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राजनीति में कैरियर, बहुत कठिन है डगर पनघट की

बहुजन समाज पार्टी के नेता है आकाश आनंद. बीते दिनों काफी चर्चा में थे. अचानक बसपा प्रमुख मायावती ने उन की तेज गति पर विराम लगा दिया. हांलाकि, आकाश आनंद कोई साधारण युवा नेता नहीं थे. वे बसपा प्रमुख मायावती के भाई आनंद कुमार के बेटे यानी उन के सगे भतीजे हैं. मायावती उन को चाहती भी बहुत थीं. उन को पढ़ने के लिए विदेश भेजा था. इस के बाद उन की शादी बसपा के ही नेता डाक्टर अशोक सिद्धार्थ की बेटी डाक्टर प्रज्ञा से करवा दी. शादी में खुद मायावती मौजूद रहीं.
मायावती ने आकाश आनंद को पहले बसपा का नैशनल कोऔर्डिनेटर बनाया. 2024 के लोकसभा चुनावप्रचार में आकाश आंनद की तेजी मायावती को पंसद नहीं आई और सांपसीढ़ी के खेल की तरह आकाश आंनद अर्श से सीधे फर्श पर आ गए. आकाश आनंद युवा सोच और जोश के साथ आए मगर बिना गहराई से बसपा को समझे फायर करने लगे. आकाश आंनद को बसपा में इतने बड़े पद पर पहुंचने का मौका इसलिए मिल गया क्योंकि वे मायावती के भतीजे थे. साधारण कार्यकर्ता को तो इस उम्र में कोई छोटा पद भी नहीं मिलता है.

उत्तर प्रदेश के गोंडा लोकसभा सीट से समाजवादी पार्टी ने बेनी प्रसाद वर्मा की पोती और राकेश वर्मा की बेटी श्रेया वर्मा को टिकट दिया. बेनी प्रसाद वर्मा सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के करीबी थे. श्रेया के पिता राकेश वर्मा भी अखिलेश सरकार में मंत्री थे. यहां भी लोकसभा का टिकट युवा श्रेया वर्मा को परिवारवाद के नाम पर मिला. यह एकदो दल की कहानी नहीं है. भाजपा ने नई दिल्ली लोकसभा सीट से बांसुरी स्वराज को टिकट दिया, वह भाजपा नेता सुषमा स्वराज की बेटी है. ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं.

राजनीतिक दल जब युवाओं के नाम पर टिकट देते हैं तो किसी अपने नेता के ही बेटाबेटी को देते हैं. ऐसे में तमाम युवा नेताओं का हक मारा जाता है. 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी ने एक नारा दिया- ‘लडकी हूं, लड़ सकती हूं’. इस के बाद 129 टिकट महिलाओं को दिए, जिन में 90 फीसदी नई थीं. किसी नेता के परिवार की नहीं थीं. इस को महिला राजनीति में एक मास्टर स्ट्रोक समझा जा रहा था. लेकिन चुनाव के बाद जब परिणाम आए तो एक भी महिला उम्मीदवार जीत नहीं पाई.

महिला का चुनाव जीतना सरल नहीं होता

सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीति पर काम कर रही शालिनी माथुर कहती हैं, “महिला आरक्षण के बाद महिलाओं के लिए अवसर इसलिए खुल जाएंगे क्योंकि उन के सामने लड़ने वाली दूसरी उम्मीदवार भी महिला होगी. अभी कोई महिला सुरक्षित सीट नहीं है. ऐसे में महिलाओं का पुरुषों के मुकाबले चुनाव जीतना सरल नहीं होता है. पुरुष को जिस तरह से सहयोग, साथ और समर्थन मिल जाता है, महिला को नहीं मिलता.

“कई बार समाज महिला को बदनाम अलग से कर देता है. एक और बड़ा कारण यह होता है कि महिलाओं के पास अपना पैसा नहीं होता है. उन को किसी न किसी पर निर्भर होना पड़ता है. जिन महिलाओं के पास अपना पैसा, अपनी टीम होती है वही चुनावी राजनीति में सफल होती हैं.”

आज राजनीतिक दलों में युवा इकाइयां बहुत प्रभावी नहीं हैं. छात्रसंघों के चुनाव होते नहीं हैं. इन को नेताओं की नर्सरी कहा जाता था. अब पंचायत और निकाय चुनाव ही 2 ऐसे रास्ते हैं जिन के जरिए युवा राजनीति में प्रवेश कर सकते हैं. पिछले कुछ सालों से युवा धर्म की तरफ ज्यादा आकर्षित हो रहा है. वह तिलक और टीका लगा कर खुद को समाजिक कार्यकर्ता समझ लेता है. इस के बाद वह नेताओं की चटाई बिछाने और उन के आगेपीछे घूमने का काम करने लगता है. उसे लगता है, इसी से वह नेता बन जाएगा.

काफी नहीं होती सोशल मीडिया पर पहचान

सोशल मीडिया के दौर में युवा अपने को वहां पर युवा नेता के रूप में पेश करता है. उसे लगता है कि सोशल मीडिया पर फेमस होने के साथ ही राजनीति में भी सफल हो जाएगा. रोज नेताओं के साथ फोटो, कमैंट करने से राजनीति नहीं होती. राजनीति के लिए सब से अधिक जरूरी होता है मुददों को समझना, जनता की नब्ज को पकड़ना, समाज में पहचान का होना, चुनाव लड़ने के लिए पैसा और मजबूत समर्थन. यह हासिल करने में उस की उम्र निकल जाती है. दूसरी तरफ नेताओं ने अपने लिए रिटायरमैंट की कोई अधिकतम सीमा नहीं रखी है, जिस से युवा के लिए अवसर नहीं पैदा होते हैं.

आम घरों के युवाओं के लिए राजनीति में कैरियर बनाना सरल नहीं होता है. राजनीति में आने वाले केवल 10 फीसदी लोग ही शिखर तक पंहुच पाते हैं. बाकी युवा राजनीति में कैरियर बनाने के चक्कर में अपने मुख्य कैरियर से विमुख हो जाते हैं. जो समय उन को अपने कैरियर बनाने में लगाना चाहिए वह समय वे पार्टी का झंडा उठाने में लगा देते हैं. जबकि देखा गया है कि नौकरीपेशा सफल लोगों को बुलाबुला कर पार्टियां टिकट देती हैं.

हाल के दिनों में कई अफसरों ने नौकरी से वीआरएस ले कर और रिटायर होने के बाद टिकट पाए और मंत्री, विधायक व सांसद बने. इन में आईएएस और आईपीएस अफसरों के नाम ज्यादा हैं. उत्तर प्रदेश में आईपीएस असीम अरुण और ईडी के अफसर राजेश्वर सिंह प्रमुख नाम हैं. कई सफल बिजनैसमेन भी टिकट हासिल कर लेते हैं. कई पहुंच और पैसे वाले परिवार अपने घरों की महिलाओं के लिए व्यवस्था करते हैं, जिस की वजह से वे चुनाव लड़ लेती हैं. ऐसे में अगर राजनीति में कैरियर बनाना है तो खुद को पहले मजबूत करें, उस के बाद राजनीति में कैरियर बनाएं.

राजनीति में कैरियर बनाने की उम्र औसतन 45 साल के बाद की होती है. ऐसे में पहले 20-25 साल पैसा कमाएं, पहचाने बनाएं, फिर राजनीति में जा कर कैरियर बनाने की सोचें. केवल नेताओं की दया पर निर्भर होने से कुछ हासिल नहीं होता. अपना समय व्यर्थ गंवाने से अच्छा है, कुछ अलग करें. सही अवसर मिले, तो राजनीति में कैरियर बनाएं.

चुगली, चूल्हे और पूजापाठ तक सिमटी महिला राजनीति

साल 1975 में प्रदर्शित ‘आंधी’ फिल्म कभी चर्चाओं के दायरे से बाहर नहीं हुई. इस की वजह सिर्फ इतनी नहीं है कि यह कथित रूप से इंदिरा गांधी की जिंदगी पर बनी थी बल्कि यह है कि खालिस सियासत पर बनी यह पहली राजनीतिक हिंदी फिल्म थी जिस में एक कामयाब राजनीतिक महिला का द्वंद दिखाया गया था. एक ऐसी महिला जो घरगृहस्थी, पति और बच्चों के साथ भी जीना चाहती है और राजनीति में भी सक्रिय रहना चाहती है. आखिर में निर्देशक गुलजार दर्शकों को यह इशारा कर देने में सफल रहे हैं कि एक महिला के लिए यह यानी राजनीति दो नावों की सवारी ही साबित होती है.

‘आंधी’ को प्रदर्शित हुए 5 दशक पूरे होने को हैं लेकिन राजनीति में तेजी से सक्रिय हो रही महिलाओं की हैसियत और द्वंद कायम हैं कि वे क्या चुनें- चूल्हाचौका, घरगृहस्थी पति और बच्चे या फिर कामयाबी जिस के लिए लंबी बहुत लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है, संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि यहां कुछ भी बैठेबिठाए अब किसी महिला को नहीं मिल जाता. पार्षद बनने के लिए भी एक महिला को लंबी और तगड़ी प्रतिस्पर्धा से हो कर गुजरना पड़ता है. छोटी सफलता और छोड़े पद के लिए भी महिला का महत्त्वाकांक्षी होना जरूरी है ठीक उतना ही जितना ‘आंधी’ फिल्म की नायिका आरती का होना था. यह भूमिका सुचित्रा सेन ने निभाई थी और इतनी शिद्दत से निभाई थी कि दर्शक और समीक्षक उन के कायल हो गए थे.

अब हर चुनावप्रचार में महिलाओं की टोलियां दिखना आम बात है. वे घरघर जा कर प्रचार करती हैं, हैंडबिल और मतदाता परचियां बांटती हैं, सभाओं में गला फाड़फाड़ कर नारे लगाती हैं, पार्टी का झंडा उठाती हैं, फर्श भी बिछातीउठाती हैं, सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते अपनी पार्टी की नीतियोंरीतियों को भी आसान भाषा में वोटर को समझाने की कोशिश करती हैं. वे जुलूसों में नाचतीगाती हैं, गुलाल उड़ाती हैं, अपने बड़े नेता की जयजयकार भी करती हैं, थाल सजा कर उस की आरती उतारती हैं और माथे पर तिलक लगाती हैं. वे पार्टी के दफ्तर में गपशप करती भी दिखती हैं और सियासी पंडितों व विश्लेषकों की तरह सीटों की हारजीत का गुणाभाग भी करती खुद को एक गहन, गूढ़, ज्ञानी और अनुभवी जमीनी राजनेता होने का सुख या भ्रम कुछ भी कह लें पालती रहती हैं.

यह ठीक वैसा ही दृश्य है जैसे धार्मिक समारोहों और कलश यात्राओं में सिर पर कलश लिए महिलाओं का होता है. मसलन, गरमी और सर्दी में लंबी दूरी तय करते आरती-भजन गाते हुए चलना, इस के बाद बाबा के प्रवचन सुनना, जयजयकार करना और फिर वापस अपने घर आ कर कामकाज में जुट जाना. एक तरह से महिला धर्म की तरह ही राजनीति में भी शो पीस और नुमाइश की चीज है. वहां उसे कुछ मिलता जाता नहीं है, वह जहाज की पंछी है जो एक दायरे में उड़ती है और फिर वापस जहाज पर आ जाती है.

यह सोचना कि महिलाओं में कोई राजनातिक चेतना है, फुजूल की बात है. फेमिनिज्म भारत में एक अलग तरीके से पनपा, जिस के सारे सूत्र पुरुषों के हाथ में रहे. 70 के दशक में महिलाएं जागरूक और शिक्षित हो कर आत्मनिर्भर होने लगीं तो पुरुषों ने बड़ी खूबसूरती से उन्हें धर्म और राजनीति में मैदानी तौर पर सक्रिय रहने की छूट देना शुरू कर दी. तब इतने बड़े पैमाने पर आरक्षण राजनीति में नहीं था. केवल इंदिरा गांधी सरीखी पारिवारिक पृष्ठभूमि वाली महिलाएं ही राजनीति में आती थीं. कुछ विजयाराजे सिंधिया जैसी भी थीं जो राजघरानों से ताल्लुक रखती थीं. इन पर भी पारिवारिक और सामाजिक वर्जनाएं ढोने की जिम्मेदारी नहीं थी.

आम सवर्ण महिला की बड़े पैमाने पर एंट्री स्थानीय निकायों में आरक्षण के बाद हुई. इस में भी दिलचस्प बात यह रही कि पुरुषों ने ही उन्हें चारदीवारी लांघने के लिए उकसाया लेकिन इसलिए नहीं कि वे बराबरी की बात सोचने लगे थे (या हैं) बल्कि इसलिए कि उन की आड़ में उन्हें राजनीति करना थी. इन के और भी स्वार्थ थे, मसलन किसी को लाइसैंस चाहिए था तो किसी को ठेके की दरकार थी. यह जो महिला राजनीति में आई जिसे भले और अच्छे घर की समझा जाता है, वह दरअसल एक टूल थी. पार्षद पति और प्रधान. सरपंच पति जैसे शब्द अब बेहद आम हैं जो यह बताते हैं कि महिला राजनीति नहीं करती, वह राजनीति करने का जरिया मात्र है.

जैसे धर्म मोक्ष की सहूलियत महिलाओं को नहीं देता ठीक वैसे ही राजनीति में दोचार सीढ़ियां तो वे चढ़ जाती हैं लेकिन छत पुरुषों के लिए रिजर्व है. इसे समझने के लिए दो बड़ी पार्टियों के उदाहरण सामने हैं. कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को राहुल गांधी के बराबर से आगे नहीं रखा क्योंकि प्रियंका को बच्चे पालने थे, अपना चूल्हाचौका देखना था. इस का यह मतलब नहीं कि उन्हें किचन में जा कर बच्चों का टिफिन बनाना था या बरतन माजने और कपड़े धोने थे बल्कि यह था कि उन्हें अपने पति और बच्चों को ज्यादा वक्त देना था. मुमकिन है प्रियंका ने अपनी दादी इंदिरा गांधी की जिंदगी से सबक लिया हो कि राजनीति में इतने दूर भी मत जाओ कि घरवापसी मुश्किल हो जाए.

भाजपा में यह और अलग तरीके से हुआ. साल 2014 में प्रधानमंत्री पद की दावेदार सुषमा स्वराज भी हो सकती थीं. वे नरेंद्र मोदी से कहीं ज्यादा अनुभवी, शिक्षित और समझदार होने के अलावा स्वीकार्य भी थीं लेकिन आलाकमान ने उन्हें मौका नहीं दिया क्योंकि वे धर्म संसद और साधुसंतों की पसंद एक महिला होने के नाते नहीं थीं. वे तय है कि अंबानी-अडानी से सौदेबाजी भी करने को तैयार नहीं होतीं और न किसी अन्ना हजारे के आंदोलन को हवा दे पातीं.

वे तो बाबा रामदेव जैसों को भी माहौल बनाने को राजी नहीं कर पातीं. हां, यह सब कोई और कर के उन्हें पीएम की कुरसी थाल में संजो कर दे देता तो वे खुशीखुशी यह जिम्मेदारी उठाने को तैयार हो जातीं. जाहिर है, सुषमा स्वराज की अपनी सीमाएं थीं जो किचन से शुरू हो कर किचन पर ही खत्म हो जाती हैं लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि उन्हें कट्टर हिंदुत्व की राजनीति से कोई एतराज या परहेज था.

यह बहुत छोटे स्तर पर साफ देखा जा सकता है कि राजनीति में सक्रिय आम महिला 3 कमियों या कमजोरी की शिकार है. ये हैं- चुगली, चूल्हा और पूजापाठ जिन में महिलाओं का ज्यादा वक्त गुजरता है और इस बाबत उन्हें प्रोत्साहन भी खूब मिलता है. राजनीति हमेशा से ही फुलटाइम जौब रही है. ऐसा नहीं है कि महिलाओं के पास वक्त की कमी हो बल्कि उन्हें ऐसे गैरजरूरी कामों में पुरुषों ने उलझा कर रख दिया है कि वे पार्टटाइमर बन कर रह गई हैं.

एक दूसरी दिक्कत पैसों की भी महिलाओं के साथ है. अगर 15-20 फीसदी नौकरीपेशा महिलाओं को छोड़ दें तो महिलाओं की अपनी कोई आमदनी नहीं होती है. राजनीति में जमने के लिए अब भारीभरकम पैसों की जरूरत होती है जो उन्हें पुरुषों से ही मिलता है. यह पुरुष आमतौर पर उन का पति, भाई या पिता होता है. इस सेवाव्यवसाय में हरकोई पहले अपनी लागत निकालता है, फिर मुनाफा वसूलता है. भोपाल नगर निगम की एक पार्षद का नाम न छापने की शर्त पर कहना है कि पार्षदी के चुनाव में मरीगिरी हालत में 15-20 लाख रुपए का खर्च आता है. अब अगर यह पति ने लगाया है तो वह इसे सूद समेत वसूलता भी है. यही बात पिता और भाई पर भी लागू होती है.

भारत में निक्की हैली और कमला हैरिस जैसी महिलाएं न के बराबर ही होंगी जो अपनी कमाई से राजनीति कर सकें. जो 10-15 फीसदी महिलाएं खुद कमा रही हैं उन्हें राजनीति से कोई वास्ता नहीं रहता. सवर्ण समाज पार्टी की अध्यक्ष रही भोपाल की अर्चना श्रीवास्तव की मानें तो भारतीय पुरुष अब यह तो चाहने लगा है कि महिलाएं राजनीति में सक्रिय हों लेकिन वह अपनी पुरुषवादी सोच और पूर्वाग्रह छोड़ने तैयार नहीं हो रहा. एक छोटामोटा नेता भी रात को जब घर लौटता है तो पत्नी खाने पर उस का इंतजार करती है. लेकिन महिलाओं के साथ ऐसा नहीं है कि वे देररात लौटें तो पति खाने पर उन का इंतजार कर रहा हो, फिर दीगर बातों और अड़चनों का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. क्षेत्र कोई भी हो, एक महिला के लिए रौकेट साइंस नहीं होता. दबाव में या थोपा गया कोई भी काम अकसर बोझ ही साबित होता है और महिला राजनीति इस से अछूती नहीं है.

अर्चना यह भी मानती हैं कि महिलाओं का राजनीति में बहुत बेहतर भविष्य न पहले कभी था न आगे कभी होने की उम्मीद दिख रही है. आमतौर पर राजनातिक महिलाएं कौर्पोरेट की महिलाओं की तरह डैशिंग नहीं होतीं और न ही पुरुषों की तरह रिस्क उठा पाती हैं क्योंकि उन्हें बड़े तो दूर, अपने ही घर के छोटेमोटे फैसलों के लिए पुरुषों का मुहताज रहना पड़ता है. सार्वजनिक जीवन में उन्हें अपनी इमेज का भी खयाल रखना पड़ता है जिस से वे कुछ कदम ही तय कर पाती हैं.

सार यह कि महिलाएं राजनीति में हैं जरूर लेकिन वे वहां अपनी उपयोगिता के चलते हैं, महत्त्व के चलते नहीं. जब तक यह स्थिति नहीं बदलेगी तब तक आधी आबादी यहां भी नुमाइश की चीज बनी रहेगी.

विवाह में अपनी पसंद देखें, आयु का बंधन नहीं

मानव जाति के विकास के क्रम में नर ने मादा को सदैव अपने बाहुबल के भीतर रखा. परिवारों की संरचना के बाद और धर्म की उत्पत्ति के बाद स्त्री को अपना घर छोड़ कर पुरुष ने उसे अपने घर पर आ कर रहने के लिए मजबूर किया. विवाह द्वारा स्त्री पर आधिपत्य जमाया. सदियों तक और कुछ क्षेत्रों में तो आज भी उस को शिक्षा से दूर रख कर चूल्हेचौके व घर के कामों में ही फंसा कर रखा. स्त्री की देह, उस का मस्तिष्क पुरुष के काबू में रहे, इसलिए शादी के लिए पुरुष से कम उम्र की स्त्री का विधान धर्म द्वारा किया गया. यह पूरी दुनिया में हुआ.

स्त्री उम्र में कम होगी तो उस को साधना आसान होगा. उम्र में छोटी स्त्री को उस को आदेश देना, मारनापीटना, गाली देना, दुत्कारना, बलपूर्वक संसर्ग करने आदि में कोई झिझक पुरुष को नहीं होती है. अपने पुरुष से उम्र में वह जितनी छोटी होगी उतना ही दब कर रहेगी. हर आज्ञा का पालन करेगी और अपनी राय कभी नहीं देगी. सदियों से ऐसा ही चलता आ रहा है. मुसलिम और बंगाली समाज में तो अपने से आधी उम्र की लड़कियों से शादी करने में कोई हिचक नहीं है.

यही वजह है कि पश्चिम बंगाल में अधिकांश औरतें जवानी की दहलीज पर पहुंचतेपहुंचते विधवा हो जाती थीं. बंगाल में विधवाओं की संख्या और पति के मरने के बाद परिवार द्वारा उन को दुत्कारने पर उन की दयनीय दशा चैतन्य महाप्रभु से देखी नहीं गई तो उन्होंने बंगाल की विधवाओं को वृंदावन का रास्ता दिखाया था. वृंदावन में उन्होंने विधवा स्त्रियों के रहने और खानेपीने का इंतजाम करवाया. मंदिरों में उन की सेवा के बदले उन के लिए अनाज की व्यवस्था शहर के कुलीन बनियों और ब्राह्मणों से करवाई.

स्त्री अगर शादी के वक्त पुरुष की ही उम्र की हो तो दोनों की मौत लगभग आसपास ही हो. उम्र के सफर में दोनों साथसाथ दूर तक चलें. समान उम्र के लोग एकदूसरे की शारीरिक परेशानियों को भी अच्छी तरह समझ सकते हैं. बुढ़ापे में एकदूसरे का सहारा बन सकते हैं. यदि उम्र समान हो तो दोनों में से कोई एक लंबे समय तक एकाकी जीवन जीने को मजबूर न हो. मगर स्त्री पर राज करने की मंशा ने पुरुष को इतनी दूर तक कभी सोचने ही नहीं दिया.

पिछले 50 सालों में घरेलू हिंसा के इतने अधिक मामले इसीलिए सामने आने शुरू हुए, क्योंकि स्त्रियां जब थोड़ाबहुत पढ़नेलिखने लगीं तो उन्होंने अपने साथ घर की चारदीवारी में होने वाली हिंसक घटनाओं को बताना शुरू किया. तब मामले अदालतों में भी आए मगर आज भी बहुत बड़ी संख्या में स्त्रियां घरेलू हिंसा का शिकार होने के बाद भी चुप रह जाती हैं.

घरेलू हिंसा के मामले समाज में इसलिए इतने ज्यादा हैं क्योंकि खुद से उम्र में छोटी पत्नी पर हाथ उठाने में न पति को सोचना पड़ता है न उस के परिजनों को. यह बिलकुल वैसा ही है जैसे हम अपने से छोटे भाईबहनों पर कभी भी हाथ साफ कर लेते हैं, कभी भी उन पर गुस्सा उतार लेते हैं. मगर जब रिश्ता पतिपत्नी का हो जहां प्रेम और देह शामिल हो तो वहां मारपीट, गालीगलौज रिश्ते में जहर ही घोलते हैं.

शादी के समय लड़की के मन में बहुत सारे सपने होते हैं. वह होने वाले पति के प्रेम में डूब-उतरा रही होती है. शादी के बाद शारीरिक संबंध इस प्रेम को और प्रगाढ़ करता है, मगर जहां उस ने पति से पहला थप्पड़ या गाली खाई, सारा प्रेम एक झटके में मर जाता है और उस के बाद पूरी जवानी पुरुष एक जीवित लाश के साथ ही सहवास करता है. फिर वहां न प्रेम होता है, न समर्पण, न आदरसम्मान, वहां होती है सिर्फ आर्थिक मजबूरी जिस के कारण पत्नी अपने क्रूर पति का घर छोड़ कर नहीं जा पाती है. और यदि इस बीच दोतीन बच्चे हो गए तो उन की परवरिश की चिंता उस के पैरों में जंजीर बांध देती है. फिर वह अपना पूरा जीवन एक नौकरानी के समान काटती है.

हालांकि आज औरतों की शिक्षा ने समाज के रवैए को काफीकुछ बदलना शुरू कर दिया है. वास्तविक रूप से शिक्षित पुरुषों ने उम्र में छोटी स्त्री से विवाह के कौन्सैप्ट को नकारा है. सही मानो में शिक्षित पुरुष प्रेम को ही शादी का आधार मानता है. वह अपनी पत्नी को बराबरी का दर्जा और सम्मान देता है. उस के सम्मुख पत्नी की उम्र कोई माने नहीं रखती है. गांधीजी इस का बड़ा उदाहरण हैं. वे उन से उम्र में बड़ी थीं. राधा-कृष्ण के प्रेम को कौन नहीं जानता. कृष्ण ने विवाह चाहे अन्यत्र किया मगर जग में उन का नाम राधा के नाम से ही जुड़ा रहा. राधा भी उम्र में कृष्ण से बड़ी थीं. हाल ही में मुकेश अंबानी के पुत्र अनंत अंबानी की शादी काफी चर्चा में रही. इस भव्य शादी के साथ ही इस विषय पर एक बार फिर मंथन शुरू हुआ कि बराबर की उम्र या पुरुष से उम्र में बड़ी स्त्री के साथ विवाह करना क्या वैवाहिक जीवन को सफल, प्रेममय, मजबूत और लंबा बनाता है?

बता दें कि अनंत अंबानी की होने वाली पत्नी राधिका मर्चेंट उम्र में अनंत से बड़ी हैं. अंबानी परिवार में कई स्त्रियां अपने पतियों से उम्र में बड़ी हैं. सभी स्त्रियां उच्चशिक्षित और आर्थिक रूप से मजबूत हैं. उन के वैवाहिक संबंध काफी सुखद और मजबूत हैं. राधिका और अनंत ने कालेज में साथ पढ़ाई की है मगर राधिका की डेट औफ बर्थ जहां 18 दिसंबर, 1994 है वहीं अनंत की 10 अप्रैल, 1995 है. यानी, राधिका अपने पति से 4 माह बड़ी हैं.

इसी परिवार में मुकेश अंबानी के छोटे भाई अनिल अंबानी की पत्नी टीना अंबानी भी अपने पति से उम्र में करीब 2 साल बड़ी हैं. टीना की डेट औफ बर्थ जहां 11 फरवरी, 1957 है वहीं अनिल की 4 जून, 1959 है. मुकेश अंबानी के बड़े बेटे आकाश की पत्नी श्लोका मेहता भी अपने पति आकाश से उम्र में एक साल बड़ी हैं. आकाश अंबानी की डेट औफ बर्थ 23 अक्टूबर, 1991 है, वहीं श्लोका मेहता का जन्म 11 जुलाई, 1990 को हुआ था.

फिल्म इंडस्ट्री में तो कम उम्र की पत्नी के कौन्सैप्ट को काफी पहले ही नकार दिया था. पढ़ीलिखी और आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी अनेक अभिनेत्रियों ने अपने से कम उम्र के पुरुषों के साथ शादियां कीं. ऐसे संबंध पुरुष का स्टेटस, धनदौलत, परिवार और समाज में उन की हैसियत के आधार पर नहीं, बल्कि प्रेम के आधार पर हुए और बहुत अच्छे चले भी. नरगिस दत्त अपने पति सुनील दत्त से उम्र में लगभग समान थीं. नरगिस सुनील दत्त से 5 दिन बड़ी थीं. दोनों के बीच इतनी मोहब्बत थी कि नरगिस की मृत्यु के बाद सुनील दत्त लगभग टूट से गए थे. अगर नरगिस को कैंसर न होता तो यह जोड़ी लंबे समय तक साथ रहती. समान उम्र के कारण दोनों एकदूसरे को अच्छी तरह समझते थे, एकदूसरे का सम्मान करते थे और बेहद प्रेम करते थे.

अपने समय की मशहूर अदाकारा शर्मीला टैगोर की बेटी सोहा अली खान अपने पति कुणाल खेमू से 4 साल बड़ी हैं. वहीं नम्रता शिरोडकर अपने पति महेश बाबू से 2 साल बड़ी हैं. नम्रता 48 तो महेश 46 साल के हैं. अभिनेत्री बिपाशा बसु अपने पति करण सिंह ग्रोवर से उम्र में 6 साल बड़ी हैं. वहीं प्रियंका चोपड़ा अपने पति निक जोनस से 10 साल बड़ी हैं. ऐश्वर्या राय जहां अपने पति अभिषेक बच्चन से 2 साल बड़ी हैं, वहीं मास्टरब्लास्टर सचिन तेंदुलकर की पत्नी अंजलि से उम्र में 5 साल बड़ी हैं. इन सभी हस्तियों की शादियां बहुत सुखद तरीके से चल रही हैं.

ऐसी शादियों की लंबी फेहरिस्त है. विराट कोहली-अनुष्का शर्मा, अर्चना पूरन सिंह-परमीत सेठी, सनाया ईरानी- मोहित सहगल, प्रिंस नरुला-युविका चौधरी, नेहा धूपिया-अंगद बेदी, किश्वर मर्चेंट-सुयश राय जैसे स्टार कपल की लंबी लिस्ट तैयार हो जाएगी. ये कपल्स उस सोच को चुनौती देते दिखते हैं कि हैपी मैरिड लाइफ के लिए लड़के का उम्र में बड़ा होना ही बेहतर होता है. चाहे यूरोप हो या फिर यूएसए या फिर कोरिया और भारत, सदियों तक हर जगह शादीशुदा लड़कों का लड़की से उम्र में बड़ा होना आदर्श स्थिति मानी जाती रही, लेकिन अब समय के साथ इस में बदलाव देखने को मिल रहा है.

अब जब महिलाएं आर्थिक रूप से मजबूत हो रही हैं और अपने साथी को चुनने के लिए खुद पहल कर रही हैं, तो उस में उम्र के तय पैमाने उलटे होते दिख रहे हैं. यदि आने वाले समय में स्त्रियां अपने से छोटी उम्र के लड़कों से शादियां करती हैं तो आश्चर्यजनक रूप से घरेलू हिंसा के मामलों में कमी आएगी. इस के अलावा दहेज के मामले भी घटेंगे. पुरुषों की उद्दंडता कम होगी. अपने से उम्र में बड़ी पत्नी के साथ ऊंची आवाज में बात करने में भी वे झिझकेंगे.

उम्र में बड़ी महिला से शादी करने से पुरुषों को भी कई फायदे होते हैं. इस बात में कोई शक नहीं है कि उम्र के बढ़ने के साथसाथ व्यक्ति का मैच्योरिटी लैवल भी बढ़ता जाता है. उम्र में बड़ी पत्नी में भी यह खूबी देखने को मिलती है. वह न सिर्फ ज्यादा धैर्यवान होती है, बल्कि भावनात्मक रूप से भी अधिक मजबूत नजर आती है. ऐसे में अगर कभी उम्र में छोटा पति किसी तरह की परेशानी से गुजरता है तो वह उसे ज्यादा संबल व काम की सलाह दे पाती हैं. उम्र में बड़ी पत्नी अपने पति के लिए ज्यादा प्रोटैक्टिव होती है. वह हर बुरे समय में उस के लिए ढाल का काम करती है. जबकि, उम्र में छोटी पत्नी अकसर तानेउलाहने दे कर पति को और परेशान कर देती है.

ज्यादातर महिलाएं अपनी मां से घर को संभालने का गुण टीनएज में ही सीखना शुरू कर देती हैं. यह उन्हें शादी के बाद अपने नए परिवार की चीजों को बजट में मैनेज करने में मदद करता है. महिला की उम्र बड़ी हो, तो जाहिर सी बात है कि उस की पकड़ भी इस पर ज्यादा होगी.

वहीं अगर पत्नी वर्किंग है, तब तो पति को और भी फायदा है, क्योंकि वह न सिर्फ अपने बल्कि पति के पैसों को भी ठीक से मैनेज करने में मदद कर सकती है. उस की सलाहें उस के अनुभव पर आधारित होंगी, जो सेविंग बढ़ाने में भी मददगार साबित हो सकती हैं.

ऐसा नहीं है कि पत्नी उम्र में बड़ी हो तो उस में रोमांस की कमी आ जाती है, बल्कि होता यह है कि वह यंग लड़कियों की तरह फिल्मी एक्सपेक्टेशन्स रखने की जगह अपने साथी से वास्तविक अपेक्षाएं रखती हैं. वह समझती हैं कि प्यार जाहिर करने के लिए आप को अपनी जेब खाली करने की जरूरत नहीं है. वह जानती हैं कि गुलाब का फूल और मूवी नाइट डेट भी क्वालिटी कपल टाइम होता है, जिस में दोनों साथी प्यार के साथ इन्वौल्व होते हैं, वह भी स्पैशल एंड रोमांटिक टाइम ही होता है. यहां तक कि ऐसी महिलाएं अपनी भावनाएं जाहिर करने में भी ज्यादा बिंदास होती हैं, ऐसे में मेल पार्टनर को यह सोचना नहीं पड़ता कि उस की साथी क्या सोच रही है.

मैच्योरिटी लैवल ज्यादा होने के कारण ऐसी पत्नियां अपनी ससुराल से जुड़ी चीजों को भी बेहतर तरीके से हैंडल करती हैं. वे पहले से ही भावनात्मक रूप से स्थिर होती हैं, जिस से वे छोटीछोटी बात पर ट्रिगर नहीं होतीं और अपनी मानसिक शांति पर इस का असर नहीं होने देतीं. अगर बच्चे हों तो वे उन्हें भी ज्यादा बेहतर तरीके से संभाल पाती हैं. क्योंकि बच्चों को पालने के लिए धैर्य की जरूरत होती है और यह चीज बड़ी उम्र की फीमेल में ज्यादा देखने को मिलती है.

पति उम्र में छोटा हो तो उस को रिझाए रखने के लिए पत्नियां अपनी लुक और फिगर के प्रति काफी ज्यादा ध्यान देती हैं. वे अपना वेट नहीं बढ़ने देतीं कि कहीं लोग उन की जोड़ी को देख कर भद्दे कमैंट न करने लगें. जबकि, देखा जाता है कि पति से कम उम्र की बहुतेरी पत्नियां शादी और बच्चों के बाद फूल कर मोटी व भद्दे फिगर की हो जाती हैं.

बड़ी उम्र की लड़कियां पत्नी कम, दोस्त ज्यादा बनती हैं और लंबे समय तक वही रिश्ते अच्छे चलते हैं जहां 2 लोगों के मध्य दोस्ती ज्यादा हो. दोस्ती होगी तो डिमांड कम और दूसरे को सुख देने की चाह अधिक होगी. यही सच्चा प्यार और समर्पण है. बड़ी उम्र की लड़कियां रिश्तों के प्रति ईमानदार और वफादार होती हैं. वे रिश्तों को जोड़े रखने में विश्वास करती हैं, न कि छोटीछोटी सी बात पर रिश्ते खत्म करने की सोचती हैं.

पति के न रहने पर ससुराल वालों ने बहुत बुरा किया, क्या करूं?

सवाल

मैं 28 वर्षीय विधवा हूं. मेरे पति वायुसेना में थे. वायुसेना विभाग द्वारा मुझे कोई नौकरी नहीं दी गई. मेरी एक लड़की है जिस की परवरिश का मेरे पति ने पहले ही इंतजाम कर दिया था. सो, वह मुझ पर बोझ नहीं है. पति के न रहने पर ससुराल वालों ने बहुत बुरा व्यवहार किया. इस कारण मैं अकेली रहने लगी हूं. मैं बीए, बीएड हूं और एक प्राइवेट संस्था में कार्य करती हूं. अब मैं इंटरनैट पर वैडिंग वैबसाइट पर वैवाहिक विज्ञापनों के माध्यम से फिर शादी करना चाहती हूं. लेकिन डर लगता है कि कहीं गलती न हो जाए.

जवाब

सुशिक्षित व कामकाजी महिला होने के नाते आप को लोगों को भलीभांति समझने का पर्याप्त अनुभव होगा. इसलिए अपने मन से डर निकाल कर जीवन को खुशहाल बनाएं. विज्ञापन के माध्यम से जीवनसाथी ढूंढ़ने में आप को संकोच नहीं करना चाहिए. शादी आपसी सहयोग, सद्भाव, समान रुचियों और दृष्टिकोणों पर निर्भर करती है. सो, शादी तय करने से पहले जीवनसाथी व उस के परिवार की सभी बातों की भलीभांति जांचपड़ताल कर लीजिए. इस से आप की सभी शंकाओं का समाधान हो जाएगा. यह काम आप के परिवार के किसी बुजुर्ग को ही करना चाहिए. आप स्वयं करेंगी तो कठिनाई हो सकती है.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

जज्बात के लुटेरे : इन दिलफेंक आशिकों से रहें सावधान

  • ये दिखने में हैंडसम और लड़कियों को अपने जाल में फंसाने में माहिर होते हैं.
  • ये बात-बात पर लड़कियों की तारीफ करते नहीं थकते.
  • प्रेम पहल के शुरुआती दिनों में ये उन्हें महंगे तोहफे देने में भी कमाल करते हैं.

आखिर किसी किसी युवा लड़की को और क्या चाहिए ?  जाहिर है ये लड़कियों के फेवरेट होते हैं.हर लड़की अपने पार्टनर के रूप में किसी ऐसे को ही देखना चाहती हैं.इसलिए लड़कियां इनसे दो-तीन बार मिलते ही इन्हें मन ही मन अपना पर्फेक्ट मैच मान लेती हैं .मगर जरा रुकिए,क्या आप जानती हैं,प्रेम के मसीहा दिखने वाले ये जनाब कौन हैं? जी,हां ये दिलफेंक आशिक हैं.यह सही है कि एक नहीं बल्कि दर्जनों  रिसर्च इस बात की तस्दीक करती हैं कि लड़कियों को अकसर दिलफेंक आशिक ही भाते हैं.फिर भी जाल में फंसाने से पहले एक बार हकीकत जान लेनी चाहिए. दरअसल स्कूल में, कौलेज में यहां तक कि औफिसों में भी युवतियां ऐसे ही मर्दों को अपने जीवन में घुसने की अनुमति देती हैं.क्योंकि उन्हें लगता है आशिकी करना तो बस यही जानता है.

असल में लड़कियां स्कूल या कालेज के दिनों से ऐसे लड़के की चाह रखती हैं,जिसे हर कोई पसंद करे.जिसका हर कोई दीवाना हो.वह बातें करे तो जादू बिखरे. दिलफेंक आशिक इन सब चीजों में पीएचडी होते हैं.ये अपने कारियर को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित नहीं होते. इनका सारा ध्यान इस बात पर होता है कि कहीं उनके जीवन में लड़कियां कम न हो जाएं. ये अपने लुक का फायदा उठाना जानते हैं. जिस लड़की का कोई लव इतिहास न रहा हो उसे भी अपने वश में करना जानते हैं.लेकिन हकीकत यह है कि ये एक समय के बाद लड़कियों की जिंदगी बर्बाद कर देते हैं.जिंदगी बर्बाद हो जाने के बाद ही उन्हें क्या पता चलता है कि वह तो धोखेबाज था.

सवाल है क्या हमें दूसरों की ठोकर से सीखने की छूट नहीं है या हमें जानबूझकर आग में हाथ डालने का शौक है? आप क्यों ऐसे व्यक्ति को बदलने की चाहत रखती हैं जो पहले से ही फ्लर्टी है? असल में लड़कियां भ्रामक दुनिया में जीना ज्यादा पसंद करती हैं.उन्हें लगता है कि वह जिसकी भी जिंदगी में जायेंगी, उसकी जिंदगी बदल देंगी.उसे बदल देंगी.इसमें कोई दो राय नहीं है कि लड़कियां हमेशा प्यार से भरी होती हैं. वे चाहे तो पत्थर को भी मोम बना सकती हैं.लेकिन जानबूझकर कुल्हाड़ी को उठाकर पैर पर मारना समझदारी नहीं बेवकूफी है.लड़कियां हमेशा सुरक्षा की चाह रखती हैं.लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि लड़कियां कमजोर हैं या फिर वे अपनी रक्षा करने में असमर्थ हैं ?

वास्तव में युवतियां आमतौर पर भावनात्मक धोखेबाजी का शिकार आसानी से होती हैं.तमाम आंकड़े चीख चीखकर बताते हैं कि ज्यादातर बलात्कारी परिचित होते हैं.साफ़ है कि लड़कियां हर किसी पर आंख मूंदकर भरोसा कर लेती हैं.दिलफेंक आशिक इसी बात का फायदा उठाते हैं.ये जुमलों के शहंशाह होते हैं.ठहरी हुई आवाज में कहते हैं, ‘लड़कियां तो जीवन में बहुत आयीं,लेकिन मैं एक ऐसी लड़की का इंतजार कर रहा था जो मेरी लाइफ में ठहराव ला सके. मुझे बदल सके.अब मुझे लगता है कि मेरी ये तलाश खत्म हो गयी है.’ इस तरह की भावुक बातें अकसर लड़कियों को सोचने के लिए मजबूर कर देती हैं.मगर जिस दिन कोई लड़की हमेशा के लिए उसकी जिंदगी में आ जाती है,उसी दिन से उसकी बाइक की पीछे वाली सीट किसी और की तलाश में जुट जाती है.

यकीन मानिए इस लेक्चर का यह मतलब नहीं है कि आप किसी को प्यार न करें ? इस लेख का मतलब यह भी नहीं है कि हर लड़के पर अविश्वाश करें ? आप पूंछेंगी फिर मैं कहना क्या चाहता हूं ? सिर्फ ये कि ऐसे प्रेमियों से सावधान रहें-

  • जो आपको सिर्फ फिल्म दिखाने,पार्क में घुमाने, पार्टियों में ले जाने को ही तरजीह देता है.
  • जो बात बात पर तारीफ करता हो.
  • जो बिना किसी मौके के तोहफे देने की कोशिश करता हो.
  • जो आपके मम्मी पापा से वक्त आने पर मिलने की बात करता हो अभी और इसी पल नहीं.
  • जो आपको अपने मम्मी–पापा से मिलवाने के लिए भी सही वक्त का इन्तजार कर रहा हो.
  • जो सार्वजनिक जगहों में आपके साथ दिखने से बचता हो.

क्योंकि ये सच्चा प्रेमी नहीं जाल में फांसने वाला दिलफेंक आशिक है जो आपको पाने के बाद आपका नहीं रहेगा.हजार वाजिब बहाने निकाल लेगा.इसलिए जिसे अपने आपको सौंपना चाहती हैं,पहले उसे जांच लें, परख लें. यही सही है कि प्यार अंधा होता है.आप किसी को सोच समझकर प्यार नहीं कर सकते और न ही प्यार के पीछे गणित का इस्तेमाल किया जा सकता है.मगर व्यवहारिक जीवन हमें यही सिखाता है कि प्यार पर विश्वास करें, लेकिन उसे भी जांच पड़ताल करें. कभी कभार अपने प्रेम को भी क्रास चेक करना चाहिए ताकि आपको इस बात की पुष्टि हो जाए कि जिसे आपने चुना है, वह आपका असली हमसफर है. और हां, क्रासचेक के दौरान किसी तरह के अपराधबोध में न आएं.

विशेष

अमरीका में जॉर्जिया के सवाना में स्थित साउथ यूनिवर्सिटी ने सच्चे और झूठे आशिकों के कुछ स्वभाव चिन्हित किये हैं जो इस प्रकार हैं-

1-सच्चे प्रेमी का जीवन परफेक्ट 10 नहीं होता यानी उसमें सब बातें आदर्शपूर्ण ही नहीं होती.कुछ समस्याएं या कमियाँ भी होती हैं.झूठे दिलफेंक आशिक का जीवन परफेक्ट 10 होता है.सब कुछ अच्छा और आदर्शपूर्ण.

2-सच्चा प्रेमी आपको अपना निजी स्पेस देता है.दिलफेंक आपको सांस लेने के लिए भी स्पेस नहीं देता.जबर्दस्त औब्सेशन प्रदर्शित करता है.

3-सच्चा प्रेमी दयालु और झूंठा बेहद क्रूर होता है.यह बेहद शौर्ट टेम्पर्ड भी होता है.

4-सच्चा प्रेमी सिर्फ अपने प्रेम के साथ ही नहीं पूरी दुनिया के प्रति बेहद विनम्र होता है जबकि झूंठा या दिलफेंक प्रेमी अपने प्रेम के लिए झूंठमूंठ की विनम्रता प्रदर्शित करता है.बाकी दुनिया के लिए वह बहुत घमंडी होता है.सच्चाई यह है कि वह किसी के लिए विनम्र नहीं होता.

मैट्रिमोनियल : शादी के लिए इतनी जल्दबाजी में क्यों थे रामचंदर बाबू   

पंकज कई दिनों से सोच रहा था कि रामचंदर बाबू के यहां हो आया जाए, पर कुछ संयोग ही नहीं बना. दरअसल, महानगरों की यही सब से बड़ी कमी है कि सब के पास समय की कमी है. दिल्ली शहर फैलता जा रहा है.

15-20 किलोमीटर की दूरी को ज्यादा नहीं माना जाता. फिर मैट्रो ने दूरियों को कम कर दिया है. लोगों को आनाजाना आसान लगने लगा है. पंकज ने तय किया कि  कल रविवार है, हर हाल में रामचंदर बाबू से मुलाकात करनी ही है.

किसी के यहां जाने से पहले एक फोन कर लेना तहजीब मानी जाती है और सहूलियत भी. क्या मालूम आप 20 किलोमीटर की दूरी तय कर के पहुंचें और पता चला कि साहब सपरिवार कहीं गए हैं. तब आप फोन करते हैं. मालूम होता है कि वे तो इंडिया गेट पर हैं. मन मार कर वापस आना पड़ता है. मूड तो खराब होता ही है, दिन भी खराब हो जाता है. पंकज ने देर करना मुनासिब नहीं समझा, उस ने मोबाइल निकाल कर रामंचदर बाबू को फोन मिलाया.

रामचंदर बाबू घर पर ही थे. दरअसल, वे उम्र में पंकज से बड़े थे. वे रिटायर हो चुके हैं. उन्होंने 45 साल की उम्र में वीआरएस ले लिया था. आज 50 के हो चुके हैं.

‘‘हैलो, मैं हूं,’’ पंकज ने कहा.

‘‘अरे वाह,’’ उधर से आवाज आई, ‘‘काफी दिनों बाद तुम्हारी आवाज सुनाई दी. कैसे हो भाई.’’

‘‘मैं ठीक हूं. आप कैसे हैं?’’

‘‘मुझे क्या होना है. बढि़या हूं. कहां हो?’’

‘‘अभी तो औफिस में ही हूं, कल क्या कर रहे हैं, कहीं जाना तो नहीं है?’’

‘‘जाना तो है. पर सुबह जाऊंगा. 10-11 बजे तक वापस आ जाऊंगा. क्यों, तुम आ रहे हो क्या?’’

‘‘हां, बहुत दिन हो गए.’’

‘‘तो आ जाओ. मैं बाद में चला जाऊंगा या नहीं जाऊंगा. जरूरी नहीं है.’’

‘‘नहीं, नहीं. मैं तो लंच के बाद ही आऊंगा. आप आराम से जाइए. वैसे जाना कहां है?’’

‘‘वही, रिनी के लिए लड़का देखने. नारायणा में बात चल रही थी न. तुम्हें बताया तो था. फोन पर साफ बात नहीं कर रहे हैं, टाल रहे हैं. इसलिए सोचता हूं एक बार हो आऊं.’’

‘‘ठीक है, हो आइए. पर मुझे नहीं लगता कि वहां बात बनेगी. वे लोग मुझे जरा घमंडी लग रहे हैं.’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो. मुझे भी यही लगता है. कल फाइनल कर ही लेता हूं. फिर तुम अपनी भाभी को तो जानते ही हो.’’

‘‘ठीक है, बल्कि यही ठीक होगा. भाभीजी कैसी हैं, उन का घुटना अब कैसा है?’’

‘‘ठीक ही है. डाक्टर ने जो ऐक्सरसाइज बताई है वह करें तब न.’’

‘‘और नीरज आया था क्या?’’

‘‘अरे हां, आजकल आया हुआ है. एकदम ठीक है. तुम्हारे बारे में आज ही पूछ भी रहा था. खैर, तुम कितने बजे तक आ जाओगे?’’

‘‘मैं 4 बजे के करीब आऊंगा.’’

‘‘ठीक है. चाय साथ पिएंगे. फिर खाना खा कर जाना.’’

‘‘रिनी की कहीं और भी बात चल रही है क्या? देखते रहना चाहिए. एक के भरोसे तो नहीं बैठे रहा जा सकता न.’’

‘‘चल रही है न. अब आओ तो बैठ कर इत्मीनान से बात करते हैं.’’

‘‘ठीक है. तो कल पहुंचता हूं. फोन रखता हूं, बाय.’’

मोबाइल फोन का यही चलन है. शुरुआत में न तो नमस्कार, प्रणाम होता है और न ही अंत में होता है. बस, बाय कहा और बात खत्म.

रामचंदर बाबू के एक लड़का नीरज व लड़की रिनी है. रिनी बड़ी है. वह एमबीए कर के नौकरी कर रही है. साढे़ 6 लाख रुपए सालाना का पैकेज है. नीरज बीटैक कर के 3 महीने से एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब कर रहा है. रामचंदर बाबू रिनी की शादी को ले कर बेहद परेशान थे. दरअसल, उन के बच्चे शादी के बाद देर से पैदा हुए थे. पढ़ाई, नौकरी व कैरियर के कारण पहले तो रिनी ही शादी के लिए तैयार नहीं थी, जब राजी हुई तब उस की उम्र 28 साल थी. देखतेदेखते समय बीतता गया और रिनी अब 30 वर्ष की हो गई, लेकिन शादी तय नहीं हो पाई. नातेरिश्तेदारों व दोस्तों को भी कह रखा था. अखबारों में भी विज्ञापन दिया था. मैट्रिमोनियल साइट्स पर भी प्रोफाइल डाल रखा था. अब जब अखबार ने उन का विज्ञापन 30 प्लस वाली श्रेणी में रखा तब उन्हें लगा कि वाकई देर हो गई है. वे काफी परेशान हो गए.

पंकज जब उन के यहां पहुंचा तो 4 ही बजे थे. रामचंदर बाबू घर पर ही थे. पंकज का उन्होंने गर्मजोशी से स्वागत किया. उन के चेहरे पर चमक थी. पंकज को लगा रिनी की बात कहीं बन गई है.

‘‘क्या हाल है रामचंदर बाबू,’’ पंकज ने सोफे पर बैठते हुए पूछा.

‘‘हाल बढि़या है. सब ठीक चलरहा है.’’

‘‘रिनी की शादी की बात कुछ आगे बढ़ी क्या?’’

‘‘हां, चल तो रही है. देखो, सबकुछ ठीक रहा तो शायद जल्द ही फाइनल हो जाएगा.’’

‘‘अरे वाह, यह तो बहुत अच्छा हुआ. नारायणा वाले तो अच्छे लोग निकले.’’

‘‘नारायणा वाले नहीं, वे लोग तो अभी भी टाल रहे हैं. मैं गया था तो बोले कि 2-3 हफ्ते में बताएंगे.’’

‘‘फिर कहां की बात कर रहे हैं?’’

रामचंदर बाबू खिसक कर उस के नजदीक आ गए.

‘‘बड़ा बढि़या प्रपोजल है. इंटरनैट से संपर्क हुआ है.’’

‘‘इंटरनैट से? वह कैसे?’’

‘‘मैं तुम्हें विस्तार से बताता हूं. इंटरनैट पर मैट्रिमोनियल की बहुत सी साइट्स हैं. वे लड़के और लड़कियां की डिटेल रखते हैं. उन पर अकाउंट बनाना होता है, मैं ने रिनी का अकाउंट बनाया था. मुंबई के बड़े लोग हैं. बहुत बड़े आदमी हैं. अभी पिछले हफ्ते ही तो मैं ने उन का औफर एक्सैप्ट किया था.’’

‘‘लड़का क्या करता है?’’

‘‘लड़का एमटैक है आईआईटी मुंबई से. जेट एयरवेज में चीफ इंजीनियर मैंटिनैंस है. 22 लाख रुपए सालाना का पैकेज है. तुम तो उस का फोटो देखते ही पसंद कर लोगे. एकदम फिल्मी हीरो या मौडल लगता है. अकेला लड़का है. कोई र्बहन भी नहीं है.’’

‘‘चलिए, यह तो अच्छी बात है. उस का बाप क्या करता है?’’

‘‘बिजनैसमैन हैं. मुंबई में 2 फैक्टरियां हैं.’’

‘‘2 फैक्टरियां? फिर तो बहुत बड़े आदमी हैं.’’

‘‘बहुत बड़े. कहने लगे इतना कुछ है उन के पास कि संभालना मुश्किल हो रहा है. लड़के का मन बिजनैस में नहीं है, नहीं तो नौकरी करने की कोई जरूरत ही नहीं है. कह रहे थे बिजनैस तो रिनी ही संभालेगी, एमबीए जो है. घर में 3-3 गाडि़यां हैं,’’ रामचंदर बाबू खुशी में कहे जा रहे थे.

‘‘इस का मतलब है कि आप की बात हो चुकी है.’’

‘‘बात तो लगभग रोज ही होती है. एक्सैप्ट करने के बाद साइट वाले कौंटैक्ट नंबर दे देते हैं. जितेंद्रजी कहने लगे कि जब से आप से बात हुई है, दिन में एक बार बात किए बिना चैन ही नहीं मिलता. कई बार तो रात के 12 बजे भी उन का फोन आ जाता है. व्यस्त आदमी हैं न.’’

‘‘कुछ लेनदेन की बात हुई है क्या?’’

‘‘मैं ने इशारे में पूछा था. कहने लगे, कुछ नहीं चाहिए. न सोना, न रुपया, न कपड़ा. बस, सादी शादी. बाकी वे लोग बाद में किसी होटल में पार्टी करेंगे. होटल का नाम याद नहीं आ रहा है. कोई बड़ा होटल है.’’

‘‘घर में और कौनकौन है?’’

‘‘बस, मां हैं और कोई नहीं है. नौकरचाकरों की तो समझो फौज है.’’

‘‘आप ने रिश्तेदारी तो पता की ही होगी. कोई कौमन रिश्तेदारी पता चली क्या?’’

‘‘मैं ने पूछा था. दिल्ली में कोई नहीं है. मुंबई में भी सभी दोस्तपरिचित ही हैं. वैसे बात तो वे सही ही कह रहे हैं. अब हमारी ही कौन सी रिश्तेदारियां बची हैं. एकाध को छोड़ दो तो सब से संबंध खत्म ही हैं. मेरे बाद नीरज और रिनी क्या रिश्तेदारियां निबाहेंगे भला. खत्म ही समझो.’’

‘‘चलिए, ठीक ही है. बात आगे तो बढ़े.’’ वैसे मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, ‘‘शादीब्याह का मामला है, कुछ सावधानियां तो बरतनी ही पड़ती हैं.’’

‘‘हां, सो तो है ही. मैं सावधान तो हूं ही. पर सावधानी के चक्कर में इतना अच्छा रिश्ता कैसे छोड़ दूं. रिनी की उम्र तो तुम देख ही रहे हो.’’

‘‘नहीं, मेरा यह मतलब नहीं था. फिर भी जितना हो सके बैकग्राउंड तो पता कर ही लेना चाहिए.’’

‘‘वो तो करूंगा ही भाई.’’

चायवाय पी कर पंकज वापस चला गया. सबकुछ तो ठीक था पर एक बात थी जो अजीब लग रही थी उसे. आखिर उन लोगों को रिनी में ऐसी कौन सी खासियत नजर आ गई थी जो वे शादी के लिए एकदम तैयार हो गए. बहरहाल, शादीब्याह तो जहां होना है वहीं होगा, फिर भी चलतेचलते उस ने इतना कह ही दिया कि आप एक बार मुंबई जा कर परिवार, फैक्टरियां वगैरह देख आइए. कम से कम तसल्ली तो हो जाएगी. उन्होंने जाने का वादा किया.

अगले शनिवार रामचंदर बाबू ने पंकज को फोन किया.

‘‘अरे, कहां हो भाई? क्या हाल है?’’ मुझे उन का स्वर उत्तेजित लगा.

‘‘मैं घर पर ही हूं,’’ पंकज ने कहा, ‘‘क्या हुआ. सब ठीक तो है.’’

‘‘हां, सब ठीक है. कल का कोई प्रोग्राम तो नहीं है?’’

‘‘नहीं. पर हुआ क्या, तबीयत वगैरह तो ठीक है न?’’

‘‘तबीयत तो ठीक है. अरे, वह रिनी वाला संबंध है न. वही लोग कल आ रहे हैं.’’

‘‘आ रहे हैं? पर क्यों?’’

‘‘अरे, लड़की देखने भाई. सब ठीक रहा तो कोई रस्म भी कर देंगे.’’

‘‘जरा विस्तार से बताइए. पर रुकिए, क्या आप मुंबई हो आए, घरपरिवार देख आए क्या?’’

‘‘अरे, कहां? मैं बताता हूं. तुम्हारे जाने के बाद उन का फोन आ गया था. काफी बातें होती रहीं. पौलिटिक्स पर भी उन की अच्छी पकड़ है. बडे़ बिजनैसमैन हैं. 2-2 फैक्टरियां हैं. पौलिटिक्स पर नजर तो रखनी ही पड़ती है. फिर मैं ने उन से कहा कि अपना पूरा पता बता दीजिए, मैं आ कर मिलना चाहता हूं. कहने लगे आप क्यों परेशान होते हैं. लेकिन आना चाहते हैं तो जरूर आइए. वर्ली में किसी से भी स्टील फैक्टरी वाले जितेंद्रजी पूछ लीजिएगा, घर तक पहुंचा जाएगा. कहने लगे कि फ्लाइट बता दीजिए, ड्राइवर एयरपोर्ट से ले लेगा.’’

‘‘बहुत बढि़या.’’

मैं ने कहा, हवाईजहाज से नहीं, मैं तो ट्रेन से आऊंगा. तो बोले टाइम बता दीजिएगा, स्टेशन से ही ले लेगा. बल्कि वे तो जिद करने लगे कि हवाईजहाज का टिकट भेज देता हूं. 2 घंटे में पहुंच जाइएगा. मैं ने किसी तरह से मना किया.’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर क्या. मैं रिजर्वेशन ही देखता रह गया और कल सुबहसुबह ही उन का फोन आ गया.’’

‘‘अच्छा.’’

‘‘हां. उन्होंने बताया कि वे 15 दिनों के लिए स्वीडन जा रहे हैं. वहां उन का माल एक्सपोर्ट होता है न. पत्नी भी साथ में जा रही हैं. पत्नी की राय से ही उन्होंने फोन किया था. उन की पत्नी का कहना था कि जाने से पहले लड़की देख लें. और ठीक हो तो कोई रस्म भी कर देंगे. सो, बोले हम इतवार को आ रहे हैं.’’

‘‘बड़ा जल्दीजल्दी का प्रोग्राम बन रहा है. क्या लड़का भी साथ में आ रहा है?’’

‘‘ये लो. लड़का नहीं आएगा भला. बड़ा व्यस्त था. पर जितेंद्रजी ने कहा कि आप ने भी तो नहीं देखा है. लड़कालड़की दोनों एकदूसरे को देख लें, बात कर लें, तभी तो हमारा काम शुरू होगा न.’’

‘‘यह तो ठीक बात है. कहां ठहराएंगे उन्हें.’’ पंकज जानता था कि रामचंदर बाबू का मकान बस साधारण सा ही है. एसी भी नहीं है. सिर्फ कूलर है.

‘‘ठहरेंगे नहीं. उसी दिन लौट जाएंगे.’’

‘‘पर आएंगे तो एयरपोर्ट पर ही न.’’

‘‘नहीं भाई, बड़े लोग हैं. उन की पत्नी ने कहा कि जब जा ही रहे हैं तो लुधियाना में अपने भाई के यहां भी हो लें. अब उन का प्रोग्राम है कि वे आज ही फ्लाइट से लुधियाना आ जाएंगे. ड्राइवर गाड़ी ले कर लुधियाना आ जाएगा. कल सुबह 8 बजे घर से निकल कर 11 बजे तक दिल्ली पहुंच जाएंगे व लड़की देख कर लुधियाना वापस लौट जाएंगे. वहीं से मुंबई का हवाईजहाज पकडेंगे. ड्राइवर गाड़ी वापस मुंबई ले जाएगा.’’

‘‘बड़ा अजीब प्रोग्राम है. उन के साले के पास गाड़ी नहीं है क्या, जो मुंबई से ड्राइवर गाड़ी ले कर आएगा. उस की भी तो लुधियाना में फैक्टरी है.’’

‘‘बड़े लोग हैं. क्या मालूम अपनी गाड़ी में ही चलते हों.’’

‘‘क्या मालूम. लेकिन आप जरा घर ठीक से डैकोरेट कर लीजिएगा.’’

‘‘अरे, मैं बेवकूफ नहीं हूं भाई, मेरा घर उन के स्तर का नहीं है. होटल रैडिसन में 6 लोगों का लंच बुक कर लिया है. पहला इंप्रैशन ठीक होना चाहिए.’’

‘‘चलिए, यह आप ने अच्छा किया. नीरज तो है ही न.’’

‘‘वह तो है, पर भाई तुम आ जाना. बड़े लोग हैं. तुम ठीक से बातचीत संभाल लोगे. मैं क्या बात कर पाऊंगा. तुम रहोगे तो मुझे सहारा रहेगा. तुम साढ़े 10 बजे तक रैडिसन होटल आ जाना. हम वहीं मिल जाएंगे.’’

‘‘मैं समय से पहुंच जाऊंगा. आप निश्चित रहें.’’

सारी बातें उसे कुछ अजीब सी लग रही थीं. पंकज ने मन ही मन तय किया कि रामचंदर बाबू से कहेगा कि कल कोई रस्म न करें. जरा रुक कर करें और हो सके तो मुंबई से लौट कर करें.

पंकज घर से 10 बजे ही होटल रैडिसन के लिए निकल गया. आधा घंटा तो लग ही जाना था. आधे रास्ते में ही था कि मोबाइल की घंटी बजी. नंबर रामचंदर बाबू का ही था.

‘‘क्या हो गया रामचंदर बाबू. मैं रास्ते में हूं, पहुंच रहा हूं.’’

‘‘अरे, जल्दी आओ भैया, गजब हो गया.’’

‘‘गजब हो गया? क्या हो गया.’’

‘‘तुम आओ तो. लेकिन जल्दी आओ.’’

‘‘मैं बस 10 मिनट में रैडिसन पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘रैडिसन नहीं, रैडिसन नहीं. घर आओ, जल्दी आओ.’’

‘‘मैं घर ही पहुंचता हूं, पर आप घबराइए नहीं.’’

अगले स्टेशन से ही उस ने मैट्रो बदल ली. क्या हुआ होगा. फोन उन्होंने खुद किया था. घबराए जरूर थे पर बीमार नहीं थे. कहीं रिनी ने तो कोई ड्रामा नहीं कर दिया.

दरवाजा नीरज ने खोला. सामने ही सोफे पर रामचंदर बाबू बदहवास लेटे थे. उन की पत्नी पंखा झल रही थीं व रिनी पानी का गिलास लिए खड़ी थी. पंकज को देखते ही झटके से उठ कर बैठ गए.

‘‘गजब हो गया भैया, अब क्या होगा.’’

‘‘पहले शांत हो जाइए. घबराने से क्या होगा. हुआ क्या है?’’

‘‘ऐक्सिडैंट…ऐक्सिडैंट हो गया.’’

‘‘किस का ऐक्सिडैंट हो गया?’’

‘‘जितेंद्रजी का ऐक्सिडैंट हो गया भैया. अभी थोड़ी देर पहले फोन आया था. अरे नीरज, जल्दी जाओ बेटा. देरी न करो.’’

नीरज ने जाने की कोई जल्दी नहीं दिखाई.

‘‘एक मिनट,’’ पंकज ने रामचंदर बाबू को रोका. ‘‘पहले बताइए तो क्या ऐक्सिडैंट हुआ, कहां हुआ. कोई सीरियस तो नहीं है?’’

‘‘अरे, मैं क्या बताऊं,’’ रामचंदर बाबू जैसे बिलख पड़े, ‘‘कहीं वे मेरी रिनी को मनहूस न समझ लें. अब क्या होगा भैया.’’

‘‘मैं बताता हूं अंकल,’’ नीरज बोला जो कुछ व्यवस्थित लग रहा था, ‘‘अभी साढ़े 9-10 बजे के बीच में जितेंद्र अंकल का फोन आया था. उन्होंने बताया कि ठीक 8 बजे वे लुधियाना से दिल्ली अपनी कार से निकल लिए थे. उन की पत्नी व बेटा भी उन के साथ थे. दिल्ली से करीब 45 किलोमीटर दूर शामली गांव के पहले उन की विदेशी गाड़ी की किसी कार से साइड से टक्कर हो गई. कोई बड़ा एक्सिडैंट नहीं है. सभी लोग स्वस्थ हैं. किसी को कोई चोट नहीं आई है.’’

‘‘तब समस्या क्या है, वे आते क्यों नहीं?’’

‘‘कार वाले ने समस्या खड़ी कर दी. वह पैसे मांग रहा है. कोई दारोगा भी आ गया है.’’

‘‘फिर?’’

‘‘कार वाले से 50 हजार रुपए में समझौता हुआ है.’’

‘‘तो उन्होंने दे दिया कि नहीं.’’

‘‘उन के पास नकद 25 हजार रुपए ही हैं. उन्होंने बताया कि पास में ही एक एटीएम है. पर अंकल का कार्ड चल ही नहीं रहा है.’’

‘‘अरे, तुम जा कर उन के खाते में 25 हजार डाल क्यों नहीं देते बेटा.’’ रामचंदर बाबू कलपे, ‘‘अब तक तो डाल कर आ भी जाते.’’

पंकज ने प्रश्नसूचक दृष्टि से नीरज की तरफ देखा.

‘‘अंकल के ड्राइवर का एटीएम कार्ड चल रहा है. पर उस के खाते में रुपए नहीं हैं. अंकल ने पापा से कहा है कि वे ड्राइवर के खाते में 25 हजार रुपए जमा कर दें, वे दिल्ली आ कर मैनेज कर देंगे. ड्राइवर का एटीएम कार्ड भारतीय स्टेट बैंक का है. मैं वहीं जमा कराने जा रहा हूं.’’

‘‘एक मिनट रुको नीरज. मुझे मामला कुछ उलझा सा लग रहा है. रामचंदर बाबू आप को कुछ अटपटा नहीं लग रहा है?’’

‘‘कैसा अटपटा?’’

‘‘उन्होंने अपने साले से लुधियाना, जहां रात में रुके भी थे, रुपया जमा कराने के लिए क्यों नहीं कहा?’’

‘‘शायद रिश्तेदारी में न कहना चाहते हों.’’

‘‘तो आप से क्यों कहा? आप से तो नाजुक रिश्तेदारी होने वाली है.’’

‘‘शायद मुझ पर ज्यादा भरोसा हो.’’

‘‘कैसा भरोसा? अभी तो आप लोगों ने एकदूसरे का चेहरा भी नहीं देखा है. फिर 2-2 फैक्टरियों के किसी मैनेजर को फोन कर के रुपया जमा करने को क्यों नहीं कहा?’’

‘‘अरे, दिल्ली से 45 किलोमीटर दूर ही तो हैं वे. मुंबई दूर है.’’

‘‘क्या बात करते हैं? कंप्यूटर के लिए क्या दिल्ली क्या मुंबई. लड़का भी तो साथ है. उस का भी कोई कार्ड नहीं चल रहा है. आजकल तो कईकई क्रैडिटडैबिट कार्ड रखने का फैशन है.’’

‘‘क्या मालूम?’’ रामचंदर बाबू भी सोच में पड़ गए.

‘‘किसी का कार्ड नहीं चल रहा है. सिर्फ ड्राइवर का कार्ड चल रहा है. बात जरा समझ में नहीं आ रही है.’’

‘‘तो क्या किया जाए भैया. बड़ी नाजुक बात है. अगर सच हुआ तो बात बिगड़ी ही समझो.’’

‘‘इसीलिए तो मैं कुछ बोल नहीं पा रहा हूं?’’

‘‘नहीं. तुम साफ बोलो. अब बात फंस गई है.’’

‘‘यह फ्रौड हो सकता है. आप रुपया जमा करा दें और फिर वे फोन ही न उठाएं तो आप उन्हें कहां ढूंढ़ेंगे?’’

‘‘25 हजार रुपए का रिस्क है,’’ नीरज धीरे से बोला.

‘‘मेरा तो दिमाग ही नहीं चल रहा है. इसीलिए तो तुम्हें बुलाया है. बताओ, अब क्या किया जाए?’’

‘‘नीरज, तुम्हें अकाउंट नंबर तो बताया है न.’’

‘‘हां, ड्राइवर का अकाउंट नंबर बताया है. स्टेट बैंक का है. इसी में जमा करने को कहा है.’’

‘‘चलो, सामने वाले पीसीओ पर चलते हैं. तुम उन को वहीं से फोन करो और कहो कि बैंक वाले बिना खाता होल्डर की आईडी प्रूफ के रुपया जमा नहीं कर रहे हैं. कह देना मैं मैनेजर साहब के केबिन से बोल रहा हूं. आप इन्हीं के फैक्स पर ड्राइवर की आईडी व अकाउंट नंबर फैक्स कर दें. वैसे, ऐसा कोई

नियम नहीं है. 25 हजार रुपए तक जमा किया जा सकता है. हो सकता है वे ऐसा कुछ कहें. तो कहना, लीजिए, मैनेजर साहब से बात कर लीजिए. तब फोन मुझे दे देना. मैं कह दूंगा कि अब यह नियम आ गया है.’’

‘‘इस से क्या होगा?’’

‘‘आईडी और अकाउंट नंबर का फैक्स पर आ गया तो रुपया जमा कर देंगे, वरना तो समझना फ्रौड है.’’

‘‘अगर वहां फैक्स सुविधा न हुई तो?’’ रामचंदर बाबू बोले.

‘‘जब एटीएम है तो फैक्स भी होगा. फिर उन्हें तो कहने दीजिए न.’’

‘‘ठीक है. ऐसा किया जाए. इस में कोई बुराई नहीं है.’’ रामचंदर बाबू के दिमाग में भी शक की सूई घूमी. पंकज व नीरज पीसीओ पर आए. उस का फैक्स नंबर नोट किया व फिर नीरज ने फोन मिलाया.

‘‘अंकल नमस्ते,’’ नीरज बोला, ‘‘मैं रामचंदरजी का बेटा नीरज बोल रहा हूं.’’

उधर से कुछ कहा गया.

‘‘नहीं अंकल, बैंक वाले रुपए जमा नहीं कर रहे हैं. कह रहे हैं अकाउंट होल्डर का आईडी प्रूफ चाहिए. मैं बैंक से ही बोल रहा हूं,’’ नीरज उधर की बात सुनता रहा.

‘‘लीजिए, आप मैनेजर साहब से बात कर लीजिए,’’ नीरज ने फोन काट दिया.

‘‘क्या हुआ,’’ मैं ने दोबारा पूछा.

‘‘उन्होंने फोन काट दिया,’’ नीरज बोला.

‘‘काट दिया? पर कहा क्या?’’

‘‘मैं ने अपना परिचय दिया तो अंकल ने पूछा कि रुपया जमा किया कि नहीं. मैं ने बताया कि बैंक वाले जमा नहीं कर रहे हैं, तो अंकल बिगड़ गए, बोले कि इतना सा काम नहीं हो पा रहा है. मैं ने जब कहा कि लीजिए बात कर लीजिए तो फोन ही काट दिया.’’

‘‘फिर मिलाओ.’’

नीरज ने फिर से फोन मिलाया लेकिन लगातार स्विच औफ आता रहा.

पंकज ने राहत की सांस ली. ‘‘अब चलो.’’

वे दोनों वापस घर आ गए व रामचंदर बाबू को विस्तार से बताया.

‘‘हो सकता है गुस्सा हो गए हों, परेशान होंगे,’’ वे सशंकित थे.

‘‘आप मिलाइए.’’ रामचंदर बाबू ने भी फोन मिलाया पर स्विच औफ आया.

‘‘15 मिनट रुक कर मिलाइए.’’

15-15 मिनट रुक कर 4 बार मिलाया गया. हर बार स्विच औफ ही आया.

‘‘ये साले वाकई फ्रौड थे,’’ आखिरकार रामचंदर बाबू खुद बोले, ‘‘नहीं तो हमारी रिनी कौन सी ऐसी हूर की परी है कि वे लोग शादी के लिए मरे जा रहे थे. उन का मतलब सिर्फ 25 हजार रुपए लूटना था.’’

‘‘ऐसे नहीं,’’ पंकज ने कहा, ‘‘अभी और डिटेल निकालता हूं.’’

उस ने अपने दोस्त अखिल को फोन किया जो एसबीआई की एक ब्रांच में था. उस ने उस अकाउंट नंबर बता कर खाते की पूरी डिटेल्स बताने को कहा. उस ने देख कर बताया कि उक्त खाता बिहार के किसी सुदूर गांव की शाखा का था.

‘‘जरा एक महीने का स्टेटमैंट तो निकालो,’’ पंकज ने कहा.

‘‘नहीं यार, यह नियम के खिलाफ होगा.’’

पंकज ने जब उसे पूरा विवरण बताया तो वह तैयार हो गया. ‘‘बहुत बड़ा स्टेटमैंट है भाई. कई पेज में आएगा.’’

‘‘एक हफ्ते का निकाल दो. मैं नीरज नाम के लड़के को भेज रहा हूं. प्लीज उसे दे देना.’’

‘‘ठीक है.’’

नीरज मोटरसाइकिल से जा कर स्टेटमैंट ले आया. एक सप्ताह का स्टेटमैंट 2 पेज का था. 6 दिनों में खाते में 7 लाख 30 हजार रुपए जमा कराए गए थे व सभी निकाल भी लिए गए थे. सारी जमा राशियां 5 हजार से 35 हजार रुपए की थीं. उस समय खाते में सिर्फ 1,300 रुपए थे. स्टेटमैंट से साफ पता चल रहा था कि सारे जमा रुपए अलगअलग शहरों में किए गए थे. रुपए जमा होते ही रुपए एटीएम से निकाल लिए गए थे. अब तसवीर साफ थी. रामचंदर बाबू सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘देख लिया आप ने. एक ड्राइवर के खाते में एक हफ्ते में 7 लाख से ज्यादा जमा हुए हैं. फैक्टरियां  तो उसी की होनी चाहिए.’’

‘‘मेरे साथ फ्रौड हुआ है.’’

‘‘बच गए आप. कहीं कोई लड़का नहीं है. कोई बाप नहीं है. कोई फैक्टरी नहीं है. यहीं कहीं दिल्ली, मुंबई या कानपुर, जौनपुर जगह पर कोई मास्टरमाइंड थोड़े से जाली सिमकार्ड वाले मोबाइल लिए बैठा है और सिर्फ फोन कर रहा है. सब झूठ है.’’

‘‘मैं महामूर्ख हूं. उस ने मुझे सम्मोहित कर लिया था.’’

‘‘यही उन का आर्ट है. सिर्फ बातें कर के हर हफ्ते लाखों रुपए पैदा कर रहे हैं. इस की तो एफआईआर होनी चाहिए.’’

रामचंदर बाबू सोच में पड़ गए और बोले, ‘‘जाने दो भैया. लड़की का मामला है. बदनामी तो होगी ही, थाना, कोर्टकचहरी अलग से करनी पड़ेगी. फिर हम तो बच गए.’’

‘‘आप 25 हजार रुपए लुटाने पर भी कुछ नहीं करते. कोई नहीं करता. किसी ने नहीं किया. लड़की का मामला है सभी के लिए. कोई कुछ नहीं करेगा. यह वे लोग जानते हैं और इसी का वे फायदा उठा रहे हैं.’’

‘‘हम लोग तुम्हारी वजह से बच गए.’’

‘‘एक बार फोन तो मिलाइए रामचंदर बाबू. हो सकता है वे लोग रैडिसन में इंतजार कर रहे हों.’’

रामचंदर बाबू ने फोन उठा कर मिलाया व मुसकराते हुए बताया, ‘‘स्विच औफ.’’बाद में पंकज ने अखिल को पूरी बात बता कर बैंक में रिपोर्ट कराई व खाते को सीज करा दिया. पर एक खाते को सीज कराने से क्या होता है.

और बाद में, करीब 6 महीने बाद रिनी की शादी एक सुयोग्य लड़के से हो गई. मजे की बात विवाह इंटरनैट के मैट्रिमोनियल अकाउंट से ही हुआ. रिनी  अपनी ससुराल में खुश है.

मैत्री : उमंग से मिल कर मैत्री क्यों हैरान रह गई

गाड़ी प्लेटफौर्म छोड़ चुकी थी. मैत्री अपने मोबाइल पर इंटरनैट की दुनिया में बिजी हो गई. फेसबुक और उस पर फैले मित्रता के संसार. विचारमग्न हो गई मैत्री. मित्र जिन्हें कभी देखा नहीं, जिन से कभी मिले नहीं, वे सोशल मीडिया के जरिए जीवन में कितने गहरे तक प्रवेश कर गए हैं. फेसबुक पर बने मित्रों में एक हैं उमंग कुमार. सकारात्मक, रचनात्मक, उमंग, उत्साह और जोश से सराबोर. जैसा नाम वैसा गुण. अंगरेजी में कह लीजिए मिस्टर यू के.

मैत्री के फेसबुकिया मित्रों में सब से घनिष्ठ मित्र हैं यू के. मैत्री अपना मोबाइल ले कर विचारों में खो जाती है. कितनी प्यारी, कितनी अलग दुनिया है वह, जहां आप ने जिस को कभी नहीं देखा हो, उस से कभी न मिले हों, वह भी आप का घनिष्ठ मित्र हो सकता है.

मैत्री मोबाइल पर उंगलियां थिरकाती हुई याद करती है अतीत को, जब गाड़ी की सीट पर बैठा व्यक्ति यात्रा के दौरान कोई अखबार या पत्रिका पढ़ता नजर आता था. लेकिन आज मोबाइल और इंटरनैट ने कई चीजों को एकसाथ अप्रासंगिक कर दिया, मसलन घड़ी, अखबार, पत्रपत्रिकाएं, यहां तक कि अपने आसपास बैठे या रहने वाले लोगों से भी दूर किसी नई दुनिया में प्रवेश करा दिया. मोबाइल की दुनिया में खोए रहने वाले लोगों के करीबी इस यंत्र से जलने लगे हैं.

अपनी आज की यात्रा की तैयारी करते हुए जब सवेरे मैत्री को उस का पति नकुल समझा रहा था कि जयपुर जा कर वह किस से संपर्क करे, कहां रुकेगी आदि, तब मैत्री ने पति को बताया कि वे कतई चिंता न करें. फेसबुकिया मित्र उमंग का मैसेज आ गया है कि बेफिक्र हो कर जयपुर चली आएं, आगे वे सब संभाल लेंगे.

मैत्री के पति काफी गुस्सा हो गए थे. क्या-क्या नहीं कह गए. फेसबुक की मित्रता फेसबुक तक ही सीमित रखनी चाहिए. विशेषकर महिलाओं को कुछ ज्यादा ही सावधानी रखनी चाहिए. झूठे नामों से कई फर्जी अकाउंट फेसबुक पर खुले होते हैं. फेसबुक की हायहैलो फेसबुक तक ही सीमित रखनी चाहिए. महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. भू्रण से ले कर वृद्धावस्था तक. न जाने पुरुष कब, किस रूप में स्त्री को धोखा देदे. जिस व्यक्ति को कभी देखा ही नहीं, उस पर यकीन नहीं करना चाहिए.

मैत्री को लगा कि पति, जिन को वह खुले विचारों का पुरुष समझ रही थी, की आधुनिकता का मुलम्मा उतरने लगा है.

मैत्री ने इतना ही कहा था कि जो व्यक्ति 5 वर्षों से उस की सहायता कर रहा है, जिस के सारे पोस्ट सकारात्मक होते हैं, ऐसे व्यक्ति पर अविश्वास करना जायज नहीं है.

जब पतिपत्नी के बीच बहस बढ़ रही थी तो मैत्री कह उठी थी, ‘मैं कोई दूध पीती बच्ची नहीं हूं. अधेड़ महिला हूं. पढ़ीलिखी हूं, मुझे कौन खा जाएगा? मैं अपनी रक्षा करने में सक्षम हूं.’

नकुल खामोश तो हो गया था पर यह बताना नहीं चूका कि मैत्री के ठहरने की व्यवस्था उन्होंने पोलो विक्ट्री के पास अपने विभाग के गैस्टहाउस में कर दी है.

जब मैत्री ने नहले पर दहला मार दिया कि ज्यादा ही डर लग रहा हो तो वे भी साथ चल सकते हैं, तब नकुल कुछ देर के लिए खामोश हो गया. वह बात को बदलने की नीयत से बोला, ‘तुम तो बिना वजह नाराज हो गई. मेरा मतलब है सावधानी रखना.’

कहने को तो बात खत्म हो गई पर विचारमंथन चल रहा है. ट्रेन जिस गति से आगे भाग रही है, मैत्री की विचारशृंखला अतीत की ओर भाग रही है.

बारबार अड़चन बनता नकुल का चेहरा बीच में आ रहा है. तमतमाया, तल्ख चेहरा और उस के चेहरे का यह रूप आज मैत्री को भीतर तक झकझोर गया था.

मैत्री नकुल की बात से पूरी तरह सहमत नहीं थी. उस का बात कहने का लहजा मैत्री को भीतर तक झकझोर गया. होने को तो क्या नहीं हो सकता. जो बातें वे पुरुषों के बारे में फेसबुक के संदर्भ में कर रहे थे महिलाओं के बारे में भी हो सकती हैं.

बात छोटी सी थी, उस ने तो केवल यही कहा था कि फेसबुक मित्र ने उस के जयपुर में ठहरने की व्यवस्था के लिए कहा था. मैत्री ने इस के लिए हामी तो नहीं भरी थी. नकुल का चेहरा कैसा हो गया था, पुरुष की अहंवादी मानसिकता और अधिकारवादी चेष्टा का प्रतीक बन कर.

मैत्री इन विचारों को झटक कर आज की घटना से अलग होने की कोशिश करती है. लगता है गाड़ी सरक कर किसी स्टेशन पर विश्राम कर रही है. प्लेटफौर्म पर रोशनी और चहलपहल है.

लगभग 25-30 वर्ष पहले मैत्री के जीवन की गाड़ी दांपत्य जीवन में प्रवेश कर नकुलरूपी प्लेटफौर्म पर रुकी थी.

मैत्री ने विवाह के बाद महसूस किया कि पुरुष के बगैर स्त्री आधीअधूरी है. दांपत्य जीवन के सुख ने उस को भावविभोर कर दिया. प्यारा सा पति नकुल और शादी के बाद तीसरे स्टेशन के रूप में प्यारा सा मासूम बच्चा आ गया. रेलगाड़ी चलने लगी थी.

नकुल की अच्छीखासी सरकारी नौकरी और मैत्री की गोद में सुंदर, प्यारा मासूम बच्चा. दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे. सारसंभाल से बच्चा बड़ा हो रहा है. हर व्यक्ति अपनी यात्रा पर चल पड़ता है. एक दिन पता लगता है एकाएक बचपन छिटक कर कहीं अलग हो गया. सांस  लेतेलेते पता लगता है कि कीमती यौवन भी जाने कहां पीछा छुड़ा कर चला गया.

देखते ही देखते मैत्री का बेटा सुवास 15 वर्ष का किशोर हो गया. किशोर बच्चों की तरह आकाश में उड़ान भरने के सपने ले कर. एक दिन मातापिता के आगे उस ने मंशा जाहिर कर दी, ‘मेरे सारे फ्रैंड आईआईटी की कोचिंग लेने कोटा जा रहे हैं. मैं भी उन के साथ कोटा जाना चाहता हूं. मैं खूब मन लगा कर पढ़ाई करूंगा. आईआईटी ऐंट्रैंस क्वालिफाई करूंगा. फिर किसी के सामने मुझे नौकरी के लिए भीख नहीं मांगनी पड़ेगी. कैंपस से प्लेसमैंट हो जाएगा और भारीभरकम सैलरी पैकेज मिलेगा.’

बेटे सुवास का सोचना कतई गलत नहीं था. इस देश का युवा किशोरमन बेरोजगारी से कितना डरा हुआ है. बच्चे भी इस सत्य को जान गए हैं कि अच्छी नौकरियों में ऊपर का 5 प्रतिशत, शेष 50-60 प्रतिशत मजदूरी कार्य में. जो दोनों के लायक नहीं हैं, वे बेरोजगारों की बढ़ती जमात का हिस्सा हैं.

पिता की नौकरी बहुत बड़ी तो नहीं, पर छोटी भी नहीं थी. परिवार में कुल जमा 3 प्राणी थे. सो, बेटे की ऐसी सोच देख कर नकुल और मैत्री प्रसन्न हो गए. आननफानन सपनों को पंख लग गए.

मातापिता दोनों सुवास के साथ गए. कोटा में सप्ताहभर रुक कर अच्छे कोचिंग सैंटर की फीस भर कर बेटे को दाखिला दिलवाया. अच्छे होस्टल में उस के रहनेखाने की व्यवस्था की गई. पतिपत्नी ने बेटे को कोई तकलीफ न हो, सो, एक बैंक खाते का एटीएम कार्ड भी उसे दे दिया.

बेटे सुवास को छोड़ कर जब वे वापस लौट रहे थे तो दोनों का मन भारी था. मैत्री की आंखें भी भर आईं. जब सुवास साथ था, तो उस के कितने बड़ेबड़े सपने थे. जितने बड़े सपने उतनी बड़ी बातें. पूरी यात्रा उस की बातों में कितनी सहज हो गई थी.

नकुल और मैत्री का दर्द तो एक ही था, बेटे से बिछुड़ने का दर्द, जिस के लिए वे मानसिक रूप से तैयार नहीं थे. फिर भी नकुल ने सामान्य होने का अभिनय करते हुए मैत्री को समझाया था, ‘देखो मैत्री, कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. बच्चों को योग्य बनाना हो तो मांबाप को यह दर्द सहना ही पड़ता है. इस दर्द को सहने के लिए हमें पक्षियों का जीवन समझना पड़ेगा.

‘जिस दिन पक्षियों के बच्चे उड़ना सीख जाते हैं, बिना किसी देर के उड़ जाते हैं. फिर लौट कर नहीं आते. मनुष्यों में कम से कम यह तो संतोष की बात है कि उड़ना सीख कर भी बच्चे मांबाप के पास आते हैं, आ सकते हैं.’

मैत्री ने भी अपने मन को समझाया. कुछ खो कर कुछ पाना है. आखिर सुवास को जीवन में कुछ बन कर दिखाना है तो उसे कुछ दर्द तो बरदाश्त करना ही पड़ेगा.

कमोबेश मातापिता हर शाम फोन पर सुवास की खबर ले लिया करते थे. सुवास के खाने को ले कर दोनों चिंतित रहते. मैस और होटल का खाना कितना भी अच्छा क्यों न हो, घर के खाने की बराबरी तो नहीं कर सकता और वह संतुष्टि भी नहीं मिलती.

पतिपत्नी दोनों ही माह में एक बार कोटा शहर चले जाते थे. कोटा की हर गली में कुकुरमुत्तों की तरह होस्टल, मैस, ढाबे और कोचिंग सैंटरों की भरमार है. हर रास्ते पर किशोर उम्र के लड़के और लड़कियां सपनों को अरमान की तरह पीठ पर किताबों के नोट्स का बोझ उठाए घूमतेफिरते, चहचहाते, बतियाते दिख जाते.

जगहजगह कामयाब छात्रों के बड़ेबड़े होर्डिंग कोचिंग सैंटर का प्रचार करते दिखाई पड़ते. उन बच्चों का हिसाब किसी के पास नहीं था जो संख्या में 95 प्रतिशत थे और कामयाब नहीं हो पाए थे.

टैलीफोन पर बात करते हुए मैत्री अपने बेटे सुवास से हर छोटीछोटी बात पूछती रहती. दिनमहीने गुजरते गए. सावन का महीना आ गया. चारों तरफ बरसात की झमाझम और हरियाली का सुहावना दृश्य धरती पर छा गया.

ऐसे मौसम में सुवास मां से पकौड़े बनवाया करता. मैत्री का बहुत मन हो रहा था अपने बेटे को पकौड़े खिलाने का. शाम को उस के पति नकुल ने भी जब पकौड़े बनाने की मांग की तो मैत्री ने कह दिया, ‘बच्चा तो यहां है नहीं. उस के बगैर उस की पसंद की चीज खाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है.’ तब नकुल ने भी उस की बात मान ली थी.

मैत्री की स्मृतिशृंखला का तारतम्य टूटा, क्योंकि रेलगाड़ी को शायद सिगनल नहीं मिला था और वह स्टेशन से बहुत दूर कहीं अंधेरे में खड़ी हो गई थी.

ऐसा ही कोई दिन उगा था जब बरसात रातभर अपना कहर बरपा कर खामोश हुई थी. नदीनाले उफान पर थे. अचानक घबराया हुआ रोंआसा नकुल घर आया. साथ में दफ्तर के कई फ्रैंड्स और अड़ोसीपड़ोसी भी इकट्ठा होने लगे.

मैत्री कुछ समझ नहीं पा रही थी. चारों तरफ उदास चेहरों पर खामोशी पसरी थी. घर से दूर बाहर कहीं कोई बतिया रहा था. उस के शब्द मैत्री के कानों में पड़े तो वह दहाड़ मार कर चीखी और बेहोश हो गई.

कोई बता रहा था, कोटा में सुवास अपने मित्रों के साथ किसी जलप्रपात पर पिकनिक मनाने गया था. वहां तेज बहाव में पांव फिसल गया और पानी में डूबने से उस की मृत्यु हो गई है.

हंसतेखेलते किशोर उम्र के एकलौते बेटे की लाश जब घर आई, मातापिता दोनों का बुरा हाल था. मैत्री को लगा, उस की आंखों के आगे घनघोर अंधेरा छा रहा है, जैसे किसी ने ऊंचे पर्वत की चोटी पर से उसे धक्का दे दिया हो और वह गहरी खाई में जा गिरी हो.

मैत्री की फुलवारी उजड़ गई. बगिया थी पर सुवास चली गई. यह सदमा इतना गहरा था कि वह कौमा में चली गई. लगभग 15 दिनों तक बेहोशी की हालत में अस्पताल में भरती रही.

रिश्तेदारों की अपनी समयसीमा थी. कहते हैं कंधा देने वाला श्मशान तक कंधा देता है, शव के साथ वह जलने से रहा.

सुवास की मौत को लगभग 3 माह हो गए पर अभी तक मैत्री सामान्य नहीं हो पाई. घर के भीतर मातमी सन्नाटा छाया था. नकुल का समय तो दफ्तर में कट जाता. यों तो वह भी कम दुखी नहीं था पर उसे लगता था जो चीज जानी थी वह जा चुकी है. कितना भी करो, सुवास वापस कभी लौट कर नहीं आएगा. अब तो किसी भी तरह मैत्री के जीवन को पटरी पर लाना उस की प्राथमिकता है.

इसी क्रम में उस को सूझा कि अकेले आदमी के लिए मोबाइल बिजी रहने व समय गुजारने का बहुत बड़ा साधन हो सकता है. एक दिन नकुल ने एक अच्छा मोबाइल ला कर मैत्री को दे दिया.

पहले मैत्री ने कोई रुचि नहीं दिखाई, लेकिन नकुल को यकीन था कि यह एक ऐसा यंत्र है जिस की एक बार सनक चढ़ने पर आदमी इस को छोड़ता नहीं है. उस ने बड़ी मानमनुहार कर उस को समझाया. इस में दोस्तों का एक बहुत बड़ा संसार है जहां आदमी कभी अकेला महसूस नहीं करता बल्कि अपनी रुचि के लोगों से जुड़ने पर खुशी मिलती है.

नकुल के बारबार अपील करने? और यह कहने पर कि फौरीतौर पर देख लो, अच्छा न लगे, तो एकतरफ पटक देना, मैत्री ने गरदन हिला दी. तब नकुल ने सारे फंक्शंस फेसबुक, व्हाट्सऐप, हाइक व गूगल सर्च का शुरुआती परिचय उसे दे दिया.

कुछ दिनों तक तो मोबाइल वैसे ही पड़ा रहा. धीरेधीरे मैत्री को लगने लगा कि नकुल बड़ा मन कर के लाया है, उस का मान रखने के लिए ही इस का इस्तेमाल किया जाए.

एक बार मैत्री ने मोबाइल को इस्तेमाल में क्या लिया कि वह इतनी ऐक्सपर्ट होती चली गई कि उस की उंगलियां अब मोबाइल पर हर समय थिरकती रहतीं.

फेसबुक के मित्रता संसार में एक दिन उस का परिचय उमंग कुमार यानी मिस्टर यू के से होता है. अकसर मैत्री अपने दिवंगत बेटे सुवास को ले कर कुछ न कुछ पोस्ट करती रहती थी. फीलिंग सैड, फीलिंग अनहैप्पी, बिगैस्ट मिजरी औफ माय लाइफ आदिआदि.

निराशा के इस अंधकार में आशा की किरण की तरह उमंग के पोस्ट, लेख, टिप्पणियां, सकारात्मक, सारगर्भित, आशावादी दृष्टिकोण से ओतप्रोत हुआ करते थे. नकुल को लगा मैत्री का यह मोबाइलफ्रैंडली उसे सामान्य होने में सहयोग दे रहा है. उस का सोचना सही भी था.

फेसबुक पर उमंग के साथ उस की मित्रता गहरी होती चली गई. मैत्री को एहसास हुआ कि यह एक अजीब संसार है जहां आप से हजारों मील दूर अनजान व्यक्ति भी किस तरह आप के दुख में भागीदार बनता है. इतना ही नहीं, वह कैसे आप का सहायक बन कर समस्याओं का समाधान सुझाता है.

मैत्री ने अपने बेटे की मृत्यु की दुखभरी त्रासदी फेसबुक पर पोस्ट कर दी, अपनी तकलीफ और जीवन गुजारने की यथास्थिति भी लिख दी.

उमंग ने पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया दी थी, ‘जो कुछ आप के जीवन में घटित हुआ, उस के प्रति संवेदना प्रकट करने में शब्दकोश छोटा पड़ जाएगा. जीवन कहीं नहीं रुका है, कभी नहीं रुकता है. हर मनुष्य का जीवन केवल एक बार और अंतिम बार रुकता है, केवल खुद की मौत पर.’

इसी तरह की अनेक पोस्ट लगातार आती रहतीं, मैत्री के ठहरे हुए जीवन में कुछ हलचल होने लगी. एक बार उमंग ने हृदयरोग के एक अस्पताल की दीवारों के चित्र पोस्ट किए जहां दिल के चित्र के पास लिखा था, ‘हंसोहंसो, दिल की बीमारियों में कभी न फंसो.’

एक दिन उमंग ने लिखा, ‘मैडम, जीवनभर सुवास की याद में आंसू बहाने से कुछ नहीं मिलेगा. अच्छा यह है कि गरीब, जरूरतमंद और अनाथ बच्चों के लिए कोई काम हाथ में लिया जाए. खुद का समय भी निकल जाएगा और संतोष भी मिलेगा.’

यह सुझाव मैत्री को बहुत अच्छा लगा. नकुल से जब उस ने इस बारे में चर्चा की तो उस ने भी उत्साह व रुचि दिखाई.

जब मैत्री का सकारात्मक संकेत मिला तो उमंग ने उसे बताया कि वे खुद सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग, प्रधान कार्यालय, जयपुर में बड़े अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं. वे उस की हर तरह से मदद करेंगे.

उमंग ने पालनहार योजना, मूकबधिर विद्यालय, विकलांगता विद्यालय, मंदबुद्धि छात्रगृह आदि योजनाओं का साहित्य ईमेल कर दिया. साथ ही, यह भी मार्गदर्शन कर दिया कि किस तरह एनजीओ बना कर सरकारी संस्थाओं से आर्थिक सहयोग ले कर ऐसे संस्थान का संचालन किया जा सकता है.

उमंग ने बताया कि सुवास की स्मृति को कैसे यादगार बनाया जा सकता है. एक पंफ्लेट सुवास की स्मृति में छपवा कर अपना मंतव्य स्पष्ट किया जाए कि एनजीओ का मकसद निस्वार्थ भाव से कमजोर, गरीब, लाचार बच्चों को शिक्षित करने का है.

उमंग से मैत्री को सारा मार्गदर्शन फोन और सोशल मीडिया पर मिल रहा था. वे लगातार मैत्री को उत्साहित कर रहे थे.

मैत्री ने अपनी एक टीम बनाई, एनजीओ बनाया. मैत्री की निस्वार्थ भावना को देखते हुए उसे आर्थिक सहायता भी मिलती गई. उमंग के सहयोग से सरकारी अनुदान भी जल्दी ही मिलने लगा.

शहर में खुल गया विकलांग बच्चों के लिए एक अच्छा विद्यालय. मैत्री को इस काम में बहुत संतोष महसूस होने लगा. उस की व्यस्तता भी बढ़ गई. हर निस्वार्थ सेवा में उसे खुशी मिलने लगी. किसी का सहारा बनने में कितना सुख मिलता है, मैत्री को उस का एहसास हो रहा था. मैत्री पिछले 5 वर्षों से विकलांग विद्यालय को कामयाबी के साथ चला रही थी.

उमंग के लगातार सहयोग और मार्गदर्शन से विकलांग छात्र विद्यालय दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा था.

अभी तक कोई ऐसा मौका नहीं आया जब मैत्री की उमंग से आमनेसामने मुलाकात हुई हो. मैत्री मन ही मन उमंग के प्रति एहसानमंद होने का अनुभव करती थी.

कुछ दिनों से उमंग से उस की बात हो रही थी. संदर्भ था विद्यालय का 5वां स्थापना दिवस समारोहपूर्वक मनाने का. मैत्री चाहती थी उक्त आयोजन में सामाजिक न्याय विभाग के निदेशक, विभाग के मंत्री तथा जयपुर के प्रख्यात समाजसेवी मुख्य अतिथियों के रूप में मौजूद रहें. इस काम के लिए भी उमंग के सहयोग की मौखिक स्वीकृति मिल गई थी. औपचारिक रूप से संस्था प्रधान के रूप में मैत्री को निमंत्रण देने हेतु खुद को जयपुर जाना पड़ रहा है. कल सवेरे ही उमंग ने मैत्री से कहा था, ‘जयपुर आ जाइए, सारी व्यवस्था हो जाएगी.’

5 वर्षों से जिस व्यक्ति से फेसबुक पर संपर्क है, वह किसी सरकारी विभाग के जिम्मेदार अधिकारी के रूप में कार्य कर रहा है. और पगपग पर उस का सहयोग कर रहा है, उस का शिष्टाचारवश भी अतिथि को ठहराने का दायित्व तो बनता ही है.

इसी बात पर आज सवेरे नकुल भड़क गया था. कहा था कि फेसबुकिया मित्र के यहां कहां ठहरोगी. मैत्री इतना तो समझती है कि सामान्य शिष्टाचार और आग्रह में अंतर होता है. सो, उस ने यही कहा था कि यह एक मित्र का आत्मीय आग्रह भी हो सकता है.

मैत्री खुद समझदार है, इतना तो जानती है कि महानगर कल्चर में किसी के घर रुक कर उस को परेशानी में डालना ठीक नहीं होता.

मैत्री का मन नकुल की छोटी सोच तथा स्त्रियों के प्रति जो धारणा उस ने प्रकट की, उस को ले कर खट्टा हुआ था. अपने ठहरने के विषय में तो विनम्रतापूर्वक उमंग को मना कर ही चुकी थी. बिना पूरी बात सुने नकुल का भड़कना तथा उमंग के लिए गलत धारणा बना लेना उसे सही नहीं लगता था.

रेलगाड़ी आखिरकार गंतव्य स्टेशन पर पहुंच कर रुक गई और मैत्री की विचारशृंखला टूटी. वह टैक्सी कर स्टेशन से सीधे पति नकुल के बताए गैस्टहाउस में जा ठहरी.

पोलो विक्ट्री के नजदीकी गैस्टहाउस में नहाधो कर, तैयार हो कर मैत्री अब उमंग के कार्यालय में पहुंच गई. आगे के निमंत्रण इत्यादि उमंग खुद साथ रह कर मंत्रीजी तथा निदेशक महोदय आदि को दिलवाएंगे.

प्रधान कार्यालय के एक कक्ष के बाहर तख्ती लगी थी, उपनिदेशक, उमंग कुमार. कक्ष के भीतर प्रवेश करते ही हतप्रभ होने की बारी मैत्री की थी. यू के खुद दोनों पांवों से विकलांग हैं तथा दोनों बैसाखियां उन की घूमती हुई कुरसी के पास पड़ी हैं.

उमंग ने उत्साहपूर्वक अभिवादन करते हुए मैत्री को कुरसी पर बैठने को कहा.

मैत्री को क्षणभर के लिए लगा कि उस का मस्तिष्क भी रिवौल्ंिवग कुरसी की तरह घूम रहा है. 5 वर्ष की फेसबुकिया मित्रता में उमंग ने कभी यह नहीं बताया कि वे विकलांग हैं. उन की फोटो प्रोफाइल में एक भी चित्र ऐसा नहीं है जिस से उन के विकलांग होने का पता चले. क्षणभर के लिए मैत्री को लगा कि फेसबुकिया मित्रों पर नकुल की टिप्पणी सही हो रही है. मैत्री की तन्मयता भंग हुई. उमंग प्रसन्नतापूर्वक बातें करते हुए उसे सभी वीआईपी के पास ले गए. कमोबेश सारी औपचारिकताएं पूरी हो गईं. सभी ने मैत्री के निस्वार्थ कार्य की प्रशंसा की तथा उस के वार्षिक कार्यक्रम में शतप्रतिशत उपस्थित रहने का आश्वासन भी दिया.

मैत्री भीतर से थोड़ी असहज जरूर हुई पर बाहर से सहज दिखने का प्रयास कर रही थी. उमंग को धन्यवाद देते हुए मैत्री ने कहा कि वह अब गैस्टहाउस जा कर विश्राम करेगी और रात की ट्रेन से वापस लौट जाएगी.

उमंग ने कहा, ‘‘मैडम, आप की जैसी इच्छा हो वैसा ही करें. मेरी तो केवल इतनी अपील है कि मेरी पत्नी का आज जन्मदिन है. बच्चों ने घरेलू केक काटने का कार्यक्रम रखा है. घर के सदस्यों के अलावा कोई नहीं है. आप भी हमारी खुशी में शामिल हों. आप को समय के भीतर, जहां आप कहेंगी, छोड़ दिया जाएगा.’’ मैत्री के यह स्वीकार करने के बाद दूसरी बार चौंकने का अवसर था, क्योंकि यह विकलांग व्यक्ति अपनी कार फर्राटेदार प्रोफैशनल ड्राइवर की तरह चला रहा है, बरसों पुरानी मित्रता की तरह दुनियाजहान की बातें कर रहा है, कहीं पर भी ऐसा नहीं लग रहा है कि उमंग विकलांग है. वह तो उत्साह व उमंग से लबरेज है.

पेड़पौधों की हरियाली से आच्छादित उमंग के घर के ड्राइंगरूम में बैठी मैत्री दीवार पर सजी विविध पेंटिंग्स को निहारती है और उन के रहनसहन से बहुत प्रभावित होती है. एक विकलांग व्यक्ति भरेपूरे परिवार के साथ पूरे आनंद से जीवन जी रहा है. बर्थडे केक टेबल पर आ गया. उमंग का बेटा व बेटी इस कार्यक्रम को कर रहे हैं. बेटाबेटी से परिचय हुआ. बेटा एमबीबीएस और बेटी एमटैक कर रही है. दोनों छुट्टियों में घर आए हुए हैं.

उमंग की पत्नी केक काटते समय ही आई. मैत्री के अभिवादन का उस ने कोई जवाब नहीं दिया. उस के मुंह पर चेचक के निशान थे. शायद वह एक आंख से भेंगी भी थी.

उस के केक काटते ही बच्चों ने उमंग के साथ तालियां बजाईं. ‘‘हैप्पी बर्थडे मम्मा.’’

उमंग ने केक खाने के लिए मुंह खोला ही था कि उन की पत्नी ने गुलाल की तरह केक उन के गालों पर मल दिया. फिर होहो कर हंसी. उमंग भी इस हंसी में शामिल हो गए.

उन की बेटी बोली, ‘आज मम्मा, आप की तबीयत ठीक नहीं है, चलिए अपने कमरे में.’

बेटी उन को लिटा कर आ गई. उमंग घटना निरपेक्ष हो कर मैत्री से बतियाते हुए पार्टी का आनंद ले रहे थे. पार्टी समाप्त होने पर वे अपनी कार से मैत्री को गैस्टहाउस छोड़ने आ रहे हैं. वे कह रहे हैं, ‘‘मैडम, माइंड न करें, मेरी पत्नी मंदबुद्धि है. मेरा विवाह भी मेरे जीवन में किसी चमत्कार से कम नहीं है. मेरा जन्म अत्यंत गरीब परिवार में हुआ. बचपन में मुझे पोलियो हो गया. मातापिता अपनी सामर्थ्य के अनुसार भटके, पर मैं ठीक नहीं हो पाया.

‘‘पढ़ने में तेज था, पर निराश हो गया. मां ने एक छोटे से स्कूल के मास्टरजी, जो बच्चों को निशुल्क पढ़ाते थे, उन के घर में पढ़ने भेजा. मास्टरजी के आगे मैं अपने पांवों की तरफ देख कर बहुत रोया. ‘गुरुजी, मैं जीवन में क्या करूंगा, मेरे तो पांव ही नहीं हैं.’

‘‘मास्टरजी ने कहा, ‘बेटा, तुम जीवन में बहुतकुछ कर सकते हो. पर पहली शर्त है कि अपने बीमार और अपाहिज पांवों के विषय में नहीं सोचोगे, तो जीवन में बहुत तेज दौड़ोगे.’ इस बात से मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया. मैं ने तय किया, मुझे किसी दया, भीख या सहानुभूति की बैसाखियों पर जीवित नहीं रहना और तब से मैं ने अपने लाचार पांवों की चिंता करना छोड़ दिया. इस गुरुमंत्र को गांठ बांध लिया. सो, आज यहां खड़ा हूं.

‘‘मैं पढ़नेलिखने में होशियार था, छात्रवृत्तियां मिलती गईं, पढ़ता गया और सरकारी अधिकारी बन गया. दफ्तर में कहीं से कोई खबर लाया कि विशाखापट्टनम में विकलांगों के इलाज का बहुत बढि़या अस्पताल है जिसे कोई ट्रस्ट चलाता है. वहां बहुत कम खर्चे में इलाज हो जाता है. दफ्तर वालों ने हौसला बढ़ाया, आर्थिक सहायता दी और मैं पोलियो का इलाज कराने के लिए लंबी छुट्टी ले कर विशाखापट्टनम पहुंच गया.

‘‘देशविदेश के अनेक बीमारों का वहां भारी जमावड़ा था. कुछ परिवर्तन तो मुझ में भी आया. लंबा इलाज चलता है, संभावना का पता नहीं लगता है. वहां बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा है, ‘20 प्रतिशत हम ठीक करते हैं, 80 प्रतिशत आप को ठीक होना है.’ जिस का मतलब स्पष्ट है, कठिन व्यायाम लंबे समय तक करते रहो. कुल मिला कर कम उम्र के बच्चों की ठीक होने की ज्यादा संभावना रहती है. मेरे जैसे 30 वर्षीय युवक के ज्यादा ठीक होने की गुंजाइश तो नहीं थी, पर कुछ सुधार हो रहा था.

‘‘अस्पताल में मेरे कमरे का झाड़ूपोंछा लगाने वाली वृद्ध नौकरानी का मुझ से अपनापन होने लगा. एक दिन उस ने बातों ही बातों में बताया कि इस दुनिया में एक लड़की के सिवा उस का कोई नहीं है. 25 वर्षीय लड़की मंदबुद्धि है. मेरे बाद उस का न जाने क्या होगा? एक दिन वह अपनी लड़की को साथ ले कर आई, बेबाक शब्दों में बताया कि बचपन में चेचक निकली, एक आंख भेंगी हो गई. मंदबुद्धि है, कुछ समझ पड़ता है, कुछ नहीं पड़ता है. क्या आप मेरी लड़की से विवाह करेंगे?

‘‘मैं एकदम सकते में आ गया. पर मैं भी तो विकलांग हूं. वह बोली, ‘कुछ कमी इस में है, कुछ आप में है. दोनों मिल कर एकदूसरे को पूरा नहीं कर सकते हो? आप विकलांग अवश्य हो पर पढ़ेलिखे, समझदार और सरकारी नौकरी में हो. फिर मेरी बेसहारा लड़की को अच्छा सहारा मिल जाएगा.’ मैं ने कहा, ‘तुम समझ रही हो, मैं ठीक हो रहा हूं, पर नहीं ठीक हुआ तो क्या होगा?’

‘‘कोई बात नहीं, मेरी बेटी को सहारा मिल जाए, तो मैं शांति से मर सकूंगी,’ इस प्रकार हमारी सीधीसादी शादी हो गई.

‘‘आज केक काटते हुए जो घटना घटी, वह तो सामान्य है. यह तो मेरी दिनचर्या का अंग है. वैसे भी मेरी पत्नी का सही जन्मदिनांक तो पता ही नहीं है. वह तो हम ने अपनी शादी की तारीख को ही उस का जन्मदिनांक मान लिया है.’’

‘‘मैत्रीजी, अपूर्ण पुरुष और अपूर्ण स्त्री के वैवाहिक जीवन में अनेक विसंगतियां आती हैं, जिन्हें झेलना पड़ता है. शरीर विकलांग हो सकता है, मन मंद हो सकता है पर देह की तो अपनी भूख होती है. कई बार वह ही बैसाखियों से मुझ पर प्रहार करती है.

‘‘संतोष और आनंद है कि 2 होनहार बच्चे हैं.’’

गैस्टहाउस सामने था.

मैत्री बोली, ‘‘सरजी, मैं ने आप को कुछ गलत समझ लिया. क्षमा करना.’’

उमंग एक ठहाका लगा कर हंसे, ‘‘मैत्रीजी, आप मेरी घनिष्ठ मित्र हैं, तो ध्यान रखना, हंसोहंसो, दिल की बीमारियों में कभी न फंसो.’’

मई का चौथा सप्ताह, कैसा रहा बौलीवुड का कारोबारः हवन करते ही हाथ जला बैठे….

कई वर्ष पहले की बात है. बौलीवुड का एक फिल्मी परिवार है. इस परिवार यानी कि निर्माता से मेरी अच्छी दोस्ती रही है. वह अकसर कहा करते थे कि उन के घर की बेटियां फिल्मों में अभिनय नहीं किया करतीं लेकिन कुछ समय बाद उस ने खुद अपनी बेटी को हीरोईन ले कर एक घटिया फिल्म बनाई तो मैं ने दोस्ती में ही उस से सवाल किया था कि आप का विचार बदल कैसे गया?

इस पर उस ने कहा था कि,‘‘कई बार घर के अंदर शांति बनाए रखने के लिए कुछ कदम उठाने पड़ते हैं. मेरी बेटी ने जिद कर ली कि उसे हीरोईन बनना है. उस की मां भी उस के साथ थी. सुबहशाम घर की शाति भंग न हो, इस के लिए मैं ने बेटी से कहा कि मैं खुद उस के लिए फिल्म बनाउंगा, मगर इसे शर्त पर कि इस फिल्म के असफल होने के बाद वह चुपचाप फिल्मों से दूरी बना कर शादी कर लेगी.’’

इस के साथ ही कुछ और भी कहा था, जिसे यहां बताना मैं ठीक नहीं समझता. उस हीरोईन की पहली फिल्म ने बाक्स आफिस पर पानी नही मांगा. उस ने विवाह कर लिया और एक अच्छी व बेहतरीन जिंदगी जी रही है. तो वहीं इन दिनों उस के छोटे भाई को बौलीवुड का बेहतरीन निर्देशक माना जाता है.

यह संदर्भ मुझे चौथे सप्ताह यानी कि 24 मई को प्रदर्शित मनोज बाजपेयी के कैरियर की सौंवी फिल्म ‘‘भैयाजी’’ की बाक्स आफिस पर हुई दुर्गति की वजह से याद आ गया. फिल्म ‘‘भैयाजी’’ का निर्माण विनोद भानुशाली, शबाना रजा बाजपेयी, विक्रम खख्खर, समीक्षा शैल ओसवाल, नवीन क्वात्रा ने किया है. शबाना रजा बाजपेयी पहली बार इस फिल्म से फिल्म निर्माण में उतरी हैं जो कि अभिनेता मनोज बाजपेयी की पत्नी हैं.

शबाना रजा बाजपेयी ने नेहा के नाम से 1998 में विधु विनोद चोपड़ा के निर्देशन में बौबी देओल संग फिल्म ‘करीब’ से अभिनय कैरियर की शुरूआत की थी. उस के बाद नेहा ने अजय देवगन के साथ ‘होगी प्यार की बात’, रितिक रोशन व जया बच्चन के साथ ‘फिजा’, सुनील शेट्टी के साथ ‘अहसास द फीलिंग’, प्रकाश झा के निर्देशन में फिल्म ‘राहुल’, आफताब शिवदसानी व ग्रेसी सिंह के साथ ‘मुस्कान’, दीपक रामसे के निर्देशन में ‘कोई मेरे दिल में है’, दीपक रामसे के निर्देशन में होरर फिल्म ‘आत्मा’, सुपर्ण वर्मा के निर्देशन में मनोज बाजपेयी के साथ फिल्म ‘एसिड फैक्टरी’ में अभिनय किया था.

2006 में मनोज बाजपेयी और शबाना रजा उर्फ नेहा ने विवाह कर लिया था. उस के बाद शबाना रजा बाजपेयी ने बौलीवुड से दूरी बना ली थी. अब पूरे 18 वर्ष बाद शबाना रजा बाजपेयी ने फिल्म ‘भैया जी’ से बौलीवुड में वापसी की है, जिस के हीरो मनोज बाजपेयी हैं. मगर शबाना रजा बाजपेयी अभिनेत्री नहीं, बल्कि इस फिल्म के निर्माताओं में से एक निर्माता हैं. मई के चौथे सप्ताह में प्रदर्शित फिल्म ‘भैया जी’ की बाक्स आफिस पर बहुत बड़ी दुर्गति हुई है. लगभग 40 से 50 करोड़ की लागत में बनी फिल्म ‘भैया जी’ ने बाक्स आफिस पर 7 दिन में महज 4 करोड़ ही कमाए हैं.

वैसे फिल्म के पीआरओ का दावा है कि फिल्म ने सात दिन में 9 करोड़ कमा लिए हैं. अगर फिल्म के पीआरओ के आंकड़े को सच मान लें, तो भी निर्माताओं के हाथ में मुश्किल से 4 करोड़ ही आएंगे.

फिल्म का निर्माण 5 लोगों ने मिल कर किया है तो हर एक के हाथ में कितनी रकम आएगी, इस का अंदाजा लगा सकते हैं. बौलीवुड का एक तबका इस फिल्म की निर्माता शबाना रजा बाजपेयी को लेकर कह रहे हैं कि कुछ नहीं हुआ, सिर्फ ‘‘हवन करते हाथ जला बैठे..’’ वाली कहावत चरितार्थ हुई है.

अब देखना यह होगा कि इस के बाद भी शबाना रजा बाजपेयी फिल्म निर्माण से जुड़ी रहेंगी या पहली फिल्म के बाद ही संन्यास ले लेंगी.

फिल्म ‘भैया जी’ की असफलता के लिए लोग सारा दोष मनोज बाजपेयी और इस के निर्माताओं को ही दे रहे हैं. फिल्म के लेखक व निर्देशक,मनोज बाजपेयी के पसंदीदा हैं. इसी निर्देेशक की फिल्म ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ ने काफी शोहरत बटोरी थी. मनोज बाजपेयी के अभिनय की भी तारीफ हुई थी. पर यह फिल्म ओटीटी प्लेटफार्म ‘जी 5’ पर स्ट्रीम हो रही है लेकिन फिल्म ‘भैयाजी’ के निर्माताओं ने फिल्म के प्रचार पर ध्यान नहीं दिया. इस फिल्म के बारे में दर्शकों को पता ही नहीं चला.

मनोज बाजपेयी स्वयं पत्रकारों को इंटरव्यू देने से बचते रहे. फिल्म के पीआरओ का दावा है कि वर्तमान समय में कलाकार, पत्रकारों को इंटरव्यू देने मे रूचि नहीं रखता पर एकदो अंगरेजी के अखबारों में निर्माता शबाना रजा बाजपेयी का इंटरव्यू छपा था.

कड़वा सच यह है कि फिल्म के निर्माता व कलाकार भ्रम में जी रहे हैं कि अंगरेजी अखबारों में छपने अथवा इस सोशल मीडिया पर प्रचार कर वह अपनी फिल्मों को सफल करा देंगे.

मनोज बाजपेयी बेहतरीन अभिनेता हैं, इस में कोई दो राय नहीं मगर ‘भैयाजी’ में बतौर अभिनेता सब से बड़ी कमजोर कड़ी स्वयं मनोज बाजपेयी ही हैं. इतना ही नहीं इस फिल्म की कहानी व पटकथा भी दमदार नहीं है. फिल्म की कहानी बिहार व दिल्ली के बीच झूलती है. मनोज बापजेयी मूलतः बिहार से हैं और दिल्ली में रहते हुए उन्होने पढ़ाई की है. वह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र रहे हैं फिर भी फिल्म में कई गलतियां हैं.

मजेदार बात यह है कि उन से जुड़े कुछ लोग सोशल मीडिया पर रोना रो रहे हैं कि हिंदी भाषी कलाकारों को हिंदी भाषी पत्रकार प्रमोट नहीं करते जबकि सभी को अपने गिरेबान में झांक कर देखने की ज्यादा जरुरत है.

हिंदी फिल्मों के मुकाबले गिप्पी ग्रेवाल की महज दो करोड़ रूपए में बनी पंजाबी फिल्म ने 3 सप्ताह के अंदर भारत में 14 करोड़ रूपए और पूरे विश्व में 33 करोड़ रूपए कमा लिए हैं. यह अपने आप में बहुत बड़ा रिकार्ड है.

अहम व ज्योतिष पर भरोसे के चलते राज कुमार राव अपने कैरियर पर मार रहे कुल्हाड़ी?

गुड़गांव, हरियाणा में जन्मे व पलेबढ़े राज कुमार यादव ने ‘पुणे फिल्म संस्थान’ से अभिनय का प्रशिक्षण लेने के बाद बौलीवुड में कदम रखा था. उन के पिता सत्य प्रकाश यादव, हरियाणा राजस्व विभाग में एक सरकारी कर्मचारी थे. उन की मां कमलेश यादव, एक गृहिणी थीं. उन्होंने अपनी 12वीं कक्षा एस.एन. से पूरी की. सिद्धेश्वर वरिष्ठ. सेक पब्लिक स्कूल, जहां उन्होंने स्कूली नाटकों में भाग लिया. आत्मा राम सनातन धर्म कालेज, (दिल्ली विश्वविद्यालय) से स्नातक की उपाधि प्राप्त की, जहां वह क्षितिज थिएटर ग्रुप और दिल्ली में श्री राम सेंटर के साथ थिएटर कर रहे थे. 2008 में वह पुणे फिल्म संस्थान चले गए. 2010 में अमिताभ बच्चन व परेश रावल के साथ राम गोपाल वर्मा की फिल्म ‘रण’ में न्यूज रीडर का छोटा सा किरदार निभा कर अपने अभिनय कैरियर की शुरूआत की थी. इस फिल्म के साथ ही उन्हें दिबाकर बनर्जी ने अपनी एंथोलौजी फिल्म ‘‘लव सैक्स और धोखा’ में हीरो भी बना दिया. एक तरफ फिल्म ‘रण’ ने ‘टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फैस्टिवल’ में प्रदर्शित हो कर जलवा बिखेरा तो दूसरी तरफ ‘लव सैक्स और धोखा’ भी सफल हो गई. राज कुमार यादव रातोंरात स्टार बन गए तो वहीं 2010 से ही उन्होंने अभिनेत्री पत्रलेखा पसल संग रोमांस फरमाना भी शुरू कर दिया. ( पूरे 12 वर्ष तक प्यार की पतंग उड़़ाने के बाद 15 नवंबर 2021 में दोनों विवाह के बंधन में बंध गए.) फिर वह ‘रागिनी एमएमएस’, ‘शैतान’, ‘गैंग आफ वासेपुर 2’, ‘चिटगांव’ और अमीर खान प्रोडक्शन की फिल्म ‘तलाश’ में भी नजर आए. पर यह सभी कलात्मक फिल्में थीं जिन से उन्हें चर्चा तो मिली मगर व्यावसायिक सफलता नहीं मिली.

2012 में हंसल मेहता निर्देशित फिल्म ‘शाहिद’ प्रदर्शित हुई, जिस के लिए राज कुमार यादव को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और उन के लिए व्यावसायिक सिनेमा के रास्ते खुल गए. 2013 में फिल्म ‘काई पो चे’ में उन के अभिनय के लिए उन्हें काफी सराहा गया. 2014 में उन्होंने कंगना रानौत के साथ फिल्म ‘क्वीन’ की और इस फिल्म को मिली जबरदस्त सफलता ने उन के सामने सफलता के सारे रास्ते खोल दिए. अब तक वह साबित कर चुके थे कि उन के अंदर अभिनय क्षमता कूटकूट कर भरी हुई थी. वह फिल्म ‘शाहिद’ के बाद निर्देशक हंसल मेहता के पसंदीदा कलाकार बन चुके थे. ‘क्वीन’ के बाद हंसल मेहता ने उन्हें ‘सिटी लाइट’ में उन की प्रेमिका पत्रलेखा संग अभिनय करने का अवसर दिया. दोनों ने कमाल का अभिनय किया. फिल्म ‘सिटीलाइट’ राजस्थान के एक गरीब किसान परिवार की कहानी बताती है, जो आजीविका की तलाश में मुंबई आता है.

लेकिन अब उन के अंदर अचानक इस देश का सर्वाधिक व्यस्त व यानी कलाकार बनने की भूख संवार हो चुकी थी. इसी लालच में उन्होंने अपने पीआर व मैनेजर के इशारे पर नाचना शुरू कर दिया. सब से पहले उन्होंने अपना नाम ‘राज कुमार यादव’ से बदल कर ‘राज कुमार राव’ कर लिया तथा अंगरेजी में नाम की स्पेलिंग एक ‘एम’ अलग से जोड़ लिया. नाम बदलने का कारण बताया, ‘‘राव या यादव, मैं दोनों में से किसी एक उपनाम का उपयोग कर सकता हूं क्योंकि दोनों पारिवारिक नाम हैं. पर स्पेलिंग में ‘एम’ जोड़ने के सवाल राज कुमार राव ने कहा था कि नाम में ‘एम’ जोड़ने का फैसला अंक ज्योतिष की सलाह पर किया. (कुछ लोग कहते हैं कि एक अंक ज्योतिष की माने तो नाम में इस तरह का बदलाव सिर्फ साढ़े 3 वर्ष तक के लिए ही ठीक रहता है लेकिन इस बारे में मेरी कोई समझ नहीं है.)

नाम बदलने के बाद 2015 में वह सोनम कपूर के साथ अभिषेक डोगरा की फिल्म ‘‘डौली की डोली’’ में वह सह नायक तथा विद्या बालन के साथ फिल्म ‘हमारी अधूरी कहानी’ में नजर आए. यह दोनों फिल्में ठीकठाक ही रहीं पर फिर हंसल मेहता के निर्देशन में वह मनोज बाजपेयी के साथ फिल्म ‘अलीगढ़’ में सहायक भूमिका में नजर आए. 4 अक्तूबर 2015 को प्रदर्शित फिल्म ‘अलीगढ़’ की लागत 11 करोड़ थी,पर इस ने बाक्स आफिस पर सिर्फ 4 करोड़ कमाए थे,जबकि फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चा मिली थी. राव को फिल्म में उन के प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए नोमीनेट किया गया था. अब यह नाम बदलने का परिणाम था या…

2016 में वह ‘ट्रेप्ड’, ‘बहन होगी तेरी’, ‘बरेली की बर्फी’ में नजर आए. यह फिल्में ठीकठाक चली. 2017 में अमित मसूरकर की फिल्म ‘‘न्यूटन’’ में राज कुमार राव ने पंकज त्रिपाठी के साथ अभिनय किया. इस फिल्म में राव ने न्यूटन का शीर्ष किरदार निभाया था. इस में राजकुमार राव एक ईमानदार सरकारी क्लर्क की भूमिका में नजर आए थे,जिसे नक्सल-नियंत्रित शहर में चुनाव ड्यूटी पर भेजा जाता है. 10 करोड़ की लागत में बनी इस फिल्म ने 85 करोड़ कमा कर इतिहास रच दिया. कहा जाता है कि इस फिल्म की सफलता के बाद अचानक राज कुमार राव अहम के शिकार हो गए. उन्होंने पत्रकारों से भी दूरी बना ली. जबकि ‘न्यूटन’ के प्रदर्शन से पहले तक वह हर पत्रकार के संग घुलते मिलते थे.

2017 में वह ओमर्टा’, कृति खरबंदा संग ‘शादी में जरुर आना’ व ऐश्वर्या राय संग ‘फन्ने खां’ जैसी फिल्में की. 2018 में राज कुमार राव ने अमर कौशिक निर्देशित फिल्म ‘‘स्त्री’’ में पंकज त्रिपाठी व श्रृद्धा कपूर के साथ अभिनय किया. 14 करोड़ की लागत में बनी इस फिल्म ने 180 करोड़ कमा कर हंगामा मचा दिया. इस फिल्म की सफलता के बाद राज कुमार राव के अंदर बहुत बड़ा बदलाव आया, जिस ने उन्हें पतन की ओर ले जाना शुरू किया. सच यही है कि राज कुमार राव के कैरियर में अंतिम सफल फिल्म 2018 में प्रदर्शित फिल्म ‘‘स्त्री’’ ही है. ‘स्त्री’ के बाद वह ‘लव सोनिया’ में नजर आए थे, जिस ने बाक्स आफिस पर पानी तक नहीं मांगा. फिर वह 30 करोड़ की लागत से बनी हिंदी व अंगरेजी भाषा की फिल्म ‘‘5 वेंडिंग्स’ में नरगिस फाखरी के साथ नजर आए, जिस ने बाक्स आफिस पर सिर्फ 20 लाख रूपए ही कमाए.

उस के बाद 2019 में ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’, ‘जजमेंटल है क्या’, ‘शिमला मिर्च’, ‘मेड इन चाइना’, ‘लूडो’, ‘छलांग’, ‘द व्हाइट टाइगर’, ‘रूही’, ‘हम दो हमारे दो’, ‘बधाई दो’, ‘हिट : द फस्ट केस’, ‘मोनिका ओ माय डार्लिंग’, ‘भेड़िया’, ‘भीड़’ सहित कुल 16 फिल्मों में नजर आ चुके हैं और यह सभी 16 फिल्में बाक्स आफिस पर बुरी तरह से असफल रही हैं. इन में से एक भी फिल्म अपनी लागत वसूलने में कामयाब नहीं रही. मगर मगर राज कुमार राव आज भी अपनेआप को भारत का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता मानते हैं. रस्सी जल गई मगर अकड़ नहीं गई.

सफलतम फिल्म ‘‘स्त्री’’ के बाद अब राज कुमार राव की 17वीं फिल्म ‘‘श्रीकांत’’ 10 मई 2024 को प्रदर्शित हुई है. यह फिल्म उद्योगपति श्रीकांत बोला की बायोपिक फिल्म है जो कि बचपन से ही अंधे हैं. एक अच्छे विषय पर बनी इस फिल्म का भविष्य भी आधार में है क्योंकि इस फिल्म की एडवांस बुकिंग लगभग शून्य है, जो कि चिंता का विषय है. माना कि फिल्म के पीआरओ ने मशक्कत कर कुछ पत्रकारों से फिल्म को चार से पांच स्टार दिलवा दिए हैं और फिल्म निर्माण कंपनी टीसीरीज ने भी 10 मई की सुबह लोगों के घर पहुंचे अखबारों में पूरे पेज का विज्ञापन भी छपवा दिया है. मगर निर्माता भूल गए कि फिल्म आलोचक द्वारा दिए गए ‘स्टार’ किसी भी फिल्म की सफलता की गारंटी नहीं है. अगर ऐसा होता, तो ‘मैदान’ और ‘बड़े मियां छोटे मियां’ को उतनी बुरी असफलता न मिलती कि सिनेमाघर मालिकों को सिनेमाघर बंद करने जैसा कदम उठाना पड़ता.

‘मैदान’ और ‘बड़े मियां छोटे मियां’ को भी कई पत्रकारों ने चार से पांच स्टार दिए थे. दूसरी बात दर्शक भी समझ चुका है कि इन पत्रकारों पर यकीन करना गलत है,जिन के नाम विज्ञापन में छपते हैं क्योंकि खुद करण जोहर सहित कई फिल्मी हस्तियां पिछले दिनों खुलेआम कह चुकी हैं कि वह फिल्म आलोचकों को पैसे दे कर उन से मनचाहा ‘स्टार’ दिलवाते हैं फिर उन के नाम के साथ विज्ञापन छपवाते हैं. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान समय में बड़े अंगरेजी के अखबारों में पूरे पेज का विज्ञापन छपवाने के लिए 5 लाख रूपए तक देना पड़ता है. अब सवाल यह भी उठ रहा है कि 10 मई की सुबह विज्ञापन पर खर्च की गई रकम क्या फिल्म ‘श्रीकांत’ बाक्स आफिस पर इकट्ठा कर सकेगी?

यदि हम अतीत पर नजर दौड़ाएं तो अतीत में अंधे किरदरों पर जो भी फिल्में आईं उन में से कोई भी फिल्म बाक्स आफिस पर सफलता दर्ज नहीं करा पाईं फिर चाहे नसिरूद्दीन शाह की फिल्म ‘स्पर्श’ हो, जया प्रदा की ‘सरगम’ हो, अक्षय कुमार की ‘आंखें’ हो, अमिताभ बच्चन व रानी मुखर्जी की ‘ब्लैक’ हो या तापसी पन्नू की ‘ब्लर’ हो या सोनम कपूर की फिल्म ‘ब्लाइंड’ ही क्यों न हो.

इतना ही नहीं बाल कलाकार यज्ञ भसीन की एथलिट बनने वाले अंधे बालक की कहानी बयां करने वाली फिल्म ‘‘बिस्वा’’ पिछले 3 वर्ष से भी अधिक समय से सिनेमाघरों में पहुंचने का इंतजार कर रही है, पर उसे वितरक हाथ नही लगा रहे हैं. इस से यह आभास होता है कि शायद दर्शक अंधे किरदरों को परदे पर देखना नहीं चाहता. मगर ‘श्रीकांत’ में अंतर यह है कि यह फिल्म एक जीवित इंसान की बायोपिक फिल्म है, एक ऐसा बचपन से ही दृष्टि बाधित उद्योगपति जिस की इच्छा देश का राष्ट्रपति बनने की है.

विषय अच्छा,फिल्म अच्छीः मगर मनोरंजन शून्य

जहां तक बात फिल्म ‘श्रीकांत’ की है तो इस बायोपिक फिल्म की कहानी 1992 से 2024 तक की है. कहानी का संदेश भी बहुत अच्छा है. श्रीकांत बोला के दृष्टि बाधित किरदार को अभिनेता राजकुमार राव ने बड़ी संजीदगी और आत्मसात कर निभाया है. मगर फिल्म इंटरवल तक तो रोचक होने के साथ ही दर्शकों को बांध कर भी रखती है, पर इंटरवल के बाद फिल्म शिथिल हो गई है. लेखक व निर्देशक की पकड़ से फिल्म का दूसरा भाग बाहर हो गया है. इस के अलावा फिल्म बहुत शुष्क है, मनोरंजन का अभाव है. जबकि दर्शक संदेश के साथ साथ मनोरंजन भी चाहता है.

यह फिल्म ‘इलीट’ क्लास को पंसद आएगी, मगर आम दर्शक इस से दूर रह सकता है. फिल्म के निर्देशक तुशार हिरानंदानी इस से पहले फिल्म ‘सांड़ की आंख’ के अलावा वेब सीरीज ‘स्कैम 2003’ निर्देशित कर चुके हैं, जिन्हें सिर्फ ‘इलीट’ क्लास ने ही पसंद किया था.

आम दर्शक के इस फिल्म से दूर रहने की कई वजहें हैं. पहली वजह फिल्म में मनोरंजन का अभाव है. दूसरी वजह फिल्म का प्रचार ठीक से नहीं हुआ है. फिल्म को ले कर कोई ‘बज’/ चर्चा हीन हीं है. ऐसे में दर्शक कैसे सिनेमाघरों की तरफ जाएगा? दर्शकों को सिनेमाघर के अंदर खींच कर लाने वाले ‘करिश्मा’ का राजकुमार राव में अभाव है. वह तो इन दिनों टीवी स्टार बन कर रह गए हैं. राजकुमार राव ने पता नहीं किस की सलाह पर पिछले दिनों प्लास्टिक सर्जरी करा कर अपना चेहरा भी खराब कर लिया है, उन का नया चेहरा भी दर्शकों को पसंद नहीं आ रहा है. वर्तमान समय में दर्शकों का सिनेमाघरों में जाने से मोहभंग हो चुका है, क्योंकि उसे सिनेमाघर के अंदर अपनी गाढ़ी कमाई की रकम को खर्च करने पर उचित मनोरंजन नहीं मिलता है.

ऐसे में दर्शकों को सिनेमाघर तक खीेच कर लाने की जिम्मेदारी कलाकार पर बढ़ गई है. लेकिन राजकुमार राव ने भी वही गलती की, जो गलती अजय देवगन ने अपनी फिल्म ‘मैदान’ के प्रदर्शन के वक्त की थी. अजय देवगन ने ‘मैदान’ को प्रमोट नहीं किया और एक अच्छी फिल्म, एक अच्छी कहानी लोगों तक नही पहुंच पाई. फिल्म ‘मैदान’ बाक्स आफिस पर बुरी तरह से नाकाम रही. कुछ ऐसी ही गलती अब राजकुमार राव ने भी की है. राज कुमार राव ने फिल्म के अंदर अपने अभिनय से ‘श्रीकांत’ के किरदार को जीवंतता प्रदान की है, लेकिन वह फिल्म के प्रदर्शन से पहले इस फिल्म को सही ढंग से प्रमोट करने से दूर रहे. उन का अहम अब उन्हें पत्रकारों से मिलने नहीं देता? उन्हें लगता है कि सोशल मीडिया की बदौलत वह अपने आप को सुपरस्टार बनाए रखेंगे. जो कि गलत सोच है. हकीकत तो यही है कि सोशल मीडिया ने कलाकारों के स्टारडम को खत्म किया है जिन कलाकारों के सोशल मीडिया पर एक करोड़ फोलोवअर्स हैं, उन की भी फिल्म देखने के लिए भी 25 हजार दर्शक नहीं मिल रहे हैं. इस सच पर हर कलाकार को सोचना चाहिए.

माना कि किसी भी फिल्म की सफलता का कोई तयशुदा नियम नहीं है. हर शुक्रवार को कलाकार की किस्मत भी बदलती है मगर कटु सत्य यह है कि ज्योतिषी या अंक ज्योतिषी के टोटकों से अथवा नाम की स्पेलिंग बदल लेने से भी फिल्म को सफलता नहीं मिलती तो वहीं हर इंसान का अहम भी उसे ले डूबता है. राज कुमार राव को अपनी पिछली 16 फिल्मों के परिणामों पर बैठ कर गौर करना चाहिए कि उन की तरफ से कहां क्या चूक हुई है?

राज कुमार राव को याद रखना चाहिए कि ‘श्रीकांत’ के बाक्स आफिस पर सफलता या असफलता का असर 31 मई को ही प्रदर्शित होने वाली उन की दूसरी फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेस माही’ पर भी पड़ेगा. काश!वह इस फिल्म को सही ढंग से प्रमोट करे, अभी उन के पास वक्त है.

मिस्टर एंड मिसेस माही : सब कुछ नकली (डेढ़ स्टार)

2013 से 2015 तक करण जोहर के साथ काफी विद करण में कार्य करने के बाद ‘ऐ दिल मुश्किल’, ‘जवानी है दीवानी’ में बतौर सहायक जुड़े रहे शरण शर्मा ने बतौर स्वतंत्र निर्देशक फिल्म ‘गुंजन सक्सेना : द कारगिल गर्ल’ निर्देशित की थी. उस के बाद अब वह फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेस माही’ ले कर आए हैं.

2 घंटे 18 मिनट की लंबी अवधि वाली इस फिल्म में उन्होंने क्रिकेट खेल की पृष्ठभूमि के साथ पुरूष सत्तात्मक सोच के साथ ही पुरूष मानसिकता, अपनी पत्नी के हर काम का क्रेडिट खुद लेले से ले कर मतलबी पिता तक का मुद्दा उठाया है. कुल मिला कर कहानी का केंद्र बिंदु यह है कि ‘हर सफल महिला के पीछे एक पुरुष होता है, जो उस के माध्यम से अपने सपनों को साकार करता है.’ तो वहीं इस में स्पोर्ट्स मेलो ड्रामा और रोमकौम का चूरन भी है पर फिल्म देखते हुए ‘अभिमान’ सहित कई दूसरी फिल्में याद आती हैं, तो वहीं फिल्म ‘धड़क’ के होली गीत के दृश्यों को नकल कर के इस में पिरोया गया है.

महेंद्र अग्रवाल (राजकुमार राव), जिस ने अपना उपनाम ‘माही’ रखा हुआ है, क्रिकेट जगत में बल्लेबाज के रूप में अपना स्थान बनाने के लिए प्रयास रत है. उन के पिता की क्रिकेट के खेल से जुड़ी सामग्री बैट, बौल आदि बेचने की दुकान है. पर बल्लेबाज के तौर पर महेंद्र औसत दर्जे का खिलाड़ी है और हर बार वह जलन में दूसरे खिलाड़ी को नुकसान पहुंचाने का प्रयास करता है, जिस के चलते उस का ‘इंडिया’ टीम में चयन नहीं हो पाता. उस का कोच बेनी शुक्ला (संजय शर्मा) भी मानता है कि वह औसत दर्जे का खिलाड़ी है.

अब उसे अपने पिता (कुमुद मिश्रा) की दुकान पर बैठना पड़ता है. इस असफलता से वह कड़वाहट से भर गया है. उस के पिता उस की शादी डाक्टर महिमा (जान्हवी कपूर) से उस के बारे में झूठ बोल कर कराना चाहते हैं, पर महेंद्र खुद, महिमा से मिल कर अपना सच बता देते हैं.

महिमा भी ‘माही’ नाम से ही जानी जाती है. महिमा, महेंद्र की इमानदारी से प्रभावित हो कर उस से शादी कर लेती है. सुहागरात की ही रात महेंद्र को पता चल जाता है कि उस की पत्नी महिमा क्रिकेट मैच देखने की शौकीन है, क्योंकि बचपन में उस ने क्रिकेट खेला है. हर तरफ से हार कर अब महेंद्र बेनी की सलाह पर क्रिकेट कोच बनना चाहता है. पर उस से क्रिकेट की कोचिंग कौन लेगा? अपने स्वार्थ व अहम में अंधे महेंद्र, महिमा की बल्ले के कौशल को देखने के बाद उसे प्रशिक्षित करने का निर्णय ले, महिमा को समझाता है कि डाक्टरी छोड़ कर उसे क्रिकेटर बनना चाहिए.

महिमा अपने पति की बातों में आ जाती है. 6 माह की ट्रेनिंग के बाद महिमा अच्छी खिलाड़ी बन जाती है और वह एक टीम का हिस्सा बन जाती है. टीम का हिस्सा बनने पर महेंद्र चाहता है कि इंटरव्यू में महिमा उस की प्रशंसा करे कि वह महेंद्र की कोचिंग की बदौलत आज क्रिकेटर बन पाई. पर ऐसा न होने पर महेंद्र, महिमा से नाराज हो जाता है. जिस का असर महिमा के खेल पर भी पड़ता है.

महेंद्र का अहम कहता है कि महिमा को उसी ने बनाया है. इसलिए सारा श्रेय उसे मिलना चाहिए लेकिन जब महेंद्र से उस की मां बात करती है तो महेंद्र को अपनी गलती का अहसास होता है फिर महिमा का चयन ‘इंडिया’ टीम में हो जाता है.

लेखक ने विषय तो अच्छा चुना था पर उस के साथ न्याय करने में असफल रहे हैं. फिल्म में पुरुषों की महत्वाकांक्षा, मतलबी पिता द्वारा अपने बेटे का कैरियर बरबाद करने से ले कर सफलता के अहंकार की कमजोरी सहित कई मुद्दों पर तीखी बात कही गई है, मगर कमजोर पटकथा व दूसरी फिल्मों के दृश्यों की नकल करते हुए लेखक व निर्देशक ने फिल्म को तबाह कर डाला.

फिल्म में अस्पताल का एक दृश्य है, जहां डाक्टर महिमा एक मरीज के औपरेशन के वक्त अपने सीनियर डाक्टर को असिस्ट करने जा रही है, तब उस का पति उसे इस बात पर दबाव डालता है कि वह डक्टरी छोड़ कर क्रिकेटर बन जाए. यह दृश्य ही गलत है. यह दृश्य घर पर होता तो ठीक था मगर ऐन औपरेशन से पहले अस्पताल में इस दृश्य के चलते किसी इंसान की जान जा सकती है. इस तरह के दृश्य पर सेंसर को भी कैंची चलानी चाहिए थी.

खैर, फिल्म में होता यही है कि महिमा, तीन एमएल की बजाय छह एमएल का इंजैक्शन, मरीज को लगान वाली होती है पर सीनियर डाक्टर की सजगता के चलते वह महिमा को रोक लेता है. लेखक व निर्देशक ने जिस तरह से चरित्र व कहानी रची है, उस से पुरूष व महिला की मानसिकता, सोच पूरी तरह से उभर कर नहीं आ पाती. बल्कि फिल्म पूरी तरह से एकतरफा नजर आती है.

फिल्म में पुरूष व नारी समानता की बात गायब है यदि एक पुरूष अपने बेटे का कैरियर बरबाद करता है तो दूसरा पिता अपनी बेटी को अपने इशारे पर नचाता है. इंटरवल से पहले फिल्म काफी कमजोर है. ऊपर से निर्देशक ने फिल्म ‘धड़क’ के होली गीत वाले दृष्यों को इस में ज्यों का त्यों फिल्मा दिया है. फिल्म में क्रिकेट के दृश्य नकली से भी नकली हैं. निर्देशक की कल्पना भी अजीब है कि जिस ने बचपन में गलीमहल्ले में क्रिकेट खेला था, वह जवानी में डाक्टर बनने के बाद महज 6 माह की ट्रेनिंग में ही ‘इंडिया’ टीम का हिस्सा बन जाती है. फिल्म के कुछ संवाद जरुर अच्छे बन पड़े हैं.

पूरी फिल्म राजस्थान में फिल्माई गई है. फिल्म में राजस्थान के मुख्यमंत्री भजन लाल शर्मा और वहां की उप मुख्यमंत्री दिया कुमारी का धन्यवाद ज्ञापन भी है, तो इस का मतलब इस फिल्म को राजस्थान सरकार से सब्सिडी मिली है. इसी कारण इस में दर्शकों को सनातनी प्रेम का आभास होगा. फिल्म की कहानी राजस्थानी पृष्ठभूमि की है मगर गाना पंजाबी है. वाह..क्या कहना..जबकि सभी जानते हैं कि राजस्थानी फोक गीतसंगीत काफी लोकप्रिय है.

फिल्म के प्रचारक ने थोड़ी मेहनत की होती तो शायद यह फिल्म शुक्रवार को 99 रूपए की टिकट दर पर दर्शकों को सिनेमाघर तक ले आती.

महेंद्र के किरदार में कई दृश्यों में राजकुमार राव बुरी तरह से निराश करते हैं. जब क्रिकेट टीम में चयन नहीं होता और अब उन्हें पता है कि उन्हें मजबूरन अपने पिता की दुकान पर बैठना पड़ेगा, उस वक्त उन के चेहरे पर जिस तरह के बेबसी, लाचारी के साथ अपनेआप पर कोफ्त होने के भाव आने चाहिए थे, वह नहीं आते.

कुछ दृश्यों में तो वह शाहरुख खान की नकल करते हुए नजर आते हैं. मतलब राज कुमार राव अपने अंदर की अभिनय प्रतिभा को भूलते जा रहे हैं. महिमा के किरदार में जान्हवी कपूर कुछ दृश्यों में ही अच्छी लगी है, अन्यथा वह बेदम ही है. कुमुद मिश्रा अपने किरदार में जमे हैं. संजय शर्मा भी ठीकठाक हैं. पूर्णेंदु भट्टाचार्य और जरीना वहाब के हिस्से करने को कुछ खास नहीं रहा.

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