Download App

इतिहास और सौंदर्य का अद्भुत संगम ‘राजस्थान’

वीरों के कई किस्से सुने थे. हिंदी गद्य गरिमा में वीर और वीरांगनाओं के साहस की कहानियां और पद्य में वीररस में पगी कविताओं में राजपूतों व राणाओं के बलिदान की गाथा मन में रोमांच भर देती थी. कक्षा में जब इतिहास की मैडम पढ़ाती थीं तो मैं इतिहास की गलियों में घूमतेघूमते कहां से कहां पहुंच जाया करता था. राजस्थान के इतिहास से मैं खासा प्रभावित था. जेहन हमेशा से उन स्थानों पर व्यक्तिगत तौर पर जाने के लिए मचलता था जिन के बारे में मैं अपनी पाठ्यपुस्तकों में पढ़चुका था. मैं ने जब इस ऐतिहासिक धरती पर कदम रखा तो मेरी कल्पनाएं, मेरी अनुभूति के सामने छोटी पड़ गईं.

कुंभलगढ़

मेरे सफर की शुरुआत हुई जयपुर से. एक सुखभरी ड्राइविंग की बात की जाए तो मैं यही कहूंगा कि जयपुर से कुंभलगढ़ के बीच बना राजमार्ग सब से शानदार ड्राइविंग अनुभव कराता है. मैं इस रास्ते की तुलना रेशम से बनी कालीन से करूंगा जिस पर गाड़ी चलाने में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती, बल्कि वह आसानी से आगे बढ़ती जाती है. मजे की बात यह है कि ड्राइविंग के साथ गुजरते वक्त में राजस्थान के ग्रामीण दृश्य किसी की भी आंखों की कूंची से उतर कर मन के कैनवास पर छप जाएंगे. जी हां, इन रास्तों पर दिखने वाला हर दृश्य आप को किसी राजस्थानी पेंटिंग की तरह लगेगा. कुंभलगढ़  के मोड़ पर गाड़ी घुमाते ही रंगबिरंगे कपड़ों और पगडि़यों में खेतीबाड़ी में मशगूल गांव की महिलाएं और पुरुषों को देख आप खुद को राजस्थानी संस्कृति के काफी करीब महसूस करेंगे. यदि आप ने भोर में ही जयपुर से अपनी यात्रा प्रारंभ कर दी है तो आप दिन के दूसरे पहर यानी दोपहर बाद कुंभलगढ़ पहुंचने में सफल रहेंगे. यात्रा के मध्य पड़ने वाले शहर अजमेर का भ्रमण करने का भी विचार है तो आप कुंभलगढ़  जाने से पहले यहां की सैर कर सकते हैं.

अरावली की चोटियों को छूते हुए हम जैसेजैसे आगे बढ़ते जा रहे थे, नजारे उतने ही खूबसूरत होते जा रहे थे. कुछ ही दूर पहाड़ी पर अपनी विशाल भुजाओं को फैलाए खड़ा कुंभलगढ़ का किला दिखा तो नजरें अटक सी गईं और जबान से एक ही शब्द निकल सका, ‘अद्भुत’. मैं किले के नजदीक आता जा रहा था मगर एक टी पौइंट से सहरा की तरफ गाड़ी को घुमाना पड़ा. दरअसल, कुछ ही किलोमीटर पर ‘वाइल्डलाइफ रिट्रीट’ रिजौर्ट में हम ने रहने के लिए पहले से ही बुकिंग करा रखी थी. यह रिजौर्ट एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित है और इस की खासीयत है इस की बनावट. रिजौर्ट में अपने कमरे की खिड़की खोलते ही जो दृश्य मुझे दिखा उस में एक ओर कुंभलगढ़  का किला और दूसरी ओर गहरी खाई और खाई में बसी कुंभलगढ़  वाइल्ड लाइफ सैंचुरी का अद्भुत नजारा देखने को मिला. यहां का वातावरण इतना शांत है कि आसानी से चिडि़यों की चहचहाहट और जानवरों की दहाड़ सुनी जा सकती है. जी हां, मैं ने खुद रात के लगभग 2 बजे एक बंदर की जोरदार खौखौ की आवाज सुनी और मेरी नींद टूट गई. जगह की सुंदरता के साथ यदि रहने का स्थल भी आरामदायक हो तो यात्रा का मजा दोगुना हो जाता है. इस रिजौर्ट में वे सारी विशेषताएं थीं जो किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करेंगी खासतौर पर इस के बड़े औैर आरामदायक कौटेज, जिन्हें खूबसूरत फर्नीचर और परदों से सजाया गया है.

रिजौर्ट आने के बाद भी मन में एक अजीब सी कुलबुलाहट थी. मन उस विशाल से किले में खोया हुआ था. दोपहर का भोजन और एक छोटी सी झपकी के बाद मैं खुद को उस किले की सैर करने से रोक न सका. वहां पहुंच कर मुझे उस किले की भव्यता का एहसास हुआ. इस ऐतिहासिक किले को महाराणा प्रताप के पिता राणा कुम्भा ने बनवाया था. इसी किले में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था. पूरे किले की सैर करतेकरते हमें दिन से शाम हो गई. किले के पिछले भाग से हम ने सूर्यास्त का खूबसूरत नजारा भी देखा. साथ ही, किले में शाम को आयोजित होने वाले लाइट और साउंड शो का भी लुत्फ उठाया.

हल्दीघाटी

अगली सुबह एक शानदार नाश्ते के बाद हम कुंभलगढ़  से 80 किलोमीटर दूर स्थित हल्दीघाटी के लिए निकल पड़े. उदयपुर से मात्र 15 किलोमीटर दूर यह भूमि इतिहास की सैकड़ों गाथाओं को खुद में समाए हुए हैं. यह वही जगह है जहां महाराणा प्रताप के रणबांकुरों की सेना ने अकबर की विशाल सेना के छक्के छुड़ा दिए थे. हल्दी की तरह पीली इस घाटी की मिट्टी से आज भी महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की स्वामिभक्ति की खुशबू आती है. अब इस स्थान पर एक संग्रहालय बनाया गया है जहां युद्ध के मैदान के मौडल्स, पेंटिंग और डौक्यूमैंट्री के जरिए कोई भी उस वक्त की घटनाओं को महसूस कर सकता है. यहां से कुछ ही दूरी पर स्थित है रक्त तलाई. दरअसल, युद्ध में इतने लोगों का रक्त बहा कि इस जगह का नाम ही रक्त तलाई पड़ गया. युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व कर रहे राजा मानसिंह ने महाराणा को मुगल सेना से बचाने के लिए उन का रूप धारण कर लिया था और अपने प्राणों का बलिदान कर दिया था. इसलिए यहां उन का भी स्मारक है. रक्त तलाई से कुछ दूरी पर महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की भी समाधि बनी हुई है. युद्ध के दौरान घायल चेतक ने महाराणा को जिस सुरक्षित जगह पहुंचा कर अंतिम सांसें ली थीं, वहीं पर महाराणा ने चेतक की समाधि बनवा दी थी. हालांकि इस युद्ध में मुगलों की विजय हुई थी लेकिन महाराणा की भी हार नहीं हुई थी. अपने जीतेजी महाराणा ने मुगलों को मेवाड़ की धरती पर पैर नहीं रखने दिया. मुगलों ने महाराणा की मृत्यु के बाद ही चैन की सांस ली थी. खैर, वीरों की इस धरती से हम सैकड़ों यादें बटोरे वापस कुंभलगढ़  लौट आए.

बेरा

सफर का अगला पड़ाव बेरा था, इसलिए अगले दिन सुबह का नाश्ता कर हम बेरा के लिए निकल पड़े. गुजरात के बौर्डर से मात्र 100 किलोमीटर पहले स्थित बेरा में हम ने लेपर्ड लायर रिजौर्ट को रहने के लिए चुना था. इस रिजौर्ट के मालिक ठाकुर देवी सिंह रनावत और उन की पत्नी हैं. यह जगह उन के निजी और विशाल बाग में स्थित है. यहां कई कौटेज हैं, जिन्हें आज के समय के अनुसार सारी सुखसुविधाओं को ध्यान में रख कर तैयार किया गया है. यह बहुत आलीशान तो नहीं लेकिन बहुत ही आरामदायक जगह है. खासतौर पर यहां का खाना लाजवाब है. खैर, बेरा को तेंदुओं का घर कहा जाता है, इसलिए हम ने भी बिन बुलाए मेहमान की तरह इन के घर में घुस कर इन की झलक पाने की कोशिश की. हमारी 4 बार की कोशिशों में सिर्फ एक बार ही हम इन की झलक पा सके, जो लाजवाब थी.

जोधपुर

अगली सुबह हमें पाली होते हुए जोधपुर निकलना था. कार्यक्रम के मुताबिक हम नाश्ता कर सफर पर निकल पड़े. जोधपुर में हम ने पूरा एक दिन बिताया. यह जगह शौपिंग के लिहाज से बहुत अच्छी है. यहां शौपिंग के अलावा मेहरानगढ़ किला भी घूमा जा सकता है. इस किले की भव्यता देखते ही बनती है. किले को बारीक नक्काशी और विशाल प्रांगण के लिए जाना जाता है. फिलहाल, यहां एक संग्रहालय बना दिया गया है जहां अतीत की महत्त्वपूर्ण वस्तुओं का संग्रह किया गया है.

जैसलमेर

जोधपुर के बाद हम अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव यानी जैसलमेर पहुंच गए. प्रकृति के हर रूप को देखने के बाद मेरी हसरत रेगिस्तान देखने की थी. यात्रा की शुरुआत से ही थार मरुस्थल के बीचोंबीच बसा शहर जैसलमेर मेरी प्राथमिकता में था लेकिन कुंभलगढ़ से अपनी यात्रा प्रारंभ करने के बाद यह शहर मेरी यात्रा का अंतिम और खूबसूरत पड़ाव बना.

जैसलमेर शहर जोधपुर से तकरीबन 300 किलोमीटर दूर है पर अच्छी सड़क और कम यातायात होने की वजह से यह दूरी साढ़े 4 घंटे में तय की जा सकती है. हम 5 बजे सवेरे जैसलमेर-बाड़मेर हाईवे पहुंच चुके थे, जहां से हमें ऊंट की सवारी प्रारंभकरनी थी. यात्रा प्रारंभ करने से पूर्व ही हमें हमारे ऊंट चालकों ने आगाह कर दिया था कि रेगिस्तान में खानेपीने के सामान को सुरक्षित बनाए रखना कठिन है और पानी को अधिक मात्रा में रखना जरूरी. साथ ही, चालक ने यह भी बताया कि किसी भी तरह की पीठ संबंधी दिक्कत है तो ऊंट की सवारी करना सही निर्णय नहीं रहेगा. मुझे यह दिक्कत नहीं थी इसलिए मैं आराम से ऊंट की सवारी कर सकता था. लेकिन यात्रा के समय पड़ने वाले हलके धचकों से मैं परिचित नहीं था. कुछ समय बीतने के बाद इन धचकों की मुझे आदत हो गई.

4 घंटे ऊंट की पीठ पर बिताने के बाद मुझे अपने चारों तरफ केवल रेत की सुनहरी चादर ही दिख रही थी. मैं ने सुना था कि जिस तरह समंदर का कोई छोर नहीं दिखता वैसे रेगिस्तान में रेत के अलावा कुछ और नहीं दिखता, लेकिन ऐसा वास्तव में नहीं था. यहां बबूल के पेड़ और झाडि़यों को आसानी से देखा जा सकता था. लेकिन बालुई पर्वतों के शिखर पर चारों ओर जो गहन शांति की अनुभूति थी उस की तो मैं व्याख्या करने में भी असमर्थ हूं. जमी हुई रेत पर दौड़ने और सूखी रेत पर धंसते जूतों को बाहर निकालने में जो सुकून मिल रहा था वह शहर की चहलपहल से कई गुना ज्यादा था. रेत में अठखेलियां करतेकरते कब चांद ने आसमान पर दस्तक दे दी, पता ही नहीं चला. रेत के सागर में हम बिछौना बिछाने की जगह तलाशने लगे. वैसे थोड़ीथोड़ी दूर में बसे छोटेछोटे  गांव हमें अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे. जब हम वहां से गुजरते तो छोटे बच्चे हमारे ऊंट के पीछे थोड़ी दूर तक हो लेते.

चालक से पूछने पर पता चला कि इन गांवों में एक ही दुकान होती है जहां खानेपीने का सारा सामान मिल जाता है. हालांकि बहुत अधिक वैराइटी नहीं होती लेकिन फिर भी जरूरतभर का सामान मिल जाता है. खैर, हमें कुछ दूरी पर बागजी बाबा की ढाणी मिल गई जहां हम ने लकड़ी एकत्र कर पहले भोजन बनाया, फिर बिछौना बिछा कर विश्राम किया. खुले आसमान के नीचे ढेर सारे तारों के संग हम पहली बार प्रकृति को खुद के इतना करीब महसूस कर रहे थे. इस एहसास के साथ ही यात्रा के 4 दिन बीत गए. अब बारी थी राजस्थान की स्मृतियों को समेट कर वापस अपने शहर की चहलपहल में लौटने की. लेकिन उन स्मृतियों में मैं अभी भी खोया हुआ हूं और शायद ही इन से बाहर निकलना चाहूं.

डांट प्रदूषण : पत्नी के डांटपिलाऊ भोंपू से बचने का तरीका आप भी जानिए

आजकल पूरे देश में प्रदूषण की समस्या का होहल्ला मचा है और देश की राजधानी को तो प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए नएनए प्रयोग आजमाए जा रहे हैं. ‘औडइवन’ अर्थात ‘समविषम’ के नुस्खों में हम सब की जान फंसी रही. ऐसे लाजवाब एक्सपेरीमैंट से हमारे क्रियाशील मस्तिष्क में भी एक क्रांतिकारी विचार उपजा है जिसे बिना किसी शुल्क के, मुफ्त में आप सभी से शेयर कर रहे हैं. असल में इस लेख के माध्यम से हम प्रदूषण के समस्त ज्ञातअज्ञात रूपों से इतर, एक ‘सुपर स्पैशल प्रदूषण’ पर आप सभी का ध्यान आकर्षित करना चाह रहे हैं जिसे बेचारे हम सरीखे ‘सद्गृहस्थी’ 24×7 की तर्ज पर ‘नौनस्टौप’ भुगतते आए हैं. दुख की बात यह है कि इस प्रदूषण की समस्या पर लंबीचौड़ी फेंकने वाले विद्वानों की भी बोलती बंद है. इस में कोई आश्चर्य की बात भी नहीं.

पत्नीजी से डरना, उन की डांटफटकार सुनना हर पति महाशय का परम कर्तव्य है. इसे हम पावनधर्म इसलिए कह रहे हैं ताकि इस मजबूरी को साहित्यिक रूप में सम्मानपूर्वक प्रकट कर सकें. वरना विवशता तो यह है कि उन के आगे सब की बोलती बंद है. मंत्री हो या संत्री, अफसर हो या बेरोजगार, इस पैमाने के आगे सब एकसमान हैं.

अब हम ने सर्वजन हिताय में इस विषय पर बोलने की हिम्मत की है. श्रीमतीजी की प्रतिदिन की डांट से त्रस्त आ कर जनहित में हम ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर उठाने का बीड़ा उठाया है. हमें पता है, हमें नारी संगठनों से प्रतिरोध, उलाहने सहने पड़ेंगे लेकिन पत्नी पीडि़त संघों से हमें अटूट समर्थन, सम्मान और पुरस्कारों की भी आशा है. अब इस अघोषित प्रदूषण के खिलाफ ‘विसिल ब्लोअर’ की भूमिका निभाने की हम ने कमर कस ली है. सभी पतियों की यही रामकहानी है, सो आप प्रबुद्धगण हमारी दुखती रग को पकड़ चुके होंगे.

आप खुद सोचिए, रेल, बस, कारमोटर, स्कूटर, बाइक के कर्कश हौर्न, लाउडस्पीकर पर बजते कानफोड़ू संगीत अथवा रैली, धरनाप्रदर्शन करते आदरणीय नेताओं के भाषण ही ध्वनि प्रदूषण फैलाते हैं. जब घरों में पत्नीजी का संवाद डांटफटकार की प्रक्रिया, सप्तम स्वर में संपन्न होने लगे तो क्या इसे ‘स्पैशल होमली प्रदूषण’ की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए? डांट के रूप अनेक हो सकते हैं, बच्चों पर और खासकर पति महाशय पर डांट का रूप अकसर विस्फोटक ही होता है. भारतीय गृहस्थी दुनिया का 8वां अजूबा है. यह रेल की पटरियों की तरह साथसाथ चलती जरूर है लेकिन मिलती कहीं नहीं. अटकती, लटकती, मटकती, इतराती, बलखाती हुई निर्बाध रूप से भारतीय गृहस्थी लगातार गतिशील रहती है. यही कारण है कि हमारे यहां पतिपत्नी साथसाथ रह कर अपने विवाह की स्वर्ण, रजत अथवा प्लैटिनम जुबली मनाते हैं.

पतिपत्नी और डांट का चोलीदामन का साथ है. जहांजहां पत्नीजी की उपस्थिति पाई जाती है वहांवहां डांटफटकार का पाया जाना निश्चित है. अब इस दार्शनिक वाक्य से आप उस प्रदूषण की सहज कल्पना कर सकते हैं जिस के लिए पत्नीजी की डांटफटकार जिम्मेदार है. सुबह हमारी नींद पत्नीजी की उस लास्ट घोषणा से खुलती है जो अल्टीमेटम का अंतिम रूप जैसी होती है. यह क्रिया इतनी बुलंद आवाज में संपन्न होती है कि बिना आलस से बिस्तर छूट जाता है. यह कार्य निबटते ही उलाहनों, कोसने और रुटीन रोनेधोने का कार्यक्रम चलने लगता है जो शीघ्र ही डांट में बदल कर ध्वनि प्रदूषण फैलाने लगता है. एक बानगी देखिए – ‘‘अजी सुनते हो, 8 बज गए, कब तक सोते रहोगे? फिर बाथरूम में जा कर बैठ जाओगे…बच्चों को भी स्कूल जाना होता है…ऐसी आरामतलबी है तो दोचार बाथरूम बनवाने की हैसियत कायम करते…’’

अब आप बताइए ऐसे ध्वनि प्रदूषण को हम किस श्रेणी में रखें? क्या हमारी यह डिमांड गलत अथवा अतार्किक है? पत्नीजी की चिल्लाहट, झल्लाहट समय और अवसर की मुहताज नहीं होती. जब मन किया, हमें सुधारने के लिए ऐसी डांटफटकार की डोज दिन में अनेक बार आवश्यक रूप से पिलाई जाती है. कई बार तो इस ‘होमली प्रदूषण’ से आसपास की बिल्ंिडगों के शीशे भी तड़क जाते हैं. इस उदाहरण से आप इस प्रदूषण की तीव्रता का सहज अनुमान लगा सकते हैं. पत्नीजी की डांट और शोरगुल से अकसर हमें गुस्सा और आक्रोश भी महसूस होता है लेकिन दिल को तब सुकून मिलता है जब पड़ोस से भी ऐसा ही ध्वनि प्रदूषण सुनने को मिलता है. मजे की एक बात और देखिए, जैसे ही हम शाम को घर आते हैं, श्रीमतीजी सीबीआई इंस्पैक्टर की भूमिका में हमारे समक्ष परिवार, कालोनी की रिपोर्ट प्रस्तुत करने लगती हैं. बच्चों की गतिविधियां, स्टडी, स्कूल, ट्यूशन, टीवी, कार्टून और इंटरनैट यूज से जुड़ी सब अपडेट सविस्तार प्रस्तुत करती हैं. अब यदि ऐसे महत्त्वपूर्ण लमहे पर हम ने जरा सी लापरवाही दिखा दी तो हमारा शिकार होना तय है – ‘‘मैं भी किस से बतिया रही हूं, इन्हें चिंता किस बात की है. मेरी बातें तो इन्हें बकवास लगती हैं. इन से बोलने का मतलब दीवारों से सिर फोड़ना है. अजी बहरे हो क्या, आप से ही पूछ रही हूं और आप अखबार में डूबे हो. सच्ची बात कह दो तो आप को सांप सूंघ जाता है. दीवारों से बात करूं या आप से, आप का कुछ नहीं हो सकता.’’

यदि घर पहुंचने में देर हो गई तो पुलिस अफसर अथवा सुप्रीम कोर्ट के सफल एडवोकेट की तरह हमें जिरह का सामना भी करना पड़ता है और यदि हम ने बुद्धिमानी से काम नहीं लिया तो डांट का ध्वनि प्रदूषण पूरी कालोनी को प्रदूषित करने लगता है. इस समय अकसर पूरा संवाद एकतरफा ही चलता है. हम होंठ चिपकाए भीगी बिल्ली की तरह इस संपूर्ण प्रक्रिया को जल्द से जल्द निबटा लेना चाहते हैं ताकि फटाफट डांटफटकार का क्रम शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हो सके. इस स्थिति के लिए अकसर श्रीमतीजी खुद अपनेआप को ही कोसती हैं. वे दिनरात की मेहनत में सुधार कार्यक्रम चला कर भी हमें सुधार नहीं पाई हैं.

हमारी लाइफस्टाइल उन्हें जरा भी पसंद नहीं. हम ठहरे लापरवाह, गैर जिम्मेदार. उन की नजर में उन के प्रति हमारी तटस्थता किंतु हमारा रहस्यमय रोमांटिक नेचर उन्हें हमेशा शक के दायरे में फंसाए रखता है. इसलिए उन की नजर में चिल्लाना एकदम जायज है. वैसे, एक बात कहें, शर्त यह है कि आप हमारे राज को किसी से कहेंगे नहीं. रोजरोज की पत्नीजी की डांट से बचने के लिए हम ने अपने कानों में रूई ठूंसने का देशी जुगाड़ कर रखा है वरना अब तक तो हमारे कान के परदे फट गए होते. अब समय आ गया है कि इस घरेलू प्रदूषण से मुक्ति के लिए समस्या समाधान पर पूरे देश में विचारमंथन हो. हम इस लेख के माध्यम से सरकार को एक मुफ्त की सलाह भी देना चाहते हैं. यदि इस पर अमल हो जाए तो बहुत संभव है इस प्रदूषण की समस्या न्यून रह जाएगी. अगर पतिपत्नी संवाद को भी ‘औडइवन’ सिस्टम से सीमितप्रतिबंधित कर दिया जाए तो पति जमात का उद्धार हो सकता है. महीने की औड तारीख को पत्नीजी बोलेंगी और इवन डेट को पति महाशय. सच कहूं तो इस से ‘सम्मान नागरिक संहिता’ का भी आदर्श रूप से पालन हो सकेगा वरना पतिपत्नी संवाद अकसर एकतरफा ही चलता है जो गुस्से की सीमा पार कर अकसर बम विस्फोट की तरह प्रदूषण फैलाने लगता है. यह नियम यदि गृहस्थों पर लाद दिया जाए तो मूक पतियों को भी बोलने का कानूनी अधिकार मिल सकता है. कानों में रूई ठूंसने की तकनीक भी अब पुरानी पड़ चुकी है. समय की मांग को देखते हुए हमारे इस सुझाव पर तुरंत अमल होने की जरूरत है. इस से ‘पौल्यूशन फ्री होम’ का सपना भी साकार होगा.

एक तथ्य हम और स्पष्ट कर दें, पति की नजर से हम ने अपनी तहरीर रख दी है लेकिन सच में मेरा मन पत्नीजी का बहुत आभारी है. वे गुस्सा चाहे कितना भी करें लेकिन यह सच है कि हमारा जीवन उन्हीं पर निर्भर है. यदि एक दिन बीमार पड़ जाएं तो हमारे होश ठिकाने आ सकते हैं, फिर उन का चिल्लाना भी जायज है. आखिर वे भड़ास निकालें तो किस पर. दिनभर घरपरिवार के लिए खपती हैं तो उन की हम से अपेक्षा रखना स्वाभाविक है. सात फेरे लिए हैं, सात जन्मों का साथ है तो इतना अधिकार तो बनता है. हमारी इल्तजा बस इतनी सी है, सरकार इस प्रदूषण पर गौर फरमाए और पतियों को भी बोलने का अवसर प्रदान करे.

कंगला घाट : जहां रोज मनता है मौत का जश्न

बिहार की राजधनी पटना शहर का मुख्य और पुराना इलाका है-अशक राज पथ. करगिल चौक की ओर से इस सड़क में घुसने के बाद मिलता है बांकीपुर पोस्ट औफिस. उसी बिल्डिंग के बगल से सटी एक तंग गली गंगा नदी के किनारे बने कंगला घाट तक पहुंचती है. कुछ लोग इसे नाम कंटाहा घाट भी कहते हैं. इस घाट पर रहने वाले लोग हर दिन मौत का जश्नन मनाते हैं. उन्हें रोज ही इस बात का इंतजार रहता है कि शहर में कोई बड़ा आदमी मरे, तो उन्हें भरपेट लजीज खाना मिले.

अंधविश्वास में डूबे लोग अपने परिजनों की आत्मा को शांति पहुंचाने के टोटके के नाम पर इसी घाट के भिखारियों को खाना खाने बुलाते हैं या उनके बीच पूरी, सब्जी और मिठाई का पैकेट बांटते हैं. समाज में फैले अंधविश्वास ने इस घाट को जिंदा रखने में अहम भूमिका अदा की है. शहर में रोज कोई न कोई मरता ही है, इसलिए इस घाट के बाशिंदों को कभी पकवानों की कमी नहीं हुई. घाट के पास बनी झोपड़ी में पिछले 31 सालों से रह रहा रामखेलावन बताता है कि महीने में 20-22 दिन पूरी, सब्जी और मिठाई खाने का मजा मिलता हैं. उसके पिता और मां भी इसी घाट के पास में रहते थे, 12 साल पहले उनकी मौत हो गई. अब वह अपने 3 बच्चों और बीबी  के साथ छोटी सी झोपड़ी में रह रहा है.

शहर के अमीर और बड़े लोगों के मरने पर ही इस घाट के करीब 100 परिवारों की जिंदगियां चल रही हैं और उनका वंश आगे बढ़ रहा है. उनकी सुबह इसी उम्मीद के साथ होती है कि शहर में आज कोई मरे और उन्हें उम्दा खाना मिल सके. पिछले 70-75 सालों में शहर का रंग-रूप बदला. कई सरकारें बदल गईं. तरक्की के हजारों दावे और वादे हुए. पर इस घाट के पास बसी झोपड़पट्टी और उसमें रहने वालों तक रत्ती भर भी तरक्की नहीं पहुंच सकी है. अंधविश्वासियों के बूते उनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी पल रही हैं.

सच ही कहा गसा है कि जब बैठे ठाले मुफ्त में खाने को पुआ-पकवान मिल रहा हो और हराम का खाना खाने की आदत पड़ गई हो, तो कोई काम करने के लिए हाथ-पांव क्यों चलाए? भिखारियों की इस घाट के आसपास बसने, पनपने और बढ़ने के पीछे पोंगापंथ का ही हाथ रहा है. घाट के पास रहने वाला 15 साल का लड़का अपने साथियों के साथ कंचे खेल रहा है. जब उससे पूछा गया कि उसे लोग बढ़िया-बढ़िया खाना खाने के लिए क्यों दे जाते हैं तो वह तपाक से कहता है-‘जब तक लोग हम कंगलों को खाना नहीं खिलाएंगे, तब तक मरने वाले की आत्मा भटकती रहेगी. दूसरा जीवन पाने के लिए उसे कोई शरीर ही नहीं मिलेगा.’

उस बच्चे की बातों को सुन कर यही लगता है कि उसके मां-बाप ने भी उसे यह बात घुट्टी में पिला दी है कि लोग उसे खाना खिला कर या दान देकर कोई अहसान नहीं करते हैं. यह सब काम लोग अपना मतलब साधने के लिए ही करते हैं. हमारे समाज में अंधविश्वास की जडे़ किस कदर अपनी जड़ें जमायी हुई है कि बाबाओं और पंडों की बातें अमीरों से लेकर गरीबों दिमाग में कितनी आसानी से पैठ बना लेती हैं.

कंगला घाट में रहने वाले ज्यादातर भिखारी हट्टे-कट्टे हैं. वे किसी भी सूरत से अपंग और लाचार नहीं है. इसके बाद भी वह कोई काम नहीं करना चाहते हैं. मेहनत-मजदूरी का पैसा कमाने और पेट पालने के बारे में वह लोग सोचते ही नहीं है. अपने 4 बच्चों के साथ रहने वाला डोमन से जब पूछा गया कि वह कोई काम धंधा क्यों नहीं करता है? अपंग नहीं होने के बाद भी भीख और दान के भरोसे क्यों जिंदगी चला रहा है? मजदूरी करके अपनी कमाई को बढ़ाना क्यों नहीं चाहता है? अपने बच्चों को स्कूल क्यों नहीं भेजता है? इन सब सवालों के जबाब में वह उल्टा सवाल करता है-‘ अगर हम लोग दूसरा काम-धंधा करने लगेंगे तो मरने वालों को उद्वार कैसे होगा? लोग मरेंगे तो उनके परिवार वालों को कोई कंगला नहीं मिलेगा. समाज का नियम-कायदा ही गड़बड़ा जाएगा’.

सरकार और प्रशसन की बीसियों गाड़ियां सायरन बजता दनदनाती-हनहनाती कंगला घाट के पास से रोज गुजरती हैं, पर किसी का ध्यान उस ओर नहीं जाता है. बिहार वंचित जन मोर्चा के संयोजक किशरी दास कहते हैं कि हर सरकार और प्रशासन समस्या को मिटाने के बजाए उसे बनाए रखने में दिलचस्पी दिखाते हैं. कंगला घाट के पास बनी झोपड़पट्टी को हटाने के बारे में किसी ने कभी सोचा ही नहीं, क्योंकि यह मामला राजनीति के साथ-साथ पोंगापंथ से भी जुड़ा हुआ है. दूसरों से मिली भीख से मरने वाले का परलोक सुधरने वालों का इहलोक कई पीढी दर पीढी बर्बाद हो रही है, यह किसी को न दिखाई देता है और न ही समझ में आता है.

कोचिंग बाजार : ऊंची दुकान फीका पकवान

बिहार में सरकारी स्कूलों और कालेजों में पढ़ाईलिखाई की बदहाली के चलते कोचिंग की अमरबेल बखूबी पनप चुकी है. दरअसल, कोचिंग के पनपने के पीछे सरकारी शिक्षा को साजिश के तहत पंगु बनाए रखना है. पटना विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफैसर जगन्नाथ प्रसाद कहते हैं कि अगर सरकारी स्कूलों और कालेजों में अच्छी पढ़ाई होती, तो कोचिंग इंस्टिट्यूट कभी न पनपते. सरकारी स्कूलों और कालेजों के टीचर मोटा वेतन पाने के बावजूद पढ़ाई को ले कर लापरवाह बने रहते हैं. वही टीचर प्राइवेट कोचिंग सैंटरों में जा कर पूरी तल्लीनता से पढ़ाते हैं. ज्यादातर सरकारी टीचर तो अपने घर पर ही कोचिंग सैंटर चलाते हैं और मोटी कमाई करते हैं. सरकारी टीचर जितना मन लगा कर बच्चों को कोचिंग सैंटरों में पढ़ाते हैं अगर उस का 50 फीसदी भी सरकारी स्कूलों और कालेजों के बच्चों को पढ़ा दें तो उन्हें अलग से कोचिंग की जरूरत ही न पड़े.

सूबे में सरकार हर साल तालीम पर अरबों रुपए खर्च करती है. इस के बाद भी बच्चों को बेहतर पढ़ाई के लिए कोचिंग सैंटरों पर निर्भर रहना पड़ता है. बिहार में 2015-16 में पढ़ाईलिखाई पर करीब 22 हजार करोड़ खर्च किए गए. इस के अलावा केंद्र सरकार भी तालीम के नाम पर अलग से रुपए देती है. प्राथमिक शिक्षा के लिए 11 हजार करोड़, माध्यमिक शिक्षा पर 6 हजार करोड़, विश्वविद्यालयी शिक्षा पर 5 हजार करोड़ और प्रौढ़ शिक्षा पर 255 करोड़ खर्च किए गए. इतनी बड़ी रकम खर्च करने के बाद भी सूबे में जितनी तेजी से शिक्षा की बदहाली बढ़ती जा रही है उस से कई गुना तेजी से शिक्षा का प्राइवेट बाजार फूलताफलता जा रहा है.

सपने दिखा कर लूट

सरकार मानती है कि राज्य में करीब 1,500 करोड़ से ज्यादा का कोचिंग का कारोबार है और करीब 1 लाख लोग इस की बहती गंगा में हाथ ही नहीं धो रहे हैं, बल्कि नहा रहे हैं. कोचिंग उद्योग रेलवे के गैंगमैन से ले कर आईएएस अफसर बनाने तक का सपना छात्रों को दिखाता है. यूपीएससी, स्टेट पीएससी, एसएससी, रेलवे, बैंकिंग, मैनेजमैंट, क्लर्क आदि की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराने के अलावा कंप्यूटर कोर्स और इंगलिश स्पीकिंग कोर्स कराने के नाम पर भी कोचिंग संचालक चांदी काट रहे हैं. रेलवे, बैंकिंग, कर्मचारी चयन आयोग आदि की परीक्षाओं की तैयारी में लगे करीब 3 लाख, मैडिकल और इंजीनियरिंग की तैयारी में लगे करीब 2 लाख और प्रशासनिक और मैनेजमैंट परीक्षाओं की तैयारी में लगे करीब 75 लाख छात्र हर साल कोचिंग इंस्टिट्यूटों के भरोसे इम्तिहान पास करने का सपना देखते हैं, जो बिहार के कोचिंग संस्थानों के नैटवर्क को साल दर साल मजबूत बनाते हैं.

कुछ पूछना मना है

कोचिंग सैंटरों में छात्रों की बढ़ती भीड़ को देख कर कोटा और दिल्ली के कई कोचिंग संस्थानों ने भी पटना में अपने सैंटर खोल लिए हैं. इंजीनियरिंग, मैडिकल की कोचिंग के लिए 60 हजार से 1 लाख, मैनेजमैंट संस्थानों में दाखिले की तैयारी कराने के एवज में 25 से 50 हजार, बैंकिंग प्रतियोगिताओं के लिए गाइड लाइन देने के लिए 10 से 30 हजार, यूपीएससी के इम्तिहान की तैयारी कराने के नाम पर 20 से 40 हजार, हाई स्कूल एवं इंटरमीडिएट के इम्तिहान में अच्छे नंबरों से पास कराने के टिप्स देने के लिए 10 से 15 हजार की कोचिंग फीस वसूली जा रही है. इतनी बड़ी रकम वसूलने के बाद भी ज्यादातर कोचिंग सैंटरों में छात्रों को सवाल पूछने की इजाजत ही नहीं है. सर ने जो भी पढ़ाया उसे कोई समझे या न समझे, इस से कोचिंग संचालकों को कोई मतलब नहीं है. क्लास में सवाल पूछने वालों को डांटडपट कर बैठा दिया जाता है.

आईआईटी की तैयारी कर रहा छात्र मयंक वर्मा बताता है कि उस ने एक नामी कोचिंग सैंटर में एक नामी टीचर की वजह से दाखिला लिया था. मगर कोर्स खत्म हो गया पर वे कभी क्लास लेने नहीं आए. इंटर और ग्रैजुएशन में पढ़ने वाले छात्रों द्वारा ही पढ़ाया गया. यह हाल है कोचिंग सैंटरों का. इन कोचिंग सैंटरों पर ऊंची दुकान फीका पकवान वाली कहावत सौ फीसदी सटीक बैठती है.

सरकारी योजनाएं विफल

ज्यादातर छात्र और उन के मातापिता भी कोचिंग सैंटरों को कामयाबी का जरीया मान बैठे हैं. अब तो यह हाल है कि 8वीं क्लास से ही बच्चों को कोचिंग सैंटर में दाखिल करा दिया जाता है. रिटायर्ड जिला शिक्षा पदाधिकारी उपेंद्र प्रसाद कहते हैं कि यह सच है कि शिक्षा के नाम पर बनाई गई ज्यादातर योजनाएं फाइलों से बाहर ही नहीं निकल पाती हैं. इस वजह से सैकड़ों शिक्षा माफिया शिक्षकों के भेस में छात्रों को लूट ही नहीं रहे हैं, उन के कैरियर से भी खिलवाड़ कर रहे हैं. जब कोचिंग और प्राइवेट ट्यूशन से बच्चों का भविष्य चमक सकता है, तो सरकारी स्कूलों और कालेजों पर हर साल अरबों रुपए खर्च करने की क्या जरूरत है? बिहार में 6000 बड़ेछोटे कोचिंग इंस्टिट्यूट हैं और उन का सालाना टर्न ओवर 1,500 हजार करोड़ का है. करीब 90 हजार लोग कोचिंग के कारोबार से जुड़े हुए हैं. रेलवे, बैंकिंग, कर्मचारी चयन आयोग आदि परीक्षाओं के छात्र 3 लाख के करीब हैं. मैडिकल की तैयारी में हर साल डेढ़ लाख से ज्यादा और इंजीनियरिंग की तैयारी में हर साल 1 लाख स्टूडैंट लगे होते हैं. प्रशासनिक और मैनेजमैंट परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र अलग से हैं. इस से यह साफ हो जाता है कि पटना के कोचिंग संस्थानों का नैटवर्क और आमदनी कितनी तगड़ी है.

पिछले साल फरवरी महीने में कोचिंग संस्थानों की मनमानी के खिलाफ छात्रों का उपजा गुस्सा कहीं से भी गलत नहीं था. यह गुस्सा अचानक पैदा नहीं हुआ था, बल्कि सालों से पनप रहा था. कोचिंग के छात्रों ने पटना के करीब 60 कोचिंग संस्थानों पर हमला कर तोड़फोड़ की और कई जगहों पर आग लगा दी. कोचिंग संस्थानों के पढ़ाने के ढर्रे के बारे में पड़ताल की गई तो उन की मनमानी और तानाशाहीपूर्ण रवैए की परतें खुलती चली गईं. कोर्स पूरा कराने के एवज में कोचिंग संस्थानों द्वारा इंजीनियरिंग और मैडिकल की तैयारी करने वाले हर छात्र से कोर्स के मुताबिक 60 हजार से डेढ़ लाख वसूले जाते हैं. जितना बड़ा ब्रैंड उतनी ही मोटी फीस होती है. प्रतियोगी परीक्षाओं में कामयाब होने का सपना लिए छात्र अपनी पढ़ाई में सुधार और निखार के लिए कोचिंग सैंटरों में दाखिला लेते हैं. दाखिले से पहले कोचिंग संस्थान छात्रों को खूब सब्जबाग दिखाते हैं पर दाखिले के बाद ज्यादातर कोचिंग सैंटरों के छात्र खुद को ठगा महसूस करते हैं.

अंकुश लगाना जरूरी

कोचिंग संस्थानों में साप्ताहिक, मासिक, तिमाही, छमाही और सालाना टैस्ट लिया जाता है. किसी टैस्ट में छात्रों के फेल होने के बाद उन पर अलग से ज्यादा ध्यान देने के बजाय उन्हें घर पर ही मेहनत करने की सलाह दी जाती है. मैडिकल की तैयारी कर रही छात्रा सोनाली के पिता गोविंद यादव कहते हैं कि अगर बच्चा घर पर ही मेहनत कर ले तो उसे कोचिंग में भेजने की क्या जरूरत? बच्चों को स्पैशल ट्रेनिंग दिलाने के लिए ही अभिभावक उसे कोचिंग में दाखिला दिलाते हैं. हजारोंलाखों रुपए डकार कर भी कोचिंग वाले यह कहें कि घर पर ही मेहनत करो, तो फिर कोचिंग का क्या मतलब है? सुपर-30 के संचालक आनंद कुमार कहते हैं कि यह सच है कि कुछ शिक्षा माफिया शिक्षकों के भेस में छात्रों को लूट ही नहीं रहे हैं उन के कैरियर के साथ खिलवाड़ भी कर रहे हैं. ऐसे लुटेरे संस्थानों पर नकेल कस कर ही छात्रों को इंसाफ दिलाया जा सकता है.

दरअसल, कोचिंग संस्थानों पर सरकार और कानून का कोई अंकुश ही नहीं है. अब जब हंगामा मचा है तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कोचिंग संस्थानों के लिए नई नीति बनाने का ऐलान किया है. बिहार के मानव संसाधन विकास महकमे के प्रधान सचिव अंजनी कुमार सिंह कहते हैं कि सरकार को कोचिंग संस्थानों के चलने से कोई परेशानी नहीं है, पर अनापशनाप पैसा ले कर बच्चों को ठगने वाले संस्थानों पर अंकुश लगाना जरूरी है. वैसे सरकार पहले ही कोचिंग पौलिसी बनाने का मन बना रही थी, पर अब हंगामे के बाद तुरंत ऐक्ट बनाना जरूरी हो गया है.

छात्रों का नाराज होना गलत नहीं

मिर्जा गालिब कालेज के वाइस प्रिंसिपल प्रोफैसर अरुण कुमार प्रसाद कहते हैं कि कोचिंग संस्थान बच्चों को सब्जबाग दिखा कर दाखिल तो कर लेते हैं पर उन्हें गाइड करने का दायित्व भूल जाते हैं. प्रतियोगी परीक्षाएं सिर पर आ जाती हैं, मगर पाठ्यक्रम आधा भी खत्म नहीं हो पाता है. ऐसे में बच्चों का गुस्सा होना जायज है. यह कहीं से भी सही नहीं है कि स्पैशल पढ़ाई के नाम पर मोटी फीस ले कर एक बैच में 500 से 1000 बच्चों की भीड़ को पढ़ाया जाए. कोचिंग की हालत तो सरकारी स्कूलों और कालेजों से भी बदतर हो गई है. जब बच्चे स्कूलों और कालेजों में ही ठीक से पढ़ लें तो वे प्राइवेट कोचिंग संस्थानों में क्यों दाखिला लें?

यहां कई धंधे भी पनपते हैं

पटना में कोचिंग के कारोबार के साथ कई धंधे चल रहे हैं. कोचिंग संस्थानों के आसपास गर्ल्स और बौयज होस्टल, मेस, किताबकौपियों की दुकानें, सैलून, टिफिन वालों का कारोबार फूलताफलता रहा है. पटना के महेंद्रू, मुसल्लहपुर हाट, खजांची रोड, मखनियां कुआं, नया टोला, भिखना पहाड़ी, कंकड़बाग, चित्रगुप्त नगर, डाक्टर्स कालोनी, राजेंद्र नगर, बोरिंग रोड, कदमकुआं, आर्य कुमार रोड, पीरमुहानी, पोस्टल पार्क आदि इलाकों की गलीगली में कोचिंग सैंटर और होस्टलों की भरमार है. शहर में करीब 3000 से ज्यादा छोटेबड़े होस्टल हैं और इन का कारोबार करोड़ों रुपए का है. होस्टलों में सीलन भरे दड़बानुमा छोटेछोटे कमरे होते हैं और उन में 2-3 चौकियां लगा दी जाती हैं. पढ़ाई के लिए बच्चों को कुरसीटेबल आदि नहीं दिए जाते. हवा आनेजाने के लिए ठीक से खिड़कियां तक नहीं होती हैं. बाथरूम और टौयलेट की भी नियमित साफसफाई नहीं की जाती है. संकरी सीढि़यां, दीवारों और छतों से उखड़ा प्लास्टर, रंगरोगन का नामोनिशान नहीं होता है. पानी की टंकियों की भी सफाई नहीं की जाती है. होस्टल के मेन गेट पर सिक्योरिटी के नाम पर खड़ा बूढ़ा और कमजोर गार्ड ही दिखाई देता है. ज्यादातर होस्टलों में तो कोई गार्ड भी नहीं होता है. राज्य सरकार की ओर से भी होस्टल के रजिस्ट्रेशन आदि का कोई नियम नहीं है.

असुरक्षित माहौल

गर्ल्स होस्टल्स का यह हाल है कि बाहर से देखने पर अजीब सा रहस्यमयी वातावरण नजर आता है. टूटेफूटे पुराने मकानों के कमरों में लड़की या प्लाईबोर्ड से पार्टिशन कर के छोटेछोटे कमरों का रूप दे दिया गया है. सीलन भरे कमरों में न ही ढंग से रोशनी का इंतजाम है, न पानी और साफसफाई का. खानेपीने की व्यवस्था काफी लचर है. खजांची रोड के एक गर्ल्स होस्टल में रहने वाली प्रिया बताती है कि 8 बाई 8 फुट के कमरे में 3 चौकियां लगी हुई हैं और खिड़की का कोई नामोनिशान नहीं है. खाने के लिए 2 हजार हर महीने लिए जाते हैं और घटिया चावल और उस के साथ दाल के नाम पर पानी दिया जाता है. सब्जी के रस में आलू या गोभी ढूंढ़ने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है. होस्टल की सुरक्षा के नाम पर चारों ओर की खिड़कियां बंद कर दी जाती हैं. चारदीवारी को ऊंचा कर दिया जाता है और लोहे का बड़ा सा गेट लगा दिया जाता है. मखनियां कुआं के होस्टल में रह कर मैडिकल की तैयारी करने वाली पूर्णियां की रश्मि सिन्हा बताती है कि हर सुबह और रात को लड़कियों की हाजिरी नहीं लगाई जाती है. लड़कियों, उन के अभिभावकों और होस्टल संचालकों के बीच पारदर्शिता न होने पर होस्टलों को हमेशा संदेह की नजरों से देखा जाता है. ज्यादातर गर्ल्स होस्टलों के संचालक मर्द होते हैं, जो लड़कियों से अकसर बेशर्मी से पेश आते हैं. पटना के सिटी एसपी चंदन कुशवाहा कहते हैं कि गर्ल्स होस्टलों की वार्डन महिला ही होनी चाहिए. लोकल थानों के नंबर होस्टलों में चिपकाने चाहिए. गर्ल्स होस्टलों की कई शिकायतें मिलने के बाद समयसमय पर महिला पुलिस द्वारा होस्टलों के मुआयने के निर्देश हर थाने को दिए गए हैं.

पटना के श्रीकृष्णापुरी महल्ले के मुसकान गर्ल्स होस्टल की इंचार्ज श्वेता वर्मा कहती हैं कि उन के होस्टल में ज्यादातर मैडिकल और इंजीनियरिंग की कोचिंग करने वाली लड़कियां ही रहती हैं. उन का दावा है कि उन के होस्टल में लड़कियों की हिफाजत, मैडिकल और साफसफाई का पूरा खयाल रखा जाता है. अगर किसी होस्टल के रखरखाव से लड़कियां और अभिभावक संतुष्ट नहीं होंगे तो उन का कारोबार चल ही नहीं सकता है. किसी भी तरह की बदनामी का धब्बा लगने के बाद होस्टल को चलाना मुमकिन नहीं है. होस्टल में रह कर मैडिकल की तैयारी करने वाली सुरभि जैन कहती है कि उन के होस्टल का इंतजाम पूरी तरह से चुस्तदुरुस्त है. शाम 8 बजे तक हर हाल में होस्टल में आना होता है वरना वार्डन अभिभावकों को खबर देती है.

ढाबा, चाय और लिट्टीचोखा

कोचिंग सैंटरों और होस्टलों के आसपास छोटेमोटे ढाबे, चायबिस्कुट की दुकानें, समोसेपकौड़ों की दुकानें, गोलगप्पों और चाट वालों के ठेले, फलों और जूस की दुकानें आदि खुल गई हैं. गंदगी और खुले में रखी खानेपीने की चीजें छात्रों की सेहत को

नुकसान पहुंचाती हैं. घरपरिवार से दूर रह कर कोचिंग संस्थानों में पढ़ाई कर बेहतर भविष्य बनाने के लिए जीतोड़ मेहनत करने वाले छात्रों को ढंग का खाना नहीं मिल पाता है. ज्यादातर स्टूडैंट्स गलियों और चौकचौराहों पर बने ढाबों में खाना खाने को मजबूर हैं, जिस से वे अकसर बीमार पड़ जाते हैं. पटना के कंकड़बाग महल्ले में रह कर आईआईटी की तैयारी कर रहा शेखपुरा जिले का मयंक वर्मा बताता है कि कोचिंग सैंटर से पढ़ कर लौटने पर खाना बनाने की हिम्मत नहीं होती है. वह 4 दोस्तों के साथ एक कमरा किराए पर ले कर पटना में रहता है. वह कहता है कि ढाबे में एक टाइम खाना खाने पर कम से कम 40 चुकाने पड़ते हैं. उस के बदले में एक प्लेट चावल, दाल, एक सब्जी और प्याज मिलता है. कभीकभार अंडाकरी खा लेता है, जिस के लिए 30 अलग से देने होते हैं. कोचिंग सैंटरों और होस्टलों के आसपास मेस और ढाबा चला कर उन के मालिक खुद तो मालामाल हो रहे हैं पर छात्रों को शारीरिक और मानसिक तौर पर कमजोर कर रहे हैं.

बंदूकधारियों से घिरे रहते हैं

कोचिंग के कारोबार में मोटी कमाई और बढ़ती आपसी प्रतिद्वंद्विता की वजह से ज्यादातर कोचिंग संचालकों ने अपने चारों ओर सुरक्षा का मजबूत घेरा बना रखा है. प्राइवेट सिक्योरिटी गार्ड्स से घिरे कोचिंग संचालकों को स्टूडैंट्स की सुरक्षा का कोई खयाल नहीं रहता है. पटना विश्वविद्यालय के एक प्रोफैसर कहते हैं कि कोचिंग सैंटर चलाने वालों को सब से ज्यादा खतरा स्टूडैंट्स से ही होता है. 95 फीसदी कोचिंग सैंटरों में समय पर पाठ्यक्रम पूरा नहीं कराया जाता है, जबकि छात्रों से मोटी फीस पहले ही वसूल ली जाती है. ऐसे में स्टूडैंट्स का भड़कना लाजिम है. 2 साल पहले पटना के भिखना पहाड़ी महल्ले में जब स्टूडैंट्स ने हंगामा मचाया तो एक कोचिंग संचालक के सुरक्षा गार्ड ने लड़कों की भीड़ पर गोली चला दी थी, जिस से 5-6 दिनों तक खूब हंगामा होता रहा और पढ़ाईलिखाई ठप रही. महल्ले वालों को अलग ही परेशानी का सामना करना पड़ा.

छात्र भी अभिभावकों को ठगते हैं

शिक्षाविद् प्रियव्रत कुमार कहते हैं कि जो बच्चे पढ़ाई में कमजोर होते हैं उन को भी उन के मातापिता जबरन मैडिकल या इंजीनियरिंग की कोचिंग में भेज देते हैं. वहीं कई बच्चे फुजूल में अपने दोस्तों की देखादेखी कोचिंग संस्थान में दाखिला ले लेते हैं. कोचिंग के बहाने लड़केलड़कियों को घर से बाहर निकलने का लाइसैंस मिल जाता है. नहीं पढ़ने वाले बच्चे अपने मातापिता को कोचिंग की डबल फीस बताते हैं. मिसाल के तौर पर अगर किसी कोचिंग की फीस 50 हजार है तो लड़का पिता को 70-80 हजार बताता है. इस तरह वह 50 हजार कोचिंग में जमा कर देता है और बाकी रुपयों से मौज करता है. किताबों और कौपियों के बहाने भी बच्चे रुपए ऐंठते रहते हैं. अत: अभिभावकों को भी अपने बच्चों की गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए और बीचबीच में कोचिंग सैंटर में जा कर उन की प्रोग्रैस की जानकारी लेते रहना चाहिए.

जान बचाने वाला धंधा, इसे आधुनिक विज्ञान की देन समझ कर अपनाएं

बीमारी का काला साया जब सिर पर पड़ता है तो अच्छेअच्छों के पसीने छूट जाते हैं. चिकित्सा विज्ञान ने बहुत उन्नति कर ली है और देश के हर शहर में भव्य सुपर स्पैशियलिटी हौस्पिटल्स दिखने लगे हैं पर उन में जा कर संतुष्ट हो कर निकलने वालों की लगातार कमी हो रही है. आमतौर पर इन हौस्पिटल्स के गलियारों में झल्लाए, बेबस रिश्तेदार दिखते हैं जो डाक्टरों, नर्सों और अर्दलियों से परेशान रहते हैं. ऊपर से जो खर्च होता है वह सरकारी बजट के बराबर कम सा लगने लगता है.

आधुनिक चिकित्सा महंगी तो है ही, इस से संतुष्ट होने वालों की गिनती भी लगातार कम हो रही है. लोग इलाज कराने के बाद ठीक हो कर लौट आते हैं पर डाक्टरों की लूट का बखान करते नजर आते हैं. डाक्टरों का मंत्र है चुप रहो, मरीजों को कोई बात पूरी तरह नहीं बताओ, उन के सवालों का अधूरा जवाब दो. यह डाक्टरों का डिफैंस मैकेनिज्म हो सकता है पर यह मरीजों के मानसिक स्वास्थ्य पर भारी पड़ता है.

मरीज चुप रहने वाले डाक्टरों को कुछ छिपाने वाला समझने लगते हैं जबकि डाक्टर जटिल रोगों की व्याख्या नहीं करना चाहते क्योंकि वे जानते हैं कि मरीज या उस के रिश्तेदारों के पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा. वे यह भी जानते हैं कि पूछे गए सवाल निरर्थक होते हैं. उन से जूझना समय की बरबादी ही है.

डाक्टरों का मरीज को उस के रोग के बारे में पूरी जानकारी देना मरीज की सेहत के लिए अच्छा है ताकि वह अपने को तैयार कर सके. उसे इंटैंसिव केयर यूनिट में बंद कर के और उस का रिकौर्ड नर्सों के पास छिपा कर रखने से वह छटपटाने लगता है. उसे लगता है कि या तो वह बचेगा नहीं या फिर उसे कुछ नहीं हुआ और हौस्पिटल उसे जबरन रख कर पैसा कमाना चाहता है. दोनों ही स्थितियों में डाक्टरों और मरीजों के बीच खाई बढ़ जाती है.

अमेरिका व यूरोप में गलती होने पर भारी मुआवजे के मामले आएदिन अदालतों में जा पहुंचते हैं. भारत में वकीलों का रवैया डाक्टरों से भी ज्यादा खराब है इसलिए ऐसे मामले कम होते हैं पर फिर भी डाक्टर कम बताते हैं ताकि उन पर दोष न लगे.

चिकित्सा का बढ़ता खर्च चिंता की बात है पर रोगों से निदान मिल रहा है, यह बात भी तो माननी पड़ेगी. अस्पतालों में मौतें होती हैं पर ठीक हो कर निकलने वालों की भी कमी नहीं है. डाक्टरों को कोसना एक तरह से अपनी खीज गलत इंसान पर उतारना है. यह क्षेत्र सेवा नहीं, धंधा है पर फिर भी जान बचाने वाला है. इसे आधुनिक विज्ञान की देन समझ कर अपनाएं.

शारीरिक व्यायाम से डायबिटीज का खतरा कम

औफिस के बिजी शैड्यूल व डैस्कवर्क ज्यादा करने के कारण अधिकांश युवा कम उम्र में ही डायबिटीज व मोटापे की गिरफ्त में आने लगते हैं साथ ही उन्हें थकान भी ज्यादा महसूस होने लगती है.

ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार युवाओं का अधिकांश समय औफिस में बीतता है और अगर बैठने का ही ज्यादा काम है, फिर तो 8 घंटे की जौब में 6-7 घंटे सिर्फ बैठेबैठे ही बीत जाते हैं. इस दौरान कोई शारीरिक व्यायाम नहीं होता, क्योंकि ब्रेक टाइम में युवा सिर्फ मौजमस्ती करना ज्यादा पसंद करते हैं और इस बीच जो मिला वही खा लिया, इस से जहां मोटापा बढ़ता है वहीं देर तक बैठे रहने वाले युवा जल्दी ही डायबिटीज की गिरफ्त में आ जाते हैं.

शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन किया, जिस में उन्होंने कई लोगों को शामिल किया, कुछ लोगों को ज्यादा शारीरिक व्यायाम करने की सलाह दी गई जबकि कुछ को बैठने का काम दिया गया. जिन्होंने ज्यादा शारीरिक व्यायाम किया उन का वजन कुछ हफ्ते में ही कम हो गया जबकि अन्य लोगों का न सिर्फ वजन बढ़ा बल्कि वे चुस्त भी नहीं दिखाई दिए.

इसलिए अधिकांश बैठ कर समय गुजारने वाले युवाओं को यही सलाह दी गई कि उन्हें बीचबीच में उठ कर घूमते रहना चाहिए, ताकि वे बीमारियों की गिरफ्त में न आएं.

टाइल्स फ्लोरिंग : खूबसूरत भी और किफायती भी

कमरे के फर्श का कमरे के इंटीरियर को खूबसूरत बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है. इसीलिए अब लोग कमरे की सीलिंग, दीवारों और अन्य साजसज्जा के सामान के साथसाथ फर्श की सजावट पर भी ध्यान दे रहे हैं. यह ध्यान सिर्फ फर्श की सुंदरता बढ़ाने पर ही नहीं, बल्कि उस की साफसफाई और खुद की सेहत के मद्देनजर भी है.

दरअसल, फर्श कमरे का वह हिस्सा होता है, जो बहुत जल्दी गंदा होता है और यदि उसे समयसमय पर साफ न किया जाए तो कमरे की खूबसूरती में धब्बे के समान हो जाता है. लेकिन बेहद व्यस्त जीवनशैली में खूबसूरती और सफाई दोनों में तालमेल बैठाना मुश्किल होता है. ऐसे में सही फर्श का चुनाव बहुत फायदेमंद रहता है.

बाजार में वुडन, लैमिनेटेड, कारपेट टाइल्स सहित कई विकल्प फर्श की रौनक बढ़ाने के लिए उपलब्ध हैं. इन में टाइल्स एक ऐसा विकल्प है जिस के साथ सफाई, सौंदर्य और सेहत तीनों का सही तालमेल बैठाया जा सकता है.

आइए, जानते हैं टाइल्स फ्लोरिंग के क्या फायदे हैं:

– सीमेंट या मार्बल वाला फर्श जल्दी खराब हो जाता है. इसी तरह जहां सीमेंट फ्लोरिंग में दरारें पड़ सकती हैं, वहीं मार्बल फ्लोर में दागधब्बे जल्दी पड़ते हैं, जबकि टाइल्स फर्श को सख्त आधार देती हैं.

बाजार में टाइल्स के 2 विकल्प हैं- पहला सिरैमिक और दूसरा पोर्सिलेन. यदि इन्हें फर्श पर सही तरीके से लगाया जाए और सही देखभाल की जाए तो ये फर्श की खूबसूरती को लंबे समय तक कायम रखती हैं.

– अन्य फ्लोरिंग विकल्पों की अपेक्षा टाइल्स फ्लोरिंग सेहत के नजरिए से भी फायदेमंद है. यदि टाइल्स को अच्छी तरह साफ किया जाए तो इन में रोगाणुओं आदि के पनपने की संभावना भी खत्म हो जाती है. टाइल्स फ्लोर कमरे के अंदर की वायु की गुणवत्ता को भी बनाए रखता है. इस के अलावा चूंकि टाइल्स को भट्टों में उच्च तापमान पर पकाया जाता है, इसलिए इन में वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों (वोलाटिल और्गेनिक कंपाउंड) के होने की संभावना भी खत्म हो जाती है. इस से कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के होने का खतरा भी खत्म हो जाता है.

– टाइल्स की तीसरी सब से बड़ी खासीयत यह है कि इन पर दागधब्बे नहीं लगते. इन्हें साफ करने के लिए नौनएब्रैसिव औैर नौनऐसिडिक प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल होता है. टाइल्स को साफ करने का सब से आसान तरीका है कि टाइल्स को साबुन के पानी से धोया जाए.

– फर्श पर टाइल्स लगवाने का खर्चा भी अन्य डिजाइनर फ्लोर के खर्चे से काफी कम आता है. साथ ही टाइल्स के टूटने और खराब होने का डर भी नहीं होता है. इसलिए जब तक चाहें तब तक इन्हें फर्श पर लगाए रखा जा सकता है.

– टाइल्स वैसे तो बहुत मजबूत होती हैं और आसानी से इन में दरार नहीं आती, फिर भी अगर दरार आ जाए तो टूटी टाइल को आसानी से रिप्लेस किया जा सकता है

वर्जिनिटी टेस्ट : पास या फेल पर टिका रिश्ता

स्थान – महाराष्ट्र का जिला नासिक, पति ने शादी के सिर्फ 48 घंटे बाद इसलिए अपनी शादी तोड़ दी, क्योंकि पत्नी वर्जिनिटी टेस्ट में फेल हो गयी यानी प्यार और विश्वास पर टिका होने वाला पति पत्नी का रिश्ता वर्जिनिटी टेस्ट में पास न होने पर फेल हो गया. हुआ यह था कि नवविवाहित लड़की के पति ने पंचायत को बताया था कि, जिस लड़की से उसकी शादी हुई है वो ‘वर्जिनिटी टेस्ट’ में फेल हो गई और इसके बाद गांव की पंचायत ने शादी खत्म करने का फैसला सुना दिया. पंचायत द्वारा दूल्हे को सुहागरात के दिन एक सफेद चादर दी गई और उससे कहा गया कि वह अगले दिन इसे वापस करे. सुहागरात के बाद दूल्हे ने पंचायत को चादर दिखाई जिसमें कोई खून के धब्बे नहीं थे और इसके बाद पंचायत ने दूल्हे को रिश्ता खत्म करने का आदेश दे दिया, जबकि वास्तविकता यह है कि लड़की पुलिस में  भर्ती की तैयारी कर रही  है और इस कारण फिजिकल टेस्ट के लिए ट्रेनिंग करती है. इसमें दौड़, लॉन्ग जम्प, साइकलिंग जैसी एक्सरसाइज शामिल है.

वर्जिनिटी  से ही जुडा एक अन्य मामला  बेंगलुरू  में भी सामने आया था जिसमे शादी से करीब दो माह पहले लड़के ने लड़की से मांग की कि अगर वह वर्जिनिटी टेस्ट कराने को तैयार होती है तभी वह उससे शादी करेगा. लडकी को यह बात बुरी भी लगी लेकिन वह लड़के से विवाह करने का मौका भी नहीं खोना चाहती थी इसलिए वह टेस्ट के  लिए तैयार हो गई. लडकी टेस्ट में पास हो गई और दोनों की धूमधाम से शादी हो गई. लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होती. विवाह के बाद भी लड़के ने लडकी पर शक करना जारी रखा और वह उसे प्रताड़ित करने लगा. लड़के  को अभी भी शक था कि लडकी  का चरित्र ठीक नहीं है, जबकि वह वर्जिनिटी टेस्ट में भी पास हो चुकी थी. आये रोज की  प्रताडऩा से तंग आकर  लडकी ने शादी के चार माह बाद पति के खिलाफ मामला दर्ज कराया. पुलिस ने लड़के के खिलाफ उत्पीडऩ करने और दहेज के परेशान करने का मामला दर्ज कर लिया है.

हैरानी की बात है कि एक तरफ  जहाँ  एक तरफ हम मंगल और चाँद पर पहुँच गए है वहीँ आज भी वर्जिनिटी को मूल्यों और संस्कारों से जोड़कर देखा जाता है. विवाह की बात आते ही मामला लड़की की वर्जिनिटी पर आ कर अटक जाता है. बेंगलुरु और नासिक का मामला भी यही है. विवाह से पहले लोग अक्सर  यह पूछते  नज़र आते हैं कि अपनी गर्लफ्रेंड या पत्नी की वर्जिनिटी के बारे में कैसे पता लगाया जाये. इसका बस यही एक जवाब है कि ऐसा कोई तरीका नहीं है.

दरअसल लोगों के बीच यह धारणा आम है कि जब भी कोई युवती पहली बार शारीरिक सम्बन्ध बनाती है तो उसे ब्लीडिंग होती है. लेकिन यह धारणा सही नहीं है. क्योंकि जहाँ कई महिलाओं में हाइमन नहीं होता, वहीँ कुछ महिलाओं में यह  इतना लचीला होता है कि कुछ केस में तो यह बचपन में खेलते कूदते समय ही फट जाता है, इसलिए अगर पहली बार संबंध बनाने पर भी लड़कियों को ब्लीडिंग नहीं होती तो इसका मतलब ये नहीं कि वो वर्जिन नहीं है. वैसे भी हाइमनोप्लास्टी द्वारा आर्टिफीशियल हाईमन की तरह के टिशुज भी बनाये जा सकते हैं.

कोई महिला वर्जिन है या नहीं, यह केवल उसकी प्रेग्नेंसी हिस्ट्री से पता चल सकता है. या फिर तब जब वह खुद इस के बारे में बताये. वैसे भी फैक्ट्स के अनुसार केवल ४२ प्रतिशत महिलाओं को पहले इंटरकोर्स के दौरान ब्लीडिंग होती है इसलिए पहली बार ब्लीड होने का अर्थ वर्जिन होना कदापि नहीं है. ऑनलाइन सेक्स टॉय रिटेलर लव हनी डॉट को डॉट यूके द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार जहाँ महिलाएं 17 साल की उम्र में अपनी वर्जिनिटी खो देती हैं और 28 की उम्र में यौन संबंधों को सबसे ज्यादा एंजाय करती हैं वहीँ  पुरूष 33 वर्ष की उम्र में यौन संबंधों को सबसे ज्यादा एंजाय करते हैं. सर्वे में शामिल 40 फीसदी लोगों ने माना कि वे सेक्स के लिए 28 की उम्र को सबसे बेहतर मानते हैं. सर्वे में यह बात भी सामने आई कि पुरूष 18 की उम्र में अपनी सेक्सुअल पीक पर पहुंचते हैं, जबकि महिलाएं 30 की उम्र में.

आपको जानकार हैरानी होगी कि स्कूल कॉलेज में एडमिशन  व नौकरी के लिए टेस्ट के अलावा एक देश ऐसा भी है जहां स्कॉलरशिप के लिए छात्राओं को वर्जिनिटी टेस्ट से गुजरना होता है. साउथ अफ्रीका के उथूकेला में स्कूल-कॉलेज जाने वाली वर्जिन छात्राओं को जिले की महिला मेयर डूडू मोजिबूको स्कॉलरशिप देती है. इस स्कॉलरशिप को पाने के लिए छात्राओं को वर्जिनिटी टेस्ट देना होता  है.

कितना दोगला है हमारा पुरुष समाज जिनके लिए विवाह पूर्व रिलेशनशिप में  वर्जिनिटी कोई माने नहीं रखती, लेकिन रिलेशनशिप के बाद जब बात विवाह की आती है तो वर्जिनिटी उनके लिए बहुत बड़ा सवाल बन जाता है. वैसे भी विवाह के बाद एक महिला को ही क्यों अपनी वर्जिनिटी साबित करनी  पड़ती है? एक पुरुष से यह  क्यों नहीं पूछा जाता कि वह वर्जिन है कि नहीं या उसने विवाह पूर्व किसी महिला के साथ शारीरिक संबंध तो नहीं बंनाये?

हिचकी : रानी का दमदार अभिनय भी सफलता नहीं दिला सकता

टारेंट सिंड्रोम से पीड़ित रहे अमरीकन मोटीवेशनल प्रवक्ता और शिक्षक ब्रैड कोहेन तमाम मुसीबतों का सामना करते हुए सफल शिक्षक बने थे. फिर उन्होंने अपनी कहानी पर एक किताब भी लिखी, जिस पर अमरीका में 2008 में एक फिल्म ‘‘फ्रंट आफ द क्लास’ बनी थी, उसी के अधिकार लेकर ‘यशराज फिल्मस’ ने फिल्म ‘हिचकी’ का निर्माण किया है. मगर यह फिल्म रानी मुखर्जी के अभिनय को नजरंदाज करने पर शून्य हो जाती है. अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि रानी मुखर्जी महज अपने अभिनय के बल पर इस फिल्म को बौक्स औफिस पर कितनी सफलता दिला पाएंगी?

फिल्म ‘‘हिचकी’’ की कहानी टारेंट सिंड्रोम की बीमारी से पीड़ित शिक्षक नैना माथुर(रानी मुखर्जी) के इर्दगिर्द घूमती है. इस बीमारी की वजह से उन्हें बार बार हिचकी आती है. इसके चलते बचपन में उन्हें 12 स्कूल बदलने पड़े और अब जब वह शिक्षक के तौर पर विद्यार्थियों को पढ़ाना चाहती हैं, तो उसे 18 स्कूलों ने नौकरी देने से इंकार कर दिया. जबकि नैना माथुर के पास कई डिग्रियां हैं. पर वह हार नहीं मानती. जबकि नैना माथुर सभी को टारेंट सिंड्रोम के बारे में विस्तार से बताती भी है. अंततः पांच साल के संघर्ष के बाद नैना माथुर को एक कैथोलिक स्कूल में नौकरी मिल जाती है. इस स्कूल के संस्थापक को भी बोलने की समस्या थी. इस स्कूल में शिक्षा के अधिकार के तहत भर्ती गरीब बच्चों की कक्षा नौ एफ को भौतिक शास्त्र पढ़ाने का अवसर नैना माथुर को मिलता है. नैना माथुर इन बच्चों को आम प्रचलित पद्धति की बजाय अनोखे तरीके से पढ़ाती हैं. इस कक्षा के बच्चे झोपड़पट्टी के हैं, तो स्वाभाविक तौर पर वह अपनी शिक्षक को परेशान भी करते हैं और नैना माथुर,आतिष(हर्ष मयार) सहित 14  विद्रोही व शरारती बच्चों से निपटती भी हैं.

bollywood

नकल के लिए अक्ल की जरुरत होती है. पर फिल्म ‘हिचकी’ के लेखक व निर्देशक के पास शायद यह अक्ल भी नहीं रही. यह फिल्म 2008 में बनी अमरीकन फिल्म ‘‘फ्रंट आफ द क्लास’’ की अति घटिया नकल है. वास्तव में फिल्म के निर्देशक सिद्धार्थ पी मल्होत्रा ने फिल्म को बेवजह अति नाटकीय/मेलोड्रमैटिक बनाने के चक्कर में फिल्म की ऐसी की तैसी कर दी, जिसे रानी मुखर्जी का उत्कृष्ट अभिनय भी नहीं बचा पाया. मजेदार बत यह है कि इसी विषय पर दक्षिण भारत में एक हौरर फिल्म बनी थी, जिसे हिंदी में ‘मोहन वदनी’ के नाम से डब किया गया. इस फिल्म की हीरोईन भी यही बीमारी है, जिसकी मौत कक्षा के अंदर होती है और उसकी आत्मा स्कूल में भटकती रहती है. यह फिल्म भी टारेंट सिंड्रोम पर जागरूकता लाने में असफल है.

लेखकीय यानी कि कथा कथन और निर्देशकीय कमजोरी के चलते फिल्म ‘‘हिचकी’’ अपने पूरे मकसद से भटक गयी. इसे अपने दमदार अभिनय की बदौलत रानी मुखर्जी भी नहीं बचा पाएंगी? फिल्मकार ने शिक्षक व विद्यार्थी के बीच ऐसा आदर्शवाद परोसा है, जो कि पूरी तरह से बनावटी लगता है, परिणामतः दर्शकों का फिल्म के मूल मकसद से ध्यान हट जाता है. यानी कि फिल्म‘‘हिचकी’’ टारेंट सिंड्रोम जैसी बीमारी को लेकर जागरूकता नही पैदा कर पाती. यहां तक कि छात्र व शिक्षक के बीच का रिश्ता भी जबरन थोपा हुआ नजर आता है. इंटरवल से पहले दर्शक नैना माथुर के साथ जुड़े रहते हैं, मगर इंटरवल के बाद आने वाले उतार चढ़ाव, फिल्म में आने वाले मोड़ का आकलन दर्शक पहले ही लगा लेता है, जिसके चलते इंटरवल के बाद फिल्म दर्शकों को बोर करती है. इतना ही नहीं खलनायक के रूप में नीरव कावी जो कुछ करते हुए नजर आते हैं, वह भी अनावश्यक लगता है. फिल्म का क्लायमेक्स भी अति बनावटी है. लेखक व निर्देशक दोनों ही रूप में सिद्धार्थ पी मल्होत्रा असफल रहे हैं.

फिल्म का गीत संगीत फिल्म के कथानक के साथ तारतम्य नही बैठाता. फिल्म के कैमरामैन बधाई के पात्र हैं.

रानी मुखर्जी ने नैना माथुर के किरदार को पूरे सम्मानजनक तरीके से परदे पर अपने अभिनय से पेश करते हुए टारेंट सिंड्रोम को जिया है. दर्शक नैना माथुर के पढ़ाने की अपरंपरागत शैली के सम्मोहन में जरुर बंधता है. दर्शक सिर्फ रानी मुखर्जी के अभिनय के लिए ही इस फिल्म को देखने जा सकता है.

एक घंटे 58 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘हिचकी’’ का निर्माण ‘यशराज फिल्मस’ ने किया है. फिल्म के लेखक सिद्धार्थ पी मल्होत्रा व अंकुर चैधरी, पटकथा लेखक अंकुर चैधरी, अंबर हड़प व गणेश पंडित, संगीतकार हितेष सोनिक, कैमरामैन अविनाश वरूण व कलाकार हैं – रानी मुखर्जी, हर्ष मयार, नीरज कावी, सुप्रिया पिलगांवकर, सचिन पिलगांवकर, कुणाल शिंदे, शिवकुमार सुब्रमणियम, सुप्रिया बोस, जन्नत जुबेर रहमानी व अन्य.

हुंडई ने लौन्च की पहली इलेक्ट्रिक कार, स्पीड है शानदार

प्रदूषण के बढ़ते स्तर के बीच सरकार लगातार इलेक्ट्रिक वाहनों पर ध्यान केंद्रित कर रही है. इसी बीच खबर है कि शीर्ष कार निर्माता कंपनी हुंडई (Hyundai) अपनी पहली इलेक्ट्रिक कार को भारत में लाने के लिए पूरी तरह से तैयार है. कंपनी की नई कार का नाम कोना (KONA) है. एक खबर के अनुसार हुंडई कोना इलेक्ट्रिक एसयूवी को जेनेवा मोटर शो में प्रदर्शित किया गया. इसके कौन्सेप्ट वर्जन को ग्रेटर नोएडा में फरवरी में आयोजित हुए औटो एक्सपो 2018 में भी प्रदर्शित किया गया था.

अगले साल भारत में आने की उम्मीद

अब खबर है कि इंडियन मार्केट में इसे अगले साल तक लौन्च किया जा सकता है. अगर ऐसा होता है तो यह भारत में हुंडई की पहली इलेक्ट्रिक कार होगी. ऐसी उम्मीद है कि हुंडई कोना इलेक्ट्रिक ग्लोबल मार्केट में दो वेरिएंट में आएगी. भारत में इसका एंट्री लेवल सेग्मेंट आएगा. फुल चार्ज करने पर यह 300 किमी की दूरी तय करेगी. कोना में 133 एचपी की मोटर है, जो 395 न्यूटन मीटर की टौर्क जेनरेट करती है.

business

6 घंटे में होगी फुल चार्ज

कार में 39.3 किलोवाट की लिथियम आयन बैटरी होगी. यह बैटरी 6 घंटे में पूरी तरह चार्ज हो जाएगी. वहीं क्विक चार्जर से इसे 1 घंटे में 80 फीसदी तक चार्ज किया जा सकेगा. कंपनी का दावा है कि कार 0 से 100 किलोमीटर प्रति घंटा की स्पीड 9.3 सेंकेंड में पकड़ लेगी. कार की टौप स्पीड 167 किलोमीटर प्रति घंटा की होगी. कोना के दूसरे वर्जन में 201 एचपी की मोटर होगी. यह भी 395 न्यूटन मीटर का टौर्क जेनरेट करेगी.

दूसरे वेरिएंट में 64 किलोवाट की बैटरी

अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर इस कार में क्या अलग होगा, तो हम आपको बता देते हैं कि हुंडई की इस कार में 64 किलोवाट की बैटरी होगी. इस कार के फुल चार्ज होने पर एक बार में 470 किमी तक का सफर तय किया जा सकेगा. हालांकि भारत में इस कार के आने की उम्मीद नहीं है. इस कार की कीमत में एंट्री सेग्मेंट कार से ज्यादा होगी. कार में 17 इंच के एलौय व्हील का प्रयोग किया गया है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें