जिस देश में खेलों के प्रति कोई कारगर नीति न हो, खेलों का बुनियादी ढांचा बुरी तरह चरमराया हो, खेल संगठनों पर ऐसे राजनेताओं और नौकरशाहों का कब्जा हो, जिन्होंने कभी गिल्लीडंडा तक न खेला हो तो खेलों की ऐसी ही दुर्दशा होगी, जो रियो ओलिंपिक में हुई. सवा सौ  करोड़ की आबादी वाले देश के खाते में मात्र 2 पदक, उस में भी कोई स्वर्ण नहीं. ओलिंपिक शुरू होने के पहले प्रधानमंत्री, खेलमंत्री और खेल संघों पर आसीन अधिकारियों ने पदकों को ले कर जम कर प्रचार किया था, लेकिन 15 दिन के इस खेल मेले में सबकुछ टांयटांय फिस हो गया. 119 खिलाड़ी, उन के प्रशिक्षक, मैनेजर, संघ अधिकारी से ले कर करीब 200 लोगों का कारवां रियो गया था, लेकिन टीम बीजिंग (2008) और लंदन ओलिंपिक (2012) वाला प्रदर्शन भी नहीं दोहरा पाई. 2 पदक जिन लड़कियों की बदौलत आए हैं, उन्हें पहले भाव तक ही नहीं दिया गया था और अब संतरी से मंत्री तक उन के साथ अपनी तसवीरें खिंचवाने और नाम जोड़ने की जुगत में लगे हैं. हर तरफ पैसों की खूब बरसात हो रही है. इनाम और तोहफे बांटे जा रहे हैं. सम्मान समारोह खत्म होने का नाम नहीं ले रहे हैं.

इस घटिया प्रदर्शन को कुछ दिन बाद भुला दिया जाएगा. भले ही प्रधानमंत्री भविष्य में खेलों की दशा सुधारने की दिशा में नई योजना का ऐलान कर चुके हैं, लेकिन उस का क्रियान्वयन कौन करेगा, वही जो खेल संघों पर वर्षों से कब्जा जमाए बैठे हैं? रियो में 14 खेलों में भारत ने भाग लिया था, लेकिन एक भी खेल संगठन प्रमुख ने खराब प्रदर्शन के लिए अपनी नैतिक जिम्मेदारी नहीं ली है. पूरे देश ने देखा कि इन की मजबूत लौबी ने खेल विधेयक को पारित नहीं होने दिया. लोढ़ा कमेटी कहतेकहते थक चुकी है, लेकिन बीसीसीआई के चेहरे पर शिकन नहीं आई है. पता नहीं किस मिट्टी के बने हैं. पूर्व खिलाडि़यों को भी खेल संघों में घुसने नहीं देते हैं. देश के 27 खेल संगठनों में 2 या 3 संघ हैं जिन में पूर्व खिलाड़ी हैं. उन पर भी तलवार लटकती रहती है. पूर्व खिलाडि़यों का बाकायदा एक संगठन है, लेकिन उस की मांगों को हमेशा अनसुना कर दिया जाता है. 

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