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अफसरों की आंकडेबाजी में उलझे योगी

महापुरुषों के नाम पर छुट्टियां रद्द करने से उत्तर प्रदेश की सरकार को 50 हजार करोड का लाभ होगा. यह अफसरों द्वारा तैयार की गई आंकड़ों की ऐसी बाजीगरी है जिससे योगी सरकार खुश होकर अपनी पीठ थपथपा रही है. सरकार को खुश करने की कला जानने वाले अफसर योगी सरकार को भी अपनी आंकड़ों की बाजीगरी दिखा रहे हैं. जिसमें गुमराह होकर सरकार खुश है. इसका जनता को क्या लाभ होगा यह दिखाई नहीं दे रहा है. छुटिट्या खत्म होने से काम की क्षमता बढ़ती है. यह सरल सा नियम है. सरकार के आधे से ज्यादा विभाग अनुउत्पादक काम करते हैं. ऐसे में उनसे यह लाभ कैसे मिलेगा सोचने वाली बात है. अगर महापुरुषों के नाम से छुट्टियां खत्म होने से इतना लाभ है तो सरकार को चाहिये कि धार्मिक आधार पर दी जाने वाली छुट्टियों को कम करके कुछ और लाभ कमाने की कोशिश करे जिससे उत्तर प्रदेश को बीमारू राज्य की श्रेणी से जल्दी बाहर निकाला जा सके.

योगी सरकार ने महापुरुषों के नाम पर होने वाली छुट्टियों को खत्म किया तो अफसरो ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ को यह बता दिया कि इससे उत्तर प्रदेश सरकार को 50 हजार करोड़ का लाभ होगा. देखिये अफसरों ने यह मुनाफा दिखाया कहां से है. विधानसभा में राज्यपाल के अभिभाषण का जवाब देते मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि यूपी सरकार की जीडीपी करीब रुपये 12 से 12.50 लाख करोड वार्षिक के बीच की है. इस हिसाब से एक महीने में एक लाख करोड का राजस्व मिलता है. 15 दिन की छुट्टियां खत्म होने पर करीब 50 हजार करोड़ का मुनाफा होगा.

दो माह के बाद भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी मनपसंद अफसरों की टीम का गठन नहीं कर पाये हैं. पुलिस विभाग में जिस तरह से अफसरों की तैनाती की गई उनके रैंक को लेकर सवाल उठने लगे हैं. प्रशासनिक अफसरों में वह कोई बड़ा बदलाव नहीं कर पा रहे हैं. शुरुआती दौर में केन्द्र सरकार से वापस लौटे अफसरों को प्रदेश में बड़ी जिम्मेदारी दी गई, पर उसका कोई बड़ा बदलाव नहीं दिख रहा है. न चाहने के बाद भी मुख्यमंत्री योगी को पुरानी सरकार में खास पदों पर रहे नौकरशाहों को यहां भी बड़ी जिम्मेदारी देने पर मजबूर होना पड़ रहा है. अफसर भी अब ऐसी बातों पर जोर देने लगे है जिनको सुनकर मुख्यमंत्री खुश हों.

पुलिस के एक अधिकारी का बयान आया कि ‘पुलिस उन सड़कों पर सघन चेकिंग अभियान चलायेगी, जहां से पशुओं को लाया ले जाया जाता है.’ उत्तर प्रदेश में अपराध और कानून व्यवस्था को लेकर योगी सरकार के दावे हवा हो रहे हैं. सरकार के खिलाफ जनता सड़कों पर है. ऐसे में अफसर इस बात को लेकर सर्तक हैं कि किसी पशु के खिलाफ कुछ गलत न हो. ऊर्जा विभाग के अफसरों के दावे में आकर मुख्यमंत्री ने सभी जिलों को ज्यादा बिजली देने की घोषणा कर दी. हालत यह है कि बिजली की कमी से पूरा प्रदेश परेशान है. सरकार इस बात को मानने को तैयार नहीं है.

असल में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मंशा अच्छी है. वह कहते हैं ‘यह पद मेरे लिये दायित्व है. आभूषण नहीं, कर्तव्य है प्रतिष्ठा है पर साथ ही साथ परीक्षा भी है’. योगी के अफसर अपने काम से मुख्यमंत्री की तारीफ पाने के लिये ऐसे काम कर रहे हैं जिससे योगी खुश रहें. अतिउत्साह में किये जाने वाले काम योगी सरकार की छवि को नुकसान पहुंचा रहे हैं. मुख्यमंत्री योगी शहीद के घर सात्वंना देने गये तो वहां प्रशासन ने एसी से लेकर तमाम तरह के इंतजाम कर दिये. मुख्यमंत्री के वापस आते ही प्रशासन ने वह सब सामान घर से हटवा लिया. जो एक तरह से शहीद का अपमान सा लगा. मुख्यमंत्री योगी को ऐसे अफसरों की करतूतों से सावधान रहना चाहिये. काम भले ही अफसर करते हो पर इनका परिणाम नेताओं को ही भुगतना पड़ता है.

असहज परिस्थितियों में रहें सकारात्मक

सकारात्मकता सफलता की कुंजी है. असहज परिस्थितियों में संयम व धैर्य ही काम आते हैं. एक शोध के अनुसार पौजिटिविटी हमारे भीतर असीमित ऊर्जा का संचार कर एर्डोफिन नामक हारमोन स्रावित करने में सहायक होती है, जिस से हम प्रसन्नता का अनुभव करते हैं. अगर हम मुश्किल हालात में धैर्य व संयम खोने के बजाय मजबूत इरादों के साथ उन का मुकाबला करें तो निश्चित ही हमारी जीत होगी.

कई बार हम ऐसी असहज परिस्थिति में घिर जाते हैं, जहां स्थिति हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाती है. विशेषकर कार्यस्थल पर यह बहुत जरूरी होता है कि हम कार्य और स्थितियों के बीच बेहतर तालमेल बैठाएं. इस की संभावना तब होती है जब हम घबराने के बजाय बेहद संतुलन के साथ अपना उच्च कार्यप्रदर्शन दिखाएं. इस में सकारात्मकता अहम भूमिका निभाती है, प्रस्तुत हैं कुछ टिप्स, जिन से प्रबंधन कौशल दिखाते हुए असहज परिस्थितियों से बचा जा सकता है :

ऐसे पाएं औफिस में तनाव से मुक्ति

बहुराष्ट्रीय कंपनियों में प्रोजैक्ट बेस्ड समयसीमा आधारित काम होता है. लिमिटेड टाइमलाइन के भीतर बैस्ट परफौर्मैंस देनी होती है और ऐसे हालात कमोबेश सभी दफ्तरों में होते हैं जहां वर्क का एकदम प्रैशर रहता है. आप ऐसे हालात के लिए बिलकुल तैयार नहीं होते, तो ऐसी स्थिति में एकदम परेशान न हों और बेहतर कार्यनिष्पादन के लिए निम्न तरीके आजमाएं :

–  वर्क प्रोजैक्ट मिलने के बाद उस का अध्ययन करें. प्रोजैक्ट देखते ही उस की जटिलता व समयसीमा का अंदाजा न लगा लें. धैर्यपूर्वक उस का आकलन करें और टाइम फ्रैक्शन तैयार करें.

–  एक रोडमैप बनाएं, जिस से सीमित समयसीमा के भीतर गुणवत्तापूर्ण कार्य प्रदर्शन में सहायता मिलेगी.

–  संभव हो तो अपने किसी अनुभवी सीनियर की ऐक्सक्यूशन मैथड में सहायता लें बशर्ते काम नया हो या फिनिशिंग की जरूरत हो.

–  कुछ समय के लिए अपनी अन्य प्राथमिकताओं को साइड करें, क्योंकि अगर फोकस टारगेटेड वर्क पर होगा तो कार्यसंपादन उम्दा होगा.

–  संयमित रहेंगे तो उलझनों से बचेंगे अन्यथा कार्य पर इस का विपरीत प्रभाव पड़ेगा. इस से प्रोजैक्ट पैंडिंग हो सकता है.

ऐसे रहें असहज परिस्थितियों में सहज

–  आपा न खोएं.

–  नर्वस होने के बजाय अपने सहकर्मियों से परामर्श करें.

–  जब कुछ समझ न आए तो बौस से अपनी समस्या साझा करें और राय लें. अपनी सूझबूझ और अनुभव से निश्चित तौर पर वे कुछ रास्ता सुझाएंगे.

– तनाव बिलकुल न लें. वर्क को विनविन सिचुएशन में अंजाम दें.

– पुराने प्रोजैक्ट व संगृहीत दस्तावेजों से भी सहायता ली जा सकती है.

–  कार्य व स्थिति की अपरिहार्यता निश्चित रूप से व्यक्ति को तनावग्रस्त करती है, तो जरूरी है नकारात्मक आवेगों से बचें.

–  सुकून, संयम व निष्ठा के साथ किया गया काम हमेशा बेहतर परिणाम देता है इसलिए कार्य के प्रति संवेदनशीलता भी जरूरी है.

कुल मिला कर कहा जा सकता है कि काम कभी तनाव में न करें. हलकेफुलके अंदाज में बड़े से बड़े प्रोजैक्ट को आसानी से कुशल प्रबंधन के साथ निष्पादित किया जा सकता है. कौशल, क्षमता और योग्यता तभी निखर पाएगी जब तनावमुक्त रहा जाए.

आज की जीवनशैली में तनाव, डर और घबराहट ने हर जगह अपना डेरा जमा रखा है, चाहे घर हो या औफिस, सिर पर हरदम तय वक्त पर असीमित काम निबटाने का बोझ रहता है, लेकिन परिस्थितियां तभी हमारे अनुकूल बनती हैं जब हम उन्हें अपनी इच्छानुसार सकारात्मक रहते हुए अपने हिसाब से मोड़ दें.

हमारे अंतस में असीमित ऊर्जा का भंडार है. अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम इस ऊर्जा को धनात्मक बनाएं या ऋणात्मक, पर यह तो सौ फीसदी सच है कि जीतेगा वही जिस में नकारात्मकता को भी सकारात्मकता में बदलने का माद्दा हो, जो अपने जनून और आदर्श पौजिटिव सोच से अपने आसपास का माहौल भी जीवंत ऊर्जा से भर दे.                    

बैंकों को भा नहीं रही यह पौलिसी

इंश्योरैंस कंपनी की रिवर्स मौर्टगेज की स्कीम का फायदा लेने के लिए एक 80 वर्षीय बुजुर्ग दरदर भटकता हुआ सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा. रिवर्स मौर्टगेज में इंश्योरैंस कंपनी एक संपत्ति पहले रख कर पौलिसी लेने वाले को हर माह कुछ न कुछ देती रहती है और संपत्ति कंपनी को पौलिसीधारक की मृत्यु के बाद मिलती है.

यह पौलिसी वृद्ध अकेलों के लिए बहुत अच्छी है, जो अपना मकान किसे दे कर जाएं यह नहीं जानते और मकान में संपत्ति फंसी होने के कारण हाथ में पैसा भी नहीं रख पाते. शायद यह पौलिसी बैंकों और इंश्योरैंस कंपनियों को भा नहीं रही, क्योंकि इस में पौलिसीधारक की मृत्यु के बाद बहुत से पेच खड़े हो जाते होंगे. ये बुजुर्ग जब सर्वोच्च न्यायाधीश के सामने उपस्थित हुए तो उन्होंने भी कुछ खास नहीं कहा. हां, इतना आश्चर्य अवश्य जताया कि वृद्ध वित्त मंत्री से कैसे मिल लिए जबकि वे सर्वोच्च न्यायाधीश होने के बावजूद वित्त मंत्री से मुलाकात नहीं कर पाते.

इस देश में दिक्कत यही है कि हर अफसर अपने अधिकारों का एक जाल बुन लेता है जिसे पार कर अधिकारी तक पहुंचना कठिन हो जाता है. औरतों को तो और ज्यादा तकलीफ होती है और हर सरकारी दफ्तर में बीसियों औरतें हवाइयां उड़े चेहरे लिए खड़ी दिख जाती हैं, जो फाइलों से घिरे बाबुओं को घेर नहीं पातीं. आज जब अकेली औरतों की संख्या बढ़ रही है, उन्हें खुद ही सरकारी दफ्तरों, बैंकों, अदालतों, जेलों, निजी दफ्तरों, बिजली दफ्तरों, कर अफसरों के पास जाना पड़ता है.

जैसे वृद्ध के साथ लिहाज नहीं किया जाता वैसे ही औरतों को भी बारबार न सुनना पड़ता है और बेटा या बेटी साथ न हो तो वे बहुत तकलीफ पाती हैं. आमतौर पर अब औरतों को किसी भी जगह प्राथमिकता कम ही मिलती है. पुरुष खार खाए रहते हैं कि जो भी थोड़ीबहुत छूट औरतों को औरत होने के नाते मिल जाती है वह अन्याय है.

पुरुषों के मन में यह भी कहीं दबे रहता है कि औरतों को घरों में रह कर अपने हाल पर संतुष्ट रहना चाहिए और यदि किसी जुल्म का सामना करना पड़ रहा है, तो पौराणिक कहानियों की तरह अहिल्या बन कर दंड भोगना चाहिए चाहे दोषी कोई भी हो. वे आज भी इसी मानसिकता में रहते हैं कि स्त्री तो पिता, पति या बेटे के संरक्षण में रहे वरना उस का जीना ही बेकार है. जो लोग महान संस्कृति का ढोल पीटते रहते हैं उन्हें एहसास होना चाहिए कि हमारे यहां वृद्धों और औरतों के साथ इस तरह का व्यवहार होता है. हमारी संस्कृति में वृद्ध वानप्रस्थ्य लेते हैं, औरतें सती होती हैं, आज भी यही हो रहा है, बस दंड का स्वरूप बदल गया है.

VIDEO: जब मैदान पर ही हो गई क्रिकेट खिलाड़ियों के बीच मारामारी

क्रिकेट को भद्रजनों का खेल कहा जाता है. लेकिन क्रिकेट के इतिहास में कई ऐसे मौके आये हैं, जब जब मैदान पर खिलाड़ियों के बीच आपसी कहा सुनी झगड़े में बदल गयी है. जिसकी वजह से ये खेल शर्मसार हुआ है.

बीते वर्षों में मैदान पर खिलाड़ियों की भिड़ंत इतनी बढ़ी है कि मैच के अधिकारियों को बीच बचाव कराने पड़े और बाद में उन पर अनुशासनात्मक कार्यवाही भी हुई है. इस खेल में ऐसे मौके कई बार स्लेजिंग से शुरू हुए, बाद में लड़ाई में बदल गये.

आज हम आपको दिखाने जा रहे हैं एक ऐसा ही वीडियो, जिसमें आप देखेंगे किस तरह मैदान पर ही हो गई क्रिकेट खिलाड़ियों के बीच मारामारी…

औरतें अपने पैरों पर खड़ी हों : प्रज्ञा भारती

साल 2003 में हैल्थ सैक्टर से समाजसेवा का काम शुरू करने वाली प्रज्ञा भारती आज बिहार में अच्छीखासी पहचान और इज्जत हासिल कर चुकी हैं. प्रज्ञा भारती साल 2005 से औरतों की तरक्की के लिए भी लगातार काम कर रही हैं. वे अब तक बिहार के 10 जिलों में 5 हजार औरतों को हुनरमंद बना चुकी हैं और 2 हजार औरतों को रोजगार दिला चुकी हैं. वे ‘परिहार सेवा संस्थान’ के तले औरतों को हुनरमंद बनाने के साथसाथ उन्हें रोजगार देने की मुहिम में लगी हुई हैं. साथ ही, वे पारिवारिक जिम्मेदारियों को भी बखूबी निभा रही हैं.

प्रज्ञा भारती कहती हैं कि औरतों को हुनरमंद बनाने के साथसाथ उन्हें रोजगार से जोड़ना जरूरी है. जब तक काम करने के बाद औरतों के हाथ में पैसा नहीं आएगा, तब तक उन के मन में अपने पैरों पर खड़ा होने का भाव नहीं आएगा.

फिलहाल प्रज्ञा भारती ‘वुमन फूड वैंडर योजना’ पर काम कर रही हैं. इस योजना में औरतों को ही रखा गया है. कैटरिंग से ले कर सर्विस तक के काम में औरतों को ही लगाया गया है. औरतें ही खाना पकाएंगी, परोसेंगी, पैक करेंगी और उसे पहुंचाएंगी. इस के लिए फिलहाल सौ औरतों को ट्रेंड किया गया है.

प्रज्ञा भारती कहती हैं कि घरेलू औरतों को उन के घर में ही काम देने की जरूरत है. इस से वे कमाई के साथसाथ अपने बच्चों और परिवार की भी देखरेख कर सकेंगी.

प्रज्ञा भारती बाल सुधारगृह के बच्चों को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए स्पैशल ट्रेनिंग देने में लगी हुई हैं. इस से बाल सुधारगृह से बाहर निकल कर बच्चे रोजगार में लग सकेंगे.

प्रज्ञा भारती बताती हैं कि उन्होंने पटना कालेज से बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद मास कम्यूनिकेशन में एमए किया था. उस के बाद कुछ दिनों तक पत्रकारिता की, पर उस में मन नहीं रमा, क्योंकि वे समाजसेवा और औरतों को मजबूत करने की दिशा में कुछ ठोस काम करने के सपने देख रही थीं और साल 2003 में वे इस मुहिम में लग गईं.

सब से पहले उन्होंने पटना के स्लम एरिया कमला नेहरू नगर, कौशल नगर और कुम्हार टोली की औरतों के हालात का जायजा लिया और उन्हें हुनरमंद बनाने के काम में लग गईं.

इस के बाद प्रज्ञा भारती जहानाबाद और अरवल जैसे नक्सली पैठ वाले इलाकों में भी अपने दलबल के साथ पहुंच गईं और वहां की औरतों को काम सिखाने लगीं.

सिकरिया जैसे नक्सली इलाके, जहां पुलिस भी जाने से खौफ खाती थी, में पहुंच कर प्रज्ञा भारती ने औरतों के मन से मर्द के भरोसे बैठ कर जिंदगी गुजार देने के भाव को मिटाने में कामयाबी हासिल की.

प्रज्ञा भारती को औरतों और कमजोर लोगों को अपने पैरों पर खड़ा करने की सीख अपने मातापिता से मिली. उन के पिता बचपन से ही पोलियो के शिकार हो गए थे, इस के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और सांख्यिकी महकमे के डायरैक्टर पद तक पहुंचे.

प्रज्ञा भारती की मां ने भी शारीरिक रूप से कमजोर होने के बावजूद अपना कारोबार खड़ा किया. ह्वीलचेयर पर बैठ कर ही उन्होंने अपने कारोबार को आगे बढ़ाने में कामयाबी पाई. उन की मां की सोच है कि वे किसी के सहारे जिंदगी न गुजारें. इसी सोच ने प्रज्ञा भारती को भी कामयाब औरत बनाया है.  

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साफसफाई में अव्वल रंगसापाड़ा

गुवाहाटी, असम से तकरीबन डेढ़ सौ किलोमीटर दूर ग्वालपाड़ा जिले में एक ब्लौक है बालिजाना और वहीं का एक गांव है रंगसापाड़ा. 88 घरों वाले इस गांव की कुल आबादी महज 5 सौ लोगों की है, लेकिन इन चंद लोगों ने मिल कर जो मिसाल कायम की है, वह आज पूरे असम में किसी विजयगाथा की तरह सुनाई जाती है. दरअसल, रंगसापाड़ा के लोगों ने साफसफाई को आज से 27 साल पहले ही अपना मूलमंत्र बना लिया था. उसी का नतीजा है कि ग्वालपाड़ा जिले को पूरे असम का सब से साफसुथरा गांव होने का खिताब मिला है. रंगसापाड़ा को यह कामयाबी यों ही नहीं मिली. मेहनतमजदूरी करने वाले इस गांव के लोगों में साफसफाई को ले कर इतनी समझ कैसे आई, उस के लिए हमें 1990 के समय में जाना होगा.

गांव के मुखिया रौबर्टसन मोमिन बताते हैं कि दूसरे गांवों की तरह उन के गांव में भी गंदगी रहती थी, लोग नशे का सेवन करते थे, आपस में लड़ाईझगड़ा भी होता था.

एक दिन गांव वालों ने मिल कर सोचा कि गांव की हालत सुधारने की दिशा में कुछ करना चाहिए. उन्होंने एक बैठक बुलाई और आपसी समझ से कुछ सख्त फैसले लिए गए, जैसे कोई भी खुले में शौच नहीं जाएगा, घर के आगे गंदगी नहीं डालेगा और किसी तरह का नशा नहीं करेगा. ये 3 प्रण गांव वालों ने लिए और इन नियमों को तोड़ने की सजा भी तय की गई.

जरा सोच कर देखो कि आज से 27-28 साल पहले पूरब के सुदूर गांव वालों ने नियम तोड़ने पर क्या जुर्माना तय किया था? पूरे 5001 रुपए का. इतना बड़ा जुर्माना उस जमाने में तो क्या आज भी बहुत भारी लगता है.

रौबर्टसन मोमिन बताते हैं कि जुर्माना ज्यादा इसलिए रखा गया कि कोई इस को भरने के डर से नियम न तोड़े. मगर गांव वालों ने इस स्वच्छता मिशन में पूरा साथ दिया और कभी ऐसी नौबत नहीं आई कि किसी पर जुर्माना लगाना पड़ा हो.

उन्होंने आगे बताया कि साल 2000 में विलेज मैनेजमैंट कमेटी बनाई गई. इस में 10 सदस्य हैं. कमेटी का चुनाव हर साल गांव वाले मिल कर करते हैं और यह कमेटी गांव की साफसफाई, भाईचारे और नशे वगैरह पर नजर रखती है.

गारो आदिवासी समाज के इस गांव में पढ़ाईलिखाई की दर भी सौ फीसदी है. यहां सभी लोग अपनी बेटियों को पढ़ाते हैं. 9वीं जमात में पढ़ने वाली सल्ची मोमिन रोजाना साइकिल से 12 किलोमीटर दूर स्कूल में पढ़ने जाती है. उस के गांव में 8वीं जमात तक ही पढ़ाई का इंतजाम है.

बालिजाना ब्लौक की प्रमुख रत्ना देवी बताती हैं कि पहले यहां लोगों ने घरों में ही कच्चे शौचालय बनाए थे. इस के लिए सभी ने मिल कर श्रमदान किया था. सरकार की तरफ से योजना आने पर अब हर घर में पक्के शौचालय बन गए हैं. जल्द ही गांव को पक्की सड़क से भी जोड़ा जाएगा.

सभी लोग मिल कर हफ्ते में एक दिन पूरे गांव की सफाई करते हैं. पीने के पानी के लिए यहां 7 हैंडपंप भी लगे हैं.             

 

बेटी ने किया मौडलिंग के लिए मोटीवेट : रश्मि सचदेवा

मिसेज यूनिवर्स रश्मि सचदेवा को देख कर कोई नहीं कह सकता कि उन की 21 साल की बेटी है. शादी के बाद भी फैशन की दुनिया में वह सब कुछ हासिल किया जा सकता है, जो किसी प्रोफैशनल मौडल का सपना होता है, रश्मि सचदेवा ने इस बात को साबित कर दिखाया है. मिसेज दिल्ली एनसीआर से शुरू हुआ उन का यह सफर मिसेज यूनिवर्स तक जा पहुंचा. आज वे बड़ी सैलिब्रिटी हैं. खुद को फिट रखने की कला तो कोई उन से सीखे. पेश हैं रश्मि से गुफ्तगू:

मौडलिंग का शौक कब से हुआ?

मौडलिंग का तो पता नहीं पर यह शौक था कि पत्रिकाओं में फोटो छपें. यह शौक बचपन से था. मैं ने कुछ फोटो खिंचवाए और उन्हें ले कर ‘सरिता’ पत्रिका के औफिस गई. पहली बार मुझे ‘सरिता’ पत्रिका में यह मौका मिला. उस समय ‘सरिता’ में अंदर छपने वाली शायरी के साथ मेरा फोटो छपा था. मैं ग्रैजुएशन के पहले साल में थी तब शादी हुई. शादी के बाद बेटी हुई. मैं ने अपनी पढ़ाई जारी रखी. मिसेज दिल्ली एनसीआर में मेरी एक दोस्त हिस्सा ले रही थी. मेरी बेटी ने देखा तो वह बोली कि मैं भी इस में हिस्सा लूं. बेटी की बात का समर्थन पति ने भी किया. वहां से दोबारा मैं ने फैशन की फील्ड में कदम रखा. यह सफर मिसेज इंडिया और मिसेज यूनिवर्स तक पहुंच गया. 

अब फिल्में और टीवी शोज के औफर भी मिले होंगे?

मिसेज यूनिवर्स का खिताब जीतने के बाद सीरियल, फैशन शो, मौडलिंग के बहुत सारे औफर आने लगे. इस के बाद भी मैं ऐक्टिंग में आगे नहीं जाना चाहती. मेरे लिए परिवार को समय देना सब से जरूरी है. ऐक्टिंग में समय बहुत लगता है. सीरियल और फिल्में दोनों ही टाइम टेकिंग काम है. शूटिंग में काफी समय लगता है, इसलिए मैं इस में उलझना नहीं चाहती. मौडलिंग और फैशन शो बहुत समय नहीं लेते. घरपरिवार के साथ इन्हें मैनेज किया जा सकता है. इसलिए ये ही मेरे लिए सब से अच्छे हैं.

आप किसी सुपर मौडल की तरह स्लिम और फिट दिखती हैं. कैसे हासिल किया ये सब?

मैं जिम के बजाय मौर्निंग वाक पर ज्यादा फोकस करती हूं. रोज कम से कम 40 मिनट की वाक करती हूं. डाइट पर यकीन नहीं करती. हैल्दी और क्वालिटी फूड लेती हूं. 40 के बाद महिलाओं में तमाम तरह की हैल्थ प्रौब्लम्स होती हैं. ऐसे में जिम करने से कई बार बौडी को नुकसान हो सकता है. अत: वाकिंग सब से बेहतर है. प्रैगनैंसी के बाद बढे़ वजन को कम करना सब से जरूरी होता है. एक बार वह कम हो जाए, तो फिटनैस हासिल करना सरल हो जाता है.

आप की पसंद और नापसंद क्याक्या है?

मैं थैलेसीमिया फाउंडेशन के साथ जुड़ कर काम कर रही हूं. आगे भी समाजसेवा के लिए अपना वक्त निकालती रहूंगी. मुझे झूठ से बहुत नफरत है. मैं परिवार के साथ सब से अधिक खुशी का अनुभव करती हूं. रीडिंग, कुकिंग और म्यूजिक मेरी पसंदीदा हौबी हैं. मैं ने पंजाबी म्यूजिक अलबम में काम किया है.

अगर आप की बेटी फैशन की फील्ड में जाना चाहे तो आप क्या कहेंगी?

अगर बेटी फैशन की फील्ड को कैरियर के रूप में चुनती है, तो मुझे कोई परेशानी नहीं होगी. यह फील्ड भी दूसरी फीड्स की ही तरह है. दूर से लोग इस फील्ड के बारे में अलगअलग राय रखते हैं. मुझे तो यह भी बहुत सुरक्षित फील्ड लगी. मैं उन महिलाओं के लिए काम करना चाहती हूं, जो शादी के बाद भी अपने फैशन के कैरियर को आगे बढ़ाना चाहती हैं.

आप हर तरह की फैशनेबल ड्रैस पहनती हैं?

अगर आप फिट हैं, तो आप हर तरह की ड्रैस पहन सकती हैं, इसलिए जरूरी है कि खुद को फिट रखें. वैस्टर्न ड्रैस की बात हो या फिर साड़ी की, फिटनैस और उसे पहनने का तरीका हर जगह माने रखता है. डै्रसिंग सैंस के साथसाथ हेयरस्टाइल, मेकअप और ऐक्सैसरीज को ले कर भी अपडेट रहना चाहिए.        

जिंदगी के हर मोड़ पर परेशानियां झेली हैं : काम्या पंजाबी

‘बिग बौस सीजन 7’ में आने के बाद काम्या अपने फैंस के और भी करीब आ गईं. इन दिनों धारावाहिक ‘शक्ति अस्तित्व के एहसास की’ में प्रीतों का किरदार निभा रहीं काम्या ‘कौमेडी सर्कस’, ‘कौमेडी नाइट्स बचाओ’ जैसे कौमेडी शोज में स्टैंडअप कौमेडी भी कर चुकी हैं, तो ‘बौक्स क्रिकेट लीग’ और ‘बौक्स क्रिकेट लीग 2’ का हिस्सा बन कर क्रिकेट के प्रति अपनी दीवानगी भी बयां कर चुकी हैं. आइए, काम्या के निजी जीवन को टटोलते हैं:

आप ने अपनी लाइफ में कई अप्स ऐंड डाउन देखे हैं. उन से कैसे निबटती हैं?

मैं बेबाक हूं, बिंदास हूं, किसी से नहीं डरती. शायद इसीलिए परेशानियों से निबट लेती हूं. दूसरा सच यह भी है कि मैं ने ये चीजें अपनी मां से सीखी हैं. जब हम छोटे थे तब हमारे घर में भी बहुत परेशानियां थीं, लेकिन मेरी मां बहुत अच्छे तरीके से उन से निबटती थीं. वे हार नहीं मानती थीं, कभी डरती नहीं थीं. उन्होंने कभी गिवअप नहीं किया. मैं ने भी कभी गिवअप नहीं किया और न ही कभी करूंगी. मेरी मां आज भी मेरे जीवन में पिलर की तरह हैं. मैं चाहती हूं कि मैं भी उन की तरह अच्छी मां बनूं.

अपनी बेटी की परवरिश के वक्त किन बातों को ध्यान में रखती हैं?

ब एक मां अपने बच्चे की परवरिश करती है, तो सिर्फ उस की खुशी का ध्यान रखती है, उस की सिक्योरिटी और कंफर्ट का खयाल रखती है. वह उसे दुनिया की सारी खुशियां देना चाहती है और दुनिया की बुराई से हमेशा दूर रखना चाहती है. मैं भी यही चाहती हूं. मुझे खुशी है कि मैं अपनी बेटी की अच्छी दोस्त हूं. वह मुझ से अपनी सारी बातें शेयर करती है, लेकिन मैं उस की अच्छी दोस्त नहीं बन पाई हूं और आने वाले 10 साल बनना भी नहीं चाहती. हां, जब वह बड़ी हो जाएगी तो जरूर बनना चाहूंगी. मैं अभी दोस्त बन कर उसे यह नहीं पता चलने देना चाहती कि उस की मां किन हालात से गुजरी है और आज यहां कैसे खड़ी है. मेरी बेटी मेरी पूंजी है. वह मेरी ताकत भी है और कमजोरी भी.

घर के साथ काम को कैसे मैनेज करती हैं?

अगर हम इस बात को बहुत बड़ा समझें कि मैं घर भी संभाल रही हूं बाहर काम भी कर रही हूं, मैं सुपर वूमन हूं तो बेशक आप को यह काम बहुत बड़ा लगेगा, लेकिन असल में दोनों काम एकसाथ करना मुश्किल नहीं है. बस टाइम मैनेजमैंट आना चाहिए.

बतौर सिंगल मदर बेटी की परवरिश कितनी चैलेंजिंग लगती है?

मैं अपनी बेटी को अच्छी परवरिश दे रही हूं, अच्छे स्कूल में पढ़ा रही हूं. वह सब कर रही हूं, जो पेरैंट्स अपने बच्चे के लिए करते हैं. मैं बतौर सिंगल मदर कभी कमजोर नहीं पड़ती सिवा उस समय जब मेरी बेटी मासूम से सवाल करती है जैसे मेरे फ्रैंड के पापा उन के साथ रहते हैं, तो मेरे क्यों नहीं? उस के ऐसे सवाल मेरे लिए चैलेंजिंग होते हैं. वह इसलिए क्योंकि मैं झूठ नहीं बोलती और उसे सच अभी नहीं बताना चाहती.

अपनी पर्सनल और प्रोफैशनल लाइफ में ज्यादा अहमियत किसे देती हैं?

प्रोफैशनल लाइफ को, क्योंकि मेरा काम मेरा जनून है, मेरी खुशी है. मैं ने जिंदगी के हर मोड़ पर परेशानियां झेली हैं, लेकिन मैं ने काम करना कभी नहीं छोड़ा.

एक पुरुष के लिए दूसरी शादी करना आसान है, लेकिन महिला के लिए क्यों नहीं?

एक औरत पुरुष को दिलोजान से अपनाती है. वह यह कैलकुलेट नहीं करती कि इस की बीवी है या इस का बच्चा है, लेकिन एक पुरुष तलाकशुदा महिला को अपनाते वक्त यह सब कुछ सोचता है. वह ऐसी औरत चाहता है जिस के साथ किसी दूसरे पुरुष का नाम न जुड़ा हो, फिर भले उस की वह तीसरी शादी हो या उस का नाम 10 औरतों के संग जुड़ा हो. इस की वजह यह है कि औरत मन से प्यार करती है और पुरुष दिलोदिमाग से.                 

ओबीसी जातियां : मेहनत छोड़ धर्म की ओर

उत्तर प्रदेश में कुर्मी, हरियाणा व राजस्थान में गुर्जर, जाट और गुजरात में पटेल जाति मेहनती खेतिहर जातियां मानी जाती हैं. ओबीसी से जुड़ी दूसरी जातियां भी खेतीकिसानी में मेहनत करने वाली होती हैं. पर अब ये भी दूसरी जातियों की तरह अपनी मेहनत का काम छोड़ कर आरक्षण के पीछे भागने लगी हैं. सोचने वाली बात यह है कि देश में सरकारी नौकरियां कितनी हैं? क्या सभी को सरकारी नौकरियां मिल सकती हैं? शायद नहीं. इस के बाद भी सरकारी नौकरियों के लिए आरक्षण की मांग बराबर उठ रही है. राजनीतिक दल सरकारी नौकरियों का लालच दे कर इन जातियों को अपने पीछे चलने को मजबूर कर रहे हैं. वे आरक्षण के जरीए वोट हासिल करना चाहते हैं. दरअसल, धर्म और राजनीति का सहारा ले कर समाज में अपना दबदबा बना चुकी ऊंची जातियां इन को धर्म की पालकी ढोने के लिए अपने साथ रखना चाहती हैं. इस का फायदा उठा कर पिछड़ी जातियों को भी पिछड़ी और बहुत पिछड़ी जातियों के खेमे में बांध दिया है.

पहले जहां पर ये जातियां एकजुट हो कर अपने में सुधार का काम करती थीं, वहीं ये अब यह बंटवारे का शिकार हो गई हैं. इन को लगता है कि आरक्षण के जरीए ही इन का भला हो सकता है. आरक्षण के जरीए अब तक दलित जातियों का भला नहीं हुआ, यह समझने के बाद भी आरक्षण की मांग लगातार बढ़ रही है.

लोकसभा और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में जिस तरह से पिछड़ी जातियों में गाय और राम मंदिर के नाम पर वोट डाले गए हैं, वह बताता है कि अब पिछड़ी जातियां भी धर्म का सहारा ले कर आगे बढ़ना चाहती हैं. काम कर मेहनत के बल पर अपनी पहचान बनाने वाली ये जातियां अब दूसरों के बल पर आगे बढ़ना चाहती हैं.

केंद्र सरकार ने हरियाणा में जाट, गुजरात में पटेल, राजस्थान में गुर्जर समाज के आरक्षण आंदोलन को शांत करने के लिए ओबीसी आरक्षण को ले कर नया आयोग बनाने का फैसला लिया है. इस के बाद यह आंदोलन अब कुछ समय के लिए स्थगित हो गया है.

केंद्र सरकार ने कहा है कि आरक्षण की बढ़ती मांग को देखते हुए सामाजिक और पढ़ाईलिखाई के तौर पर पिछड़े वर्ग के लिए नया आयोग बनाने का यह फैसला लिया गया है. नए आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया गया है. इस आयोग में 5 सदस्य, एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष होंगे.

अभी जो पिछड़ा वर्ग आयोग काम कर रहा था, उस को 14 अगस्त, 1993 को बनाया गया था. एक बार फिर सरकार ने नया आयोग बना कर पिछड़ी जातियों के दर्द पर मरहम लगाने का कदम उठाया है.

आजादी के बाद से ही आरक्षण को ले कर हर जाति में मांग बढ़ने लगी थी. नेताओं ने इस को वोट बैंक में बदलने के लिए नएनए तरह के आरक्षण को घोषित करने की शुरुआत कर दी, जिस के चलते अदालतों को भी दखलअंदाजी करने का मौका मिलने लगा. कई बार सरकार द्वारा दिए गए आरक्षण को अदालत ने रद्द भी कर दिया. इस के बाद भी आरक्षण को ले कर राजनीति का खेल चलता रहता है.

साल 1980 में मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि भारत में 52 फीसदी पिछड़ी जातियां हैं. साल 2006 के नैशनल सैंपल सर्वे संगठन ने माना कि भारत की आबादी में पिछड़ों की 41 फीसदी हिस्सेदारी है. इस सर्वे से यह भी पता चला कि पिछड़ी जातियों की 78 फीसदी आबादी गांवों में और 22 फीसदी आबादी शहरों में रहतीहै. देशभर में तकरीबन 2494 जातियां केंद्र सरकार की अन्य पिछड़ी जातियों की लिस्ट में शामिल हैं.

पिछड़ी जातियों में 2 तरह के लोग हैं. इस के लिए ही अन्य पिछड़ा वर्ग बना है. इस वर्ग की हालत काफी खराब है. इस वर्ग के 12 फीसदी से भी कम लोग सरकारी महकमों में तैनात हैं. शहरों में इस वर्ग के लोग 870 रुपए और गांवों में 556 रुपए हर महीने खर्च करते हैं. ऐसे में इस वर्ग के लोग यह मांग बराबर कर रहे हैं कि उन को दिया जाने वाला आरक्षण बढ़ाया जाए.

केंद्र सरकार द्वारा नया पिछड़ा वर्ग आयोग बनाने के बाद भी पिछड़े वर्ग के नेता खुश नहीं हैं. समाजवादी पार्टी के नेता प्रोफैसर रामगोपाल यादव ने कहा, ‘‘केंद्र सरकार पिछड़ा वर्ग आयोग बना कर ओबीसी जातियों को बरगलाने का काम कर रही है. यहबहुत ही घातक कदम साबित होगा.’’ दूसरी तरफ मायावती कहती हैं, ‘‘केंद्र सरकार बहुत पहले से आरक्षण का विरोध करती रही है. वह अब इस की समीक्षा कर इसे खत्म करने की पहल करने जा रही है.’’

मायावती को लगता है कि केंद्र सरकार दलित कोटे से ही कटौतीकर के आरक्षण में पिछड़ी जातियों को हिस्सा देने वाली है.मायावती और प्रोफैसर रामगोपाल यादव दोनों को ही यह पता है कि इन विधानसभा चुनावों में भाजपा ने दलित और पिछड़े दोनों को ही हिंदुत्व की तरफ मोड़ लिया है, तभी उत्तर प्रदेश में भाजपा गठबंधन 325 विधानसभा सीटें जीत कर अपनी सरकार  बनाने में कामयाब हुआ.

भगवा में रंगी सरकार

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बना कर भाजपा ने पूरी सरकार को भगवा रंग में रंग दिया है. साथ ही, पिछड़ों को भी सत्ता में ज्यादा हक देने के लिए पिछड़ा वर्ग के केशव प्रसाद मौर्य को उपमुख्यमत्री का दर्जा दिया. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री डाक्टर दिनेश शर्मा के साथ केशव प्रसाद मौर्य को उपमुख्यमंत्री जातीय संतुलन को साधने के लिए बनाया गया है.

जिस तरह से पिछड़ों का सब से ज्यादा साथ हासिल होने के बाद सरकार को भगवा रंग में रंग दिया गया है, उस से साफ है कि समाज सुधार में लगी पिछड़ी जातियां भी अब समाज सुधार को भूल कर धर्म की पालकी ढोने में जुट गई हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने सरकारी आवास को पवित्र करने के लिए पूजापाठ कराई. वहां पर ‘ओम’ और ‘स्वास्तिक’ के चिह्न बनवाए. आवास के आसपास सड़क तक को गंगाजल छिड़क कर पवित्र करने की मुहिम चलाई. प्रदेश सरकार के हर मंत्री ने अपने दफ्तर के बाहर ऐसी ही पूजापाठ कराई. इस से साफ हो गया कि सरकार हर जाति और धर्म की सरकार के बजाय भगवा सरकार के अपने नाम को ही मजबूत कर रही है.

यही नहीं, गाय के नाम पर मांस के कारोबार को बंद करने की कोशिश भी शुरू हो गई. प्रदेश में पशुओं को काटने के लिए बने बूचड़खानों को नए लाइसैंस नहीं दिए जा रहे हैं. जो बिना लाइसैंस के चल रहे हैं, उन को बंद कर दिया गया है. कुछ महीनों में ही बहुत से बूचड़खानों के लाइसैंस खत्म होने वाले हैं. ऐसे में सरकार इन को नए लाइसैंस नहीं देगी, तो परेशानी खड़ी हो जाएगी.

यह सच है कि बहुत सी दलित और पिछड़ी जातियां भी मांस के कारोबार से जुड़ी हैं. अब धर्म के पाले में खड़े होने के चलते कोई इन का विरोध नहीं कर पा रहा है. कुछ यही हालत राम मंदिर मसले पर भी है. केंद्र और प्रदेश में सरकार चला रही भाजपा को पता है कि केवल अगड़ी जातियों के भरोसे न तो सरकार बनाई जा सकती है और न ही अपना दबदबा बनाया जा सकता है. ऐसे में जरूरी है कि धर्म के नाम पर पिछड़ी और दलित जातियों को अपने पाले में रखा जाए.

दायरा बढ़ाने की कोशिश

दरअसल, केंद्र सरकार पिछड़ी जातियों को खुश रखने के लिए इन के आरक्षण का दायरा बढ़ाने की कोशिश में है. इस के लिए सरकार ओबीसी की परिभाषा को नए सिरे से तय करने की कवायद कर रही है, जिस से ओबीसी का दायरा बढ़ सके. संविधान में सामाजिक और पढ़ाईलिखाई के मामले में पिछड़े वर्ग को ओबीसी का दर्जा देने का प्रावधान है.

धारा 340 के तहत ओबीसी की भलाई करना सरकार का फर्ज है. सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय जातियों को सामाजिक व माली आधार पर उन्हें लिस्ट में शामिल करने या बाहर निकालने का काम करता है. समयसमय पर सरकार इस तरह के फैसले पहले भी करती रही है. साल 1990 में भारत सरकार ने अन्य पिछड़ी जातियों के लिए शिक्षा और रोजगार के बराबर के मौके मुहैया कराने के लिए सरकारी शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण की घोषणा की थी.

साल 1992 में इंदिरा साहनी बना भारत सरकार मामले में कोर्ट ने सामाजिक पिछड़ेपन की विचारधारा पर जोर देते हुए या क्रीमीलेयर यानी माली रूप से मजबूत जातियों को आरक्षण से बाहर रखने को कहा. साल 1993 में एक लाख रुपए से ज्यादा सालाना आमदनी वाले ओबीसी परिवारों को क्रीमीलेयर के दायरे में रखा गया. साल 2004 में यह रकम बढ़ा कर ढाई लाख और साल 2006 में साढ़े 4 लाख, और साल 2008 में 6 लाख सालाना कर दी गई.

पिछड़ी जातियों को ले कर सब से पहले साल 1953 में कालेलकर कमीशन बनाया गया. आयोग ने 2399 जातियों को पिछड़ी जातियों में शामिल करने की सिफारिश की. इस आयोग ने तकनीकी संस्थानों में पिछड़ों को 70 फीसदी आरक्षण दिए जाने की बात कही, पर सरकार ने इसे माना नहीं.

साल 1979 में प्रधानमंत्री वीपी सिंह की अगुआई में नया मंडल कमीशन बनाया गया. इस कमीशन ने 3743 जातियों को पिछड़ी जातियों में शामिल करने की सिफारिश की गई. सरकारी शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में इस आयोग ने ही 27 फीसदी आरक्षण की बात कही. अब मोदी सरकार द्वारा केंद्र ने जिस तरह से नए आयोग को बनाने की बात कही है, उस से लग रहा है कि अगर ओबीसी लिस्ट में कोई वर्ग ऐसा शामिल है, जो सामाजिक और पढ़ाईलिखाई के रूप से पिछड़ा नहीं है, तो उस को ओबीसी की लिस्ट से बाहर किया जा सकता है. साथ ही, ऐसे मौके भी बन सकते हैं कि नई जातियों को इस में शामिल किया जाए. 

हर धर्म में हैं पिछड़े

ओबीसी जातियां हर धर्म में हैं. हिंदू में इन की आबादी 42 फीसदी, मुसलिम में 39 फीसदी, ईसाई में 41 फीसदी, सिखों में 2 फीसदी, जैनों में 3 फीसदी, बौद्धों में 0.4 फीसदी, पारसी में 13 फीसदी, अन्य में तकरीबन 6 फीसदी ओबीसी जातियां हैं.

केंद्र में हर राज्य के लिए पिछड़ा वर्ग की अलग लिस्ट है. इस में शामिल जातियों को संबंधित राज्यों के केंद्रीय शिक्षण संस्थानों और केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण मिलता है. अगर राज्यवार पिछड़ी जातियों की जनसंख्या को देखें, तो सब से ज्यादा 255 जातियां महाराष्ट्र में हैं. इस के बाद ओडिशा में 198, झारखंड में 134, बिहार में 132, उत्तराखंड में 79, उत्तर प्रदेश में 77, दिल्ली में 58 और मध्य प्रदेश में 55 हैं. अभी ओबीसी की जो परिभाषा तय है, वह मंडल आयोग के हिसाब से तय है. अंगरेजों ने अपने समय में जो लिस्ट बनाई थी, उस के आधार पर चल रही है. अब हर तरफ से यह मांग हो रही है कि ओबीसी की परिभाषा नए सिरे से तय की जाए.

केंद्र की भाजपा सरकार ने नए ओबीसी आयोग के ऐलान के बाद यह तय किया है कि नए सिरे से इस को परिभाषित किए जाने की जरूरत है. भाजपा इसे समय की जरूरत मानती है, तो विरोधी दल इसे आरक्षण खत्म करने की चाल मान रहे हैं. देखने वाली बात यह है कि इस तरह के नए आयोग से ओबीसी जातियों को क्या फायदा मिलता है? भाजपा सरकार पर विरोधी दलों का भरोसा इसलिए भी नहीं है, क्योंकि साल 1990 में जब मंडल कमीशन की सिफारिशें केंद्र की वीपी सिंह सरकार ने लागू की थीं, तो बड़े पैमाने पर उस का विरोध शुरू हो गया था.

भाजपा ने अयोध्या के राम मंदिर मुद्दे को उठा कर मंडल आयोग का जवाब देने के लिए कमंडल की राजनीति शुरू कर दी है. ऐसे में लग रहा है कि भाजपा केवल पिछड़ों को ही नहीं, बल्कि दलित जातियों को भी पार्टी से जोड़ने के लिए धर्म का पाठ पढ़ा रही है. भाजपा ने इन जातियों में भी पूजापाठ को बढ़ा कर नवहिंदुत्व का संचार करने में कामयाबी हासिल की है. इस से ये जातियां अपनेअपने खेमे से दूर हो कर धर्म की पालकी को उठाने को बेचैन दिख रही हैं. अब देखना यह है कि इस से इन को हासिल क्या होता है? क्या सच में समाज में छुआछूत और गैरबराबरी का भाव खत्म हो जाएगा? या फिर एक बार फिर से इन का फायदा उठा कर हाशिए पर धकेल दिया जाएगा?           

‘प्रचंड’ ने दिया मधेशियों को धोखा

मधेशी आंदोलन को नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ जितना दबाने की कोशिश कर रहे हैं, उतनी ही तेजी से उस की आग धधकती जा रही है. 6 मार्च, 2017 को सरकार ने राजविराज में प्रदर्शनकारी मधेशियों पर पुलिस फायरिंग करा कर इस आंदोलन को फिर से हवा दे दी है. इस पुलिस फायरिंग में 7 मधेशी कार्यकर्ताओं की मौत हो गई. उस के बाद भड़के मधेशियों ने नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी (एमाले) के दफ्तर, भूमि सुधार कार्यालय और नेकपा (एमाले) के सांसद सुमन प्याकुरेल के घर में आग लगा दी.

मधेशी मोरचा के कार्यकर्ताओं ने सप्तसरी जिले के राजविराज, रूपनी, कल्याणपुर, भरदह वगैरह इलाकों के चौकचौराहों पर टायरों में आग लगा कर बवाल मचाया.

दरअसल, 6 मार्च, 2017 को नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके केपी शर्मा ओली की अगुआई में नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी (एमाले) की आम सभा थी. उस के बाद मेची से महाकाली तक रथयात्रा निकाली जानी थी.

मधेशी मोरचा रथयात्रा का विरोध कर रहा था. सप्तसरी जिले के राजविराज इलाके में जिस जगह पर आम सभा हो रही थी, उस जगह को मधेशियों ने चारों ओर से घेर लिया. नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी और मधेशी मोरचा के कार्यकर्ता आपस में उलझ गए और तीखी झड़प हो गई. पुलिस ने फायरिंग की, जिस से अफरातफरी पैदा हो गई.

नेपाल के 28 शहरों में मधेशी आंदोलन का पूरा असर दिखने लगा. तमाम स्कूलकालेज, बाजार और कारखाने बंद हो गए. मधेशियों के गुस्से को देखते हुए नेपाल सरकार ने सप्तसरी के कलक्टर उद्धव प्रसाद, एसपी दिवेश लोहानी, सशस्त्र पुलिस बल के एसपी जय बहादुर खड़का और डीएसपी दान बहादुर को आननफानन सस्पैंड कर दिया. इस के बाद भी मधेशियों का गुस्सा ठंडा नहीं हुआ.

नेपाल में संविधान संशोधन विधेयक पेश होने और 5वां अलग प्रांत बनाने के फैसले के खिलाफ मधेशियों ने 9 मार्च, 2017 को प्रदर्शन किया. नया प्रांत बनाए जाने के विरोध में मधेशियों ने बुटबल, रूपनदेही, भैरावाहा, पाल्पा, कपिलवस्तु, गुल्मी, अधरखांची समेत कई इलाकों में प्रदर्शन किए.

मधेशी मांग कर रहे हैं कि प्रांतों की सीमा फिर से तय की जाए और उन्हें नेपाल की नागरिकता दी जाए. पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ ने पिछले साल अगस्त महीने में प्रधानमंत्री बनने के बाद मधेशियों को उन का हक देने का भरोसा दिया था, उस के बाद मधेशियों ने आंदोलन खत्म किया था. लेकिन अब मधेशियों पर गोलियां बरसा कर ‘प्रचंड’ सरकार ने आंदोलन को फिर गरमा दिया है.

गौरतलब है कि नेपाल में राज्यों के बंटवारे के बाद से ही मधेशी बनाम पहाड़ी का झगड़ा चल रहा है. ओली सरकार के हटने के बाद ‘प्रचंड’ के सत्ता की बागडोर संभालने के बाद हालात धीरेधीरे सामान्य होने लगे थे. इसी बीच ‘प्रचंड’ ने स्थानीय निकायों के चुनाव  का ऐलान कर मधेशियों के गुस्से को भड़का दिया.

मधेशियों की नाराजगी यह है कि उन की मांगों का निबटारा किए बगैर चुनाव कराना जायज नहीं है. मधेशी इसे भेदभाव को बढ़ावा देने वाले संविधान को वैधता दिलाने की साजिश करार दे रहे हैं.

पिछले साल भारत यात्रा के दौरान पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ ने यह भरोसा दिया था कि संविधान संशोधन की प्रक्रिया में मधेशियों की मांगों का पूरा खयाल रखा जाएगा और उन से बातचीत के बाद ही संविधान में संशोधन को अंतिम रूप दिया जाएगा. इस के बाद भी मधेशियों की मांगों पर कोई विचार नहीं किया गया.

नेपाल सरकार ने 3 साल पहले अपने संविधान में नए सिरे से सुधार और बदलाव का काम शुरू किया था. उस के तहत नए भौगोलिक सीमांकन भी किए गए. नेपाल की कुल आबादी में 52 फीसदी मधेशी हैं, जो भारतीय मूल के हैं. बड़ी ही चालाकी के साथ नया सीमांकन इस तरह किया गया कि मतदान में मधेशियों की आबादी कोई खास असर नहीं दिखा सके.

नेपाल के कुल 7 राज्यों में से केवल एक राज्य में मधेशियों को बहुसंख्यक दिखाया गया है. मधेशियों का आरोप है कि उन्हें राजनीतिक तौर पर अलग करने और उन्हें उन के हक से वंचित करने की साजिश के तहत नया सीमांकन किया गया है. ऐसा कर के नेपाल ने देश की एक बड़ी आबादी के साथ नाइंसाफी की है और भारत को भी नाराज करने का काम कर डाला है.

मधेशी मोरचा ने 8 मार्च, 2017 को सरकार से समर्थन वापस लेने का ऐलान कर दिया. यूनाइटेड डैमोक्रेटिक मधेशी फ्रंट ने 6 मार्च, 2017 को बालुवाटर में प्रधानमंत्री के आवास पर पुष्पकमल  दहल ‘प्रचंड’ से मुलाकात कर 5 सूत्री मांगों का मैमोरैंडम सौंपा.

नवंबर, 2013 में हुए चुनाव के बाद नेपाल की 601 सदस्यीय संविधान सभा में मधेशी पार्टियों के कुल 39 सदस्य हैं और वे ‘प्रचंड’ सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं. इन में मधेशी पीपुल्स राइट्स फोरम के 14, तराई मधेशी डैमोक्रेटिक पार्टी के 11, मधेशी जन अधिकार फोरम के 10, राष्ट्रीय मधेश समाजवादी पार्टी के 3 और मधेशी नागरिक फोरम का एक सदस्य था.

साल 2008 के संविधान सभा के चुनाव में मधेशी पार्टियों के सदस्यों की तादाद 83 थी. नेपाल के झापा, मोरंग, सप्तरी, सुनसरी, सिरहा, परसा, बारा, धनुषा, महोतरी, सरलाही, रूटहाट, नवलपरासी, रूपादेही, कपिलवस्तु, चितवन बांके, बदरिया, कंचनपुर, खेलाली जिलों में मधेशियों की भरमार है.

नेपाल के कुल 75 जिलों में से 22 जिलों में मधेशियों की आबादी ज्यादा है. नेपाल के बीरगंज में पिछले 32 सालों से रह रहे मधेशी केशव यादव कहते हैं कि नेपाल सरकार हमेशा मधेशियों को बाहरी मानती रही है.

गौरतलब है कि पिछले तकरीबन 50 सालों से मधेशी ‘एक मधेश एक प्रदेश’ की मांग करते रहे हैं. मधेशियों की आबादी 52 फीसदी है, लेकिन वे नेपाल के कुल क्षेत्रफल में से 17 फीसदी इलाके में ही रहते हैं और उन के बूते ही नेपाल सरकार

को मिलने वाले कुल राजस्व का 80 फीसदी हिस्सा आता है.

नेपाल की कुल आबादी 2 करोड़, 95 लाख है, जिस में से डेढ़ करोड़ मधेशी हैं. नेपाल में कुल 103 जातियां हैं, जिस में 56 जातियां मधेशियों की हैं. इन में यादव, ब्राह्मण, कुर्मी, राजपूत, कुशवाह, वैश्य, कायस्थ, मल्लाह, हलवाई, केवट, लोहार, माली, कुम्हार, तेली, धोबी, हरिजन, पासवान और मुसहर जातियां खास हैं.

इन जातियों में सब से ज्यादा 4 फीसदी यादव हैं. उस के बाद 1.3 फीसदी हरिजन, 1.35 फीसदी तेली, 1.2 फीसदी कुशवाह और एक फीसदी कुर्मी जाति के लोग हैं.

नेपाल के नए संविधान में देश के कुल 75 जिलों में से केवल 7 जिलों को ही एक मधेश प्रदेश बनाने और 7 राज्यों को नए सिरे से बनाने के लिए राजनीतिक समिति बनाने की बात कही गई है. इसी को ले कर मधेशी पार्टियां बिदकी हुई हैं.

मधेशी नेता उपेंद्र यादव कहते हैं कि नेपाल सरकार की मंशा मधेशियों को राजनीतिक हाशिए पर रखने की है, इसी वजह से मधेशियों को उन के हक देने में अड़ंगे लगाती रही है. नेपाल की संसद ने 3 अगस्त, 2016 को माओवादी सुप्रीमो पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ को दूसरी बार नेपाल का प्रधानमंत्री चुन लिया था.

तराई मधेशी राष्ट्रीय अभियान के संयोजक जयप्रकाश प्रसाद गुप्ता बताते हैं कि नेपाल में संविधान सभा का कोई मतलब ही नहीं रह गया है.

नेपाल के नए संविधान में मधेशियों को उन का हक देने के बजाय हाशिए पर डालने की कोशिश की गई है. इस से नेपाल का एक बार फिर से हिंसा की आग में झुलसना तय है.             

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