अनुसार, आप के सैक्स के सपने आप के साथी या जिसे आप बेपनाह चाहते हैं, उस से जुड़े नहीं होते हैं. जब आप सैक्स के सपने देखते हैं और उत्तेजना के साथ जागते हैं, तो इन सपनों के माने कुछ और भी हो सकते हैं. डा. पौम स्पर के अनुसार सपनों की दुनिया आप के यथार्थ की दुनिया से एकदम परे हो सकती है.

डा. पौम स्पर का मानना है कि लोग अमूमन अपने पुराने साथी के साथ सैक्स के सपने देखते हैं, जबकि वे एक नए रिश्ते में बंधे होते हैं. यह एक आम बात है. इस में कुछ भी असामान्य नहीं है.

कई बार आप खुद को किसी अजनबी के साथ बिस्तर पर देखते हैं. वह आप को अपना सा लगता है और खुशी देता है, लेकिन यह  सही नहीं है. दरअसल, इस का मतलब है कि आप को अब अपने भीतर कुछ मर्दाना क्वालिटीज लानी होंगी, जैसे, खुल कर अपनी बात रखना, स्टैंड लेना आदि. यदि आप खुद को किसी ऐसे व्यक्ति के साथ इंटिमेट होता देखें जिस से आप का रिश्ता ही कुछ और है, मसलन, आप की फ्रैंड का पति या कोई और, तो उस का यह कतई मतलब नहीं है कि आप उस की तरफ अट्रैक्ट हैं. आप सिर्फ यह जानने के लिए उतावले हैं कि वह बैड पर क्या चाहता है. साथ ही आप को भी लाइफ में किसी बेहतर इंसान की जरूरत है.

अगर आप सपने में अपनी पूर्व गर्लफ्रैंड या बौयफ्रैंड के साथ सैक्स करते हैं तो हो सकता है पुराने प्रेमी या प्रेमिका के साथ आप की सैक्स लाइफ बहुत अच्छी रही हो. हो सकता है कि आप अपने नए साथी की तुलना पुराने साथी से न करती हों, लेकिन आप का अचेतन मन ऐसा करता है. अगर आप सिंगल हैं तो इस का मतलब है कि आप सैक्स मिस कर रहे हैं.

यदि आप सपने में अपने किसी पसंदीदा स्टार के साथ सैक्स करते हैं तो इस का सीधा मतलब है कि आप अपने पार्टनर में और भी बहुत कुछ तलाश रहे हैं. आप स्टार का लुक और सक्सैस को अपने पार्टनर की खूबियों के साथ तोलते हैं.

अगर कोई सपने में अपने पति/पत्नी या प्रेमी के साथ सैक्स करता है, तो इस के अलगअलग मतलब होते हैं या तो आप का रिलेशन काफी बेहतर है या फिर आप को अपने पार्टनर से वह सब नहीं मिल रहा जो आप चाहते हैं. सैक्सोलौजिस्ट कहते हैं कि ऐसा सपना आने पर पार्टनर से बात कर के इस का कारण जानने की कोशिश करनी चाहिए.

यदि आप ने सपने में अपने ऐक्स के साथ काफी क्रेजी रात गुजारी है, तो आप अकेले नहीं हैं, ऐसा कई लोगों के साथ होता है. अगर रीयल लाइफ में आप ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं, तो इस में कोई बुराई भी नहीं है. इस का मतलब यह है कि आप की मौजूदा रिलेशनशिप नीरस हो गई है और आप को उस में कुछ ऐक्साइटमैंट लाने की जरूरत है.                      

सिक्योरिटी फर्स्ट

आज के दौर में सेहत से भी बढ़ कर सुरक्षा का सवाल अहम हो गया है. रोज अखबारों की सुर्खियां असुरक्षित माहौल की ओर इंगित करती हैं. साथ ही आज का दौर गैजेट्स का है जिस से जुड़ कर जहां हम हर समय अपने परिचितों के कौंटैक्ट में रहते हैं, जरूरत पर उन्हें मदद के लिए भी बुला सकते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि हर समय हमारे परिचित तक मैसेज पहुंचे या हम तक मदद इसलिए अपनी सुरक्षा के लिए खुद ही सजग रहना होगा.

हाल ही में युवतियों, बच्चों, वृद्धों, दिव्यांगों के लिए इस प्रकार के गैजेट्स, तकनीकी उपकरण लौंच किए गए हैं जिन से न केवल हम सुरक्षित महसूस करते हैं बल्कि घर उपयोग की भी कई चीजें इन में शामिल हैं. इन में शामिल हैं, मिर्च स्प्रे, जीपीएस वौच, शौक देती इलैक्ट्रिक टार्च, बैटरी इन्हैंसर, सीसीटीवी कैमरा, वाहन ट्रैकर आदि.

इन सुरक्षा उपकरणों का प्रदर्शन पिछले दिनों दिल्ली स्थित प्रगति मैदान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा प्रदर्शनी 2016 में किया गया. जानिए कुछ सुरक्षा उपकरणों के बारे में.

मिर्च स्प्रे

मिर्च अपने आप में ही एक बहुत बड़ा वैपन है जो मुसीबत के समय हमें दुश्मन के शिकंजे से बाहर निकालता है. सलाह भी दी जाती है कि अगर आप किसी अनसैफ रास्ते से गुजरें या फिर डेली आप को अकेले घर लौटना पड़ता हो तो अपने पर्स या बैग में मिर्च पाउडर या मिर्च पाउडर स्प्रे आवश्यक रखें ताकि जब कोई आप को छेड़े तो तुरंत उस की आंख में स्प्रे कर आप वहां से भाग निकले.

लेकिन कभीकभी स्प्रे का आकार दुश्मन को अलर्ट कर देता है और वह वहां से भागने में सफल हो जाता है लेकिन सिक्योरिटी एक्सपो में इस बात को ध्यान रख कर एक ऐसा मिर्च स्प्रे बना कर लौंच किया गया है जिस का साइज बिलकुल इंहेलर जितना है, जिस से जब कभी भी आप बाहर निकलें तो इसे अपनी मुट्ठी में दबा कर रख सकती हैं जिस से किसी को भी आप पर शक नहीं होगा और आप हमलावर को धोखा देने में कामयाब हो जाएंगी तो हुआ न कमाल का मिर्च स्प्रे.

जो बढ़ाए बैटरी की लाइफ

अकसर हम जब भी कोई फोन या इलैक्ट्रौनिक डिवाइस खरीदते हैं तो सब से पहले हमारी नजर उस की बैटरी पर जाती है यानी हम ऐसा डिवाइस खरीदने के इच्छुक होते हैं जिस की बैटरी ज्यादा समय तक चले, लेकिन महंगा फोन खरीदने के बाद भी उस की बैटरी लाइफ ज्यादा नहीं होती है जिस से हम निराश हो जाते हैं.

लेकिन आप की इस निराशा को आशा में बदलते हुए एक स्टार्टअप कंपनी ने बैटरी लाइफ इंहैंसर पेश किया और बताया कि इस से जुड़े 2 कैबल्स को बैटरी के टर्मिनल से जोड़ना होगा. इस से बैटरी की उम्र बढ़ जाएगी. यह दावा सिर्फ कहने भर के लिए नहीं बल्कि जब आप इस का इस्तेमाल करेंगे तब आप खुद यह बात कहने के लिए मजबूर हो जाएंगे.

पल पल की फुटेज आप के मोबाइल पर

आप नहीं जानते कि आप का पड़ोस कैसा है अच्छा या बुरा. आप घर में हैं और बाहर खड़ा आप का वाहन सुरक्षि है भी या नहीं और आप यही सोचसोच कर हर समय परेशान रहते हैं, क्योंकि हर समय आप अपनी कीमती चीजों को अपनी आंखों के सामने नहीं रख पाते. ऐसे में मन में डर बना रहना स्वाभाविक है.

अब आप के इसी डर को दूर करने के लिए सिक्योरिटी एक्सपो में एक ऐसा वन कैमरा सीसीटी कैमरा दिखाया गया है जो आप के घर पर न होने पर भी वहां की पलपल की खबर यानी लाइव फुटेज आप के मोबाइल पर भेजता रहेगा. इस की खासीयत यह है कि यह कैमरा इंटरनैट और बिना इंटरनैट दोनों के काम कर सकता है.

चाबी का छल्ला बड़े काम का

कीरिंग जिसे कि हम चाबी रखने के काम में उपयोग में लाते हैं या फिर कभीकभी अपने फ्रैंड को उस का नाम लिखा की रिंग भी गिफ्ट कर के हरदम उस के दिल के करीब रहना चाहते हैं.

अभी तक आप सिर्फ की रिंग के एक ही उद्देश्य से परिचित होंगे लेकिन आप को बता दें कि सिक्योरिटी एक्सपो जिस का उद्देश्य नए सुरक्षा उपकरणों से परिचित कराना हैमें एक ऐसा की रिंग दर्शाया गया जिसे देख सभी हैरान रह गए क्योंकि भले ही यह दिखने में की रिंग जैसा था लेकिन इस का काम बड़ा निराला है यानी जब भी आप मुसीबत में हो तो इस की रिंग में ले बटन को दबा अनी सुरक्षा खुद कर सकती हैं. क्योंकि इस को दबाने पर इस में से एंबुलैंस और पुलिस की ध्वनि सुनाई देगी, जिसे सुनते ही आसपास के लोग आप की सुरक्षा के लिए मिनटों में हाजिर हो जाएंगे. तो हुआ न कीरिंग आप का बौडी गार्ड.

जीपीएस आधारित बौय/ट्रैकर

जहां आजकल स्मार्ट वौचेज का जमाना है वहीं इन स्मार्ट वौचेज की और स्मार्ट बना रहा है इन में लगा जीपीएस सिस्टम. जो रिस्ट को गुड लुक देने के साथसाथ आप की सिक्योरिटी भी पूरी करता है. क्योंकि इस में ग्लोबल पोजिशिनिंग सिस्टम जो है.

इस बार एक्सपो में बच्चों को सुरक्षा देने के लिए जीपीएस वौच और महिलाओं के लिए ट्रैकर पेश किया गया, जो मोबाइल छिन जाने की स्थिति में भी वर्क करेगा और आप की करंट लोकेशन क्या है इस की जानकारी आप के परिचितों तक पहुंचाता रहेगा.

इस तरह इस बार सिक्योरिटी एक्सपो में पेश किए गए उपकरण महिलाओं, बच्चों आदि की सुरक्षा के लिए काफी मददगार साबित होंगे.

कोटा: छात्रों की आत्महत्याओं का जिम्मेदार कौन

देश में कोटा वर्तमान का ऐजुकेशन हब है जहां देशभर के नौनिहाल प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग लेने आते हैं, लेकिन यहां पहुंच कर उन्हें ऐसी अनेक परेशानियों को झेलना पड़ता है जिन्हें झेलते हुए उन की कमर टूट जाती है और हार कर उन्हें मौत को गले लगाना पड़ता है. जी हां, पिछले कुछ वर्षों से तो कुछ ऐसा ही हो रहा है.

यहां दी जा रही कुछ घटनाएं तो युवाओं द्वारा की जा रही आत्महत्या की महज बानगी हैं असलियत तो कुछ और ही है. आंकड़ों पर नजर डालें तो कोई भी वर्ष ऐसा नहीं गया जब यहां तैयारी करने आए युवाओं द्वारा आत्महत्या की घटनाएं न हुई हों.

4 दिसंबर, 2015 : गाजियाबाद की रहने वाली 17 वर्षीय सताक्षी गुप्ता, 6 वर्ष से यहां चाची के घर पर रह कर पढ़ाई के साथ प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रही थी. एक दिन सताक्षी ने पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली. पुलिस को कोई सुसाइड नोट नहीं मिला, लेकिन संदेह जताया गया कि पढ़ाई के दबाव के कारण उस ने यह कदम उठाया.

3 दिसंबर, 2015 : 19 वर्षीय मैडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहे वरुण जिंगर ने किराए के मकान में फांसी लगा ली. सुसाइड नोट में उस ने लिखा कि खुद की गलतियों के कारण वह यह कदम उठा रहा है. वह कौन सी गलती थी, इस का कहीं कोई जिक्र नहीं है. पुलिस का मानना है कि पढ़ाई का दबाव बड़ा कारण था.

1 नवंबर, 2015 : 18 वर्षीय अंजलि आनंद 12वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद 2014 में कोटा आ गई. एसीपीएमटी क्रैक करने के लिए उस ने 1 साल की पढ़ाई ड्रौप की, लेकिन एक दिन फांसी लगा कर अपनी इहलीला समाप्त कर ली. उस ने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि अपनी मौत के लिए वह खुद जिम्मेदार है.

28 अक्तूबर, 2015 : इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहे 17 वर्षीय विकास ने फांसी पर लटक कर खुदकुशी कर ली. उस के सुसाइड नोट में जिक्र है कि उस का रुझान इतिहास और कला में था, लेकिन मम्मीपापा की इच्छा थी कि वह इंजीनियर बने.

कई मामलों में पुलिस मोबाइल कौल की छानबीन नहीं करती. कुछ कोचिंग इंस्टिट्यूट के अधिकारियों का मानना है कि पुलिस केवल खानापूर्ति करती है. जब तक पुलिस हर केस की तह तक नहीं पहुंचेगी, तब तक असलियत का पता नहीं लगेगा. कुछ सामाजिक संगठनों ने बताया कि एक छात्र 5 से 7 घंटे कोचिंग संस्थान में बिताता है, बाकी समय वह बाहर रहता है.

उसे अकेलापन, बीमारी, पोषक तत्त्वों की कमी, परिवार का दबाव, आर्थिक तंगी, आजादी, रोकटोक जैसे कई कारक खुदकुशी के लिए प्रेरित कर सकते हैं. कई छात्र बेहिसाब खर्च करते हैं और कर्ज में डूब जाते हैं. कुछ का विपरीत सैक्स के साथ याराना हो जाता है. ये सब बहुत आसान है क्योंकि छात्र अकेला रहता है.

लगातार बढ़ती आत्महत्याओं को ले कर चिंतित राजस्थान सरकार ने एक ड्राफ्ट बनाने का मन बनाया है, क्योंकि राजस्थान में भी छात्रों द्वारा इस तरह की आत्महत्या करने की घटनाएं अकसर होती रहती हैं. इस कमेटी में कोचिंग संस्थान के संचालक भी शामिल होंगे.

ड्राफ्ट में निम्न बिंदुओं पर ध्यान दिया जाएगा :

–       फीस में अंतर को कम किया जाए.

–       ऐडमिशन के दौरान छात्र और अभिभावक दोनों की काउंसिलिंग हो.

–       फैकल्टी की भी काउंसलिंग हो. फैकल्टी को तनावमुक्त बनाने के लिए प्रेरित किया जाए.

–       एक बैच में छात्रों की संख्या सीमित की जाए.

कोचिंग संस्थानों की फीस और सालाना खर्च डेढ़ से 2 लाख रुपए तक होता है. ऐसे में अभिभावकों को काफी मुश्किलें होती हैं. छात्र पर भी काफी दबाव रहता है. कई पेरैंट्स तो बारबार महंगी फीस, रहनेखाने पर भारी खर्च के बारे में अकसर अपने बच्चों को जताते रहते हैं. ऐसे में छात्रों में हताशा और तनाव व्याप्त होना लाजिमी है.

मुख्य सचिव की अध्यक्षता में हुई बैठक में नियंत्रण के लिए राज्य स्तर पर नियम बनाने को ले कर आम सहमति बनी है. बैठक में कहा गया कि बच्चों में बढ़ते तनाव के लिए किसी एक को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं है.

उधर, कोटा के एसपी सवाई सिंह ने बताया कि लगभग सभी आत्महत्याएं फंदे से लटक कर की गई हैं.

जो भी आत्महत्या के मामले सामने आए, उन में 10% मामले प्रेम प्रसंग से जुड़े थे, अन्य सभी मामले पढ़ाई को ले कर उपजे तनाव से जुड़े थे. एक कोचिंग सैंटर संचालक ने बताया कि बच्चे हमारे पास तो केवल 4 से 5 घंटे रहते हैं. बाकी समय तो वे बाहर ही होते हैं. आत्महत्या के पीछे और भी कई कारण हो सकते हैं.

इन प्रावधानों पर चर्चा

–       क्लास में छात्रों की संख्या कम की जाए.

–       अभिभावकों की भी काउंसिलिंग हो.

–       कैरियर काउंसिलिंग की जाए. प्रवेश परीक्षाओं में कटऔफ की वास्तविक स्थिति बताई जाए.

–       हर रविवार को साप्ताहिक अवकाश अनिवार्य हो. ऐक्स्ट्रा क्लास या टैस्ट जैसी ऐक्टिविटीज न हों.

–       अनुपस्थित रहने वाले विद्यार्थियों पर निगरानी रखी जाएगी.

–       विद्यार्थियों की आयुवर्ग के हिसाब से मनोरंजक एवं मोटिवेशनल गतिविधियों का भी समावेश किया जाएगा.

पेरैंट्स की अपेक्षाएं

हर पेरैंट्स की अपने बच्चों से काफी अपेक्षाएं रहती हैं. इसलिए वे बच्चों को आईआईटी और मैडिकल परीक्षा क्रैक करने के लिए हर साल कोटा भेजते हैं. जहां इन से मोटी फीस वसूली जाती है और रहनेखाने का भी काफी खर्च आता है. इस के बावजूद यदि स्टूडैंट्स को हाथ कुछ आता नहीं दिखता तो उन के सामने आत्महत्या के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता. मांबाप अपनी दमित इच्छा को बच्चों के जरिए पूरी कराना चाहते हैं, जो उन की बड़ी भूल है.

बच्चों की इच्छा को जाने बिना उन्हें कठिन प्रतिस्पर्द्धा के लिए जबरदस्ती भेजना कतई न्यायोचित नहीं है. 12वीं तक साथ रहने के बाद बच्चों को एकदम अलगथलग रह कर अकेले समय बिताना कठिन हो जाता है.

उन के खाने के स्तर में निरंतर गिरावट, तंग कमरे और घुटन भरे माहौल में गुजारा करना वाकई चुनौती भरा  है.

शुरुआती दौर में कोटा में चुनिंदा कोचिंग संस्थान थे, जहां कमरे बड़े और आरामदायक मिल जाते थे. सस्ते में अच्छा खाना मिल जाता था, लेकिन आज कोटा में पांव रखने की जगह नहीं है. ऐसे माहौल में युवा घुटन महसूस करते हैं और जिंदगी से बेजार हो कर मौत को गले लगा लेते हैं.

पेरैंट्स को अपने बच्चों से उतनी ही अपेक्षाएं रखनी चाहिए जितनी वे आसानी से पूरी कर सकें. पढ़ाई का प्रैशर न ही बनाएं तो बेहतर है.

युवा होने के कारण विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण भी स्वाभाविक है. ऐसे में बिना मार्गदर्शन के यहां रह रहे छात्रछात्राओं को गलत राह पर जाने में भी देर नहीं लगती. कोचिंग संस्थानों को केवल क्लास में अनुशासन कायम रखने और फीस से मतलब होता है तो लौज मालिक को केवल अपने किराए से. इस विषम परिस्थिति में लाखों युवा दिशाहीनता का शिकार हो रहे हैं.           

प्रशासनिक बैठक में किए गए मुख्य निर्णय

–       ऐग्जिट पौलिसी के तहत छात्र जब चाहें कोचिंग की पढ़ाई छोड़ सकते हैं. ऐसे में जितने समय उन्होंने पढ़ाई की है, उन से उतना ही शुल्क लिया जाए.

– प्रदेश में कोचिंग के लिए रैगुलेटरी सिस्टम बनाया जाएगा.

– तनावमुक्ति के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएं.

– हर कोचिंग संस्थान में 24 घंटे चालू रहने वाली हैल्पलाइ

निशाने पर हैं मुसलिम

यह सचमुच हैरानी की बात है कि कभी इसलाम पर खतरे की बातें करने वाले लोगों ने आज खुद पूरी मुसलिम कौम को ही खतरे में डाल दिया है. इसलाम न कल खतरे में था और न आज खतरे में है. सचाई यह है कि खतरे में धर्म नहीं, लोग होते हैं. इतिहास इस बात का गवाह है कि लाखों यहूदी मौत के घाट उतारे गए, पर उन का धर्म जिंदा है. लाखों ईसाई मारे गए, पर ईसाई धर्म जिंदा है. लाखों बौद्धों का कत्लेआम हुआ, उन के मठ और विहार तोड़ दिए गए, पर बौद्ध धर्म खत्म नहीं हुआ. हिंदुओं पर भी कम जोरजुल्म नहीं हुए, पर हिंदू धर्म अपनी तमाम परंपराओं के साथ जिंदा है. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि यह सारा खूनखराबा धर्म के नाम पर हुआ और आज भी धर्म के नाम पर लोगों को मारा जा रहा है.

आज मुसलिम पूरी दुनिया में निशाने पर हैं. उन्हें शक की निगाह से देखा जा रहा है. हवाईअड्डों पर उन की कड़ी चैकिंग की जाती है और अगर किसी सार्वजनिक जगह पर कोई जालीदार टोपी पहने काली दाढ़ी वाला नौजवान दिख जाता है, तो लोगों में दहशत भर जाती है. अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने तो मुसलिमों के अमेरिका में दाखिल होने पर बैन तक लगाने का ऐलान कर दिया है. यह संकट सिर्फ बाहर ही नहीं है, बल्कि खुद मुसलिमों के भीतर भी है. खुद मुसलिम देशों में वे महफूज नहीं हैं. वे शिया के नाम पर मारे जा रहे हैं, सुन्नी के नाम पर मारे जा रहे हैं. बाजारों में मारे जा रहे हैं, रैस्टोरैंटों में मारे जा रहे हैं. बसों और ट्रेनों में मारे जा रहे हैं. स्कूलों में मारे जा रहे हैं. मसजिदों में मारे जा रहे हैं. यहां तक कि अल्लाह की हुजूरी में इबादत करते हुए मारे जा रहे हैं. यह कैसा जिहादी जुनून है कि जिन मुसलिमों को दुनिया में ज्ञानविज्ञान में तरक्की करनी थी, वह आज उन की ही आबादी का दुश्मन बना हुआ है?

दहशतगर्दी के समर्थक कहते हैं कि इस का जिम्मेदार अमेरिका है. अमेरिका ने ही आतंकवाद पैदा किया है और वही उस को पालपोस रहा है. कुछ समर्थक मानते हैं कि इराक की लड़ाई और सद्दाम हुसैन को फांसी दिए जाने के बाद मुसलिमों का गुस्सा आतंकवाद के रूप में उभरा है. अगर ऐसा है, तो यह बड़ा दिलचस्प है कि इसलाम के नाम पर आतंक फैलाने वाले मुसलिम अपने ही धर्म भाइयों को मार रहे हैं. वे उन मुसलिमों को मार रहे हैं, जिन का इराक की लड़ाई से कुछ लेनादेना नहीं है. वे स्कूलों में घुस कर पढ़ने वाले बच्चों का खून बहा रहे हैं, जिन्होंने ठीक से अभी दुनिया में कदम भी नहीं रखा है. वे जिस तरह से लोगों को अंधाधुंध मार रहे हैं, जो एकदम बेकुसूर और बेगुनाह हैं, उस से पता चलता है कि उन का मकसद सिर्फ दहशत फैलाना है और कुछ भी नहीं.

हैरत होती है कि वे न तो अपने आकाओं से सवाल करते हैं और न ही अपने दिल से पूछते हैं कि जिन मासूमों का खून बहाने का मिशन उन्हें दिया गया है, उस से इसलाम या मुसलिमों या फिर उन के आकाओं का कौन सा मकसद पूरा हो रहा है? अजीब बात है कि इस आतंक के खिलाफ मुसलिमों की आवाज बहुत दबीदबी सी है. हालांकि यह इस बात का सुबूत नहीं है कि वे अलकायदा या इसलामिक स्टेट जैसे खूंख्वार आतंकी संगठनों को पसंद करते हैं. इस की वजह शायद यह है कि भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश समेत पूरी दुनिया के आम मुसलिमों की धार्मिक बागडोर उन धर्मगुरुओं के हाथों में है, जो अपनेअपने तरीके से उन्हें इसलाम समझाते हैं और अपने फायदे के लिए उन का इस्तेमाल करते हैं. मिसाल के तौर पर बरेलवी और देवबंदी संप्रदायों के धर्मगुरु अकीदतमंदों को इस तरह टे्रनिंग देते हैं कि नमाज पढ़ने के तौरतरीके तक पर वे एकदूसरे का सिर फोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं. बरेलवी संप्रदाय के एक मौलाना ने देवबंदी मजलिस में शिरकत की, जो मुसलिम एकता के लिए कराई गई थी, तो बरेलवी अकीदे के मुसलिम मौलाना के खिलाफ हो गए. मौलाना ने माफी मांग कर मामले को खत्म किया. इस तरह की जमातों और धर्मगुरुओं की जबरदस्त जकड़बंदी को तोड़ना अकीदतमंद मुसलिमों के लिए एक नामुमकिन सा काम है. ऐसे मुसलिम आतंकवाद के खिलाफ किसी बड़ी मुहिम या तहरीक में अपने धर्मगुरुओं की मरजी के खिलाफ कैसे भाग ले सकते हैं?

यह सही है कि आतंकवाद के खंडन में कुछ उलेमाओं के बयान आते रहते हैं और ज्यादातर इसे इसलाम विरोधी भी मानते हैं, पर इस के खिलाफ दुनियाभर के मुसलिमों को एकजुट करने वाले किसी भी आंदोलन की अगुआई वे नहीं करते.

अभी बंगलादेश के एक पत्रकार सैयद बदरुल अहसन ने अपने एक लेख में, जो 8 जुलाई, 2016 को हिंदी के अखबार ‘अमर उजाला’ में छपा था, लिखा था कि ढाका, पैरिस, ब्रसेल्स, इस्ताम्बुल, बगदाद और मदीना समेत दुनियाभर में इसलामी स्टेट के ये तथाकथित जिहादी नास्तिक हैं. अभी तक इन्हें इसलाम का दुश्मन तो कहा जाता रहा है, पर इन्हें नास्तिक किसी ने नहीं कहा था. आज पहली बार किसी ने इन्हें नास्तिक कहा है. दिलचस्प है कि यह नास्तिक शब्द  नया है. इनसानियत में यकीन करने वाले नास्तिकों के लिए यह बेइज्जती वाला हो सकता है कि वे बेगुनाहों का खून भी बहाते हैं, पर यह सचमुच तीखा मजाक है. इसलाम के नजरिए से देखें, तो मुसलिम भाईचारा उस का सब से बड़ा सामाजिक फलसफा है, पर इसलामी स्टेट के जिहादी इसी फलसफे को तारतार कर रहे हैं. उस की दूसरी सब से बड़ी ताकत फलसफा ए तौहीद (एकेश्वरवाद) है, जिस का मतलब सिर्फ यही नहीं है कि एक ईश्वर के सिवा दूसरा कोई ईश्वर नहीं है, बल्कि यह भी है कि मुसलिम वह श्रेष्ठ समुदाय है, जिसे अल्लाह के बंदों की भलाई की जिम्मेदारी सौंपी गई है और जिस का काम बुरे कामों को रोक कर भलाई के कामों को अंजाम देना है.

इस लिहाज से अल्लाह के बेगुनाह बंदों का कत्ल करने वाले ये तथाकथित इसलामी जिहादी मुसलिम तो कतई नहीं हो सकते. अगर मुसलिम भाईचारा और फलसफा ए तौहीद में उन का अकीदा होता, तो वे यकीनन इस गुनाह से बचते. कुरान, जिसे मुसलिम पाक और आसमानी किताब मानते हैं, में कहा गया है कि (3:138) ‘यह मानव जाति के अधिकारों का घोषणापत्र और अल्लाह से डरने वालों के लिए मार्गदर्शन और हिदायत है’.

साल 1990 में इसलामिक फाउंडेशन ट्रस्ट, मद्रास ने जो ‘यूनिवर्सल इसलामिक डिक्लेरेशन औफ ह्यूमन राइट्स’ छापा था, उस में भी इस आयत को मुख्य आधार बनाया गया था, तो क्या बेगुनाहों का खून बहाना, मासूम बच्चों को गोलियों से भूनना और शहरों को तबाह करना अल्लाह की हिदायत और ऐलान है? जाहिर है कि नहीं है, इसलिए इन तथाकथित जिहादियों को इस माने में नास्तिक कहा भी जा सकता है कि उन्हें अल्लाह का खौफ नहीं है. शायद ये जानते हैं कि अगर अल्लाह सच में है, तो वह अपने बंदों को इन शैतानों से जरूर बचाता. शायद यही वजह है कि मुसिलम भाईचारा और फलसफा ए तौहीद उन के लिए कोई अहमियत नहीं रखता है.

एक डाक्टर जाकिर नाईक हैं, जो प्रवीण तोगडि़या की तरह डाक्टर का पेशा छोड़ धर्म के उपदेशक बन गए हैं. वे इसलामी रिसर्च फाउंडेशन के संस्थापक हैं और पीस टीवी पर इसलाम पर तुलनात्मक तकरीरें करते हैं. इसलाम के मौजूदा तमाम फिरकों में एक फिरका उन का भी है डाक्टर जाकिर नाईक 30 से भी ज्यादा देशों में 2 हजार से ज्यादा सभाएं कर चुके हैं, जिन्हें सुनने के लिए हजारों की तादाद में पढ़ेलिखे नौजवान आते हैं. उन के ट्विटर और फेसबुक अकाउंट को भी लगभग सवा करोड़ लोग फौलो करते हैं. एक तरह से देखा जाए, तो पढ़ेलिखे मुसलिमों पर डाक्टर जाकिर नाईक का असर दूसरे इसलामी धर्मगुरुओं से ज्यादा पड़ता है, इसलिए इसलामिक स्टेट के जिहादियों को मुख्यधारा से जोड़ने की कूवत इस इनसान में सब से ज्यादा है. पर यह अजीब बात है कि डाक्टर जाकिर नाईक की तकरीरें और इसलामी बातें पढ़ेलिखे मुसलिम नौजवानों को और भी ज्यादा उग्र और जिहादी बनाती हैं. सवाल है कि क्या मानव जाति के लिए इसलाम के घोषणापत्र को डाक्टर जाकिर नाईक जैसे तथाकथित धर्मगुरु जिहादी मुसलिमों में क्यों नहीं भरते?

रियो ओलिंपिक में भारत टांय टांय फिस

जिस देश में खेलों के प्रति कोई कारगर नीति न हो, खेलों का बुनियादी ढांचा बुरी तरह चरमराया हो, खेल संगठनों पर ऐसे राजनेताओं और नौकरशाहों का कब्जा हो, जिन्होंने कभी गिल्लीडंडा तक न खेला हो तो खेलों की ऐसी ही दुर्दशा होगी, जो रियो ओलिंपिक में हुई. सवा सौ  करोड़ की आबादी वाले देश के खाते में मात्र 2 पदक, उस में भी कोई स्वर्ण नहीं. ओलिंपिक शुरू होने के पहले प्रधानमंत्री, खेलमंत्री और खेल संघों पर आसीन अधिकारियों ने पदकों को ले कर जम कर प्रचार किया था, लेकिन 15 दिन के इस खेल मेले में सबकुछ टांयटांय फिस हो गया. 119 खिलाड़ी, उन के प्रशिक्षक, मैनेजर, संघ अधिकारी से ले कर करीब 200 लोगों का कारवां रियो गया था, लेकिन टीम बीजिंग (2008) और लंदन ओलिंपिक (2012) वाला प्रदर्शन भी नहीं दोहरा पाई. 2 पदक जिन लड़कियों की बदौलत आए हैं, उन्हें पहले भाव तक ही नहीं दिया गया था और अब संतरी से मंत्री तक उन के साथ अपनी तसवीरें खिंचवाने और नाम जोड़ने की जुगत में लगे हैं. हर तरफ पैसों की खूब बरसात हो रही है. इनाम और तोहफे बांटे जा रहे हैं. सम्मान समारोह खत्म होने का नाम नहीं ले रहे हैं.

इस घटिया प्रदर्शन को कुछ दिन बाद भुला दिया जाएगा. भले ही प्रधानमंत्री भविष्य में खेलों की दशा सुधारने की दिशा में नई योजना का ऐलान कर चुके हैं, लेकिन उस का क्रियान्वयन कौन करेगा, वही जो खेल संघों पर वर्षों से कब्जा जमाए बैठे हैं? रियो में 14 खेलों में भारत ने भाग लिया था, लेकिन एक भी खेल संगठन प्रमुख ने खराब प्रदर्शन के लिए अपनी नैतिक जिम्मेदारी नहीं ली है. पूरे देश ने देखा कि इन की मजबूत लौबी ने खेल विधेयक को पारित नहीं होने दिया. लोढ़ा कमेटी कहतेकहते थक चुकी है, लेकिन बीसीसीआई के चेहरे पर शिकन नहीं आई है. पता नहीं किस मिट्टी के बने हैं. पूर्व खिलाडि़यों को भी खेल संघों में घुसने नहीं देते हैं. देश के 27 खेल संगठनों में 2 या 3 संघ हैं जिन में पूर्व खिलाड़ी हैं. उन पर भी तलवार लटकती रहती है. पूर्व खिलाडि़यों का बाकायदा एक संगठन है, लेकिन उस की मांगों को हमेशा अनसुना कर दिया जाता है. 

मैराथन धाविका ओ पी जैशा का हालिया बयान खेल संगठनों की कारगुजारियों का कच्चा चिट्ठा खोलने के लिए काफी है. उस ने साफ कहा है कि देश में महज 2-3 खेल संघों जिन के पास भविष्य की कारगर योजनाएं हैं, के अलावा बाकी अपनाअपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं. उल्लेखनीय है कि रियो में जैशा ट्रैक पर गिर कर बेहोश हो गई थी. उस दौरान वहां कोई भारतीय अधिकारी मौजूद नहीं था. अगर थोड़ी और देर हो जाती तो उस की जान भी जा सकती थी, लेकिन अधिकारियों ने मामले को दबा कर इतिश्री मान ली है.

हैरान परेशान चीनी अधिकारी

हमारे देश को 2 पदक क्या मिले कि ऐसी खुशियां मनाई जा रही हैं जैसे कोई बहुत बड़ा खजाना हाथ लग गया हो. आप अपने पड़ोसी मुल्क चीन से सीखें, 70 पदक झोली में आने के बावजूद उन की सरकार की खिलाडि़यों पर भौंहें तनी हुई हैं. खराब प्रदर्शन के लिए उन से सफाई मांगी जा रही है. कहीं कोई स्वागत समारोह नहीं, उलटा प्रशिक्षकों और अधिकारियों को अभी से टोक्यो (2020) ओलिंपिक की तैयारी के लिए घर जाने के बजाय स्टेडियम की तरफ रुख करने के फरमान जारी किए गए हैं. लंदन ओलिंपिक में चीन पदक तालिका में दूसरे स्थान पर रहा था.

खेल मंत्री नहीं खेल काउंसिल

चीन और अमेरिका समेत कई देशों में कोई खेल मंत्री नहीं होता बल्कि वहां खेल काउंसिल है, जिस टीम में पूर्व खिलाड़ी, जानकार नौकरशाह और कुछ उद्योगपति सदस्य होते हैं. खिलाडि़यों की चयन प्रक्रिया और बेहतर प्रशिक्षण में किसी तरह की कोताही नहीं बरती जाती है. अमेरिका भी खेलों की सुपर पावर ऐसे नहीं बन गया. अमेरिका लंदन में चीन के प्रदर्शन को देखते हुए इस बार काफी डरा हुआ था, लेकिन उस के बेहद करीबी दोस्त ग्रेट ब्रिटेन ने उस की मुश्किलों को आसान कर दिया. ब्रिटेन आशा के विपरीत  दूसरे स्थान पर रहा. चीन इस बार अमेरिका की बादशाहत समाप्त करने के उद्देश्य से 410 खिलाडि़यों के बड़े दलबल के साथ उतरा था, लेकिन ग्रेट ब्रिटेन ने उस की आशाओं पर पानी फेर दिया. तीसरे स्थान पर धकेले जाने से चीनी अधिकारी गहरे सदमे में हैं. चीनी जिमनास्टिक, बैडमिंटन और गोताखोरी में नाकामी को नहीं पचा पा रहे हैं. इन खेलों में चीन की हमेशा तूती बोलती थी. बैडमिंटन के महिला एकल फाइनल में चीनी खिलाड़ी नहीं पहुंच पाई. भारत की पी वी सिंधु और स्पेन की कैरोलिना मार्टिन के बीच स्वर्ण के लिए मुकाबला हुआ. 2 गैरचीनी लड़कियों का इस दौर तक पहुंचना बताता है कि चीनी दीवार में सेंध लगाना आसान हो रहा है.

रियो में भारत

हमें जिस खेल में सब से ज्यादा बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद थी, उस में भी हम पूरी तरह धराशायी हो गए. 12 सदस्यीय निशानेबाजों की टीम में अभिनव बिंद्रा, जीतू राय और गुरप्रीत सिंह पदक से चूक गए. बाकी निशानेबाजों का प्रदर्शन भी लचर रहा. लंदन ओलिंपिक के कांस्य पदक विजेता गगन नारंग, पूर्व विश्व चैंपियन हीना सिद्धू, मिराज अहमद खान, मानवजीत सिंह, एन प्रकाश, चैन सिंह, पूर्वी चंदेला, अयोनिका पाल के निशाने लक्ष्य से बाहर लगे.

लौन टैनिस

लंदन ओलिंपिक की तरह खिलाडि़यों के आपसी मतभेदों खास कर लिएंडर पेस, महेश भूपति के आपसी मतभेदों के कारण इस बार भी हम ने पदक गंवाया. रोहन बोपन्ना को पेस के साथ जबरन खिलाने का खमियाजा भारत ने भुगता. विश्व महिला युगल की शीर्ष रैंकिंग प्राप्त सानिया मिर्जा का खाली हाथ लौटना पूरी तरह अखर रहा है. वह मिश्रित युगल में रोहन बोपन्ना के साथ सेमीफाइनल में पहुंची थी, लेकिन भारतीय मूल के राम और विलियम की अमेरिकी जोड़ी ने उन के मनसूबों पर पानी फेर दिया. सानिया की प्रार्थना के साथ युगल जोड़ी में वैसे भी ज्यादा उम्मीद नहीं थी. अगर युवा खिलाडि़यों को मौका दिया जाता तो उन्हें अगले ओलिंपिक के लिए कुछ अनुभव तो मिलता.      

एथलैटिक्स

पहली बार एक बड़े भारतीय दल ने रियो के लिए क्वालिफाई किया था, लेकिन कभी नहीं लगा कि भारतीय ऐथलीट कोई चमत्कार कर पाएंगे, क्योंकि दूसरे ऐथलीटों की तुलना में उन का प्रदर्शन काफी कमजोर रहा. बस, एक उम्मीद थी कि भारतीय ऐथलीट अपने प्रदर्शन में सुधार करेंगे, लेकिन ऐसा भी कुछ नहीं हुआ. एकमात्र ललिता बाबर नैशनल रिकौर्ड अपने नाम करने में सफल रही. कई भारतीय ऐथलीटों ने हांफतेहांफते अपना ओलिंपिक का सफर पूरा किया. पी टी उषा की शिष्या टिंकू लुका (800 मीटर) ने भी निराश किया. चक्का फेंक में विकास गौड़ा और सीमा अंतिल अपने प्रदर्शन में कोई सुधार नहीं कर पाए. 

तीरंदाजी

हाल के कुछ वर्षों में भारतीय तीरंदाजों के स्तर में जबरदस्त इजाफा हुआ है. इसलिए इस बार पदक की कुछ उम्मीदें बंधी थीं. अतानु दास और दीपिका कुमार का क्वार्टर फाइनल तक पहुंचना बहुत बड़ी बात रही. एकमात्र युवा तीरंदाज अतानु दास ने काफी प्रभावित किया. इस तीरंदाज ने अगले ओलिंपिक के लिए पदक की आस जगा दी है. कुल मिला कर भारतीय तीरंदाजी दल अपनी छाप छोड़ने में सफल रहा.

बैडमिंटन

लंदन ओलिंपिक का पदक भारत के लिए इस बार उम्मीदें ले कर आया था. भारत की स्टार खिलाड़ी साइना नेहवाल पर सभी की नजरें टिकी हुई थीं, लेकिन लगातार चोटों से जूझ रही साइना एक अहम मैच में उलटफेर का शिकार हो गई. साइना की इस कमी को पी वी सिंधु ने फाइनल में पहुंच कर पूरा किया. ज्वाला गुट्टा और अश्विनी पोनप्पा की युगल महिला जोड़ी औफ कलर रही. पुरुष वर्ग में के श्रीकांत के प्रदर्शन को दरकिनार नहीं किया जा सकता. वह क्वार्टर तक पहुंचा और उस ने इस मैच में विरोधी खिलाड़ी से जम कर लोहा लिया. उस ने बेहतर खेल का प्रदर्शन किया.

इसी प्रदर्शन की बदौलत वह साइना, सिंधु के साथ विश्व के सर्वश्रेष्ठ 10 खिलाडि़यों की सूची में आ गया है. उल्लेखनीय है कि महान बैडमिंटन खिलाड़ी प्रकाश पादुकोण ने सिंधु से एकल में पदक की उम्मीद जताई थी. सिंधु अपने आदर्श पर खरी उतरी और पदक जीत कर उस ने भारत का नाम रोशन किया.  

कुश्ती

8 सदस्यीय दल को सिर्फ एक पदक मिला जबकि इन से कम से कम 3 पदकों की उम्मीद थी. खासकर चौथे ओलिंपिक में भाग लेने वाले योगेश्वर दत्त से तो पूरी उम्मीदें थी ही, लेकिन वह अहम मुकाबले में दांव खो बैठा. पदक के प्रबल दावेदार नरसिंह यादव को मुकाबले से कुछ घंटे पहले ही डोपिंग में निकाले जाने की घटना भारत के लिए किसी सदमे से कम नहीं थी. महिला पहलवान विनेश फोगट भी पदक की दावेदार थी लेकिन विरोधी पहलवान ने रणनीति के तहत उस की जांघ को इतना नुकसान पहुंचाया कि वह मैट से उठ नहीं पाई.   

जिमनास्टिक

जिमनास्टिक में भारत की कोई पहचान नहीं है, लेकिन देश के बेहद गरीब राज्य त्रिपुरा की दीपा कर्माकर ने यह कर दिखाया. कुछ साल से अपने प्रदर्शन से चौंकाने वाली दीपा को छिपी रुस्तम जिमनास्ट के रूप में माना जा रहा था. वह बेहद कम अंतर (1.5 अंक) से इतिहास रचने से चूक गई. दीपा के प्रदर्शन को जिमनास्टिक के जानकारों ने पूरी तरह सराहा है.   

हौकी

हमारे राष्ट्रीय खेल हौकी की ओलिंपिक में कुछ चमक बरकरार रही. महिला टीम ने 36 साल बाद ओलिंपिक के लिए क्वालिफाई किया. टीम ने जापान के साथ उद्घाटन मैच ड्रौ खेला था. बाकी मैचों में भारतीय टीम अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई. पुरुष टीम ने भी क्वार्टर फाइनल के लिए क्वालिफाई कर इतिहास रचा. उस ने आयरलैंड और फाइनल में पहुंची अर्जेंटीना जैसी टीम को हराया. कनाडा से ड्रा खेला. जरमनी और नीदरलैंड्स से कड़े संघर्ष के बाद पराजित हुई. क्वार्टर फाइनल में बेल्जियम के खिलाफ पहले बढ़त लेने के बाद टूरनामैंट से बाहर हुई. रियो  के प्रदर्शन के बाद भारतीय टीम विश्व रैंकिंग में छठे स्थान पर पहुंच गई है.

अन्य खेल

भारोत्तोलन में मीरा चानू और सतीश मात्र औपचारिकता निभाने रियो गए. दोनों अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन से दूर रहे. एकमात्र जूडोका पहले ही राउंड में चुनौती पेश नहीं कर पाया. रोइंग में एकमात्र भारतीय चुनौती पदक के आसपास नहीं दिखी. भोलू ने अपना दमखम जरूर दिखाया और वह 15वें स्थान पर रहा. मुक्केबाजी में प्रतिभाशाली शिव थापा पदक की उम्मीदें ले कर गया था, लेकिन पहले ही राउंड में पिट कर बाहर हो गया. मनोज ने भी निराश किया. विश्व चैंपियनशिप के पदकधारी विकास यादव ने 2 राउंड जीतने के बाद क्वार्टर फाइनल में जगह बनाई, लेकिन वहां पराजित हो गया. गोल्फ में भारत की 3 सदस्यीय टीम मात्र प्रतिनिधित्व करने गई थी. पूरे सौ साल बाद ओलिंपिक में शामिल इस खेल में अनिर्बाण लाहिड़ी, एस एस पी चौरसिया और अदिति अशोक ने क्वालिफाई तो किया था, लेकिन वे कहीं भी अपनी छाप नहीं छोड़ पाए. टेबल टैनिस में 4 खिलाडि़यों का ओलिंपिक के लिए क्वालिफाई करना ऐतिहासिक है, लेकिन शरद कमल, सौम्यजीत घोष, मोनिका बत्रा और मौमा दास इस सुनहरे मौके को भुनाने में सफल नहीं हो पाए.                                

ओलिंपिक टास्क फोर्स

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय दल के ओलिंपिक के निराशाजनक प्रदर्शन से इतने बौखलाए हुए हैं कि उन्होंने खेल संघों के पर काटने के लिए योजना पर गंभीरता से काम करना शुरू कर दिया है. प्रधानमंत्री ने आने वाले 3 ओलिंपिक तक के लिए ऐसी टास्क फोर्स बनाई है जो खिलाडि़यों की सुविधाओं, प्रशिक्षण, चयन प्रक्रिया, ट्रेनिंग और दूसरी जरूरतों पर नजर रखेगी. अभी तक यह जिम्मेदारी खेल संघों की थी. रियो में भारतीय ऐथलीटों के प्रदर्शन ने उन की योग्यता पर सवाल खड़े कर दिए हैं. वैसे भी देश में खेल संघों को मात्र औपचारिकता निभानी पड़ती है, क्योंकि सरकार आर्थिक सहायता से ले कर हर तरह की सुविधाएं मुहैया कराती है.

जिंदगी के बाद भी दलितों पर होता जुल्म

‘दलित भाइयों पर अत्याचार मत करो. अगर गोली मारनी है, तो उन्हें नहीं मुझे मारो…’ जैसी जज्बाती और किताबी अपील प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद के एक जलसे में की थी. उस का उलटा असर यह हुआ कि देशभर में दलित अत्याचारों की बाढ़ सी आ गई. दलितों पर कहर ढाने के लिए दबंग धर्म के नाम पर तरहतरह के नएनए तरीके ईजाद करते रहते हैं. गौरक्षा इन में से एक है. लेकिन मध्य प्रदेश के चंबल इलाके में तो दबंगों ने सारी हदें पार करते हुए ऐसा नजारा पेश किया था कि इनसानियत भी कहीं हो तो वह भी शर्मसार हो उठे.

लाश को भी नहीं बख्शा

ताजा मामला मुरैना जिले की अंबाह तहसील के गांव पाराशर की गढ़ी का है. 10 अगस्त, 2016 को इस गांव में एक दलित बाशिंदे बबलू की 25 साला बीवी पूजा की मौत हुई थी.

अपनी जवान बीवी की बेवक्त मौत का सदमा झेल रहा बबलू उस वक्त सकते में आ गया, जब दबंगों ने पूजा की लाश को श्मशान घाट में नहीं जलाने दिया. इस पर बबलू हैरान रह गया और दबंगों के सामने गिड़गिड़ाता रहा कि वह लाश को कहां ले जा कर जलाए, पर दबंगों का दिल नहीं पसीजा. उन्होंने बबलू को डांटफटकार कर भगा दिया कि जो करना है सो कर लो, पर एक दलित औरत की लाश श्मशान घाट में जलाने की इजाजत हम नहीं दे सकते.

मौत के कुछ घंटे बीत जाने के बाद घर में पड़ी लाश भी भार लगने लगती है, इसलिए बबलू की हालत अजीब थी कि बीवी की लाश का क्या करे. पाराशर की गढ़ी गांव में एक नहीं, बल्कि 3-3 श्मशान घाट हैं, पर तीनों पर रसूखदारों का कब्जा है, जिन में कोई दलित अंतिम संस्कार नहीं कर सकता. बबलू को बुजुर्गों ने मशवरा यह दिया कि बेहतर होगा कि पूजा की लाश को किसी खेत में जला दो. इस पर बबलू फिर गांव वालों के पास गया और बीवी की मिट्टी ठिकाने लगाने के लिए सभी जमीन वालों से 2 गज जमीन मांगी, पर किसी को उस पर तरस नहीं आया. जब इस भागादौड़ी में पूरे 24 घंटे गुजर गए और लाश गलने लगी, तो बबलू घबरा उठा और थकहार कर बुझे मन से उस ने पूजा की लाश का दाह संस्कार अपने घर के सामने बनी कच्ची सड़क पर किया. यह वही हिंदू धर्म है, जिस में किसी शवयात्रा के निकलते वक्त लोग सिर झुका कर किनारे हो जाते हैं और मरने वाले की अर्थी की तरफ देख कर हाथ जोड़ते हैं. लेकिन अगर शवयात्रा किसी दलित की हो, तो नफरत से मुंह फेर लेते हैं. गांवों में यह नजारा आम है, जिस के तहत मरने के बाद भी दलितों से ऊंची जाति वालों की नफरत खत्म नहीं होती, उलटे उन्हें तंग करने के लिए श्मशान में भी जगह नहीं दी जाती.

इस हकीकत पर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी कहा था कि अब गांव में एक घाट एक श्मशान होगा, दलितों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा. अकेले ग्वालियरचंबल इलाके की नहीं, बल्कि देशभर के गांवों की यही हालत है कि दलितों के घर कोई मौत हो, तो उन्हें लाश बड़ी जाति वालों की तरह श्मशान में जलाने की सहूलियत नहीं है. इस का मतलब तो यह हुआ कि धर्म मानता है कि आत्मा भी दलित होती है और किसी ऊंची जाति वाले की आत्मा को दलित की आत्मा छू गई, तो वह भी अपवित्र हो जाएगी. लेकिन हकीकत तो यह है कि इस तरह की ज्यादतियां दलितों को दबाए रखने के लिए जानबूझ कर की जाती हैं, जिस से वे दबंगों के सामने सिर नहीं उठा पाएं.

पाराशर की गढ़ी गांव की तरह दलितों को अपने वालों की लाश अपनी ही जमीन पर जलानी पड़ती है, लेकिन दिक्कत बबलू जैसे 95 फीसदी दलितों की होती है, जिन के पास अपनी जमीन नहीं होती. लिहाजा, वे लाश को किसी जंगल में या गांव के बाहर सरकारी जमीन पर जलाने के लिए मजबूर होते हैं.

कब्जा करने की मंशा

पाराशर की गढ़ी गांव के तीनों श्मशानों में केवल ऊंची जाति वालों की लाशें जलती हैं, पर हैरानी की बात यह है कि श्मशान की जमीनों पर दबंगों का कब्जा है और वे शान से इन जमीनों पर खेती करते हैं. उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है. पूजा की लाश को जगह न देने पर जब ज्यादा होहल्ला मचा, तो आला अफसर भागेभागे पाराशर की गढ़ी गांव गए और हालात का जायजा लिया. मुरैना के कलक्टर विनोद शर्मा और एसपी विनीत खन्ना ने फौरीतौर पर श्मशान घाट की जमीनों पर फैसिंग करवा दी, जो तय है कि जो कुछ दिनों या महीनों में हट जाएगी और दबंग फिर से इस सरकारी जमीन पर काबिज हो जाएंगे. मंदिर बना कर जमीनें हड़पना आम बात है. इसी तर्ज पर अब श्मशानों की जमीनों पर भी ऊंची जाति वाले कब्जा करने लगे हैं. जिस तरह मंदिरों में पूजापाठ के लिए दलितों को दाखिल नहीं होने दिया जाता, ठीक उसी तरह श्मशानों में भी उन्हें जलाने की इजाजत नहीं है.

पाराशर की गढ़ी गांव में तहकीकात करने गए अफसर कुरसियों पर बैठे दलित बबलू की दास्तां सुनते रहे और बबलू समेत और दलित नीचे जमीन पर बैठे रिरियाते रहे. प्रशासन ने बात सुनी, लेकिन किसी दोषी दबंग के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की. यह बात इस रिवाज को शह देने वाली नहीं तो क्या है? ऐसा ही एक मामला इसी साल अप्रैल के महीने में नरसिंहपुर जिले की करेली तहसील में सामने आया था. वंदेसुर गांव के एक गरीब बुजुर्ग की मौत के बाद उस के घर वाले लाश को जलाने श्मशान घाट ले गए, तो दबंगों ने उन्हें लाश समेत वहां से भगा दिया था. इस पर मरने वाले के भांजे गोपाल मेहरा ने हल्ला मचाया, तो गाडरवारा के तहसीलदार संजय नागवंशी गांव पहुंचे और मामले की जांच कर यह बयान दिया कि कायदेकानूनों के तहत कुसूरवारों पर कार्यवाही की जाएगी. दरअसल, वंदेसुर गांव की श्मशान घाट की 3 एकड़ जमीन पर दबंगों भानुप्रताप राजपूत और छत्रसाल राजपूत का कब्जा है. इस मामले में भी मरे बुजुर्ग का अंतिम संस्कार तालाब किनारे सड़क पर किया गया था. इन उजागर हुए मामलों से जाहिर सिर्फ इतना भर होता है कि जीतेजी तो दलित दबंगों का कहर झेलते ही हैं, पर मरने के बाद भी उन्हें बख्शा नहीं जाता.

गांव में पंचायती राज कहने भर की बात है, नहीं तो असल राज दबंगों का चलता है, जो श्मशान तक की जमीनें हथिया लेते हैं और दलितों की लाश को नहीं जलाने देते. समस्या श्मशान घाटों की कमी की नहीं, बल्कि छुआछूत और दबंगई की है, जिस के तहत ऊंची जाति वाले श्मशान तक में छुआछूत मानते हैं. वे अगर दलितों को श्मशान में लाश जलाने की इजाजत दे देंगे, तो जमीनों पर बेजा कब्जा नहीं कर पाएंगे. ज्यादातर दलितों के पास जमीनें नहीं हैं, इसलिए लाशों को ठिकाने लगाने के लिए वे यहांवहां भटकते रहते हैं. हालत यह है कि कुएं और नदी ऊंची जाति वालों के कब्जे में हैं, सड़कें उन के लिए हैं, मंदिर उन के लिए हैं और श्मशान घाट भी उन्हीं के हैं. ऐसे में भाईचारे और बराबरी की बात मजाक ही लगती है.

भारत की ओलिंपिक स्टार: साक्षी और सिंधु

पदक को लक्ष्य बना कर दिनरात मेहनत में जुट कर, मोबाइल और नैट से दूरी बना कर व अपना पसंदीदा भोजन तक त्याग कर जहां सिंधु ने ओलिंपिक में रजत पदक का सफर तय किया वहीं पुरुष प्रधान मानसिकता की खिलाफत झेलने के बावजूद कुश्ती में कांस्य पदक जीत कर देश का नाम ऊंचा करने वाली साक्षी मलिक ने दिखा दिया है कि कड़ी मेहनत और खेलों के प्रति जुनून से ही मंजिल पाई जा सकती है. आज दोनों हमारे किशोरों व युवाओं के लिए आदर्श बन गई हैं.

बचपन से ही दूसरों से अलग थी सिंधु

जिस उम्र में आमतौर पर बच्चियां रस्सीकूद, सांपसीढ़ी और दूसरे खेलों में व्यस्त रहती हैं, उस उम्र में सिंधु खिलाड़ी बनने का सपना देखने लगी थी. खेल तो उस के खून में रचाबसा था, क्योंकि उस के पिता पी वी रमन्ना और मां पी विजया राष्ट्रीय स्तर के वौलीबौल खिलाड़ी थे. खेल कौशल की बदौलत वे देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कार, अर्जुन अवार्ड से सम्मानित हो चुके थे.

घर में रखे अर्जुन पुरस्कार की ट्रौफी से सिंधु को गहरा लगाव था. दिन में जब भी मौका मिलता वह उसे कपड़े से साफ करना न भूलती. इस ट्रौफी ने सिंधु के लिए प्रेरणा का काम किया और उस ने फैसला कर लिया कि वह खेलों की दुनिया को बतौर कैरियर अपनाएगी.

रमन्नाविजया जिन की खेलों के कारण लवमैरिज हुई थी, बेटी की जिद के आगे झुक गए. उन्होंने सोचा कि एकदो साल में पढ़ाई के साथ खेलों को ज्यादा समय देने में सिंधु का सारा भूत उतर जाएगा, लेकिन हुआ उलटा, वह दोनों में अव्वल रहने लगी. अब मातापिता के पास कुछ कहने का मौका नहीं था. बेटी ने आगे बढ़ने की जिद की तो उन्होंने घर से 56 किलोमीटर दूर गोपीचंद बैडमिंटन अकादमी में उस का दाखिला करा दिया. तब सिंधु महज 8 वर्ष की थी.

स्कूल और अकादमी के रोजाना लंबे सफर से सिंधु जरा भी परेशान नहीं हुई. कड़ी मेहनत, खेल के प्रति समर्पण, समय पर ट्रेनिंग में आने से उस ने कोच गोपीचंद का भी दिल जीत लिया. बेसिक ट्रेनिंग के बाद उस ने प्रतियोगिताओं में उतरने की बात गोपी को बताई तो उसे मूक सहमति मिल गई. 10 साल की उम्र में अपने पहले टूरनामैंट, अखिल भारतीय रैंकिंग टूरनामैंट में उतरी और युगल वर्ग का स्वर्ण पदक जीत लिया. यह एक छोटी शुरुआत थी. इस के बाद उस ने कई टूरनामैंट जीते.

अपने 13वें वसंत में पहुंचने के साथ सिंधु पूरी तरह से परिपक्व हो चुकी थी. पांडिचेरी में राष्ट्रीय सबजूनियर चैंपियनशिप में वह चैंपियन बनी. इस के बाद पुणे में अखिल भारतीय रैंकिंग टूरनामैंट में फिर खिताब झोली में डाला. स्कूल के नैशनल खेलों (अंडर 19) में सिंधु बड़ी पहचान बना चुकी थी. सिंधु अब अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में उतरने का मन बना चुकी थी. उसे जल्दी ही 2009 में अपना जलवा दिखाने का मौका मिल गया. कोलंबो में आयोजित सबजूनियर एशियाई चैंपियनशिप उस के लिए एक बड़ा मंच था, क्योंकि चीनी खिलाडि़यों से दोदो हाथ करने का इस से बेहतर मौका कहां मिलने वाला था.

सिंधु ने अपने कैरियर के इस अंतर्राष्ट्रीय सफर में निराश नहीं किया और कांस्य पदक हथिया लिया. इस के बाद जूनियर विश्व चैंपियनशिप में वह क्वार्टर फाइनल में पहुंची. इसी प्रदर्शन की बदौलत सिंधु को उबेर कप में भाग लेने वाली भारतीय टीम की सदस्य बनने का मौका मिला.

वर्ष 2012 हैदराबाद की इस बाला के लिए नई सौगात ले कर आया. अपने शानदार प्रदर्शन से उस ने अंतर्राष्ट्रीय जगत में बड़ी पहचान बनाई. अहम बात यह रही कि सिंधु 17 साल की उम्र में शीर्ष 20 खिलाडि़यों में जगह बनाने में सफल रही. इस के बाद उसे भारत की जूनियर साइना नेहवाल कहा जाने लगा. उस ने एशिया यूथ अंडर-19 का खिताब जीता.

इस के बाद सिंधु ने दो बार विश्वचैंपियनशिप में कांस्य पदक जीत कर इतिहास रच दिया. इस दौरान सिंधु ने लंदन ओलिंपिक की चीनी खिलाड़ी को जमीन चटाई. चीन के दूसरे खिलाडि़यों को भी परास्त किया. इस प्रदर्शन की बदौलत सिंधु पद्मश्री जैसे बड़े सम्मान से सम्मानित हुई. उस समय चोट के कारण सिंधु को कुछ समय कोर्ट से बाहर भी रहना पड़ा, लेकिन 2015 में उस ने शानदार वापसी की.

मकाउ ओपन और मलयेशिया मास्टर्स खिताब ने उस का ऐसा आत्मविश्वास बढ़ाया कि पहले रियो ओलिंपिक के लिए क्वालिफाई किया और फिर ऐसा इतिहास रच दिया जो अब तक कोई भी भारतीय महिला खिलाड़ी नहीं रच पाई है. लंदन में साइना ने कांस्य पदक जीता था, लेकिन सिंधु ने 4 साल बाद एक कदम आगे बढ़ते हुए रजत पदक जीता. स्पेन की कैरोलीना मारिन के खिलाफ खेला गया फाइनल जिस अंदाज में खेला गया था, उस से सिंधु का कद और बढ़ गया है. इस प्रदर्शन की बदौलत भारत सरकार ने 21 साल की इस बाला को राजीव गांधी खेल रत्न से नवाजा है.

पी वी सिंधु का विजयी अंतर्राष्ट्रीय सफरनामा

2011 – इंडोनेशिया इंटरनैशनल.

2013 – मलयेशिया मास्टर्स.

2013 – मकाउ ओपन.

2014 – मकाउ ओपन.

2015 – मकाउ ओपन.

2016 – मलयेशिया मास्टर्स.

पुरस्कार

अर्जुन अवार्ड, पद्मश्री, राजीव गांधी खेल रत्न.

पी वी सिंधु के खेल की मुख्य विशेषता उस का विरोधी के खिलाफ आक्रामक रवैया है. उस के यहां तक के सफर में उस के मातापिता की अहम भूमिका रही है. उन्होंने बड़ी कुरबानी दी है. इस पदक से हमारे युवाओं को प्रेरणा मिलेगी.

– गोपीचंद (कोच)

साक्षी की जिद के आगे हारा समाज

पीवी सिंधु की तरह साक्षी मलिक भी बचपन से ही कुछ अलग करने का सपना देखा करती थी. बेहद चुलबुली, नटखट, शरारती साक्षी जल्दी ही गंभीर बन गई. जिस राज्य में अभी भी लड़कियों के प्रति लोगों की मानसिकता न बदली हो, ऐसे राज्य से प्रधान खेल कुश्ती को अपनाने में साक्षी को कितना जूझना पड़ा होगा यह बताने की जरूरत नहीं. 10 साल की उम्र में कुश्ती को बतौर कैरियर अपनाने की जिद कर बैठी साक्षी के मातापिता, नातेरिश्तेदार और गांव वाले हैरान थे. इसलिए खूब विरोध हुआ.

जाट बिरादरी के इस परिवार में साक्षी के पक्ष में एक अकेला शख्स उस के साथ खड़ा था. वह थे उस के अपने दादा राम. राम खुद अपने जमाने में पहलवानी किया करते थे, इसलिए उन की खुद की इच्छा थी कि उन के परिवार से कोई कुश्ती से जुड़े. उन्होंने खुद ही शुरूशुरू में घर पर ही साक्षी को बेसिक ट्रेनिंग देनी शुरू की. जब उन्हें लगा कि अब उन का काम समाप्त हो गया है, तो 12 साल की अपनी पोती को गांव मोखरा से रोहतक के छोटू राम स्टेडियम के अखाडे़ ले आए.

वहां ईश्वर दहिया कुश्ती कोच थे. वहां सब से बड़ी दिक्कत यह थी कि लड़कियां नहीं थीं. फिर भी कोच ने साहसिक कदम उठाते हुए साक्षी को दांवपेंच सिखाने शुरू किए. स्थानीय लोगों ने काफी विरोध किया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी.

रोहतक में प्रशिक्षण के साथ साक्षी ने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी, क्योंकि घर वालों ने इसी शर्त पर उसे कुश्ती की इजाजत दी थी. साक्षी के पिता डीटीसी में बस कंडैक्टर थे और मां आंगनवाड़ी वर्कर थीं. इसलिए वे ज्यादा समय नहीं निकाल पाते थे. धीरेधीरे साक्षी का आत्मविश्वास बढ़ता गया. वह खुद ही बाहर टूरनामैंट में जाने लगी. राज्य स्तर के टूरनामैंट में उतरने के बाद उसे नैशनल चैंपियनशिप में खेलने का मौका मिल गया. इस के बाद वह नैशनल कैंप के लिए चुनी गई, जहां उसे अपनी प्रतिभा को निखारने का सुनहरा मौका मिला.

लड़कियों का नैशनल कैंप ज्यादातर उत्तर प्रदेश में लगता था, इसलिए अपने प्रदेश हरियाणा को छोड़ कर साक्षी वहां चली आई. घर से लगातार दूरियां बढ़ती चली गईं, लेकिन उस में कुछ करने का जुनून था, इसलिए वारत्योहार, नातेरिश्तेदारी, शादीब्याह का मोह पूरी तरह से छोड़ दिया और कड़ी मेहनत में जुट गई.

साक्षी की मेहनत जल्दी ही रंग लाई. वह देश की अच्छी महिला पहलवानों में गिनी जाने लगी. इसलिए उस के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में जाने के दरवाजे खुल गए. उसे 2010 की जूनियर विश्व कुश्ती चैपियनशिप में उतरने का मौका मिल गया. वह 58 किलो वर्ग में उतरी और उस ने किसी को निराश नहीं किया व कांस्य पदक ले कर लौटी. वर्ष 2014 में डेव शुल्ज अंतर्राष्ट्रीय चैंपियनशिप के स्वर्ण पदक ने साक्षी के इरादे और मजबूत कर दिए.

ग्लास्को राष्ट्रमंडल (2014) खेलों में उस ने अपने को श्रेष्ठ साबित किया. भले ही ताशकंद विश्व चैंपियनशिप में उस का सफर क्वार्टर फाइनल में समाप्त हो गया, लेकिन एशिया चैंपियनशिप (2015) जो कतर में हुई थी में कांस्य पदक (60 किलोवर्ग में) जीतने में सफल रही. यह सारा अनुभव रियो ओलिंपिक क्वालिफाई टूरनामैंट में काम आया. वह क्वालिफाई करने में सफल हुई.

रियो ओलिंपिक में देश के लिए पहला कांस्य पदक जीत कर साक्षी ने इतिहास रच दिया है. इस ऐतिहासिक सफलता के बाद साक्षी राजीव गांधी खेल रत्न सम्मान पाने की सूची में शामिल हो गई है. रेलवे में कार्यरत हरियाणा की यह लाडो जल्दी ही दुलहन बनने जा रही है, लेकिन कुछ और साल कुश्ती को देना चाहती है. कुल मिला कर साक्षी की सफलता ने यह संदेश दिया है कि अगर कोई युवा सीमित साधन रहते बेहतर करने की ठान ले तो अपनी मंजिल को छू सकता है.                

साक्षी के स्वर्ण पदक

2011-स्वर्ण, जूनियर नैशनल.

2011-स्वर्ण, जूनियर एशिया.

2012-स्वर्ण, जूनियर नैशनल.

2012-स्वर्ण, जूनियर एशिया.

2013-स्वर्ण, सीनियर नैशनल.

2014-स्वर्ण, देन सतलज.

2014-स्वर्ण, औल इंडिया

औरतें खुद को कम न आंकें: कनिका कपूर

मशहूर गीत ‘चिट्टियां कलाइयां…’ और ‘बेबी डौल…’ गाने वाली खूबसूरत गायिका कनिका कपूर की जिंदगी काफी उतारचढ़ाव से गुजर चुकी है. वे 18 साल की उम्र में अपने म्यूजिक के शौक को छोड़ कर शादी कर के पति के साथ लंदन चली गई थीं, पर 3 बच्चों की मां बनने के बाद यह शादी नहीं टिकी और फिर कनिका को अपने बचपन के शौक को ही आमदनी का जरीया बनाते हुए वापस बौलीवुड का रुख करना पड़ा. पेश हैं, कनिका कपूर से हुई बातचीत के खास अंश :

लखनऊ से लंदन और फिर लंदन से बौलीवुड में आ कर म्यूजिक में कैरियर बनाना. अपने इस सफर को आप किस रूप में देखती हैं?

इस सफर को ले कर जब मैं सोचती हूं, तो खुशी कम दुख ज्यादा होता है. लखनऊ के साधारण परिवार की लड़की, जिस की 18 साल की उम्र में शादी हो जाती है. वह लंदन जाती है, जहां वह एक साधारण पारिवारिक जिंदगी जीती है. 3 बच्चों की मां बनती है. उसे लगता है कि उस की जिंदगी कामयाब हो गई.

सबकुछ सही चल रहा होता है कि अचानक उस की जिंदगी में भूचाल आ जाता है. उसे पति से अलग होना पड़ता है. तब रोजमर्रा के खर्च उस के सामने कई सवाल खड़े करते हैं. वह अपने बचपन के म्यूजिक के शौक को आमदनी का जरीया बनाने का फैसला लेती है.

कुछ समय बाद पति से तलाक हो जाता है और उस का म्यूजिक का कैरियर शुरू हो जाता है. ‘बेबी डौल…’ गाने के हिट होने के बाद से मुझे पीछे मुड़ कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी.

मेरे पति ही मेरे साथ धोखाधड़ी कर रहे थे. मुझे बेइज्जत कर रहे थे. मैं ने अपनी शादी की 10वीं सालगिरह पर उन से तोहफे के तौर पर कहा कि मुझे डायमंड नहीं चाहिए, मुझे अपना एक गाना रेकौर्ड करना है. उन्होंने हां कह दिया. मैं ने एक संगीतकार को पकड़ा और काम शुरू किया.

इसी बीच पता चला कि मेरे पति एक पाकिस्तानी और वह भी शादीशुदा औरत के साथ समय बिताते हैं.  एक दिन वह औरत मेरे सामने आई और उस ने मुझ से कहा कि हिम्मत है, तो अपने पति को मुझ से दूर ले जाओ. मैं ने उस औरत के पति से भी बात की, पर बात नहीं बनी. इस के बाद मेरे और मेरे पति राज के बीच हर दिन झगड़े होने लगे. मेरा स्टूडियो जाना बंद हो गया.

फिर एक दिन मेरे एक दोस्त ने मुझे सलाह दी कि सूफी गीत ‘जुगनी जी…’ का रीमिक्स गाया जाए. मैं ने वह किया और उसे यूट्यूब पर डाल दिया.

यूट्यूब पर इस गाने के आ जाने के बाद मेरे कैरेक्टर पर हमला बोला गया. अफवाह फैलाई गई कि मैं अपने अंकल की उम्र के शख्स के साथ डेटिंग कर रही हूं. सोशल मीडिया के मेरे दोस्तों ने मुझ से कन्नी काट ली.

मैं ने उस वक्त बहुतकुछ सीखा. मेरे पति ने मेरे सामने तलाक का प्रस्ताव रख दिया. मजबूरन मुझे तलाक स्वीकार करना पड़ा. उस के बाद एकता कपूर ने ‘बेबी डौल…’ गाने के लिए बुलाया और एक नई राह बन गई.

आप की शादी के बाद की शुरुआती जिंदगी तो अच्छी रही होगी?

जी हां, शादी के चंद साल ही अच्छे गुजरे थे. हम लंदन के सैंट्रल पार्क में बहुत बड़े घर में रहते थे. हमारे पास धन, शोहरत सबकुछ था. मेरी जिंदगी में यह सबकुछ इतनी जल्दी मिला था कि मैं कुछ समय तक अपने पति की ज्यादती सहती रही. उन्होंने मान लिया था कि मुझे ये सारी सुविधाएं दे कर सताने का हक पा लिया है. मगर तलाक से पहले के 2 साल में मैं ने बहुतकुछ सीखा और उस ने मेरी जिंदगी बदल कर रख दी.

आज मैं शादी के बाद वाली कनिका नहीं हूं. अब मैं लंदन में एक छोटे से मकान में अपने एक बेटे व 2 बेटियों के साथ रहती हूं.

आप ने कम उम्र में ही म्यूजिक को अपना कैरियर बनाने का फैसला क्यों ले लिया था?

देखिए, उस वक्त म्यूजिक मेरा शौक था, पेशा नहीं बना था. शादी के बाद अपनी वैवाहिक जिंदगी को खुशहाल बनाए रखने के लिए और परिवार वालों की इच्छा की इज्जत करते हुए म्यूजिक छोड़ दिया था. मुझे इस में कुछ गलत भी नहीं लगा था. हर लड़की को शादी के बाद वही काम करना चाहिए, जो उस की ससुराल वालों को पसंद हो.

एक समय तक म्यूजिक के अलबमों की खूब बिक्री होती थी, पर अब तो म्यूजिक बिकता ही नहीं है? क्यों?

इस की 2 वजहें हैं. पहली बात तो यह कि अब म्यूजिक के क्षेत्र में तमाम लोग आ गए हैं. गायक और संगीतकारों की तादाद बड़ी तेजी से बढ़ी है, जिस का असर म्यूजिक पर पड़ना लाजिमी है. दूसरी बात यह है कि अब म्यूजिक भी डिजिटल हो गया है, जिस के चलते गायक अपने सिंगल गाने ही इंटरनैट वगैरह पर रिलीज कर रहे हैं. आखिर दर्शक क्याक्या सुनेगा और क्याक्या देखेगा?

आजकल जो औरतें अपनी जिंदगी में काफी उतारचढ़ाव से गुजर रही हैं, उन्हें कोई संदेश देना चाहेंगी?

औरतें खुद को कम न आंकें. लोगों की दकियानूसी बातों को नजरअंदाज कर अपने मुकाम की ओर बढ़ते रहना चाहिए. हमारे देश में एक औरत के हर कदम पर लोग बहुत जल्दी फैसला सुनाने लगते हैं, पर वह उस औरत की लगन और मेहनत की ओर नहीं देखते.

पहले आप मौडलिंग भी करती थीं. अब मौडलिंग कर रही हैं या नहीं?

मैं ने पहले ही कहा है कि मैं आमदनी के लिए इस ढंग के भी कुछ काम कर लिया करती थी, पर अब सारा ध्यान म्यूजिक पर है. मैं ने ज्यादातर मौडलिंग रैंप शो में की है और वह भी गायिका के तौर पर.

प्राइवेट म्यूजिक अलबम को ले कर कोई योजना है?

मैं एक प्राइवेट म्यूजिक अलबम की तैयारी कर रही हूं, जिस में डांस को ध्यान में रख कर गीत होंगे. कुछ सूफी गीत भी होंगे.

आप सिंगल मदर हैं. आप के बच्चे लंदन में रहते हैं और आप मुंबई में. ये सब कैसे मैनेज करती हैं?

मेरे माता पिता व भाई की मदद से सबकुछ मुमकिन हो पा रहा है. अगर मुझे मेरे परिवार की मदद न मिलती, तो मैं यह सब न कर पाती.            

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