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सरकार बनी पंडापुजारी, करवा रही है शादियां

अब तक पंडेपुजारी शादी की तारीख निकालने से ले कर शादी कराने तक का काम करते थे पर अब उत्तर प्रदेश सरकार यह काम कर रही है. शादी की तारीख सरकार के हिसाब से निकलेगी. अगर आप ने अपने पंडित द्वारा निकाले गए मुहूर्त के मुताबिक शादी कर ली तो ‘मुख्यमंत्री सामूहिक विवाह योजना’ का लाभ आप को नहीं मिलेगा. आप की अर्जी रद्द कर दी जाएगी. उत्तर प्रदेश सरकार ने हर जिले में तकरीबन 10 हजार शादियां कराने का टारगेट रखा है. पूरे प्रदेश में 75 हजार शादियों के हिसाब से बजट बनाया गया है. ये शादियां नगरनिगम और ब्लौक लैवल पर होंगी.

सामूहिक शादी में सब से पहले आप को समाज कल्याण अधिकारी कार्यालय में जा कर अपने आधारकार्ड और आय प्रमाणपत्र के जरीए अर्जी देनी होगी. अर्जी के बाद अनुदान की प्रक्रिया शुरू होगी. लखनऊ नगरनिगम के पास 28 जोड़ों ने सामूहिक विवाह के लिए अर्जी दी थी. पहले जनवरी महीने में सामूहिक विवाह की तारीख तय हुई. शादी में भी सरकारी लेटलतीफी चलने लगी. सरकार ने बाद में 9 मार्च को सामूहिक विवाह की तरीख तय की. शादी के लिए अर्जी देने वाले 11 जोड़ों ने 9 मार्च का इंतजार नहीं किया. उन सब ने पहले ही शादी कर ली. इन लोगों ने शादी के सरकारी मुहूर्त का इंतजार नहीं किया.

नगर निगम ने ऐसे जोड़ों का नाम ‘मुख्यमंत्री सामूहिक विवाह योजना’ से बाहर कर दिया. ऐसे में ये लोग सरकारी विवाह योजना का लाभ नहीं ले पाए.

सरकारी मुहूर्त

‘मुख्यमंत्री सामूहिक विवाह योजना’ में लाभ लेने के लिए शादी करने वाले को अपने पंडित के बताए मुहूर्त पर नहीं सरकारी मुहूर्त के हिसाब से शादी करनी होगी. इस योजना में उन लोगों को ही शामिल किया जा सकेगा, जिस के शहरी परिवार की सालाना आमदनी 54,460 रुपए और गांवदेहात के परिवारों की आमदनी 46,080 रुपए सालाना होगी. आवेदक का खाता नैशनल लैवल के बैंक में होना चाहिए. ‘सामूहिक विवाह योजना’ में रिश्ता घर वालों को खुद तय करना होता है. उस के बाद शादी के लिए अर्जी देनी होगी. सरकार एक तय तारीख पर शादी की योजना तैयार करती है.

‘सामूहिक विवाह योजना’ में सरकार 35 हजार रुपए खर्च करेगी. इस में से 20 हजार रुपए लड़की के खाते में जाते हैं. 10 हजार रुपए का घरेलू सामान और 5 हजार रुपए का टैंट व भोजन में हुए खर्च के लिए दिया जाता है. इस का भुगतान शादी कराने वाली संस्था को किया जाता है. एक बार में जब 10 जोड़ों की एकसाथ शादी होगी, तब उस को ही ‘सामूहिक विवाह योजना’ ही माना जाएगा. उत्तर प्रदेश समाज कल्याण विभाग के डायरैक्टर जगदीश प्रसाद ने कहा, ‘‘हर जिले में 10,000 शादियां कराने का टारगेट रखा गया है. इस की तादाद ज्यादा होने पर भी सरकार मदद करेगी. इस सामूहिक विवाह योजना का मकसद माली तौर से कमजोर परिवारों की लड़कियों की शादी कराना है.’’

इस योजना में सभी धर्मों के लोगों को शामिल किया गया है. लखनऊ में 9 मार्च को ‘सामूहिक विवाह योजना’ के तहत 8 मुसलिम जोड़ों ने भी अपने जीवनसाथी को चुना था.

पूरे उत्तर प्रदेश में चली ‘सामूहिक विवाह योजना’ में भ्रष्टाचार की शिकायतें भी आईं. शादी में दिए जाने वाले गहनों और बरतनों में क्वालिटी का खयाल नहीं रखा गया. ऐसे में घटिया किस्म के बरतन और जेवर दिए गए.

विधवा विवाह में…

विवाह की इस योजना में जहां 35 हजार रुपए खर्च करने हैं, वहीं विधवा और तलाकशुदा मामले में यह खर्च 25 हजार खर्च का ही बजट रखा गया है. विवाह संस्कार के लिए पहली बार वाली शादी में 10,000 रुपए का जरूरी सामान, जिस में कपड़े, बिछिया, चांदी की पायल और 7 बरतन दिए जाते हैं. विधवा और तलाकशुदा में यह सामान 5 हजार का रखा गया है.

इस योजना में शामिल हुए लोगों के लिए जरूरी है कि वे गरीब हों. कन्या के मातापिता उत्तर प्रदेश के मूल निवासी हों. अभिभावक निराश्रित, निर्धन और जरूरतमंद हों. विवाह का पंजीकरण और विवाह प्रमाणपत्र जारी करने का काम सहायक महानिबंधक स्टांप को करना है. सरकार की योजना में सब से बड़ी खामी यह है कि जहां तलाकशुदा और विधवा विवाह को बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है वहीं दूसरी ओर इन को कम मदद दी जा रही है.

शादी में मुहूर्त की अपनी अलग अहमियत होती है. ‘सामूहिक विवाह योजना’ में सरकार एक दिन शादी के लिए तय करती है. ऐसे में कम लोग ही सरकारी मुहूर्त पर शादी करने को तैयार होते हैं. सरकारी सहायता लेने के लिए लोग अपने मुहूर्त के हिसाब से पहले शादी कर लेते हैं. इस के बाद सरकारी सामूहिक शादी योजना में शादी करने चले जाते हैं.

बिचौलियों की चांदी

सरकार का काम शादी कराना नहीं होना चाहिए. शादी योजना के जरीए सरकार पंडों वाला काम कर रही है. सरकार अब अपना दखल परिवारों के अंदर तक बढ़ाना चाहती है जिस से शादी, बच्चे, जन्म, मृत्यु सब पर सरकार का दखल रहे. परोक्ष रूप से पैसा पंडों को मिलता रहे.

इस योजना के जरीए शादी में बिचौलियों का रोल बढ़ रहा है जिस से सरकारी अमले और बिचौलियों की आमदनी शुरू हो रही है.

‘सामूहिक विवाह योजना’ में नाम शामिल कराने के लिए आय प्रमाणपत्र बनवाने से ही सरकारी अमले का शोषण शुरू हो जाता है. आय प्रमाणपत्र बनवाने के लिए तहसील जाना पड़ता है. वहां लेखपाल की रिपोर्ट के बाद आय प्रमाणपत्र मिलता है. इस के लिए पैसा देना पड़ता है. हर जिले में एक सीमित तादाद में शादी के लिए जोड़ों का चयन किया जाता है. ऐसे में अर्जी देने के बाद अपना नाम लिस्ट में शामिल कराना मुश्किल काम होता है. सरकारी अमले के दखल में एक भी काम बिना किसी चढ़ावे के नहीं होता है.

‘सामूहिक विवाह योजना’ में धार्मिक रीतिरिवाजों के मुताबिक शादी होती है. ऐसे में बिना दहेज के होने वाली कोर्ट मैरिज को दरकिनार किया जा रहा है. बेहतर होता कि बिना दहेज और आडंबर के शादी करने वालों को मदद दी जाती. वैसे, उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ‘मुख्यमंत्री सामूहिक विवाह योजना’ के जरीए पंडावाद को बढ़ावा दे रही है.

कानून जब गले का फंदा बन जाए

आयरलैंड ने जनमत संग्रह करा कर कैथोलिक कट्टर धार्मिक कानून, जिस के अनुसार गर्भपात कराना पाप है, बदल डाला है. दरअसल, 6 साल पहले सविता हलप्पनवार को अस्पताल में गर्भ के दौरान दाखिल होना पड़ा था और डाक्टरों की राय थी कि केवल गर्भपात के सहारे ही सविता की जान बचाई जा सकती है, पर कानून के कारण उन के हाथ बंधे थे. अदालत ने भी हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और कर्नाटक निवासी सविता की धर्म की गला घोट नीति के कारण मौत हो गई. गनीमत है कि उस के बाद वहां मुहिम शुरू हो गई कि कानून बदला जाए और अब जनमत करा कर जनता की राय ली गई. कैथोलिक कट्टरवादियों के विरोध के बावजूद आयरलैंड की जनता ने सविता को सच्ची श्रद्धांजलि दी.

सरकार, समाज और धर्म लोगों के निजी फैसलों में आज भी निरर्थक दखलंदाजी ज्यादा कर रहे हैं. गर्भपात वैसा ही निजी फैसला है जैसा सैक्स करना. विवाह के बाद या बिना विवाह सैक्स संबंध भी पहले धर्म की वजह से कानूनी दायरे में आते थे पर धीरेधीरे स्वतंत्रता के रक्षकों ने उन्हें व्यक्ति की अपनी इच्छा मान लिया है. कोई रात के 4 बजे सोता है या 8 बजे इस पर किसी का नियंत्रण नहीं हो सकता. उस की जो जिम्मेदारियां दूसरों के प्रति हैं, वे अगर पूरी हो रही हैं तो इस पर न किसी को आपत्ति होती है न होनी चाहिए. कुछ आश्रमों व होस्टलों

में इस पर भी आपत्ति होती है, क्योंकि वे अनुशासन के नाम पर असल में व्यक्ति को विवेकशून्य बनाने की कोशिश करते हैं. नाइट आउट का सिद्धांत इसी पर है. यह कहना कि सोने का समय नियत करना जरूरी है ताकि आप स्वस्थ रहें गलत है, क्योंकि यह निर्णय व्यक्ति का अपना है. गर्भपात का निर्णय भी इसी तरह गर्भवती व डाक्टर के बीच का है. इस में कितने सप्ताह बीत गए हैं जैसा कानून भी गलत है जो भारत में आज भी चल रहा है और विशेष अनुमति लेने के लिए सीधे सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं. इन के पीछे मूल भावना वही है जो आयरलैंड के चर्च ने सरकार के सहारे जनता पर थोप रखी थी कि व्यक्ति नहीं जानता कि उस के हित में क्या है.

यह गुलाम मनोवृत्ति बनाए रखना सरकारों के लिए लाभदायक होता है और वे तरहतरह के नियंत्रण थोपना चाहती हैं. आयरलैंड की जनता ने जनमत संग्रह से एक बात से छुटकारा पाया है पर न जाने अमीर, शिक्षित, समृद्ध देश में और कितने नियंत्रण हैं, जिन्हें लोग आंख मूंद कर मानते चले जा रहे हैं. शायद यह शुरुआत हो कि आम व्यक्ति को अपनी सरकार से आजादी मिलना उतना ही जरूरी है जितना कि दूसरे, विदेशियों की सरकारों से.

अंधविश्वास करे शर्मसार : बाबाओं के फेर में फंसे लोगों की सच्ची कहानियां

शनिवार का दिन था. दोपहर के तकरीबन 2 बजे थे. उत्तर प्रदेश में जौनपुर जिले के शाहगंज कसबे की रहने वाली शीला खरीदारी करने बाजार जा रही थीं. वे अभी घर से कुछ ही दूर गई थीं कि तभी रास्ते में उन्हें 14-15 साल का एक लड़का मिला जिस ने उन्हें ‘माताजी’ कहते हुए पूछा, ‘‘आप लंगड़ा कर क्यों चल रही हैं? क्या आप घुटनों के दर्द से परेशान हैं?’’

उस लड़के के मुंह से इतना सुनना था कि शीला ने अपनी पीड़ा जाहिर करते हुए कहा, ‘‘हां बेटा, मैं काफी समय से घुटनों के दर्द से परेशान हूं. मेरे पति को भी इसी मर्ज ने जकड़ रखा है. वे तो खाट पर पड़े हुए हैं. उन को कहांकहां नहीं दिखाया लेकिन तमाम इलाज कराने के बाद भी मर्ज बढ़ता ही जा रहा है. समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे ठीक होगा…’’

शीला की बात अभी पूरी भी नहीं हो पाई थी कि वह लड़का बोल पड़ा, ‘‘माताजी, मेरे मातापिता भी इसी तरह परेशान हुआ करते थे जिन्हें एक बाबाजी ने चंद दिनों में ही भलाचंगा कर दिया…’’

उस लड़के की बात अभी खत्म भी नहीं हो पाई थी कि एक आदमी उन्हीं की ओर आता दिखाई दिया. उस की ओर इशारा करते हुए वह लड़का बोला, ‘‘लीजिए, बाबाजी भी आ गए. मैं आप से इन्हीं की बातें कर रहा था.’’

तब तक वह आदमी भी उन के करीब आ चुका था. उस लड़के ने हाथ जोड़ कर उसे प्रणाम किया और देखते ही देखते वहां से गायब हो गया.

ऐसे फंसती चली गईं शीला

शीला ने उस आदमी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखते हुए कहा, ‘‘हमें भी कुछ उपाय बताएं, ताकि मैं और मेरे पति इस दर्द से छुटकारा पा लें.’’

शीला की बात सुन कर वह आदमी तपाक से बोला, ‘‘यह दर्द कोई मर्ज नहीं बल्कि शनिदेव का प्रकोप है जिस ने आप के पूरे परिवार को जकड़ रखा है. इस पर दवा और डाक्टर का कोई असर नहीं होने वाला है. इस से छुटकारा पाने का एक ही रास्ता है कि सोने के गहनों से शनिदेव की पूजा कर के इस बला से बचो.’’

उस आदमी ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘अगर आप इस बाधा से अभी और हमेशा के लिए छुटकारा पाना चाहती हैं तो सिर्फ सोने के जेवर ले कर आएं…’’

उस आदमी ने जेवर लाने की विधि बताई और बोला, ‘‘यह काम सूरज डूबने से पहले करना होगा. और हां, इस बात का खयाल रखना कि इस बीच कोई आप को टोके नहीं, वरना आप का बुरा हो जाएगा.’’

अपने शब्दों के जरीए उस आदमी ने शीला को इस कदर भरमजाल में जकड़ लिया था कि वे उस पर यकीन करती चली गईं. वे बाजार जाने के बजाय सीधे घर गईं और अपने गहनों के साथ तीनों बेटियों के भी गहनों को एक पोटली में ले कर उस आदमी द्वारा बताई गई जगह पर पहुंच गईं.

वहां वह आदमी पहले से ही बैठा हुआ था. उस के आसपास 2-4 और लोग भी बैठे हुए थे. 2 औरतें भी बैठी हुई थीं. बगल में हवन वगैरह का सामान रखा हुआ था.

वहां पहुंच कर शीला ने अपने साथ लाए जेवर, जिन में सोने का एक हार, सोने की 4 चेन, सोने की  6 अंगूठियां, 2 झाले, 2 मांग टीके, 2 कंगन, 2 झुमके, एक नैकलैस वगैरह जिन की कीमत तकरीबन 7 लाख रुपए थी, उस आदमी को सौंप कर उसी के बगल में बैठ गईं.

शीला के हाथों से पोटली अपने हाथों में लेने के बाद वह आदमी उन्हें सामने बैठने के साथ आंखों को बंद कर ध्यान लगाने की बोल गया.

आंखें मूंद कर बैठने के बाद शीला को एक मंत्र भी पढ़ने के लिए कह गया और वह आदमी खुद भी मंत्र पढ़ने लगा.

मंत्र पढ़ने के साथ उस आदमी ने शीला की पोटली से गहने निकाल कर अपनी झोली में डाल दिए और एक डब्बे में मिट्टी वगैरह भर कर उसे धागे से बांध दिया और शीला को आंखें खोलने की बोल कर उन्हें वह डब्बा पकड़ाते हुए बोला, ‘‘अब आप घर जाएं और इस डब्बे को सोमवार की सुबह सूरज की किरणें निकलने से पहले थाली में फूल रख कर मेरे बताए सिद्ध मंत्र को पढ़ने के साथ खोलिएगा.’’

उस आदमी ने अगले हफ्ते उन के घर आने की कहते हुए अपनी बात पूरी की. शीला को पूरी तरह से भरोसा हो चला था कि अब उन को दर्द से छुटकारा मिलने वाला है.

हासिल हुआ पछतावा

यह अंधविश्वास शीला के लिए घातक साबित होने के लिए काफी था. उस आदमी ने उन्हें चेता रखा था कि उस के द्वारा बताए गए पूजापाठ में वे किसी को हमराज नहीं बनाएंगी वरना दुखों से छुटकारा नहीं मिलेगा.

डरीसहमी शीला ने भी कुछ ऐसा ही किया. सोमवार की सुबह उन्होंने गहनों से भरा डब्बा खोला तो उन के पैरों तले जमीन खिसक गई. डब्बे में गहनों की जगह मिट्टी वगैरह थी.

लाखों रुपए के गहनों को लुटा बैठने के बाद शीला को दर्द से छुटकारा तो क्या मिला उन की परेशानियां और बढ़ गईं. मारे शर्म के वे किसी से कुछ कह भी नहीं पा रही थीं.

देश में आज भी ऐसे लोगों की भरमार है जो अंधविश्वास जैसी अधकचरी बातों पर भरोसा करते चले आ रहे हैं. शीला जिस लड़के और उस के द्वारा बताए गए शख्स को जानती तक नहीं थीं, उन की बातों में आ कर वे परिवार वालों को बताए बगैर घर के 7 लाख रुपए के जेवरात को लुटा बैठीं.

औरतों को जागरूक कर रही बांदा की समाजसेविका छाया सिंह कहती हैं,

‘‘जब तक औरतें अधकचरी जानकारी से बाहर निकलते हुए खुद जागरूक होने और परिवार को जागरूक करने का काम नहीं करेंगी तब तक समाज में उन्हें बराबरी का हिस्सा मिलने वाला नहीं है.

‘‘बाबाओं के अलावा सड़कछाप चोलाधारियों की शरण में जाने और उन की अधकचरी बातों में आने से नुकसान ही होता है. ऐसे में लोगों को बेखौफ हो कर ऐसे मामलों की पुलिस को सूचना देनी चाहिए.’’

* ऐसे लोगों के चक्कर में पड़े ही नहीं.

परिवार के लोगों को पूरी बात बताएं.

* ऐसे मामलों में बिना देर किए पुलिस को सूचना दें, ताकि कार्यवाही हो सके.

* परेशानी, बीमारी की हालत में माहिर डाक्टर की सलाह लें न कि ऐसे बाबाओं और फकीरों की जो आप को लूट कर चलते बनें.

* एक डाक्टर के बताए इलाज से आराम न मिले तो दूसरे को दिखाएं. देश में माहिर डाक्टरों की कमी नहीं है.

पुराने हथियारों को मौडर्न बनाने का खेल

बिहार में हथियारों के शौकीनों का एक नया गैरकानूनी शौक सामने आया है. वे लाइसैंसी हथियारों के डिजाइन में फेरबदल कर उसे नया रूप देने लगे हैं. यह एक महज शौक नहीं बल्कि रुपए कमाने का नया तरीका भी बन चुका है.

गृह विभाग का मानना है कि पिछले कुछ महीनों के दौरान जब्त हथियारों को देखने के बाद यह पता चला है कि हथियारों में फेरबदल करने का शौक खतरनाक हद तक बढ़ चुका है.

30 मार्च, 2018 को पटना के ऐक्जीबिशन रोड चौराहे के पास पकड़े गए लोगों के पास से 10 हथियार बरामद किए गए. इन में से 3 हथियारों के मूल डिजाइन को बदल दिया गया था.

तड़के सुबह साढ़े 3 बजे गाडि़यों की चैकिंग के दौरान पुलिस ने एक गाड़ी से इन हथियारों को बरामद किया. इन में .315 की 5 राइफलें, 12 बोर की 2 एसबीबीएल राइफलें और 12 बोर की 3 डीबीबीएल राइफलें थीं.

मामले की छानबीन करने वाले डीएसपी एसए हाशिमी ने बताया कि लाइसैंसी हथियारों के डिजाइन में किसी भी तरह का बदलाव करना गैरकानूनी है जबकि कई लोग पुराने हथियारों को नया रंगरूप दे कर रोब गांठते हैं.

सब से ज्यादा .315 बोर की राइफल के मूल डिजाइन में बदलाव करने का मामला देखने को मिला है. यह राइफल मूल रूप से और्डिनैंस फैक्टरी में बनाई जाती है और इस की एक ही डिजाइन मार्केट में है.

इस मौडल की राइफल में पूरा बट लकड़ी का होता है. कुछ लोग लकड़ी के बट को हटा कर छोटा बट लगा देते हैं. इस से राइफल का साइज छोटा हो कर एके-47 जैसा लगने लगता है. बट को बदलवाने में ढाई हजार रुपए और उस में दूरबीन लगवाने के लिए 15 हजार रुपए खर्च करने पड़ते हैं.

आर्म्स ऐक्ट-1959 कहता है कि किसी भी हथियार के मूल डिजाइन में किसी भी तरह का बदलाव नहीं किया जा सकता है. इस से हथियार गैरकानूनी हो जाता है. ऐसे हथियारों को पुलिस जब्त कर सकती है और आरोपी को 7 साल की कैद हो सकती है.

पुलिस सूत्रों के मुताबिक कानपुर के स्टैंड रोड पर पुराने हथियारों को नया डिजाइन और लुक देने का काम धड़ल्ले से होता है. इस के अलावा बिहार की राजधानी पटना के अलावा मुंगेर, गया, भागलपुर, बेतिया, मुजफ्फरपुर वगैरह जिलों में भी हथियारों को नया रंगरूप देने का धंधा खूब फलफूल रहा है.

इस मामले में गिरफ्तार किए गए 13 लोगों से जब पुलिस ने पूछताछ की तो हथियारों और सिक्योरिटी एजेंसी चलाने वालों के एक नए ही खेल का खुलासा हुआ है. बाजार में अपनी पैठ बनाने के लिए कुछ एजेंसियां कई तरह के गैरकानूनी काम करती हैं. इन में पुराने हथियारों के मूल डिजाइन में बदलाव कर उन्हें मौडर्न लुक देने का खेल धड़ल्ले से चलाया जाता है.

मौडर्न हथियारों के नाम पर कंपनी के गार्ड को अच्छीखासी रकम मिलने लगती है. साधारण राइफल वाले गार्ड मुहैया कराने के लिए जहां एजेंसी 12 से 15 हजार रुपए वसूलती है, वहीं मौडर्न हथियारों से लैस गार्ड मुहैया कराने के नाम पर 20 से 30 हजार रुपए तक की वसूली की जाती है.

वैसे, एजेंसी संचालक गार्ड को तनख्वाह के नाम पर महज 8 से 10 हजार रुपए ही देती है, बाकी रकम एजेंसी की जेब में जाती है.

गांधी मैदान थानाध्यक्ष दीपक कुमार ने बताया कि गिरफ्तार गार्डों से पूछताछ के बाद यह भी खुलासा हुआ कि सिक्योरिटी एजेंसियां जमीन विवाद को निबटाने का भी ठेका लेती हैं. किसी जमीन पर विवाद के निबटारे के लिए कोई जमीन मालिक किसी सिक्योरिटी एजेंसी से संपर्क करता है तो संचालक उस से मोटी रकम ले कर 15-20 हथियारबंद गार्डों को मौके पर भेज देता है और ताबड़तोड़ आसमानी फायर कर के जमीन पर दावा करने वालों को डराधमका कर भगा देता है, जबकि ऐसा करना पूरी तरह से गैरकानूनी है.

इस के अलावा बड़ी शादियों या बड़ी पार्टियों में मौडर्न हथियारों से लैस गार्डों को बुलाना हाईप्रोफाइल लोगों का शगल बन गया है. पार्टियों में गार्डों से अंधाधुंध आसमानी फायर करवा कर आसपास के लोगों और अपने परिवार वालों के बीच रोब गांठने का काम किया जाता है. इस के लिए भी सिक्योरिटी एजेंसियां मोटी रकम वसूलती हैं.

सरकारी बंदूक का गैरकानूनी इस्तेमाल

प्रदेश के कई इलाकों में सरकारी हथियारों को भाड़े पर अपराधियों को दे कर मोटी कमाई की जाती है. पटना से तकरीबन 30 किलोमीटर दूर मनेर के दियारा इलाके की एक बड़ी खासीयत यह है कि वहां के तकरीबन हर घर में एक फौजी है. फौज में रहने के दौरान उन की पोस्टिंग जब जम्मूकश्मीर में होती है तो वे वहां अपने नाम से राइफल या बंदूक का लाइसैंस जारी करवा लेते हैं. हथियार ले कर वे बड़ी आसानी से अपने गांव आ जाते हैं और इस की सूचना वे लोकल थाने में नहीं देते हैं.

बालू के गैरकानूनी खनन में लगे अपराधी गिरोहों को वे 3 हजार के मासिक किराए पर हथियार दे देते हैं. बालू घाटों पर कब्जा करने में ज्यादातर ऐसे ही हथियारों का इस्तेमाल हो रहा है. पुलिस का कहना है कि जम्मूकश्मीर में जारी हथियारों के लाइसैंस का बगैर बिहार में ऐंट्री कराए इस्तेमाल करना गैरकानूनी है. इस के बाद भी पुलिस ऐसे लोगों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठा पाती है.

वाचमैन के लिए घूस 5,00,000 … यह तो बेकारी की हद है

अपनी लच्छेदार बातों और जुमलेबाजी से लोगों को सब्जबाग दिखाते रहने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रोजगार के मोरचे पर कितने नाकाम साबित हुए हैं, यह बात अब किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई है. उन के 4 साल के राज में बेरोजगारों की फौज में नौजवानों की तादाद 15 करोड़ का आंकड़ा छू रही है.

बढ़ती बेरोजगारी और बेकारी के इस दौर ने एक और नई बीमारी को जन्म दिया है कि जिस दाम पर भी मिले नौकरी खरीद लो. इस की एक मिसाल 31 मार्च, 2018 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले में दिखी थी. इस दिन मुखबिरी की बिना पर ग्वालियर पुलिस ने शहर के पड़ाव इलाके के एक नामी होटल सिद्धार्थ पैलेस पर छापा मारते हुए तकरीबन 50 लड़कों को गिरफ्तार किया था. इन सभी की उम्र 25 साल से कम थी.

1 अप्रैल, 2018 को एफसीआई यानी फूड कारपोरेशन औफ इंडिया के वाचमैन पदों के लिए लिखित परीक्षा होनी थी. 271 पदों के लिए एक लाख से भी ज्यादा बेरोजगार नौजवानों ने इस पद के लिए फार्म भरे थे. यह परीक्षा अलगअलग राज्यों में अलगअलग तारीखों पर हो रही थी.

इतनी ज्यादा तादाद में अगर नौजवान वाचमैन जैसी छोटी नौकरी के लिए लाइन में लगे थे तो साफ दिख रहा है कि बेरोजगारी की जमीनी हकीकत क्या है. एक वक्त में वाचमैन के इसी पद के लिए न केवल एफसीआई बल्कि केंद्र सरकार की दूसरी एजेंसियां भी उम्मीदवारों के लिए तरस जाती थीं.

एक पद के मुकाबले 3 उम्मीदवारों का आना भी बड़ी बात समझी जाती थी. लिहाजा, मुंहजबानी इंटरव्यू, तालीम और कदकाठी देख कर ही उम्मीदवारों को नौकरी पर रख लिया जाता था.

पर अब हालात उलट हैं. उम्मीदवारों के हुजूम में से काबिल उम्मीदवारों को छांटने के लिए लिखित परीक्षा ली जाने लगी है जो कतई हर्ज की बात नहीं है. हर्ज की बात है इस परीक्षा के पेपरों की बिक्री और सौदेबाजी होना जिस से वे लोग नौकरी झटक ले जाते हैं जिन की जेब में पैसा होता है.

ग्वालियर शहर में पुलिस ने 48 उम्मीदवारों और 2 दलालों को दबोचा था जो दूसरे दिन होने वाली परीक्षा के प्रश्नपत्र हल करवा रहे थे. पकड़े गए उम्मीदवारों ने यह खुलासा किया था कि उन्होंने पेपर के लिए 5-5 लाख रुपए में सौदा किया था और बेचने वालों को 50-50 हजार रुपए एडवांस में भी दे दिए थे. बाकी बची रकम नौकरी मिलने के बाद देना तय हुई थी.

उम्मीदवार इस से मुकर न जाएं इसलिए दलालों ने उन के आधारकार्ड और मार्कशीटों की मूल प्रतियां अपने पास रख ली थीं.

हरीश और अभिषेक कुमार नामक जो दलाल पकड़े गए उन्हें प्रश्नपत्र मुहैया कराने वाले दिल्ली के मास्टरमाइंड किशोर कुमार ने 30-30 हजार रुपए दिए थे. धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार के इस एक और उजागर मामले में गिरोह ने सौदा तो 135 लोगों से किया था.

पकड़े गए महज 48 लोग तो सहज समझा जा सकता है कि दूसरे शहरों में कइयों ने यह पेपर खरीदा था पर कानून के बहुत लंबे हाथों की पकड़ से वे बाहर हैं. एफसीआई भी इस घोटाले पर लीपापोती करने में जुटी हुई है.

बदला कुछ खास नहीं

48 उम्मीदवारों में से 35 अकेले बिहार के और 13 दूसरे राज्यों के थे. जब उन्हें होटल से पकड़ा गया तो उन के पास कुछ खास सामान नहीं था. मसलन, न सूटकेस, न ब्रांडेड कपड़े और न ही वे नाइट डै्रस पहने हुए थे. नकल की सहूलियत के लिए गिरोह ने पूरा होटल ही बुक करा रखा था.

दरअसल, उन में से ज्यादातर उम्मीदवार छोटी जाति के और मामूली खातेपीते घरों के थे जिन्होंने पक्की सरकारी नौकरी के लालच में 5 लाख रुपए का दांव खेलना घाटे का सौदा नहीं समझा था. पहले भी छोटी जाति और गरीब तबके के ही लोग वाचमैन यानी चौकीदार की नौकरी करते थे और आज भी करते हैं. फर्क सिर्फ इतना आया है कि अब उन्हें भी लाखों रुपए की घूस देनी पड़ रही है.

जिंदगी का गुणाभाग

ऐसा भी नहीं है कि इन 48 या इन जैसे लाखों उम्मीदवारों के पास 5 लाख रुपए जैसी गैरमामूली रकम जमा होती है, बल्कि नौकरी के लालच में इस पैसे का जुगाड़ इन्हें तरहतरह से करना पड़ता है. कोई घर की औरतों के गहने बेचता है तो कई जमीन तक बेच देते हैं.

वाचमैन पद का पे स्केल 8100 रुपए  है यानी शुरुआत में ही उसे महंगाई और दूसरे भत्तों समेत तकरीबन 20 हजार रुपए महीने मिलते हैं.

लालच या सुकून देने वाली बात यह भी रहती है कि हर 6 महीने में महंगाई भत्ता बढ़ता है यानी एक साल में पगार में तकरीबन 900 रुपए का इजाफा होता है.

वक्त गुजरते 5-6 साल में 30 हजार रुपए महीना तक हो जाती है. इतमीनान की एक और बात सरकारी नौकरियों में दूसरी सहूलियतों का मिलना भी रहती है.

मिसाल एफसीआई की ही लें तो वाचमैन को भी रहने के लिए घर या इस का भत्ता मिलता है और इलाज के लिए भी पैसा मिलता है.

एफसीआई भोपाल के एमपी नगर जोन 2 के दफ्तर में काम कर रही 56 साला एक वाचमैन का कहना है कि उसे 28 साल पहले महज 4 हजार रुपए पगार मिलती थी जो अब बढ़तेबढ़ते 56 हजार रुपए हो गई है. इतनी तगड़ी पगार नए क्लर्कों और अफसरों को भी शुरू में नहीं मिलती.

इस वाचमैन के मुताबिक, हर साल पगार इन्क्रीमैंट के जरीए भी बढ़ती है और बोनस भी मिलता है. तकरीबन 30 छुट्टियां सीएल और ईएल की शक्ल में भी मिलती हैं.

इस वाचमैन के भविष्य निधि खाते में 18 लाख रुपए जमा हो चुके हैं जो रिटायरमैंट होतेहोते 20 लाख रुपए से भी ज्यादा हो जाएंगे. इस के बाद पैंशन मिलेगी सो अलग.

सरकारी नौकरी के फायदे गिनाते हुए इस वाचमैन ने एक दिलचस्प दलील यह भी दी कि अगर वह प्राइवेट नौकरी में होता तो पगार किसी भी सूरत में 15 हजार रुपए से ज्यादा नहीं होती. उस पर भी कभी भी नौकरी से हटाए जाने का डर बना रहता और बुढ़ापा फाका करते काटना पड़ता.

इस लिहाज से 48 उम्मीदवारों ने गलत हिसाबकिताब नहीं लगाया था कि नौकरी खरीदने के लिए दिया गया पैसा 2 साल में ही वसूल हो जाएगा इसलिए सरकारी नौकरी जो एक बेफिक्र व महफूज जिंदगी की गारंटी होती है जिस को हासिल करने के लिए अगर खुद को भी बेचना पड़े तो भी सौदा घाटे का नहीं.

इन्हीं वजहों के चलते अब सरकारी नौकरियों के लिए मारामारी बढ़ रही है तो बात महज इस लिहाज से चिंता की है कि ये बिकने लगी हैं यानी बेरोजगारी के साथसाथ भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा है.

जब गाना नहीं आया याद, तो सहवाग ने रुकवाया मैच

क्या आपने कभी सुना है कि कोई खिलाड़ी मैच रोक दे क्योंकि उसे कोई गीत याद नहीं आ रहा? जी, सिर्फ विरेंद्र सहवाग ही ऐसा कर सकते हैं. मामला अप्रैल 2008 का है, जब उन्होंने चेन्नै में साउथ अफ्रीका के खिलाफ तिहरा शतक बनाया.

सहवाग ने कहा, ‘मैं चेन्नई में 300 पर बल्लेबाजी कर रहा था. मैं गीत के बोल भूल गया. तब मैंने 12वें खिलाड़ी इशांत शर्मा को मैदान पर बुलाकर कहा कि मेरे आईपॉड से गीत के बोल निकालकर लाए और उसने ऐसा किया. सबने सोचा कि मैंने इशांत को ड्रिंक्स के लिए बुलाया है लेकिन कई बार 12वें खिलाड़ी को ऐसे भी इस्तेमाल किया जा सकता है. वह गीत था, ‘तू जाने ना.’ सहवाग ने यह बात गोरेगांव स्पोर्ट्स क्लब प्रीमियर लीग के दूसरे सीजन के उद्घाटन के मौके पर कही.

और ‘रावलपिंडी एक्सप्रेस’ शोएब अख्तर को खेलते हुए आप कौन सा गीत गाएंगे? ‘आ देखें जरा, किसमें कितना है दम’ उन्होंने फौरन जवाब दिया. सहवाग से जब पूछा गया कि बल्लेबाजी करते हुए आप हमेशा गीत क्यों गाते रहते हैं? उन्होंने कहा, ‘गेंद खेलने से पहले मैं यही सोचता रहता हूं कि इस पर मुझे चौका मारना है या छक्का. ज्यादा सोचने से बचने और अपना ध्यान केंद्रित करने के लिए मैंने गीत गाना शुरू कर दिया.’

सहवाग अब मैदान पर तो नजर नहीं आते लेकिन 38 वर्षीय यह पूर्व ओपनर अब टि्वटर पर अपने वन लाइनर्स के लिए फेमस हो रहे हैं. टेस्ट क्रिकेट को रोमांचक बनाने वाले सहवाग अब हिन्दी कॉमेंट्री में भी अपनी खास जगह बना रहे हैं.

सहवाग ने बताया, एक बार मुंबई में इंग्लैंड के खिलाफ मैच के दौरान ऐंड्रू फ्लिंटॉफ मुझे लगातार बाउंसर्स फेंक रहे थे. मैंने उनके पास जाकर कहा, अगर तुम बाउंसर्स नहीं फेंकोगे तो मैं शाम को तुम्हें ऐसी जगह ले चलूंगा जहां बहुत अच्छी कढ़ी मिलती है. और तरकीब काम कर गई.’

नोटबंदी पर सहवाग ने कहा, ‘मेरा मानना है कि कुंवारे आदमी बदलाव लाते हैं और शादीशुदा आदमी या तो घर के लिए सब्जी लाता है या फिर कुत्ते को घुमाने ले जाता है.’

अपने शादीशुदा जीवन पर उन्होंने कहा कि यहां मैं वही नियम अपनाता हूं जो बल्लेबाज के तौर पर अपनाता था, ‘अंपयार से कभी बहस मत करो, क्योंकि वह मुझे कभी भी आउट दे सकता है. इसी तरह मैं अपनी पत्नी से भी बहस नहीं करता. अंपायर फिर भूल सकता है, लेकिन आपकी पत्नी को लड़ाई के दौरान हुई सारी बातें पूरी तरह याद होंगी.’

टेस्ट क्रिकेट में दो तिहरे शतक लगाने वाले इकलौते भारतीय बल्लेबाज ने साफ किया कि आज कॉमेंट्री उनका नया पैशन है. उन्होंने कहा, ‘मुझे माइक पर बोलना पसंद आ रहा है. यह एक जुनून बन गया है. कॉमेंट्री के दौरान चुटकुले और वन-लाइनर्स सुनाना मुझे पसंद है.’

फेसबुक बन गया सैक्सबुक, अश्लील सामग्रियों की है भरमार

देश में महिलाओं और लड़कियों के साथ बलात्कार की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं. दरिंदे तो अब मासूम बच्चियों तक को नहीं छोड़ते. खुफिया एजेंसी का दावा है कि इंटरनैट का प्रयोग करने वाले 60 फीसदी लोग अश्लील साइटों का इस्तेमाल करते हैं. खुफिया विभाग ने 546 साइटों को ब्लौक करने की सिफारिश भी सरकार से की है. मनोचिकित्सक भी मानते हैं कि बारबार अश्लील साइटों को देख कर अपराधी के मन में विकार आ जाता है. वह कई बार उसी तरह से सैक्स करना चाहता है. हालांकि देखने वाली बात यह है कि बलात्कार की घटनाएं वहां होती हैं जहां इंटरनैट या फेसबुक जैसी चीजें नहीं हैं. ऐसे में केवल इंटरनैट को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता. यह भी सच है कि बीते कुछ समय में इंटरनैट और फेसबुक में अश्लील सामग्री परोसने का काम तेजी से बढ़ा है.

एक दौर ऐसा था जब सड़कों पर किताबों की दुकान लगाने वाले पीली पन्नी में बंद सैक्स की कुछ किताबें बेचते थे. ऊपर से रंगीन दिखने वाली इन किताबों के अंदर सबकुछ ब्लैक ऐंड ह्वाइट होता था. चित्रों के नाम पर खजुराहो की मूर्तियों के फोटो होते थे. सैक्स के नाम पर वात्स्यायन के 84 आसनों का जिक्र होता था. इसी दौर में मस्तराम टाइप के कुछ लेखकों की सैक्सी कहानियों वाली किताबें आने लगीं जिन के अंदर भी फोटो नहीं होते थे. कवर पर रंगीन फोटो विदेशी महिलाओं की होती थीं. 64 पन्नों की इस किताब को लोग ‘चौंसठिया किताब’ के नाम से भी जानते थे. इस तरह की किताबों में जो कहानियां होती थीं उन में फूहड़ता ज्यादा होती थी. दिल्ली के बाजार में सैकड़े के भाव में बिकने वाली ये किताबें उत्तर प्रदेश और बिहार के बाजार में 10 रुपए से ले कर 35-40 रुपए तक में बेची जाती थीं. इन किताबों में अनबिकी किताबों का कोई चक्कर नहीं होता था. सब से ज्यादा मुनाफा फुटकर बेचने वालों को होता था.

लोग इन किताबों को चुपचाप खरीद लेते थे और जेब में डाल कर चलते बनते थे. 90 के दशक की शुरुआत में किताबों की छपाई की क्वालिटी अच्छी हुई तो इन किताबों के रंग भी बदल गए. अब किताबों में अच्छे सैक्सी रंगीन फोटो छापे जाने लगे.

स्वास्थ्य समस्याओं की आड़ में हर तरह की कहानियां इन में प्रकाशित होने लगीं. इन की कीमत 40 से 100 रुपए के बीच हो गई. इन की बढ़ती बिक्री को देख कर अपराध कथाओं की पत्रिकाएं प्रकाशित करने वाले दिल्ली के कुछ बड़े प्रकाशक भी इस धंधे में कूद पड़े. कुछ सस्ते प्रकाशकों ने तो इन की डुप्लीकेट पत्रिकाएं सस्ते में छापनी शुरू कर दीं. वक्त के साथ सबकुछ बदला पर सैक्स की घटिया कहानियों का तौरतरीका वही मस्तराम टाइप ही रहा.

कुछ साल तक तो यह धंधा ठीक चला पर भेड़चाल में यह भी बंदी के कगार पर आ गया. धीरेधीरे किताबों को पढ़ने वाले इंटरनैट की सजीव दुनिया के मायाजाल में फंसने लगे. लैपटौप और कंप्यूटर की बड़ी स्क्रीन पर वह सबकुछ दिखने लगा जो कभी सादी या रंगीन सैक्सी किताबों में चोरीछिपे देखा जाता था.

महंगे बड़े स्क्रीन वाले मोबाइल फोन के दौर तक यह सबकुछ बड़े और पैसे वालों के लिए सुलभ रहा पर चाइनीज सस्ते मोबाइल फोन और मोबाइल कंपनियों में ग्राहक बनाने की होड़ में सस्ते से सस्ते ‘इंटरनैटपैक’ का चलन हो गया. ऐसे में पूरी दुनिया सिमट कर मुट्ठी में आ गई. ऐसे में ‘फेसबुक अकाउंट’ रखने वाले स्टेटस  वाला माना जाने लगा.

गरम भाभी से देशी जवानी तक

वैसे तो ऊपर से देखने में फेसबुक एक अच्छी सोशल नैटवर्किंग साइट लगती है पर कुछ ही दिनों में फेसबुक में भी सैक्सी चैटिंग करने वालों ने एक नई दुनिया बना ली. फेसबुक पर केवल रंगीन व सजीव चित्र ही नहीं दिखते बल्कि सैक्सी फिल्में तक अपलोड की जाने लगी हैं. यहां मनचाहे ढंग से न केवल ऐसे लोगों से बिना उन का चेहरा देखे बात कर सकते हैं बल्कि उन को अपने हिसाब से फ्रैंडलिस्ट से हटाया और जोड़ा भी जा सकता है. अपनी इसी खासीयत के चलते फेसबुक अब सैक्स बुक का नया रूप बन कर समाज में उतर आई है.

चौंसठिया किताबों, मनमंथन और असमंजस टाइप किताबों की तरह फेसबुक पर भी हौट सैक्सी गर्ल, देशी भाभी और सिस्टर, लड़कियों की टाइट पैंट, 16 प्लस इंडियन सैक्सी गर्ल, भाभी की कहानियां, हाय रे यह जवानी, गरम भाभी, सैक्सी आंटी, रचना भाभी, नैना भाभी, सैक्सी हाउसवाइफ, जीजा की मस्त साली जैसी तमाम साइटें खुल गई हैं. बहुतों के नाम यहां लिखे नहीं जा सकते.

इन सभी पेजों को लाइक करने वाले बहुत से लोग होते हैं. इंटरनैट पर किसी भी साइट की लोकप्रियता का अंदाजा उस के लाइक करने और उस के विषय में पूछताछ करने वालों की संख्या से लगाया जा सकता है.

कुछ ऐसे ही अकाउंटों के पेज पर जा कर इस को देखने की कोशिश की गई तो यह संख्या हजारोंलाखों में मिली. अंजलि भाभी की सैक्सी पाठशाला को पसंद करने वाले 42 हजार से अधिक लोग हैं तो उस के बारे में पूछताछ करने वालों की संख्या 10 हजार से अधिक थी

इसी तरह नेपाली माल 1,11,436 लाइक, 18 प्लस सैक्सी गर्ल को 2,23,278 पसंद करने वाले मिले. हो सकता है अब यह संख्या बढ़ गई हो. सविता भाभी और उस की बहनों को पसंद करने वाले लोगों की संख्या 3 लाख के ऊपर थी. बड़ी संख्या में लोग इन के बारे में जानकारी लेना भी चाहते हैं. ऐसे ही जिस को देखा गया उस के पसंद करने वाले और उस के बारे में पूछताछ करने वालों की संख्या हजारों में मिली. इस से यह पता चलता है कि बड़ी संख्या में लोग फेसबुक को पसंद करते हैं.

कैसेकैसे लोग

इन साइटों को देखने, पसंद करने और चैटिंग करने वालों में हर वर्ग के लोग हैं. इस में छिबरामऊ की नेहा पाल है जिस की उम्र 20 साल है. वह पढ़ाई करती है. वह लड़के और लड़कियों दोनों से दोस्ती करना चाहती है. 32 साल की गीता कानपुर की रहने वाली है, दिल्ली में रहती है. वह नौकरी करती है. किसी लड़के के साथ उस की रिलेशनशिप भी है. वह केवल लड़कियों से सैक्सी चैटिंग पसंद करती है. उस की सब से अच्छी दोस्त प्रीथी रमेश है जो केरल की रहने वाली है. वह दुबई में अपने पति के साथ रहती है. अपने पति के साथ शारीरिक संबंधों पर वह खुल कर गीता से बात करती है. ऐसे ही तमाम नामों की लंबीचौड़ी लिस्ट है. इन में से कुछ लड़कियां अपने को खुल कर लैस्बियन मानती हैं और लड़कियों से दोस्ती और सैक्सी बातों की चैटिंग करती हैं. कुछ हाउसवाइफ भी इस में शामिल हैं जो अपने खाली समय में चैटिंग कर के मन बहलाती हैं. कुछ लड़केलड़कियां या मर्द और औरत भी आपस में सैक्सी बातें व चैटिंग करते हैं.

कई लड़केलड़कियां तो अपने मनपसंद फोटो भी एकदूसरे को भेजते हैं. फेसबुक एक जैसी रुचियां रखने वाले लोगों को आपस में दोस्त बनाने का काम भी करती है. एक दोस्त दूसरे दोस्त को अपनी फ्रैंडशिप रिक्वैस्ट भेजता है. इस के बाद दूसरी ओर से फ्रैंडशिप कनफर्म होते ही चैटिंग का यह खेल शुरू हो जाता है. हर कोई अपनी पसंद के अनुसार चैटिंग करता है. कुछ लड़कियां तो ऐसी चैटिंग करने के लिए पैसे तक वसूलने लगी हैं

वाराणसी के रहने वाले राजेश सिंह कहते हैं, ‘‘मुझ से चैटिंग करते समय एक लड़की ने अपना फोन नंबर दिया और कहा कि उस में 500 रुपए का रिचार्ज करा दो. मैं ने नहीं किया तो उस ने सैक्सी चैटिंग करना बंद कर दिया.’’ इसी तरह से लखनऊ के रहने वाले रामनाथ बताते हैं, ‘‘मेरी फ्रैंडलिस्ट में 4-5 लड़कियां हैं जो मुझे अपनी सैक्सी फोटो भेजती हैं. मेरे फोटो वे देखना पसंद करती हैं. कभीकभी हम उन का नैट पैक रिचार्ज करा देते हैं. इन लोगों से बात कर मैं बहुत राहत महसूस करता हूं. मुझे यह अच्छा लगता है, इसलिए मैं कुछ खर्च भी करने को तैयार रहता हूं.’’

चलता है सैक्सवर्कर का खेल

फेसबुक में कुछ ऐसे अकाउंट भी हैं जो अपने को खुलेआम सैक्सवर्कर कहती हैं. इन को लोग अपने मोबाइल नंबर तक दे देते हैं. इस के बाद इन की सीधी बातचीत होने लगती है. कोलकाता की रहने वाली नेहा राय ने अपने अकाउंट में लिखा है कि वह सैक्सवर्कर है. उस का नैटवर्क पूरे देश में है. आप जरूरत के हिसाब से बात कर सकते हैं. नेहा राय के अकाउंट में ऐसे बहुत से नाम जुड़े हैं जिन्होंने उसे अपने नंबर दे रखे हैं.

हैदराबाद की रहने वाली शैलजा ओएनजी भी ऐसी ही सैक्सवर्कर की बात करती है. केरल के रहने वाले सेल्वा कुमार ने सैक्स सेवाओं के लिए अपना नंबर दे रखा है. सेलम, तमिलनाडु की रहने वाली सुजाता लव अपने को लैस्बियन हाउसवाइफ बताती है.

मुंबई में रहने वाली कुछ लड़कियां, जो डांस बार से जुड़ी हैं, अपने अलग फेसबुक अकाउंट चलाती हैं. चैटिंग करने के दौरान वे यह जाननेसमझने की कोशिश करती हैं कि सामने वाला कैसा आदमी है. अगर उन को अपना काम हल होता दिखता है तो वे बातें बढ़ाती हैं. पहले ईमेल और फिर पैसे लेनेदेने की बात शुरू हो जाती है. दिल्ली और विदेशों में रहने वाली बहुत सी औरतों के अकाउंट भी बने हैं.

रमेशनाथ बताते हैं, ‘‘एक बार मुस्कान नाम की लड़की ने सैक्सी चैटिंग शुरू की. लंबे समय तक हर तरह की बातें होती रहीं. 20-25 मिनट की चैटिंग के बाद उस ने कहा कि वह लड़की नहीं, लड़का है. एक बार किसी ने उसे ऐसे ही बेवकूफ बनाया था तब से वह भी लड़कों को लड़की बन कर चैटिंग करता है. बाद में सचाई बता कर निकल जाता है.’’

मानसिक रोगों की निशानी

अपने देश और समाज में सैक्स को बहुत खराब माना जाता है. खुलेआम इस की चर्चा तक नहीं की जाती. ऐसे में जब जहां जिस को जैसा मौका मिलता है, लोग इस को जानने और समझने में लग जाते हैं. कभी मस्तराम की किताबें इस का जरिया होती हैं तो कभी फेसबुक.

डा. अनिल कुमार राय इसे मनोरोग मानते हैं. उन का कहना है कि बहुत लोग सामान्य से दिखते हैं पर वे इस रोग के शिकार होते हैं. वे कभी सैक्स की बात कर के कभी  गंदीगंदी कहानियां पढ़ कर, चित्र देख कर अपने को संतुष्ट करते हैं. ऐसे लोगों को फेसबुक के रूप में नया जरिया मिल गया है. जहां यह भी नहीं पता होता है कि सामने वाला असली है या नकली. मानसिक संतोष के लिए भी लोग इस का सहारा लेते हैं.

51 साल के परशुराम ने अपने अकाउंट में 20 साल के किसी जवान, सुंदर, स्मार्ट लड़के का चित्र इसलिए लगा रखा है ताकि कम उम्र की लड़कियों से चैटिंग कर सके. वे कहते हैं कि मैं एक कारोबारी हूं. घर और दुकान में जब मस्ती करने का मन होता है तो अपने अकाउंट में जा कर चैटिंग कर अपने को रिचार्ज कर लेता हूं. डा. अनिल कुमार राय, जिसे मानसिक बीमारी बता रहे हैं, परशुराम उसे रिचार्ज होना मानते हैं.

कोवर्किंग हब : नए जमाने का नया वर्क कल्चर

स्टीव जौब्स ने अपना काम गैरेज से क्यों शुरू किया, इस का एक कारण यह था कि उन के पास शुरुआती निवेश के लिए बहुत सा धन नहीं था और दूसरा, तब कोवर्किंग हब विकसित नहीं थे. नव उद्यमियों के नए कारोबार या स्टार्ट्सअप को साधारण सा औफिस नहीं, बल्कि चाहिए अपने लिए एक उत्पादक ख्वाबगाह जहां वे जागते हुए अपने सपने पूरे कर सकें. यही जरूरत कोवर्किंग केंद्र नामक इस कामकाजी नवाचार की जननी है.

4-5 साल पहले शुरू हुआ कोवर्किंग हब का चलन उफान पर है. कोवर्किंग मतलब खुद का औफिस बनाने के झंझट के बजाय किसी कार्यालय समूह में अपनी जरूरत के मुताबिक बनाबनाया औफिस किराए पर ले कर काम करना. आप अपना काम शुरू करना चाहते हैं, पर ऐसी कोई जगह नजर नहीं आती जहां आप और आप के साथीसहयोगी बैठ कर कामकाज के शानदार माहौल में उत्पादक कार्य कर सकें. आप के पास ज्यादा पूंजी भी नहीं है या फिर शुरुआती दौर में ही महज कार्यालय स्थापित करने के चक्कर में अपनी पूंजी का ज्यादा हिस्सा नहीं लगाना चाहते. बहुत से ऐसे संसाधन हैं जिन की जरूरत कभीकभी ही पड़ेगी पर पास में होने चाहिए, आप उस में अभी पैसा नहीं लगाना चाहते. कई बार ऐसा भी होता है कि संबंधित काम के लिए किसी बड़े तामझाम वाले औफिस के बजाय किसी एक ऐसे कोने की ही जरूरत होती है जो सुविधासंपन्न हो और निजता तथा एकांत के साथ कामकाजी माहौल भी देता हो. ऐसी दशा में कोवर्किंग हब आप के लिए बेहतर विकल्प है.

अब मारजित को ही लीजिए, ये महाशय 3 विदेशी प्रकाशकों से जुड़े हुए हैं. उन की किताबों का संपादन करते हैं, साथ ही, लेखन व संपादन से जुड़े कुछ और काम भी इन के पास हैं. मारजित यह काम घर से भी कर सकते हैं पर उन्होंने एक सीट वाला औफिस केबिन किराए पर ले रखा है, वह भी हफ्ते में 4 दिनों के लिए, रोज 5-6 घंटे वे यहीं काम करते हैं.

4 साल देश और 2 साल विदेश में काम कर चुके सौफ्टवेयर इंजीनियर रवि ने देश लौट कर अपनी कंपनी बनाई. रवि के पास आइडिया था. सौफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी के असाइनमैंट के साथ 3 समर्पित साथी भी थे. जोड़जमा कर थोड़ी पूंजी भी थी. समस्या यह थी कि कामकाज किया कहां से जाए. घर से संभव न था. कई वजहें थीं, स्थान, एकांत, निजता, पार्किंग, लोकेशन वगैरा. बेहतर इलाकों में छोटे से भी औफिस का किराया बहुत था, और फिर काफी पूंजी उस औफिस को काम लायक बनाने में खर्च हो जाती. मसलन, जरूरी फर्नीचर और दूसरी तकनीकी आवश्यकताओं को जुटातेजुटाते समय और धन दोनों स्वाहा हो जाते और किराए के औफिस को जब छोड़ कर दूसरी जगह जाते तब ये सामान किस हद तक इस्तेमाल हो पाता, यह कहना भी मुश्किल था.

आसान व सुलभ उपाय

रवि का दोस्त चंदेल ऐप डैवलप करने का काम करता है और वह दिल्ली के मयूर विहार फेज वन स्थित एक कोवर्किंग स्पेस से ही अपना सारा कामकाज करता है. चंदेल ने रवि को बताया कि उस की जानकारी सीमित है पर इतना पता है कि पुणे, बेंगलुरु, मुंबई, नोएडा, गुड़गांव, दिल्ली में तो कामकाज के लिए सस्ता कार्यालय ढूंढ़ने में कहीं कोई दिक्कत नहीं. गोआ, अहमदाबाद, अर्नाकुलम, कोच्चि, चेन्नई, जहां कहीं भी कामकाज बढ़ रहा है, इस चलन का असर दिखाई दे रहा है. अगले 3 दिनों में ही रवि ने चंदेल की मदद से दक्षिणी दिल्ली में एक पांचसितारा सुविधा वाले कोवर्किंग हब में जगह ढूंढ़ ली. कामकाज के क्षेत्र में बेहद अनूठी और व्यावहारिक सुविधा का नाम है कोवर्किंग हब. दिल्ली के पहले से ही कुछ सघन बाजारों में एक ही भवन में नीचे दुकानें और ऊपर छोटेबड़े तमाम कार्यालय चला करते हैं. बाजार होने के नाते, क्लाइंट का आना और उन का स्वागतसत्कार आसान व सुलभ होता, साथ ही कामकाज भी. ये अब भी चलते हैं. अब इन का सुधरा और पांचसितारा रूप सामने आया है और किराया भी कुछ खास ज्यादा नहीं है. भले ही ये ठीक बीच बाजार में न हों पर मैट्रो स्टेशन, बस अड्डे, रेलवे स्टेशन, होटल, मौल जैसी जगहों के नजदीक होते हैं और फिर कामकाज का सारा बाजार व वातावरण तो ये अपने भीतर ही समेटे होते हैं.

चूंकि इस व्यवसाय को बहुत सोचसमझ कर विकसित किया गया है इसलिए कोवर्किंग हब पहले से ज्यादा सुव्यवस्थित और सुविधाजनक हैं. इन कोवर्किंग हब में कार्यालय आप मासिक ही नहीं, साप्ताहिक भी ले सकते हैं. इतना ही नहीं, दिनों के आधार पर भी आप चाहें तो एक कुरसीमेज की जगह खरीद सकते हैं या विशाल कार्यालय. कर्मचारी बढ़ गए तो अतिरिक्त जगह खरीद लीजिए, कुछ कंप्यूटर अतिरिक्त चाहिए तो मामूली सी मासिक फीस दे कर ले सकते हैं. इस हब के सदस्य बन गए तो तमाम ऐसी सुविधाएं जिन पर आप को बहुत खर्चा करना पड़ता, बेहद सस्ते में उपलब्ध हो जाती हैं.

छोटी पूंजी से धंधे की शुरुआत में इस तरह के औफिस की कल्पना नहीं कर सकते जहां वातानुकूलित, धीमे प्रकाश वाली साफसुथरी और सजीधजी गैलरी से निकलने के बाद शानदार लौबी और उस में हर तरफ चमचमाता फर्नीचर, काउच, सोफे हों, लौबी जिस के एक तरफ आप का केबिन और उस के साथ लगा आप के स्टाफ के क्यूबिकल्स हैं तो दूसरी तरफ चंद कदमों पर बढि़या रेस्तरां और कौफी हाउस. बोर्डरूम और मीटिंग हौल के क्या कहने. एक नहीं, कई हैं. बड़े पैनल पर प्रेजे?ंटेशन दें या फिल्म चलाएं अथवा केवल औडियो, सब की बढि़या सुविधा. कामकाज की पेशेवराना सुविधाओं के अलावा कुछ वर्किंग हब ने तो इस तरह का जीवंत माहौल बना कर रखा है कि जैसे यह आप का अपार्टमैंट ही हो और आप अपने घर पर ही बिलकुल रिलैक्स हो कर काम कर रहे हैं. किसीकिसी ने टेबल टैनिस या बिलियर्ड की टेबल भी लगा रखी है. काम के साथ कुछ तफरीह भी तो होनी चाहिए.

काम के साथ आराम भी

कामकाज में भी रिलैक्स होने के कई अवसर हैं यहां. आप चाहें तो अपना अकाउंटैंट न रखें, न ही कोई प्रशासकीय या एडमिन विभाग, एचआर डिपार्टमैंट, न लीगल मसलों के लिए किसी खास सलाहकार अथवा स्टाफ की कोई जरूरत. ये सब सामूहिक तौर पर या पैनल के रूप में उपलब्ध हैं और आप इन की साझा सेवाएं आसानी से उठा सकते हैं. आप का औफिस यहां बस 2 कमरों का है पर आप चाहते हैं कि आप के हर फोन को बड़े दफ्तरों की तरह रिसैप्शन पर रिसीव कर महज जरूरी कौल आप को दी जाए या आप की अनुपस्थिति में संदेश लिए जाएं, उन का उचित जवाब दिया जाए तो यह सुविधा भी आप बिना रिसैप्शनिस्ट रखे हासिल कर सकते हैं. आप के मेल भी नियत मेलबौक्स में जमा हो कर आप को मिलेंगे. आप के अतिथियों को चाय, कौफी या पानी सर्व कराने का बढि़या इंतजाम रहता है. रोज महंगे रेस्तरां में नहीं जाना चाहते तो टिफिन के कई विकल्प मौजूद हैं. देर रात काम करना चाहें तो भी सुविधाएं हैं.

कुछ वर्किंग हब इतने बड़े और विकसित हैं कि वहां तमाम नव उद्यमी एकसाथ काम कर रहे होते हैं. उन में से कई एकदूसरे के पूरक बन जाते हैं, समुदाय और समूह बना कर सामूहिकता का लाभ उठाते हैं. बिजली कभी नहीं जाती, नैटवर्किंग और नैट अबाध रहता है, इंटरनैट की स्पीड 50 एमबीपीएस से कभी कम नहीं होती वहां. आप को अपने कंप्यूटरों, पिं्रटरों, लैपटौप या ऐसी चीजों की तकनीकी रखरखाव के लिए किसी आईटी स्टाफ या विभाग नियुक्त करने अथवा बाहर से बुलाने के लिए समय या धन नहीं खर्च करना है. पार्किंग का झमेला नहीं, यहां सुरक्षाकर्मी लगे हुए हैं और पार्किंग की यह सुविधा मुफ्त है. हमेशा उपलब्ध फैक्स, फोटोकौपी कागज और स्टेशनरी जैसी छोटीमोटी साधारण सुविधाएं हों या फिर आर्ट, डिजाइन अथवा विज्ञापन, पीआर, इवैंट मैनेजमैंट, यहां तक कि अगर विपणन या मार्केटिंग रणनीति बनाने में कोई सहायता चाहिए तो उस के विशेषज्ञों की सेवा के साथ ही संबंधित व्यवसाय के बाजार पर रिसर्च तथा उस के नैटवर्कों की बढि़या सेवा यहां आप को अपने कार्यालय के इर्दगिर्द आसानी से उपलब्ध है. आप को व्यवसाय के लिए ज्यादा समय मिलेगा और तनाव कम रहेगा. जाहिर है धन भी कम लगेगा. निसंदेह कुछ सुविधाएं पैकेज डील के तहत मुफ्त हैं तो कुछ के लिए पैसे देने होंगे. पर हर सुविधा के लिए न समय खर्च करना है, न भटकना है.

लगातार विकसित हो रहे बाजार, बढ़ती शिक्षा व तकनीक संबंधी नए विचारों और इन नए विचारों को समाज व व्यावसायिक समुदाय के मिलते सार्थक सहयोग ने ढेरों नव उद्यमियों को आगे आने का अवसर दिया है. बैंक लोन के सरलीकरण के साथ क्राउडफंडिंग एक नई उम्मीद बन कर उभरी है. ऐसे में स्टार्टअप्स या कहें नए उद्यमियों की देश में भरमार सी हो गई है. बेंगलुरु, पुणे, दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों के तमाम नौजवानों ने अपना काम शुरू कर सफलता और कमाई की जो नई कहानी लिखी है वह सब के लिए प्रेरक व बहुतों को ईर्ष्या से भर देने वाली है. आज इन प्रेरित नव उद्यमियों को चाहिए अपने लिए कम खर्च में सुविधासंपन्न उत्पादक ख्वाबगाह जहां वे जागते हुए अपने सपने पूरे कर सकें. यही जरूरत ही इस नवाचार यानी कोवर्किंग हब की जननी है.

कम चुकाएं ज्यादा पाएं

अपने शहर में कोवर्किंग स्पेस या हब इंटरनैट पर खोजेंगे तो कई विकल्प मिलेंगे. इन की वैबसाइट पर जाएं, आप को किस इलाके में कितनी जगह और सुविधा चाहिए और क्या खर्च कर सकते हैं, उस के अनुरूप अपना औफिस चुनिए. ध्यान रखिए, मोलभाव की गुंजाइश है और औफर भी आते रहते हैं. मोटेतौर पर एक सामान्य से बेहतर कोवर्किंग स्पेस का व्यय इस प्रकार है-

महीने भर का   —     5,300 से 8,000 रुपए.

अंशकालिक     —     महीने में 10 दिन — 2,200 से 3,000 रुपए.

7 दिनों का     —     1,500 रुपए प्रति व्यक्ति.

एक दिन का    —     300-500 रुपए.

1    अगर 3 सदस्यों से ज्यादा का समूह है तो हर अतिरिक्त सदस्य के लिए 4,000 रुपए मासिक देने होंगे.

2    अगर अपनी सीट पर नया कंप्यूटर लगवाना हो तो 75 रुपए प्रतिदिन दीजिए.

3    मीटिंग के लिए बोर्डरूम या हौल बुक कराना है तो पहले बताइए और 400 से 800 रुपए हर 7 घंटे के हिसाब से चुका दीजिए.

4    मूनलाइटर्स पैकेज भी उन लोगों के लिए उपलब्ध हैं जो केवल रात में काम करने वाले हैं.

इसी तरह खेल हो या खाना, पार्किंग अथवा इंटरटेनमैंट, थोड़े से अतिरिक्त भुगतान पर आप बेहतरीन सुविधाएं पा सकते हैं.

स्टार्टअप्स की लाइफलाइन कोवर्किंग हब

भारत में स्टार्टअप सालाना 270 फीसदी के रेट से बढ़ रहे हैं. हर महीने 500 से 800 नए स्टार्टअप शुरू होते हैं. और इस स्टार्टअप के खेल में सब से आगे जो शहर है उस का नाम है बेंगलुरु. यह शहर अब ऐसा स्टार्टअप हब बन कर उभरा है कि इस ने स्टार्टअप के ट्रैंड में एक नए बिजनैस मौडल को भी खड़ा कर दिया है, यह मौडल है कोवर्किंग स्पेस का. यह स्टार्टअप्स की लाइफलाइन बन चुका है.

मुंबई, दिल्ली और बेंगलुरु जैसे शहरों में कई ऐसे कोवर्किंग हब हैं जहां एक ही औफिस या बिल्ंिडग में ढेरों छोटीबड़ी कंपनियां एक ही डैस्क को दूसरी कंपनी की डैस्क से साझा कर के अपना काम कर रही हैं. न रैंटल औफिस के लिए भागदौड़ और न ही रखरखाव, न बिजलीपानी के बिल से ले कर इंटरनैट का चक्कर, सबकुछ कोवर्किंग स्पेस चलाने वाले की जिम्मेदारी होती है. और इस कल्चर का प्लसपौइंट यह है कि आप को कई रचनात्मक सोच वाले व्यक्तियों का साथ मिलता है. बेंगलुरु में कोबाल्ट, कोवर्क इंडिया, कोवर्क कैफे जैसे ढेरों कोवर्किंग स्पेस देने वाली कंपनियां हैं, जो कोवर्किंग हब को रोजगार का जरिया बना चुकी हैं और स्टार्टअप्स को लुभा रही हैं. अमूमन कोवर्किंग स्पेस में 5 से 6 हजार रुपए प्रतिमाह में आप को डैस्क स्पेस उपलब्ध रहता है. यह रेट लोकेशन और शहर के आधार पर बढ़ व घट सकता है. बहरहाल, यह हमेशा ही फायदे की डील होती है. आप को उतना ही खर्च करना पड़ता है जितना आप को स्पेस या सुविधा चाहिए. इस के अलावा सब से खास बात यह है कि ज्यादातर कोवर्किंग स्पेस 24 घंटे खुले रहते हैं.

कोवर्किंग हब ने बनाया आन्ट्रप्रनर

एक आइडिया ही होता है जो किसी को सफल बिजनेसमैन या अगर आजकल की स्टार्टअप की भाषा में कहें तो आन्ट्रप्रनर बना सकता है. ‘आइडिया मिल’ की संस्थापक व निदेशक कृतिका नाडिग की भी यही कहानी है. एक दिन कृतिका ने कोवर्किंग स्पेस विषय पर औनलाइन लेख पढ़ा. उन्हें यह विचार काफी रोचक लगा और मार्केट में इस बारे में उन्होंने काफी रिसर्च की और सारी बचत को इस काम में निवेश करने का फैसला किया. इस तरह कृतिका को आइडिया मिल शुरू करने का आइडिया मिला. इस स्टार्टअप में 16 सदस्यों के लिए कोवर्किंग स्पेस है.

कृतिका का ‘आइडिया मिल’ पुणे के एक घर से चलता है जो उन के परिवार का ही है. बस, वह घर औफिस के तौर पर इस्तेमाल होता है. ‘आइडिया मिल’ की खासीयत यह है कि यह सभी सदस्यों के लिए सातों दिन सुबह 9 बजे से शाम 7 बजे तक खुला रहता है.

कृतिका आगे चल कर इस तरह का सिस्टम बना रही हैं कि एक ही डैस्क पर 2 दोस्त शिफ्ट सैट कर के एक ही दिन में काम कर सकें. ‘आइडिया मिल’ में औफिस कल्चर बड़ा दिलचस्प है. यहां पर सदस्य बाहर घूमने जा सकते हैं, बातचीत कर सकते हैं, वर्कशौप और फिल्म देख सकते हैं और ये सब वे तब कर सकते हैं जब वे कोई काम नहीं कर रहे होते. यहां पढ़ने के लिए पुस्तकालय भी है. अगर आप को नौवेल भी लिखना  है तो यहां की आरामदायक बालकनी में कौफी की चुस्कियां लेते हुए आराम से लिख सकते हैं.

-साथ में राजेश कुमार

जब बदल जाए आप का स्कूल

विशाल के पिता रेलवे में हैं. उन की जौब ट्रांसफरेबल है. विशाल जब 10वीं कक्षा में पढ़ रहा था तब उस के पिता का ट्रांसफर हो गया. परिणामस्वरूप न केवल उसे अपना स्कूल छोड़ना पड़ा बल्कि अपने दोस्तों को भी अलविदा कहना पड़ा. अब उस के सामने सब से बड़ी समस्या नए शहर और नए स्कूल में नए दोस्तों के साथ सामंजस्य बैठाने की थी. शुरू में उसे नया स्कूल और वहां का माहौल अटपटा लगा, क्योंकि उसे तो अपने पुराने स्कूल की आदत थी. यहां न वह किसी को जानता था और न ही कोई उसे. उस ने आगे आ कर दोस्ती का हाथ बढ़ाया और कुछ ही दिनों में यहां नए मित्र बना लिए और उन से इस कदर घुलमिल गया जैसे बरसों पुरानी दोस्ती हो.

सच भी है, नई जगह, नए स्कूल में दोस्त बनाने की पहल तो आप को ही करनी पड़ेगी. किसी से भी दोस्ती करने में कोई झिझक नहीं करनी चाहिए. इस के लिए पहले सामने वाले से हाथ मिलाएं और उसे अपना परिचय दें तथा उस का परिचय प्राप्त करें. उस पर अपनी यह मनशा जाहिर करें कि आप उस से दोस्ती करने के इच्छुक हैं और उसे दोस्त बना कर आप को खुशी होगी. नए स्कूल में अपने सहपाठियों से दोस्ती करने के लिए उन के साथ खेलेंकूदें, कार्यक्रमों में हिस्सा लें, किताबकौपियों और नोट्स का आदानप्रदान करें. जब आप उन से बात करेंगे तभी आप को एकदूसरे को जानने का मौका मिलेगा. इस से दोस्ती की राह आसान हो जाएगी.

अपने जन्मदिन या खास अवसरों पर उन्हें अपने यहां आमंत्रित करें. ईद, होली, दीपावली, क्रिसमस आदि त्योहारों पर उन्हें बधाई दें. नए स्कूल में दोस्त बनाने के लिए जरूरी है कि आप विभिन्न ऐक्टिविटीज में हिस्सा लें. इस से आप को एकदूसरे के साथ ज्यादा समय बिताने का मौका मिलेगा. एनसीसी और एनएसएस ऐसे माध्यम हैं जिन से जुड़ने पर नए स्कूल में नए दोस्त बनाना आसान हो जाता है, क्योंकि ये दोनों ही संगठन सामूहिक भावना पर आधारित होते हैं. इन में एकसाथ काम करने का अवसर मिलता है. जब कभी इन के शिविर आयोजित हों, उन में अवश्य भाग लें. इन शिविरों में साथ समय बिताने से दोस्ती में मजबूती आती है. इसी प्रकार स्कूल की खेल गतिविधियों में भाग लें. इस से आप को नए दोस्त बनाने के भरपूर अवसर मिलेंगे.

यदि आप में कोई विशेष हुनर है तो उस के बलबूते पर आप अपने सहपाठियों को अपनी तरफ आकर्षित कर सकते हैं. यह हुनर किसी भी तरह का हो सकता है. इस से अन्य छात्र आप से दोस्ती करने को आतुर रहेंगे. अच्छे व होशियार बच्चों से हर कोई दोस्ती करना चाहता है. यदि आप पढ़ाकू हैं, कक्षा में प्रश्नों के उत्तर देते हैं तथा टीचर्स की शाबाशी पाते हैं तो अन्य सहपाठी आप से दोस्ती के लिए अपना हाथ बढ़ाएंगे. ऐसे में आप के लिए दोस्तों की कमी नहीं रहेगी. जब आप नए स्कूल में प्रवेश करते हैं तो पुराने स्कूल से उस की तुलना कदापि न करें. नया स्कूल पुराने स्कूल से अच्छा हो सकता है और नहीं भी. यदि आप अपनी सोच को सकारात्मक रखेंगे तो वहां भी आप को अच्छे दोस्त मिल ही जाएंगे. अपने सहपाठियों की अच्छाइयों को ग्रहण करें, उन में व्याप्त बुराइयों की ओर ध्यान न दें. यदि आप को नए दोस्त बनाने में कठिनाई आ रही है, तो अपनी यह समस्या टीचर्स को बताएं. वे कुछ अच्छे लड़केलड़कियों से आप का परिचय करा देंगे, जिस से आप को उन से दोस्ती करने में आसानी होगी.

जब भी आप किसी की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाएं, वह निस्वार्थ होना चाहिए, क्योंकि स्वार्थ पर आधारित दोस्ती अधिक दिन तक नहीं चलती और असलियत सामने आते ही वह टूट जाती है. इसी प्रकार दोस्ती का नाजायज फायदा न उठाएं. यदि किसी से दोस्ती करें तो उसे निभाएं भी, खासतौर पर तब, जब सामने वाला संकट में हो. किसी भी सहपाठी से बात करने में शर्माना नहीं चाहिए बल्कि उस से खुल कर बात करनी चाहिए. हो सकता है कि उस की रुचि और आप की रुचि एक जैसी हों. ऐसे में घुलनेमिलने के अवसर बढ़ जाते हैं. यदि स्कूल की तरफ से कोई पिकनिक या पार्टी आयोजित हो तो उस में अवश्य जाना चाहिए. इस से नए दोस्त बनाने में आसानी रहती है.

यदि आप स्कूल की कैंटीन में जाते हैं तो अपने दोस्तों के साथ जाएं. अगर फिल्म देखने जाने का प्रोग्राम हो तो अपने दोस्तों को साथ ले कर जाएं. अपने नए दोस्त के सुखदुख के साथी बनें. दोस्ती में जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग आदि का भेद न पालें, तभी दोस्ती निभ पाएगी.

भारत में जुलाई से शुरू होने जा रही है बिकिनी एयरलाइन्स

वियतनाम की VietJet एयरलाइन अपने नाम से ज्यादा ‘बिकिनी एयरलाइन’ के नाम से जानी जाती है. ये एयरलाइन जल्द ही अपनी सेवा भारत से शुरू करने जा रही है. एयरलाइन ने ऐलान किया है कि उनकी फ्लाइट्स नई दिल्ली से वियतनाम के Chi Minh City तक शुरू होगी. इस सेवा की इसी साल जुलाई या अगस्त के बीच शुरू होने की उम्मीद है. इसकी फ्लाइट्स नई दिल्ली से हफ्ते में 4 दिन उड़ान भरेगी. आपको बता दें कि ये एयरलाइन सेक्सीएस्ट मार्केटिंग तिकड़म के लिए जानी जाती है. इसे वुमन एंटरप्रेन्योर Nguyen Thi Phuong Thao चलाती हैं.

किसने चुना एयरलाइन का ड्रेस कोड

एयरलाइन की एयरहोस्टेस का ड्रेस कोड CEO ‘Nguyen Thi Phuong Thao’ ने चुना है. बता दें कि वे वियतनाम की पहली बिलियन एयर महिला हैं. हाल ही में ये एयरलाइन फुटबौल टीम के वेलकम में एयरहोस्टेस को Lingerie पहनाने के लिए चर्चा में रही थी.

विवादित एयरलाइन में से एक

एयरलाइन दुनिया की सबसे विवादास्पद एयरलाइनों में से एक है. क्योंकि, कुछ देश बिकनी होस्टेस की अवधारणा के खिलाफ हैं और विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में इसका संचालन निश्चित रूप से हंगामा खड़ा कर देगा.

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VietJet वियतनाम की पहली प्राइवेट एयरलाइन

आपको बता दें, VietJet वियतनाम से औपरेट होने वाली पहली प्राइवेट एयरलाइन है. 2017 में कपंनी ने 1.7 करोड़ यात्रियों को सफर कराया था. इससे एयरलाइन को कुल 986 मिलियन डौलर यानी 64 अरब रुपए से ज्यादा की आय हुई थी. जो कि 2016 के मुकाबले 41.8 फीसदी ज्यादा थी.

60 रूट्स पर है औपरेशंस

ताजा आंकड़ों के मुताबिक, VietJet के विमान अभी घरेलू और विदेश में करीब 60 रूट पर औपरेट होता है. 2023 तक कंपनी का लक्ष्य 200 एयरक्राफ्ट अपने बड़े में शामिल करने का है. एयरलाइंस ने अपनी पहले कमर्शियल फ्लाइट दिसंबर 2011 में शुरू की थी. लेकिन, अपने बिकनी कन्सेप्ट और एयर होस्टेसेस के ड्रेस कोड के कारण कम समय में ज्यादा उपलब्धि हासिल की और देश की दूसरी सबसे बड़ी एयरलाइन बन गई.

सोशल मीडिया पर हुई थी किरकिरी

साल के शुरुआत में Vietjet की ओछी मार्केटिंग के लिए सोशल मीडिया पर जमकर किरकिरी हुई थी. एयरलाइन ने फुटबौल टीम के वेलकम के लिए एयरहोस्टेस को स्वीमिंग कौस्ट्यूम्स में भेजा था. हालांकि, एयरलाइन ने एयर होस्टेस को बिकनी पहनाकर शुरुआत में सुर्खियां बटोरी थीं. लेकिन, ज्यादातर सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर उसके इस तरीके को गलत बताया गया था.

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