धर्म के बाजार और कारोबार में इन दिनों भारी तब्दीलियां देखने को मिल रही हैं. नएनए बाबा नएनए गेटअप में आ रहे हैं जो लुभावनी कहानियां व प्रसंग सुना कर भक्तों का जी बहला रहे हैं लेकिन साथ ही उन की जेबें भी खाली कर रहे हैं. इन की ग्राहकी अलगअलग है.
कवि कुमार विश्वास और सूरज पाल सिंह उर्फ़ भोले बाबा में जितने फर्क हैं उतनी ही समानताएं भी हैं. मसलन, दोनों ही कथाओं और प्रवचनों के जरिए अकूत दौलत के मालिक बने. सूरज पाल ने खुद के भगवान होने का दावा कर डाला तो कुमार विश्वास ने यह जोखिम नहीं उठाया क्योंकि उन का ग्राहक वर्ग सवर्ण, शिक्षित और बुद्धिजीवी है जिस के लिए रामकथा आस्था के साथसाथ टाइमपास मूंगफली जैसा विषय भी है. इस के, खासतौर से पारिवारिक प्रसंगों के, जरिए वह अपनी आध्यात्मिक भूख मिटाता है. जबकि, सूरज पाल की ग्राहकी हाथरस हादसे के बाद सभी ने देखा कि गरीब, दलित, ओबीसी तबके की है. इन लोगों को मोक्ष नहीं बल्कि पैसा चाहिए, अपनी बीमारियों व परेशानियों से नजात चाहिए. ये दोनों ही बाबा अपनेअपने स्तर पर अपने ग्राहकों की जरूरत के मुताबिक प्रोडक्ट और सर्विस दोनों देते हैं.
एक बड़ा फर्क दोनों में यह भी है कि सूरज पाल का ग्राहक सड़क के किनारे लगे तम्बुओ में बैठ सब्जीपूरी के भंडारे को भगवान का प्रसाद मान संतुष्ट हो जाता है. मौसम की मार बरदाश्त कर लेता है. लेकिन कुमार विश्वास का ग्राहक बड़ी महंगी गाडियों में आता है और वातानुकूलित हौल की कुरसियों में धंस कर धार्मिक किस्सेकहानियां सुन झूमने लगता है. कुमार नए दौर के नए किस्म के बाबा हैं जिन का पहनावा आंशिक रूप से पंडेपुरोहितों जैसा होता है. वे नारद मुनि की स्टाइल में नहीं बल्कि विश्वामित्र की स्टाइल में रामकथा सुनाते हैं जिस में अधिकतर प्रवचन की केंद्रीय पात्र उर्मिला, कौशल्या, मंदोदरी या सीता होती है जिस से महिला ग्राहकों को लुभाया जा सके क्योंकि श्रोताओं में बड़ी हिस्सेदारी उन्हीं की होती है. वे पौराणिक महिला पात्रों की व्यथापीड़ा या तथाकथित त्याग वगैरह को आज की जिंदगी व समाज से रिलेट करते हैं. लेकिन वे इसे कोसते नहीं कि यह सब पितृसत्तात्मक समाज और धर्म की साजिश है कि औरत मर्दों की दादागीरी बरदाश्त करती रहे, यही उस के लिए विधाता ने तय कर रखा है. यही उस की नियति और ड्यूटी है. औरत महान इसलिए है कि वह तमन ज्यादतियां ख़ामोशी से बरदाश्त कर लेती है.
इस से उन का पुरुष ग्राहक भी खुश हो उठता है कि जो वे नहीं कर पाते यानी एक संपन्न घर में बैठी सजीधजी, गहनों से लदी औरत को सनातन धर्म का पालन करना चाहिए, वह कुमार विश्वास इतने लच्छेदार तरीके से करते हैं कि कोई महिला फिर यह सवाल नहीं करती कि आखिर उर्मिला या सीता का गुनाह क्या था जो उन्हें जिंदगीभर तकलीफें उठानी पड़ीं. पुरुषों के फैसलों को उन्हें ख़ामोशी से मानना पड़ा. उर्मिला की पीड़ा को उकेरते उस के त्याग को प्रधान साबित कर दिया जाता है. साथ ही, दोचार दोहे सुना कर वुमेन एंपावरमैंट की नई परिभाषा गढ़ दी जाती है कि त्याग ही किसी महिला को सशक्त बनाता है, अधिकार या समानता नहीं
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