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यौन उत्पीड़न के खिलाफ बात करने वाली लघु फिल्म ‘‘नीतिशस्त्र’’ करके खुश हैं तापसी

बौलीवुड में कलाकार स्वयं अपने निर्णय से ही किसी न किसी एक खास तरह की ईमेज में खुद को कैद करता जाता है. ऐसा ही अब तापसी पन्नू कर रही हैं. यौन उत्पीड़न की बात करने वाली फिल्म ‘‘पिंक’’ में अमिताभ बच्चन जैसे महान कलाकार के साथ अभिनय कर शोहरत बटोरने वाली अदाकारा तापसी इन दिनों इसी तरह के विषयों को प्रधानता दे रही हैं.

यह कोई कपोल कल्पित बात नहीं है. वास्तव में तापसी पन्नू खुद को लघु फिल्मों से दूर रखती आयी हैं. मगर जैसे ही फिल्मकार कपिल वर्मा उनके पास यौन उत्पीड़न व बलात्कार की कहानी वाली लघु फिल्म ‘‘नीतिशस्त्र’’ का आफर लेकर पहुंचे, वैसे ही तापसी पन्नू इस फिल्म का हिस्सा बनने का निर्णय ले लिया.

खुद तापसी पन्नू कहती हैं- ‘‘मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे लघु फिल्म करनी है. लेकिन जैसे ही निर्देशक कपिल वर्मा ने मुझे लघु फिल्म ‘‘नीतिशस्त्र’’ की पटकथा सुनाई, मैंने निर्णय कर लिया कि मैं यह फिल्म करुंगी. इस फिल्म का कथानक मेरी दो सफल फिल्मों “पिंक” और “नाम शबाना” के इर्द गिर्द घूमता है. इस फिल्म की कहानी यौन उत्पीड़न और बलात्कार की है. इसलिए मैंने हामी भरी. इस फिल्म के एक्शन दृष्यों के लिए दो दिन का प्रशिक्षण लिया. फिर तीन दिन की शूटिंग की. इस लघु फिल्म में मेरे साथ विक्की अरोड़ा है.’’

विराट कोहली को मिलेगा इस महान क्रिकेटर से जुड़ा खास सम्मान

टीम इंडिया के कप्तान विराट कोहली भले ही इस आईपीएल में अपनी टीम को प्लेऔफ तक में न पहुंचा सके हैं लेकिन इससे उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है. पिछले दो सीजन में शानदार प्रदर्शन के लिए विराट कोहली को सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खिलाड़ी के लिए पौली उमरीगर पुरस्कार के सम्मानित किया जाएगा. भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) द्वारा 12 जून को बेंगलुरू में आयोजित होने वाले समारोह में कोहली को सम्मानित किया जाएगा. बीसीसीआई ने गुरुवार को इसकी जानकारी दी.

बीसीसीआई पुरस्कार समारोह में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शानदार प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों को सम्मानित किया जाता है. इस समारोह में जहां एक ओर कोहली को पुरुष वर्ग में सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा, वहीं हरमनप्रीत कौर और स्मृति मंधाना को महिला वर्ग में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 2016-17 और 2017-18 सीजन में शानदार प्रदर्शन के लिए सम्मानित किया जाएगा.

बीबीसीआई अपने महान अध्यक्ष रहे दिवंगत जगमोहन डालमिया के सम्मान में चार वर्गो में पुरस्कार देगा. इसमें जगमोहन डालमिया ट्रौफी, अंडर-16 विजय मर्चेट ट्रॉफी, बेस्ट जूनियर और महिला वर्ग में सीनियर क्रिकेटर पुरस्कार शामिल है.

इस मौके पर बीसीसीआई के कार्यकारी अध्यक्ष सी. के.खन्ना ने कहा, “बोर्ड का वार्षिक पुरस्कार समारोह एक ऐसा पल होता है, जहां इस खेल के पूर्व दिग्गज, वर्तमान की पीढ़ी और आने वाले समय के सितारे एक ही छत के नीचे मौजूद होते हैं. यह उन खिलाड़ियों का आभार जताने का एक माध्यम है, जिन्होंने अपने कौशल और कड़ी मेहतन से इस खेल को और भी बेहतरीन बनाया है.”

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यह पहली बार नहीं है कि विराट कोहली को यह पुरस्कार दिया जा रहा है. इससे पहले विराट को साल 2011-12 और साल 2014-15 के लिए भी इसी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. इस तरह इस पुरस्कार को तीसरी बार पाने वाले वे पहले भारतीय हो गए हैं.

कौन हैं ये पौली उमरगीर

28 मार्च 1926 को जन्मे पाहलन रतनजी उमरगदीर भारतीय क्रिकेट के बेहतरीन बल्लेबाज और कप्तान थे. 1955 से लेकर 1958 तक भारत के लिए उन्होंने 8 मैचों में कप्तानी की थी. उन्होंने कुल 59 टेस्ट मैचों में उन्होंने 3631 रन बनाए  जिसमें 12 शतक शामिल थे. वे भारत के लिए दोहरा शतक लगाने वाले पहले पहले बल्लेबाज थे. उमरगीर बल्लेबाजी के साथ मध्यम तेज और स्पिन गेंदबाजी भी किया करते थे.

क्यों दिया जाता पौली के नाम पर यह पुरस्कार

सक्रिय खेल से रिटायर होने के बाद उमरीगर 1970 में भारतीय टीम के मैनेजर भी रहे थे. वे 1978 और 1982 तक भारतयी क्रिकेट चयन समिति के चेयरमेन भी थे. वे बीसीसीआई के सचिव पद पर भी रह चुके हैं. 1962 में पद्मश्री और 1898-99 में सीके नायडू ट्रौफी से नवाजे जा चुके उमरीगर क्रिकेट कोचिंग पर किताब भी लिख चुके हैं और वानखेड़े स्टेडियम के पिच क्यूरेटर भी रह चुके हैं. साल 2006 में जब बीसीसीआई ने अपने अवार्ड देने की शुरुआत की तो सर्वश्रेष्ठ अंतरारष्ट्रीय क्रिकेटर का पुरस्कार उनके नाम पर ही दिया जाना तय किया गया. इसमें एक ट्रौफी औप 5 लाख रुपये की नगद राशि प्रदान की जाती है.

पहला पौली उमरगीर पुरस्कार सचिन तेंदुलकर को दिया गया था. इसके बाद वीरेंद्र सहवाग, गौतम गंभीर, राहुल द्रविड़, आर अश्विन, और भुवनेश्वर कुमार को भी इस पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है.

तो क्या इस वजह से अंडर 19 टीम में सलेक्ट हुए अर्जुन तेंदुलकर

भारत के महान क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर के बेटे और मुंबई के क्रिकेटर अर्जुन तेंदुलकर एक बार फिर सुर्खियों में हैं. उन्हें अगले महीने श्रीलंका दौरे के लिए जाने वाली अंडर 19 टीम के लिए शामिल किया गया है. अर्जुन श्रीलंका में चार दिवसीय क्रिकेट मैच खेलेंगे. अर्जुन तेंदुलकर के बारे में अगर आप केवल यह जानते हैं कि वे सचिन तेंदुलकर के बेटे हैं तो आपके पास जानने के लिए काफी कुछ है. जी हां अर्जुन केवल अपने पिता की वजह से ही खबरों में नहीं रहते वे कई वजहों से सुर्खियों में रह चुके हैं. बेशक उनके बारे में दिलचस्पी लोगों में भले ही उनके पिता की वजह से हो लेकिन वे अपनी खुद की हस्ती बनाने में बहुत आगे बढ़ चुके हैं.

अंडर कूच बिहार ट्रौफी में किया था बेहतरीन प्रदर्शन

अंडर 19 कूच बिहार ट्रौफी इंटर स्टेट क्रिकेट टूर्नामेंट में शानदार गेंदबाजी करते हुए मुंबई टीम के लिए रेलवे के खिलाफ खेलते हुए पांच विकेट झटके थे. अर्जुन  ने 11 ओवर में 44 रन देकर पांच विकेट लिए जिसकी बदौलत मुंबई ने रेलवे को एक पारी ओर 103 रनों से हराने में कामयाबी हासिल हुई. असम के खिलाफ भी अर्जुन अपनी टीम को जीत दिला चुके हैं. जिसके चलते वह असम को एक पारी और 154 रनों से पराजित कर पाए. अर्जुन ने दूसरी पारी में 15 ओवरों में 44 रन देकर 4 विकेट लिए थे. उससे एक महीने पहले अर्जुन ने मध्य प्रदेश के खिलाफ इसी टूर्नामेंट में 5 विकेट लिए थे.

अर्जुन को कई बार टीम इंडिया के साथ नेट प्रैक्टिस करते देखा गया है. उन्हें टीम इंडिया के हेड कोच रवि शास्त्री और गेंदबाजी कोच भरत अरुण भी गेंदबाजी करते देख चुके हैं. पिछले साल ही अर्जुन ने भारत और न्यूजीलैंड के बीच हुई तीन एक दिवसीय मैचों की सीरीज के पहले वानखेड़ स्टेडियम में टीम इंडिया के साथ नेट पर देखा गया था. इसके अलावा अर्जुन तब भी खबरों में आए थे जब वे लौर्ड्स में इंग्लैंड की टीम को नेट प्रैक्टिस करा रहे थे जिसे दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ खेलना था. उस दौरान अर्जुन की गेंद पर जौनी बेयरस्टौ चोटिल हो गए थे. अर्जुन तेंदुलकर ने उस समय भी सुर्खियां बटोरी थी, जब वह इंग्लैंड के खिलाफ विश्व कप फाइनल से पहले भारतीय महिला क्रिकेट टीम के नेट गेंदबाज बने थे.

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विदेश में भी छोड़ चुके हैं अपनी छाप

इस साल के शुरुआत में ही अर्जुन ने औस्ट्रलिया में स्प्रिट औफ ग्लोबल चैलैंज में भाग लेते हुए सिडनी क्रिकेट ग्राउंड पर गेंद और बल्ले दोनों से शानदार प्रदर्शन किया था. टी20 मैच में भारत के क्रिकेटर्स क्लब की ओर से बतौर ओपनर खेलते हुए अर्जुन ने अपने धुंआधार प्रदर्शन से केवल 27 गेंदों पर 48 रन बनाए थे और शानदार गेंदबाजी करते हुए उन्होंने चार विकेट भी झटके थे.

अर्जुन ने मैच के बाद कहा, “ मैं बचपन से ही तेज गेंदबाजी को पसंद करता रहा हूं. मुझे लगा कि भारत में तेज गेंदबाज ज्यादा नहीं है. बड़े होने के साथ साथ में मजबूत भी हो रहा हूं मैं भारत के लिए एक तेज गेंदबाज के रूप में पहचान पाना चाहता हूं.”

पिता का अधूरा सपना पूरा करने की ओर

सचिन ने क्रिकेट में वो सभी मुकाम हासिल कर लिए जो उनके सामने आए, लेकिन एक सपना जो सचिन का क्रिकेट में था वो नहीं पूरा हो पाया और उन्होंने क्रिकेट को अलविदा कह दिया. दरअसल, सचिन बल्लेबाज नहीं, तेज गेंदबाज बनना चाहते थे. इसीलिए वह मुंबई से चेन्नई एमआरएफ पेस एकेडमी जा पहुंचे, लेकिन वहां पूर्व औस्ट्रेलियाई तेज गेंदबाज डेनिस लिली ने उनकी चाहत को खारिज कर दिया. और उन्हें बल्लेबाज बनने की सलाह दी. सचिन की हाइट छोटी थी, जिसकी वजह से लिली ने उन्हें  सलाह दी कि तुम बल्लेबाजी पर पूरा ध्यान क्यों नहीं लगाते..? और यहीं से सचिन के क्रिकेट जीवन की शुरुआत हुई, जिसे बाद में दुनिया ने ‘मास्टर ब्लास्टर’ का नाम दिया.

सचिन की जिंदगी में शायद यही एक अधूरा सपना था, लेकिन शायद यह किस्मत का खेल ही है कि उनका बेटा अर्जुन तेंदुलकर उनके इस सपने को पूरा करने का जरिया बना है. अर्जुन एक तेज गेंदबाज हैं और शानादार गेंदबाजी कर रहे हैं.

बेन स्टोक्स और मिचेल स्टार्क हैं अर्जुन के रोल मौडल

सचिन तेंदुलकर आज भी युवा पीढ़ी के आदर्श हैं, लेकिन अर्जुन के आदर्श उनके पिता नहीं बल्कि कोई और हैं. अर्जुन तेंदुलकर इंग्लैंड के औलराउंडर बेन स्टोक्स और औस्ट्रेलियाई तेज गेंदबाज मिचेल स्टार्क को अपना रोल मौडल मानते हैं. बता दें कि बेन स्टोक्स वहीं खिलाड़ी हैं जो हाल ही में कई विवादों में फंसे रहे हैं.

जब सचिन से पूछा गया कि क्या अर्जुन दूसरा सचिन साबित होगा, तो उन्होंने कहा, नहीं, उसे अर्जुन ही रहना चाहिए. उसकी तुलना किसी से नहीं होनी चाहिए. वह अर्जुन ही रहना चाहिए. सचिन ने कहा, मैं चाहूंगा अर्जुन अपने गेम पर फोकस करे. मीडिया प्रेशर की चिंता उसे नहीं होनी चाहिए. ये सब चीजें होंगी, लेकिन उसे अपने गेम और पेशन पर ही फोकस होना चाहिए. मैं चाहूंगा जो चीज मैंने अपने पिता से सीखी है, चाहे जो हो, आप अपने गेम पर फोकस रखें. ये सब चीजें तो होती ही रहेंगी. सचिन चाहते हैं कि उनका बेटा अपनी राह खुद बनाए

पतंजलि ने भी अपनाया अधिग्रहण का नुस्खा

योग की दुकान को फर्राटे से दौड़ाने के बाद रामदेव ने कारोबार की दुनिया में कदम रखा और दैनिक उपयोग का सामान बनाने वाली कंपनी पतंजलि आयुर्वेद का गठन किया. पतंजलि का सालाना कारोबार जबरदस्त प्रगति कर रहा है. हर घर में इस्तेमाल होने वाले तेल, साबुन, दंतमंजन, बिस्कुट आदि सभी उपयोगी सामान बनाने वाली रामदेव की कंपनी ने अब कारोबार जगत के अधिग्रहण का नुस्खा भी अपना लिया है और इस के लिए उस ने दिवालिया हो चुकी इंदौर की कंपनी रुचि सोया के अधिग्रहण के लिए अडाणी विल्मर, इमामी एग्रोटेक और गोदरेज एग्रोवेट जैसी प्रमुख कंपनियों से ज्यादा बोली लगाई है.

रामदेव ने इस कंपनी के लिए 4 हजार करोड़ रुपए की सर्वाधिक बोली लगाई है. रुचि सोया घाटे में चल रही है और उस पर 12 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का कर्ज हो चुका है. रुचि सोया कंपनी के मालिकों के कई विनिर्माण संयंत्र हैं और न्यूट्रेला, महाकोष, सनरिच, रुचि स्टार आदि उस के प्रमुख ब्रैंड बाजार में ग्राहकों को लुभाते हैं.

रामदेव का यह पहला कारोबारी अधिग्रहण है. वे अपनी कंपनी के खुद ही ऐंबैसेडर हैं और अपने उत्पादों का प्रचार करते हैं.

लालू और भाजपा में पक रही सियासी खिचड़ी?

बिहार के सियासी हलकों में यह खुसुरफुसुर तेज होने लगी है कि सीबीआई के फंदे से छुटकारा पाने और नीतीश कुमार को दगाबाजी का सबक सिखाने के लिए लालू प्रसाद यादव भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाने के मूड में हैं. इस कयास को कुछ ताकत इस बात से भी मिल रही है कि नीतीश कुमार भी भाजपा से अलग कोई गठबंधन बनाने की कोशिशों में लग गए हैं.

पिछले दिनों राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के 2 घटक दलों के मुखिया रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा से मुलाकात कर उन्होंने इन अटकलों को बल दे दिया है. साथ ही, नीतीश कुमार ने प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे अशोक चौधरी को उन के दलबल के साथ अपनी पार्टी में शामिल कर लिया?है. वे इस कोशिश में लगे हैं कि अगर लालू और भाजपा के मिलने की अटकलें सच साबित हो जाएंगी तो वे किसी भी तरह से अपनी सरकार और साख बचाने में कामयाब हो जाएंगे. अगर भाजपा और राजद की सीटों और वोट फीसदी पर गौर करें तो पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा को 53 सीटों के साथ 24.4 फीसदी वोट मिले थे वहीं राजद को 80 सीटें और 18.4 फीसदी वोट मिले थे. 80 सीटों के साथ राजद के सिर पर सब से बड़ी पार्टी होने का सेहरा बंधा था.

इस हिसाब से भाजपा और राजद के मिलन से 133 सीटें हो जाती हैं. 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में बहुमत पाने के लिए 123 सीटों की दरकार होती है. ऐसे में किसी और छोटेमोटे दल को शामिल किए बगैर आराम से सरकार चल सकती है. जनता दल (यूनाइटेड) को

16.8 फीसदी वोट मिले थे और उस के खाते में 71 सीटें आई थीं. कांग्रेस के हाथ में 27 सीटें हैं और उसे 6.7 फीसदी वोट मिले थे. रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी को 2 सीटें और 4.8 फीसदी वोट मिले थे, जबकि उपेंद्र कुशवाहा के रालोसपा को 2 सीटों के साथ 2.6 फीसदी वोट हासिल हुए थे. इस आंकड़े के हिसाब से कांग्रेस, लोजपा और रालोसपा के साथ सरकार बनाना नीतीश कुमार के लिए खासा मुश्किल काम है.

ऊपरी तौर पर तो लालू प्रसाद यादव और भाजपा का मिलन नामुमकिन सा दिख रहा है, पर नेताओं के मिलनेबिछुड़ने का पिछला रिकौर्ड बताता है कि राजनीति में कुछ भी नामुमकिन नहीं होता है और न ही कोई दोस्ती या दुश्मनी हमेशा के लिए होती है. हालात और फायदे के लिहाज से रिश्ते बनतेबिगड़ते रहे हैं. लालू प्रसाद यादव और भाजपा के मिलने की अटकलों को सिरे से खारिज करने वालों को यह याद रखना चाहिए कि साल 1990 में जब लालू प्रसाद यादव पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे तब उन्होंने भाजपा की मदद से ही सरकार बनाई थी.

अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव को ले कर बिहार में राजग और बाकी दलों में उठापटक का दौर चालू हो गया है. हर नेता अगले आम चुनाव में कामयाबी पाने के लिए गुणाभाग करने में लग गया है. इस से साफ है कि जैसेजैसे चुनाव नजदीक आएंगे वैसेवैसे बिहार में गठबंधनों की नई कोशिशें परवान चढ़ेंगी और उन का कोई नया और हैरान करने वाला चेहरा देखने को मिल सकेगा. लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद की अगुआई में बने महागठबंधन को पहले नीतीश कुमार ने और उस के बाद कांग्रेस के एक गुट ने जोर का झटका दिया है. वहीं राजग के एक घटक दल हिंदुस्तानी अवाम मोरचा के सुप्रीमो जीतनराम मांझी ने राजग को बायबाय कर दिया. रालोसपा के मुखिया और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने एम्स में लालू प्रसाद यादव से मुलाकात कर राजग में तूफान ला दिया है.

उपेंद्र कुशवाहा ने इस मुलाकात को शिष्टाचार मुलाकात बताया है. पर इतिहास गवाह है कि सियासत में शिष्टाचार मुलाकात के कई अर्थ और अनर्थ होते हैं. गौरतलब है कि तकरीबन 3 महीने पहले उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने पटना के गांधी मैदान में ‘शिक्षा बचाओ रैली’ का आयोजन किया था, जिस में राजद के कई नेताओं ने शामिल हो कर सियासी उलटफेर होने के संकेत दे दिए थे.

नरेंद्र मोदी की घटती लोकप्रियता के बीच राजग में ऊहापोह की खिचड़ी पकने लगी है. लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान भी बदलते मौसम के हिसाब से करवट बदलने के मूड में हैं और राजग को घुड़की देने लगे हैं. कांग्रेस का एक नाराज खेमा पहले के पार्टी मुखिया रह चुके अशोक चौधरी की अगुआई में नीतीश कुमार का दामन थाम चुका है तो हिंदुस्तानी अवाम मोरचा के प्रदेश अध्यक्ष नरेंद्र सिंह ने एक बार फिर नीतीश कुमार की पार्टी का झंडा थाम लिया है. इस उठापटक के बीच नीतीश कुमार को राजद का एक दिलचस्प न्योता मिला है. महागठबंधन को लात मार कर भाजपा की गोद में जा बैठने के बाद नीतीश कुमार को पलटूराम करार देने वाले राजद नेताओं ने नीतीश कुमार को फिर से महागठबंधन में आने का खुला न्योता दे डाला है.

राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह ने नीतीश कुमार को मक्खनमलाई लगाते हुए उन्हें धर्मनिरपेक्ष दलों का बड़ा चेहरा करार दे डाला है. रघुवंश प्रसाद सिंह ने नीतीश कुमार को महागठबंधन में शामिल होने की गुहार लगाई है. उन्होंने साफतौर पर कहा कि राजनीति में कुछ भी नामुमकिन नहीं है. जब सभी गैरभाजपा दल एकजुट हो रहे हैं तो पुरानी बातों को भूल कर नीतीश कुमार को भी महागठबंधन में लौट आना चाहिए.

लोकसभा चुनाव 2019 को ले कर जद (यू) ने बिहार की सभी 40 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी करने का ऐलान कर अपने दोस्त भाजपा को चुनौती देने के साथ मुश्किलें खड़ी कर दी हैं. पिछले दिनों पार्टी की राज्य कार्यकारिणी की बैठक में जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार ने पार्टी संगठन को धारदार बनाने और बूथ लैवल तक उसे मजबूत करने पर जोर दिया. इस के साथ ही अगले 2 महीने के अंदर बूथ लैवल पर एजेंट बनाने का भी फरमान जारी किया.

फिलहाल राज्य में जद (यू) के 1 करोड़, 54 लाख सदस्य हैं. इस के साथ ही नीतीश कुमार ने बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ मुहिम चलाने के लिए भी नेताओं और कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया है. जद (यू) खुद को पार्टी विद डिफरैंस के तौर पर स्थापित करने में लग गई है. पिछले 13 सालों में नीतीश कुमार की अगुआई में हुए कामकाज को पार्टी जनता के बीच ले जाने की जुगत में है. वहीं पार्टी को ग्रासरूट लैवल तक मजबूत बनाने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं. पार्टी अपने वोटरों को यह समझाने में लगी है कि दूसरे दलों से गठबंधन करने के बाद भी उस के सिद्धांतों में कोई बदलाव नहीं आया है.

पिछले दिनों पार्टी की राज्य कार्यकारिणी की बैठक में खुद को दूसरे दलों से अलग साबित करने की रणनीति पर मंथन हुआ. पार्टी की नीतियों और सोच को जनता तक पहुंचाने के लिए डेढ़ लाख कार्यकर्ताओं को ट्रेंड किया जाएगा. पहले चरण में 15 हजार मास्टर ट्रेनर तैयार किए जाएंगे जो अपने जिलों, ब्लौकों और पंचायतों में टे्ट्निग देंगे. ट्रेनिंग पूरी होने के बाद सभी

534 ब्लौकों में जद (यू) कार्यकर्ताओं का सम्मेलन होगा. जद (यू) के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह ने बताया कि जद (यू) पार्टी सकारात्मक राजनीति में यकीन करती है और उन की पार्टी के लिए राजनीति केवल सत्ता पाने का औजार भर नहीं है.

इस बीच भाजपा नेता और उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने दावा किया है कि साल 2019 का लोकसभा चुनाव भाजपा और जद (यू) साथ मिल कर लड़ेंगे और नरेंद्र मोदी फिर प्रधानमंत्री बनेंगे. गौरतलब है कि फिलहाल बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 32 सीटों पर राजग का कब्जा?है. सुशील कुमार मोदी के इस दावे के बीच हकीकत यह है कि गठबंधन में अभी से ही खींचतान शुरू हो गई है. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने जहां अपनी पार्टी के नेताओं को फार्मूला दिया है कि पार्टी कार्यकर्ताओं की बूथ लैवल तक पैठ बनाई जाए, वहीं नीतीश कुमार ने अपने नेताओं और वर्करों को कह दिया है कि राज्य की सभी 40 लोकसभा सीटों पर पार्टी का जनाधार बढ़ाने के लिए वे पूरी ताकत झोंक दें.

भाजपा की गोद में बैठ कर भी नीतीश कुमार अपने धुर विरोधी नरेंद्र मोदी को परेशान करने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं. मोदी के गढ़ गुजरात में अपनी ताकत आजमाने और पैठ बनाने की नीयत से नीतीश कुमार ने पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी जद (यू) के 38 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, लेकिन किसी की जीत तो दूर सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी. दक्षिणी गुजरात के आदिवासी इलाकों पर नीतीश कुमार की नजर थी और उन्हें यकीन था कि वहां से उन की पार्टी को ज्यादा वोट मिल सकते हैं, पर ऐसा नहीं हो सका.

जद (यू) के अंदर भी पिछले एक साल से काफी घमासान मचा हुआ है. पिछले साल 26 जुलाई को जब नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव से नाता तोड़ कर भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाई थी तो उन की ही पार्टी के अध्यक्ष रह चुके शरद यादव और राज्यसभा सांसद अली अनवर ने उन के फैसले का विरोध किया था. इस वजह से पिछले अगस्त को जद (यू) ने शरद यादव को राज्यसभा में पार्टी के नेता पद से हटा दिया था. उस के बाद उन्हें उद्योग मामले की संसदीय समिति के अध्यक्ष पद से भी हटा दिया गया था. तब शरद यादव ने बगावती तेवरों को तेज करते हुए जद (यू) के चुनाव चिह्न ‘तीर’ पर अपना दावा ठोंका था, जिसे चुनाव आयोग ने ठुकरा दिया था. 17 नवंबर, 2017 को आयोग ने नीतीश कुमार को जद (यू) का राष्ट्रीय अध्यक्ष मानते हुए उन्हें पार्टी का चुनाव चिह्न ‘तीर’ रखने का निर्देश सुनाया था.

मीट उद्योग में होती है इतनी पानी की बरबादी, जान कर हैरान रह जाएंगे आप

प्रकृति से खिलवाड़ हम खुद ही कर रहे हैं, यह साफ है. जल्द ही वह समय आ जाएगा जब हर व्यक्ति के पास रोज का सिर्फ 1 बालटी पानी नहाने, पीने, खाना बनाने और यहां तक कि फसल उगाने तक के लिए नहीं बचेगा.

इस का बहुत बड़ा दोष मीट उद्योग पर जाता है. यह उद्योग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एकतिहाई ताजा पानी इस्तेमाल कर रहा है और इस उद्योग का उत्पादन 23 करोड़ मिट्रिक टन (2002 में) से बढ़ कर 2050 तक 46 करोड़ मिट्रिक टन हो जाएगा.

अगर दुनिया के हर देश में मीट इसी तरह खाया जाए जैसे अमेरिकी खाते हैं तो आज ही पानी न बचे. सारा मीट के उत्पादन में लग जाएगा.

पानी का बेजा इस्तेमाल

दुनिया भर में हर साल करीब 40 अरब जानवर मार कर खाए जाते हैं. उन में ज्यादातर चिकन है, क्योंकि 1 किलोग्राम चिकन 200 से भी कम में मिलता है. भारत में पिछले साल 270 करोड़ चिकन मार कर खाए गए थे. चिकन खाने वाले अपनेआप को दाल खाने वालों से ऊंचा समझते हैं न. चिकन उत्पादन में पानी का इस्तेमाल बहुत होता है.

मुरगियों को दाना खिलाने के लिए उगाना पड़ता है और पानी की इस के लिए जरूरत होती है. पोल्ट्री फार्म पानी गंदा भी करते हैं और यह गंदा पानी खेतों की सिंचाई में भी इस्तेमाल नहीं हो सकता. हर मुरगा कुल मिला कर 1 लिटर से ज्यादा पानी इस्तेमाल कर लेता है और इतना साफ पीने लायक पानी उत्तर भारत के कई गांवों में लोगों को मुहैया नहीं होता.

मुरगियों को मक्का, सोयाबीन, बाजरा, गेहूं, चावल आदि खिलाया जाता है और आमतौर पर 1 किलोग्राम दाल उगाने के लिए 1000 लिटर पानी की जरूरत होती है.

अगर चिकन फार्मों में न रख कर खुले में रखे जाएं तो उन की खपत 40% रह जाती पर यह उद्योगों को मंजूर नहीं है. वे खेतों में अधिक फर्टीलाइजर डलवाते हैं ताकि दाना जल्दी और बढि़या पैदा हो. 1000 मुरगियों के फार्म में हर रोज 400 लिटर पानी इस्तेमाल होता है. आधुनिक फार्मों में चिकन इस तरह सटेसटे रखे जाते हैं कि वे पर फैला कर भी गरमी दूर नहीं कर सकते. इसीलिए पानी के कूलर की हवा में रखे जाते हैं. पानी से ही उन की बीट साफ की जाती है. बारबार बरबाद होता पानी

मारने से पहले चिकन को पानी के टबों में नहलाया जाता है पर चूंकि चिकन पानी को बीट व पेशाब से गंदा करते रहते हैं, इसलिए बारबार पानी बदलना पड़ता है. पानी की ज्यादा जरूरत मारे गए चिकन के अंदरूनी हिस्सों को साफ करने के लिए पड़ती है. लगभग हर चिकन को मार कर खाने योग्य बनाने के लिए 35 लिटर पानी की जरूरत होती है. 238 को 35 से गुणा कर देखिए कि चिकन ही कितना पानी खराब कर जाते हैं. जब देश में किसानों और गांवों को पानी

न मिल रहा हो तो यह खपत भयावह हो जाती है. भारत में शाकाहारी खाने की बेहद विभिन्नताएं हैं. जहां 1 ग्राम चिकन प्रोटीन के लिए 38 लिटर पानी की जरूरत होती है, वहीं दालों के 1 ग्राम प्रोटीन को तैयार करने के लिए 19 लिटर पानी की जरूरत होती है और पानी खराब भी नहीं होता. अब खुद ही फैसला कर लें कि दुनिया को बचाने के लिए शाकाहारी बनना चाहिए या मांसाहारी.

धर्म के धंधेबाज इस तरह कायम रखे हुए हैं अपनी दुकानदारी

पिछले दिनों सामाचारपत्र में एक खबर छपी थी कि एक महाशय अपने पालतू तोते की मौत पर इतने दुखी हुए कि उन्होंने कफन मंगा कर तोते का अंतिम संस्कार किया. यही नहीं इस के बाद तोते की आत्मा की शांति के लिए उस की 13वीं पर सभी पड़ोसियों व रिश्तेदारों को बुला कर हवन और ब्रम्हभोज का आयोजन किया.

इस खबर को सुन कर एक बार को भी यह नहीं लगता कि इस सारे आयोजन में उस तोते के मालिक का अपने तोते से इतना प्रेम रहा होगा कि उस ने यह सब कर डाला. इस सारे ढकोसले से तो मात्र एक बात ही सामने आ रही है कि धर्म के ठेकेदारों को खुश करने और खुद को समाज में धार्मिक प्रवृत्ति का दिखाने के लिए तोते के अंतिम संस्कार और 13वीं का ढकोसला किया गया. इस बारे में बहुत से लोगों के विचार लिए गए.

ऐसे ढकोसले नई बात नहीं

कई बार पक्षियों और जानवरों के लिए भी लोग ऐसे ढकोसले करते हैं. बंदरों का भी ऐसे ही विधिवत मृत्यु संस्कार किया जाता है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि कुत्ते, भैंस आदि के साथ ऐसा क्यों नहीं किया जाता? क्योंकि वे धर्म से नहीं जुड़े होते?

इस बारे में पद्मा अग्रवाल बताती हैं, ‘‘बंदर के मरने पर उस की शवयात्रा को गाजेबाजे के साथ निकालने का प्रचलन है. इस पूरे आयोजन में वही लड़के बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं जो बेकार और निकम्मे होते हैं, क्योंकि बंदर की शवयात्रा के बहाने जो चंदा इकट्ठा होता है उस से उन के खुद के खानेपीने का आसानी से इंतजाम हो जाता है और समाज में उन पर धार्मिक होने का ठप्पा भी आसानी से लग जाता है.

‘‘तुलसी विवाह में पंडेपुजारी तुलसी को वधू मानते हुए जजमानों से जेवर और दक्षिणा वसूलते हैं, जजमानों के पैसे से ही प्रीतिभोज होता है. पंडे तुलसी के नाम पर दक्षिणा ऐंठ कर खुश होते हैं और लोग मानते हैं कि वे ऐसे आयोजनों में शामिल हो कर समाज में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ा रहे हैं.’’

रेनू श्रीवास्तव इस घटना के बारे में कहती हैं, ‘‘पालतू जानवरों से भावनात्मक रूप से जुड़ाव बहुत से लोगों में हो जाता है. अमेरिका जैसे देश में भी लोग अपने पालतू के मर जाने पर महीनों दुखी रहते हैं. लेकिन लोगों को दिखाने के लिए उन की मौत का ढकोसला नहीं करते.’’

मिनी ऐसी घटनाओं को पाखंडियों की चाल बताती हैं. वे कहती हैं, ‘‘हमारा देश अंधविश्वासों से भरा पड़ा है लोग इन सब में इतना अंदर तक घुस गए हैं कि अब निकलना मुश्किल लगता है. लोगों के दिमाग पर इन बाबाओं का ऐसा जादू छाया हुआ है कि अगर कोई उन के विरुद्ध कुछ कहता है तो लोग उसे ही नास्तिक और पागल कहने लगते हैं.’’

भावना भी इस बात का समर्थन करते हुए कहती हैं कि दरअसल हम मृत शरीर को दफना या जला कर मृत शरीर से फैलने वाले कीटाणुओं को रोकते हैं जो स्वच्छ वातावरण के लिए आवश्यक है. लेकिन आज पंडेपुजारियों ने स्वच्छता की प्रक्रिया को अनेक आडंबरों और रस्मों का चोला पहना कर लोगों को मूर्ख बनाने का साधन बना लिया है.

ऐसे आडंबरों में फंस कर आदमी व्यर्थ के दिखावों पर पैसे बरबाद करता है और पंडे अपनी जेब भरते हैं. जब तक लोग ऐसे ढोंगियों के जाल में फंसते रहेंगे तब तक ये धर्म के ठेकेदार अपनी दुकानें चलाते रहेंगे. लोग मूर्ख बन कर अपने प्रिय की मौत पर पैसा पानी की तरह बहाते रहेंगे. फिर चाहे वह प्रिय कोई व्यक्ति हो या फिर पशुपक्षी.

निकालना होगा धर्म का डर

विकास के लिए कौमनसैंस जरूरी मानने वाली पूनम अहमद मानती हैं कि आज लोग धर्म के मामले में कोई तर्क सुनना पसंद नहीं करते. लोगों का विश्वास धार्मिक आडंबरों पर इतना गहरा हो गया है कि उन्हें लगता है कि विशेष कर्मकांड करने से उन की समस्या सुलझ जाएगी. पंडोंमौलवियों पर लोग आंखें मूंद कर भरोसा करते हैं जबकि यही लोग चाहें तो अपनी समस्याओं को खुद सुलझा सकते हैं.

अंधविश्वास की धूल विवेक के दर्पण को धुंधला कर देती है. डर इंसान को कमजोर बनाता है जिस का फायदा हमेशा से धर्म के ठेकेदार उठाते आए हैं. हमें अपने अंदर से पहले धर्म का यह डर खत्म करना होगा. निडर इंसान एक बार ही मरता है जब कि कमजोर इंसान बारबार मरता है.

धर्म की भेड़चाल

सुधा कसेरा ऐसे धार्मिक कार्यक्रमों को भेड़चाल मानती हैं जहां लोग सिर्फ एकदूसरे के पीछे भागना जानते हैं और अपना विवेक कभी इस्तेमाल नहीं करते. वे अपनी आपबीती सुनाती हैं, ‘‘मैं धामिक कार्यक्रम में गई थी. जैसे ही भजनकीर्तन शुरू हुआ भीड़ में से एक औरत झूमने लगी. वहां बैठे लोगों में हलचल शुरू हो गई कि उस औरत के अंदर देवी आ गई हैं. सभी लोग उस के पैर छूने लगे, चढ़ावा चढ़ने लगा. वह औरत भी सभी को आशीर्वाद देने लगी. वह दृश्य मेरे लिए बड़ा हास्यास्प्रद था.

‘‘जब मैं ने उस के पैर छूने वाली महिलाओं से उन की इस श्रद्धा का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि सब छू रहे थे तो हम ने भी छू लिए. उन को भी उस के अंदर देवी आने का कोई विश्वास नहीं था, लेकिन कारण वही भेड़चाल वाला था, एक ने किया तो सभी बिना वास्तविकता जाने वही काम करने लगते हैं.’’

भेड़चाल की एक और घटना का जिक्र करते हुए गुजरात की मिनी बताती हैं कि जब वे गांव में रहती थीं तब वहां भी एक औरत पर देवी आती थी और वह गांव की महिलाओं को बेटा पैदा करने के उपाय बताती थी. जबजब उस पर देवी मां आती थीं उस के घर पर बेटे की चाह रखने वाले अंधभक्तों की भीड़ लग जाती. उस का भंडाफोड़ तब हुआ जब उस की ही बहू को लगातार 2 बेटियां हो गईं और वह कुछ न कर पाई.

आडंबर का कारण

आशा शर्मा मानती हैं कि पंडेपाखंडियों द्वारा दिखाया गया धर्म का डर अनायास ही पाखंड की शरण में धकेल देता है. लोग चाहे कितने भी तर्क कर लें पर एक अनचाहा डर लगा ही रहता है कि उन के साथ कुछ गलत न हो जाए. यही डर आप को आडंबर करने को उकसाता है.

एक बार की घटना बताते हुए वे कहती हैं, ‘‘मेरे एक दोस्त के घर लगातार 2 बार शौर्टसर्किट से आग लग गई. बातों ही बातों में किसी ने उस से कहा कि तुम्हारे सितारे कमजोर हैं, किसी पंडित को अपनी कुंडली दिखाओ. यह सुन कर मैं ने कहा कि पंडित को नहीं किसी इलैक्ट्रिशियन को अपने घर की वायरिंग दिखाओ. हालांकि उस ने इलैक्ट्रिशियन को वायरिंग दिखाई लेकिन साथ में पंडित को भी अपनी कुंडली दिखाना न भूला. यही धर्म का डर आप को आडंबर की तरफ ले जाता है.’’

प्रतिभाजी आशा शर्मा की बात से इत्तेफाक रखते हुए कहती हैं, ‘‘विपदाओं, समस्याओं से घिरे धर्मभीरु आदमी के मन में पंडेपुजारियों द्वारा ग्रहनक्षत्र और अंधविश्वास का इतना डर बैठा दिया जाता है कि उसे अपनी सारी समस्याओं का हल सिर्फ इन बाबाओं में ही नजर आता है. इसी कमजोर नस को पकड़ कर पंडेपुजारी अपना धर्म का व्यवसाय दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ा रहे हैं. जब तक आदमी अपने धर्मभीरु स्वभाव से मुक्त नहीं होगा इन पंडों का व्यवसाय बढ़ता ही जाएगा.’’

प्रतिभाजी अपना एक अनुभव बताते हुए कहती हैं, ‘‘एक बार बैंक से रिटायर मेरे चचेरे भाई एक पंडित को ले कर मेरे घर आए. पंडित ने मेरे घर का निरीक्षण करने के बाद मेरे घर का पानी भी नहीं पिया. जब जाने लगा तो मेरे पति से बोला कि बेटा मैं ने अपनी दिव्यदृष्टि से पूरे घर को देखा है. सब ठीक है लेकिन तुम्हारे घर के हौल के कोने में कुछ गड़बड़ है.

‘‘वहां एक आत्मा रहती है. तभी मैं ने तुम्हारे घर का पानी नहीं पिया. अगर जल्दी उस का कुछ इलाज न किया गया तो तुम्हारे घर पर कोई बड़ी विपदा आ जाएगी. तुम बिटिया से कहना कि

40 दिन तक बाल खोल कर 6 मुंह के आटे का दिया रोज वहां जलाए. इस के बाद मैं आ कर सब ठीक कर दूंगा. पति ने जब सारी बातें मुझे बताई तब मैं ने उन बातों को सिरे से बकवास करार दिया. उस घटना को हुए आज 4 साल बीत गए हैं और मैं अपने परिवार के साथ पूर्णतया खुश हूं.’’

पढ़ेलिखे लोग ज्यादा ग्रस्त

जीवित रहते हुए भी और मरने के बाद भी तरहतरह के भय से ग्रसित लोग हमेशा पंडों की जेबें भरते रहते हैं. गीता यादवेंदु कहती हैं कि जब भी हम टहलने के लिए बाहर जाते हैं, सड़क के किनारे और घरों के कोनों में छोटेछोटे घेरे बने हैं जिन में शिवलिंग के साथ दीपक रखने की जगह भी बनी है. जब इन जगहों के बारे में पूछा तो पता चला कि इन्हें पंडितजी के आदेश पर अच्छाखासा खर्च कर के बनवाया गया है.

‘‘बनवाने की वजह भी बड़ी हास्यास्प्रद थी. उन्होंने बताया कि उन के परिवार के मृत लोगों की आत्माओं के लिए ये स्थान बनाए गए हैं. इन के बनने से उन की आत्माएं भटकेंगी नहीं. ऐसा मानने वालों में सब से ज्यादा संख्या उन लोगों की थी जो अच्छेखासे पढ़ेलिखे थे. वे भी विज्ञान के तर्क और सिद्धांत को दरकिनार कर पंडेपुजारियों के बहकावे में आते हैं.

आडंबरों के बारे में रीटा गुप्ता बताती हैं कि मेरी ससुराल बिहार में है जहां मृत आत्माओं की शांति के लिए गया में पंडों द्वारा पिंडदान करवाया जाता है. पंडे जजमानों को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ते. अपने मातापिता की आत्मा की शांति के लिए एक से एक पढ़ेलिखे विदेशी भारतीय भी इन आडंबरों को निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ते. जब पढ़ेलिखे लोग ही इन आडंबरों के मायाजाल में घिरे नजर आते हैं तो अनपढ़ लोगों की बात ही क्या की जाए.

जिंदा होते सुध नहीं मरने के बाद दिखावा बुजुर्गों के हालात पर गीता यादवेंदु का मत है कि आजकल अपेक्षा और अपनों के दूर जाने के अभाव में बुजुर्गों को अकेले रहना पड़ रहा है. जिस उमर में उन्हें किसी सहारे की जरूरत थी उस समय अकेले रहते हुए कई बार वे गिर जाते हैं जिस से उन की हड्डी तक टूट जाती है. परिवार वाले दिखावे के लिए उन की तीमारदारी तो करते हैं कि लोग देख सकें कि कितनी सेवा की है उन्होंने. लेकिन अगर उन्होंने यही देखभाल पहले की होती तो उन्हें अंतिम समय पर इस असहनीय कष्ट से न गुजरना पड़ता.

मनुष्य को बचपन में ही धर्म की घुट्टी पिला दी जाती है, जो उसे बड़ा होने पर धर्मभीरु बना देती है. कभी ईश्वर को प्रसन्न रखने, कभी भूतप्रेत, चुड़ैलों का डर दिखा कर तो कभी देवीदेवताओं के क्रोधित होने का डर दिखा कर आम लोगों को मूर्ख बनाने का काम आज से नहीं सदियों से हो रहा है. आज जरूरत सोच को बदलने की है जो ऐसे आडंबरों, ढकोसलों को सिरे से खारिज करे.

अंधविश्वास और धर्म हमेशा शोषण को बढ़ावा देता है. अत: इन के विरुद्ध ऐसे सशक्त कानून की आवश्यकता है जो समाज और धर्म की दुकानें चला कर लोगों को लूटने वाले पाखंडियों के लिए डर का काम करे.

महिलाओं की तरक्की आखिर कैसे हो पक्की

बचपन से ही जहां लड़कों को खिलौने वाली कारें और वीडियो गेम्स गिफ्ट किए जाते हैं, वहीं लड़कियों के लिए गिफ्ट के रूप में पहली पसंद गुडि़या होती है. बड़ी होने पर भी समाज की नजर में लड़कियां/महिलाएं रसोईघर में ही शोभा देती हैं. घरपरिवार और रसोई की दहलीज के आगे की अदृश्य दीवार हमेशा उन्हें आगे बढ़ने से रोकती रही है.

वक्त के साथ महिलाएं इन अदृश्य दीवारों यानी ग्लास सीलिंगरूपी अड़चनों और रुकावटों को भेद कर आगे बढ़ने का जज्बा दिखाती रही हैं. मैरी कौम हों या फायर फाइटर हर्सिनी कान्हेकर, जिन क्षेत्रों के लिए समाज महिलाओं को पूरी तरह अनफिट मानता था उन्हीं क्षेत्रों में अपनी जीत का परचम लहरा कर इन्होंने ग्लास सीलिंग को चुनौती दी. हाल ही में देश की 3 पहली महिला फाइटर्स अवनि चतुर्वेदी, भावना कंठ और मोहना सिंह ने लड़ाकू विमान उड़ा कर रिकौर्ड बनाया.

एक अदृश्य दीवार

महिलाएं आज जीवन के हर क्षेत्र में बड़ी से बड़ी जिम्मेदारी वाले पदों पर काबिज हो रही हैं. जरमन चांसलर ऐंजेला मार्केल हों, फेसबुक चीफ औपरेटिंग औफिसर शेरिल हों या फिर अमेरिका की डैमोक्रेटिक प्रैसिडैंशियल नौमिनी हिलेरी क्लिंटन, ये सब दुनिया के सब से प्रभावशाली पदों पर रह चुकी हैं.

यह बात अलग है कि आज भी महिलाओं को वह प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त करने में बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती है, जो समान रूप से योग्य इन के पुरुष साथियों को सहज ही उपलब्ध है. सफलता की राह की इस अदृश्य दीवार पर दरारें जरूर पड़ी हैं, मगर अभी भी इस का पूरी तरह से टूटना बाकी है.

पुरुष मानसिकता

दुनिया के सब से ताकतवर देश अमेरिका के लिए 2016 खासतौर पर महिलाओं के लिए ऐतिहासिक था. हिलेरी क्लिंटन अमेरिका के राष्ट्रपति पद के लिए पहली महिला उम्मीदवार चुनी गईं. उन के नामांकन के दौरान यह देखा गया कि समाज में बतौर नेता महिलाओं को ले कर अविश्वास, रुकावटें और प्रतिबंध जैसी चीजें पूरी तरह से खत्म नहीं हुई हैं. इस आग को भड़काने का काम इंटरनैट और सोशल मीडिया पर चल रही टिप्पणियों ने किया, जिन का निशाना स्त्री होने के नाते हिलेरी थीं.

प्रैसिडैंशियल डिबेट के दौरान जब हिलेरी मंच पर थीं तो उन के प्रतिद्वंद्वी डोनाल्ड ट्रंप ने उन्हें 51 बार टोका. यह एक पुरुष मानसिकता ही थी. दरअसल, यह पुरुषों की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वे महिलाओं पर अपनी सर्वोच्चता दिखाने के लिए इस तरह का व्यवहार करते हैं.

विडंबना यह है कि भेदभाव सिर्फ प्रबुद्घ या ऊंचे पदों पर काबिज महिलाओं तक ही सीमित नहीं है, साधारण औफिसों में काम करने वाली महिला कर्मचारियों के साथ भी ऐसा व्यवहार सामान्य है. यह उन महिलाओं के लिए भी अपवाद नहीं है जिन की होममेकर (गृहिणी) की तुलना में ज्यादा बेहतर शैक्षणिक पृष्ठभूमि होती है.

असुरक्षा की भावना

इस संदर्भ में लेखिका स्वाति लाहोरी अपना अनुभव सुनाते हुए कहती हैं, ‘‘एमए (इंग्लिश) तक की पढ़ाई मैं ने शादी से पहले और एमबीए शादी के बाद की. मेरी पहली जौब एक सौफ्टवेयर कंपनी में लगी थी. यहां मेरा इमीडिएट बौस मुझ से सिर्फ इसलिए अपसैट रहता था, क्योंकि मेरा किताबी ज्ञान उस से कहीं ज्यादा था. मैं मार्केटिंग में ट्रेनी थी और वह जनरल मैनेजर. एक मीटिंग में वाइस प्रैसिडैंट ने एनपीए का जिक्र किया तो जीएम साहब को इस की कोई जानकारी नहीं थी. जब सुपर बौस के आगे मैं ने बताया कि इस का अर्थ ‘नौन परफौर्मिंग एसेट्स’ होता है तो उन के अहम को चोट पहुंच गई. दूसरे बहानों से उन्होंने मुझे जी भर कर जलीकटी सुनाई.

‘‘ऐसी घटनाएं और भी कई बार हुईं. मुझे लगता था कि वे अपने जूनियर के ज्ञान से खुश होंगे, मगर उन के अंदर असुरक्षा की भावना पनपने लगी थी. थोड़े समय में ही उन्होंने अपने सीनियर को समझा लिया कि उन्हें मेरी आवश्यकता नहीं है. नतीजतन मुझे कंपनी सैक्रेटरी के मातहत ऐग्रीमैंट बनाने और डेटा ऐंट्री जैसे क्लर्कों के काम दिए गए. मैं उस ग्लास सीलिंग को नहीं देख पा रही थी, जो मुझे तरक्की नहीं करने दे रही थी.

‘‘ग्लास सीलिंग से दोबारा मेरा वास्ता तब पड़ा जब मैं ने एक मशहूर एड एजेंसी जौइन की. मुझे लगता था कि ऐसी जगह सिर्फ अच्छे काम की कद्र होती है और इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप की उम्र क्या है या आप स्त्री हैं या पुरुष. लेकिन मैं गलत थी. उम्र में अपने से 10-12 साल छोटे बौस को अपना काम दिखाना, अच्छा काम होने के बावजूद उन की फटकार सुनना और अपने आइडियाज को दूसरे के नाम से पेश किया जाना, ये सब मैं ने बरदाश्त किया ताकि मेरे कैरियर में एक ठहराव आ जाए.

‘‘पर अंत में मुझे नौकरी छोड़नी पड़ी. इतनी नाकामियों से उबरने का एक खूबसूरत मौका मुझे तब मिला जब मेरे बड़े बेटे ने आईआईटी की तैयारी शुरू की. यहां कोई ग्लास सीलिंग मेरी राह में रुकावट नहीं बन सकती थी. उस का डेली रूटीन तय करना, कोचिंग के उस के टीचर्स से मिल कर उस की तरक्की का ग्राफ समझना, बोर्ड में उसे अंगरेजी पढ़ाना इस सब का भरपूर आनंद लिया. कहते हैं न कि ज्ञान और योग्यता कभी न कभी काम आती ही है. मेरी मेहनत रंग लाई और बेटे ने जेईई में 944वां रैंक हासिल किया.

‘‘अपनी इस कामयाबी को मैं ने अपनी किताब ‘उस के पंखों की उड़ान’ में दर्ज किया है. वाकई कोई भी रुकावट आप के इरादों से मजबूत नहीं हो सकती. हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कौरपोरेट क्षेत्र से जुड़े 13 हजार प्रोफैशनल्स पर किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, 2017 में समान पद के लिए महिलाओं की सैलरी पुरुषों के मुकाबले करीब 75% ही पाई गई. पिछले 5 सालों से किए जा रहे इस अध्ययन के दौरान सैलरी में यह अंतर लगातार कायम रहा.

गुप्त बाधाएं

अध्ययन में पाया गया कि सामान्यतया 10 में से केवल 1 महिला ही सब से सीनियर पदों पर आसीन होती हैं जबकि छोटे लैवल पर यह अंतर कम पाया जाता है.

अकसर आगे बढ़ती महिलाओं को कुछ गुप्त बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिन के कारण महिलाएं संस्थाओं में उच्चतम पदों तक नहीं पहुंच पाती हैं. फैडरल ग्लास सीलिंग आयोग का कहना है कि सब से प्रमुख बाधा सामाजिक बाधा है, जो व्यवसाय के सीधे नियंत्रण से बाहर होती है.

दूसरे नंबर पर आतंरिक संरचनात्मक बाधा होती है, जो व्यवसाय के सीधे नियंत्रण में होती है. इस के अलावा सरकारी बाधाएं होती हैं. महिलाओं के लिए संरक्षक संबंधी भी कुछ बाधाएं होती हैं, जिन में महिला कर्मचारियों की सहायता करने वाले सहायकों या संरक्षकों की कम उपलब्धता शामिल होती है.

क्या है ग्लास सीलिंग

हैवलेट पेकार्ड (एचपी) की कैथरीन लौरेंस ने पहली दफा 1979 में एक चर्चा के दौरान ‘द ग्लास सीलिंग’ का इस्तेमाल किया था. आमतौर पर यह कैरियर के क्षेत्र में ऊंचे सपनों को पूरा कर रही महिलाओं के रास्ते में आने वाली अदृश्य बाधाओं या रुकावटों का प्रतीक है.

हमेशा घरेलू कामकाज और बच्चों की देखभाल को महिलाओं की जिम्मेदारी माना जाता रहा है. ऐसे में यदि महिलाएं बाहर काम करने जाती हैं, तो भी उन से अपना दायित्व निभाने की अपेक्षा की जाती है. इस के परिणामस्वरूप औफिस में उन के प्रदर्शन पर असर पड़ता है.

हालांकि सरकार और कंपनियों ने फ्लैक्सिबल वर्क टाइम, बच्चों की देखभाल की सस्ती सुविधाएं, मातृत्व अवकाश के दौरान सैलरी और पिता बनने पर पुरुषों को भी अवकाश और बच्चे होने के बाद काम पर लौटने के लिए प्रोत्साहन जैसी कई नीतियां बनाई हैं, लेकिन ये नीतियां कितनी कारगर हैं, यह सवाल अभी भी बना हुआ है.

घरेलू औरतें भी होती हैं शिकार

सिर्फ औफिसों में ही नहीं, आम घरेलू बातों और बच्चों के कैरियर संबंधी मसलों पर या फिर घर में होने वाले खास फैसलों के दौरान भी उम्र के हर दौर में स्त्रियों को ग्लास सीलिंग की समस्या से जूझना पड़ता है.

20 से 25 साल की उम्र में यह कह कर उस के कदमों को अनजाने ही बांधा जाता है कि तू अभी नादान है, तुझे भाई की बराबरी नहीं करनी चाहिए या फिर तू क्या जाने कैसा लड़का तेरे लिए मुफीद रहेगा. अपनी जिंदगी के सारे फैसले अपने बापभाई पर छोड़ दे. इस बात की ताकीद भी अकसर की जाती है कि तू देर तक बाहर नहीं रुक सकती. आउट औफ स्टेशन भेजना मुमकिन नहीं वगैरह.

इसी तरह 25 से 35 आयुवर्ग की महिलाएं अलगअलग तरह के अदृश्य प्रतिबंधों से जूझ रही होती हैं. इस उम्र तक आतेआते सामान्यतया उन की शादी हो चुकी होती है और 1-2 बच्चे भी हो चुके होते हैं. ऐसे में लड़की भले ही एमए पास हो, एमबीए हो या लो डिगरी होल्डर हो. भले ही वह जौब भी कर चुकी हो, मगर जब बात घर या बच्चों से जुड़े किसी मुद्दे की आती है, तो समझौता और त्याग हमेशा स्त्री को ही करना पड़ता है.

35 से 45 साल आयुवर्ग की महिलाओं के साथ भी ग्लास सीलिंग की दीवार मौजूद होती है. घर के बड़ेबड़े फैसले हों या बच्चों के जीवन से जुड़े मसले, मोबाइल पर अधिकार हो या रिमोट पर, महिलाओं को अकसर अपने ही बच्चों द्वारा यह कह कर चुप करा दिया जाता है कि मम्मी आप कुछ नहीं समझतीं.

ऐसा नहीं है कि 35 से 40 साल की महिलाएं बहुत आउटडेटेड होती हैं. आखिर वे भी 1975 से 1980 के आसपास ही जन्मी होंगी. स्मार्टफोन और कंप्यूटर छोड़ दें तो बाकी सारी चीजें उन के समय में भी मौजूद थीं. अब भी उन की उम्र इतनी नहीं हो गई कि इन की बारीकियां वे नहीं समझ सकतीं या इन्हें औपरेट नहीं कर सकतीं.

ग्लोबल लिंकर की सहसंस्थापक सुम्मी गंभीर कहती हैं, ‘‘पिछले कुछ सालों में हम ने ऐसी बहुत सी सफल महिलाओं को देखा है, जिन्होंने ग्लास सीलिंग की दीवार तोड़ कर उद्योग जगत की ऊंचाइयों को छुआ है. अपने क्षेत्र की लीडर होने के साथसाथ उन्होंने जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों का प्रबंधन भी अच्छी तरह से किया है.

‘‘मेरा मानना है कि इस की मुख्य वजह महिलाओं का मल्टीटास्कर होना है. वे एकसाथ कई काम बेहतर ढंग से कर सकती हैं.

‘‘मेरी कंपनी ग्लोबल लिंकर में 5 लोगों की ऐग्जीक्यूटिव कमेटी में एकमात्र महिला मैं हूं और मैं जानती हूं कि मेरा परिप्रेक्ष्य इस टीम में बहुत अधिक महत्त्व रखता है. महिला सशक्तीकरण मेरे काम का अभिन्न हिस्सा है. इसी उद्देश्य के साथ हम ने फिक्की लेडीज और्गनाइजेशन के साथ हाल ही में एक कार्यक्रम का आयोजन किया जिस में 4 प्रमुख महिला उद्यमियों ने कारोबार के अपने अनुभवों को साझा किया. इस मंच के माध्यम से अपने अनुभव बताए ताकि नई महिला उद्यमियों को प्रेरणा मिल सके.’’

ग्लास सीलिंग इफैक्ट्स

इस संदर्भ में विभा कागजी, फाउंडर औफ रीच आइवी (ए प्रीमियर ऐजुकेशन ऐंड ऐडवाइजरी) कहती हैं, ‘‘यह सच है कि महिला ऐंटरप्रन्योर्स को ग्लास सीलिंग इफैक्ट्स का सामना करना पड़ता है. एक अदृश्य अवरोध उन्हें ऊंचा उठने से रोकता है. कई दफा ऐसे फाइनैंशियल इनवैस्टर्स और बैंकर्स भी दिखते हैं, जो किसी महिला द्वारा चलाए जा रहे बिजनैस में फंडिंग करने से कतराते हैं. उन्हें महिला बिजनैसमैन पर भरोसा नहीं होता खासकर यदि महिला विवाहित है. बहुत से लोग सिर्फ अपनी सुपीरिअरिटी स्थापित करने के लिए महिलाओं के बिजनैस को नीची नजरों से देखते हैं.

‘‘जब एक महिला हर बार रिजैक्शन सहती है या उसे स्वयं अपने कदम पीछे करने पड़ते हैं, तो उस का आत्मविश्वास कमजोर पड़ जाता है. मुझे लगता है कि महिलाओं को पीछे नहीं हटना चाहिए. हर बंधन तोड़ कर आगे बढ़ना चाहिए. अपने नैगेटिव जोन से बाहर आ कर अपना रास्ता बनाना चाहिए. सफलता उन्हें ही मिलती है, जो कभी गिव अप नहीं करतीं.

‘‘जहां तक बात सिंगल वूमन की है, तो मुझे लगता है कि उसे बिजनैस के क्षेत्र में काफी ऐडवांटेजज मिलते हैं. मगर उसे मेल डौमिनेटेड सोसाइटी के सोशल रिजैक्शन भी फेस करने पड़ते हैं. सिंगल वूमन अपने गोल औरिऐंटेड आउटलुक की वजह से ज्यादा सफल होती है. मगर मैरिड वूमन भी परिवार के सहयोग और घर व काम के बीच सही तालमेल बैठा कर सफल हो सकती है. उदाहरण के तौर पर इंदिरा नूई, वानी कोला, किरण मजूमदार आदि को देख सकते हैं.

जौब्स फौर हर की सीईओ और फाउंडर नेहा बगारिया इस समस्या के समाधान हेतु निम्न पहलुओं पर जोर देने की बात करती हैं:

बच्चों को सही शिक्षा: हमें अपने बच्चों को अलग तरीके से पालना होगा. बेटियों को बचपन से भरोसा दिलाएं कि वे चाहें तो सभी मोरचों जैसे परिवार, कैरियर, खेलकूद, राजनीति वगैरह सब में कामयाबी पा सकती हैं.

इसी तरह लड़कों को शुरू से ही यह समझाना चाहिए कि लड़कियां/स्त्रियां महज सैक्स की वस्तु या घरेलू कामकाज के लिए ही नहीं हैं, वे आप के बराबर हैं.

नैटवर्क मजबूत बनाएं: व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन में महिलाओं को आपस में मजबूती से जुड़ना होगा. जितना हो सके दूसरी महिलाओं से जुड़ कर अपना नैटवर्क बड़ा करना चाहिए ताकि जब भी मदद की जरूरत पड़े ये महिलाएं आप की मदद करने को आगे आ जाएं.

पुरुषों को प्रतिद्वंद्वी नहीं सहयोगी मानें: ध्यान रखें कि पुरुष और महिलाओं के बीच किसी तरह की प्रतिस्पर्द्धा नहीं है. आप के पिता आप के रोल मौडल, भाई मार्गदर्शक, पति मजबूत स्तंभ और पुरुष आप का सहयोगी हो सकता है. उन्हें प्रतिस्पर्द्धा की नजरों से न देखें.

जरूरी है कि हम अपनी मानसिकता बदलें. जिस तरह से हमारा सब कांशस ऊंची पोजिशन पर काबिज महिलाओं के प्रति दोहरा नजरिया रखता है उस में परिवर्तन लाना आवश्यक है. जरूरी है कि हम अपने इस पक्षपातपूर्ण रवैए को खत्म करें और महिलाओं की योग्यता को भी उतना ही सम्मान और महत्त्व दें जितना पुरुषों को देते हैं.

धर्म भी है जिम्मेदार

सही माने में ग्लास सीलिंग की जड़ में मुख्य वजह धर्म और हमारी रूढि़वादी मानसिकता भी है. धर्म ने हमेशा ही स्त्रीपुरुष के बीच विभाजन की स्पष्ट दीवार खड़ी की है. कभी माहवारी के दिनों में अलग बैठा कर, कभी स्त्री को पुरुष की अनुगामिनी बना कर तो कभी पुरुष सत्ता का गुणगान कर के.

भारत में कई मंदिर ऐसे हैं जहां स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है. कई कर्मकांड ऐसे हैं, जिन्हें सिर्फ पुरुष कर सकते हैं. कितने ही धार्मिक ग्रंथों में स्त्री जीवन की मर्यादाओं और सीमाओं की विस्तार से विवेचना की गई है. उसे पुरुष के अधीन माना गया है.

रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास ने स्त्री सत्ता को धता बताते हुए लिखा है-

‘‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी,
ये सब ताड़न के अधिकारी.’’

इस श्लोक में नारी शब्द महज तुकबंदी पूरी करने के लिए नहीं जोड़ा गया है, अपितु यह हमारे समाज की मानसिकता और स्त्री को देखने का नजरिया है. ऐसे अनेकानेक धर्मग्रंथों और धर्मगुरुओं के वक्तव्यों और निर्देशों ने स्त्री के चारों तरफ एक अदृश्य दीवार खड़ी की है. ऐसी सोच ही वस्तुत: ग्लास सीलिंग की जड़ में है. सदियों से स्त्रियों को दोयम दर्जा दे कर उस की क्षमताओं को धर्म के दायरे में बांधा जाता रहा है.

उछला जातधर्म का मुद्दा

कर्नाटक चुनावों में भी जिस तरह दलितों, पिछड़ों व मुसलिमों का मुद्दा उछला उस से साफ है कि आजादी के 70 साल बाद भी देश की पहले नंबर की उलझनों में जातिधर्म ही है, पैसा, गरीबी, बिजली, पानी, नौकरी नहीं. अब तक भारतीय जनता पार्टी हिंदूमुसलिम मुद्दा उछाल कर काम चला लेती थी और दलितपिछड़ों का मुद्दा हिंदूमुसलिम झगड़े में छिप जाता था. अब भगवाधारी मुखर हो गए हैं कि उन के हाथों में हिंदू राजाओं की पेशवाई ताकत आ गई है और वे पौराणिक ग्रंथों के हिसाब से जाति के हिसाब से देश, सरकार व समाज को चलाएंगे. उच्चतम न्यायालय के असर वाले फैसले के बावजूद कर्नाटक चुनावों में भाजपा को बारबार साफ करना पड़ा है कि वह दलितों के खिलाफ नहीं है पर देशभर में फैले खुद को भाजपाई कहने वाले दलितों पर दंगई करते रहे हैं और भाजपा सही सफाई न दे पाई. हार कर नरेंद्र मोदी को राहुल गांधी के पुरखों को कोसने की ऐसी ही जरूरत आ पड़ी जैसी पौराणिक कहानियों में शूद्र पुत्रों को कोसा जाता था.

दलित पिछड़ों को बराबरी की जगह न देने का ही देश को हजारों सालों से नुकसान भरना पड़ा है. हमारे यहां युद्ध के समय दलितों व पिछड़ों को हथियार नहीं दिए जाते थे कि कहीं वे बाद में सवर्णों के खिलाफ इस्तेमाल न हो जाएं. इसीलिए बारबार थोड़े से सैनिकों के साथ बीहड़ पहाडि़यों को पार कर आने वाले भी देश पर राज करते रहे हैं. देश पर उच्च हिंदू राज कब हुआ यह ढूंढ़ना ही मुश्किल है. यह सिर्फ पुराणों में लिखा मिलता है. ऐतिहासिक सुबूत नहीं दिखते. आज जो लोग सपना देख रहे हैं कि दलित पिछड़ों के बगैर देश को चीन, जापान, यूरोप, अमेरिका बनाया जा सकता है, बेहद गलतफहमी में हैं. भारतीय जनता पार्टी की कर्नाटक जीत से साफ है कि देश अभी उसी वर्ण व्यवस्था के मुद्दे को सुलझाने में लगा है. प्रगति की बातें तो बस दिखावटी हैं.

मेरी स्वीट मिट्ठी : प्यार और अपनेपन की एक खूबसूरत कहानी

मेरे नाना रिटायरमैंट के बाद सपरिवार कोलकाता में बस गए थे. उन का कोलकाता के बाहर बसी एक नामचीन डैवलपर की टाउनशिप में बड़ा सा फ्लैट था.

मेरी नानी पश्चिम बंगाल के मिदनापुर की थीं. वे अच्छीखासी पढ़ीलिखी थीं. वे महिला कालेज में प्रिंसिपल के पद पर थीं. नाना ने उन की इच्छा के मुताबिक कोलकाता में बसने का फैसला लिया था.

मैं अपनी मम्मी के साथ दुर्गा पूजा में कोलकाता गया था. मैं ने रांची से एमबीए की पढ़ाई की थी. कैंपस से ही मेरा एक मल्टीनैशनल कंपनी में सैलेक्शन हो चुका था. औफर लैटर मिलने में अभी थोड़ी देरी थी.

मिट्ठी से मेरी मुलाकात कोलकाता में दुर्गा पूजा के दौरान हुई. कौंप्लैक्स के मेन गेट पर वह सिक्योरिटी गार्डों से उलझ गई थी.

शाम के समय पास की झुग्गी बस्ती से कुछ बच्चियां दुर्गा पूजा देखने आई थीं. चिथड़ों में लिपटी बच्चियों को सिक्योरिटी गार्ड ने रोक दिया था.

टाउनशिप के बनने के दौरान मजदूरों ने वहां सालों अपना पसीना बहाया था. ये उन्हीं की बच्चियां थीं.

मिट्ठी वहां अकसर जाती थी. वह उन की चहेती दीदी थी. वह बच्चों के टीकाकरण में मदद करती थी. स्कूलों में उन को दाखिला दिलाती थी. बच्चियों को पूजा पंडाल तक ले जाने और प्रसाद दिलाने में मिट्ठी को तमाम विरोध का सामना करना पड़ा था.

मिट्ठी विजयादशमी के दिन भी दिखाई दी थी. लाल बौर्डर की साड़ी में वह बेहद खूबसूरत दिख रही थी. मिट्ठी मुझे भा गई थी.

मम्मी जल्दी मेरे फेरे कराना चाहती थीं. उन्होंने रांची शहर के कई रिश्ते भी देखे थे. नानी से सलाहमशवरा करने

के लिए मम्मी मुझे कोलकाता ले कर आई थीं.

‘‘अमोल खुद अपना ‘जीवनसाथी’ चुनेगा… मेरा पोता अपने लिए बैस्ट साथी चुनेगा… एकदम हीरा…’’ नानी मेरी अपनी पसंद की बहू के हक में थीं.

‘‘गोरीचिट्टी, देशी मेम बहू बनेगी…’’ मम्मी की यही सोच थी. सुंदर, सुशील, घर के कामों में माहिर बहू उन की पसंद थी.

‘‘भाभी, हमारी बहू तो फर्राटेदार अंगरेजी में बतियाने वाली सांवलीसलोनी और स्मार्ट होगी…’’ छोटी मामी ने भी अपनी पसंद जताई थी.

‘‘मुझे मिट्ठी पसंद है…’’ मैं ने छोटी मामी को अपनी पसंद बताई.

मिट्ठी कौंप्लैक्स में ही रहती थी. मेरी मम्मी समेत परिवार के सभी लोग मिट्ठी की हरकतों से अनजान नहीं थे.

‘‘कौंप्लैक्स में मिट्ठी की इमेज ज्यादा अच्छी नहीं है. वह तेजतर्रार है… अमीरजादों के साथ आवारागर्दी करती है… मोटरसाइकिल से स्टंट करती है… बेहद बिंदास है… शौर्ट्स पहन कर घूमती है…’’ छोटी मामी ने मुझे जानकारी दी.

‘‘मुझे बोल्ड लड़कियां पसंद हैं…’’

‘‘उम्र में भी बड़ी है…’’

मैं ने उम्र की बात को भी नकार दिया.

‘‘मिट्ठी कैंपस के लड़कों के साथ टैनिस… क्रिकेट… बास्केटबाल खेलती है… मौडलिंग करती है… कंडोम की मौडलिंग… उस के मम्मीपापा ने कितनी आजादी दे रखी है…’’ मेरी बात से छोटी मामी शायद नाराज हो गई थीं.

‘‘मैं क्या सुन रही हूं…? मेरी रजामंदी बिलकुल नहीं है… नहीं… मैं मिट्ठी को बहू नहीं बना सकती…’’ मम्मी बेहद नाराज थीं. उन्होंने मुझ से दूरी बना ली थी.

मैं मिट्ठी को अपना मान चुका था. शीतयुद्ध का अंत हुआ. नानी को भनक लगी. उन्होंने सब को अपने कमरे में बुलाया. सब की बातों को बड़े ही ध्यान से सुना.

‘‘अमोल ने जिद पकड़ ली है… बदनाम लड़की से रिश्ता करने पर तुले हैं…’’ छोटी मामी ने नानी को बताया.

‘‘यह बदनाम लड़की कौन है…? कहां की है…?’’ नानी ने सवाल किया.

‘‘अपने कौंप्लैक्स की ही है… अपनी मिट्ठी… आवारागर्दी, गुंडागर्दी करती है… पूजा के पंडाल में हंगामा भी किया था… आप ने सुना होगा…’’ छोटी मामी ने मिट्ठी की खूबियों का बखान किया.

‘‘मिट्ठी तो अच्छी बच्ची है… कई बार मंदिर में मिली है… मेरे पैर छुए हैं… मैं ने आशीर्वाद दिया है… वह बदनाम कैसे हो सकती है,’’ नानी छोटी मामी से सहमत नहीं थीं.

‘‘क्या अच्छे परिवार की बच्चियां पराए जवान लड़कों के साथ क्रिकेट… बास्केटबाल और टैनिस खेलती हैं? कंडोम की मौडलिंग करती हैं? छोटे कपड़े पहनती हैं? मुंहफट और बेशर्म होती हैं?’’ मम्मी ने एकसाथ कई बातें बताईं और सवाल उठाए.

‘‘मैं ने अपने लैवल पर इन बातों की पड़ताल की है… जानकारियां इकट्ठी की हैं… मैं मिट्ठी से मिला हूं. वह मर्दऔरत के समान हक की बात करती है… वह एक समाजसेविका है… उसे कई मर्द दोस्तों का भी साथ मिला है… सब मिल कर काम करते हैं… ऐक्टिव रहने के लिए फिटनैस जरूरी है…

‘‘सामाजिक कामों के लिए रुपएपैसों की जरूरत पड़ती है. कंडोम की मौडलिंग में कोई बुराई नहीं है… बढ़ती आबादी को कंडोम से ही रोका जा सकता है… इन पैसों से बस्ती के गरीब बच्चों के स्कूल की फीस दी जा सकती है…

‘‘मिट्ठी बोल्ड है… गलतसही की पहचान और परख उसे है… वह अपने काम में जुटी है… जानती है कि वह गलत

रास्ते पर नहीं है… फुजूल की कानाफूसी और बदनामी की उसे कोई परवाह नहीं है. सब बकवास है…’’ मैं ने नानी की अदालत में मिट्ठी का पक्ष रखा.

‘‘मेरे पोते ने बैस्ट लड़की को चुना है. मिट्ठी ही मेरी बहू बनेगी…’’ नानी ने सहज भाव से अपना फैसला सुनाया. मुझे गले से लगाया… रिश्ते के लिए खुद पहल करने की बात कही.

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