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अमेरिकी क्रिकेट टीम के लिए खेलेंगी यह भारतीय महिला खिलाड़ी

भारत के तेलंगाना प्रांत की महिला क्रिकेटर सिंधुजा रेड्डी को अमेरिका की क्रिकेट टीम की तरफ से खेलने के लिए चुना गया है. अमेरिकी महिला क्रिकेट टीम को हाल ही में आईसीस से मान्यता प्राप्त हुई है. सिंधुजा अमेरिकी महिला क्रिकेट टीम में एक विकेटकीपर के तौर पर खेलेंगी.

नालगोंडा के अमंगल गांव की रहने वाली रेड्डी अगस्त में स्कॉटलैंड के खिलाफ होने वाले टी-20 विश्व कप क्वालीफायर में अमेरिकी टीम से खेलेंगी. विकेटकीपर-बल्लेबाज रेड्डी हैदराबाद के लिए रणजी ट्रॉफी में खेल चुकी हैं. उम्मीद है कि वह 2020 में होने वाले विश्व कप में टीम का हिस्सा होंगी.

रेड्डी ने अपनी स्कूली शिक्षा हैदराबाद से ही पूरी की है. वह हैदराबाद की अंडर-19 टीम की कप्तान भी रह चुकी हैं. अमेरिका जाने से पहले उन्होंने बीटेक और एमबीए की पढ़ाई पूरी की. इसके बाद सिद्धार्थ रेड्डी से उनकी शादी हो गई.

सलामी बल्लेबाज रेड्डी ने क्रिकेट को लगभग छोड़ ही दिया था, लेकिन इसी बीच उन्हें यह नया मौका मिला है अपने क्रिकेट करियर को नई दिशा देने का.

अमेरिकी टीम में चुने जाने पर रेड्डी के माता-पिता बेहद खुश हैं. उनके पिता स्परधर रेड्डी कहते हैं कि बचपन से ही उनका रुझान क्रिकेट की ओर रहा और उन्होंने अपनी स्कूल टीम के लिए क्रिकेट खेली है. उनकी मां लक्ष्मी रेड्डी ने कहा कि शादी के बाद भी उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा और इस मुकाम तक पहुंची.

एक माशूका का खौफनाक बदला

मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल जिले सीधी का एक गांव है नौगवां दर्शन सिंह, जिस में ज्यादातर आदिवासी या फिर पिछड़ी और दलित जातियों के लोग रहते हैं.

शहरों की चकाचौंध से दूर बसे इस शांत गांव में एक वारदात ऐसी भी हुई, जिस ने सुनने वालों को हिला कर रख दिया और यह सोचने पर भी मजबूर कर दिया कि राजो (बदला नाम) ने जो किया, वैसा न पहले कभी सुना था और न ही किसी ने सोचा था.

इस गांव का एक 20 साला नौजवान संजय केवट अपनी ही दुनिया में मस्त रहता था. भरेपूरे घर में पैदा हुए संजय को किसी बात की चिंता नहीं थी. पिता की भी अच्छीखासी कमाई थी और खेतीबारी से इतनी आमदनी हो जाती थी कि घर में किसी चीज की कमी नहीं रहती थी.

बचपन की मासूमियत

संजय और राजो दोनों बचपन के दोस्त थे. अगलबगल में होने के चलते दोनों पर एकदूसरे के घर आनेजाने की कोई रोकटोक नहीं थी. 8-10  साल की उम्र तक दोनों साथसाफ बेफिक्र हो कर बचपन के खेल खेलते थे. चूंकि चौबीसों घंटे का साथ था, इसलिए दोनों में नजदीकियां बढ़ने लगीं और उम्र बढ़ने लगी, तो दोनों में जवान होने के लक्षण भी दिखने लगे.

संजय और राजो एकदूसरे में आ रहे इन बदलावों को हैरानी से देख रहे थे. अब उन्हें बजाय सारे दोस्तों के साथ खेलने के अकेले में खेलने में मजा आने लगा था.

जवानी केवल मन में ही नहीं, बल्कि उन के तन में भी पसर रही थी. संजय राजो को छूता था, तो वह सिहर उठती थी. वह कोई एतराज नहीं जताती थी और न ही घर में किसी से इस की बात करती थी.

धीरेधीरे दोनों को इस नए खेल में एक अलग किस्म का मजा आने लगा था, जिसे खेलने के लिए वे तनहाई ढूंढ़ ही लेते थे. किसी का भी ध्यान इस तरफ नहीं जाता था कि बड़े होते ये बच्चे कौन सा खेल खेल रहे हैं.

जवानी की आग

यों ही बड़े होतेहोते संजय और राजो एकदूसरे से इतना खुल गए कि इस अनूठे मजेदार खेल को खेलतेखेलते सारी हदें पार कर गए. यह खेल अब सैक्स का हो गया था, जिसे सीखने के लिए किसी लड़के या लड़की को किसी स्कूल या कोचिंग में नहीं जाना पड़ता.

बात अकेले सैक्स की भी नहीं थी. दोनों एकदूसरे को बहुत चाहने भी लगे थे और हर रोज एकदूसरे पर इश्क का इजहार भी करते रहते थे. चूंकि अब घर वालों की तरफ से थोड़ी टोकाटाकी शुरू हो गई थी, इसलिए ये दोनों सावधानी बरतने लगे थे.

18-20 साल की उम्र में गलत नहीं कहा जाता कि जिस्म की प्यास बुझती नहीं है, बल्कि जितना बुझाने की कोशिश करो उतनी ही ज्यादा भड़कती है. संजय और राजो को तो तमाम सहूलियतें मिली हुई थीं, इसलिए दोनों अब बेफिक्र हो कर सैक्स के नएनए प्रयोग करने लगे थे.

इसी दौरान दोनों शादी करने का भी वादा कर चुके थे. एकदूसरे के प्यार में डूबे कब दोनों 20 साल की उम्र के आसपास आ गए, इस का उन्हें पता ही नहीं चला. अब तक जिस्म और सैक्स इन के लिए कोई नई बात नहीं रह गई थी.

दोनों एकदूसरे के दिल के साथसाथ जिस्मों के भी जर्रेजर्रे से वाकिफ हो चुके थे. अब देर बस शादी की थी, जिस के बाबत संजय ने राजो को भरोसा दिलाया था कि वह जल्द ही मौका देख कर घर वालों से बात करेगा.

उन्होंने सैक्स का एक नया ही गेम ईजाद किया था, जिस में दोनों बिना कपड़ों के आंखों पर पट्टी बांध लेते थे और एकदूसरे के जिस्म को सहलातेटटोलते हमबिस्तरी की मंजिल तक पहुंचते थे. खासतौर से संजय को तो यह खेल काफी भाता था, जिस में उसे राजो के नाजुक अंगों को मनमाने ढंग से छूने का मौका मिलता था. राजो भी इस खेल को पसंद करती थी, क्योंकि वह जो करती थी, उस दौरान संजय की आंखें पट्टी से बंधी रहती थीं.

शुरू हुई बेवफाई

जैसा कि गांवदेहातों में होता है, 16-18 साल का होते ही शादीब्याह की बात शुरू हो जाती है. राजो अभी छोटी थी, इसलिए उस की शादी की बात नहीं चली थी, पर संजय के लिए अच्छेअच्छे रिश्ते आने लगे थे.

यह भनक जब राजो को लगी, तो वह चौकन्नी हो गई, क्योंकि वह तो मन ही मन संजय को अपना पति मान चुकी थी और उस के साथ आने वाली जिंदगी के ख्वाब यहां तक बुन चुकी थी कि उन के कितने बच्चे होंगे और वे बड़े हो कर क्याक्या बनेंगे.

शादी की बाबत उस ने संजय से सवाल किया, तो वह यह कहते हुए टाल गया, ‘तुम बेवजह चिंता करते हुए अपना खून जला रही हो. मैं तो तुम्हारा हूं और हमेशा तुम्हारा ही रहूंगा.’

संजय के मुंह से यह बात सुन कर राजो को तसल्ली तो मिली, पर वह बेफिक्र न हुई.

एक दिन राजो ने संजय की मां से पड़ोसनों से बतियाते समय यह सुना कि  संजय की शादी के लिए बात तय कर दी है और जल्दी ही शादी हो जाएगी.

इतना सुनना था कि राजो आगबबूला हो गई और उस ने अपने लैवल पर छानबीन की तो पता चला कि वाकई संजय की शादी कहीं दूसरी जगह तय हो गई थी. होली के बाद उस की शादी कभी भी हो सकती थी.

संजय उस से मिला, तो उस ने फिर पूछा. इस पर हमेशा की तरह संजय उसे टाल गया कि ऐसा कुछ नहीं है.

संजय के घर में रोजरोज हो रही शादी की तैयारियां देख कर राजो का कलेजा मुंह को आ रहा था. उसे अपनी दुनिया उजड़ती सी लग रही थी. उस की आंखों के सामने उस के बचपन का दोस्त और आशिक किसी और का होने जा रहा था. इस पर भी आग में घी डालने वाली बात उस के लिए यह थी कि संजय अपने मुंह से इस हकीकत को नहीं मान रहा था.

इस से राजो को लगा कि जल्द ही एक दिन इसी तरह संजय अपनी दुलहन ले आएगा और वह घर के दरवाजे या खिड़की से देखते हुए उस की बेवफाई पर आंसू बहाती रहेगी और बाद में संजय नाकाम या चालाक आशिकों की तरह घडि़याली आंसू बहाता घर वालों के दबाव में मजबूरी का रोना रोता रहेगा.

बेवफाई की दी सजा

राजो का अंदाजा गलत नहीं था. एक दिन इशारों में ही संजय ने मान लिया कि उस की शादी तय हो चुकी है. दूसरे दिन राजो ने तय कर लिया कि बचपन से ही उस के जिस्म और जज्बातों से खिलवाड़ कर रहे इस बेवफा आशिक को क्या सजा देनी है.

वह कड़कड़ाती जाड़े की रात थी. 23 जनवरी को उस ने हमेशा की तरह आंख पर पट्टी बांध कर सैक्स का गेम खेलने के लिए संजय को बुलाया. इन दिनों तो संजय के मन में लड्डू फूट रहे थे और उसे लग रहा था कि शादी के बाद भी उस के दोनों हाथों में लड्डू होंगे.

रात को हमेशा की तरह चोरीछिपे वह दीवार फांद कर राजो के कमरे में पहुंचा, तो वह उस से बेल की तरह लिपट गई. जल्द ही दोनों ने एकदूसरे की आंखों पर पट्टी बांध दी. संजय को बिस्तर पर लिटा कर राजो उस के अंगों से छेड़छाड़ करने लगी, तो वह आपा खोने लगा.

मौका ताड़ कर राजो ने इस गेम में पहली और आखिरी बार बेईमानी करते हुए अपनी आंखों पर बंधी पट्टी उतारी और बिस्तर के नीचे छिपाया चाकू निकाल कर उसे संजय के अंग पर बेरहमी से दे मारा. एक चीख और खून के छींटों के साथ उस का अंग कट कर दूर जा गिरा.

दर्द से कराहता, तड़पता संजय भाग कर अपने घर पहुंचा और घर वालों को सारी बात बताई, तो वे तुरंत उसे सीधी के जिला अस्पताल ले गए.

संजय का इलाज हुआ, तो वह बच गया, पर पुलिस और डाक्टरों के सामने झूठ यह बोलता रहा कि अंग उस ने ही काटा है.

पर पुलिस को शक था, इसलिए वह सख्ती से पूछताछ करने लगी. इस पर संजय के पिता ने बयान दे दिया कि संजय को पड़ोस में रहने वाली लड़की राजो ने हमबिस्तरी के लिए बुलाया था और उसी दौरान उस का अंग काट डाला, जबकि कुछ दिनों बाद उस की शादी होने वाली है.

पुलिस वाले राजो के घर पहुंचे, तो उस के कमरे की दीवारों पर खून के निशान थे, जबकि फर्श पर बिखरे खून पर उस ने पोंछा लगा दिया था.

तलाशी लेने पर कमरे में कटा हुआ अंग नहीं मिला, तो पुलिस वालों ने राजो से भी सख्ती की.

पुलिस द्वारा बारबार पूछने पर जल्द ही राजो ने अपना जुर्म स्वीकारते हुए बता दिया कि हां, उस ने बेवफा संजय का अंग काट कर उसे सजा दी है और वह अंग बाहर झाडि़यों में फेंक दिया है, ताकि उसे कुत्ते खा जाएं.

दरअसल, राजो बचपन के दोस्त और आशिक संजय पर खार खाए बैठी थी और बदले की आग ने उसे यह जुर्म करने के लिए मजबूर कर दिया था.

राजो चाहती थी कि संजय किसी और लड़की से जिस्मानी ताल्लुकात बना ही न पाए. यह मुहब्बत की इंतिहा थी या नफरत थी, यह तय कर पाना मुश्किल है, क्योंकि बेवफाई तो संजय ने की थी, जिस की सजा भी वह भुगत रहा है.

राजो की हिम्मत धोखेबाज और बेवफा आशिकों के लिए यह सबक है कि वह दौर गया, जब माशूका के जिस्म और जज्बातों से खेल कर उसे खिलौने की तरह फेंक दिया जाता था. अगर अपनी पर आ जाए, तो अब माशूका भी इतने खौफनाक तरीके से बदला ले सकती है.

मेरा नंबर कब आएगा?

पहला सीन

दक्षिण भारत के एक मशहूर मंदिर के सामने लोगों की लंबी लाइन लगी थी. सभी अपने पाप धोने या पाप करने से पहले ही लाइसैंस मांगने के लिए खड़े थे. मैं भी पिछले 3 घंटे से धूप में डटा हुआ था. लेकिन अगले 4 घंटे तक कामयाबी मिलने की कोई उम्मीद नहीं लग रही थी.

मुझे लग रहा था कि जितनी मेहनत यहां खड़े हो कर मूर्ति देखने के लिए कर रहा हूं, उतनी अगर हिमालय पर जा कर करता, तो अब तक शायद सीधे किसी देवता से मुलाकात हो गई होती.

अचानक ही मेरे एक दोस्त नजर आ गए. उन्होंने मुझे इस बात का अहसास दिलाया कि मैं पहले दर्जे का बेवकूफ हूं.

दोस्त ने मुझे बताया कि आजकल देवता भी उसी को जल्दी दर्शन देते हैं, जो ज्यादा भोग लगाता है.

मैं ने पलट कर देखा, तो सचमुच ही थोड़ी दूरी पर 5 सौ रुपए वालों की बुकिंग चल रही थी और कहां हम फटीचर जैसे लोग मुफ्त में ही देवता को देख लेना चाहते थे.

मंदिर में तैनात पंडे बेहद लगन से पैसे वालों को देवता का दीदार करा रहे थे. शायद देवता को भी उन से ही मिलने

की जल्दी रहती हो. मैं ने भी एक बार जाने की हिम्मत की, लेकिन रुपयों का मोह देवता की भक्ति से ज्यादा बड़ा निकला.

तभी पता चला कि मंदिर के दरवाजे बंद हो गए हैं. अब 4 बजे खुलेंगे. मैं ने गहरी सांस ली. ऊपर देखा और आसमान वाले से पूछा, ‘मेरा नंबर कब आएगा?’

दूसरा सीन

सुबहसुबह बीवी द्वारा काफी धमकाए जाने के बाद आखिरकार मैं अपना झोला उठा कर राशन की दुकान की तरफ बढ़ा. वहां काफी लंबी लाइन देख कर मेरी हिम्मत जवाब देने लगी.

कदम लौटाने की कोशिश करते ही बीवी का खतरनाक चेहरा आंखों के सामने कौंध उठा. मैं मन मार कर लाइन में लग गया.

अचानक कुछ दादा जैसे लोग मूंछों पर ताव देते हुए लाइन के बगल से आगे चले गए. मैं ने पहले तो आवाज दे कर उन्हें रोकना चाहा, पर शायद सुबह नाश्ता नहीं मिल पाने की वजह से आवाज ही नहीं निकली. मैं ने ज्यादा कोशिश भी नहीं की, क्योंकि इस बार मैं ने इंश्योरैंस पौलिसी को रीन्यू नहीं कराया था.

वे लोग सीना ताने हुए बोरियां उठा कर वापस चले गए. कुछ ही मिनटों में यह खबर फैली कि राशन खत्म हो गया. थोड़ी देर तक भीड़ बकतीझकती रही, फिर छंट गई.

मैं भारी कदमों से दुकानदार के पास पहुंचा. वह तसल्ली से करारे नोट गिन रहा था. मैं ने धीरे से उस का कंधा छुआ.

उस ने तीखी निगाहों से मुझे घूर कर देखा.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘मेरा नंबर कब आएगा?’’

तीसरा सीन

मैं प्रदेश सचिवालय के वेटिंग रूम में बैठा था. मुझे बताया गया था कि मेरी फाइल जिस बाबू के पास है, वह अभी तक दफ्तर में नहीं आया है. तब मुझे सरकारी मुलाजिम के लिए प्रचलित एक कहावत याद आ गई, ‘12 बजे लेट नहीं और 3 बजे भेंट नहीं’.

इतना ज्यादा इंतजार तो मैं कालेज में अपनी प्रेमिका का भी नहीं किया करता था. खैर, सवा 12 बजे बाबू साहब तशरीफ लाए. बेहद बिजी होने का नाटक करते हुए उन्होंने टेबल के साथ वाली कुरसी पर आसन जमा लिया.

कुछ फाइलों को इधरउधर किया, फिर मुझे दिखा कर बड़बड़ाते हुए जोर से पटका. उड़ती हुई धूल वहां हो रहे काम की गवाह थी. उन्होंने चिल्ला कर चपरासी को बुलाया. उसे डांट कर

अपने खराब मूड की पहचान कराई. फिर मुझ से कहा, ‘‘कहिए, आप का क्या मामला है?’’

मैं ने बेहद तमीज से अपना सारा मामला सुनाया और उन से फाइल आगे बढ़ाने की गुजारिश की.

उन्होंने मुझे समझाया, ‘‘देखिए साहब, यह जो सरकारी शब्द है न, असल में ‘सरक’ शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है. अब जो नाम से ही सरकता है, उसे आप दौड़ा कैसे सकते हैं?’’

तभी धमकते कदमों के साथ एक महाशय वहां आए. कुरसी खींच कर बैठे और बाबू पर सीधा हमला किया, ‘‘क्यों बे चपड़गंजू, तेरी इतनी हिम्मत कि नेताजी के साले की फाइल 2 दिन तक दबा कर बैठ गया. तेरी तो… अपना ट्रांसफर अंडमाननिकोबार करवाना चाहता है क्या?’’

बाबू साहब की घिग्घी बंध गई. वे गिड़गिड़ाते हुए बोले, ‘‘साहब, घोड़ा घास से यारी करेगा, तो खाएगा

क्या? और फिर ऊपर भी तो पहुंचाना पड़ता है.’’

फिर सौ रुपए के नोटों की एक गड्डी का लेनदेन हुआ और शायद जश्न मनाने के लिए वे दोनों कैंटीन की तरफ चल दिए.

मैं ने चपरासी को रोक कर पूछा, ‘‘मेरा नंबर कब आएगा?’’

चौथा सीन

मैं अपने परिवार वालों के साथ जैसे ही सिनेमाहाल पहुंचा, तो लोगों की भीड़ देख कर चकरा गया.

टिकट की लाइन चक्कर खा कर घूमती हुई जाने कहां तक चली गई थी. वहीं पर मुझे पहली बार अहसास हुआ कि हिंदुस्तान की आबादी वाकई सवा अरब पार कर चुकी है.

खैर, मैं किसी तरह लाइन का आखिरी सिरा ढूंढ़ने में कामयाब हो गया. समय गुजारने के लिए मैं ने आगे वाले से बात करनी चाही, तो पता चला कि वह अगले शो का टिकट लेने के लिए खड़ा था. उस हिसाब से तो टिकट खिड़की तक पहुंचतेपहुंचते मुझे अगला शो शुरू हो जाने की पूरी उम्मीद थी.

तभी एक मददगार की टक्कर से मैं निहाल हो गया. दरअसल, वह टिकट ब्लैक करने वाला था.

उस ने पूछा, ‘‘3 सौ का 5 सौ में मांगता है क्या?’’

मैं ने उसे दिल से शुक्रिया कहा, क्योंकि उस ने कम से कम मुझे ब्लैक में टिकट खरीदने लायक तो समझा. मैं ने उस से पूछा, ‘‘जनाब, इतनी कड़ी मेहनत कर के आप एक दिन में औसतन कितना कमाते हैं?’’

उस ने आंखें तरेरीं, ‘‘सीबीआई वाला है क्या?’’

मैं ने सहमते हुए कहा, ‘‘नहीं जी, बस यों ही अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए पूछा था.’’

वह हंसा और बोला, ‘‘बस 5-6 हजार रुपए रोज कमा लेते हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘इतना… अरे साहब, हम शहर के नामी वकील हैं, फिर भी रोज इतना नहीं कमा पाते हैं.’’

‘‘वही तो, जब मैं वकील था, तो मैं भी इतना नहीं कमा पाता था, पर अब तो बात और है,’’ कह कर ब्लैक में टिकट बेचने वाला चलता बना.

मैं ने पलट कर देखा, तो टिकट खिड़की बंद हो चुकी थी.

मैं ने पूरी ताकत लगाई और चिल्ला कर कहा, ‘‘मेरा नंबर कब आएगा?’’ 

– रंजीत कुमार मिश्र

जीवन की दौड़ में भाग नहीं सकते तो चलिए जरूर

जीवन की दौड़ अब लंबी चलने लगी है, औरतों के लिए भी. पहले जैसे ही बच्चे बड़े हुए और घर से ज्यादा घर से बाहर रहने लगें तो समझो मां बस एक चौकीदार की तरह घर में रहती है. यह कामकाजी और प्रसिद्घ कैरियर वालियों के साथ भी होता रहा है. अभिनेत्रियों को घरों में बंद हो कर रह जाना पड़ता था या फिर शादी कर के गुमनामी में जीवन गुजारने को मजबूर होना पड़ता है. अब दिन फिर रहे हैं.

श्रीदेवी ने फिल्म ‘इंग्लिश विंगलिश’ से नाम कमाया और अब उस की 300वीं फिल्म रिलीज होने वाली है. रानी मुखर्जी फिल्म ‘हिचकी’ में अभिनय कर रही हैं. काजोल तमिल फिल्म में धनुष के साथ काम कर रही हैं. ऐश्वर्या राय बच्चन भी कई फिल्मों में प्रयास कर रही हैं.

असल में बच्चों के बड़े हो जाने के बाद मांओं के पास अपार अवसर होते हैं पर कुछ पारिवारिक दबाव, रीतिरिवाजों और खुद के ओढ़े आलस्यपन के कारण औरतें 40 की उम्र में घर में बैठ जाना चाहती हैं. जो काम कर रही होती हैं, वे भी नए प्रयोग छोड़ देती हैं और जहां है, जैसा है को स्वीकार कर लेती हैं. एक तरह से उन को जंग लग जाता है.

यह ठीक है कि हरेक के पास बहुत कुछ करने के न अवसर होते हैं न हुनर पर यदि आंखें खोल कर चला जाए और व्हाट्सऐप और किट्टी पार्टियों को छोड़ कर कुछ आगे की सोची जाए तो पुन: कैरियर बनाना संभव है. बच्चों को पैदा करना, बड़ा करना, उन के लिए सुरक्षित घर तैयार करना एक कैरियर है पर जब इस कैरियर में संतोष मिलना कम हो जाए तो समय और शक्ति बेकार करने की जगह कुछ नया करने को तैयार रहें. किट्टी पार्टियां, सत्संग, भजन मंडली और सोशल मीडिया क्रिएटिविटी को मारते हैं. ये औरतों के विकास व आत्मविश्वास में बाधक हैं.

यह सोचना गलत होगा कि अवसर नहीं हैं. अवसर हैं पर आमतौर पर थोड़े से पैसे वाली औरतें भी अपनी कीमत कुछ ज्यादा लगाने लगती हैं. वे चाहती हैं कि उन्हें बाहर वह आदर, सम्मान, पैसा, संतोष, सुख मिले, जो घर में मिलता है. यह संभव नहीं है. जब तक बाजार आप की कीमत परखेगा नहीं, न के बराबर देगा पर बाजार का हिसाब है कि वह कुछ तो देगा ही.

घर की चौकीदार, किट्टी पार्टी की शान या भजन मंडली की सब से ज्यादा जोर से तालियां पीटने वाली बनने की जगह एक ग्रौसरी स्टोर में

4 घंटे की कैशियर की नौकरी ज्यादा लाभदायक होगी. इस तरह की सैकड़ों नौकरियां या अवसर बिखरे पड़े हैं पर इन में घर जैसा सुख नहीं, रौब नहीं, करा या न करा की गुंजाइश नहीं.

जीवन की दौड़ में भाग नहीं सकते तो चलिए तो सही. खाली न बैठें, यही सब से बड़ी आवश्यकता है.

अगर हिम्मती होगा सरपंच, खुशहाल बनेगा गांव

महात्मा गांधी के कहे मुताबिक आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए. हर गांव में प्रजातंत्र होना चाहिए. मतलब पंचायत का राज. लेकिन इस राज की अहमियत तभी होगी, जब पंचायतों के पास पूरी सत्ता व ताकत होगी. वे अपने पैरों पर तभी खड़ी हो सकेंगी. इस के लिए उन्हें सरकार से माली मदद मिलती है. लेकिन जब ग्राम पंचायतों तक फंड ही नहीं पहुंचता है, तो क्या वे अपने बूते गांव के विकास के लिए कोई भी ठोस काम नहीं कर पाती हैं? क्या सरकारी योजनाओं के बिना भी या अपने सीमित साधनों से ग्राम पंचायतें गांव वालों की जिंदगी चमका सकती हैं? इस का जवाब है कि ऐसा हो सकता है. इस के लिए हम आप को ले चलते हैं हरियाणा के एक छोटे से गांव रत्ताखेड़ा में.

हरियाणा में पानीपतजींद रोड पर एक तहसील आती है सफीदों, जो अनाज मंडी के चलते पूरे हरियाणा में मशहूर है. यहां से तकरीबन 5 किलोमीटर दूर बसा गांव रत्ताखेड़ा बहुत छोटा सा गांव है. इस में तकरीबन 6 सौ घर हैं, जिन में से ज्यादातर पक्के हैं. कुछ ब्राह्मणों और जाटों के घर तो शहरों जैसी कोठियों को भी मात देते नजर आते हैं.

गांव में घुसते ही एक बड़ा सा मंदिर दिखाई देता है, जो गांव वालों ने चंदा इकट्ठा कर के बनवाया है. यह मंदिर इस गांव को भव्यता देता है, लेकिन मंदिर के ठीक पीछे एक तालाब है… कहने को तालाब है, पर है गंदे बदबूदार पानी का जलभराव, जिस के 3 ओर बने लोगों के घरों ने इस के आकार को और छोटा कर दिया है.

इस गांव की सरपंच पिंकी रानी अन्य पिछड़ा वर्ग के एक परिवार की बहू हैं. 23 साल की पिंकी रानी स्नातक हैं और जींद जिले में सब से कम उम्र की सरपंच बनने का रिकौर्ड उन के नाम है. जब वे सरपंच बनी थीं, तब उन की उम्र 21 साल और 4 महीने थी.

एक बेटे और एक बेटी की मां पिंकी रानी के पति संदीप कुमार उन के काम में मदद करते हैं. वे भी बीए पास हैं और उन्होंने 3 साल का होटल मैनेजमैंट का कोर्स किया है, लेकिन उन का धंधा है ट्रांसपोर्ट का.

चूंकि पिंकी रानी अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं, इसलिए उन का घर गांव के बाहर की ओर है. घर पक्का है और उस में सुखसुविधाओं के सभी साधन मौजूद हैं, जैसे रसोई गैस, कूलर, फ्रिज, टैलीविजन वगैरह. इस के अलावा उन्होंने गायभैंसें भी पाल रखी हैं. घर में घुसते ही दाईं ओर एक कमरा बना रखा है, जिस में एक मेज और कुरसी बिछा कर दफ्तर बना रखा है.

गांव में आज भी परदा प्रथा है, इसलिए शुरू में तो पिंकी रानी को गैर मर्दों से बातचीत करने में बड़ी दिक्कत हुई थी, पर ससुराल वालों की मदद से परदा प्रथा की ओट से बाहर निकली पिंकी रानी अब पहले के मुकाबले अपनी बात ढंग से रख पाती हैं. उन्होंने बताया कि मायके पक्ष में उन के मामा अपने गांव के सरपंच थे. उन्हें देख कर उन के मन में भी गांव की भलाई के काम करने की इच्छा जागी थी. ससुराल में आ कर उन का यह सपना पूरा हुआ.

अपनी ससुराल वालों के बारे में पिंकी रानी ने बताया, ‘‘जब मैं ने गांव में सरपंच का चुनाव लड़ने की इच्छा जताई, तो मेरे सासससुर ने कोई एतराज नहीं जताया. पति ने भी हर तरह से मेरी मदद की.

‘‘अगर गांव को नशामुक्त करने की बात लोगों तक पहुंचानी है, तो मैं सिर गर्व से ऊंचा कर के बोल सकती हूं कि मेरी ससुराल में कोई भी नशे का सेवन नहीं करता है. इन सब चीजों का समाज पर गहरा असर पड़ता है.’’

इस गांव की मूलभूत समस्याएं क्या हैं और उन को दूर करने के लिए पंचायत क्या करती है? इस सवाल पर पिंकी रानी ने बताया, ‘‘हमारे गांव का स्कूल 12वीं जमात तक का है, लेकिन अभी स्कूल में कमरे कम हैं. बरसात व गरमी के मौसम में बच्चों को परेशानी होती है. खेलकूद के सामान की भी कमी है. इस सब के बावजूद पिछले साल 12वीं जमात के सौ फीसदी बच्चे पास हुए थे.’’

इस गांव का स्कूल कहने को 12वीं जमात तक का है, लेकिन उस लैवल की सुविधाएं वहां नहीं दिखीं. इस को 12वीं जमात का बनाने की सब से अहम वजह यह थी कि गांव वाले अपनी बेटियों को 5 किलोमीटर दूर तहसील के स्कूल में पढ़ने के लिए नहीं भेजना चाहते थे.

एक और परेशानी यह है कि इस गांव में 2 तालाब हैं, लेकिन उन में गांव की गलियों का गंदा पानी आता है. लिहाजा, वहां गंदगी की भरमार रहती है.

जब सरपंच से इस बदहाली के बारे में पूछा गया, तो वे बोलीं, ‘‘इस गांव में पानी के निकास की सब से बड़ी समस्या है. इन तालाबों में गांव भर का गंदा पानी इकट्ठा होता रहता है और बीमारियां फैलने का डर रहता है.’’

रत्ताखेड़ा छोटा गांव है. इसे जींद के पुलिस सुपरिंटैंडैंट ने गोद लिया हुआ है. यह जाट व ब्राह्मण बहुल गांव है, पर इस में कुल 11 बिरादरी के लोग रहते हैं.

पिंकी रानी बताती हैं, ‘‘हमारी कोशिश रहती है कि गांव वालों के बीच कोई विवाद न हो, और अगर झगड़ा हो भी जाए तो हम उसे कोर्टकचहरी तक नहीं जाने देते हैं.’’

ग्राम पंचायत ने पूरे गांव में कूड़ेदान लगवाए थे. कुछ दिन तो लोगों ने उन में कूड़ा डाला, पर बाद में वही ढाक के तीन पात. अब तो कूड़ेदान ढूंढ़े नहीं मिलते हैं. यहां की सारी गलियां पक्की हैं. कम से कम ईंटों का खड़ंजा तो जरूर है. नालियां भी पक्की हैं. हर घर में शौचालय है. अगर कोई शौच के लिए बाहर जाता है, तो उस पर 11 सौ रुपए का जुर्माना लगाया जाता है. लेकिन चूंकि यहां पर सीवर सिस्टम नहीं है, इसलिए शौचालय की सफाई कराने में समस्या आती है.

इसी गांव के लगातार 2 बार पंचायत सदस्य रह चुके नरेश वशिष्ठ ने बताया, ‘‘साल 1977 में यह गांव पूरे जींद जिले में सफाई के मामले में फर्स्ट आया था. यहां की एकता ही इस गांव की मजबूती है.

‘‘स्कूल में फर्स्ट आने पर बच्चों को इनाम दिया जाता है. हमारे गांव में कुल 11 वार्ड हैं. सब से साफ वार्ड को भी अवार्ड दिया जाता है. गांव में कई चौपालें हैं. स्कूल व मंदिर में वाटर कूलर लगवाए गए हैं. एक छोटा सा पशु अस्पताल भी है. गलियों के खंभों पर एलईडी लाइटें लगवाई गई हैं.’’

खेतीकिसानी के बारे में सरपंच पिंकी रानी ने बताया, ‘‘तकरीबन हर घर में पशु पाले जाते हैं. ज्यादातर गायभैंसें होती हैं. जब से खेती में ट्रैक्टर का चलन बढ़ा है, तब से बैल वगैरह पालने का रिवाज खत्म हो गया है. हां, बुग्गी चलाने के लिए भैंसा पाला जाता है.

‘‘हमारे गांव में ज्यादातर पारंपरिक खेती होती है. गेहूं व धान ज्यादा उगाए जाते हैं. किसान ज्यादा फसल पाने के चक्कर में कैमिकल खाद का इस्तेमाल करते हैं. उन्हें आर्गेनिक खाद पर अभी तक यकीन नहीं हुआ है, पर धीरेधीरे जागरूकता आएगी.’’

रत्ताखेड़ा गांव के किसान भले ही अभी भी पारंपरिक खेती को अपना रहे हैं, लेकिन पानीपत जिले का सिवाह गांव खेतीबारी के नए तरीके ही नहीं अपना रहा है, बल्कि बढ़ते शहरीकरण की अच्छी बातों का दिल खोल कर स्वागत भी कर रहा है.

गांव सिवाह पानीपत जिले के बड़े गांवों में आता है. इस गांव में तकरीबन 10 हजार वोटर हैं और कुल आबादी तकरीबन 30 हजार है. इस पंचायत में 20 वार्ड हैं. यहां के सतवीर कादियान और बिजेंद्र सिंह कादियान का हरियाणा की राजनीति में दखल रहा है.

सतवीर कादियान ओम प्रकाश चौटाला की इंडियन नैशनल लोकदल सरकार में हरियाणा विधानसभा में स्पीकर पद पर रह चुके हैं और इफको के चेयरमैन भी रहे हैं. बिजेंद्र सिंह कादियान बंसीलाल की हरियाणा सरकार में पशुपालन मंत्रालय संभाल चुके हैं.

इस गांव में प्राइमरी और 12वीं जमात के मिला कर कुल 4 सरकारी स्कूल हैं और एक सरकारी कालेज भी है. नैशनल लैवल की पहलवानी कर चुके नौजवान सरपंच खुशदिल कादियान पिछले सवा साल से इस गांव की पंचायत को संभाल रहे हैं.

खुशदिल कादियान का मानना है कि पंचायत में हिस्सेदारी होने का मतलब है राजनीति में और ऊपर जाने का सपना देखना. अगर आप में अपने गांव व समाज के लिए कुछ करने का जज्बा है, तो इसे राजनीति की पहली सीढ़ी मानने में कोई बुराई नहीं है.

20 एकड़ जमीन के मालिक खुशदिल कादियान का सपना है कि उन का गांव पूरी तरह शौच मुक्त हो जाए. अभी इस गांव के 98 फीसदी घरों में शौचालय बन चुके हैं.

गांवों में हर घर में शौचालय बनाने की सरकारी मुहिम तो अच्छी है, पर हर गांव की समस्या यही है कि वहां सीवर नहीं है. औरतें और नई पीढ़ी तो इन शौचालयों का इस्तेमाल करती हैं, लेकिन पुरानी पीढ़ी के मर्द आज भी शौच के लिए बाहर जाते दिख जाते हैं. वैसे, जनस्वास्थ्य विभाग गांव में 22 किलोमीटर लंबी सीवरेज लाइन बिछाएगा.

कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए सरपंच खुशदिल कादियान एक मुहिम चला रहे हैं. उन्होंने बताया, ‘‘हमारे गांव के स्कूली बच्चे साल में 1-2 बार प्रभात फेरी लगाते हुए पूरे गांव में घूमते हैं. उन के हाथों में कन्या भ्रूण हत्या को रोकने से संबंधित स्लोगन लिखे बैनर होते हैं. बच्चों द्वारा समझाई गई बातों का बड़ों पर, खासकर औरतों पर अच्छा असर होता है.

‘‘इस के अलावा हम ने एक प्रशिक्षण केंद्र बनवाया है, जहां औरतों व लड़कियों को मुफ्त में सिलाई, कढ़ाई, ब्यूटीपार्लर, बुटिक व कंप्यूटर का 21 दिनों का कोर्स सिखाया जाता है. इस में पंजाब नैशनल बैंक की भी भागीदारी है.

‘‘ग्राम पंचायत समयसमय पर मैडिकल कैंप भी लगवाती है, ताकि गांव वालों को फायदा हो सके.’’

पिंकी देवी और खुशदिल कादियान दोनों पढ़ेलिखे और कम उम्र के सरपंच हैं. दोनों नई सोच का स्वागत करते हैं और इन का मकसद किसी भी तरह से गांव में आपसी भाईचारा बनाए रखना है.

ये दोनों सरपंच ‘छोटा परिवार सुखी परिवार’ की नीति पर अमल करते हैं. पिंकी रानी आगे भी पढ़ाई चालू रखना चाहती हैं. पहले वे लोगों से बात करने में झिझकती थीं, पर अब तो धड़ल्ले से भाषण देती हैं. वे अपने गांव रत्ताखेड़ा में अस्पताल बनवाना चाहती हैं, ताकि बीमार लोगों को 5 किलोमीटर दूर तहसील के अस्पताल में न जाना पड़े.

गठीले बदन के हैंडसम सरपंच खुशदिल कादियान अपने नाम की तरह खुशदिल मिजाज के हैं. उन की पत्नी मोनिका 12वीं पास हैं और घरेलू औरत हैं. खुशदिल कादियान के 2 बच्चे हैं, जिन्हें वे खूब पढ़ाना चाहते हैं.

साथ ही, खुशदिल कादियान का सपना है कि गांव के सभी तालाब जिंदा रहें, जिस के लिए वे जोरशोर से काम भी करवा रहे हैं. तालाबों की कमी में लोग अपने पशुओं को घरों पर नहलाते हैं. घर में एक पशु को नहलाने में तकरीबन 2 सौ लिटर पानी खर्च हो जाता है. तालाब में पशुओं को नहलाने से पानी की बचत होती है. लेकिन तालाबों में गांव का दूषित पानी नहीं जाना चाहिए व उन पर गैरकानूनी कब्जा भी नहीं होना चाहिए.

ऐसा नहीं है कि ये सरपंच सरकार से कोई उम्मीद नहीं रखते हैं, पर जब तक अपने लैवल पर काम हो रहा है, तो ये गांव की भलाई के लिए कोई भी ठोस कदम उठाने में देर नहीं लगाते हैं. 

मसले ग्राम पंचायतों के

हमारे देश की तकरीबन 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है और पूरे देश में 2 लाख, 39 हजार से भी ज्यादा ग्राम पंचायतें हैं. अगर ग्राम पंचायत किसी गांव के विकास के लिए रीढ़ की हड्डी होती है, तो ग्राम प्रधान या सरपंच उस रीढ़ की हड्डी को अपने अच्छे कामों से मजबूती देता है.

ग्राम पंचायतें गांव की साफसफाई, रोशनी, सड़कों, दवाखानों, कुओं की सफाई और मरम्मत, सार्वजनिक जमीन, बाजार, मेलों व चरागाहों का इंतजाम करती हैं. वे जन्ममृत्यु का लेखाजोखा रखती हैं और खेतीबारी, उद्योगधंधों व कारोबार की तरक्की, बीमारियों की रोकथाम, श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों की देखभाल भी करती हैं.

इस के अलावा ग्राम पंचायत के गांव में पेड़ लगाने, पशुवंश का विकास, गांव की हिफाजत के लिए ग्राम सेवक दल बनाना, सहकारिता का विकास, अकाल पीडि़तों की सहायता, पुलपुलियों को बनवाना, स्कूल व अस्पतालों का सुधार वगैरह ऐच्छिक कर्तव्य भी हैं.

मतलब, एक गांव की तरक्की में ग्राम पंचायत का अहम रोल होता है, लेकिन साल 1992 तक पंचायत ही गांव में महज एक ऐसी औपचारिक संस्था थी, जिस के हाथ में न तो कोई हक था और न ही पैसा, जबकि पंचायत राज बनाने के पीछे हमारे रहनुमाओं का सपना तो यह था कि ग्राम पंचायतें देश की सरकार की भागीदार बन कर अपने गांवों की तरक्की खुद करेंगी.

इसी बात के मद्देनजर देश के प्रधानमंत्री रह चुके राजीव गांधी ने पंचायती राज को मजबूत बनाने के लिए संविधान में 64वां संशोधन प्रस्ताव भी संसद में रखा था, पर वह पास नहीं हो सका था. हालांकि साल 1992 में संविधान में 73वां संशोधन किया गया था. इस में पंचायतों को स्वशासन की स्थानीय इकाई के रूप में बहुत सारे अधिकार देने की बात कही गई थी.

इसी संशोधन के तहत संविधान में जोड़ी गई धारा 243 में ग्राम सभा यानी गांव के तमाम लोगों की खुली बैठक को कानूनी रूप दिया गया, लेकिन पंचायती राज से जो फायदे गांव वालों को होने चाहिए थे, उन की बात तो अभी सपना ही लगती है.

यही वजह है कि पंचायतें केंद्र व राज्य सरकारों से मिलने वाली मदद को गांव में बांटने वाली संस्था बन गई हैं. शायद बड़े नेता नहीं चाहते हैं कि ग्राम पंचायतों के हक बढ़ें और वे अपने स्तर पर गांवों का विकास कर सकें, उन के लिए योजनाएं बना कर हर काम पर निगरानी रखें.

हो यह रहा है कि संविधान में पंचायतों की व्यवस्था होने के बावजूद आज भी गांव वाले अपने विकास के छोटे से छोटे काम के लिए केंद्र सरकार व राज्य सरकारों का मुंह ताकते हैं. सरकारें उन पर लुभावनी योजनाएं लाद देती हैं. दुख की बात तो यह है कि उन योजनाओं से गांव वालों का कैसे फायदा होगा, यह बात भी सलाह के रूप में उन से नहीं पूछी जाती है.

इस सब का नतीजा है कि ग्राम पंचायतें बड़ी सरकारों की योजनाओं को लागू करने की एजेंसियां बन कर रह गई हैं. कोढ़ पर खाज होती है नौकरशाही, जिस के सामने गांव वाले अपनी भलाई के लिए मिलने वाले पैसे को पाने के लिए हाथ जोड़े खड़े रहते हैं. इसी वजह से भ्रष्टाचार फैलता है और पंचायतों तक पहुंचने वाला फंड उस के असली हकदार तक पहुंचता ही नहीं है.

पंचायत ने संवारे, ये गांव हैं न्यारे

पंचायत की मजबूत अगुआई और गांव वालों की मेहनत के दम पर भारत के कई गांव दुनियाभर में मिसाल बन कर सामने आए हैं. उन में से एक है महाराष्ट्र में सूखे की मार झेलने वाले अहमदनगर जिले का गांव हिवरे बाजार.

70 के दशक में हिवरे बाजार अपने ‘हिंद केसरी’ पहलवानों के लिए मशहूर था, लेकिन वहां के सूखे ने पहाडि़यों को मानो बंजर बना दिया था. उजाड़ पहाड़, पानी को तरसते खेत, वहां के लोगों की यही दास्तान थी. लेकिन इस गांव के लोगों और पंचायत के कामकाज का ही नतीजा है कि आज यह गांव अलग ही इबारत लिख रहा है.

गांव में घुसते ही लगेगा कि आप किसी दूसरी दुनिया में आ गए हैं. पक्की और चौड़ी सड़कें, पक्के मकान, साफसुथरी नालियां, पेड़पौधों के तो कहने ही क्या. तभी तो इस गांव को देखने का टिकट लगता है.

साल 1989 से पहले ऐसे हालात नहीं थे. तब इस गांव के ज्यादातर नौजवान बेरोजगार थे. गांव में कच्ची शराब की भट्ठियां थीं. गुटबाजी पसरी हुई थी. इस बात से नाराज कुछ नौजवानों ने इस गांव को सुधारने का बीड़ा उठाया और अपने एक साथी पोपटराव पवार को एक साल के लिए गांव का सरपंच बना दिया.

पोपटराव पवार ने गांव वालों के साथ मिल कर गांव की भलाई के फैसले लेने शुरू किए. गांव व आसपास के इलाकों में तकरीबन 2 हजार वाटरशैड बनाए गए, जहां बारिश का पानी इकट्ठा हुआ और पानी का लैवल बढ़ने से वहां का इलाका हराभरा हो गया.

आज इस गांव के हर घर में शौचालय है. पेड़ों की कटाई पर सख्त पाबंदी है. शराबबंदी लागू है. धुआं देने वाले पारंपरिक चूल्हे पूरी तरह से हटा दिए गए हैं. इस आदर्श गांव को कई अवार्ड भी मिल चुके हैं.

इसी तरह राजस्थान के राजसमंद जिले का एक गांव पिपलांत्री भी अपनेआप में एक मिसाल है. इस गांव की पंचायत के लोग बेटी के पैदा होने पर 111 पेड़ लगा कर बेटियों के साथसाथ आबोहवा को बचाने की अनोखी मुहिम छेड़े हुए हैं.

पेड़ लगाने के साथसाथ बेटी के बेहतर भविष्य के लिए गांव के लोग आपस में चंदा इकट्ठा कर के 21 हजार रुपए जमा करते हैं और 10 हजार रुपए लड़की के मांबाप से लेते हैं. 31 हजार रुपए की यह रकम लड़की के नाम 20 साल के लिए बैंक में फिक्स डिपौजिट में जमा कर दी जाती है.

लड़की के मातापिता को एक शपथपत्र पर दस्तखत कर के देना होता है कि बेटी की पढ़ाईलिखाई का पूरा इंतजाम किया जाएगा. 18 साल की होने के बाद ही बेटी की शादी की जाएगी. परिवार का कोई भी सदस्य कन्या भ्रूण हत्या में शामिल नहीं होगा. बेटी के जन्म के बाद जो पौधे लगाए गए हैं, उन की देखभाल की जाएगी.

साल 2006 से शुरू हुई यह परंपरा आज भी कायम है. अब तक लाखों पेड़ लगाए जा चुके हैं. साल 2004 में पिपलांत्री ग्राम पंचायत को राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिल चुका है.

हरियाणा के जींद जिले के गांव बीबीपुर की पंचायत ने अपने अनूठे कामों से देशविदेश में नाम कमाया है. ‘सैल्फी विद डौटर’ से सुर्खियों में आए इस गांव के सुनील जागलान, जो पहले यहां के सरपंच भी थे, ने कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ मुहिम चलाई थी.

गौरतलब है कि ग्राम पंचायत बीबीपुर द्वारा महिलाओं के सशक्तीकरण को ले कर कई बड़े आयोजन कराए जा चुके हैं. हरियाणा सरकार ने इस पंचायत को एक करोड़ रुपए का इनाम दिया था और इसे 2 बार नैशनल लैवल का अवार्ड भी मिल चुका है.

अब सुनील जागलान द्वारा ‘बीबीपुर मौडल औफ वीमन इंपावरमैंट ऐंड विलेज डेवलपमैंट’ नाम की मुहिम चलाई गई है, जिस के सौ सूत्रीय कार्यक्रम की जानकारी भारत के राष्ट्रपति को दी गई. अब राष्ट्रपति द्वारा गोद लिए गए सौ गांवों में बीबीपुर गांव का यह मौडल लागू किया जाएगा.       

सलमान को प्रशंसकों से नहीं मिली ईदी

स्टारडम हासिल करने के बाद से सलमान खान को हर ईद पर उनके प्रशंसकों से भरपूर ईदी देते आए हैं. लेकिन यह पहला मौका है, जब सलमान खान के प्रशंसकों से सलमान को ईदी नसीब न हो पायी.

जी हां! यह कटु सत्य है. स्टारडम हासिल करने के बाद से सलमान खान हर बार ईद के मौके पर ही अपनी फिल्म प्रदर्शित करते आए हैं. हर बार उनकी फिल्में ईद के कारण बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त धन बटोरती रही हैं. मगर इस बार ईद के ही मौके पर 23 जून को प्रदर्शित सलमान खान की फिल्म ‘ट्यूबलाइट’ बॉक्स ऑफिस पर धन नहीं बटोर पा रही है.

स्टारडम के बाद सलमान खान के करियर की यह पहली फिल्म है, जिसकी बॉक्स ऑफिस पर इतनी दुर्गति हुई है. टयूबाइट ने शुक्रवार को 21.15 करोड़, शनिवार को 21.71 करोड़, रविवार को 22.45 करोड़ और सोमवार यानी कि ईद के दिन सबसे कम महज 19.09 करोड़ ही कमा सकी. यानी कि चार दिन में महज 83.86 करोड़ ही कमा सकी.

यहां यह ध्यान देना पड़ेगा कि सलमान खान की फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ ने चौथे दिन 28.05 और ‘सुल्तान’ ने चैथे दिन 36.62 करोड़ कमाए थे. इतना ही नहीं ‘बजरंगी भाईजान’ ने शुक्रवार, शनिवार व रविवार इन तीन दिन में ही लगभग 103 करोड़, ‘सुल्तान’ ने तीन दिन में ही 105.53 करोड़ कमा लिए. उसे देखते हुए ‘ट्यूबलाइट’ने आधा व्यापार किया है.

अब सलमान खान के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस सप्ताह के खत्म होने तक सौ करोड़ की कमाई करना है.

‘ट्यूबलाइट’ की दुर्गति के लिए फिल्म के पटकथा लेखक व निर्देशक कबीर खान पूरी तरह से दोषी हैं. मगर यह बात पता नहीं क्यों सलमान खान नहीं समझ पाए. जब फिल्म आलोचकों ने फिल्म ‘ट्यूबलाइट’ की आलोचना की, तो सलमान खान ने फिल्म आलोचकों पर ही तंज कसा. अब सलमान खान अपने प्रशंसकों से क्या कहेंगे?

सेक्स के सारे डायमेंशन फिल्म ‘शब’ में हैं : ओनीर

वक्त वक्त की बात है. मूलतः बंगाली मगर भूटान में जन्में व कलकत्ता में पले बढ़े फिल्मकार ओनीर मुंबई फिल्म निर्देशक बनने आए थें, मगर उन्हें बतौर एडीटर करियर की शुरूआत करनी पड़ी थी.

बतौर एडीटर फिल्म ‘दमन’ के सेट पर ओनीर की मुलाकात रवीना टंडन व संजय सूरी से हुई थी. दोनों ने उनके निर्देशन में काम करने की इच्छा जाहिर की. तब संजय सूरी व रवीना टंडन को लेकर अपनी 2001 में लिखी कहानी ‘शब’ पर फिल्म बनाने का असफल प्रयास किया.

उसके बाद ओनीर ने बतौर निर्माता, निर्देशक, लेखक व एडीटर ‘माई ब्रदर निखिल’, ‘आई एम’ सहित चार दूसरी फिल्में बना कर कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार बटोरे. अब 17 साल पहले लिखी कथा पर ओनीर फिल्म ‘शब’ बना पाए हैं. जिसमें संजय सूरी, रवीना टंडन, आशीष बिस्ट व अर्पिता चटर्जी के साथ फ्रेंच कलाकार सिमॉन फेनॉय ने भी अभिनय किया है.

ओनीर के पिता अपरेश धार कलकत्ता के एक स्कूल में प्रिंसिपल थें, मगर जब स्कूल मैनेजमेंट ने स्कूल में पढ़ रहे उनके नेपाली विद्यार्थियों को स्कूल से निकाल दिया. बाद में कलकत्ता पुलिस ने उन नेपाली विद्यार्थियों को गिरफ्तार कर लिया, जो कि बाद में मृत पाए गए. इसके विरोध स्वरुप ओनीर के पिता ने प्रिंसिपल के पद से त्यागपत्र दे दिया था. वह हमेशा रंगभेद का विरोध करते रहे. इन दिनों ओनीर इस बात पर गुस्सा हैं कि ममता सरकार जबरन दार्जलिंग के लोगों को बंगला भाषा सीखने पर मजबूर क्यों कर रही है.

ओनीर से उनके करियर, फिल्म, रंगभेद व जीएसटी को लेकर ‘सरिता’ पत्रिका से हुई एक्सक्लूसिव बातचीत इस प्रकार रही.

फिल्म ‘‘दमन’’ के समय संजय सूरी और रवीना टंडन दोनों ने आपके साथ काम करने की बात कही थी. संजय सूरी तो लगातार आपके साथ जुड़े हुए हैं. पर रवीना टंडन?

जब 12 वर्ष पहले मैं फिल्म ‘शब’ बना रहा था, तब दोनों इस फिल्म में अभिनय कर रहे थें. पर उस वक्त फिल्म बन नहीं पायी. उस वक्त सभी निर्माता ने ‘शब’ को बोल्ड कह कर पीछा छुड़ा लिया था. उसके बाद रवीना टंडन की शादी हो गयी. वह अपनी पारिवारीक जिम्मेदारीयों को निभाने लगी. खुद कुछ फिल्मों का निर्माण भी किया. दूसरी तरफ मैं और संजय सूरी अलग तरह की फिल्में बनाते रहे. पर रवीना टंडन के साथ हमारा संबंध बना रहा. हम अक्सर पार्टियां करते थें. हमारे बीच दोस्ती बरकरार रही. रवीना से हमारी मुलाकातें लगातार होती रहीं. जब हमने दुबारा फिल्म ‘शब’ की शुरूआत की, तो संजय सूरी के साथ ही रवीना ने भी इसमें अभिनय किया. संजय सूरी के साथ मेरी दोस्ती काफी मजबूत है. हम दोनों कि सोच में कोई अंतर नजर नहीं आता.

इस बार आपने शब की कहानी बदली है?

नहीं. वही कहानी है. आज भी फिल्म ‘शब’ बोल्ड है. मगर इस बार मैंने खुद ही संजय सूरी के साथ मिलकर इसका निर्माण किया है. इसे अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में काफी सराहा जा चुका है. अब हम इसे 30 जून को भारत में प्रदर्शित कर रहे हैं.

अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में आपकी फिल्म शब को किस तरह की प्रतिक्रिया मिली?

सभी ने कहा कि अब तक इस तरह की कहानी किसी भारतीय फिल्म में नहीं देखा. मैंने अपनी फिल्म के कई अहम हिस्से ट्रेलर में नहीं दिखाए हैं.

कहा जा रहा है कि आप इस फिल्म से यह बताना चाहते हैं कि औरतें हर चीज या हर मुकाम पाने के लिए सेक्स को जरिया बनाती हैं?

हमारी फिल्म में कुछ उल्टा सा है. आप निजी जिंदगी में भी देखेंगे, तो पावर के खेल में अलग अलग हालातों में पुरूष या स्त्री अपने पावर का इस्तेमाल करते हैं. तो कुछ लोग अपने पावर का उपयोग नहीं भी करते हैं. कुछ लोग आदर्श व जीवनमूल्यों को महत्व देते हैं. कुछ लोग सारी नैतिकता को ठोकर मारकर अपना सपना पूरा करना चाहते हैं. निजी जिंदगी में भी हम सभी गलतियां करते हैं. दूसरों को दुःख पहुंचाते हैं. हमारी फिल्म का किरदार गलतियां करता है, पर वह अपनी गलती को समझकर उसे सुधारता है. फिल्म देखते समय दर्शक महसूस करेंगे कि हां इसने गलती की है और वह इस बात को महसूस कर रही है.

सपनों को पूरा करने के लिए इंसान को सेक्स को हथियार क्यों बनाना पड़ता है?

देखिए, सेक्स तो हर इंसान के अंदर का हिस्सा है. कुछ लोग सेक्स को पावर के रूप में उपयोग कर अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश करते हैं. कई बार लोग अपनी तकदीर के नाम पर या मुकाम पाने के नाम पर सेक्स को एक पावर की तरह उपयोग करते हैं. हमारी फिल्म में इस पावर के अलग अलग लेयर हैं. हमारी फिल्म में सेक्स पावर भी है, तो दोस्ती भी है. सेक्स के जितने डायमेशन हो सकते हैं, वह सारे हमारी फिल्म ‘शब’में हैं.

अब आपने अपना ऐसा मुकाम बना लिया है कि बड़े कलाकार आपके साथ काम करने को तैयार रहते हैं, फिर शब में कलाकार को क्यों चुना?

क्योंकि कहानी ऐसी है. छोटे शहर का लड़का स्टार कलाकार बनने के लिए दिल्ली आता है. तो ऐसे किरदार के लिए हमें नए कलाकार की जरुरत थी. बड़े कलाकार को यदि हम फिल्म का हिस्सा बनाते, तो वह बात न आती. किरदार यकीन करने लायक न होता. आशीष बिस्ट के चेहरे पर जो मासूमियत है, वह हमारी फिल्म के किरदार को उभार देता है. परिवार से जुड़ाव भी चेहरे पर नजर आना चाहिए.

क्या वजह है कि उत्तर पूर्वी राज्यों से आने वाले कलाकार मेनस्ट्रीम सिनेमा से नहीं जुड़ पा रहे हैं?

कमी हमारे अंदर है. हम लोगों को अपनाना नहीं चाहते. अब देखिए, दिल्ली में उत्तर पूर्वी राज्यों से आने वाले लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाता है. भारत के ज्यादातर हिस्सों में गोरे चेहरे वाले इंसान को ‘गैर भारतीय’ मान लेते हैं. उत्तरपूर्वी राज्यों में जाएं, तो वह काले रंग वालों को अपना नहीं मानते. तो हमारे देश में रंग भेद बहुत ज्यादा है. हम विदेषों में जाते हैं और रंग भेद की शिकायत करते हैं, जबकि हमारे अपने देश में रंग भेद बहुत ज्यादा है. हम लोग उत्तर पूर्वी राज्यों के लोगों की इज्जत नहीं करते. मेरी समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों है?

इन दिनों पश्चिम बंगाल व दार्जलिंग में जो कुछ हो रहा है, उसे सही कैसे ठहराया जा सकता है, आप किसी भी इंसान पर जबरन बंगाली भाषा सीखना कैसे थोप सकते हैं? इंसान खुशी से कोई भी भाषा सीख सकता है. मुझे तो नेपाली भी आती है. इसी तरह खानपान का मसला भी है. हम स्वतंत्र देश में रहते हैं. यहां हम सभी को यह ध्यान रखना चाहिए कि हमें किसी की भी भावनाओं को आहत नहीं करना है. दूसरों की इज्जत करना हमें खुद से आना चाहिए.

जीएसटी को लेकर क्या कहेंगे?

इससे सिनेमा को बहुत नुकसान होगा. देखिए, हमारा भारतीय सिनेमा वैसे ही बहुत मार झेल रहा है. फिल्म के निर्माता को तो अंत तक झेलना पड़ता है. जो इंसान फिल्म बनाता है, उसके हाथ में कुछ नहीं आता है. सरकार का टैक्स, वितरक का शेयर, सिनेमा घर मालिक का शेयर सब बंट जाता है. जी एस टी के आने से सारे इंडीपेंडेंट फिल्म मेकर परेशान हो जाएंगे. इनके लिए फिल्म बनाना मुश्किल हो जाएगा.

ऐसे मसलों पर फिल्म उद्योग में एकजुट होकर सरकार से बात क्यों नही करता?

दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग एकजुट व मजबूत है. स्ट्रॉन्ग है. पर हमारे बॉलीवुड में एकता नहीं है. जब ‘यशराज फिल्मस’ ने मीडिया नेट को मना किया था, तब हर फिल्मकार को मना करना चाहिए था. पर ऐसा नही हुआ. वास्तव में जिनका कंटेंट कमजोर होता है, वह पैसे खर्च कर अपनी फिल्मों का प्रचार करते हैं यह चीज फिल्म इंडस्ट्री के लिए खराब है. क्योंकि जिनके पास पैसा नहीं है, पर अच्छा कंटेंट है, वह मीडिया नेट का हिस्सा नहीं बन पाते और उनकी फिल्में दर्शकों तक नही पहुंचती. हमने देखा कि हमारे स्टार कलाकार सोशल मीडिया पर भी अपनी कमर्शियल फिल्मों की ही तारीफ करते हैं, अच्छे कंटेंट वाले सिनेमा की कोई तारीफ नहीं करता.

उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकीं ये फिल्में

अच्छी कहानियों और लाजवाब अभिनय के कारण, कुछ खास फिल्मों के साथ साल 2016 बॉलीवुड के लिए एक शानदार साल साबित हुआ. फिर भी कुछ फिल्में ऐसी थी जिनसे दर्शकों को काफी उम्मीदें थी, पर ये बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कमाल नहीं दिखा पाईं. हालांकि इन सभी को A सर्टिफिकेट जरूर मिल गया.

1. फितूर

फरवरी 2016 को सिनेमा घरों में आई कैटरीना कैफ और आदित्य रॉय कपूर अभिनीत इस फिल्म से सभी को काफी उम्मीदें थीं. इस दोंनो ही कलाकारों की क्यूट अदाएं और कश्मीर जैसी खूबसूरत जगह पर शूटिंग होने के बावजूद भी ये फिल्म किसी की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी.

2. बार बार देखो

सितम्बर 2016 में फिल्म की रिलीज से पहले ही फिल्म का गाना 'काला चश्मा' खासा पसंद किया गया. इस गाने को लेकर लोगो की प्रतिक्रिया को देखते हुए तो यही उम्मीद लगाई जा रही थी कि कैटरीना कैफ और आदित्य रॉय की ये फिल्म एक बड़ी हिट होने वाली है. पर ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर असफल साबित हुई.

3. फैन

अब सुपरस्टार शाहरुख खान की किसी फिल्म को एक बड़ी फ्लॉप कह पाना आसान तो नहीं है पर अप्रैल 2016 में आई उनकी फिल्म ‘फैन’ की किस्मत उनके दर्शको द्वारा एक फ्लॉप फिल्म के तौर पर करार दी गई. वैसे क्रिटिक्स ने फिल्म को सराहा पर बॉक्स ऑफिस पर फिल्म सफल साबित नहीं हो सकी.

4. मोहम जोदड़ो

इस फिल्म में रितिक रोशन और फिल्म निर्माता आशुतोष गोवरिकर की जोड़ी से दर्शकों को काफी उम्मीदें थीं. ये फिल्म 12 अगस्त 2016 को रिलाज की गई, पर इस फिल्म को मिली असफलता के झटके ने एक बात तो साबित कर दी कि अब दर्शक अपनी पसंद को लेकर काफी सजग हो गए हैं.

5. रॉक ऑन टू

फिल्म रॉक ऑन की सफलता के बाद इसका सीक्वल रॉक ऑन टू भी, नवंबर 2016 में रिलीज किया गया. बदकिस्मती से श्रद्धा कपूर और फरहान अख्तर की इस फिल्म ने नोदबंदी की मार झेलते हुए बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कमाल नहीं दिखाया.

आमिर की “दंगल” के विश्वस्तर पर दो हजार करोड़ के मायने

‘‘फोर्ब्स’’ पत्रिका की माने तो आमिर खान की फिल्म ‘‘दंगल’’ ने चीन में 53वें दिन ढाई करोड़ रूपए कमा कर विश्व स्तर पर दो हजार करोड़ रूपए कमाने का आंकड़ा छू लिया है. इतना ही नहीं चीन के बॉक्स ऑफिस पर सर्वाधिक कमायी करने वाली फिल्मों में ‘दंगल’ सोलहवें नंबर पर पहुंच गयी है, जबकि हॉलीवुड फिल्म ‘‘अवतार’’ 14वें और ‘जुरासिक वल्र्ड’ 15वें पायदान पर हैं. भारत में ‘बाहुबली 2’ के बाद सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्म ‘दंगल’ दूसरी फिल्म बनी हुई है.

विश्व स्तर पर फिल्म ‘दंगल’ के 2000 करोड़ कमा लेने के मायने यह हैं कि पूरे विश्व में भारतीय भावनाओं व भारतीय परिवेश की कहानियों की कद्र की जाती है. इससे वह भारतीय फिल्मकार झूठे साबित हो रहे हैं, जो कि हमेशा यह कह कर खुद का बचाव करते आए हैं कि हॉलीवुड फिल्मों में इमोशंस/भावनाएं नहीं होती हैं और ऐसी फिल्में ही सर्वाधिक पसंद की जाती हैं, जबकि भारतीय फिल्में भावनाओं से भरपूर होती हैं, जिसे विश्व के दर्शक कम पसंद करते हैं. ‘दंगल’ को विश्व भर में मिल रही सफलता से यह साबित होता है कि भारतीय परिवेश की कहानियों की युनिवर्सल अपील है. जरुरत है उन्हें सही अंदाज में पेश करने की. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अब हॉलीवुड फिल्मकारों व कलाकारों में भी भारत के प्रति प्रेम बढ़ा है. वहां के लोग भारतीय फिल्मों का हिस्सा बनना चाहते हैं. भारत में आकर फिल्में बनाना चाहते हैं. हालात यह हैं कि अब कई देशों के नागरिक भारत आकर न सिर्फ रह रहे हैं बल्कि यहां शादी घर परिवार भी बसा रहे हैं.

फिल्म ‘‘दंगल’’ को मिली सफलता से ही ‘बाहुबली 2’ के फिल्मकारों को भी चाइना के बाजार में अपनी फिल्म को ले जाने का जोश आया. बहुत जल्द चीन में ‘बाहुबली 2’ भी प्रदर्शित होने वाली है. इतना ही नहीं भारत में भले ही सलमान खान की फिल्म ‘ट्यूबलाइट’ को आपेक्षित सफलता न मिल रही हो, मगर वह भी अपनी फिल्म ‘ट्यूबलाइट’ को चाइना के दर्शकों तक ले जाना चाहते हैं.

‘‘दंगल’’ ने बॉक्स ऑफिस पर नए रिकार्ड बना लिए हैं. पर आमिर खान के लिए यह कोई नई बात नही है. वह अपनी पिछली फिल्मों के बॉक्स ऑफिस के आंकड़ो का रिकॉर्ड फिल्म दर फिल्म तोड़ते आए हैं. 2008 में प्रदर्शित ‘गजनी’ का रिकार्ड 2009 में प्रदर्शित उनकी फिल्म ‘‘थ्री ईडिएटने”, इसका रिकॉर्ड 2013 में ‘धूम 3’ ने फिर उसका रिकॉर्ड ‘पी के’ ने तोड़ा था. अब ‘दंगल’ ने ‘पी के’ का भी रिकार्ड तोड़ दिया. लेकिन ‘दंगल’ की इस सफलता ने अनजाने ही सही पर आमिर खान पर फिल्म ‘‘ठग्स आफ हिंदुस्तान” को लेकर दबाव बढ़ा दिया है. आमिर खान फिलहाल मालटा में अमिताभ बच्चन, कटरीना कैफ और फातिमा सना शेख के संग ‘‘ठग्स आफ हिंदुस्तान” की शूटिंग में व्यस्त हैं.

ब्रावो के घर पहुंचे भारतीय खिलाड़ी और फिर..

वेस्टइंडीज की धरती पर बड़ी संख्या में भारतीय रहते हैं. तभी तो जब भी टीम इंडिया वहां खेलने उतरती है, तो स्टेडियम में विंडीज से ज्यादा भारतीय फैन नजर आते हैं. वैसे विंडीज के निवासी ही नहीं बल्कि वहां के खिलाड़ियों का भी भारत से खासा लगाव रहा है.

विंडीज टीम से बाहर चल रहे ड्वेन ब्रावो तो भारत में न केवल अपने खेल बल्कि गायन कला के चलते भी काफी पॉपुलर हैं और उनके भारतीय कप्तान विराट कोहली, एमएस धोनी सहित कई भारतीय खिलाड़ियों से अच्छे रिश्ते हैं. इतना ही नहीं उन्होंने विराट-धोनी पर गीत भी लिखा है.

भारत और वेस्टइंडीज के दूसरे वनडे में भारत ने वेस्टइंडीज को 105 रनों से हरा दिया. लेकिन क्या आप जानते हैं कि मैदान के बाहर दोनों टीम के क्रिकेटर्स के साथ अच्छी बॉन्डिंग है. तभी तो विराट कोहली, शिखर धवन और अजिंक्य रहाणे स्टार खिलाड़ी ड्वेन ब्रावो के घर डिनर करने पहुंच गए. जिसकी तस्वीर शिखर धवन ने ट्वीटर पर शेयर की है.

इस तस्वीर में कोहली, रहाणे और शिखर, ड्वेन के घर पर बैठे हैं. ड्वेन ने भी दो तस्वीर शेयर की हैं, लेकिन उसमें उनके साथ महेंद्र सिंह धोनी अपनी बेटी जीवा के साथ और ब्रावो अपनी मां के साथ नजर आ रहे हैं.

वहीं दूसरी तस्वीर भुवनेश्वर कुमार के साथ शेयर करते हुए ब्रावो ने लिखा, आईपीएल के इतिहास के ऐसे दो खिलाड़ी जिन्होंने 2 बार पर्पल कैप जीती है.

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