पिछले 3 अंकों में आप ने भूमि की जाति, भूमि से भविष्य और भूमि पर कब निर्माण करें के बारे में पढ़ा था जो बेसिरपैर का था. अब आगे शिल्पशास्त्र में क्या कहा गया, उसे पढि़ए-

 

तिथियों के तुक्के

 

जब शिल्पशास्त्र के नियमों के अनुसार तिथि और वार चुन कर घर बनाना शुरू किया जाता है तो यह सवाल उठता है कि क्या वाकई इन में कोई सचाई है या यह मात्र अंधविश्वास है?

हमारा वास्तुशास्त्र/शिल्पशास्त्र इतनी गहराई तक गया है कि हंसी भी आती है और रोना भी. महीनों की कथा सुन कर अब वह तिथियों पर उतर आया है. देशी महीने के प्रत्येक पक्ष में 15 तिथियां होती हैं. उन में से दूसरी, तीसरी, 7वीं, 8वीं, और 13वीं केवल ये 5 तिथियां शुभ हैं. सो घर बनाने का काम इन्हीं तिथियों में करें (शिल्पशास्त्रम् 1/28). इन के लिए जंतरी वाले की शरण में जाएं और उसे दानदक्षिणा दें, क्योंकि दैनिक व्यवहार में तो कोई इन तिथियों को पूछता नहीं.

बाकी तिथियों में क्या होता है? शिल्पशास्त्र का कथन है :

गृह कृत्वा प्रतियदि दु:खं प्रान्पोति नित्यश:,

अर्थक्षयं तथा षष्ठयां पंचम्यां चित्रचांचल्य:.

चौरभीति दशम्यां तु चैकादश्यां नृपात्मयम,

पत्नीनाशस्तु पौर्णमास्यां स्नाननाश: कुहौ तथा

रिक्तायां सर्वकार्यानि नाशमायान्ति सर्वदा.

-शिल्पशास्त्रम् 1/26-28

पहली तिथि को यदि घर बनाना शुरू किया जाए तो नित्य दुख होता है. छठवीं को किया जाए तो धन का नाश, 5वीं को किया जाए तो चित्त अस्थिर. (ध्यान रहे, शिल्पशास्त्र ने जो ‘चित्रचांचल्यर्’ लिखा है वह गलत है. सही शब्द है- ‘चित्तचांचल्यम्’), 10वीं को किया जाए तो चोरी होती है, 11वीं को किया जाए तो राजभय होता है, पूर्णिमा को किया जाए तो पत्नी का विनाश, अमावस्या को किया जाए तो वह स्थान ही हाथ से छिन जाता है जहां घर बनाना हो, चौथी, नौवीं व तेरहवीं को किया जाए तो सब कार्य बिगड़ जाते हैं.

दुनियाभर में लोग अपनी सुविधा के अनुसार घर बनाना शुरू करते हैं. वे हिंदू जंतरी से न तिथियां जानने की कोशिश करते हैं, न महीने, फिर भी दुनिया भली प्रकार से चल रही है.

अपने यहां दहेज कम लाने वाली बहुओं, जो उन घरों के लड़कों की पत्नियां होती हैं, को जला कर मारा जाता है. अपने यहां जो इस तरह का पत्नीनाश होता है, क्या वह इसीलिए होता है कि शिल्पशास्त्र के नियमों का उल्लंघन कर के उस घर को पूर्णिमा तिथि को या आश्विन मास में बनाना आरंभ किया गया होता है?

फिर तो ऐसे अपराधियों को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि पत्नी की मृत्यु तो पूर्णिमा तिथि या आश्विन मास के कारण होती है. असली दोषी तो वे दोनों हैं. ‘बेचारा’ हत्यारा तो वास्तुशास्त्र के क्रोध का ऐसे ही शिकार हो गया है.

अपना शिल्पशास्त्र औंधी खोपड़ी का प्रतीत होता है, क्योंकि पूर्णिमा को अथवा आश्विन में घर बनाना शुरू कोई करता है, परंतु उस के दंडस्वरूप मरता कोई और है. मरने वाली पत्नी ने तो कुछ भी नहीं किया होता. कई मामलों में तो भावी ससुर जब घर बना रहा होता है, तब भावी बहू अभी ? जन्मी भी नहीं होती.

 

वारों के वार

 

शिल्पशास्त्र महीनों, तिथियों के बाद वारों की बात करता है. उसे एक मनोरोगी की तरह सर्वत्र कुछ न कुछ दिखाई दे रहा है- ऐसा कुछ जो वहां वास्तव में है नहीं.

शिल्पशास्त्र कहता है, यदि रविवार को घर बनाना शुरू किया जाए तो उस घर को आग लग जाती है, यदि सोमवार को शुरू किया जाए तो धन का नाश होता है और यदि मंगलवार को शुरू किया जाए तो उस घर पर बिजली गिरती है :

वह्नेर्भय भवति भानुदिनेडर्थनाश:,

सौरे दिने ज्ञितिसुतस्य च वज्रपात:

-शिल्पशास्त्रम्, 1/29

आमतौर पर लोग रविवार से ही घर बनाना शुरू करते हैं, क्योंकि उस दिन छुट्टी होती है. परंतु शिल्पशास्त्र कहता है कि उस दिन शुरू किए घर को आग लगती है. क्या जिन घरों में आग लगती है, वे इसलिए जलते हैं कि उन्हें बनाना रविवार को शुरू किया गया था, या कि शौर्टसर्किट होने या दूसरी किसी असावधानी के कारण ऐसा होता है? क्या ऐसा संभव है कि घर रविवार को न बना हो और उधर शौर्टसर्किट के कारण या वहां रखे पटाखों के अंबार के कारण आग लग जाए और घर केवल इसलिए न जले कि उसे बनाना रविवार को शुरू नहीं किया गया था?

ऐसे ही मंगलवार को घर को बनाना शुरू करने तथा उस पर बिजली गिरने में आपस में क्या संबंध है? मंगल का अर्थ तो खुशी होता है. क्या मंगलवार की खुशी का अर्थ बिजली का गिरना है? बाकी जिन दिनों को शुभ करार दिया गया है, उन में क्या दैवीय शक्ति है कि वे कुछ भी अप्रिय होने से रोक लेंगे? दुनिया में क्या कोई भी दिन ऐसा जाता है जिस दिन कहीं न कहीं दुर्घटना, बीमारी, हत्या, अप्रिय घटना आदि घटित न होती हो?  अगले अंक में जारी…

 

शीशे की दिशा में वास्तुशास्त्रियों की गपोड़बाजी

 

शीशा, जोकि शोभा बढ़ाने और खुद को देखने का साधन भर है, को ले कर कई तरह की कुतर्की बातें वास्तुशास्त्रियों ने फैला रखी हैं. वास्तुशास्त्री कहते हैं कि घर में मौजूद हर वस्तु में ऊर्जा होती है, कुछ में पौजिटिव तो कुछ में नैगेटिव. इसे वे हर निर्जीव वस्तु की तरह शीशे पर भी लागू करते हैं. सवाल यह कि क्या यह ऊर्जा इलैक्ट्रौंस और प्रोटोंस से अधिक कुछ है? वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो ऊर्जा का स्थान और दिशा का आपस में कोई संबंध नहीं है. ऊर्जा भौतिक नियमों पर आधारित है, न कि किसी अज्ञात शक्ति या मान्यता पर.

वास्तुशास्त्री के अनुसार बताया जाता है कि घर में शीशा लगाने के लिए उत्तर या पूर्व दिशा को चुनना चाहिए, ऐसा करने से घर में धन का प्रवाह बढ़ता है और शांति का वास होता है. चलिए मान लेते हैं कि शीशे को उत्तर दिशा में लगाने से कुबेर देवता प्रसन्न हो जाते हैं और पैसा बरसने लगता है पर सोचिए यदि ऐसा होता तो हम सभी के घरों में सिर्फ एक शीशा ही काफी न होता? हमें मेहनत करने, नौकरी ढूंढ़ने या व्यवसाय चलाने की जरूरत ही क्यों पड़ती? हाल ही में संसद में वित्त बजट पेश किया गया है, उस की जगह निर्मला सीतारमण शीशा ही पेश कर देतीं और देशभर के लोगों से कह देतीं कि सभी लोग अपने घरों में वास्तु अनुरूप शीशा लगाएं, ताकि धनवृद्धि हो और देश की अर्थव्यवस्था बढ़े.

वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो ऊर्जा का प्रवाह किसी एक दिशा में नहीं होता, यह विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है, जैसे कि तापमान, वायु का प्रवाह और अन्य भौतिक तत्त्व. ऊपर से शीशे पर ऊर्जा, यह थोड़ा हास्यास्पद है. एक समझदार इंसान होता तो यह सुझाव देता कि शीशा उस जगह लगाया जाना चाहिए जहां से दर्पण साफ दिखाई दे. मान लें घर में बल्ब यदि शीशे के ठीक सामने है तो उस दिशा में रोशनी का रिफ्लैक्शन शीशे पर पड़ेगा और चेहरा साफ दिखाई नहीं देगा. यानी, चेहरा देखने के लिए यदि शीशा लगाया जा रहा है तो घर में रोशनी किस दिशा से आ रही है, उस अनुसार लगाया जाना चाहिए, न कि वास्तुशास्त्रियों के अनुसार. वास्तुशास्त्री बताता है कि घर में गलत जगह लगाया गया शीशा आप के भाग्य को खराब कर सकता है. क्या इस में ऐसा है? पहली बात यह कि यह कोई क्यों नहीं बताता कि भाग्य तय कैसे होता है? कौन तय कर रहा है? और कर रहा है तो क्यों कर रहा है? बस, खालीपीली उपदेश दे दिए गए हैं.

अगर सुबह उठते ही शीशे में अपनी शक्ल देखने से दिन खराब हो सकता है तो शायद अपनी शक्ल पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत है, न कि शीशे की दिशा पर. बल्कि अच्छी बात तो यह होती कि सुबह उठ कर सब से पहले शीशे में अपनी शक्ल देखी जाए. भारतीय महिलाएं अपने चेहरे पर बिंदी, लिपस्टिक, सिंदूर न जाने क्याक्या लगाती हैं. वास्तव में, सुबह उठ कर शीशे में अपनी शक्ल देखने से यह तो समझ आएगा कि बिंदी कहीं नाक में न चली गई हो, सिंदूर कहीं माथे पर न आ गया हो या बाल कहीं बिखरे न हों. पता चले बाहर आए, तो बच्चेबूढ़े सब शक्ल देखते ही हंसने लगे.

वे डराते हैं कि शीशा कभी भी पश्चिम या दक्षिण की दीवार पर नहीं लगाना चाहिए. इस दिशा में शीशा लगाने से घर में अशांति बनी रहती है. क्या शीशे से शांति तय होती है? अशांति या शांति तो घर के वातावरण, लोगों के व्यवहार और जीवनशैली पर निर्भर करती है. कोई पति अगर मारपीट करने वाला हो या पत्नी ?ागड़ालू हो तो शीशा इस में क्या कर लेगा? सास की अगर बहू से नहीं बन रही तो इस में शीशे का क्या दोष? क्या शीशा फैमिली कोर्ट का भी काम करने लगा है जो रिश्ते सुल?ा रहा हो? और अगर ऐसा है तो फैमिली कोर्ट खुला ही क्यों है?

वास्तुशास्त्री यह भी बताते हैं कि शीशा लगाते समय या खरीदते समय शीशा साफ हो और टूटा न हो. अब यह अजीब बात है. क्या कोई ऐसा है जो कहेगा कि शीशा टूटा और गंदा खरीदो? कैसी बचकानी बातें हैं? यह तो ऐसी बात हुई कि खाना ताजा खाना चाहिए, अपनी सेहत पर ध्यान देना चाहिए, गंदी लतों से दूर रहना चाहिए. भई, शीशा साफसुथरा ही खरीदा जाता है, इस में ऐसा ज्ञानवर्धक चूर्ण जैसा क्या है?

थोड़ा भारतीय इतिहास में जाएं तो पता चलेगा शीशा हमारे यहां का है ही नहीं, न ही हम ने इस का आविष्कार किया. जब इस तरह का शास्त्र लिखा गया था तब कहीं ग्लास या मिरर का जिक्र ही नहीं था, आज उस को ले कर ये वास्तुशास्त्री शास्त्रीय निर्देश दे रहे हैं. तब कांसे की तश्तरी को चमका कर शीशा बनाया जाता था और इस के दिशाओं को ले कर भी कोई बात नहीं थी. दरअसल, शीशे का आविष्कार ही 1835 में हुआ था, वह भी जरमन रसायन वैज्ञानिक जस्टस वान लिबिग द्वारा, जिस ने कांच के एक फलक की सतह पर मैटेलिक सिल्वर की पतली परत लगा कर इस को बनाया था. यह तो सीधासीधा विज्ञान से जुड़ी बात है. शीशा तो भारत में बहुत देर में आम लोगों तक पहुंच पाया. इस में वास्तुशास्त्र का क्या काम?

 

(अगले अंक में जारी…)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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