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वित्तमंत्री के दावों का पूरा सच

नोटबंदी फैसले की पूरे देश भर में आलोचना की लहर दौड़ रही है. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर नोबल सम्मान से सम्मानित अर्थशासई अमर्त्य सेन समेत देश के चोटी के अर्थशास्त्रियों द्वारा देश की अर्थव्यवस्‍था को लेकर चेतावनी दी जा रही है. वहीं इसके उल्ट वित्त मंत्री अरूण जेटली का दावा एक अलग ही कहानी कहता है. वित्तमंत्री की माने तो नोटबंदी से अर्थव्यवस्था या जीडीपी पर किसी तरह का नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है. ऐसे में सवाल यह है कि दावे-प्रतिदावे का आखिर सच क्या है? इसकी पड़ताल करने से पहले यह देखा जाना जरूरी है कि वित्तमंत्री ने जो दावा किया है वह क्या है?

वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि नोटबंदी से नुकसान नहीं, बल्कि देश को बहुत फायदा ही हुआ है. अपने दावे के पक्ष में उन्होंने कहा कि नोटबंदी का का सबसे अधिक जो प्रभाव पड़ना चाहिए था वह दिसंबर के महीने में पड़ना चाहिए था. उनका दावा है कि दिसंबर महीने में सबसे ज्यादा कर अदायगी हुई और राजस्व में बढ़ोत्तरी हुई. हर लिहाज से देश की अर्थव्यवस्था में सुधार आया है. जेटली का दावा है कि 19 दिसंबर तक प्रत्यक्ष कर 14.4 और अप्रयत्क्ष कर में 26.2, केंद्रीय उत्पाद शुल्क में 43.3 और आबकारी में 6, म्युचुअल में 11 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है.

वित्त मंत्री ने दावे की अगर विस्तार से देखा जाए तो उन्होंने कहा कि दिसंबर 2015 की तुलना में दिसंबर 2016 कर अदायगी में 31 प्रतिशत की वृद्धि हुई. अप्रैल से दिसबंर तक नौ महीने में आयकर, कंपनी कर जैसे प्रत्यक्ष कर की अदायगी में 12.01 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है. उत्पाद शुल्क, सेवा कर जैसे अप्रत्यक्ष कर में 25 प्रतिशत वृद्धि देखी गयी है. वित्तमंत्री का मानना है कि अगर नोटबंदी का नकारात्मक प्रभाव सबसे अधिक दिसंबर महीने में पड़ना चाहिए था. अगर ऐसा होता तो ये नतीजे देखने को नहीं मिलते. बहरहाल, वित्तमंत्री ने नोटबंदी के फैसले का समर्थन और सहयोग के लिए देशवासियों का शुक्रिया भी उन्होंने अदा किया.

पर अर्थव्यवस्था के जानकारों ने वित्तमंत्री के दावे की जो चीरफाड़ की तो पाया कि ये दावे अर्थव्यवस्था को धक्का लगने का स्पष्ट लक्षण है. इनका मानना है कि नोटबंदी के धक्के से उबरने में देश को काफी लंबा समय लगेगा. वित्तीय मामलों के जानकार और पत्रकार प्रेमांशु चौधरी का कहना है कि दिसंबर महीने में कर अदायगी में भले ही वृद्धि हुई है, लेकिन अप्रैल से अक्टूबर तक जिस दर से कर अदायगी में वृद्धि हुई है, नोटबंदी के बाद नवंबर और दिसंबर महीने में इसे बड़ा धक्का लगा है.

मसलन; जुलाई में 54 प्रतिशत, अगस्त और सितंबर दोनों महीने में 36-36 प्रतिशत और अक्टूबर में 40 प्रतिशत ‍तक उत्पादन शुल्क में वृद्धि हुई थी. और फिर नोटबंदी के दौरान नवंबर और दिसंबर महीने में यह महज 12.4 प्रतिशत रही. वहीं अक्टूबर में अप्रत्यक्ष कर में वृद्धि की दर 35.8 प्रतिशत थी. लेकिन दिसंबर में इसमें कमी आयी और यह 14 प्रतिशत के आसपास रही.

इसीके साथ प्रेमांशु चौधुरी का यह भी कहना है कि केवल राजस्व अदायगी ही अर्थव्यवस्था का आईना नहीं हो सकता. यूपीए के सबसे खराब दौर यानि 2013-14 वित्त वर्ष में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर की अदायगी में 14-15 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी थी. अब जब यूपीए के बुरे दिन में वृद्धि की दर यह थी तो 2016 दिसंबर में नोटबंदी के बाद भी अप्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर की वृद्धि भी 14 प्रतिशत हुई तो सवाल तो उठता है कि यह किस लिहाज से नोटबंदी का फैसला देश की अर्थव्यवस्था के हक में था?

इतना ही नहीं, सिटी रिसर्च की ओर से की गयी समीक्षा कहती है कि अप्रत्यक्ष कर में वृद्धि के पीछे असली वजह अर्थव्यवस्था नहीं, बल्कि पेट्रोल-डीजल शुल्क में वृद्धि है.

वहीं भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणव कुमार सेन एक साक्षात्कार में साफ तौर पर कहा था कि नोटबंदी भारत के किसानों और गरीबों के लिए बहुत बुरा फैसला साबित होगा. जहां तक वृद्धि दर का सवाल है तो नोटबंदी के असर के कारण यह 0.3 प्रतिशत से लेकर 0.4 प्रतिशत तक नीचे जाएगा. और अधिक खुलासा करते हुए उन्होंने कहा है कि जहां वृद्धि दर के 7.6 से लेकर 7.7 प्रतिशत होने की उम्मीद थी. वहां अब यह 7.1 से लेकर 7.2 प्रतिशत रहने का अनुमान है.

उनका यह भी मानना है कि नोटबंदी के दौरान पुराने नोट में अग्रिम कर अदायगी की गयी थी. इसके बाद वृद्धि दर का दावा किसी भी तरह से टिक नहीं सकता. गौरतलब है कि पुराने नोटों में दिसंबर तक का अग्रिम कर अदा करने का सहूलियत वित्त मंत्रालय ने दी थी. स्वेच्छा से काले धन की घोषणा और इसके तहत कर अदायगी की पहली किस्त भी पुराने नोटों में स्वीकार किया गया था.

प्रेमांशु चौधरी का कहना है कि नोटबंदी के कारण आनेवाले महीनों में वृद्धि दर कम होने से राजस्व अदायगी में भी कमी आएगी. वित्तमंत्री का दावा यह भी है कि नोटबंदी से कल-कारखानों में उत्पादन प्रभावित नहीं हुआ है. जबकि ऑल इंडिया मैनुफैक्चरिंग ऑर्गनाइजेशन रिपोर्ट के अनुसार नोटबंदी के बाद महज एक महीने में छोटे और मंझोले उद्योगों की आय में 50 फीसदी की कमी दर्ज की गयी है. रोजगार में 35 प्रतिशत की कमी आयी है. बड़े कारखानों की भी स्थिति अच्छी नहीं है. इंफ्रास्ट्रक्चर और मैनयुफैक्चरिंग उद्योग का मुनाफा और इस क्षेत्र में रोजगार में 40 प्रतिशत की कमी आयी है.

प्रेमांशु चौधरी नाइट फ्रैंक इंडिया के सर्वे का हवाला देते हुए कहते हैं कि अक्टूबर से लेकर दिसंबर तक गृह निर्माण और इनकी बिक्री को भी बड़ा धक्का लगा है. नोटबंदी के बाद फ्लैट की बिक्री का ग्राफ भी नीचे लूढ़का है. रि वह जमीन की खरीद का मामला हो या फ्लैट की बिक्री का, इसमें 30-40 प्रतिशत की कमी आयी है.

ऑटोमोबाइल क्षेत्र का का भी कमोवेश यही हाल है. पिछले 16 साल में इसका ग्राफ यह अब तक का सबसे नीचे गया है. प्रमुख ऑटो कंपनियों ह्युंडाई, मारूति, महिंद्रा, फोर्ड की बिक्री में गिरावट आयी है. घरेलू बाजार में ह्युंडई की बिक्री में 4.3 फीसदी, मारूति की बिक्री में 4.ृ प्रतिशत, महिंद्र की 1.5 प्रतिशत, फोर्ड इंडिया की बिक्री 6.04 प्रतिशत की गिरावट आयी है. भारी वाहनों की बिक्री की भी कमोवेश ऐसी ही तस्वीर सामने आयी है. दिसंबर महीने में अशोका लेलैंड की बिक्री 12 प्रतिशत घट चुकी है. दुपहिया की बिक्री भी ढलान पर है. घरेलू बाजार में बाइक की बिक्री में 11 प्रतिशत की कमी आयी है.

इन तमाम आंकड़ों से साफ है कि वित्तमंत्री के दावे में बहुत सारे लूपहोल हैं. जो दिखाया जा रहा है, सच्चाई उससे बिल्कुल उलट है. ऐसे में कहा जा सकता है कि वित्त मंत्री का दावा देश की जनता के आंखों में धूल झोंकने जैसा है.

निकम्मापन और नोटबंदी

नरेंद्र मोदी की सरकार ने साबित कर दिया है कि न उन्हें राज करना आता है और न ही उसे सीखने की उन की इच्छा है. उन की सरकार के लोग प्रवचनों से निकल कर आए हैं और वे आम साधुसंतों, स्वामियों व बाबाओं की तरह के प्रवचन दे सकते हैं, कल्याण भव: का आशीर्वाद दे सकते हैं, पर सरकार नहीं चला सकते.

नोटबंदी तो उन के निकम्मेपन का एक बड़ा नमूना है, वरना उन के अब तक के ढाई साल के फैसलों में कोई एक अच्छा फैसला नहीं हुआ, जिस से आम गृहिणी को राहत मिली हो. सरकार उन बाबाओं की तरह काम कर रही है, जो शायद खुद इस झूठ को मानते हैं कि व्यक्ति के दुखों का कारण उस के पिछले जन्मों या इस जन्म के पाप हैं और धर्मगुरु व सरकार उन्हें पापमुक्ति दिलाने के लिए कष्ट दे तो ही उन का जीवन सुधरेगा. जैसे पापों के प्रायश्चित्त के लिए नंगे पैर चलना, कईकई दिन भूखे रहना, ठंडे पानी में स्नान करना, अपना सर्वस्व दान करना शामिल है, वैसे ही सरकार बिना कुछ किए जनता से त्याग, बलिदान और कष्ट उठाने की बात आते ही करने लगी कि इस के कुछ दिन बाद उन की घोर तपस्या फल जाएगी और सुनहरे महलों का वरदान उन्हें स्वयं भगवान देंगे.

हमारी मूढ़ जनता, जिन में महिलाएं ज्यादा शामिल हैं, इस गलतफहमी में रह रही है और हर कष्टमय काम को ताली बजा कर स्वागत करती रही है, चाहे वह गैस सब्सिडी समाप्त करने का मामला हो, गौरक्षा के नाम पर दलितों और मुसलिमों पर अत्याचार की घटनाएं हों, टैलीविजन मीडिया पर अंकुश लगाने वाले नियम हों, किसानों से जबरन जमीन लेने का प्रयास हो या अब नोटबंदी हो, धर्मभीरु जनता उन्हें स्वामियों, धर्मगुरुओं का आदेश मान कर सह रही है.

सरकार चलाना और मठआश्रम चलाना अलग है. केवल बातों से सरकार नहीं चलती. जहां भी केवल बकबकिए नेता बने और सरकार में घुस गए, वहां की जनता ने बहुत अनाचारअत्याचार देखे, चाहे वह लेनिन हो, स्टालिन हो, ईदी अमीन हो, माओ हो.

नोटबंदी एक ऐसी चमत्कारी तपस्या की तरह पेश की गई थी, मानो इस कष्ट को सहने के बाद भगवान प्रकट हो कर खुद ही इस भारतभूमि पर स्वर्ग फैला देंगे. नरेंद्र मोदी की गलती कम है, इस देश की मूर्खता की गलती ज्यादा है. काले धन के मर्म को पहचाने बिना और यह जाने बिना कि पाप होते क्यों हैं, जपतप से पुण्य कमाने की सहमति जो जनता दे रही है, नोटबंदी जैसे फैसले का कारण है.

अब हालत यह हो गई है कि धर्मगुरुओं के कहने पर जनता को अब गणेश को दूध पिलाने के लिए कतारों में खड़ा होना पड़ेगा और वह भी नंगे पैर और भूखे पेट. जय नोट महाराज की. कल्याण करो, वर दो, वर दो.                  

              

अपनों पे सितम और गैरों पर करम

शाही जिंदगी जीने वाली जयललिता क्या एक क्रूर और कुंठित महिला थीं? इस सवाल का सटीक जवाब यही है कि हां यह संभव है. उन की अंतिम यात्रा में उन का अपना सगा कोई नहीं था. इसलिए नहीं कि जयललिता व्यक्ति से विचार हो गई थीं, बल्कि इसलिए कि वह गैरों को अपनाती रहीं और अपनों को ठुकराती रहीं.

22 सितंबर को जब वह चेन्नै के अपोलो अस्पताल में भरती हुई थीं, उस के कुछ दिनों बाद एक युवती उन्हें देखने और मिलने अस्पताल गई थी. पुलिस वालों को उस ने बताया था कि उस का नाम दीपा है और वह जयललिता की भतीजी है. लेकिन पुलिस वालों ने उसे खदेड़ दिया था. शायद उन्हें ऐसे ही निर्देश थे या फिर मुख्यमंत्री का कोई खून का रिश्तेदार भी है, इस बात से उन्हें कोई सरोकार नहीं था.

जयकुमार जयललिता के बड़े भाई थे, जिन्होंने बचपन में बहन के साथ बराबरी के अभाव झेले थे और संघर्ष भी किया था. तब उन के संबंध बेहद मधुर थे. सन 1971 मे मां की मौत होने तक तो जयललिता के अपने भाई से ठीकठाक संबंध रहे. लेकिन इस के बाद उन के संबंधों में खटास आ गई थी.

खटास की सही वजह किसी को नहीं मालूम, पर अंदाजा यह लगाया गया कि जयललिता के सार्वजनिक जीवन की व्यस्तता इस की वजह थी. जाहिर तौर पर यह वजह दमदार नहीं है. सन 1995 में जयकुमार की मौत के बाद जयललिता ने भाभी और उन के बच्चों की कोई खबर नहीं ली.

ऐसा लगता है कि जयकुमार को या तो बहन का उच्छृंखल स्वभाव पसंद नहीं था या फिर उस की लोकप्रियता हजम नहीं हो रही थी. उन्हें जयललिता की अंतरंग होती जा रही शशिकला नागवार गुजरती थी, जिस की हैसियत तमिलनाडु के सियासी और प्रशासनिक गलियारों में दूसरे नंबर की थी. शशिकला को लोग चिन्नम्मा यानी मौसी कहते हैं. खदु शशिकला मानती भी थीं कि और कहती भी थीं कि वह जयललिता की सगी बहन नहीं हैं, पर किसी भी रिश्ते से बढ़ कर हैं.

एक मामूली सी वीडियो की दुकान चलाने वाली शशिकला पर मेहरबानी की तमाम हदें जयललिता ने शुरू कर दी थीं. इस मित्रता पर काफी बवाल भी मचता रहता था. लेकिन मां और एमजीआर के बाद शशिकला जयललिता की एक भावनात्मक जरूरत पूरी कर रही थीं, साथ ही साथ वह उस की मुकम्मल कीमत भी वसूल रही थीं. शशिकला के पति सहित तमाम रिश्तेदार अच्छे ओहदों पर हैं और करोड़ों अरबों का व्यापार करते हैं.

पनीरसेल्वम जब मुख्यमंत्री बने तो उन्हें भी शशिकला के दरबार में हाजिरी दर्ज करानी पड़ी थी, जो अब अपनी सहेली की विरासत की मालकिन हैं. अपने दत्तक पुत्र सुधाकरण, जो शशिकला का भांजा भी था, की शादी में अनापशनाप खर्च कर गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में अपना नाम दर्ज करा चुकीं जयललिता शक्की भी बहुत थीं.

अपने इर्दगिर्द के जमावड़े को ले कर वह आशंकित भी रहती थीं. यानी असुरक्षा उन में स्थाई रूप से थी. यही वजह थी कि सुधाकरण से वह नाराज हुईं तो फिर उस की तरफ मुड़ कर नहीं देखा. एक बार उन्होंने शशिकला पर भी जहर देने का आरोप लगाते हुए उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था.

शशिकला समझदार निकलीं, जो फिर से जयललिता के करीब जा पहुंचीं और उन के बाद उन के साम्राज्य की मालकिन हैं. लेकिन साफ दिख रहा है कि चिनम्मा कभी अम्मा नहीं हो सकतीं.

एआईएडीएमके बगैर किसी विचार या सर्वमान्य नेता के कितना चल पाएगी, कहा नहीं जा सकता. पनीरसेल्वम और शशिकला कभी भी भिड़ सकते हैं, इस की वजह ताकत और दौलत होगी. ये दोनों या कोई और जयललिता जितने लोकप्रिय नहीं हैं, न ही लोग उन्हें चाहते हैं और न अम्मा का वारिस मानते हैं. ऐसे में मुमकिन है कि पार्टी के भीतर दीपा को लाने की मांग उठने लगे. अपनों के प्रति जयललिता की अनदेखी उस वक्त भी उजागर हुई, जब उन के सौतेले भाई वासुदेवन ने खुद को सार्वजनिक रूप से उन का भाई कहना शुरू किया था. इस बात से नाराज हो कर जयललिता ने उस पर मानहानि का मुकदमा तक दायर कर दिया था. अब वासुदेवन मैसूर के एक गांव में गुमनामी की जिंदगी जी रहा है.

जयललिता : शोहरत से शून्य तक

अयिरातिल ओरूवन 60 के दशक की एक कामयाब तमिल फिल्म थी. इस के नायक एमजीआर यानी एम.जी. रामचंद्रन थे, जिन पर तब के निर्माता आंखें बंद कर पैसा लगाते थे और कमाते भी खूब थे. इस फिल्म की नायिका एक नईनवेली किशोरी थी, जिस में अभिनेत्री होने के सारे गुण मौजूद थे. वह सुंदर और भरे बदन की लड़की थी. उस समय दक्षिण भारतीय फिल्मों में ऐसी लड़कियों को बहुत पसंद किया जाता था. फिल्मी सेटों का अपना एक अलग प्रोटोकाल होता है, जिस के तहत नामी स्टार का अलग ही रुतबा होता है. जब बड़ा स्टार आता है तो यूनिट के सारे लोग हाथ बांध कर सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाते हैं. उस जमाने में एम.जी. रामचंद्रन का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा था.

जब वह सेट पर आते थे तो पिन ड्रौप सन्नाटा छा जाता था. ‘अयिरातिल ओरूवन’ की शूटिंग के लिए जब वह सेट पर आते थे तो यह नवोदित अभिनेत्री लापरवाही और खामोशी के साथ अपनी जगह पर किसी किताब में नजरें गड़ाए बैठी रहती थी. ऐसा लगता था जैसे उस पर किसी एम.जी. रामचंद्रन की मौजूदगी का कोई फर्क न पड़ता हो.

यह नायिका थीं जयराम जयललिता. एमजीआर के लिए यह हैरानपरेशान कर देने वाली बात थी कि एक नई लड़की उन की मौजूदगी से न तो प्रभावित होती है और न विचलित. जयललिता की यह हरकत उन की शान और रुतबे के खिलाफ थी. एक ओर नए कलाकार उन की एक झलक और सान्निध्य पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते थे. यहां तक कि उन के पांवों में झुक जाते थे और दूसरी तरफ वह गुस्ताख लड़की थी कि उन के आभामंडल के दायरे में आने को तैयार नहीं थी.

जयललिता की यह अदा एमजीआर को भा गई या चुभी, यह तो वही जानें, पर जयललिता की यह नादानी या सयानापन जो भी रहा हो, उन्हें हमेशा के लिए एक ऐसे बंधन में बांध गया, जिस का कोई नाम नहीं होता. और अगर होता भी है तो उसे सार्वजनिक रूप से न व्यक्त किया जाता है और न ही स्वीकारा जाता है.

एमजीआर पहले पुरुष थे, जिन के स्वाभिमान को जयललिता ने आहत किया था. तब उन की मंशा शायद अपना अकड़ूपन दिखाने की रही होगी, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह वह वक्त था, जब वह फिल्मों में काम करने के लिए हाथपांव मार रही थीं. फिल्में उन्हें मिलने भी लगी थीं, लेकिन उन्होंने इस बात की कल्पना भी नहीं की होगी कि शुरुआत में ही उन्हें एमजीआर जैसे मंझे हुए लोकप्रिय अभिनेता के साथ काम करने का मौका मिलेगा.

उस वक्त जयललिता ज्यादा परिपक्व नहीं थीं, न ही उन्हें द्रविड़ तमिल और आर्य अनार्य जैसे शब्दों के मायनों से कोई लेनादेना था. दक्षिण भारत में उथलपुथल मचा रहे जातिगत समीकरणों और राजनीति से भी उन्हें कोई खास सरोकार नहीं था. दरअसल तब उन्हें ऐसा कुछ सोचने की जरूरत ही नहीं थी. जयललिता का मकसद तो सिर्फ एक कामयाब और सुप्रसिद्ध हीरोइन बनना भर था. बहुत सारा पैसा कमा लेना न केवल उन की जिद, बल्कि जरूरत भी थी. क्योंकि उन्होंने 16 साल की अब तक की अपनी जिंदगी कमोबेश अभावों में ही काटी थी.

बीती 5 दिसंबर को चेन्नै के अपोलो हास्पिटल में जयललिता ने लंबी बीमारी के बाद आखिरी सांस ली तो आम लोगों में उन के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की उत्सुकता बढ़ी. अम्मा के नाम से मशहूर हो चुकीं जयललिता की जिंदगी के कुछ पन्ने खुल कर सामने आए भी, लेकिन उन पन्नों में उन की जिंदगी का आधाअधूरा सच था. जाने क्यों वह अपने फिल्मी और राजनीतिक जीवन को आम लोगों और मीडिया से छिपाती रहीं. वह नहीं चाहती थीं कि लोग उन के बारे में एक हद से ज्यादा जानें. नतीजतन उन की जिंदगी का वही हिस्सा और बातें उजागर हो पाईं, जो किसी भी हालत में छिपे नहीं रह सके थे.

24 फरवरी, 1948 को मैसूर राज्य के मांडया जिले के पांडवपुरा तालुका के गांव मेलुरकोट में जन्मी जयललिता का नाम जन्म के समय कोमलाबल्ली रखा गया था. लेकिन जब वह 2 साल की थीं, तभी पिता जयराम का साया उन के सिर से उठ गया. हालांकि उन के दादा नरसिम्हन रंगाचारी नामी सर्जन थे, लेकिन तब आमतौर पर होता यह था कि पति की मौत के बाद पत्नियां ससुराल छोड़ कर मायके में आ कर रहने लगती थीं. ऐसा ही जयललिता की मां वेदावल्ली ने किया. वह अबोध बेटी और बेटे जयकुमार को ले कर बेंगलुरु में अपने मांबाप और बहन के पास चली आई. जयराम की बेदावल्ली से यह दूसरी शादी थी, पहली पत्नी जयम्मा से उन्हें एक बेटा वासुदेवन हुआ था.

वेदावल्ली सुंदर होने के साथसाथ महत्त्वाकांक्षी और स्वाभिमानी थीं. मांबाप के यहां उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन उन्होंने अपना फिल्मी नाम संध्या रख कर फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया. उस जमाने की वह औसत अभिनेत्री रहीं, लेकिन उन्हें आर्थिक रूप से किसी की मोहताज बन कर नहीं रहना पड़ा. लिहाजा जयललिता की पढ़ाई में कोई खास परेशानी पेश नहीं आई.

जया के नाना रंगास्वामी अयंगर हिंदुस्तान ऐरोनौटिक्स लिमिटेड में कार्यरत थे, जिन्हें नौकरी के लिए तमिलनाडु से बेंगलुरु शिफ्ट होना पड़ा था. लेकिन संध्या पिता पर भार नहीं बनना चाहती थी, इसलिए फिल्मों में आने से पहले उन्होंने कुछ साल बेंगलुरु के सचिवालय में भी नौकरी की थी.

संध्या का फिल्मों में आना महज इत्तफाक की बात थी. दरअसल उन की बहन अंबुजावल्ली एयर होस्टेस थीं और छुटपुट फिल्मों में भी काम करती थीं. इसी सिलसिले में उन्हें चेन्नै रहने आना पड़ा तो वह संध्या को भी साथ लेती आईं. एक फिल्म की शूटिंग के दौरान एक निर्माता की नजर खूबसूरत संध्या पर पड़ी तो उस ने उन के सामने फिल्म में काम करने की पेशकश रखी तो संध्या ना नहीं कर सकीं.

प्रारंभिक शिक्षा के लिए जयललिता को बेंगलुरु के बिशप काटन स्कूल में दाखिला दिलाया गया. वह एक पढ़ाकू छात्रा थीं, इसलिए हमेशा अव्वल नंबरों से पास होती रहीं. संध्या की दिलचस्पी फिल्मों से कम हो चली थी. जैसेजैसे जयललिता बड़ी होती गईं, वैसेवैसे उन्होंने फिल्मों में काम करना कम कर दिया. हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए जयललिता को वापस चेन्नै आना पड़ा. जयललिता ने मां की मेहनत देखी थी, इसलिए अब उन्हें पिता के न होने का अहसास खलने लगा था. चेन्नै आ कर उन्होंने सरकारी वजीफे पर पढ़ाई करने को प्राथमिकता दी, जबकि वह चाहतीं तो स्टेलो मारिस जैसे नामी कालेज में पढ़ सकती थीं. लेकिन उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन की मंशा पैसा बचाने की थी.

यह वह उम्र थी, जब अधिकांश किशोर कैरियर के बारे में अपनी इच्छा जताने लगते हैं. जयललिता ने भी मां के सामने पिता की तरह वकील बनने की इच्छा जाहिर कर दी थी. हाईस्कूल की परीक्षा में वह पूरे कर्नाटक राज्य में अव्वल आई थीं, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह पढ़ाई और भविष्य के प्रति कितनी गंभीर थीं.

वैधव्य की त्रासदी झेल चुकी संध्या के मन में बेटी को ले कर कुछ और ही चल रहा था. दक्षिण फिल्म इंडस्ट्री में वह उस मुकाम तक नहीं पहुंच पाई थीं, जिस पर जाने की उन की ख्वाहिश थी. दूसरे अभिभावकों की तरह उन्होंने भी संतान में अपने अधूरेपन को पूरा करने की इच्छा थी. इसीलिए वह चाहती थीं कि जयललिता फिल्मों में काम करे.

बेटी को वह बहुत चाहती थीं, क्योंकि पति की मौत के बाद दोनों संतानें ही उन के जीने का मकसद थीं. जयललिता भी मां की भावनाओं को समझती थीं, जिन्होंने उन्हें संस्कारों और परंपराओं के साथ आधुनिकता की परवरिश भी दी थी. संध्या जयललिता के जिद्दी स्वभाव से वाकिफ थीं, लिहाजा उन्होंने सीधे अपनी ख्वाहिश थोपने के बजाय धीरेधीरे भावनात्मक दबाव बना कर उन्हें फिल्मों में काम करने के  लिए राजी कर लिया.

जयललिता का अपनी मां के प्रति कृतज्ञता का भाव और आदरसम्मान किसी सबूत का मोहताज नहीं था. मां की इच्छा उन के लिए अटल आदेश होती थी, इसलिए अधूरे मन से ही सही, उन्होंने फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया. इस के बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. उन्होंने तमिल, तेलुगू और कन्नड़ की करीब 3 सौ फिल्मों में अपनी अभिनय प्रतिभा दिखाई और 7 बार फिल्मफेयर अवार्ड हासिल किया. उन्होंने 6 बार श्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब जीता.

महज 20 साल की होतेहोते जयललिता पर दौलत और शोहरत की ऐसी बरसात होने लगी थी कि उन्होंने सन 1967 में पीएस गार्डन में 1 करोड़ रुपए से भी ज्यादा की कीमत का बंगला खरीद लिया था और जिंदगी भर वह इसी में रहीं. 2 हिंदी फिल्मों ‘मनमौजी’ और ‘इज्जत’ में भी वह दिखीं, पर हिंदी दर्शकों को मोटी अभिनेत्रियां कम ही रास आती थीं, इसलिए उन्हें दर्शकों ने खारिज कर दिया था. ‘इज्जत’ फिल्म में उन के नायक धर्मेंद्र थे, लेकिन यह फिल्म बौक्स औफिस पर फ्लौप रही तो इस के बाद जयललिता ने हिंदी फिल्मों की ओर रुख नहीं किया. सन 1961 में शौकिया तौर पर वह एक अंग्रेजी फिल्म ‘एपिसल’ में भी दिखीं.

दक्षिण की फिल्मों में उन का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा था. जयललिता अपने वक्त की सब से ज्यादा पारिश्रमिक लेने वाली अभिनेत्री थीं. बचपन में जिस पैसे को ले कर वह खुद को असुरक्षित महसूस करती थीं, वह अब उन पर बरस रहा था. ज्यादातर फिल्में उन्होंने अभिनेता शिवाजी गणेशन और एम.जी. रामचंद्रन के साथ ही कीं. एमजीआर के साथ वह 28 फिल्मों में आईं, जिन में से 24 सिल्वर जुबली थीं. अभिनय प्रतिभा तो गजब की थी ही, साथ ही उन्होंने बचपन में भरतनाट्यम नृत्य भी सीख लिया था. संभवत: उन की मां संध्या ने उसी वक्त से उन्हें सफल नायिका बनाने की अपनी जिद पूरी करने के लिए प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया था.

1980 आतेआते हालत यह हो गई कि सिने प्रेमी उन के नाम की माला जपने लगे थे. दक्षिण भारत में उन की फिल्मों के बडे़बड़े पोस्टर नजर आते थे. तब तक उन का नाम एमजीआर के साथ जुड़ गया था.

उम्र में जयललिता से लगभग तिगुने बड़े एमजीआर महज एक अभिनेता ही नहीं थे, बल्कि उन के अपने राजनैतिक सामाजिक सरोकार भी  थे, जिन का वर्ण व्यवस्था और जातिगत शोषण से इतना गहरा ताल्लुक था कि वह तमिलनाडु में सत्ता परिवर्तन की अहम वजह भी बना.

जयललिता एक कट्टर अयंगर ब्राह्मण परिवार की युवती थीं, वह इस में कहां कैसे और क्यों फिट हो गईं, इसे समझने से पहले सदियों से चली आ रही मनुवादी व्यवस्था को संक्षेप में समझ लेना जरूरी है, जो राजनैतिक षड्यंत्रों और स्वार्थपूर्ति के खेल की लोकतांत्रिक बानगी थी.

आजादी के बाद चारों दिशाओं में कांग्रेस का राज था, इस से ज्यादा हैरत की बात यह थी कि राजनीति और नईनई लोकतांत्रिक सत्ता में ब्राह्मणों का दबदबा था. हर दूसरे राज्य का मुख्यमंत्री कोई ब्राह्मण ही था और बाकी राज्यों में क्षत्रिय या दूसरे सवर्ण बगैर कुछ किएधरे सत्ता की मलाई चाट रहे थे. पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में ब्राह्मणवाद खूब फलाफूला, जिस से छोटी और दबी कुचली दलित जातियों में आक्रोश पनपने लगा था.

उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण में आजादी के बाद एक बार फिर दलित आंदोलन परवान चढ़ा, लेकिन इस बार तरीका अलग था. आंदोलन की अगुवाई कलाकारों के हाथों में थी, खासतौर से फिल्मकारों के, जिन की अपनी जमीन और एक बड़ा प्रशंसक वर्ग था. मिसाल तमिलनाडु की लें तो वहां द्रमुक आंदोलन के अगुवा सी.एन. अन्नादुरई थे. अन्नादुरई एक गंभीर सामाजिक विश्लेषक थे, जिन्होंने द्रविड़ मुनेत्र कषगम पार्टी (डीएमके) की स्थापना की थी. वह तब के लोकप्रिय गीतकार और लेखक थे. उन के सहयोगी थे करुणानिधि और इस आंदोलन के प्रणेता थे रामास्वामी नायकर.

डीएमके की स्थापना का मकसद एक सांस्कृतिक और सामाजिक आंदोलन था, जिसे राजनीतिक जामा पहनाना था. इस वक्त में पूरे भारत की तरह दलितों का दमन बेहद आम और सरल बात थी. ऊंची जाति वाले धर्म के नशे में चूर दलितों पर तरहतरह के कहर ढा रहे थे. तमिलनाडु की इस टीम को बेहतर यह लगा कि लोकप्रिय फिल्मकारों के जरिए जनचेतना और जागरूकता को हवा दी जाए, इस में वे सफल भी रहे.

60 के दशक के उत्तरार्द्ध तक तमिलनाडु में कांग्रेसी नेताओं की तूती बोलती थी,जो कट्टरवादी ब्राह्मण थे. चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य से ले कर सुब्रमण्यम तक ऐसे ही ब्राह्मण कांग्रेसी नेता थे. अन्नादुरई की मेहनत और लगन रंग लाई और सन 1967 के आम चुनाव में डीएमके ने कांग्रेस को धूल चटा कर तमिलनाडु की सत्ता से ब्राह्मण वर्चस्व खत्म कर दिया. अन्नादुरई मुख्यमंत्री बने और एमजीआर दूसरी पंक्ति के प्रमुख नेता के रूप में उभरे. करुणानिधि का योगदान भी कमतर नहीं आंका गया.

जैसा कि ऐसे हालात में होता है, एमजीआर और करुणानिधि के बीच नंबर 2 की लड़ाई शुरू हो गई. हालांकि एक हद तक इस में भी व्यक्तित्व अहम और जाति मुख्य वजहें थीं. एमजीआर ब्राह्मण थे और करुणानिधि ईसाई, लेकिन वैचारिक स्तर पर दोनों में कोई मतभेद नहीं थे.

करुणानिधि की आशंका यह थी कि एमजीआर अगर डीएमके के मुखिया बने तो आंदोलन मकसद से भटक कर ब्राह्मणों का गुलाम बन जाएगा. उलट इस के एमजीआर का सोचना था कि यदि करुणानिधि अन्नादुरई के उत्तराधिकारी बन गए तो ईसाइयत हावी हो जाएगी. 2 उभरते दिग्गजों के बीच पनपती इस रस्साकशी का अंत दुखद रूप में अन्नादुरई की मौत के बाद हुआ.

उत्तराधिकारी की खींचतान का कोई हल नहीं निकला तो एमजीआर ने अपनी पैतृक पार्टी छोड़ कर एक अलग पार्टी बना ली, जिस का नाम उन्होंने आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (एआईएडीएमके) रखा. एक विचारधारा विभाजित हो गई थी और एक सार्थक आंदोलन 2 धड़ों में बंट गया था. लेकिन यह इतना प्रभावशाली था कि इस का फायदा कांग्रेस को नहीं मिला. सन 1967 से ले कर अब तक तमिलनाडु की सत्ता एआईएडीएमके और डीएमके के बीच ही रहना इस का प्रमाण है.

अब तक जयललिता इस फसाद से दूर थीं और फिल्मों में रमी थीं. जब एमजीआर मुख्यमंत्री बने तो उन्हें एक विश्वसनीय और सख्त नेता की जरूरत महसूस होने लगी, जो एक अच्छा वक्ता भी हो और लोकप्रिय भी, साथ ही दिल्ली जा कर एआईएडीएमके की सशक्त हाजिरी भी दर्ज करा सके. इस के लिए उन्हें जयललिता उपयुक्त लगीं तो उन्होंने अपने दिल की बात उन से कह दी.

अब तक यह साफ हो चुका था कि 3 शादियां कर चुके एमजीआर जयललिता पर आसक्त हैं, इसीलिए वह किसी और से शादी नहीं कर रहीं. जयललिता उन्हें गुरु, मार्गदर्शक और शुभचिंतक मानने लगी थीं, लोग यही समझने लगे थे कि एमजीआर उन के लिए इस से भी कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं.

वह उन के प्रियतम, प्रेमी या अविवाहित पति भी कहें,सब कुछ हैं. यह एमजीआर के प्रति चाहत थी कि जयललिता ने तेलुगू फिल्मों में सुपरस्टार शोभनबाबू से शादी नहीं की. इन दोनों की जोड़ी काफी लोकप्रिय हुई थी. जबकि आम लोग एक वक्त में मानने लगे थे कि जयललिता और शोभनबाबू कभी भी शादी कर सकते हैं.

एमजीआर की राजनीति में आने की पेशकश ठीक वैसी ही थी, जैसी कभी उन की मां की थी कि फिल्मों में आ जाओ. तब वह मां को मना नहीं कर सकी थीं. ऐसे ही वह एमजीआर को ना नहीं कह पाईं.

जल्द ही एआईडीएमके में जयललिता की हैसियत नंबर-2 की हो गई और उन्हें एमजीआर ने राज्यसभा में भेज दिया. तमिलनाडु की राजनीति में एमजीआर के ये फैसले किसी के गले नहीं उतरे. क्योंकि जयललिता को राजनीति का कोई अनुभव नहीं था. उन्हें ले कर एआईएडीएमके के लोग आशंकित हो उठे और इसे एमजीआर की आसक्ति करार दिया.

ब्राह्मण समुदाय की गोरीचिट्टी जयललिता के बारे मे ंकिसी की राय यह नहीं थी कि वह ब्राह्मण विरोधी आंदोलन में ईमानदारी से अपनी भूमिका निभा पाएंगी. फिल्मों में पहली दफा स्कर्ट और हाफ स्लीव पहन कर हाहाकार मचा देने वाली सैक्सी जयललिता तब तक नए अवतार में पेश की जा चुकी थीं.

लेकिन जयललिता राजनीति में वाकई असाधारण साबित हुईं. उन के भाषण तमिलनाडु की जनता को लुभाने लगे. वह एक पक्के और सधे हुए नेता की तरह ठेठ तमिल में बोलती थीं तो लोग उन्हें मंत्रमुग्ध हो कर सुनते रह जाते थे. अंगरेजी पर भी उन की अच्छी पकड़ थी. सन 1982 से ले कर सन 1987 तक वह राज्यसभा सदस्य रहीं और एमजीआर की उम्मीदों पर खरी उतरीं.

यह काफी उथलपुथल भरा वक्त था. क्योंकि वह एमजीआर की अभिनेत्री पत्नी जानकी की आंखों में खटकने लगी थीं. जानकी जयललिता के प्रति पति के अनुराग से अंजान नहीं थीं, पर खामोश ही रहीं. आखिरकार वह उन की तीसरी पत्नी थीं और एमजीआर के स्वभाव को बखूबी समझने लगी थीं.

अधेड़ हो चले एमजीआर जयललिता को दिल दे चुके थे. उन पर किसी का जोर नहीं चल पाएगा, यह बात जानकी को समझ आ गई थी. कोई विवाद खड़ा करना पति की साख पर बट्टा लगाने वाली बात होती, लेकिन यह बात गलत नहीं है कि सौत चाहे पुतला भी हो तो भी सीने में फांस सी चुभती है.

यह शीतयुद्ध दबा ही रहा. मां की मौत के बाद जयललिता पर मानो पहाड़ सा टूट पड़ा था. ऐसे में एमजीआर ने ही उन्हें भावनात्मक सहारा दिया. राजनीति में लगातार लोकप्रिय होती जा रही जयललिता अब पहले सी अंतरमुखी नहीं रह गई थीं. वह भी अधेड़ावस्था में दाखिल हो रही थीं और यदाकदा जीवन के माने खोजती रहती थीं.

इसी कशमकश में उन्होंने महसूस किया कि उन के पास सब कुछ होते हुए भी वह नहीं है जो एक औरत को संपूर्णता देता है. जिंदगी के पूर्वार्द्ध में वह मां के हाथ की कठपुतली बनी रहीं तो उत्तरार्द्ध पर एमजीआर का कब्जा रहा. इस पूरे दौर में उन का अपना कुछ था तो वह एक तनहाई थी, जिस से वह घबरा कर आक्रामक होने लगी थीं.

अपनी भड़ास या बेचैनी उन्होंने कलम के जरिए निकालने का रास्ता चुना. वह एक तमिल पत्रिका में कालम लिखने लगीं और कभी जज्बाती हो कर जिंदगी के वे लम्हें भी पाठकों से साझा करने लगीं, जो न केवल उन के, बल्कि एमजीआर और पार्टी की प्रतिष्ठा के लिए भी अशुभ और घातक साबित हो सकते थे. यह देख कर एमजीआर ने उन्हें फिर समझाया और वह एक बार फिर मान गईं.

जयललिता अब भी परिपक्व नहीं हुई थीं, लोकप्रियता और सफलता अलग बातें थीं. यह वह दौर था, जब वह अपने अस्तित्व और पहचान की खोज में भटकने लगी थीं. इसी भटकाव ने उन्हें सधी और आक्रामक राजनीति का विशेषज्ञ बना डाला. अब तक वह अकूत दौलत भी कमा चुकी थीं, पर किस के लिए, इस का जवाब वह खुद को भी कभी नहीं दे पाती थीं.

सन 1987 का साल उन की जिंदगी में निर्णायक मोड़ ले कर आया. ब्रेन स्ट्रोक के चलते एमजीआर का निधन हुआ तो वह जानकी के सामने थीं, जो एमजीआर की वैध उत्तराधिकारी थीं. एमजीआर हालांकि सन 1984 में ही अशक्तता का शिकार हो गए थे. तब जयललिता ने पहली बार दुस्साहस दिखाया था. तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनने की इच्छा और महत्त्वाकांक्षा ने सिर उठाया तो उन्होंने इस के लिए कोशिशें भी शुरू कर दीं, जो एमजीआर को नागवार गुजरी और उन्होंने अपनी इस शिष्या को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया.

जब उन्हें पार्टी के उपनेता पद से हटाया गया तो वह तिलमिला उठीं. सहज ही जयललिता को समझ आ गया था कि एमजीआर जानकी को सब कुछ सौंप देंगे, जिस की वजह यह कहावत थी कि घुटना हमेशा पेट की तरफ की मुड़ता है. उन्हें अपने दूसरी होने का अहसास सालने लगा था. पहली दफा जयललिता को लगा कि वह अब तक छली जाती रहीं हैं. एमजीआर की बड़ीबड़ी क्रांति की बातों का सच राजनीतिक स्वार्थों तक सिमटा था, जिन्हें तमिलनाडु की जनता देवता मान कर पूजती थी.

एक अंतरंग लगाव अब एमजीआर की उपेक्षा तले दबने लगा था. जयललिता को समझ आ रहा था कि अगर एमजीआर ने उन्हें अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया तो वह कहीं की नहीं रह जाएंगी. इस अहसास से भी वह सकते में थीं कि आज तक वह एमजीआर की कठपुतली रही हैं. जैसे वह चाहते थे वैसे ही वह राजनैतिक मंच पर नाचती थीं. ऐसा क्यों था, इस सवाल का जवाब खुद उन के पास भी नहीं था.

एमजीआर की मौत के बाद तमिलनाडु में हाहाकार मचा था. उन के समर्थक खुदकुशी कर रहे थे, सड़कों पर मातम मना रहे थे. सियासी और प्रशासनिक गलियारों का हाल अलहदा था, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था कि एमजीआर का असल सियासी वारिस कौन है.

जिंदगी में पहली बार समझदारी से काम लेते हुए जयललिता ने खुद को एमजीआर का वारिस घोषित कर दिया.

घोषित तौर पर वह एमजीआर की कुछ नहीं थीं, पर अघोषित तौर पर काफी कुछ थीं, यह बात हर कोई जानता था. जब वह एमजीआर के अंतिम दर्शन के लिए उन के घर पहुंची तो पहले तो उन्हें घर में दाखिल ही नहीं होने दिया गया. जैसेतैसे वह घुस भी गईं तो बदहवास सी हालत में अपने प्रिय नायक और मार्गदर्शक का शव ढूंढती रहीं.

जानकी हालांकि सदमे में थीं, लेकिन उन के होश कायम थे. उन का  इशारा पा कर कुछ लोगों ने जयललिता को बाहर धकेला पर वह नहीं मानीं. दया खा कर किसी ने उन्हें बताया कि एमजीआर का शव राजाजी हाल ले जाया गया है तो वह तुरंत वहां जा पहुंचीं.

राजाजी हाल खचाखच भरा था. एमजीआर के समर्थक सुबक रहे थे, जयललिता जैसेतैसे उन के शव के पास पहुंचीं और पत्थर की तरह देखती रहीं. यहां भी उन के साथ जानकी समर्थकों ने बदसलूकी की.

हैरानी की बात यह थी कि उन की आंखों से आंसू तक नहीं निकला. जानकी की एक समर्थक उन के पैर कुचलती रही, ताकि वह चली जाएं, लेकिन वह लगातार 13 घंटे एक ही मुद्रा में खड़ी पथराई आंखों से एमजीआर का शव देखती रहीं. यह अभिनय नहीं, बल्कि अपने प्रिय के जाने का दुख था, जानकी की तरह ही.

दूसरे दिन जब एमजीआर की अंतिम यात्रा के पहले वह राजाजी हाल पहुंचीं और 9 घंटे खड़ी रहीं, लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. जब एमजीआर का शव वाहन में रखा जाने लगा तो वह आपा खो बैठीं और शव की तरफ दौडीं. इस दृश्य या प्रतिक्रिया का अंदाजा जानकी को था, इसलिए उन्होंने इस से निपटने की व्यवस्था पहले से ही कर रखी थी. वह शव के पास पहुंच पातीं, इस के पहले ही जानकी के भतीजे दीपन ने उन्हें धक्का दे कर गिरा दिया.

इस धक्के से उन्हें अपनी हैसियत समझ आ गई थी, लिहाजा वह घर लौट गईं. लेकिन उन्होंने ठान लिया था कि वह तमिलनाडु की राजनीति पर अपना अधिकार नहीं छोड़ेंगी.

एआईएडीएमके एक बार फिर 2 फाड़ हो गई. विरासत की यह लड़ाई बड़ी दिलचस्प थी. आधे लोगों का मानना था कि जानकी एमजीआर की वैध पत्नी होने के नाते उन की स्वाभाविक उत्तराधिकारी हैं, जबकि आधे लोगों का मानना था कि जयललिता ही पार्टी संभाल सकती हैं, क्योंकि उन में नेतृत्व क्षमता है. दूसरे वह एमजीआर की कुछ न हो कर भी बहुत कुछ हैं.

आखिरकार जयललिता ने अपनी अलग पार्टी बना ली, जिस ने सन 1989 के विधानसभा चुनाव में 23 सीटें हासिल कीं. इस के उलट जानकी की पार्टी को महज एक सीट मिली. अब तसवीर साफ हो चुकी थी कि एआईएडीएमके को जयललिता ही संभालेंगी.

यह कोई आसान काम नहीं था. एमजीआर की मौत के बाद एआईएडीएमके खत्म सी मानी जा रही थी. यह जयललिता का करिश्माई व्यक्तित्व ही था कि उन्होंने जल्द ही पार्टी में जान डाल कर कार्यकर्ताओं में जोश फूंक दिया.

60-70 के दशक की अल्हड़ कमसिन अभिनेत्री अब एक परिपक्व नेत्री बन गई थी. इस बीच उन के व्यक्तिगत जीवन के कई किस्से और घटनाएं आम हो चुके थे. मसलन यह कि कैसे एक फिल्म की शूटिंग के दौरान एमजीआर ने उन्हें गोद में उठाया था, साथ ही यह भी कि सन 1980 में वह इतने अवसाद में आ गई थीं कि उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की थी.

उस वक्त एमजीआर ने ही उन्हें भावनात्मक सहारा दिया था. इतना ही नहीं, एमजीआर उन्हें पार्टी का प्रचार सचिव बना कर सक्रिय राजनीति में ला कर और जीने की नई वजह और जीवन का मकसद दिया.

जानकी राजनीति में ज्यादा चल नहीं पाईं, लिहाजा उन का गुट भी जयललिता की शरण में आ गया. इस से एआईएडीएमके को और मजबूती मिली. जयललिता ने ताबड़तोड़ तरीके से प्रचार अभियान चलाया. इस के बाद भी वह एमजीआर जितनी मजबूती नहीं हो पाईं.

इस की मुकम्मल वजह भी थी. दरअसल तमिलनाडु की जनता उन्हें चाहती तो थी, पर हर कोई सहज विश्वास नहीं कर पा रहा था कि एक कट्टर ब्राह्मण परिवार की जयललिता मूलत: ब्राह्मण विरोधी विचारधारा या अभियान को अंजाम तक ले जा पाएंगी. सन 1987 से ले कर 89 तक जयललिता लोगों को यही समझाती रहीं कि परंपरावादी और आस्तिक होने के बाद भी वह वैचारिक रूप से अन्नादुरई और एमजीआर के द्रविड़ आंदोलन की मशाल बुझने नहीं देंगी. हालांकि यह एक बेहद विरोधाभासी बात थी, क्योंकि वह विकट की अंधविश्वासी महिला थीं. हरे रंग का इस्तेमाल इस की मिसाल था.

विपक्ष की नेता के रूप में वह डीएमके सरकार के हर स्तर पर ज्यादा आक्रामक रहीं. मार्च, 1989 में विधानसभा में जब राज्य का बजट पेश हो रहा था, तब फोन टैपिंग का मसला उन के एक समर्थक ने उठाया तो सदन में बवाल मच गया. एक डीएमके विधायक ने उन की साड़ी का पल्लू खींचा, जिस से वह जमीन पर गिर गईं.

और उठीं तो इस कसम के साथ कि अब विधानसभा तभी जाऊंगी, जब सीएम बन जाऊंगी. सन 1991 के चुनाव में जयललिता ने कांग्रेस से हाथ मिलाया, जो उन की मजबूरी भी हो गई थी, क्योंकि राजीव गांधी की हत्या के बाद लोगों की सहानुभूति कांग्रेस से थी, जिसे उन्होंने कूटनीतिक तरीके से भुनाया. एआईएडीएमके-कांग्रेस गठबंधन ने डीएमके से सत्ता छीन ली.

सन 1991 से ले कर 96 तक जयललिता ने आम लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाएं, खासतौर से महिलाओं के लिए चलाईं. इन योजनाओं को आम लोगों ने पसंद किया, पर जिस वैचारिक आंदोलन की बुनियाद पर वह शिखर तक पहुंची थीं, उसे उन्होंने अनदेखा कर दिया था. नतीजतन सन 1996 के चुनाव में उन्हें खारिज कर दिया गया.

डीएमके प्रमुख करुणानिधि ने उन्हें बख्शा नहीं. जयललिता पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे, जो बाद में साबित भी हुए. एक छापे में उन के घर से 12 हजार साडि़यां, 30 किलोग्राम सोने के गहने और सैकड़ों जोड़ी सैंडिलें बरामद हुईं  थीं.

यह जयललिता की शाही जिंदगी की एक झलक भर थीं. करिश्माई तरीके से वह फिर सन 2001 का चुनाव जीतीं. अब तक तमिलनाडु में वह अम्मा के नाम से पुकारी जाने लगी थीं. लोग उन्हें पुरात्वी थलावी यानी क्रांति की नायिका भी कहने लगे थे.

इस के बाद उतारचढ़ाव आते रहे और सन 2011 का चुनाव जीत कर वह फिर छठीं बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं. जितना बेइज्जत उन्हें करुणानिधि ने किया था, उस का उन्होंने सूद समेत बदला लिया. फिल्मी तर्ज वाली प्रतिशोध की यह शैली और भावना खूब पसंद की गई. लेकिन तब तक द्रविड़ आंदोलन फिल्म से गायब हो गया था, संभवत: इस की जरूरत खत्म हो गई थी.

दरअसल, जरूरत खत्म नहीं हुई थी, बल्कि हुआ यह था कि जयललिता ने आंदोलन का रुख मोड़ कर उसे गरीबों की जरूरतों पर फोकस कर दिया था. अम्मा पानी से ले कर अम्मा सीमेंट जैसी दर्जन भर योजनाओं से वाकई गरीबों का भला हो रहा था, इसलिए किसी भी जातिगत आंदोलन के कोई मायने नहीं रह गए थे.

द्रविड़ों और आर्यों के डीएनए में क्या फर्क है, यह पूरी दुनिया ने 5 दिसंबर को जयललिता की मौत के बाद देखा. लाखों लोग अम्मा की मौत के बाद चेन्नै पहुंचे, उन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ले कर लगभग सभी राज्यों के मुख्यमंत्री और लोकप्रिय फिल्मी हस्तियां शामिल थीं.

जयललिता जातेजाते जता गईं कि जमीनी राजनीति क्या होती है और लोकप्रियता के सही मायने क्या होते हैं.  

जिस्म की चाहत में जुर्म: भाग 1

1 दिसंबर की सुबह 11 बजे के करीब कृष्णवल्लभ गुप्ता लिफ्ट से 7वीं मंजिल पर स्थित अपने फ्लैट नंबर 702 पर पहुंचे तो उन्हें फ्लैट के दरवाजे की सिटकनी बाहर से बंद मिली. उन्हें लगा कि रुचिता किसी काम से ऊपर वाले फ्लैट में गई होगी, इसलिए बाहर से सिटकनी बंद है. सिटकनी खोल कर वह अंदर पहुंचे तो बच्चों के बैडरूम के सामने उन्हें कई जगह खून के निशान दिखाई दिए.

उन्हें लगा कि रुचिता के हाथ या पैर में कुछ लग गया होगा, उसी के खून के ये निशान हैं. उन्होंने रुचिता को आवाज दी, ‘‘रुचि…ओ रुचि…कहां हो भई तुम?’’

रुचिता नहीं बोली तो कृष्णवल्लभ ऊपर वाले फ्लैट में उसे देखने गए. वह वहां भी नहीं मिली तो उन्हें संदेह हुआ. अपने फ्लैट में आ कर उन्होंने कमरों में ही नहीं, बाथरूम, टौयलेट में भी देखा, लेकिन रुचिता कहीं नहीं मिली.

इस तलाश में उन्हें फ्लैट में कुछ अन्य जगहों पर भी खून के निशान नजर आए. इस के बाद उन्होंने रुचिता के मोबाइल पर फोन किया. फोन की घंटी तो पूरी बजी, लेकिन फोन रिसीव नहीं हुआ.

कृष्णवल्लभ थोड़ा परेशान हुए. उन्होंने भूतल पर अपार्टमेंट के सुरक्षागार्ड प्रेम बहादुर को फोन कर के रुचिता के बारे में पूछा तो उस ने बताया कि मैडम न तो नीचे आई हैं और न ही अपार्टमेंट से बाहर गई हैं. इस के बाद उन्होंने उसे फ्लैट में खून के निशान मिलने की बात बता कर ऊपर बुला लिया.

वह ऊपर पहुंचा तो खून के निशान देख कर वह भी चौंका. एक बार फिर कृष्णवल्लभ ने गार्ड के साथ रुचिता की तलाश शुरू की. गार्ड प्रेम बहादुर ने फ्लैट के स्टोररूम का दरवाजा खोला तो नीचे फर्श पर सामने ही रुचिता की लाश पड़ी दिखाई दी. उस के आसपास खून फैला था.

लाश देख कर प्रेम बहादुर चीख पड़ा. कृष्णवल्लभ भाग कर उस के पास आए और रुचिता की नब्ज टटोल कर देखी तो वह शांत थी. पत्नी की मौत के बारे में जान कर वह जोर से चिल्लाए. उन के चिल्लाने की आवाज सुन कर पड़ोसी आ गए.

यह घटना उदयपुर शहर के न्यू भूपालपुरा के लक्ष्मण वाटिका के पास बने आर्बिट-1 अपार्टमेंट की है. कृष्णवल्लभ गुप्ता इस बहुमंजिला अपार्टमेंट में 7वीं मंजिल पर बने फ्लैट में पत्नी रुचिता, 9 साल की बेटी अविशी और 8 साल के बेटे अरनव के साथ रहते थे. दिनदहाड़े फ्लैट में महिला की हत्या होने से पूरे अपार्टमेंट में सनसनी फैल गई थी.

सूचना पा कर कुछ ही देर में थाना सुखेर पुलिस घटनास्थल पर आ गई थी. फ्लैट और लाश के निरीक्षण में साफ लग रहा था कि मृतका ने आखिरी दम तक संघर्ष किया था. हत्या किसी नुकीली चीज के अलावा सिर को दीवार में पटक कर की गई थी.

फ्लैट की स्थिति से साफ लग रहा था कि लूटपाट जैसा कुछ नहीं हुआ था. रसोई में गैस चूल्हे पर दूध रखा था. घर में रुचिता के मोबाइल की तलाश की गई, लेकिन वह नहीं मिला. अब तक यह समझ में नहीं आया था कि रुचिता की हत्या क्यों की गई थी? फ्लैट में न तो चोरी हुई थी और न ही कोई दूसरी ऐसी बात सामने आई, जिस से हत्या का पता चलता.

सूचना पा कर उदयपुर के ही सैक्टर-4 में रहने वाली रुचिता की मौसी मोनिका जैन और कुछ अन्य रिश्तेदार तथा परिचित आ गए थे. पूछताछ में कृष्णवल्लभ ने बताया था कि वह एलएलबी फाइनल ईयर की पढ़ाई कर रहा था. इस के अलावा वह सीए भी कर रहा था.

रुचिता वकील थी और उदयपुर बार एसोसिएशन की सदस्य भी थी. कभीकभी वह कोर्ट भी जाती थी. वह जज बनना चाहती थी, इसलिए राजस्थान न्यायिक सेवा (आरजेएस) परीक्षा की तैयारी कर रही थी. इस के लिए वह सुबह करीब साढ़े 7 बजे कोचिंग जाती थी.

उस दिन भी वह सुबह अपने समय पर कोचिंग चली गई थी. उस के बाद दोनों बच्चे स्कूल चले गए थे. साढ़े 8 बजे वह भी कालेज चला गया था. तब तक रुचिता कोचिंग से आई नहीं थी. अपार्टमेंट से निकलते समय उस ने सुरक्षागार्ड प्रेम बहादुर से कहा था कि दूध वाला आए तो मैडम से कह देना कि दूध ले लेंगी. 11 बजे के करीब वह घर लौटा तो फ्लैट के दरवाजे की बाहर से सिटकनी लगी थी और अंदर स्टोररूम में रुचिता की लाश पड़ी थी.

कृष्णवल्लभ की बातों से साफ हो गया था कि रुचिता की हत्या सुबह साढ़े 8 से 11 बजे के बीच हुई थी. पुलिस ने पड़ोसियों और सुरक्षागार्ड प्रेम बहादुर से भी पूछताछ की लेकिन ऐसी कोई बात सामने नहीं आई, जिस से हत्या या हत्यारे के बारे में कुछ पता चलता.

पुलिस ने घटनास्थल की काररवाई कर के लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेजना चाहा तो रुचिता की मौसी मोनिका जैन ने आग्रह किया कि रुचिता के घर वाले अजमेर से चल पड़े हैं, उन्हें आ जाने दीजिए. उस के बाद लाश को पोस्टमार्टम के लिए भिजवाइएगा. पुलिस ने उन की बात मान ली.

इस बीच पुलिस जांच करती रही. एसएफएल टीम ने भी आ कर सारे साक्ष्य जुटा लिए थे. दोपहर में रुचिता के दोनों बच्चे स्कूल से आए तो उन्हें कुछ बताए बगैर मोनिका जैन ने अपने घर भिजवा दिया. शाम को रुचिता के पिता दुलीचंद जैन एवं भाई विवेक उर्फ सोनू पहुंचे तो लाश देख कर दोनों रोने लगे.

पिता और भाई ने रुचिता की हत्या के लिए कृष्णवल्लभ को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि शराब पी कर वह रुचिता के साथ मारपीट करता था. रोजाना फोन कर के वह पति की हरकतें बताती थी. रुचिता के नाम पर लिया गया फ्लैट और उस के गहने भी उस ने बेच दिए थे. पिता और भाई ने रुचिता की हत्या का कृष्णवल्लभ गुप्ता पर आरोप लगाते हुए उस के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज करने के लिए तहरीर भी दे दी थी.

रुचिता के पिता और भाई द्वारा दी गई तहरीर को मुकदमा दर्ज करने थाने भेज दिया गया था. इस के बाद बाकी की काररवाई कर के लाश को पोस्टमार्टम के लिए एमबी अस्पताल भिजवा दिया था. चूंकि कृष्णवल्लभ गुप्ता को नामजद किया था, इसलिए पुलिस उसे साथ ले कर थाने आ गई थी.

थाने में पूछताछ में भी कृष्णवल्लभ ने वही बातें दोहराईं. पुलिस ने उस की बातों की सच्चाई के बारे में पता किया तो उस ने बताया था कि वह लौ कालेज का रेग्युलर स्टूडेंट है, लेकिन वह रोजाना नहीं, कभीकभी कालेज जाता था. अब सवाल यह था कि जब वह रोजाना कालेज नहीं जाता था तो उस दिन कालेज क्यों गया था?

उस ने बताया था कि बच्चों के उठने से पहले रुचिता कोचिंग चली गई थी, जबकि बच्चों ने बताया था कि सुबह उन का टिफिन बना कर मम्मी ने ही दिया था. सुबह 10 बजे के करीब चौकाबरतन करने वाली बाई हेमा आई थी तो दरवाजे पर ताला लगा था.

दूसरी ओर कृष्णवल्लभ ने बताया था कि 11 बजे जब वह फ्लैट पर पहुंचा था तो दरवाजे पर बाहर से सिटकनी लगी थी और रुचिता का शव स्टोररूम में पड़ा था. उस ने फ्लैट के अंदर आ कर भी शव क्यों नहीं देखा? लाश सुरक्षागार्ड ने देखी. उस के हाथ के नाखूनों पर खून लगा था, जिस के बारे में उस का कहना था कि रुचिता के शव को देखते समय उस के शरीर पर लगा खून उस के हाथों में लग गया होगा.

रुचिता के पिता और भाई का कहना था कि कृष्णवल्लभ बड़ा ही गुस्सैल व हिंसक प्रवृत्ति का था. अकसर पतिपत्नी में झगड़ा होता रहता था. उन्होंने बताया था कि कुछ महीने पहले उस ने रुचिता को जान से मारने की धमकी भी दी थी. हालांकि पड़ोसियों ने झगड़े की बातें नहीं बताई थीं.

पूछताछ में यह भी पता चला कि कुछ समय पहले रुचिता पति, बच्चों और भाई के साथ दुबई घूमने गई थी. वहां किसी बात पर विवाद हो गया तो कृष्णवल्लभ दोनों बच्चों को छोड़ कर चला आया था. बाद में रुचिता का भाई उन्हें ले कर आया था. कृष्णवल्लभ ने बताया था कि वह साढ़े 8 बजे कालेज के लिए निकला था. तब तक रुचिता घर नहीं लौटी थी.

जबकि अपार्टमेंट के कुछ लोगों ने बताया था कि साढ़े 8 बजे उन्हें रुचिता अपार्टमेंट की लिफ्ट में मिली थी. इस के अलावा कृष्णवल्लभ ने उस दिन से पहले अपार्टमेंट के सुरक्षागार्ड से कभी यह नहीं कहा था कि दूधवाला आए तो मैडम से कह देना कि दूध ले लेंगी.

ये बातें कृष्णवल्लभ गुप्ता को संदेह के दायरे में ला रही थीं. जबकि हत्या में किसी भी तरह से अपना हाथ होने से वह मना कर रहा था. पुलिस ने रुचिता के मोबाइल को सर्विलांस पर लगवा दिया था. पुलिस कृष्णवल्लभ से पूछताछ कर ही रही थी कि रात होतेहोते इस मामले में एक नया मोड़ आ गया.

अपार्टमेंट की 8वीं मंजिल के फ्लैट नंबर 892 में रहने वाले अरविंद कोठारी का 22 साल का बेटा दिव्य अचानक लापता हो गया. लापता होने से पहले वह अपने कमरे में एक पत्र छोड़ गया था, जिस में उस ने लिखा था, ‘रुचिता की हत्या से मेरा कोई लेनादेना नहीं है. मैं काफी परेशान हूं. दिन में पुलिस ने मुझ से पूछताछ की थी, लेकिन मम्मीपापा, मैं ने कुछ नहीं किया.’

अचानक इस तरह दिव्य कोठारी का गायब होना और छोड़े गए पत्र में ‘रुचिता की हत्या से मेरा कोई लेनादेना नहीं है’ वाली बात ने पुलिस को उलझा दिया था. उस के घर वालों का कहना था कि दोपहर के करीब 2 बजे वह बिना बताए मोटरसाइकिल से कहीं चला गया था. जब रात तक वह घर नहीं लौटा तो उन्हें चिंता हुई. उन्होंने उस के मोबाइल पर फोन किया, लेकिन बात नहीं हुई. उस का सामान देखा गया तो उसी में वह पत्र मिला था.

प्यार में अपहरण

15 सितंबर, 2016 को अपने दोनों बेटों को स्कूल भेजने के बाद परमजीत कौर घर के  जरूरी काम निपटा कर बाजार चली गई थी. बाजार से लौटने में उसे दोपहर के 2 बज गए. बाजार से लाया सामान रख कर उस ने मां से पूछा, ‘‘बीजी, अभी बच्चे स्कूल से नहीं आए क्या?’’

‘‘थकीमांदी आई हो, आराम से एक गिलास पानी पियो. बच्चे आते ही होंगे, वे कहां जाएंगे, रास्ते में खेलने लग गए होंगे.’’

‘‘बीजी, गांव के सारे बच्चे आ गए हैं, मेरे ही बेटे कहां रह गए?’’ परेशान परमजीत

कौर ने कहा, ‘‘मैं जरा देख कर आती हूं.’’

परमजीत कौर घर से निकल रही थी, तभी घर के बाहर उस के पिता पाला सिंह मिल गए. बच्चों के स्कूल से न आने की बात सुन कर वह भी परेशान हो उठे. बच्चों की तलाश में परमजीत कौर के साथ वह भी चल पड़े. पाला सिंह और परमजीत कौर ने गांव के लगभग सभी बच्चों से अपने बच्चों के बारे में पूछा, पर कोई भी बच्चा उन के बारे में नहीं बता सका.

बच्चों ने सिर्फ यही बताया था कि स्कूल की छुट्टी होने पर उन्होंने उन्हें देखा तो था, लेकिन उस के बाद वे कहां चले गए, यह किसी को पता नहीं था. बच्चों के न मिलने से परमजीत कौर का बुरा हाल था. किसी अनहोनी के बारे में सोच कर वह फूटफूट कर रो रही थी. स्कूल के अध्यापक सतपाल और प्रिंसिपल जगदीश कुमार ने भी बताया था कि छुट्टी होने तक तो दोनों बच्चे साथसाथ दिखाई दिए थे. लेकिन स्कूल से निकलने के बाद वे किधर गए, उन्हें पता नहीं था.

परमजीत कौर के मन में एक ही सवाल बारबार उठ रहा था कि आखिर उस के बच्चे कहां चले गए? रोरो कर वह सब से पूछ भी यही रही थी. शाम करीब 4 बजे गांव के ही हरप्रीत से पता चला कि उस के दोनों बेटों अंकुशदीप और जशनदीप को एक आदमी अपनी मोटरसाइकिल पर बैठा कर ले गया था.

वह मोटरसाइकिल सवार कौन था, हरप्रीत यह नहीं बता सका था. उस ने बताया था कि वह अपने मुंह पर काला कपड़ा बांधे था, इसलिए वह उसे पहचान नहीं सका था. कोई अंजान आदमी अपनी मोटरसाइकिल पर दोनों बच्चों को बिठा कर ले गया था, इस का मतलब था कि उन का अपहरण हुआ था.

इतना जानने के बाद समय बेकार करना ठीक नहीं था, इसलिए पाला सिंह बेटी परमजीत कौर, स्कूल के प्रिंसिपल जगदीश कुमार और गांव के कुछ लोगों को साथ ले कर पुलिस को सूचना देने जिला फाजिल्का के थाना बहाववालापुरा की पुलिस चौकी वजीदपुर भीमा जा पहुंचे.

चौकीप्रभारी मुंशीराम ने उन लोगों की बातें ध्यान से सुनने के बाद थानाप्रभारी तेजेंद्रपाल सिंह के अलावा उच्चाधिकारियों को भी घटना की सूचना दे दी. इस के बाद उन्हीं के निर्देश पर 8 साल के अंकुशदीप सिंह और 6 साल के जशनदीप सिंह के अपहरण का मुकदमा अज्ञात के खिलाफ दर्ज कर काररवाई शुरू कर दी.

मुकदमा दर्ज होते ही चौकीप्रभारी मुंशीराम ने शहर से बाहर जाने वाले सभी प्रमुख मार्गों पर नाके लगवा दिए. छोटीबड़ी हर गाड़ी की तलाशी ली जाने लगी. पुलिस अपनी काररवाई कर ही रही थी कि चौकी वजीदपुर भीमा के मुंशी के पास एक फोन आया, जिस में फोन करने वाले ने कहा, ‘‘मैं गुरजंट सिंह बोल रहा हूं. अपने साहब से कह दो कि जिन बच्चों को वे ढूंढ रहे हैं, उन के लिए वे परेशान न हों. बच्चे मेरे पास हैं. यह हमारा आपस के लेनदेन का मामला है, इसलिए आप लोगों को बीच में पड़ने की जरूरत नहीं है.’’

यही बात परमजीत कौर को भी फोन कर के कही गई थी. फोन करने वाले ने उस से कहा था, ‘‘मैं बच्चों का अंकल बोल रहा हूं. तुम ने मुझ से जो 20 हजार रुपए लिए थे, उन्हें दे जाओ और मुझ से शादी कर लो. अगर तुम ने मेरी बात मान ली तो मैं तुम्हारे दोनों बेटों को छोड़ दूंगा. अगर नहीं मानी तो उन के छोटेछोटे टुकड़े कर के कहीं फेंक दूंगा.’’

ये दोनों फोन एक ही नंबर से किए गए थे. पुलिस इस सोच में पड़ गई कि फोन करने वाला सनकी है या फिर बेहद चालाक? कहीं वह पुलिस को अपनी इन बातों में उलझा कर कोई नया खेल तो नहीं खेलना चाहता?

बहरहाल, बच्चों की सुरक्षा बेहद जरूरी थी. इसलिए मुंशीराम ने तुरंत उस नंबर की लोकेशन पता करवाई, जो शहर के बाहरी इलाके सीतोगुन्नो की मिली. सीतोगुन्नो जाने के लिए एक टीम तैयार की गई, जिस में थानाप्रभारी तजेंद्रपाल सिंह ने चौकीप्रभारी मुंशीराम, हैडकांस्टेबल सुखदेव सिंह, रमेश कुमार, दलजीत सिंह, कांस्टेबल सरवन, मक्खन और जगदीप सिंह को शामिल किया.

सीतोगुन्नो गांव के पास एक ऊंची पहाड़ी जैसी जगह थी, जिसे पुलिस टीम ने घेर लिया और गुरजंट की तलाश शुरू कर दी. तलाश करती पुलिस टीम जब एक टीले के पास पहुंची तो वहां झाड़ी के पास दोनों बच्चे जमीन पर अर्द्धबेहोशी की हालत में पड़े दिखाई दिए. दोनों बच्चों के हाथपैर और मुंह को बड़ी बेरहमी के साथ बांधा गया था.

मुंशीराम ने जल्दी से बच्चों के हाथपैर तथा मुंह खोला और उन्हें बहाववालापुरा के अस्पताल पहुंचाया. बाकी पुलिस टीम गुरजंट की तलाश में वहीं जमी रही. लेकिन गुरजंट भाग गया था, क्योंकि काफी तलाश के बाद भी वह वहां नहीं मिला था. इस की वजह यह थी कि वह काफी ऊंचाई पर था, जिस से उस ने पुलिस को आते देख लिया होगा.

बहरहाल, थोड़ी देखभाल के बाद दोनों बच्चे स्वस्थ हो गए थे. मुंशीराम ने अंकुशदीप और जशनदीप को सकुशल परमजीत कौर के हवाले कर दिया. अब उन्हें पता करना था कि गुरजंट कौन था और उस ने परमजीत कौर के बेटों का अपहरण क्यों किया था?

मुंशीराम ने गुरजंट की गिरफ्तारी के प्रयास तेज कर दिए. आखिर उन की मेहनत रंग लाई और पैसों की कमी से परेशान हो कर अपने किसी दोस्त से पैसे लेने बसअड्डे के पास आए गुरजंट को मुखबिर की सूचना पर उन्होंने गिरफ्तार कर लिया. उस से और परमजीत कौर तथा उस के पिता पाला सिंह से की गई पूछताछ के बाद बच्चों के अपहरण की जो कहानी सामने आई, वह इस प्रकार थी—

पाला सिंह जिला फाजिल्का के थाना बहाववालापुरा के गांव हिम्मतपुरा के रहने वाले थे. खेती कर के गुजरबसर करने वाले पाला सिंह की बेटी परमजीत कौर शादी लायक हुई तो उन्होंने सन 2006 में जिला बठिंडा के थाना भुचोमंडी के गांव खुइयां कोठी के रहने वाले रेशम सिंह से उस का विवाह कर दिया. शादी के बाद परमजीत कौर 2 बेटों अंकुशदीप सिंह और जशनदीप सिंह की मां बनी.

भले ही परमजीत कौर की शादी हुए 8 साल हो गए थे और वह 2 बच्चों की मां बन गई थी, लेकिन उस की अपने पति रेशम सिंह से कभी नहीं पटी. वह कमाता तो ठीकठाक था, लेकिन न वह बीवी का खयाल रखता था और न बच्चों का. यही नहीं, शराब पी कर वह हैवान बन जाता था. छोटीछोटी बातों पर क्लेश करते हुए वह मारपीट के लिए उतारू हो जाता था.

रोज की इस क्लेशभरी जिंदगी से तंग आ कर परमजीत कौर अपने दोनों बेटों को ले कर करीब 3 साल पहले सन 2013 में पति का घर छोड़ कर पिता पाला सिंह के घर आ कर रहने लगी. मांबाप को बोझ न लगे, इस के लिए वह पास की ही एक फैक्ट्री में नौकरी करने लगी. नौकरी लगने के बाद उस ने सिविल कोर्ट में तलाक का मुकदमा कर दिया था. बच्चों के भविष्य को ध्यान में रख कर उस ने गांव के सरकारी स्कूल में उन का दाखिला करा दिया था.

सुबह नौकरी पर जाने के बाद बच्चे दोपहर को घर आते थे तो उस की अनुपस्थिति में उन का खयाल उस की मां अमरजीत कौर रखती थीं. परमजीत कौर को पिता के घर रहते लगभग 3 साल हो गए थे. पिछले साल उस की मुलाकात गुरजंट सिंह से हुई, जो जल्दी ही जानपहचान में बदल गई. गुरजंट सिंह भी वहीं काम करता था, जहां परमजीत कौर करती थी. एक साथ, एक ही जगह पर काम करते हुए ही दोनों में जानपहचान हुई थी.

इस के आगे परमजीत कौर ने न कभी कुछ सोचा था और न ही कुछ सोचने की स्थिति में थी. पति से तलाक के बाद आगे क्या करना है, यह उस के पिता को सोचना था. जबकि जानपहचान होते ही गुरजंट सिंह ने परमजीत कौर को ले कर बहुत आगे की सोच ली थी. वह उस से शादी करने के बारे में सोचने लगा था. एक दिन उस ने यह बात परमजीत कौर से कह भी दी.

परमजीत कौर नेक, शरीफ और धैर्यवान औरत थी. उस ने गुरजंट सिंह को प्यार से समझाते हुए कहा था, ‘‘हम एक साथ काम करते हैं, उठतेबैठते हैं और खातेपीते हैं, यह तो ठीक है? लेकिन रही शादी की बात तो यह न मुझे अच्छी लगती है और न मैं इस बारे में सोचना चाहती हूं.’’

‘‘तो क्या तुम पूरी जिंदगी बिना पति के गुजार दोगी?’’

‘‘यह मेरी समस्या है और इस का समाधान ढूंढना मेरे मातापिता की जिम्मेदारी है, इसलिए तुम्हें इस की चिंता करने की जरूरत नहीं है.’’ परमजीत कौर ने साफसाफ कह दिया.

कहने को तो परमजीत कौर ने गुरजंट को बड़े सभ्य तरीके से समझा दिया था, लेकिन वह अपनी आदत से बाज नहीं आया. वह जब भी परमजीत कौर से मिलता, शादी की ही बात करता. यही नहीं, अब वह आतेजाते परमजीत कौर से छेड़छाड़ भी करने लगा था.

बात जब हद से आगे बढ़ने लगी तो एक दिन परमजीत कौर ने सारी बातें अपने पिता पाला सिंह को बता कर गांव में पंचायत बुला ली. पंचायत ने गुरजंट और उस के पिता हरपाल सिंह को बुलवा लिया.

गुरजंट सिंह जिला श्रीमुक्तसर साहिब के थाना लंबी के गांव भाटीवाला का रहने वाला था. पंचायत ने जब गुरजंट सिंह को उस के पिता के सामने बहूबेटियों को छेड़ने के आरोप में सजा देने की बात की तो उस के पिता ने हाथ जोड़ कर माफी मांगी और वचन दिया कि भविष्य में गुरजंट कभी इस गांव के आसपास भी दिखाई नहीं देगा. उसी दिन हरपाल सिंह गुरजंट को ले कर गांव चला गया. यह जुलाई, 2016 की बात है.

उस दिन के बाद गुरजंट सिंह परमजीत कौर को तो क्या, गांव के भी किसी आदमी को दिखाई नहीं दिया. 3 महीने बाद अचानक गांव आ कर उस ने बड़ी होशियारी से परमजीत कौर के दोनों बेटों का अपहरण कर लिया, ताकि उस पर दबाव डाल कर वह उस से शादी कर सके.

पूछताछ के बाद मुंशीराम ने इस मुकदमे में अपहरण के साथ षडयंत्र की धारा को जोड़ कर गुरजंट सिंह को अदालत में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया.

इस के बाद गुरजंट के पिता हरपाल सिंह ने गांव में पंचायत बुला कर परमजीत कौर और गांव वालों से माफी मांगते हुए कहा कि वे एक बार फिर गुरजंट को माफ कर दें. लेकिन अब क्या हो सकता था. अब तो मामला पुलिस और न्यायालय तक पहुंच चुका था. उस ने जो किया था, उस की सजा तो उसे भोगनी ही पड़ेगी.

– हरमिंदर खोजी

शराब है खराब

संजय को शराब पीने की लत उस समय लगी जब वह 10वीं में पढ़ रहा था और बोर्ड की परीक्षा में कम अंक आने की वजह से उस ने अपने जैसे कुछ दोस्तों के साथ टैंशन कम करने के लिए पहली बार बियर पी थी. इस के बाद वह धीरेधीरे इस का आदी होता चला गया. जिस के चलते वह इंटर की परीक्षा में दो बार फेल हुआ. जब इस बात की जानकारी संजय के पिता को हुई तो उन्होंने संजय की पढ़ाई बीच में ही छुड़वा कर उसे अपने कपड़े के व्यवसाय में सहयोग करने के लिए अपने साथ ही लगा लिया, लेकिन संजय अपनी शराब पीने की बुरी आदत के चलते पिता के व्यवसाय से होने वाली आमदनी से पैसे चुरा  कर शराब पीने लगा था, जिस को ले कर अकसर संजय व उस के पिता में तूतू, मैंमैं होती रहती थी.

एक दिन संजय को उलटियां होने लगीं जो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं. संजय के घर वाले आननफानन में उसे ले कर अस्पताल  ले गए, जहां जरूरी चैकअप के बाद डाक्टर ने बताया कि अत्यधिक शराब के सेवन के चलते संजय को लिवर का कैंसर हो गया है जो अपनी अंतिम अवस्था में है. संजय के बचने के चांसेज बहुत कम हैं. डाक्टरों ने उसे बचाने की भरपूर कोशिश की लेकिन बचा नहीं पाए.

एकलौते बेटे की मौत ने संजय के पिता को तोड़ दिया. संजय की शराब पीने की लत के कारण उस का कैरियर तो दांव पर लगा ही साथ ही शराब ने उस की जान भी ले ली.

शराब से ऐसा बुरा हश्र सिर्फ संजय का ही नहीं बल्कि हर रोज हजारों लोगों का होता है. शराब न केवल स्वास्थ्य पर बुरा असर डालती है बल्कि यह अपराध को भी बढ़ावा देने का एक प्रमुख कारण है. शराब पीने के बाद व्यक्ति का दिल और दिमाग अच्छे और बुरे में फर्क करना भूल जाता है. शराब की वजह से व्यक्ति अपनी सुधबुध खो बैठता है. ऐसे में वह अपने से बड़ों से अभद्रता से बात करने में भी नहीं हिचकता. 

शराब की लत की वजह

अकसर शौकिया तौर पर शराब पीने की शुरुआत होती है जो धीरेधीरे उन की आवश्यकता बन जाती है. शराब की लत का एक बड़ा कारण घरेलू माहौल भी है, क्योंकि जब घर का कोई बड़ा सदस्य घर के दूसरे सदस्यों व बच्चों के सामने खुलेआम शराब पीता है या पी कर आता है तो अनुभव लेने की इच्छा के चलते पत्नी, बच्चे व घर के अन्य सदस्य भी शराब पीने के आदी हो सकते हैं.

शराब की लत लगने का एक कारण गलत संगत भी है. अगर व्यक्ति शराब पीने वाले साथियों के साथ ज्यादा समय बिताता है तो उसे शराब की लत पड़ सकती है. तमाम लोग शराब को अपना सोशल स्टेटस मानते हैं.

शराब की लत लगने की एक बड़ी वजह निराशा, असफलता व हताशा को भी माना जाता है, क्योंकि अकसर लोग इन चीजों को भुलाने के लिए शराब का सहारा लेते हैं जो बाद में बरबादी का कारण भी बनता है.

पढ़ाई व कैरियर

किशोरों व युवाओं में नशे की लत दिनोदिन बढ़ती जा रही है. इस कारण शराब उन की पढ़ाई व कैरियर के लिए बाधा बन जाती है.

सामाजिक व आर्थिक नुकसान

शराबी व्यक्ति की समाज में इज्जत नहीं होती, शराब की लत के चलते परिवार में सदैव आर्थिक तंगी बनी रहती है, जिस वजह से परिवार के सदस्यों के साथ मारपीट आम बात हो जाती है. शराब की जरूरतों को पूरा करने के लिए व्यक्ति अपनी स्थायी जमा पूंजी भी दांव पर लगा देता है, जिस से बच्चों की पढ़ाई व कैरियर भी प्रभावित होता है. 

स्वास्थ्य की दुश्मन

स्वास्थ्य के लिए शराब जहर की तरह है जो व्यक्ति को धीरेधीरे मौत की तरफ ले जाती है. मानसिक व नशा रोग विशेषज्ञ डा. मलिक मोहम्मद अकमलुद्दीन के अनुसार शराब में पाया जाने वाला अलकोहल शरीर के कई अंगों पर बुरा असर डालता है, जिस की वजह से 200 से भी अधिक बीमारियां होने का खतरा बना रहता है. 

अत्यधिक शराब पीने से शरीर में विटामिन और अन्य जरूरी तत्त्वों की कमी हो जाती है. शराब का लगातार प्रयोग पित्त के संक्रमण को बढ़ाता है, जिस से ब्रैस्ट और आंत का कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है.

शराब में पाया जाने वाला इथाइल अलकोहल लिवर सिरोसिस की समस्या को जन्म देता है जो बड़ी मुश्किल से खत्म होने वाली बीमारी है. इथाइल अलकोहल की वजह से पाचन क्रिया गड़बड़ा जाती है, जिस से लिवर बढ़ जाता है और ऐसी अवस्था में भी व्यक्ति अगर पीना जारी रखता है तो अलकोहल हैपेटाइटिस नाम की बीमारी लग जाती है. 

सैक्स पर असर

जिला अस्पताल बस्ती के चिकित्सक डा. बी के वर्मा के अनुसार शराब सैक्स के लिए जहर है. लोग सैक्स संबंधों का अधिक मजा लेने के चलते यह सोच कर शराब पीते हैं कि वे लंबे समय तक आत्मविश्वास के साथ सहवास कर पाएंगे, लेकिन लगातार शराब के सेवन के चलते प्राइवेट पार्ट में तनाव आना कम हो जाता है, जिस का नतीजा नामर्दी के रूप में दिखता है. कामेच्छा की कमी के साथ ही महिलाओं की माहवारी अनियमित हो जाती है.

सड़क दुर्घटना का कारण

अकसर सड़क दुर्घटना का सब से बड़ा कारण शराब पी कर गाड़ी चलाना होता है, क्योंकि शराब पीने के बाद गाड़ी ड्राइव करने वाले का दिमाग उस के वश में नहीं रहता और ड्राइव करने वाला व्यक्ति गाड़ी से नियंत्रण खो देता है और दुर्घटना हो जाती है.

अपराध को बढ़ावा

शराब का नशा दुनिया भर में होने वाले अपराधों की सब से बड़ी वजह माना जाता है. अकसर शराबी व्यक्ति नशे में अपने होशोहवास खो कर ही अपराध को अंजाम देता है.             

ऐसे पाएं छुटकारा

शराब की लत का शिकार व्यक्ति इस से होने वाली हानियों को देखते हुए अकसर शराब को छोड़ने की कोशिश करता है, लेकिन प्रभावी कदम की जानकारी न होने की वजह से वह शराब व नशे से दूरी नहीं बना पाता है. यहां दिए उपायों को अपना कर व्यक्ति शराब जैसी बुरी लत से छुटकारा पा सकता है : 

–       अगर आप शराब की लत के शिकार हैं और इस से दूरी बनाना चाहते हैं तो इस को छोड़ने के लिए खास तिथि का चयन करें. यह तिथि आप की सालगिरह वगैरा हो सकती है. छोड़ने से पहले इस की जानकारी अपने सभी जानने वालों को जरूर दें.

–       अगर आप का बच्चा शराब का शिकार है तो मातापिता को चाहिए कि उस की गतिविधियों पर नजर रखें और समय रहते किसी नशामुक्ति केंद्र ले जाएं और मानसिक रोग विशेषज्ञ से संपर्क जरूर करें.

–       ऐसी जगहों पर जाने से बचें जहां शराब की दुकानें या शराब पीने वाले लोग मौजूद हों, क्योंकि ऐसी

अवस्था में फिर से आप की शराब पीने की इच्छा जाग सकती है.

–       कमजोरी, उदासी या अकेलापन महसूस होने की दशा में घबराएं नहीं बल्कि अपने भरोसेमंद व्यक्ति के साथ अपने अनुभवों को बांटें और कठिनाइयों से उबरने की कोशिश करें.

–       शराब छोड़ने के लिए आप इस बात को जरूर सोचें कि आप ने शराब की वजह से क्या खोया है और किस तरह की क्षति पहुंची है. इस से न केवल आप शराब से दूरी बना सकते हैं बल्कि खराब हुए संबंधों को पुन: तरोताजा भी कर सकते हैं.

–       शराब छोड़ने से उत्पन्न परेशानियों से निबटने के लिए किसी अच्छे चिकित्सक या मानसिक रोग विशेषज्ञ की सलाह लेना न भूलें.   

क्विक हेयरस्टाइल से दिखें स्टाइलिश

पार्टी में जाना हो या फिर डेट पर, समझ नहीं आता कि बालों को स्टाइलिश लुक कैसे दिया जाए, क्योंकि हर बार यह संभव नहीं होता कि पार्लर जा कर हेयरडू करवाया जाए. ऐसे में लुक चेंज करने का सब से आसान तरीका होता है हेयरस्टाइल में बदलाव करना. बालों को डिफरैंट लुक देना ही हेयरस्टाइलिंग कहलाता है और अलगअलग औकेजन पर अलगअलग हेयरस्टाइल बनाना हर किसी को पसंद होता है.

लड़कियों और महिलाओं की इसी चाहत को ध्यान में रखते हुए दिल्ली प्रैस भवन में आयोजित फेब मीटिंग में ब्यूटीशियन एवं हेयरस्टाइलिस्ट परमजीत सोई ने कुछ ऐसे क्विक हेयरस्टाइल बनाने के तरीके बताए जिन से लुक में बदलाव के साथसाथ स्टाइलिश भी दिखा जा सकता है:

ब्राइडल या पार्टी हेयरस्टाइल: यह हेयरस्टाइल ब्राइड और विवाहित युवतियों पर खासा जंचता है. इसे बनाने के लिए सब से पहले बालों को अच्छी तरह सुलझा लें. फिर फ्रंट के थोड़े बालों को सौफ्ट लुक के लिए छोड़ दें और बाकी में बैककौंब करते हुए स्प्रे करें. फिर थोड़ेथोड़े बालों को ले कर लूप बनाते हुए जूड़ा बनाती जाएं. जूड़े की फाइनल फिनिशिंग इनलिजिबल जूड़ा पिन से करें. बाद में ज्वैलरी से मैचिंग सिल्वर या गोल्डन मैचिंग ज्वैल्ड फ्लौवर्स या पिन्स लगाएं.

गर्लिश लुक हेयरस्टाइल: इस हेयरस्टाइल के लिए बालों को आयरन रौड से सीधा कर लें और आगे के बालों की हलके हाथों से बैककौंबिंग करते हुए पफ बना लें. अगर पफ न पसंद हो तो बालों को बिना पफ बनाए बैककौंबिंग किए बालों को साइड में पिनअप कर लें. इस तरह के हेयरस्टाइल के ज्वैल्ड पिन्स का प्रयोग कर के स्टाइलिश लुक पाया जा सकता है.

पफ विद लेयर्स हेयरडू: आधे से ज्यादा बालों को एक तरफ ले लें और आगे थोड़े बाल छोड़ दें. पीछे के बालों की कौंब कर के रबड़बैंड से चोटी बनाएं. आगे के थोड़े बालों को छोड़ कर बाकी बालों को पीछे ले कर लेयर्स में बैककौंब करें. इस के बाद कौंब करते हुए पफ बनाएं. फ्रंट लुक के लिए आगे के थोड़ेथोड़े बालों को उठाते हुए ट्विस्ट करते हुए पफ कर अटैच करती जाएं. पीछे के बचे बालों का फ्रैंच रोल बनाएं और रफ बालों को बैककौंब करें. सारे बालों को नैट में ले लें और राउंडराउंड करते हुए फैंच रोल की शेप देते हुए पिनअप कर आर्टिफिशियल फूलों से सजाएं.

लो साइड बन: यह हेयरस्टाइल लंबे बालों के लिए परफैक्ट होता है. इस हेयरस्टाइल को बनाने के लिए इयर टु इयर पार्टिंग करें और पीछे के बचे बालों को रबड़बैंड की सहायता से पोनीटेल बनाएं. इस के बाद रबड़बैंड की जगह स्टफिंग रख कर जूड़ा पिन्स से लौक कर दें. फिर पोनीटेल के बालों को 4 हिस्सों में बांट लें और सौफ्ट बैककौंबिंग करते हुए ब्रश से नीट करती जाएं और लूप बना कर जूड़े में फिक्स करती जाएं व बन का लुक दें.

इस के बाद अगर फोरहैड ब्रौड हो तो आगे के बालों को फोरहैड पर ऐसे सैट कर लें, जिस से फोरहैड की ब्रौडनैस कम दिखे. बचे बालों को पीछे बचे बालों के बन के नीचे सैट कर दें. अंत में बन को रैड रोज से ऐक्सैसराइज कर के फिनिशिंग टच दें.

मैसी ब्रेड लुक: सब से पहले बालों को हौट आयरन रौड की सहायता से टौग्स बना लें. फिर टौंग्स को ऊंगलियों की सहायता से सौफ्ट कर लें. फिर साइड से पार्टिंग करते हुए फ्रंट से थोड़े बालों को छोड़ दें और सैंटर औफ द हेयर में मैसी ब्रेड बनाएं और ब्रेड को थोड़ा लूज कर दें. ऐसे ही पीछे के बालों की कई ब्रेड बनाएं और उन्हें भी लूज करती जाएं. ब्रेड बनाते समय थोड़े बाल छोड़ दें. फ्रंट के बालों के अलगअलग स्ट्रिंग लेते हुए कर्ल करें और बालों को हलका सा ट्विस्ट करें. पीछे बनी सारी ब्रेड की नौट बांधें व पिन से सैट कर दें. बाद में छोटेछोटे फ्लौवर से ऐक्सैसराइज करें.           

स्टाइलिंग प्रोडक्ट हेयर स्प्रे

कोई भी हेयरस्टाइल या हेयरडू करते समय हेयर स्प्रे का बारबार प्रयोग किया जाता है. क्या हेयर स्प्रे, हेयरस्टाइल बनाने के लिए जरूरी होता है? यह सवाल अधिकांश महिलाओं के मन में उठता है. जी हां, हेयरस्टाइलिंग करते समय हेयर स्प्रे बहुत जरूरी भूमिका अदा करता है, क्योंकि हेयर स्प्रे की मदद से हेयरस्टाइल को लंबे समय तक वैसे ही रखा जा सकता है. हेयर स्प्रे से बालों में शाइन आने के साथसाथ वे सौफ्ट भी हो जाते हैं, साथ ही आप बालों को जिस स्टाइल में सैट करना चाहें हेयर स्प्रे उन्हें सैट करने में मदद करता है. इस के अतिरिक्त हेयर स्प्रे बालों को चिपचिपा नहीं करता और साथ ही कलर किए बालों पर एक लेयर बनाता है. इतना ही नहीं सूर्य की हानिकारक किरणों से भी बालों को बचाता है. आप अपनी जरूरत के हिसाब से एसपीएफ युक्त हेयर स्प्रे का चुनाव कर सकती हैं.

पार्टी सीजन में बालों की देखभाल करें कैसे?

पार्टी का मौसम शुरू हो चुका है. जाहिर है आपको भी किसी न किसी पार्टी में जरूर जाना होगा. पार्टी में सबसे अलग दिखने के लिए आपने शॉपिंग भी की होगी. लेकिन क्या सिर्फ फैंसी ड्रैस पहन कर आप सबसे अलग दिख सकती हैं? शायद नहीं. फैंसी  ड्रैस के साथ स्टाइलिश हेयर स्टाइल ही आपको परफैक्ट पार्टी लुक दे सकती है.

लिहाजा स्टाइलिश हेयरस्टाइल के लिए हेयर स्टाइलिंग उत्पादों का भी इस्तेमाल करना पड़ेगा. मसलन हेयर स्प्रे, हीटिंग टूल्स और एक्सैसरीज कुछ ऐसे स्टाइलिंग उत्पाद हैं जो हेयर स्टाइल भले ही खूबसूरत बना दें मगर बालों पर इनका बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है. लेकिन कुछ सावधानियां बरती जाएं तो बालों को बिना नुकसान पहुंचाए भी एक अच्छा हेयर स्टाइल पाया जा सकता है.

देखभाल की बुनियादी शुरुआत बालों की सफाई से होती है. यदि आप अपने बाल नियमित रूप से नहीं धोती हैं और उन्हें साफ नहीं रखतीं तो बालों की जड़ें कमजोर पड़ जाएंगी और हेयरस्टाइलिंग प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल कमजोर जड़ों वाले बालों को नुकसान पहुंचाएगा. इसलिए बालों को हफ्ते में 2 बार जरूर साफ करें और एक अच्छे तेल (केयोकार्पिन) से डीप मसाज करें. इससे हेयरस्टाइलिंग उत्पादों के इस्तेमाल से बेजान और शुष्क नजर आने वाले बाल भी सुरक्षित और पोषित रहेंगे.

विटामिन ई, फौलिक ऐसिड, विटामिन बी कौंप्लैक्स, प्रोटीन तथा कैल्शियम जैसे सप्लिमैंट्स बालों के लिए बहुत अच्छे होते हैं. इनको ग्रहण करना जितना जरूरी है उतना ही बालों पर इनका ऊपरी पोषण भी आवश्यक है. बाजार में विटामिन ई युक्त तेल (केयोकार्पिन) उपलब्ध हैं जो बालों को अच्छा पोषण देते हैं और उन्हें स्वस्थ रखते हैं.

गरम हवा फेंकने वाले स्टाइलिंग उत्पाद भी बालों के स्वास्थ्य के लिए अच्छे नहीं होते मगर इनके बिना अच्छा हेयर स्टाइल पाना भी मुश्किल हो जाता है. ऐसे में ड्रायर, स्ट्रेटनर मशीन या टोंग का इस्तेमाल करना पड़े तो नुकसान से बचने के लिए पहले ही हल्का सा तेल (केयोकार्पिन) लगा लें.

अल्कोहल या अन्य हानिकारक रासायनिक तत्त्वों वाले स्टाइलिंग प्रोडक्ट्स भी बालों को नुकसान पहुंचाते हैं. इसलिए ऐसे तत्त्वों वाले उत्पादों के इस्तेमाल से बचें या जहां तक संभव हो सके, इनका कम से कम इस्तेमाल करें. इनके नुकसान से बचने के लिए हफ्ते में 2 बार अच्छे विटामिन युक्त ऑलिव ऑयल से बालों को हॉट मसाज दें.

बालों की स्टाइलिंग में हेयर कलर की बड़ी भूमिका है मगर कैमिकल युक्त कलर बालों को रूखा बेजान बना देते हैं. इससे हेयरफाल की समस्या शुरू हो जाती है. इस समस्या से बचा जा सकता है यदि बालों को कलर करने के बाद उनकी अच्छी तरह ऑयलिंग की जाए तो. इससे बालों में नमी लौट आएगी और बालों का सूखापन भी दूर होगा.

– पार्टी की मस्ती में बालों की सफाई को नजरअंदाज न करें. एक अच्छे ब्रैंडेड शैंपू से बाल साफ करें और फिर कंडीशनर लगाएं.

– बालों पर गरम स्टाइलिंग टूल्स का इस्तेमाल करने से पहले विटामिन ई युक्त केयोकार्पिन जैसे लाइट हेयर ऑइल की कुछ बूंदें स्टाइलिंग प्रोडक्ट में मिला कर जरूर लगाएं.

– बालों पर ब्लो ड्रायर का इस्तेमाल करने से पूर्व बालों की मिड लैंथ और एंड्स पर विटामिन ई युक्त केयोकार्पिन तेल की कुछ बूंदों को अच्छे से लगाएं. इससे बालों में कड़ापन नहीं आएगा.

– हफ्ते में बालों को एक बार थोड़ा रैस्ट जरूर दें. इसके लिए बालों को धो कर खुला

छोड़ दें.

– हेयर एक्सपर्ट प्रिसिला

यात्रा ही मेरा जीवन है : अमित साध

2002 में सीरियल ‘‘क्यों होता है प्यार’’ से अभिनय करियर की शुरुआत करने वाले अमित साध ने अब तक चंद सीरियलों के अलावा ‘काई पो चे’, ‘गुड्ड रंगीला’, ‘सुल्तान’ सहित कुछ फिल्मों में अभिनय कर अपनी अलग छाप छोड़ी है. अब वह तीन फरवरी को प्रदर्शित होने वाली अपनी नई फिल्म ‘‘रनिंग शादी डाट काम’’ को लेकर काफी उत्साहित हैं, जिसमें उनकी जोड़ी फिल्म ‘‘पिंक’’ फेम अदाकारा तापसी पन्नू के संग है. मगर बौलीवुड के सभी कलाकारों के मुकाबले वह कुछ अलग तरह के इंसान व कलाकार हैं. उन्हे एंडवेचर बहुत पसंद है. वह सायकल बाइक पर काफी यात्राएं करते रहते हैं. 2019 में माउंट एवरेस्ट फतह करने की योजना बना रहे अमित साध ने अपनी अब तक की यात्राओं, अपने एडवेंचर, अपनी भविष्य की योजनाओं आदि को लेकर ‘‘सरिता’’ पत्रिका से खास बात की.

बौलीवुड में अक्सर आपके गायब हो जाने की चर्चाएं होती रहती हैं?

– मैं गायब नही होता. मैं एंडवेचरस इंसान हूं. हर फिल्म की शूटिंग खत्म करने के बाद मैं बाइक पर घूमने निकल जाता हूं. मुझे हिमालय बहुत पसंद है. मैंने लद्दाख 6 बार बाइक पर घूमा हूं. मैंने कारगिल, ग्रास, मेन लद्दाख की 6 बार बाइक पर यात्रा की है. अभी मैं मनाली की यात्रा साइकल पर करने वाला हूं, जब बर्फ पिघल जाएगी. मतलब जून जुलाई में. पिनारी कलेशर चढ़ा हूं. 2019 में माउंट एवरेस्ट चढ़ने की योजना पर काम कर रहा हूं. मुझे एडवेंचर बहुत पसंद है. इसलिए भी मैं खुश रहता हूं. फिल्मों की शूटिंग करके मैं एडवेंचर्स काम करने निकल जाता हूं. लोगों को लगता है कि मैं नाराज हूं. मैं गुस्सैल हूं. मेरे पास काम नहीं है. मैं कही गायब हो गया हूं. वगैरह वगैरह. तो मैंने कहा कि एक ही चीज को देखने का नजरिया हर किसी का अलग होता है.

बाइक पर यात्रा करने के दौरान के आपके अनुभव क्या रहे? आप इस यात्रा के दौरान लोगों से मिलते होंगे. तो क्या बात हुई?

– इन यात्राओं के दौरान मैं जिन जमीन से जुडे़ हुए लोगों से मिला. उन्होंने मुझे भी जड़ों से जोड़ कर रखा. इसलिए मेरा एक ब्ल्यू प्रिंट बन चुका है कि मुझे क्या करना है. हकीकत यह है कि फिल्मों में कलाकार को बिगाड़ा जाता है, यहां कोई कलाकार के लिए खाना ले आता है. तो कोई पीने का कोई सामान ले आता है. इतनी सुविधाएं कलाकार को मिल जाती हैं कि वह बिगड़ जाता है. पर जब आप आम लोगों के बीच बैठते हैं, तो वह आपको आपकी जड़ों से जुड़े रहने पर विवश करते हैं. इसलिए फिल्म की शूटिंग खत्म करने के बाद मैं एक आम इंसान बनकर इन आम लोगों के पास पहुंच जाता हूं. मुझे 14 से 15 हजार फुट उंचाई पर बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ आठ दस लोगों के साथ जमीन पर बैठकर कढ़ी चावल खाते हुए मजा आता है. मुझे पहाड़ों में टेंट में सोने में आनंद की अनुभूति होती है. यह सारी चीजें मुझे लोगों के साथ साथ कुदरत से जोड़ कर रखती हैं. जिस दिन आपका लगाव, आपका जुड़ाव कुदरत से खत्म हो जाता है. उस दिन आप भले ही दुनिया की बड़ी से बड़ी ताकत बन जाए, पर आपकी जिंदगी खत्म हो जाती है.

भविष्य में भी कुछ खास करने की योजना है?

– जी हां! सितंबर माह में मुंबई से एनएच 10 पकड़ कर पंजाब, जे के होते हुए लेह, खंडूरा 18500 फुट पर जाउंगा. फिर नीचे होते हुए लखीमपुर खीरी जाउंगा. वहां से काठमांडू जाउंगा. वहां से सिलीगुड़ी. सिलीगुड़ी से भूटान जाउंगा. भूटान जाने के लिए हमने इजाजत मांगी है. वहां से आसाम होते हुए नागालैंड में अपनी बाइक यात्रा खत्म करूंगा.

इस रूट को चुनने की वजह क्या है?

– पहाड़ मुझे हमेशा बुलाते रहते हैं. मुझे पहाड़ों पर जाकर बहुत सकून मिलता है  और मैंने जो यह रूट चुना है, इसमें संघर्ष बहुत ज्यादा है. आसान यात्रा करने में कुछ नहीं है. इस रूट पर पहाड़ चढ़ने हैं, टूटे फूटे रास्ते हैं. यह यात्रा मैं 550 सीसी बुलेट पर करूंगा. यदि किसी ने स्पांसर कर दिया, तो ट्रैम्प पर करूंगा. मेरे लिए अच्छी बात यह है कि पहले यह सब करने के लिए अपनी जेब से पैसे खर्च करने पड़ते थे. अब मुझे यह सब मुफ्त में करने का मौका मिल रहा है. 

पर इस तरह के रूट बनाने के पीछे सोच क्या हैं?

– सोच कुछ नहीं. वजह यह है कि मुझे 2 अच्छे लोगों का साथ मिल गया है. यह जमीन से जुड़े लड़के हैं. बहुत विनम्र हैं. इसमें से एक हैं दीपक जो कि सायकल चैंपियन हैं. यह पीछे वाले पहिए पर 40 किलोमीटर साइकल चलाते हैं. हवा में साइकल उड़ा देते हैं. दूसरा लड़का है गैरी दत्त. इन दोनों से मेरा मेलमिलाप बहुत ज्यादा है. हम लोग साइकल के जरिए आपस में बहुत मिलते हैं. जब हम लोगों ने बैठकर विचार विमर्श किया कि कहां जाना है, तो किसी ने आसाम कहा, मैंने काठमांडू कहा. मैं काठमांडू जाना चाहता था. क्योंकि मैंने काठमांडू में फिल्म ‘यारा’ की शूटिंग की है. वहां पर भूकप आ चुका है. वहां पर जो हैरिटेज साइट है, वहां पर हमने गाना फिल्माया था. तो मैंने कहा कि जब हम लोग इस यात्रा पर जा रहे हैं, तो काठमांडू के उस हैरिटेज क्षेत्र की भूकंप आने के बाद क्या स्थिति है, देखने जाना चाहूंगा. इसके अलावा इस बार हम लोग इस पूरी यात्रा को फिल्मा रहे है. हमारी पूरी टीम जा रही है. दस कैमरा हैं. यह बहुत बड़े पैमाने पर हम कर रहे हैं.

इस एडवेंचरस यात्रा को फिल्माने की क्या वजह है?

– हम हमारी इस यात्रा को फिल्माकर दुनिया को भी दिखाना चाहते हैं. दुनिया को बताना चाहते हैं कि हमारा देश क्या है. हम लोग रास्ते में गांव में रूकेंगे. वहां के लोगों से बातचीत करेंगे. हमारी योजना यह है कि यदि किसी गांव में बीस बाइस साल की युवा लड़की मिली और उसने कहा कि उसे बाइक चलानी आती है, पर उसे बाइक चलाने का मौका नही मिलता है. तो हम उसे अपनी बाइक देंगे और अपने साथ चलने के लिए कहेंगे. पूरे 40 दिन की हमारी यह यात्रा है. हम लोगों ने दिमाग में कई योजनाएं बना रखी है.

अब तक आप जो यात्राएं कर चुके हैं, उन यात्राओं ने देष के किस गांव ने आपको प्रभावित किया?

– हमारा देश तो गांव का देश है. पर मैंने बेहतरीन गांव पाया मुक्तेश्वर में. नैनीताल से 5 किलोमीटर की दूरी पर मुक्तेश्वर है. वहां बहुत कम लोग जाते हैं. क्योंकि नजदीक में कोई एयरपोर्ट नहीं है. साधन उपलब्ध नहीं हैं. इसलिए लोग कम जाते हैं. यदि मुक्तेश्वर के आस पास एअरपोर्ट होता, तो दिल्ली वाले जरूर पहुंचते . दिल्ली से मुक्तेश्वर 12 घंटे चाहिए, इसलिए लोग नहीं जाते. वहां पर एक जगह है, सरगा खेत. मैंने सरगा खेत में कैम्प किया था. मुझे यह जगह इतनी पसंद आयी थी, कि मैं कई माह रहा. मैंने वहां पर नौकरी भी की है. इस गांव से मेरा लगाव हो गया. हर वर्ष मौका मिलते ही चार पांच दिन के लिए इस गांव जाता रहता हूं. अभी 2015 मे फिल्म ‘सुल्तान’ की शूटिंग दिल्ली में कर रहा था, चार दिन की छुट्टी थी, तो मैं सरगा खेत चला गया था. एक जगह है-पीपला.  वहां एक एनजीओ काम कर रहा है – चिराग (सेंट्रल हिमालयन रूरल एक्शन ग्रुप). इसने पहाड़ों पर बहुत अच्छा काम किया है.इ नके साथ मिलकर हमने भी कुछ दिन काम किया. तो बहुत अमैजिंग अनुभव हैं. उनके जीवन की सरलता मुझे उन तक खींचती है. बिना किसी कारण मोहब्बत करने की उनकी जो क्षमता है, वह मुझे उन तक खींचकर ले जाती है.

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