अयिरातिल ओरूवन 60 के दशक की एक कामयाब तमिल फिल्म थी. इस के नायक एमजीआर यानी एम.जी. रामचंद्रन थे, जिन पर तब के निर्माता आंखें बंद कर पैसा लगाते थे और कमाते भी खूब थे. इस फिल्म की नायिका एक नईनवेली किशोरी थी, जिस में अभिनेत्री होने के सारे गुण मौजूद थे. वह सुंदर और भरे बदन की लड़की थी. उस समय दक्षिण भारतीय फिल्मों में ऐसी लड़कियों को बहुत पसंद किया जाता था. फिल्मी सेटों का अपना एक अलग प्रोटोकाल होता है, जिस के तहत नामी स्टार का अलग ही रुतबा होता है. जब बड़ा स्टार आता है तो यूनिट के सारे लोग हाथ बांध कर सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाते हैं. उस जमाने में एम.जी. रामचंद्रन का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा था.

जब वह सेट पर आते थे तो पिन ड्रौप सन्नाटा छा जाता था. ‘अयिरातिल ओरूवन’ की शूटिंग के लिए जब वह सेट पर आते थे तो यह नवोदित अभिनेत्री लापरवाही और खामोशी के साथ अपनी जगह पर किसी किताब में नजरें गड़ाए बैठी रहती थी. ऐसा लगता था जैसे उस पर किसी एम.जी. रामचंद्रन की मौजूदगी का कोई फर्क न पड़ता हो.

यह नायिका थीं जयराम जयललिता. एमजीआर के लिए यह हैरानपरेशान कर देने वाली बात थी कि एक नई लड़की उन की मौजूदगी से न तो प्रभावित होती है और न विचलित. जयललिता की यह हरकत उन की शान और रुतबे के खिलाफ थी. एक ओर नए कलाकार उन की एक झलक और सान्निध्य पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते थे. यहां तक कि उन के पांवों में झुक जाते थे और दूसरी तरफ वह गुस्ताख लड़की थी कि उन के आभामंडल के दायरे में आने को तैयार नहीं थी.

जयललिता की यह अदा एमजीआर को भा गई या चुभी, यह तो वही जानें, पर जयललिता की यह नादानी या सयानापन जो भी रहा हो, उन्हें हमेशा के लिए एक ऐसे बंधन में बांध गया, जिस का कोई नाम नहीं होता. और अगर होता भी है तो उसे सार्वजनिक रूप से न व्यक्त किया जाता है और न ही स्वीकारा जाता है.

एमजीआर पहले पुरुष थे, जिन के स्वाभिमान को जयललिता ने आहत किया था. तब उन की मंशा शायद अपना अकड़ूपन दिखाने की रही होगी, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह वह वक्त था, जब वह फिल्मों में काम करने के लिए हाथपांव मार रही थीं. फिल्में उन्हें मिलने भी लगी थीं, लेकिन उन्होंने इस बात की कल्पना भी नहीं की होगी कि शुरुआत में ही उन्हें एमजीआर जैसे मंझे हुए लोकप्रिय अभिनेता के साथ काम करने का मौका मिलेगा.

उस वक्त जयललिता ज्यादा परिपक्व नहीं थीं, न ही उन्हें द्रविड़ तमिल और आर्य अनार्य जैसे शब्दों के मायनों से कोई लेनादेना था. दक्षिण भारत में उथलपुथल मचा रहे जातिगत समीकरणों और राजनीति से भी उन्हें कोई खास सरोकार नहीं था. दरअसल तब उन्हें ऐसा कुछ सोचने की जरूरत ही नहीं थी. जयललिता का मकसद तो सिर्फ एक कामयाब और सुप्रसिद्ध हीरोइन बनना भर था. बहुत सारा पैसा कमा लेना न केवल उन की जिद, बल्कि जरूरत भी थी. क्योंकि उन्होंने 16 साल की अब तक की अपनी जिंदगी कमोबेश अभावों में ही काटी थी.

बीती 5 दिसंबर को चेन्नै के अपोलो हास्पिटल में जयललिता ने लंबी बीमारी के बाद आखिरी सांस ली तो आम लोगों में उन के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की उत्सुकता बढ़ी. अम्मा के नाम से मशहूर हो चुकीं जयललिता की जिंदगी के कुछ पन्ने खुल कर सामने आए भी, लेकिन उन पन्नों में उन की जिंदगी का आधाअधूरा सच था. जाने क्यों वह अपने फिल्मी और राजनीतिक जीवन को आम लोगों और मीडिया से छिपाती रहीं. वह नहीं चाहती थीं कि लोग उन के बारे में एक हद से ज्यादा जानें. नतीजतन उन की जिंदगी का वही हिस्सा और बातें उजागर हो पाईं, जो किसी भी हालत में छिपे नहीं रह सके थे.

24 फरवरी, 1948 को मैसूर राज्य के मांडया जिले के पांडवपुरा तालुका के गांव मेलुरकोट में जन्मी जयललिता का नाम जन्म के समय कोमलाबल्ली रखा गया था. लेकिन जब वह 2 साल की थीं, तभी पिता जयराम का साया उन के सिर से उठ गया. हालांकि उन के दादा नरसिम्हन रंगाचारी नामी सर्जन थे, लेकिन तब आमतौर पर होता यह था कि पति की मौत के बाद पत्नियां ससुराल छोड़ कर मायके में आ कर रहने लगती थीं. ऐसा ही जयललिता की मां वेदावल्ली ने किया. वह अबोध बेटी और बेटे जयकुमार को ले कर बेंगलुरु में अपने मांबाप और बहन के पास चली आई. जयराम की बेदावल्ली से यह दूसरी शादी थी, पहली पत्नी जयम्मा से उन्हें एक बेटा वासुदेवन हुआ था.

वेदावल्ली सुंदर होने के साथसाथ महत्त्वाकांक्षी और स्वाभिमानी थीं. मांबाप के यहां उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन उन्होंने अपना फिल्मी नाम संध्या रख कर फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया. उस जमाने की वह औसत अभिनेत्री रहीं, लेकिन उन्हें आर्थिक रूप से किसी की मोहताज बन कर नहीं रहना पड़ा. लिहाजा जयललिता की पढ़ाई में कोई खास परेशानी पेश नहीं आई.

जया के नाना रंगास्वामी अयंगर हिंदुस्तान ऐरोनौटिक्स लिमिटेड में कार्यरत थे, जिन्हें नौकरी के लिए तमिलनाडु से बेंगलुरु शिफ्ट होना पड़ा था. लेकिन संध्या पिता पर भार नहीं बनना चाहती थी, इसलिए फिल्मों में आने से पहले उन्होंने कुछ साल बेंगलुरु के सचिवालय में भी नौकरी की थी.

संध्या का फिल्मों में आना महज इत्तफाक की बात थी. दरअसल उन की बहन अंबुजावल्ली एयर होस्टेस थीं और छुटपुट फिल्मों में भी काम करती थीं. इसी सिलसिले में उन्हें चेन्नै रहने आना पड़ा तो वह संध्या को भी साथ लेती आईं. एक फिल्म की शूटिंग के दौरान एक निर्माता की नजर खूबसूरत संध्या पर पड़ी तो उस ने उन के सामने फिल्म में काम करने की पेशकश रखी तो संध्या ना नहीं कर सकीं.

प्रारंभिक शिक्षा के लिए जयललिता को बेंगलुरु के बिशप काटन स्कूल में दाखिला दिलाया गया. वह एक पढ़ाकू छात्रा थीं, इसलिए हमेशा अव्वल नंबरों से पास होती रहीं. संध्या की दिलचस्पी फिल्मों से कम हो चली थी. जैसेजैसे जयललिता बड़ी होती गईं, वैसेवैसे उन्होंने फिल्मों में काम करना कम कर दिया. हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए जयललिता को वापस चेन्नै आना पड़ा. जयललिता ने मां की मेहनत देखी थी, इसलिए अब उन्हें पिता के न होने का अहसास खलने लगा था. चेन्नै आ कर उन्होंने सरकारी वजीफे पर पढ़ाई करने को प्राथमिकता दी, जबकि वह चाहतीं तो स्टेलो मारिस जैसे नामी कालेज में पढ़ सकती थीं. लेकिन उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन की मंशा पैसा बचाने की थी.

यह वह उम्र थी, जब अधिकांश किशोर कैरियर के बारे में अपनी इच्छा जताने लगते हैं. जयललिता ने भी मां के सामने पिता की तरह वकील बनने की इच्छा जाहिर कर दी थी. हाईस्कूल की परीक्षा में वह पूरे कर्नाटक राज्य में अव्वल आई थीं, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह पढ़ाई और भविष्य के प्रति कितनी गंभीर थीं.

वैधव्य की त्रासदी झेल चुकी संध्या के मन में बेटी को ले कर कुछ और ही चल रहा था. दक्षिण फिल्म इंडस्ट्री में वह उस मुकाम तक नहीं पहुंच पाई थीं, जिस पर जाने की उन की ख्वाहिश थी. दूसरे अभिभावकों की तरह उन्होंने भी संतान में अपने अधूरेपन को पूरा करने की इच्छा थी. इसीलिए वह चाहती थीं कि जयललिता फिल्मों में काम करे.

बेटी को वह बहुत चाहती थीं, क्योंकि पति की मौत के बाद दोनों संतानें ही उन के जीने का मकसद थीं. जयललिता भी मां की भावनाओं को समझती थीं, जिन्होंने उन्हें संस्कारों और परंपराओं के साथ आधुनिकता की परवरिश भी दी थी. संध्या जयललिता के जिद्दी स्वभाव से वाकिफ थीं, लिहाजा उन्होंने सीधे अपनी ख्वाहिश थोपने के बजाय धीरेधीरे भावनात्मक दबाव बना कर उन्हें फिल्मों में काम करने के  लिए राजी कर लिया.

जयललिता का अपनी मां के प्रति कृतज्ञता का भाव और आदरसम्मान किसी सबूत का मोहताज नहीं था. मां की इच्छा उन के लिए अटल आदेश होती थी, इसलिए अधूरे मन से ही सही, उन्होंने फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया. इस के बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. उन्होंने तमिल, तेलुगू और कन्नड़ की करीब 3 सौ फिल्मों में अपनी अभिनय प्रतिभा दिखाई और 7 बार फिल्मफेयर अवार्ड हासिल किया. उन्होंने 6 बार श्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब जीता.

महज 20 साल की होतेहोते जयललिता पर दौलत और शोहरत की ऐसी बरसात होने लगी थी कि उन्होंने सन 1967 में पीएस गार्डन में 1 करोड़ रुपए से भी ज्यादा की कीमत का बंगला खरीद लिया था और जिंदगी भर वह इसी में रहीं. 2 हिंदी फिल्मों ‘मनमौजी’ और ‘इज्जत’ में भी वह दिखीं, पर हिंदी दर्शकों को मोटी अभिनेत्रियां कम ही रास आती थीं, इसलिए उन्हें दर्शकों ने खारिज कर दिया था. ‘इज्जत’ फिल्म में उन के नायक धर्मेंद्र थे, लेकिन यह फिल्म बौक्स औफिस पर फ्लौप रही तो इस के बाद जयललिता ने हिंदी फिल्मों की ओर रुख नहीं किया. सन 1961 में शौकिया तौर पर वह एक अंग्रेजी फिल्म ‘एपिसल’ में भी दिखीं.

दक्षिण की फिल्मों में उन का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा था. जयललिता अपने वक्त की सब से ज्यादा पारिश्रमिक लेने वाली अभिनेत्री थीं. बचपन में जिस पैसे को ले कर वह खुद को असुरक्षित महसूस करती थीं, वह अब उन पर बरस रहा था. ज्यादातर फिल्में उन्होंने अभिनेता शिवाजी गणेशन और एम.जी. रामचंद्रन के साथ ही कीं. एमजीआर के साथ वह 28 फिल्मों में आईं, जिन में से 24 सिल्वर जुबली थीं. अभिनय प्रतिभा तो गजब की थी ही, साथ ही उन्होंने बचपन में भरतनाट्यम नृत्य भी सीख लिया था. संभवत: उन की मां संध्या ने उसी वक्त से उन्हें सफल नायिका बनाने की अपनी जिद पूरी करने के लिए प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया था.

1980 आतेआते हालत यह हो गई कि सिने प्रेमी उन के नाम की माला जपने लगे थे. दक्षिण भारत में उन की फिल्मों के बडे़बड़े पोस्टर नजर आते थे. तब तक उन का नाम एमजीआर के साथ जुड़ गया था.

उम्र में जयललिता से लगभग तिगुने बड़े एमजीआर महज एक अभिनेता ही नहीं थे, बल्कि उन के अपने राजनैतिक सामाजिक सरोकार भी  थे, जिन का वर्ण व्यवस्था और जातिगत शोषण से इतना गहरा ताल्लुक था कि वह तमिलनाडु में सत्ता परिवर्तन की अहम वजह भी बना.

जयललिता एक कट्टर अयंगर ब्राह्मण परिवार की युवती थीं, वह इस में कहां कैसे और क्यों फिट हो गईं, इसे समझने से पहले सदियों से चली आ रही मनुवादी व्यवस्था को संक्षेप में समझ लेना जरूरी है, जो राजनैतिक षड्यंत्रों और स्वार्थपूर्ति के खेल की लोकतांत्रिक बानगी थी.

आजादी के बाद चारों दिशाओं में कांग्रेस का राज था, इस से ज्यादा हैरत की बात यह थी कि राजनीति और नईनई लोकतांत्रिक सत्ता में ब्राह्मणों का दबदबा था. हर दूसरे राज्य का मुख्यमंत्री कोई ब्राह्मण ही था और बाकी राज्यों में क्षत्रिय या दूसरे सवर्ण बगैर कुछ किएधरे सत्ता की मलाई चाट रहे थे. पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में ब्राह्मणवाद खूब फलाफूला, जिस से छोटी और दबी कुचली दलित जातियों में आक्रोश पनपने लगा था.

उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण में आजादी के बाद एक बार फिर दलित आंदोलन परवान चढ़ा, लेकिन इस बार तरीका अलग था. आंदोलन की अगुवाई कलाकारों के हाथों में थी, खासतौर से फिल्मकारों के, जिन की अपनी जमीन और एक बड़ा प्रशंसक वर्ग था. मिसाल तमिलनाडु की लें तो वहां द्रमुक आंदोलन के अगुवा सी.एन. अन्नादुरई थे. अन्नादुरई एक गंभीर सामाजिक विश्लेषक थे, जिन्होंने द्रविड़ मुनेत्र कषगम पार्टी (डीएमके) की स्थापना की थी. वह तब के लोकप्रिय गीतकार और लेखक थे. उन के सहयोगी थे करुणानिधि और इस आंदोलन के प्रणेता थे रामास्वामी नायकर.

डीएमके की स्थापना का मकसद एक सांस्कृतिक और सामाजिक आंदोलन था, जिसे राजनीतिक जामा पहनाना था. इस वक्त में पूरे भारत की तरह दलितों का दमन बेहद आम और सरल बात थी. ऊंची जाति वाले धर्म के नशे में चूर दलितों पर तरहतरह के कहर ढा रहे थे. तमिलनाडु की इस टीम को बेहतर यह लगा कि लोकप्रिय फिल्मकारों के जरिए जनचेतना और जागरूकता को हवा दी जाए, इस में वे सफल भी रहे.

60 के दशक के उत्तरार्द्ध तक तमिलनाडु में कांग्रेसी नेताओं की तूती बोलती थी,जो कट्टरवादी ब्राह्मण थे. चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य से ले कर सुब्रमण्यम तक ऐसे ही ब्राह्मण कांग्रेसी नेता थे. अन्नादुरई की मेहनत और लगन रंग लाई और सन 1967 के आम चुनाव में डीएमके ने कांग्रेस को धूल चटा कर तमिलनाडु की सत्ता से ब्राह्मण वर्चस्व खत्म कर दिया. अन्नादुरई मुख्यमंत्री बने और एमजीआर दूसरी पंक्ति के प्रमुख नेता के रूप में उभरे. करुणानिधि का योगदान भी कमतर नहीं आंका गया.

जैसा कि ऐसे हालात में होता है, एमजीआर और करुणानिधि के बीच नंबर 2 की लड़ाई शुरू हो गई. हालांकि एक हद तक इस में भी व्यक्तित्व अहम और जाति मुख्य वजहें थीं. एमजीआर ब्राह्मण थे और करुणानिधि ईसाई, लेकिन वैचारिक स्तर पर दोनों में कोई मतभेद नहीं थे.

करुणानिधि की आशंका यह थी कि एमजीआर अगर डीएमके के मुखिया बने तो आंदोलन मकसद से भटक कर ब्राह्मणों का गुलाम बन जाएगा. उलट इस के एमजीआर का सोचना था कि यदि करुणानिधि अन्नादुरई के उत्तराधिकारी बन गए तो ईसाइयत हावी हो जाएगी. 2 उभरते दिग्गजों के बीच पनपती इस रस्साकशी का अंत दुखद रूप में अन्नादुरई की मौत के बाद हुआ.

उत्तराधिकारी की खींचतान का कोई हल नहीं निकला तो एमजीआर ने अपनी पैतृक पार्टी छोड़ कर एक अलग पार्टी बना ली, जिस का नाम उन्होंने आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (एआईएडीएमके) रखा. एक विचारधारा विभाजित हो गई थी और एक सार्थक आंदोलन 2 धड़ों में बंट गया था. लेकिन यह इतना प्रभावशाली था कि इस का फायदा कांग्रेस को नहीं मिला. सन 1967 से ले कर अब तक तमिलनाडु की सत्ता एआईएडीएमके और डीएमके के बीच ही रहना इस का प्रमाण है.

अब तक जयललिता इस फसाद से दूर थीं और फिल्मों में रमी थीं. जब एमजीआर मुख्यमंत्री बने तो उन्हें एक विश्वसनीय और सख्त नेता की जरूरत महसूस होने लगी, जो एक अच्छा वक्ता भी हो और लोकप्रिय भी, साथ ही दिल्ली जा कर एआईएडीएमके की सशक्त हाजिरी भी दर्ज करा सके. इस के लिए उन्हें जयललिता उपयुक्त लगीं तो उन्होंने अपने दिल की बात उन से कह दी.

अब तक यह साफ हो चुका था कि 3 शादियां कर चुके एमजीआर जयललिता पर आसक्त हैं, इसीलिए वह किसी और से शादी नहीं कर रहीं. जयललिता उन्हें गुरु, मार्गदर्शक और शुभचिंतक मानने लगी थीं, लोग यही समझने लगे थे कि एमजीआर उन के लिए इस से भी कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं.

वह उन के प्रियतम, प्रेमी या अविवाहित पति भी कहें,सब कुछ हैं. यह एमजीआर के प्रति चाहत थी कि जयललिता ने तेलुगू फिल्मों में सुपरस्टार शोभनबाबू से शादी नहीं की. इन दोनों की जोड़ी काफी लोकप्रिय हुई थी. जबकि आम लोग एक वक्त में मानने लगे थे कि जयललिता और शोभनबाबू कभी भी शादी कर सकते हैं.

एमजीआर की राजनीति में आने की पेशकश ठीक वैसी ही थी, जैसी कभी उन की मां की थी कि फिल्मों में आ जाओ. तब वह मां को मना नहीं कर सकी थीं. ऐसे ही वह एमजीआर को ना नहीं कह पाईं.

जल्द ही एआईडीएमके में जयललिता की हैसियत नंबर-2 की हो गई और उन्हें एमजीआर ने राज्यसभा में भेज दिया. तमिलनाडु की राजनीति में एमजीआर के ये फैसले किसी के गले नहीं उतरे. क्योंकि जयललिता को राजनीति का कोई अनुभव नहीं था. उन्हें ले कर एआईएडीएमके के लोग आशंकित हो उठे और इसे एमजीआर की आसक्ति करार दिया.

ब्राह्मण समुदाय की गोरीचिट्टी जयललिता के बारे मे ंकिसी की राय यह नहीं थी कि वह ब्राह्मण विरोधी आंदोलन में ईमानदारी से अपनी भूमिका निभा पाएंगी. फिल्मों में पहली दफा स्कर्ट और हाफ स्लीव पहन कर हाहाकार मचा देने वाली सैक्सी जयललिता तब तक नए अवतार में पेश की जा चुकी थीं.

लेकिन जयललिता राजनीति में वाकई असाधारण साबित हुईं. उन के भाषण तमिलनाडु की जनता को लुभाने लगे. वह एक पक्के और सधे हुए नेता की तरह ठेठ तमिल में बोलती थीं तो लोग उन्हें मंत्रमुग्ध हो कर सुनते रह जाते थे. अंगरेजी पर भी उन की अच्छी पकड़ थी. सन 1982 से ले कर सन 1987 तक वह राज्यसभा सदस्य रहीं और एमजीआर की उम्मीदों पर खरी उतरीं.

यह काफी उथलपुथल भरा वक्त था. क्योंकि वह एमजीआर की अभिनेत्री पत्नी जानकी की आंखों में खटकने लगी थीं. जानकी जयललिता के प्रति पति के अनुराग से अंजान नहीं थीं, पर खामोश ही रहीं. आखिरकार वह उन की तीसरी पत्नी थीं और एमजीआर के स्वभाव को बखूबी समझने लगी थीं.

अधेड़ हो चले एमजीआर जयललिता को दिल दे चुके थे. उन पर किसी का जोर नहीं चल पाएगा, यह बात जानकी को समझ आ गई थी. कोई विवाद खड़ा करना पति की साख पर बट्टा लगाने वाली बात होती, लेकिन यह बात गलत नहीं है कि सौत चाहे पुतला भी हो तो भी सीने में फांस सी चुभती है.

यह शीतयुद्ध दबा ही रहा. मां की मौत के बाद जयललिता पर मानो पहाड़ सा टूट पड़ा था. ऐसे में एमजीआर ने ही उन्हें भावनात्मक सहारा दिया. राजनीति में लगातार लोकप्रिय होती जा रही जयललिता अब पहले सी अंतरमुखी नहीं रह गई थीं. वह भी अधेड़ावस्था में दाखिल हो रही थीं और यदाकदा जीवन के माने खोजती रहती थीं.

इसी कशमकश में उन्होंने महसूस किया कि उन के पास सब कुछ होते हुए भी वह नहीं है जो एक औरत को संपूर्णता देता है. जिंदगी के पूर्वार्द्ध में वह मां के हाथ की कठपुतली बनी रहीं तो उत्तरार्द्ध पर एमजीआर का कब्जा रहा. इस पूरे दौर में उन का अपना कुछ था तो वह एक तनहाई थी, जिस से वह घबरा कर आक्रामक होने लगी थीं.

अपनी भड़ास या बेचैनी उन्होंने कलम के जरिए निकालने का रास्ता चुना. वह एक तमिल पत्रिका में कालम लिखने लगीं और कभी जज्बाती हो कर जिंदगी के वे लम्हें भी पाठकों से साझा करने लगीं, जो न केवल उन के, बल्कि एमजीआर और पार्टी की प्रतिष्ठा के लिए भी अशुभ और घातक साबित हो सकते थे. यह देख कर एमजीआर ने उन्हें फिर समझाया और वह एक बार फिर मान गईं.

जयललिता अब भी परिपक्व नहीं हुई थीं, लोकप्रियता और सफलता अलग बातें थीं. यह वह दौर था, जब वह अपने अस्तित्व और पहचान की खोज में भटकने लगी थीं. इसी भटकाव ने उन्हें सधी और आक्रामक राजनीति का विशेषज्ञ बना डाला. अब तक वह अकूत दौलत भी कमा चुकी थीं, पर किस के लिए, इस का जवाब वह खुद को भी कभी नहीं दे पाती थीं.

सन 1987 का साल उन की जिंदगी में निर्णायक मोड़ ले कर आया. ब्रेन स्ट्रोक के चलते एमजीआर का निधन हुआ तो वह जानकी के सामने थीं, जो एमजीआर की वैध उत्तराधिकारी थीं. एमजीआर हालांकि सन 1984 में ही अशक्तता का शिकार हो गए थे. तब जयललिता ने पहली बार दुस्साहस दिखाया था. तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनने की इच्छा और महत्त्वाकांक्षा ने सिर उठाया तो उन्होंने इस के लिए कोशिशें भी शुरू कर दीं, जो एमजीआर को नागवार गुजरी और उन्होंने अपनी इस शिष्या को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया.

जब उन्हें पार्टी के उपनेता पद से हटाया गया तो वह तिलमिला उठीं. सहज ही जयललिता को समझ आ गया था कि एमजीआर जानकी को सब कुछ सौंप देंगे, जिस की वजह यह कहावत थी कि घुटना हमेशा पेट की तरफ की मुड़ता है. उन्हें अपने दूसरी होने का अहसास सालने लगा था. पहली दफा जयललिता को लगा कि वह अब तक छली जाती रहीं हैं. एमजीआर की बड़ीबड़ी क्रांति की बातों का सच राजनीतिक स्वार्थों तक सिमटा था, जिन्हें तमिलनाडु की जनता देवता मान कर पूजती थी.

एक अंतरंग लगाव अब एमजीआर की उपेक्षा तले दबने लगा था. जयललिता को समझ आ रहा था कि अगर एमजीआर ने उन्हें अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया तो वह कहीं की नहीं रह जाएंगी. इस अहसास से भी वह सकते में थीं कि आज तक वह एमजीआर की कठपुतली रही हैं. जैसे वह चाहते थे वैसे ही वह राजनैतिक मंच पर नाचती थीं. ऐसा क्यों था, इस सवाल का जवाब खुद उन के पास भी नहीं था.

एमजीआर की मौत के बाद तमिलनाडु में हाहाकार मचा था. उन के समर्थक खुदकुशी कर रहे थे, सड़कों पर मातम मना रहे थे. सियासी और प्रशासनिक गलियारों का हाल अलहदा था, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था कि एमजीआर का असल सियासी वारिस कौन है.

जिंदगी में पहली बार समझदारी से काम लेते हुए जयललिता ने खुद को एमजीआर का वारिस घोषित कर दिया.

घोषित तौर पर वह एमजीआर की कुछ नहीं थीं, पर अघोषित तौर पर काफी कुछ थीं, यह बात हर कोई जानता था. जब वह एमजीआर के अंतिम दर्शन के लिए उन के घर पहुंची तो पहले तो उन्हें घर में दाखिल ही नहीं होने दिया गया. जैसेतैसे वह घुस भी गईं तो बदहवास सी हालत में अपने प्रिय नायक और मार्गदर्शक का शव ढूंढती रहीं.

जानकी हालांकि सदमे में थीं, लेकिन उन के होश कायम थे. उन का  इशारा पा कर कुछ लोगों ने जयललिता को बाहर धकेला पर वह नहीं मानीं. दया खा कर किसी ने उन्हें बताया कि एमजीआर का शव राजाजी हाल ले जाया गया है तो वह तुरंत वहां जा पहुंचीं.

राजाजी हाल खचाखच भरा था. एमजीआर के समर्थक सुबक रहे थे, जयललिता जैसेतैसे उन के शव के पास पहुंचीं और पत्थर की तरह देखती रहीं. यहां भी उन के साथ जानकी समर्थकों ने बदसलूकी की.

हैरानी की बात यह थी कि उन की आंखों से आंसू तक नहीं निकला. जानकी की एक समर्थक उन के पैर कुचलती रही, ताकि वह चली जाएं, लेकिन वह लगातार 13 घंटे एक ही मुद्रा में खड़ी पथराई आंखों से एमजीआर का शव देखती रहीं. यह अभिनय नहीं, बल्कि अपने प्रिय के जाने का दुख था, जानकी की तरह ही.

दूसरे दिन जब एमजीआर की अंतिम यात्रा के पहले वह राजाजी हाल पहुंचीं और 9 घंटे खड़ी रहीं, लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. जब एमजीआर का शव वाहन में रखा जाने लगा तो वह आपा खो बैठीं और शव की तरफ दौडीं. इस दृश्य या प्रतिक्रिया का अंदाजा जानकी को था, इसलिए उन्होंने इस से निपटने की व्यवस्था पहले से ही कर रखी थी. वह शव के पास पहुंच पातीं, इस के पहले ही जानकी के भतीजे दीपन ने उन्हें धक्का दे कर गिरा दिया.

इस धक्के से उन्हें अपनी हैसियत समझ आ गई थी, लिहाजा वह घर लौट गईं. लेकिन उन्होंने ठान लिया था कि वह तमिलनाडु की राजनीति पर अपना अधिकार नहीं छोड़ेंगी.

एआईएडीएमके एक बार फिर 2 फाड़ हो गई. विरासत की यह लड़ाई बड़ी दिलचस्प थी. आधे लोगों का मानना था कि जानकी एमजीआर की वैध पत्नी होने के नाते उन की स्वाभाविक उत्तराधिकारी हैं, जबकि आधे लोगों का मानना था कि जयललिता ही पार्टी संभाल सकती हैं, क्योंकि उन में नेतृत्व क्षमता है. दूसरे वह एमजीआर की कुछ न हो कर भी बहुत कुछ हैं.

आखिरकार जयललिता ने अपनी अलग पार्टी बना ली, जिस ने सन 1989 के विधानसभा चुनाव में 23 सीटें हासिल कीं. इस के उलट जानकी की पार्टी को महज एक सीट मिली. अब तसवीर साफ हो चुकी थी कि एआईएडीएमके को जयललिता ही संभालेंगी.

यह कोई आसान काम नहीं था. एमजीआर की मौत के बाद एआईएडीएमके खत्म सी मानी जा रही थी. यह जयललिता का करिश्माई व्यक्तित्व ही था कि उन्होंने जल्द ही पार्टी में जान डाल कर कार्यकर्ताओं में जोश फूंक दिया.

60-70 के दशक की अल्हड़ कमसिन अभिनेत्री अब एक परिपक्व नेत्री बन गई थी. इस बीच उन के व्यक्तिगत जीवन के कई किस्से और घटनाएं आम हो चुके थे. मसलन यह कि कैसे एक फिल्म की शूटिंग के दौरान एमजीआर ने उन्हें गोद में उठाया था, साथ ही यह भी कि सन 1980 में वह इतने अवसाद में आ गई थीं कि उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की थी.

उस वक्त एमजीआर ने ही उन्हें भावनात्मक सहारा दिया था. इतना ही नहीं, एमजीआर उन्हें पार्टी का प्रचार सचिव बना कर सक्रिय राजनीति में ला कर और जीने की नई वजह और जीवन का मकसद दिया.

जानकी राजनीति में ज्यादा चल नहीं पाईं, लिहाजा उन का गुट भी जयललिता की शरण में आ गया. इस से एआईएडीएमके को और मजबूती मिली. जयललिता ने ताबड़तोड़ तरीके से प्रचार अभियान चलाया. इस के बाद भी वह एमजीआर जितनी मजबूती नहीं हो पाईं.

इस की मुकम्मल वजह भी थी. दरअसल तमिलनाडु की जनता उन्हें चाहती तो थी, पर हर कोई सहज विश्वास नहीं कर पा रहा था कि एक कट्टर ब्राह्मण परिवार की जयललिता मूलत: ब्राह्मण विरोधी विचारधारा या अभियान को अंजाम तक ले जा पाएंगी. सन 1987 से ले कर 89 तक जयललिता लोगों को यही समझाती रहीं कि परंपरावादी और आस्तिक होने के बाद भी वह वैचारिक रूप से अन्नादुरई और एमजीआर के द्रविड़ आंदोलन की मशाल बुझने नहीं देंगी. हालांकि यह एक बेहद विरोधाभासी बात थी, क्योंकि वह विकट की अंधविश्वासी महिला थीं. हरे रंग का इस्तेमाल इस की मिसाल था.

विपक्ष की नेता के रूप में वह डीएमके सरकार के हर स्तर पर ज्यादा आक्रामक रहीं. मार्च, 1989 में विधानसभा में जब राज्य का बजट पेश हो रहा था, तब फोन टैपिंग का मसला उन के एक समर्थक ने उठाया तो सदन में बवाल मच गया. एक डीएमके विधायक ने उन की साड़ी का पल्लू खींचा, जिस से वह जमीन पर गिर गईं.

और उठीं तो इस कसम के साथ कि अब विधानसभा तभी जाऊंगी, जब सीएम बन जाऊंगी. सन 1991 के चुनाव में जयललिता ने कांग्रेस से हाथ मिलाया, जो उन की मजबूरी भी हो गई थी, क्योंकि राजीव गांधी की हत्या के बाद लोगों की सहानुभूति कांग्रेस से थी, जिसे उन्होंने कूटनीतिक तरीके से भुनाया. एआईएडीएमके-कांग्रेस गठबंधन ने डीएमके से सत्ता छीन ली.

सन 1991 से ले कर 96 तक जयललिता ने आम लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाएं, खासतौर से महिलाओं के लिए चलाईं. इन योजनाओं को आम लोगों ने पसंद किया, पर जिस वैचारिक आंदोलन की बुनियाद पर वह शिखर तक पहुंची थीं, उसे उन्होंने अनदेखा कर दिया था. नतीजतन सन 1996 के चुनाव में उन्हें खारिज कर दिया गया.

डीएमके प्रमुख करुणानिधि ने उन्हें बख्शा नहीं. जयललिता पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे, जो बाद में साबित भी हुए. एक छापे में उन के घर से 12 हजार साडि़यां, 30 किलोग्राम सोने के गहने और सैकड़ों जोड़ी सैंडिलें बरामद हुईं  थीं.

यह जयललिता की शाही जिंदगी की एक झलक भर थीं. करिश्माई तरीके से वह फिर सन 2001 का चुनाव जीतीं. अब तक तमिलनाडु में वह अम्मा के नाम से पुकारी जाने लगी थीं. लोग उन्हें पुरात्वी थलावी यानी क्रांति की नायिका भी कहने लगे थे.

इस के बाद उतारचढ़ाव आते रहे और सन 2011 का चुनाव जीत कर वह फिर छठीं बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं. जितना बेइज्जत उन्हें करुणानिधि ने किया था, उस का उन्होंने सूद समेत बदला लिया. फिल्मी तर्ज वाली प्रतिशोध की यह शैली और भावना खूब पसंद की गई. लेकिन तब तक द्रविड़ आंदोलन फिल्म से गायब हो गया था, संभवत: इस की जरूरत खत्म हो गई थी.

दरअसल, जरूरत खत्म नहीं हुई थी, बल्कि हुआ यह था कि जयललिता ने आंदोलन का रुख मोड़ कर उसे गरीबों की जरूरतों पर फोकस कर दिया था. अम्मा पानी से ले कर अम्मा सीमेंट जैसी दर्जन भर योजनाओं से वाकई गरीबों का भला हो रहा था, इसलिए किसी भी जातिगत आंदोलन के कोई मायने नहीं रह गए थे.

द्रविड़ों और आर्यों के डीएनए में क्या फर्क है, यह पूरी दुनिया ने 5 दिसंबर को जयललिता की मौत के बाद देखा. लाखों लोग अम्मा की मौत के बाद चेन्नै पहुंचे, उन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ले कर लगभग सभी राज्यों के मुख्यमंत्री और लोकप्रिय फिल्मी हस्तियां शामिल थीं.

जयललिता जातेजाते जता गईं कि जमीनी राजनीति क्या होती है और लोकप्रियता के सही मायने क्या होते हैं.  

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