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सरकार के इस फैसले से ये घरेलू उत्पाद हो जाएंगे सस्ते

लोकसभा चुनाव से पहले माल एवं सेवा कर (जीएसटी) परिषद एक और बड़ा बदलाव कर सकता है. यह कदम राजस्‍व वसूली में इजाफे के बाद उठाया जाएगा. इसके तहत वाहन, एसी जैसे उत्‍पाद जो अभी सबसे ऊंचे 28 प्रतिशत के कर स्लैब में आते हैं उन पर भी जीएसटी दर घटाई जाएगी. इससे वाहन खरीदने वालों को सबसे ज्‍यादा फायदा होगा. अभी इस सूची में 35 उत्‍पाद रह गए हैं.

पिछले एक साल के दौरान जीएसटी परिषद ने सबसे ऊंचे कर स्लैब वाले 191 उत्पादों पर कर घटाया है. जीएसटी को एक जुलाई, 2017 को लागू किया गया था. उस समय 28 प्रतिशत कर स्लैब में 226 उत्पाद या वस्तुएं थीं. वित्त मंत्री की अगुवाई वाली जीएसटी परिषद ने एक साल में 191 वस्तुओं से कर घटाया है.

नई जीएसटी दरें 27 से होंगी प्रभावी

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नई जीएसटी दरें 27 जुलाई को लागू होंगी. जो 35 उत्पाद सबसे ऊंचे कर स्लैब में बचेंगे उनमें सीमेंट, वाहन कलपुर्जे, टायर, वाहन उपकरण, मोटर वाहन, याट, विमान, एरेटेड ड्रिंक और अहितकर उत्पाद तंबाकू, सिगरेट और पान मसाला शामिल हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि आगे चलकर राजस्व स्थिर होने के बाद परिषद 28 प्रतिशत कर स्लैब को और तर्कसंगत बना सकती है और सबसे ऊंचे कर स्लैब को सिर्फ सुपर लग्जरी और अहितकर उत्पादों तक सीमित कर सकती है.

एसी, टीवी पर संशोधन के बाद 18 फीसदी लगेगा जीएसटी

डेलौयट इंडिया के भागीदार एमएस मणि ने कहा कि यह उम्मीद की जा सकती है कि राजस्व संग्रह स्थिर होने के बाद सभी आकार के टीवी, डिशवौशर, डिजिटल कैमरा, एसी पर 18 प्रतिशत की जीएसटी दर लागू हो सकती है. मणि ने कहा कि अच्छी स्थिति यह होगी कि सिर्फ अहितकर वस्तुओं को भी 28 प्रतिशत के स्लैब में रखा जाए, जिससे बाद में कम जीएसटी स्लैब की ओर बढ़ा जा सके.

कसौटी पर कमलनाथ, एमपी में क्या हो पाएगी कांग्रेस की वापसी

मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिले छिंदवाड़ा से कोई 12 किलोमीटर दूर नागपुर रोड पर लगभग 2,000 की आबादी वाला एक गांव है शिकारपुर. गांव के बाहर सड़क पर एक तख्ती पर तीर का निशान लगा है जो बताता है कि यह रास्ता कमलकुंज की तरफ जाता है. इस तख्ती को देखते ही वाहन धीमे हो जाते हैं. बसें हों या कारें उन में मौजूद लोग झांकझांक कर देखने की कोशिश करते हैं कि कमलकुंज की भव्यता, जिस के चर्चे उन्होंने सुने हैं, यहां से दिखती है या नहीं.

लगभग 20 एकड़ रकबे से घिरा कमलकुंज मध्य प्रदेश के नए कांग्रेस अध्यक्ष 71 वर्षीय कमलनाथ का निवास है. कमलकुंज की भव्यता किसी महल से कम नहीं है, इस में आधुनिक सुखसुविधाओं और विलासिता के तमाम साधन मौजूद हैं. कमलनाथ साल 1980 से छिंदवाड़ा से लगातार सांसद रहे हैं. अपवादस्वरूप एक बार ही वे यहां से हारे हैं. छिंदवाड़ा के वोटर्स की कांग्रेस के प्रति प्रतिबद्धता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आपातकाल के बाद 1977 में हुए आम चुनावों में पूरे मध्यउत्तर भारत में कांग्रेस ने जो इकलौती सीट जीती थी वह छिंदवाड़ा ही थी.

तब कांग्रेस और इंदिरा विरोधी लहर में जीत का परचम कमलनाथ ने नहीं, बल्कि तत्कालीन सांसद गार्गी शंकर मिश्र ने लहराया था. गार्गी शंकर मिश्र अब नहीं रहे लेकिन उन का छोड़ा यह गढ़ और मजबूत हुआ है जिस का श्रेय कमलनाथ को जाता है. 1980 के आम चुनाव में एक सांवला, दुबलापतला नौजवान कांग्रेस आलाकमान यानी इंदिरा और संजय गांधी ने यहां उम्मीदवार बना कर भेजा था, जिस का नाम था कमलनाथ. तब छिंदवाड़ा के लोग कमलनाथ से इतना ही परिचित थे. 90 का दशक आतेआते हालत यह हो गई थी कि कमलनाथ और छिंदवाड़ा लोकसभा सीट एकदूसरे का पर्याय बन गए थे. यह सिलसिला आज भी कायम है. 2014 के लोकसभा चुनाव की मोदी लहर भी यहां कमल नहीं खिला पाई थी. यहां के लोगों ने एक लाख से भी ज्यादा वोटों से कमलनाथ को विजयी बनाया था.

1980 का चुनाव कांग्रेस के लिए चुनौती था. हालांकि तब इंदिरा लहर थी, लेकिन कांग्रेस अंदर से डर भी रही थी कि कहीं ऐसा न हो कि लोग आपातकाल की ज्यादतियों को भूले न हों. लेकिन केवल 3 सालों में ही यह साबित हो गया था कि विपक्ष कभी एकजुट नहीं हो सकता और राष्ट्रीय स्तर पर इंदिरा गांधी का कोई विकल्प है ही नहीं. रहस्यमय हैं कमलनाथ

नएनवेले कमलनाथ को छिंदवाड़ा के लोगों ने हाथोंहाथ लिया, जिस की एक वजह इस प्रकार का प्रचार भी था कि राजीव और संजय गांधी के बाद वे इंदिरा गांधी के तीसरे बेटे हैं. इस इलाके के लोगों की नेहरूगांधी परिवार के प्रति भक्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1980 से पहले भी कांग्रेस यहां से कभी हारी नहीं थी. गार्गी शंकर मिश्र 1961 से लगातार छिंदवाड़ा सीट से जीतते रहे थे. 34 साल की उम्र में पहला लोकसभा चुनाव जीते कमलनाथ दरअसल संजय गांधी के खास नजदीकी दोस्तों में से एक थे. वे दून स्कूल में संजय गांधी के सहपाठी थे. स्कूली पढ़ाई के बाद भी यह दोस्ताना टूटा नहीं. कमलनाथ भले ही कोलकाता पढ़ने चले गए पर गांधी परिवार से उन का सतत संपर्क बना रहा था.

आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी में सत्ता पाने के लिए उठापटक हो रही थी तब युवा कमलनाथ इंदिरा गांधी और दूसरे कई विपक्षी नेताओं के बीच संदेशवाहक का काम करते थे. इंदिरा गांधी का भरोसा जीतने का ही इनाम था कि छिंदवाड़ा जैसी कांग्रेसी सीट उन्हें थाल में सजा कर दे दी गई थी. तब कमलनाथ के बारे में लोग सिर्फ इतना ही जानते थे कि वे बड़े कारोबारी हैं और बंगाली हैं, पर हकीकत में कमलनाथ उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहर कानपुर की पैदाइश हैं. उन के पिता महेंद्रनाथ स्वतंत्रता सेनानी भी थे. साल 1973 में कमलनाथ की शादी अलकानाथ से हुई थी. उन के 2 बेटे नकुल और बकुलनाथ उन का कारोबार संभालते हैं. इस समय नाथ परिवार लगभग 23 कंपनियों का मालिक है.

फिर धीरेधीरे पता चला कि कमलनाथ बंगाली नहीं, बल्कि पंजाबी खत्री जाति के हैं, हालांकि इस से कोई फर्क उन के रसूख और हैसियत पर नहीं पड़ा. लेकिन जैसे ही उन्हें मध्य प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, मीडिया ने उन के बारे में छानबीन करनी शुरू कर दी. इंटरनैट तक सिमटी इस छानबीन से किसी के हाथ कुछ खास नहीं लगा तो भोपाल में एक पत्रकार ने उन से पूछ लिया कि आप की जाति क्या है. इस संवेदनशील और अप्रत्याशित सवाल पर कमलनाथ घबराए नहीं, बल्कि आदतन होंठों पर उंगली रखते उन्होंने कसा हुआ जवाब दे कर उसे और रहस्यमय कर दिया कि मैं एक हिंदुस्तानी हूं.

यह हालांकि एक मुकम्मल जवाब था पर अभी भी किसी के पास इन जिज्ञासाओं के समाधान का कोई रास्ता नहीं है कि 1980 के पहले कमलनाथ क्या थे और किस जाति के हैं. दोस्ती बनी सीढ़ी आपातकाल से पहले कमलनाथ की कंपनी ईएमसी लिमिटेड घाटे में चलने के कारण बंद होने के कगार पर थी. कहा तो यह भी जाता है कि तब कर्मचारियों को तनख्वाह देने के लिए कंपनी के पास पैसे भी नहीं थे. ऐसे में कमलनाथ को दून स्कूल के अपने सखा संजय गांधी की याद आई जिन की तूती देशभर में बोल रही थी. तब संजय गांधी की मरजी के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता था.

संजय गांधी ने दोस्ती निभाई और 1975 से ले कर 1976 के बीच कमलनाथ की कंपनी को करोड़ों के ठेके दिलाए. तब ठेकों की राशि 5 करोड़ रुपये के लगभग थी. जो उस वक्त के लिहाज से भारीभरकम थी. इस एक साल में ईएमसी घाटे से उबर कर फायदे में आ गई और कमलनाथ का समय चमक गया.

हालांकि आपातकाल के बाद जनता पार्टी सरकार ने कमलनाथ की कंपनी को ठेके देने के मामलों की जांच के लिए एक आयोग बनाया था लेकिन उस आयोग की एक ही मीटिंग हुई. कमलनाथ ने तब एक सधे कारोबारी की तरह जनता पार्टी की कलह का फायदा उठाया और इंदिरा गांधी और बीजू पटनायक, चौधरी चरण सिंह, भजनलाल, सुरेश राम व सगानलाल जैसे धाकड़ नेताओं के बीच पुल का काम किया. ऐसे कई दिलचस्प किस्से एक बंगाली पत्रकार बरुण सेनगुप्ता की किताब ‘लास्ट डेज औफ द मोरारजी राज’ में हैं.

1980 में जब कांग्रेस सत्ता में आई तो लोग सबकुछ भूल गए. संजय गांधी की दुर्घटनावश मौत के बाद भी कमलनाथ गांधी परिवार के खासमखास बने रहे. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या के बाद वे सोनिया गांधी के विश्वासपात्र हो गए.

फिलहाल कमलनाथ अकूत दौलत के मालिक हैं. छिंदवाड़ा वाला महल कमलकुंज शायद उन का सब से सस्ता मकान है. दिल्ली स्थित फ्रैंड्स कालोनी के उन के बंगले की कीमत 125 करोड़ रुपए आंकी जाती है. दिल्ली में ही उन के 2 और मकान सुलतानपुर और पंचशील नगर में हैं जिन की कीमत क्रमश: 32 और 14 करोड़ रुपए है. कमलनाथ इस मुकाम तक यों ही नहीं पहुंच गए हैं, इस के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की है, हालांकि कुछ विवाद भी उन के साथ जुड़े हैं. जब वे मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें बड़ी अंतरंगता से दोस्त कहा था. उसी दौरान सोशल मीडिया पर एक पोस्ट भी वायरल हुई थी जिस में बताया गया था कि शिवराज सिंह की मेहरबानी कमलनाथ की कंपनियों पर भी है, इसीलिए करोड़ों के ठेके उन्हें दिए गए हैं.

इस पर कमलनाथ बौखलाए नहीं लेकिन कंपनियों के ठेके और फायदे की बात भूलते उन्होंने शिवराज सिंह चौहान को नालायक दोस्त कह डाला तो शिवराज सिंह इतने घबरा गए कि वे भोपाल के नजदीक सीहोर की आमसभा में भीड़ से पूछते नजर आए कि बताओ, क्या मैं नालायक हूं. इसलिए लाए गए

मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री को नालायक कहने की हिम्मत कोई अगर कर सकता है तो वह शख्स बिलाशक कमलनाथ हैं. यही कांग्रेस चाहती भी थी कि जैसे भी हो, शिवराज सिंह चौहान का आत्मविश्वास लड़खड़ाना चाहिए. इस साल के आखिर में मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन प्रदेश में कांग्रेस के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं था जिसे पेश कर वह सत्ताविरोधी वोटों को हथिया सके. कमलनाथ को अध्यक्ष बना कर सोनिया और राहुल गांधी ने एक तीर से कई निशाने एकसाथ साधे हैं जो साबित करते हैं कि इस राज्य के मामले में पहली बार कांग्रेस आलाकमान ने कोई बुद्धिमानीभरा फैसला लिया है.

पहला तीर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को लगा है, जिन के नाम से अब तक प्रदेश कांग्रेस चलती थी और हर छोटाबड़ा नेता उन का लिहाज करता था. 1993 से ले कर 2003 तक दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्री रहते लोग उन की कार्यशैली से इतने नाराज रहे कि आज भी उन के नाम से बिदकते हैं कि उन से तो भाजपा और शिवराज सिंह चौहान ही अच्छे हैं. कांग्रेस की दिक्कत यह थी कि अगर वह किसी छोटेमोटे नेता को प्रदेश अध्यक्ष बनाती तो उसे दिग्विजय सिंह की सरपरस्ती और इशारे पर ही काम करना पड़ता. ऐसे में मतदाताओं में संदेश यही जाता कि अगर कांग्रेस जीती तो फिर से दिग्विजय सिंह को झेलना पड़ेगा.

सीधेसीधे दिग्विजय सिंह की काट के लिए कमलनाथ को लाया गया है जिन के आने के बाद दिग्विजय सिंह ने टेढ़ामेढ़ा रास्ता छोड़ दिया है और अब कांग्रेस की एकजुटता के लिए ईमानदारी से प्रदेश में घूमते फिर रहे हैं. कांग्रेस के पास एक बेहतर नाम गुना सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया का था, लेकिन इस नाम पर दिग्विजय सिंह तैयार नहीं थे. लिहाजा, बीच का रास्ता कमलनाथ के जरिए निकाला गया, जिन के पद संभालते ही कांग्रेस की अंदरूनी कलह थम गई है.

यह कलह, दरअसल, कांग्रेस को विरासत में मिली है. 80-90 के दशक तक कांग्रेस प्रदेश में 4 खेमों में बंटी थी, अर्जुन सिंह गुट, विद्याचरण शुक्ला गुट, माधवराव सिंधिया गुट और कमलनाथ गुट. होता यह रहा कि यह कलह और गुटबाजी तहसील स्तर तक फैली रहती थी, जिस गुट के नेता को टिकट नहीं मिलता था वह दूसरे गुट यानी अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार को हरवाने में अपनी शान समझने लगा था. इस गुटबाजी से राज्य में कांग्रेस इतनी कमजोर होती गई कि आलाकमान ने मान लिया कि इधर कुछ नहीं हो सकता, लिहाजा जो चल रहा है उसे चलने दो. माधवराव सिंधिया की मौत के बाद उन का खेमा बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने संभाल लिया तो अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह को भी पिता के नाम और काम का फायदा विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बन कर मिला. इस गुट की असली कमान दिग्विजय सिंह के हाथ में ही रही.

कमलनाथ से पहले अध्यक्ष रहे अरुण यादव ने ईमानदारी से काम करने की कोशिश की थी, लेकिन इस गुटबाजी की बीमारी का इलाज वे नहीं ढूंढ़ पाए तो चुनाव सिर पर आते देख कमलनाथ को यह जिम्मेदारी सौंप दी गई. फिलहाल प्रदेश में माहौल भाजपा सरकार के खिलाफ है. किसान, युवा, कर्मचारी और मजदूर सभी गुस्से में हैं कि शिवराज सिंह लगातार घोषणाओं का लौलीपौप तो पकड़ा देते हैं पर उस में मिठास नहीं है और इस नीम चढ़े करेले जैसे लौलीपौप को खाने को कोई तैयार नहीं.

ज्योतिरादित्य सिंधिया राहुल गांधी के काफी करीबी हैं. उन्हें किन शर्तों पर मनाया गया यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा, लेकिन हालफिलहाल मध्य प्रदेश कांग्रेस की फुरती देखने के काबिल है जो सत्ता और शिवराज विरोधी लहर का फायदा उठाने को, मजबूरी में ही सही, एक होती दिख रही है. कमलनाथ की कदकाठी और हैसियत के लिहाज से मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद काफी छोटा है पर एक समर्पित व वफादार सिपाही की तरह वे मध्य प्रदेश में जमे हुए हैं और शिवराज सिंह चौहान सरकार पर ताबड़तोड़ हमले

कर रहे हैं जिस से घरों में दुबका बैठा कांग्रेसी कार्यकर्ता भी बाहर निकलने लगा है. उन्हें अध्यक्ष बनाए जाने के बाद प्रदेश कांग्रेस कार्यालय के बाहर लगाए होर्डिंग्स पर लिखा था, ‘ऊपर भोलेनाथ नीचे कमलनाथ.’ कंगाली से जूझती कांग्रेस को कमलनाथ से एक दूसरा बड़ा फायदा फंडिंग का भी है. कमलनाथ की उदारता कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही, न ही वे खजाने के मुहताज हैं.

मध्य प्रदेश के भोपाल स्थित कांग्रेस कार्यालय के पास चाय की इकलौती गुमटी पर लगातार कार्यकर्ताओं की भीड़ बढ़ रही है. ऐसे ही एक कार्यकर्ता ने बताया कि कमलनाथ उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए पैसा और अपने गुट के लोगों को तो 2-2 करोड़ रुपए देंगे, जिस से उन्हें चुनाव लड़ने में परेशानी न हो. भले ही यह अफवाह हो लेकिन यह जरूर तय दिख रहा है कि ‘अब की बार 200 पार’ का नारा देने वाली भाजपा का चेहरा मध्य प्रदेश को ले कर उतरा हुआ है. शायद कमलनाथ ने भी इतनी मेहनत 1980 के बाद से ले कर अब तक नहीं की होगी जितनी इन दिनों वे कर रहे हैं.

कमलनाथ के एक समर्थक सीहोर के बलवीर सिंह तोमर का कहना है कि उन की कार्यशैली अनूठी है. कमलनाथ कभी किसी को बेइज्जत करने वाली राजनीति नहीं करते. हां, इतना जरूर है कि जिसे किनारे करना होता है उसे वे नजरअंदाज करना शुरू कर देते हैं. कमलनाथ जमीनी नेता हैं और इन दिनों वे छिंदवाड़ा का विकास मौडल जनता के सामने पेश कर रहे हैं. हालांकि, हर कोई जानता है कि वाकई उन के सांसद और केंद्र में मंत्री रहते छिंदवाड़ा चमचमाने लगा है और वहां के लोग कमलनाथ के कामकाज से काफी खुश हैं. 9 बार की जीत इस का सुबूत है.

अपनी सहूलियत के लिए कमलनाथ ने 4 उपाध्यक्ष और बना लिए हैं. ये चारों जमीनी नेता बाला बच्चन, रामनिवास रावत, सुरेंद्र सिंह और जीतू पटवारी लंबे समय से किसी जिम्मेदारी का इंतजार कर रहे थे. तगड़ी है चुनौती

मध्य प्रदेश भाजपा का गढ़ है, जिसे भेद पाना आसान काम नहीं है. भाजपा का कार्यकर्ता हर बूथ पर है जबकि कांग्रेस का हर जगह नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि कमलनाथ के कांग्रेस अध्यक्ष बन जाने भर से कांग्रेस सत्ता में लौट ही रही है, हुआ इतना भर है कि कांग्रेस की संभावनाएं बढ़ गई हैं. समय के बलवान कहे जाने वाले कमलनाथ यह मौका भुना पाएंगे या नहीं, इस में अभी वक्त है. लेकिन भाजपा

का तिलिस्म तोड़ने को धनुष उठा चुके कमलनाथ के लिए संतोष की बात यह है कि पार्टी की अंदरूनी कलह फिलहाल थमी है या वाकई उस के कार्यकर्ताओं व नेताओं को यह एहसास होने लगा है कि इस बार चूके तो सत्ता में वापसी फिर कभी नहीं होगी. बातबात में शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र मोदी को कोसने का कमलनाथ का टोटका कारगर साबित हो रहा है तो इस की वजह उन की बेदाग छवि और प्रदेश में बसपा से संभावित गठबंधन होना भी है. इस प्रस्तावित गठबंधन की शर्तें अभी तय नहीं हुई हैं, लेकिन कर्नाटक और हालिया उपचुनाव के नतीजों ने इन दोनों को ही क्या, बल्कि सभी दलों को समझा दिया है कि अगर सत्ता चाहिए तो उस का रास्ता भाजपाविरोधी वोटों के बंटवारे को रोकने से हो कर ही जाता है.

2019 के आम चुनाव का रास्ता भी मध्य प्रदेश सहित राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव नतीजों से हो कर जाता है. ये नतीजे बताएंगे कि वोटर मोदी और राज्य सरकारों से कितना खुश और कितना नाराज है.

नाच और नैतिकता

रैस्टोरैंटों में लाइव बैंड पर लड़कियों का नाच नैतिक है या अनैतिक, इस पर लंबी बहस चल रही है. मुंबई पहले डांस बारों से भरा हुआ था पर कुछ नैतिकता के नाम पर, कुछ शोरशराबे की वजह से, कुछ अपराधी किस्म के लोगों के जमा होने की वजह से, तो कुछ आपसी मारपीट से पैदा हुई लौ ऐंड और्डर की समस्या के कारण एकएक कर के सभी राज्यों में इन पर रोक लग गई है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने 2005 के कर्नाटक पुलिस नियमों को सही ठहराया जिन में इन पर इतनी रोकटोक के नियम बना दिए गए थे कि कोई रैस्टोरैंटों में लाइव बैंडों के साथ कैबरे डांस करा ही नहीं सकता था.

सुप्रीम कोर्ट ने नैतिकता की बात तो कम की है पर सारी जिम्मेदारी पुलिस पर छोड़ कर और पुलिस को खुली छूट दे कर इन कैबरे डांसों को बंद कराने का फैसला दे दिया.

बार के डांसों या रैस्टोरैंटों के कैबरे डांसों की वकालत करना मुश्किल है जबकि ये बंद हालों में होते हैं. इस के उलट आजकल गांवों और कसबों में खुले में पंडाल लगा कर भड़काऊ नाच कराए जा रहे हैं और कुछ तो हिंदू त्योहारों या भजनों, जागरणों के नाम पर भी भड़काऊ डांस कराए जा रहे हैं. यूट्यूब इस तरह के डांसों से भरा पड़ा है. 5-7 साल पहले तक हिंदी फिल्मों में जब तक एक ऐसा डांस न हो उसे पूरा नहीं माना जाता था.

नाचना या नाच देखना बहुत ही पुरानी परंपरा है और यह तकरीबन कुदरती है. आदिवासियों और अफ्रीका के कबीलों में हर छोटे मौके पर नाच जरूरी है. इनसान ने नाचना क्यों शुरू किया, इस बहस में न जा कर यह देखा जाना चाहिए कि मंदिरों में होने वाले नाचों या सड़क पर होने वाले नाचों का नैतिकता से या कानून व्यवस्था से क्या लेनादेना है? नैतिकता तो बहुत ही उलझी बात है. एक समय सिर पर बिना पल्ला डाले जवान लड़कियां अनैतिक मानी जाती थीं, आज बौबकट बाल नैतिकता की ही सीमा में हैं. एक समय भारत में टांगें दिखाना अनैतिक था, आज स्कर्ट पहनना नैतिक है. नैतिकता का असल में न पोशाक से लेनादेना है, न नाचनेगाने से.

धर्म के बिचौलिए असल में अवसर ढूंढ़ते रहते हैं कि आम आदमी कहीं सुखी तो नहीं हो रहा. वे चाहते हैं कि हर सुख की चीज या काम मंदिरों के तले हो या न हो. हिंदू धर्म हर समय आम आदमी को पापी ठहराने में लगा रहता है और उसी के पैरोकार व दुकानदार हर मजे वाले काम को अनैतिक करार कर देते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इसी को समाज की जरूरत माना है.

नाचना या नाच दिखाना असल में मौलिक अधिकारों में है. यह अभिव्यक्ति का अधिकार भी है और इस से पैसे मिलते हैं, इसलिए यह जीवन का आधार भी है. कानून व्यवस्था के खराब होने का डर तो हर बात में हो सकता है. बाजारों में बम फटते हैं तो इस का यह मतलब तो नहीं है कि उन्हें बंद करा दिया जाए. कारखानों में हड़तालें होती हैं तो कारखानों को बंद तो नहीं किया जा सकता.

औरतें अपना शरीर दिखा कर, नाच कर पैसा कमाएं, इस पर कुछ को एतराज हो सकता है पर यह औरतों के अधिकार क्षेत्र में दखल भी है. उम्मीद थी कि सुप्रीम कोर्ट कुछ उदारता बरतता.

गीता : गुमनामी से स्वयंवर तक

गीता एक ऐसी गुत्थी का नाम है, जो सुलझाने की कोशिशों में इतनी उलझती जा रही है कि कभीकभी  तो लगता है, कहीं इंसानियत के नाम पर हम उस पर जुल्म तो नहीं ढा रहे हैं.

हालांकि इस बात से इत्तफाक रखने वालों की तादाद न के बराबर ही होगी क्योंकि हर किसी की आदत किसी भी घटना या व्यक्ति को मीडिया और सरकारी नजरिए से देखने की पड़ती जा रही है. गीता इसी नजरिए की कैद में छटपटाती आज भी अपनी पहचान की मोहताज है. इस की जिम्मेदारी लेने के लिए किसी न किसी को आज नहीं तो कल सामने आना ही होगा.

कौन है गीता, क्या है उस की कहानी और क्यों रचा गया था उस के स्वयंवर का ड्रामा, यह सब जानने से पहले गीता की कहानी को जानना जरूरी है. गीता के अतीत को 2 भागों में बांट कर देखा जाना सहूलियत वाली बात होगी.

उस की जिंदगी का दूसरा अतीत जो ज्ञात है, वह साल 2003-04 से शुरू होता है, जिस की ठीकठाक तारीख किसी को नहीं मालूम. इस के पहले गीता क्या थी, यह वह खुद भी नहीं जानती. चूंकि उस का पहला अतीत अज्ञात है, इसलिए स्वाभाविक रूप से वह रहस्यरोमांच से भरा है. जिस के चक्रव्यूह में खुद गीता अभिमन्यु की तरह फंसी हुई है.

ईधी फाउंडेशन ने बेटी की तरह पाला गीता को

भारत और पाकिस्तान के संबंध विभाजन के बाद से बारूद के ढेर पर सुलगते रहे हैं, जिन में से कभी दोस्ती की महक नहीं आई. दोनों देशों के लोग एकदूसरे को कट्टर दुश्मन मानते हैं. इस धर्मांधता और कट्टरवाद से इतर इत्तफाक से यहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो वाकई मानवता के लिए जीतेमरते हैं.

ऐसे ही एक पाकिस्तानी शख्स थे अब्दुल सत्तार ईधी, जिन का नाम न केवल पाकिस्तान में बल्कि पूरी दुनिया में इज्जत से लिया जाता है. पाकिस्तान में उन्हें लोग गौडफादर, फरिश्ता और गांधी तक कहते हैं तो इस की कई वजहें और प्रमाण भी हैं.

ईधी फाउंडेशन के संस्थापक अध्यक्ष अब्दुल सत्तार के नाम के पहले अब्बा संबोधन भी लगाया जाता है. मानवतावादी अब्दुल सत्तार का जन्म गुजरात के ऐतिहासिक शहर जूनागढ़ में हुआ था. भारतपाक बंटवारा हुआ तो वह पाकिस्तान चले गए.

अब्दुल सत्तार की जिंदगी कई संघर्षों से भरी है, जिन्होंने उन्हें मानवतावादी बना दिया. मानवता के क्षेत्र में उन के और ईधी फाउंडेशन के नाम ढेरों उपलब्धियां और काम दर्ज हैं. अब्दुल सत्तार को साल 1996 में रेमन मैगसेसे पुरस्कार से नवाजा गया था. लेनिन शांति पुरस्कार भी उन्हें प्रदान किया गया था.

दुनिया की सब से बड़ी एंबुलेंस उन के ईधी फाउंडेशन के पास है. यह बात गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में भी दर्ज है. जुलाई, 2016 में उन की मौत के बाद से ईधी फाउंडेशन की जिम्मेदारी उन की बेगम बिल्कीस संभाल रही हैं.

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सन 2003-04 में कभी गीता नाम की एक भारतीय लड़की बेहद फिल्मी अंदाज में पाकिस्तान पहुंच गई थी. गीता न तो बोल सकती है और न ही सुन सकती है, यानी मूकबधिर है. लावारिस हालत में गीता समझौता एक्सप्रैस के द्वारा पाकिस्तान पहुंची थी.

पाकिस्तानी बौर्डर अथौरिटी ने गीता पर दया खा कर उसे ईधी फाउंडेशन पहुंचा दिया था. सत्तार दंपति ने एक तरह से गीता को गोद ले लिया और सगी बेटी की तरह उस की परवरिश और देखभाल की. गीता के पास तब कोई सामान नहीं था, बस एक फोटो थी जिस में वह अपने परिवारजनों के साथ दिख रही थी.

गीता का तब कोई नाम नहीं था और जो था उसे वह बता नहीं सकती थी. चूंकि वह समझौता एक्सप्रैस में मिली थी, इसलिए उसे अंदाजे के आधार पर भारतीय हिंदू मानते हुए सत्तार दंपति ने गीता नाम दे दिया, जो हिंदुओं का धर्मग्रंथ है. अब्दुल सत्तार ने अपने यतीमखाने में गीता के लिए एक मंदिर भी बनवा दिया था, जिस में तरहतरह के हिंदू देवीदेवताओं की तसवीरें लगा दी गई थीं. गीता इस मंदिर में रोज पूजापाठ करती थी.

गीता चाहती थी भारत आना

एक लावारिस भारतीय लड़की के यूं मिलने की पाकिस्तानी मीडिया में तब खासी चर्चा रही थी. पाकिस्तान सरकार ने औपचारिक रूप से भारत सरकार और भारतीय दूतावास को गीता के मिलने की सूचना दी थी पर भारत की ओर से कोई पहल नहीं हुई तो गीता पाकिस्तान और ईधी फाउंडेशन की हो कर रह गई.

गीता एक महफूज जगह पर इंसानियत के पुजारियों की सरपरस्ती में थी, इसलिए उसे कोई परेशानी पेश नहीं आई. नहीं तो हर कोई जानता है कि जानेअनजाने में नाजायज तरीके से पाकिस्तान में दाखिल हो गए ऐसे भारतीयों के साथ पाकिस्तानी सेना और पुलिस क्या सलूक करती है.

वक्त गुजरते गीता बच्ची से युवती हो गई लेकिन जिंदगी के इस अहम और नाजुक सफर में सत्तार दंपति ने उसे मांबाप की और किसी दूसरे किस्म की कमी महसूस नहीं होने दी और पूरी ईमानदारी से इंसानियत का जज्बा निभाया.

दुबलीपतली, सांवली रंगत और आकर्षक नैननक्श वाली गीता ईधी फाउंडेशन में रह रहे मुसलिम बच्चों में जल्द ही घुलमिल गई लेकिन अपने घर और देश की याद उसे अकसर सताती रहती थी. बिलकीस बेगम से भी उसे खासा लगाव हो गया था, जो चाहती थीं कि गीता अपने देश और घर पहुंच जाए, जिस की इच्छा वह अकसर जताती रहती थी.

देश लौटने की आस में गिनगिन कर दिन काट रही गीता के साथ एक और अच्छी बात यह हुई कि उस पर भारतीय जासूस होने का शक नहीं किया गया, क्योंकि इस की कोई मुकम्मल वजह भी नहीं थी. एकदो साल पाकिस्तानी मीडिया में गीता की चर्चा रही लेकिन जब किसी स्तर पर भी वापसी की कोई पहल नहीं हुई तो लोग उसे भूलने लगे.

जब अपनों को याद कर गीता उदास होती थी तो सत्तार परिवार उस का जी बहलाता था. बिलकीस बेगम अकसर उसे खरीदारी कराने ले जाती थीं. यानी गीता को कैद कर के नहीं रखा गया था. वह भले ही सुन, बोल नहीं सकती थी लेकिन सारे हालात तो समझती थी.

वतनवापसी की भूमिका

उस वक्त गीता की दिमागी हालत क्या रही होगी, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह एक ऐसी लड़की थी जिस की कोई पहचान नहीं थी. ईधी फाउंडेशन में उसे किसी बात की कमी नहीं थी और जो थी, उसे वक्त ही पूरा कर सकता था जिस का दूरदूर तक कोई अतापता नहीं था.

फिर रिलीज हुई अभिनेता सलमान खान की बहुचर्चित सुपरडुपर हिट फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’, जिस के चलते गीता की कहानी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की जानकारी में आई.

सुषमा स्वराज को लगा कि गीता की भारत वापसी की कोशिश की जाए. उसे अगर उस के घर वालों से मिलवा दिया गया तो यह वाकई एक नेक काम होगा. गीता से संबंधित तमाम जानकारियां जुटाई गईं तो शुरुआती दौर में परिणाम उत्साहजनक रहे और लोगों ने उन की इस अनूठी पहल की जम कर तारीफ की.

गीता के घरवालों की तलाश

हालांकि यह कोई आसान काम नहीं था क्योंकि गीता के परिवारजनों का कोई अतापता नहीं था. इस के लिए गीता की एकलौती जायदाद उस के पास मौजूद फोटो का सहारा लिया गया. कूटनीतिक लिहाज से पाकिस्तान उस वक्त तक गीता को भारत को सौंपने के लिए बाध्य नहीं था, जब तक उस के परिवारजनों का पता नहीं चल जाता. और बिना पहचान मिले उसे भारत भेज भी दिया जाता तो होता इतना भर कि वह एक यतीमखाने से निकल कर दूसरे यतीमखाने में आ जाती,जो कहने को अपने देश का होता.

बहरहाल, इस अंजाम की परवाह किए बगैर सुषमा स्वराज और विदेश मंत्रालय ने गीता का फोटो मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए वायरल किया तो परिणाम उत्साहजनक रहे. इस फोटो को देख कर देश भर के विभिन्न राज्यों के कोई दरजन भर अभिभावकों ने गीता को अपनी बेटी बताया.

दोनों देशों के बीच गीता को ले कर खूब खतोकिताबत हुई तो देश भर का ध्यान गीता पर गया. हर किसी को उस से सहानुभूति हुई और हर कोई यह दुआ मांगने लगा कि इस मूकबधिर और अनाथ युवती को उस के मांबाप और घर वाले मिल जाएं. यह दीगर बात है कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक किसी की दुआ कबूल नहीं हुई थी.

अब तक गीता को पाकिस्तान में रहते हुए तकरीबन 13 साल हो गए थे. रेगिस्तान में पानी की उम्मीद उस वक्त नजर आई, जब यह बात लगभग तय हो गई कि गीता के मांबाप मिल गए हैं और उसे भारत भेजने के लिए दोनों देशों के बीच सहमति बन चुकी है. हुआ इतना भर था कि भारतीय उच्चायोग ने पाकिस्तान को उन कुछ लोगों की तसवीरें भेजी थीं, जिन्होंने गीता पर अपना हक जताया था. इन में से एक को गीता ने पहचान लिया तो सभी की बांछें खिल उठीं.

लेकिन गीता की कहानी शायद इतने सहज ढंग से खत्म होने के लिए नहीं थी. जिस परिवार को उसने अपना होने की संभावना व्यक्त की थी, उस के मुखिया बिहार के सहरसा जिले के एक गांव के जनार्दन महतो हैं. उन की बेटी लगभग उसी वक्त गुम हुई थी, जिन दिनों गीता पाकिस्तान जा पहुंची थी. जनार्दन महतो को गीता की तसवीर हूबहू अपनी लापता बेटी जैसी लगी थी और गीता भी एकदम इस बात से इनकार नहीं कर रही थी कि जनार्दन महतो उस के पिता नहीं हैं.

यह एक अच्छी खबर थी, जिस के चलते तय हुआ कि गीता 26 अक्तूबर, 2015 को पाकिस्तान से भारत भेज दी जाएगी. उस की वापसी की खासी तैयारियां भी की गईं. अब्दुल सत्तार ईधी के बेटे फैजल ईधी के दिल में न जाने क्यों गीता को ले कर यह खटका था कि वह महज भारत जाने के लिए जनार्दन महतो को पिता मान रही है.

रहस्य बनने लगी गीता के मांबाप की कहानी

बात इस मुकाम तक आ पहुंची थी कि अगर फैजल ऐतराज जताते तो और हल्ला मचता. खामोश तो वह नहीं रहे और इशारों में उन्होंने यह कह ही डाला कि जिस गीता की बात जनार्दन महतो के गांव वाले कर रहे हैं, उन के मुताबिक गीता की शादी बहुत कम उम्र में उमेश महतो नाम के शख्स से हो चुकी थी. उमेश से गीता को एक बेटा भी है, जिस की उम्र अब लगभग 12 साल है.

फैजल ने माना था कि अब मामला जटिल हो गया है, क्योंकि गीता इस बात से मना कर रही है कि वह शादीशुदा है. बकौल फैजल उन्होंने इस बात का पता करने की कोशिश की थी कि कहीं गीता उन्हें गुमराह तो नहीं कर रही है या फिर कुछ छिपा तो नहीं रही है.

इधर भारत में गीता की वापसी का इतना हल्ला मचने लगा था कि फैजल की बात उस शोरशराबे में दब कर रह गई. गीता की घर वापसी सन 2015 की खास घटनाओं में से एक थी. ‘बजरंगी भाईजान’ फिल्म का हवाला देते हुए किसी ने गीता को भाईचारे और भारतपाक की एकता की मिसाल बताया तो किसी ने उस की अनूठी कहानी को चमत्कार से कम नहीं माना.

भारतीय मीडिया और सरकार ने गीता के स्वागत में पलकपांवड़े बिछा दिए, जिस के चलते वह रातोंरात सेलिब्रिटी बन गई या बना दी गई, बात एक ही है. एयरपोर्ट पर उस का स्वागत करने के लिए अधिकारियों की फौज खड़ी कर दी गई. गीता के साथ बिलकीस बेगम और फैजल ईधी भी थे. यह फैजल की ही जिद या शर्त थी कि गीता की वतनवापसी हर्ज की बात नहीं है, लेकिन किसी भी दावेदार मांबाप को उसे सौंपने से पहले उन का डीएनए मैच करा लेना चाहिए. भारत सरकार ने भी इस पर हामी भरी थी.

विख्यात हो गई गीता

भारत आ कर गीता को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मिलवाया गया. इस देश में सेलिब्रिटी होना इतना ही काफी होता है. सुषमा स्वराज तो साए की तरह गीता के साथ ही रहीं.

इन हस्तियों से मिलते वक्त गीता के चेहरे पर कोई डर या संकोच नहीं था. यह शायद इसलिए भी नहीं होगा कि वह तब जानतीसमझती ही नहीं थी कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री क्या बला होते हैं. वह तो विदेश मंत्रालय के अधिकारियों के इशारों पर नाच रही गुडि़या थी.

तब इस सवाल ने सिर उठाया कि अगर कहीं खुदा न खास्ता गीता का डीएनए जनार्दन महतो से नहीं मिला तो क्या होगा. इस सवाल के जवाब में विदेश मंत्रालय की तरफ से कहा गया कि ऐसी सूरत में गीता को किसी सुरक्षित जगह भेजे जाने का फैसला लिया जा चुका है. जब तक उस के मांबाप नहीं मिल जाते, तब तक गीता वहीं रहेगी.

दिल्ली में कई नामचीन राजनैतिक हस्तियों से मिल कर गीता इंदौर के स्कीम नंबर 71 स्थित मूक बधिर संस्थान भेज दी गई, जिस की कर्ताधर्ता शहर की मशहूर समाजसेवी मोनिका पंजाबी हैं. इस संस्थान में रह रहे दिव्यांगों ने गीता के आने पर दीवाली सा त्यौहार मनाया. हैरत और दिलचस्पी की बात गीता का उन से इतने आत्मीय ढंग से मिलना रहा, जैसे वह उन्हें बरसों से जानती हो.

देश आ कर खुद को बेहद खुश और जज्बाती बता रही गीता के पांव वाकई ऐसा स्वागतसत्कार देख कर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. उसे अपनी अहमियत का अहसास हो चला था कि वह वाकई कुछ खास है.

जनार्दन महतो और गीता का डीएनए नहीं मिला तो सुषमा स्वराज की नेक कोशिशों को झटका लगा. साथ ही विदेश मंत्रालय के उन होनहार और अतिउत्साही अधिकारियों के चेहरे धुल गए, जिन्होंने एक मामूली सी यह बात सोचने की भी जहमत नहीं उठाई थी कि जिस गीता की बात सहरसा के गांव के लोग कर रहे हैं, उस का पति अगर पंजाब में रहता है, जिस ने गीता के मामले में कोई पहल नहीं की थी.

फिर एक के बाद एक गीता के कई कथित मांबाप आए और उन्होंने उसे अपनी बिछड़ी बेटी बताया पर किसी का डीएनए गीता से मैच नहीं हुआ और न ही किसी को गीता ने बतौर मांबाप पहचाना.

धीरेधीरे गीता के असल मांबाप के मिलने की उम्मीदें धूमिल होती गईं. अब तक गीता का इतना प्रचारप्रसार हो चुका था कि अगर उस के मांबाप किसी घने जंगल में भी रह रहे होते तो उन्हें खबर लग जाती कि गीता करांची से इंदौर वापस आ चुकी है, लिहाजा उसे घर ले आना चाहिए.

अपने मांबाप की बाट जोह रही गीता को इंदौर में रहते भी लंबा वक्त बीत गया था. इंदौर स्थानीय मीडिया में अकसर वह सुर्खियों में रही. उस का खानापीना और उठनाबैठना तक खबर बनने लगा था तो इस की वजह प्रशासन की सतर्कता थी जो पूरी तरह विदेश मंत्रालय के दिशानिर्देशों पर काम कर रहा था और आज भी कर रहा है.

पेचीदा हुई गीता की रहस्यमय कहानी

जब दरजनों मांबाप दावेदारी ले कर आए और मुंह लटका कर लौट गए तो इंदौर प्रशासन से ले कर विदेश मंत्रालय के गलियारों तक में गीता को ले कर घबराहट फैलने लगी. सुषमा स्वराज कब गीता की खैरियत पूछ बैठें, इस खयाल से ही अधिकारी कांपने लगे थे. जल्दबाजी में गीता के मांबाप को ढूंढने वाले को एक लाख रुपए का इनाम देने की घोषणा कर दी गई. लेकिन उस से कोई फायदा नहीं हुआ.

अब तक यह बात भी साबित हो चुकी थी कि गीता के मांबाप अगर मिल जाएं तो उन की चांदी हो जाना तय है. क्योंकि सरकार उस पर मेहरबान है. यह मामला ऐसा था कि इस में कोई कुछ नहीं कर सकता था. सुषमा स्वराज भी अकसर गीता को ले कर ट्वीट करती रहीं कि वह देश आ कर खुश है और उस के मांबाप को ढूंढने की पूरी कोशिशें की जा रही हैं.

society

पर गीता खुश नहीं थी. पिछले साल जुलाई के पहले सप्ताह में अचानक वह मूकबधिर केंद्र से लापता हो गई. इस के बाद तो इंदौर से ले कर दिल्ली और करांची तक हड़कंप मच गया. गीता की गुमशुदगी की खबर कुछ देर के लिए ही सही, आग की तरह फैली और उसे ले कर तरहतरह की वे बातें हुईं जो नहीं होनी चाहिए थीं.

इंदौर के 3 थानों की पुलिस गीता की खोज में जुट गई और कुछ देर बाद रात होने से पहले उसे रणजीत हनुमान मंदिर से पकड़ लिया गया. चंदननगर थाने की पुलिस जब गीता को सहीसलामत मूकबधिर केंद्र छोड़ गई, तब कहीं जा कर प्रशासन और केंद्र की संचालिका मोनिका पंजाबी की जान में जान आई.

गीता मूकबधिर केंद्र से गायब क्यों और कैसे हुई थी, इन 2 सवालों का जवाब आज तक किसी ने नहीं दिया, खासतौर से यह जवाबदेही केंद्र की संचालिका मोनिका पंजाबी की बनती थी. इन सवालों का जवाब मांगने के लिए जब कुछ मीडियाकर्मी मूकबधिर केंद्र पहुंचे तो वहां की एक महिला कर्मचारी ने उन से बदतमीजी करते हुए उन्हें कैमरे बंद कर दरवाजे के बाहर चले जाने का फरमान सुना दिया.

पुलिस की तरफ से भी कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला था. एडीशनल एसपी रूपेश द्विवेदी ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि मूकबधिर केंद्र के संचालन पर बात करना पुलिस के कार्यक्षेत्र से बाहर है.

बात आईगई हो गई लेकिन समझदारों को यह इशारा जरूर कर गई कि गीता बोझ नहीं तो सरकार के गले का ढोल जरूर बनती जा रही है, जिसे खुद जोशजोश में सरकार ने अपने गले में बांधा था. मूकबधिर संस्थान को गीता के खर्चे के लिए 30 हजार रुपए दिए जा रहे थे.

बात पहुंच गई शादी तक

यहां पर एक बात यह उठी कि गीता को संस्थान में पर्याप्त सुविधाएं मिल भी रही थीं या नहीं, जिस से उसे वहां घुटन महसूस होने लगी थी. ऐसे सवाल जब सुषमा की जानकारी में आए तो उन्हें चिंता हुई. उन्होंने अपने भोपाल प्रवास के दौरान गीता की शादी के संकेत दिए. चूंकि बात सुषमा स्वराज की थी, इसलिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी भागेभागे इंदौर पहुंच गए और गीता से मिल कर बोले कि मांबाप नहीं मिले तो क्या हुआ, मामा तो है. गौरतलब है कि शिवराज सिंह को खुद को मामा कहलवाना अच्छा लगता है.

एकाएक ही इसी साल फरवरी के महीने में गीता को लगा कि अब उसे शादी कर घर बसा लेना चाहिए. उस ने सुषमा स्वराज को अपनी यह इच्छा बताई तो गीता के मामले में एक बार फिर उबाल आ गया. सरकार ने उस के स्वयंवर की तैयारियां शुरू कर दीं.

स्वयंवर का यह ड्रामा कैसे परवान चढ़ा और फिर कैसे औंधे मुंह लुढ़का, यह जानने से पहले ज्ञानेंद्र पुरोहित नाम के शख्स से रूबरू होना जरूरी है, जो गीता की जिंदगी में सत्तार परिवार और सुषमा स्वराज के बाद आए तीसरे अहम किरदार हैं.

ज्ञानेंद्र की दास्तां भी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है. वह उस वक्त महज 21 साल के थे, जब 1997 में उन के बड़े भाई 26 वर्षीय आनंद पुरोहित की भोपाल के नजदीक एक रेल हादसे में मौत हो गई थी. ज्ञानेंद्र आनंद के काफी चहेते थे. उम्र में छोटे होते हुए भी वह बड़े भाई की सेवा करते थे क्योंकि आनंद मूकबधिर थे. जाहिर है मूकबधिरों की परेशानियों और दुख का अंदाजा उन्हें बचपन से ही था.

बड़े भाई की एक्सीडेंट में दर्दनाक मौत ज्ञानेंद्र के लिए एक बहुत बड़ा सदमा थी. तब ज्ञानेंद्र सीए कर रहे थे लेकिन उन्होंने पढ़ाई छोड़ कर मूकबधिरों की सेवा करने की ठान ली. परिवारजनों और दोस्तों ने हर तरह से समझाया लेकिन बेचैन ज्ञानेंद्र के मन की छटपटाहट ने किसी की एक नहीं सुनी.

मूकबधिरों के मसीहा ज्ञानेंद्र

मूकबधिरों पर ज्ञानेंद्र ने जितना काम किया, उतना शायद ही देश में किसी और ने किया होगा. सन 1997 से ले कर 1999 तक वह देशविदेश घूमे. इस दौरान ज्ञानेंद्र ने शिद्दत से महसूस किया कि देश में मूकबधिर बेहद दयनीय हालत में रह रहे हैं. उन की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती और उन से सरकारी या सामाजिक हमदर्दी एक दिखावा और छलावा भर है. सांकेतिक भाषा यानी साइन लैंग्वेज तो वह पहले से ही जानते थे लिहाजा दुनिया घूमने के दौरान उन्हें कई करुण अनुभव हुए.

आस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में हुई वर्ल्ड डैफ कौन्फ्रैंस में ज्ञानेंद्र का प्रस्तुतीकरण इतना प्रभावी था कि उन्हें वहीं की एक संस्था वेस्टर्न डैफ सोसायटी ने अच्छे पैकेज पर नौकरी की पेशकश कर डाली. लेकिन सिर्फ पैसे कमाना या विदेश में रहने की शान बघारना ज्ञानेंद्र की जिंदगी का मकसद नहीं था. अपना मकसद पूरा करने के लिए उन्होंने बड़े भाई के नाम पर आनंद सर्विस सोसायटी बना ली थी.

सन 2001 में ज्ञानेंद्र ने मोनिका पुरोहित से शादी कर ली, जो खुद मूकबधिरों के लिए काम करती थीं. पुरोहित दंपति ने मूकबधिरों के लिए अपनी जिंदगी झोंक दी जो एक असामान्य काम था. इसी दौरान ज्ञानेंद्र ने अपनी अधूरी पढ़ाई शुरू की और एक खास मकसद से एलएलबी के बाद एलएलएम भी किया. ज्ञानेंद्र मूकबधिरों के मुकदमे मुफ्त में लड़ने लगे तो उन की चर्चा इंदौर के बाहर भी शुरू हो गई.

ज्ञानेंद्र की पहल पर ही इंदौर के तुकोगंज इलाके में पहला मूकबधिर थाना खोला गया. बड़े पैमाने पर चर्चा में वह तब आए जब उन्होंने राष्ट्रगान का सांकेतिक भाषा में न केवल अनुवाद किया बल्कि राष्ट्रगान को सांकेतिक भाषा में मान्यता दिलवाने का काम भी किया. लंबी कानूनी अड़चनों को लांघते हुए उन्होंने मूकबधिरों के लिए राष्ट्रगान की सरकारी मान्यता हासिल की. सन 2001 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी सरकार ने ज्ञानेंद्र के इस जज्बे की कद्र भी की थी.

आज सरकारी नौकरियों में मूकबधिरों के लिए जो आरक्षण मिला हुआ है, वह भी ज्ञानेंद्र की ही एक अहम उपलब्धि है जिस के बाबत उन्होंने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ते हुए आंदोलन भी छेड़ा था. अब ज्ञानेंद्र की नई कोशिश या लड़ाई इस बात की है कि सांकेतिक भाषा को संवैधानिक भाषा का दरजा मिले.

वह ज्ञानेंद्र पुरोहित ही थे, जिन्होंने न केवल गीता की खोज में अहम रोल निभाया बल्कि उस की हर मुश्किल आसान करने में उस की पूरी मदद भी की. जब गीता के भारत आने की बात चली तो ज्ञानेंद्र ने औनलाइन उस से सांकेतिक भाषा में बात की और बताया था कि गीता भारत आ कर सलमान खान से मिलना चाहती है और सहरसा के जनार्दन महतो को अपना पिता होना बता रही है.

गीता जब इंदौर आई तो ज्ञानेंद्र ने उसे सांकेतिक भाषा सिखाई. गीता और बाकी दुनिया के बीच उन्होंने दुभाषिए और मध्यस्थ का काम किया. ईधी फाउंडेशन भी चाहता था कि भारत जा कर गीता ज्ञानेंद्र के संरक्षण में रहे ताकि उस की बातें लोगों को ठीक तरह से समझ आ सकें और उस का सच सामने आए.

ज्ञानेंद्र के मुताबिक पाकिस्तान में रहते गीता ठीक से सांकेतिक भाषा नहीं जानती थी. गीता ने खुद ही अपने इशारे बना रखे थे, जिन में बाद में ज्ञानेंद्र ने सुधार किया और देखते ही देखते गीता सांकेतिक भाषा सीख गई.

आगे बढ़ी शादी की बात

गीता ने जब शादी की इच्छा व्यक्त की तो एक बार फिर मीडिया उस के रंग में रंग गया. विदेश मंत्रालय ने गीता के लिए उपयुक्त वर ढूंढने की कोई कसर नहीं छोड़ी. फेसबुक पर खासतौर से एक पेज बनाया गया, जिस के जरिए गीता से शादी करने के इच्छुक युवकों से विवाह प्रस्ताव कुछ शर्तों पर मांगे गए. मीडिया और सोशल मीडिया पर भी गीता के स्वयंवर की जम कर चर्चा हुई.

सरकार ने घोषणा कर डाली कि जिसे गीता जीवनसाथी के रूप में चुनेगी, उसे सरकारी नौकरी, मकान और दूसरी सहूलियतें दी जाएंगी. पर्याप्त प्रचारप्रसार के बाद भी गीता के स्वयंवर में युवक मधुमक्खियों की तरह नहीं टूटे.

सरकारी दहेज का तगड़ा लालच भी जातपात, नाथअनाथ और धर्म की दीवार नहीं भेद पाया. फिर भी गीता के लिए कुछ प्रस्ताव आए. इस में भी ज्ञानेंद्र ने पूरी सहायता की. आखिर में विदेश मंत्रालय की सहमति के बाद 14 युवकों के प्रस्ताव गीता के पास भेजे गए.

यह कोई त्रेता या द्वापर युग का स्वयंवर नहीं था, जिस में उम्मीदवार को धनुष तोड़ना हो या फिर घूमती मछली की आंख पर निशाना साधना हो. यह लोकतांत्रिक कागजी स्वयंवर था, जिस में अंतिम फैसला गीता को लेना था. गीता से शादी करने के लिए कर्मकांडी पंडित से ले कर लेखक तक आगे आए तो एक बार लगा कि बात बन जाएगी. मांबाप भले ही न मिले हों लेकिन उपयुक्त जीवनसाथी चुन कर गीता पति के साथ बाकी जिंदगी चैन, सुकून और आराम से गुजारेगी.

7 जून को जिन 6 उम्मीदवारों को इंदौर बुलाया गया था, उन में से केवल 4 ही पहुंचे. चुनिंदा लोगों की मौजूदगी में स्वयंवर की प्रक्रिया शुरू हुई, जिस में गीता को इन युवाओं से सवालजवाब करने की आजादी मिली हुई थी. यह छूट उम्मीदवारों को भी दी गई थी ताकि वे गीता से सवाल कर सकें.

इंदौर शहर का माहौल तो गीता के इस अनूठे स्वयंवर को ले कर गर्म था ही लेकिन देश भर के लोग दिलचस्पी से टीवी स्क्रीन के सामने टकटकी लगाए देख रहे थे कि कब गीता के स्वयंवर वाली खबर दिखाई जाती है.

स्वयंवर में गीता की शर्तें

उस दिन दोपहर ठीक साढ़े 12 बजे गीता नीले रंग के सलवारसूट में मूकबधिर संस्थान के हौल में आई तो खूब फब रही थी. यह मालवांचल की आबोहवा का ही असर था कि कल तक दुबलीपतली और हमेशा घबराई सी दिखने वाली गीता भरीपूरी और आत्मविश्वास से लबरेज दिख रही थी. उस ने भरपूर नजरों से उम्मीदवारों की तरफ देखा और इशारे से स्वयंवर के पहले चरण को शुरू करने का इशारा कर दिया.

प्रथम ग्रासे मच्छिका वाली कहावत उस समय लागू हुई, जब इंदौर के ही एक उम्मीदवार 21 वर्षीय सचिन पाल ने गीता की इस शर्त को मानने से इनकार कर दिया कि उस के भावी पति को सांकेतिक भाषा आनी चाहिए और नहीं आती है तो सीखनी होगी.

अलबत्ता पेशे से मोल्डिंग मशीन औपरेटर सचिन ने गीता को हर हाल में खुश रखने की शर्त मानी लेकिन गीता की दूसरी इस अहम शर्त से वह मुकर गया कि वह गीता के मांबाप को ढूंढने में मदद करेगा. उस का यह कहना व्यवहारिक बात थी कि अब गीता के मांबाप को ढूंढना वक्त और पैसे की बरबादी है.

भोपाल से गए राजकुमार स्वर्णकार और उन के साथ गए मांबाप को गीता की हर शर्त मंजूर थी. राजकुमार भोपाल में ई-रजिस्ट्री कराने और स्टांप पेपर बेचने का काम करता है. यह परिवार किसी भी कीमत पर गीता को अपनी बहू बनाने के लिए तैयार दिखा. राजकुमार के पिता प्रेमनारायण स्वर्णकार ने बताया कि गीता की खुशी के लिए उन का पूरा परिवार ही सांकेतिक भाषा सीखने को तैयार है.

अहमदाबाद से आया 26 वर्षीय रितेश पटेल तो गीता को ले कर काफी उत्साहित नजर आया. रट्टू तोते की तरह उस ने भी गीता को खुश रखने का वचन दोहराया. टीकमगढ़ से आया 30 वर्षीय अरुण नामदेव आबकारी विभाग में नौकरी करता था. अरुण का नजरिया यह था कि गीता एक फेमस और सेलिब्रिटी है, जिसे जीवनसाथी बना कर उसे अच्छा लगेगा. अरुण ने गीता के मांबाप को ढूंढने का वादा भी किया.

जब गीता के पूछने की बारी आई तो उस ने इधरउधर के बजाय मुद्दे की यह बात उम्मीदवारों से पूछी कि उन की आर्थिक और पारिवारिक हैसियत क्या है. इस के बाद स्वयंवर में दरबारियों की हैसियत से बैठे लोगों के चेहरे पर निराशा के भाव नजर आने लगे. क्योंकि गीता ने वह रिस्पौंस नहीं दिया, जिस की उन्हें उम्मीद थी. मूकबधिर संस्था की कर्ताधर्ता मोनिका और ऊषा पंजाबी के अलावा ज्ञानेंद्र पुरोहित और उन की पत्नी मोनिका पुरोहित भी स्वयंवर में मौजूद थे.

फजीहत बना स्वयंवर

स्वयंवर के दूसरे दिन 8 जून को आमंत्रित 7 में से मात्र 2 ही उम्मीदवार पहुंचे तो साफ लगने लगा था कि शायद ही बात बने. इस दिन पिछले दिन के मुकाबले गीता काफी आक्रामक मूड में नजर आई और उस ने मथुरा और जयपुर से आए युवकों पर सवालों की बौछार लगा दी तो दोनों घबरा गए.

गीता ने एक परिपक्व और दुनियादारी देख चुकी लड़की की तरह इन दोनों से पूछा कि वे जहां रहते हैं, वह शहर है या गांव. वे खुद के मकान में रहते हैं या किराए के मकान में? कार है या नहीं और शादी के बाद क्या वह इंदौर में रहेंगे? गीता ने यह भी जोर दे कर पूछा कि आप मांबाप को ढूंढने में मेरी मदद करोगे या नहीं. युवकों की पढ़ाईलिखाई की जानकारी भी उस ने ली.

ये युवक दुम दबा कर चले गए तो स्वयंवर का यह ड्रामा भी खत्म हो गया. गीता ने इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कोई नाम फाइनल नहीं किया था, उलटे वह और उम्मीदवारों से मिलने की बात कर रही थी. इधर स्वयंवर के आयोजक पहले से ही अपना सिर धुन रहे थे कि जैसेतैसे बायोडाटा छांटछांट कर 14 लोगों को बुलाया था, उन में से भी केवल 6 ही आए और वे भी गीता की कसौटी पर खरे नहीं उतरे.

इस के बाद यह खबर आई कि गीता ने अपने हमदर्द और मददगार ज्ञानेंद्र पुरोहित की यह कहते हुए जम कर क्लास लगाई कि वह उस की तसवीरें और जानकारी मीडिया में लीक कर रहे हैं. और तो और एक बार तो उस ने ज्ञानेंद्र को पहचानने तक से इनकार कर दिया.

अब यह किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि गीता आखिरकार चाहती क्या है. एक कयास यह भी लगाया गया कि वह सरकारी इमदाद और मूकबधिर संस्था छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है तो दूसरा अंदाजा यह लगाया कि कहीं सचमुच में गीता शादी कर घर बसाना चाहती है या फिर उस ने सरकारी दबाव में आ कर स्वयंवर रचाने की सहमति दे दी थी.

अब आगे जो भी हो, लेकिन गीता को ले कर कई सवाल और शक स्वाभाविक रूप से उठ रहे हैं. इन में पहला यह है कि क्या वह सचमुच भारतीय ही है. सवाल नाजुक है लेकिन है अहम, वजह गीता को भारत वापस आते तो सभी ने देखा लेकिन मांबाप से बिछुड़ते किसी ने नहीं देखा था.

सवालों के चक्रव्यूह में गीता

उच्चायोग और विदेश मंत्रालय ने ईधी फाउंडेशन के कहने भर से कैसे मान लिया कि वह अब से कोई 14 साल पहले समझौता एक्सप्रैस में मिली थी. मुमकिन तो यह भी है कि वह पाकिस्तान की ही हो. ईधी फाउंडेशन को क्या जरूरत थी कि गीता द्वारा हिंदू देवीदेवताओं की पूजापाठ करती तसवीरें वायरल करे.

दरजन भर लोगों की डीएनए जांच हुई लेकिन इन में से कोई गीता का मांबाप नहीं निकला तो महज इस उम्मीद व अंदाजे की बिना पर गीता को भारत क्यों लाया गया कि आज नहीं तो कल उस के मांबाप मिल ही जाएंगे. सवाल यह भी है कि गीता संस्थान से भागी क्यों थी? और आखिर में उस ने स्वयंवर में आए उम्मीदवारों को रिजेक्ट क्यों कर दिया? जब उसे शादी नहीं करनी थी तो इस ड्रामे की क्या जरूरत थी?

सरकार के गले की हड्डी बन चुकी गीता की कहानी एक नाजुक मसला है, जिसे हलके में लेने की चूक सरकार कर चुकी है. उस की शादी कर पल्ला झाड़ने या छुटकारा पाने की आखिरी कोशिश भी बेकार गई तो लगता है गीता या तो किसी मनोविकार जैसे अवसाद की शिकार हो गई है और उस ने जानबूझ कर ज्ञानेंद्र पुरोहित को लताड़ लगाई.

लाख टके का सवाल यह भी है कि अगर उस के मांबाप नहीं मिले और अब शादी के लिए कोई आगे नहीं आया तो सरकार क्या करेगी? गीता की देखरेख और शाही आवभगत में करीब 6 लाख रुपए प्रतिवर्ष से भी ज्यादा का खर्च आ रहा है. सरकार कब तक यह खर्च उठाएगी और क्यों उठाएगी, जबकि गीता के भारतीय होने की पुष्टि अभी तक नहीं हुई है?

मान भी लिया जाए कि गीता भारतीय है और सच बोल रही है तो उस का भविष्य क्या है? सरकार कैसे उस का पुनर्वास करेगी और भविष्य में कभी गीता फिर भागने की कोशिश नहीं करेगी, इस बात की गारंटी कौन ले रहा है?

मनोहर कहानियां से खास बातचीत में ज्ञानेंद्र पुरोहित ने यह आशंका जताई कि गीता इन दिनों अवसाद में है और इसी के चलते कोई आत्मघाती कदम भी उठा सकती है. लिहाजा उस पर विशेष ध्यान दिया जाना जरूरी है.

राजेश साहनी की खुदकुशी : एटीएस कैंपस में दफन है राज

एंटी टेरेरिस्ट स्क्वायड यानी एटीएस में बतौर एएसपी तैनात राजेश साहनी की खुदकुशी पर लखनऊ के लोग यकीन नहीं कर पा रहे. राजेश साहनी का नाम ईमानदार और सीधेसरल अफसरों में लिया जाता था. वह बहुत मृदुभाषी थे. लोग उन के पास अपनी परेशानी ले कर जाते थे तो शिकायत सुनने के बाद वह अपनी सलाह देते समय एक तरह से पूरी काउंसलिंग कर देते थे.

जब वह किसी सेमीनार में हिस्सा लेने जाते थे तो सब से एक ही अपील करते थे कि कभी अपने मन की बात को मन में न रखें, उसे व्यक्त करें, कठिनाई कोई भी हो रास्ता निकल ही आता है. पुलिस विभाग में उन को मोटिवेटर के रूप में देखा जाता था.

राजेश साहनी केवल मोटिवेटर ही नहीं थे, खुद भी बहुत कुछ करते थे. जहां बहादुरी दिखानी होती थी वहां वह पीछे नहीं हटते थे. उन के लिए इस बात का कोई मतलब नहीं था कि पुलिस के किस विभाग में तैनात हैं.

लखनऊवासियों को उस समय का एक वाकया आज भी याद है, जब राजेश साहनी सीओ चौक हुआ करते थे. उन्हीं दिनों एक दिन वह वाहनों की चेकिंग कर रहे थे. तब समाजवादी पार्टी की सरकार थी और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे. चैकिंग के समय सपा के कुछ नेता वहां से एक जीप से गुजरे. पुलिस ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो उन्होंने जीप को पुलिस पर चढ़ाने का प्रयास किया. राजेश साहनी खुद आगे बढ़े और जीप के बोनट पर चढ़ गए.

दुस्साहसी नेताओं ने जीप की स्पीड बढ़ा दी और गाड़ी लहरा कर चलाने लगे ताकि राजेश साहनी गिर जाएं, उन को चोटें लगें. 3 किलोमीटर तक गाड़ी इसी तरह भागती रही. साहनी की हिम्मत देख नेताओं को लगा कि वे बचेंगे नहीं. ऐसे मे वे जीप को मुख्यमंत्री आवास की ओर ले जाने लगे.

पुलिस ने घेराबंदी की और हजरतगंज में एसएसपी कार्यालय के पास जीप रोक ली. गिरफ्तारी के बाद पुलिस ने नेताओं को जेल भेज दिया. इस मामले के बाद पूरे लखनऊ में राजेश साहनी की चर्चा जांबाज अफसर के रूप में होने लगी.

वैसे पटना के रहने वाले राजेश साहनी ने अपना कैरियर एक पत्रकार के रूप में शुरू किया था. 1997 में राजेश साहनी का चयन उत्तर प्रदेश पुलिस सेवा में हो गया. मुरादाबाद में प्रोबेशन पीरियड खत्म होने के बाद उन की पोस्टिंग कानपुर में बतौर अंडर ट्रेनी डीएसपी हुई. 2006 में उन्हें लखनऊ में तैनाती मिली. इस के बाद उन्हें किसी जिले में तैनात नहीं किया गया.

2006 से 2012 के बीच वह लखनऊ में ही इंटलीजेंस, पुलिस हेडक्वार्टर, एसटीएफ, डीजीपी हेडक्वार्टर में रहे. 4 साल तक वह डीजी उत्तर प्रदेश के उप सहायक रहे. 2012 में राजेश साहनी प्रतिनियुक्ति पर केंद्र सरकार के अधीन एनआईए में दिल्ली चले गए थे.

2 साल बाद वह 2014 में वापस लखनऊ आए तो उन की नियुक्ति एटीएस लखनऊ में बतौर एएसपी हो गई. पुलिस सेवा में 21 साल गुजारने वाले राजेश साहनी को लिखापढ़ी में बहुत होशियार माना जाता था.

राजेश साहनी केवल समाज के लिए ही व्यवहारकुशल नहीं थे, घरपरिवार की अपनी जिम्मेदारी के प्रति भी पूरी तरह से सजग और जिम्मेदार थे. उन्हें पटना में रहने वाले अपने मातापिता प्रेम सागर साहनी और कांता साहनी की बहुत चिंता लगी रहती थी. वह करीबकरीब रोज ही अपने घर पर फोन कर के बात करते थे.

उन की मां को पैर में चोट लग गई थी, लेकिन मातापिता ने इस बात की जानकारी राजेश साहनी को नहीं दी, क्योंकि वह उन्हें परेशान नहीं करना चाहते थे. जब यह बात राजेश साहनी को पता चली तो उन्होंने पटना जाने के लिए एयर टिकट करा लिया था.

मातापिता के साथ ही साथ वह अपनी पत्नी और बेटी को भी बहुत प्यार करते थे. राजेश साहनी कोई प्रौपर्टी भले ही न बना पाए हो पर सब के दिल में जगह बनाने में सफल रहे थे. वह लखनऊ पुलिस लाइन में अपने सरकारी आवास में ही रहते थे. यही साथ में पत्नी सोनी और बेटी श्रेया रहती थीं.

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राजेश साहनी की बेटी श्रेया ने दिल्ली के लेडी श्रीराम कालेज से ग्रैजुएशन किया था. इस के बाद श्रेया ने मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट औफ सोशल साइंसेज से पोस्टग्रेजुएट करने के लिए एमए में दाखिला ले लिया था. राजेश बेटी को मुंबई छोड़ने जाने के पहले उस के साथ घूमने जाने का कार्यक्रम बना चुके थे.

राजेश पटना हो कर मुंबई जाना चाहते थे, जिस से मातापिता से भी मिल लें. इस के लिए उन्होंने 10 दिन की छुट्टी ली थी. साहनी खुशदिल इंसान थे, इस का पता उन के फोन की रिंग टोन से ही लग जाता था. ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया.’ यह रिंग टोन सालों से उन के फोन की पहचान थी.

औफिस में की खुदकुशी

29 मई की दोपहर अचानक लखनऊ के लोगों को यह खबर मिली कि राजेश साहनी ने गोमतीनगर स्थित एटीएस के औफिस में रिवाल्वर से गोली मार कर खुदकुशी कर ली. इस की सूचना राजेश साहनी के परिवार वालों को बहुत देर में दी गई. उन दिनों राजेश साहनी 10 दिन के अवकाश पर थे. इस के बावजूद वह औफिस गए थे.

जानकारी के अनुसार उन्हें किसी खास काम से बुलाया गया था. 49 साल के राजेश दोपहर के करीब 12 बजे अपने औफिस गए थे. 12:45 से 1 बजे के बीच उन्होंने खुद को गोली मार ली. इन दिनों वह पिथौरागढ़ में पकडे़ गए आईएसआई एजेंट रमेश सिंह के मामले में तफ्तीश कर रहे थे.

बताते हैं कि औफिस पहुंच कर राजेश साहनी ने अपने ड्राइवर मनोज से शस्त्रागार से पिस्टल मंगवाई थी. उन्हें पिस्टल दे कर मनोज गाड़ी में पैट्रोल डलवाने चला गया. उस के जाते ही राजेश साहनी ने अंदर से दरवाजा बंद कर के खुद को गोली मार ली.

औफिस में गोली चलने की आवाज सुनते ही एटीएस एसएसपी जोगेंद्र कुमार उन के रूम में पहुंचे. दरवाजा अंदर से लौक था. दूसरी ओर का दरवाजा खोला गया तो अंदर राजेश साहनी का शव पड़ा था. घटना की सूचना मिलते ही लखनऊ के एसएसपी दीपक कुमार  भी मौके पर पहुंच गए.

घटना के 2 घंटे के बाद एफएसएल के अधिकारी भी मौके पर आ  गए. फोरेंसिक जांच के बाद राजेश का शव पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया. राजेश की दाईं कनपटी के पास गोली लगी थी, जो बाईं कनपटी को चीरते हुए निकल गई थी.

गोली लगने के बाद उन की मौके पर ही मौत हो गई. गोली कनपटी से पिस्टल सटा कर चलाई गई थी. जिस जगह पर गोली लगी उस के आसपास बारूद जलने के निशान पाए गए.

30 मई को राजेश साहनी का अंतिम संस्कार लखनऊ के भैंसाकुंड स्थल पर किया गया. राजेश को अंतिम विदाई देने के लिए केवल पुलिस विभाग के लोग ही नहीं बल्कि लखनऊ के तमाम लोग उमड़पड़े थे. राजेश को मुखाग्नि देने का काम उन की बेटी श्रेया ने किया.

सब की जुबान पर एक ही बात थी कि कभी हार न मानने वाले राजेश ने किस वजह से जिंदगी से हार मान ली. मंत्री सूर्यप्रताप शाही से ले कर पुलिस विभाग के सभी आला अधिकारी वहां मौजूद थे. हैरानी इस बात की थी कि राजेश ने ऐसा क्यों किया?

क्यों की खुदकुशी

पुलिस विभाग में इस बात की चर्चा है कि छुट्टी के बाद भी किस अफसर के कहने पर उन्हें जरूरी काम के लिए बुलाया गया? एटीएस में कामकाज को ले कर राजेश से किसी अफसर का झगड़ा भी हुआ था. कहा जा रहा है कि ऐसे ही किसी हालात से खिन्न हो कर राजेश जैसे जिंदादिल इंसान ने यह कदम उठा लिया होगा.

राजेश के पास जो भी केस आता था उसे वह पूरी तरह सुलझाते थे. एटीएस के करीब 90 फीसदी गुड वर्क में उन की भूमिका प्रमुख होती थी. वह बेहद ठंडे दिमाग से काम लेते थे. आईएसआई एजेंट रमेश सिंह कान्याल को पकड़ने में उन की प्रमुख भूमिका थी.

शुक्रवार 27 मई को रमेश कान्याल को अदालत में पेश किया गया था. पुलिस विभाग के अफसर चाहते थे कि रमेश को रिमांड पर लिया जाए. राजेश को छुट्टी पर जाना था. रमेश का बयान दर्ज कराने के लिए ही वह छुट्टी पर होने के बावजूद औफिस आए थे. सवाल यह उठता है कि औफिस आने के बाद ऐसा क्या हुआ जो राजेश ने खुद को गोली मार ली?

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने इस मामले को सीबीआई के हवाले कर दिया है. सीबीआई की जांच के बाद ही यह पता चल सकेगा कि राजेश ने खुद को गोली क्यों मारी? जिस एटीएस पर आतंकवादियों को पकड़ने की जिम्मेदारी है, वह अपने ही अफसर की मौत के राज का पता लगाने के लिए सीबीआई की शरण में है. यह साफ है कि एटीएस औफिस के कैंपस के अंदर ही राजेश की मौत का राज छिपा है.

प्रेमिका से शादी के लिए मां बाप से खूनी दुश्मनी

28 अप्रैल, 2018 को दिल्ली के कंट्रोल रूम को सूचना मिली कि जाकिर नगर की गली नंबर 7 में रहने वाले शमीम अहमद का दरवाजा अंदर से बंद है. काफी आवाजें देने के बावजूद भी उन के कमरे से कोई प्रतिक्रिया नहीं हो रही.

चूंकि यह मामला दक्षिणपूर्वी दिल्ली के थाना जामिया नगर के अंतर्गत आता है, इसलिए पुलिस कंट्रोल रूम से वायरलेस द्वारा यह सूचना थाना जामिया नगर को दे दी गई. सूचना मिलते ही थानाप्रभारी संजीव कुमार पुलिस टीम के साथ मौके पर पहुंच गए. वहां पर शमीम अहमद के बेटे अब्दुल रहमान के अलावा आसपास के लोग भी जमा थे.

अब्दुल रहमान ने पुलिस को बताया कि कल रात खाना खाने के बाद उस के अम्मीअब्बू अपने कमरे में सोने के लिए चले गए थे, जबकि वह दूसरे कमरे में सो गया था. रोजाना उस के अम्मीअब्बू ही सुबह पहले उठते थे. वही उसे जगाते भी थे, लेकिन आज वह अभी तक नहीं उठे. मैं ने काफी देर दरवाजा खटखटाया इस के बावजूद भी अंदर से कोई आवाज नहीं आ रही. वहां मौजूद पड़ोसियों ने भी अब्दुल रहमान की हां में हां मिलाई.

अब्दुल रहमान की बात सुनने के बाद थानाप्रभारी संजीव कुमार ने भी दरवाजा खटखटाया लेकिन वास्तव में अंदर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो उन्हें भी शक होने लगा. तब उन्होंने लोगों की मौजूदगी में दरवाजा तोड़ दिया. दरवाजा तोड़ने के बाद जैसे ही पुलिस अंदर घुसी तो पहले कमरे में ही फर्श पर शमीम अहमद और उन की पत्नी तसलीम बानो की लाशें पड़ी थीं.

रहस्यमय मौतें

अम्मी और अब्बू की लाशें देख कर रहमान दहाडें़े मार कर रोने लगा. पड़ोसी भी हतप्रभ थे कि दोनों की मौत कैसे हो गई. उन के शरीर पर किसी चोट आदि का निशान भी नहीं था. दोनों की मौत कैसे हुई उस समय इस का पता लगाना संभव नहीं था. थानाप्रभारी संजीव कुमार ने इस मामले की जानकारी डीसीपी चिन्यम बिश्वाल को दे दी. साथ ही क्राइम इन्वैस्टीगेशन टीम को भी मौके पर बुलवा लिया.

थानाप्रभारी ने मौकामुआयना किया तो पता चला कि उस दरवाजे पर औटोमैटिक लौक लगा हुआ था, जो अंदर और बाहर दोनों तरफ से बंद हो जाता था. उन के कमरे में सवा 5 लाख रुपए की नकदी के अलावा ज्वैलरी भी मिली. इस से वहां पर लूट की संभवना नजर नहीं आई. कमरे में 2 लोग सो रहे थे, दोनों की ही संदिग्ध मौत हो गई थी.

ऐसा भी नहीं था कि उन की मौत कमरे में मौजूद किसी जहरीली गैस की वजह से हुई हो क्योंकि जब कमरे का दरवाजा तोड़ा गया था तो उस समय कमरे में किसी जहरीली गैस आदि की स्मैल भी नहीं आ रही थी. यानी उस समय कमरे में पर्याप्त मात्रा में औक्सीजन थी. लग रहा था कि उन दोनों के खाने में कोई जहरीली पदार्थ मिला दिया गया होगा.

बहरहाल इन दोनों की मौत कैसे हुई यह पोस्टमार्टम के बाद ही पता लग सकता था. लिहाजा थानाप्रभारी ने जरूरी काररवाई कर के दोनों लाशों को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया. डीसीपी चिन्मय बिश्बाल ने भी घटनास्थल का दौरा किया. अब्दुल रहमान शमीम अहमद का इकलौता बेटा था. वही उन के साथ रहता था, इसलिए पुलिस ने अब्दुल रहमान से कहा कि जब तक इस केस की जांच पूरी न हो जाए वह दिल्ली छोड़ कर कहीं न जाए.

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2-3 दिन बाद पुलिस को पोस्टमार्टम रिपोर्ट मिल गई. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बताया गया था कि उन की मौत दम घुटने की वजह से हुई थी. यानी किसी ने उन का दम घोट कर हत्या की थी. पुलिस इस बात का पता लगाने में जुट गई कि उन का कातिल कौन है.

उधर मृतकों का बेटा अब्दुल रहमान थाने और डीसीपी औफिस के चक्कर काट कर अपने मातापिता के हत्यारे का पता लगा कर उसे गिरफ्तार करने की मांग कर रहा था. जबकि पुलिस अलगअलग तरीके से जांच कर केस को खोलने की कोशिश में लगी थी.

इस दौरान थानाप्रभारी संजीव कुमार ने अब्दुल रहमान से भी 2 बार पूछताछ की थी. लेकिन उस से कोई क्लू नहीं मिल सका था. उन के यहां जिनजिन रिश्तेदारों या परिचितों का आनाजाना था, पुलिस ने उन्हें भी थाने बुला कर पूछताछ की.

इतना ही नहीं पुलिस ने उन पेशेवर हत्यारों को भी उठा लिया जो उस समय जेल से बाहर थे. लेकिन उन से भी कोई जानकारी नहीं मिली. इधर मामले को ले कर पुलिस भी परेशान थी. घटना के 3 सप्ताह बाद पुलिस ने अब्दुल रहमान को एक बार फिर थाने बुलाया. थाना प्रभारी और इंसपेक्टर भारत कुमार की टीम ने उस से फिर पूछताछ की. सख्ती से की गई पूछताछ में अब्दुल रहमान ने अपना मुंह खोलते हुए कहा कि अपने मांबाप का हत्यारा मैं ही हूं. मैं ने ही अपने दोस्तों के साथ उन की हत्या की थी.

उस की बात सुन कर एक बार तो पुलिस भी आश्चर्यचकित रह गई कि वह अपने मांबाप का एकलौता बेटा था तो ऐसी क्या बात हो गई कि घर के इसी चिराग ने अपने मांबाप का ही खून कर दिया. पुलिस ने अब्दुल रहमान से मांबाप की हत्या करने की वजह जानने के लिए पूछताछ की तो उस ने उन की हत्या की जो कहानी बताई वह हैरान करने वाली थी.

फेसबुक की दोस्त बनी महबूबा

अब्दुल रहमान अपने मांबाप की इकलौती संतान था. पिता शमीम अहमद और मां तसलीम बानो ने उसे हमेशा अपनी पलकों पर बिठा कर रखा था. वह उस की हर फरमाइश पूरी करते थे. मांबाप का लाडला अब्दुल रहमान पढ़ाई में भी होशियार था. उस का माइंड क्रिएटिव था इसलिए उस ने एनिमेशन में डिप्लोमा किया. मांबाप चाहते थे कि उन के बेटे की कहीं अच्छी जगह नौकरी लग जाए. शमीम अहमद ने करीब डेढ़ साल पहले उस की शादी कर दी थी, लेकिन किसी वजह से उस की पत्नी से नहीं बनी. दोनों के विचारों में विरोधाभास था, इसलिए उस ने पत्नी को तलाक दे दिया.

इस के बाद फेसबुक के माध्यम से अब्दुल रहमान की दोस्ती कानपुर की रहने वाली एक लड़की से हो गई. यह दोस्ती इतनी गहरी हो गई कि दोनों ही एकदूसरे को दिलोजान से चाहने लगे. यहां तक कि दोनों शादी के लिए भी तैयार हो गए.

लड़की ने कह दिया कि वह उस के लिए अपने घर वालों तक को छोड़ने के लिए तैयार है. अब बात अब्दुल रहमान को फाइनल करनी थी. वह तो तैयार था लेकिन उसे उम्मीद थी कि शायद उस के घर वाले कानपुर वाली उस की दोस्त से शादी करने के लिए तैयार नहीं होंगे.

फिर भी अब्दुल रहमान ने अपने मातापिता से कानपुर वाली अपनी दोस्त के बारे में बताया और कहा कि वह उस से शादी करना चाहता है. शमीम अहमद ने साफ कह दिया कि वह अपनी बिरादरी की लड़की के साथ ही उस की शादी करना पसंद करेंगे. इसलिए कानपुर वाली उस लड़की को वह भूल जाए. उस के साथ उस की शादी नहीं हो सकती.

मांबाप पर भारी पड़ी प्रेमिका

पिता ने जितनी आसानी से भुला देने वाली बात कही थी, वह अब्दुल रहमान के लिए उतनी आसान नहीं थी. बहरहाल घर वालों की बातों को दरकिनार करते हुए वह अपनी उस फेसबुक फ्रेंड के संपर्क में बना रहा. इतना ही नहीं वह उस से मिलने भी जाता था.

इसी दौरान घर वालों ने अब्दुल रहमान की दूसरी शादी कर दी. घर वालों के दबाव में उस ने शादी कर जरूर ली थी लेकिन उस के दिल में तो उस की कानपुर वाली प्रेमिका बसी हुई थी.

दूसरी शादी हो जाने के बाद भी वह अपनी प्रेमिका को नहीं भूला था. वह एक काल सेंटर में नौकरी करता था, इसलिए प्रेमिका को महंगे गिफ्ट आदि देने और उस से मिलने के लिए कानपुर जाता रहता था. वह अब्दुल रहमान पर शादी के लिए दबाव डाल रही थी. वह भी सोचता था कि यदि प्रेमिका ही उस की पत्नी बन जाए तो उस का जीवन हंसीखुशी से बीतेगा. लेकिन इस काम में सब से बड़ी रुकावट उस के मांबाप ही थे.

अब्दुल रहमान ने एक बार फिर से अपने मांबाप को मनाने की कोशिश की कि वह उस की कानपुर वाली दोस्त के साथ उस की शादी कर दें. लेकिन शमीम अहमद ने बेटे को न सिर्फ जम कर फटकार लगाई बल्कि हिदायत भी दी कि वह उस लड़की को भूल कर अपनी घरगृहस्थी में ध्यान लगाए.

अब्दुल रहमान की कोशिश नाकाम हो चुकी थी पर वह हारना नहीं चाहता था. आखिर उस ने भी एक सख्त फैसला ले लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए वह अपनी प्रेमिका को दुलहन बना कर घर लाएगा. इस के लिए उस ने अपने मांबाप को रास्ते से हटाने का फैसला ले लिया. यानी प्रेमिका की खातिर उस ने मांबाप तक की हत्या करने की ठान ली.

इतना बड़ा काम वह खुद नहीं कर सकता था. इस बारे में उस ने दिल्ली के नांगलोई इलाके के रहने वाले अपने दोस्त नदीम खान (32) और गुड्डू से बात की. दोनों ढाई लाख रुपए में यह काम करने के लिए तैयार हो गए. तीनों ने शमीम अहमद और तसलीम बानो की हत्या करने की पूरी योजना बना ली.

योजना के अनुसार 27-28 अप्रैल की रात नदीम खान और गुड््डू जाकिर नगर इलाके में आ गए. अब्दुल रहमान के मातापिता जब खाना खा कर अपने कमरे में सोने के लिए चले गए तो रात 11 बजे के करीब अब्दुल रहमान ने फोन कर के अपने दोनों दोस्तों को घर बुला लिया. उन के घर आने के बाद अब्दुल रहमान उन्हें अपने मातापिता के कमरे में ले गया. उन के दरवाजे पर आटोमैटिक लौक लगा था जो दोनों तरफ से बंद हो जाता था.

इन लोगों ने मुंह पर तकिया रख कर एकएक कर दोनों का दम घोंट दिया और उन की लाशें बेड से उतार कर फर्श पर डाल दीं. इस के बाद अब्दुल रहमान ने दरवाजे को बंद कर दिया. अपना काम कर के नदीम खान और गुड्डू रात में ही वहां से चले गए.

अब्दुल रहमान अपने कमरे में आ गया. इस के बाद उसे रात भर नींद नहीं आई. सुबह होने पर उस ने मोहल्ले के लोगों को यह कह कर इकटठा कर लिया कि पता नहीं क्यों आज अम्मी और अब्बू दरवाजा नहीं खोल रहे.

अब्दुल रहमान से पूछताछ के बाद पुलिस ने नदीम खान को भी गिरफ्तार कर लिया जबकि गुड्डू फरार हो गया था. दोनों से पूछताछ के बाद पुलिस ने उन्हें न्यायालय में पेश किया जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया. पुलिस मामले की तफ्तीश कर रही है.

बरसाती नमी से सुरक्षित रहना है तो फौलो करें ये टिप्स

बारिश के मौसम में सीलन से फफूंद और बैक्टीरिया आदि पनपते हैं. बीमारियां फैलती हैं, दीवारें भद्दी और दुर्गंधित हो जाती हैं, प्लास्टर, पैंट निकलने लगता है. घर में सीलन की समस्या कहीं भी हो सकती है. सीलन कई कारणों से पैदा हो सकती है. घर बनाते समय खराब क्वालिटी के प्रोडक्ट्स का प्रयोग, दोषपूर्ण डैंपप्रूफ कोर्स, लीक करता पाइप, बारिश का पानी, छत पर ढलान की सही व्यवस्था न होना वगैरह सीलन की वजह बन सकते हैं.

सही वैंटिलेशन न होना भी सीलन की एक वजह हो सकता है. घर के रोजाना के काम जैसे कपड़े धोना, खाना पकाना, प्रैस करना जैसी गतिविधियां भी सीलन बढ़ा सकती हैं. छोटे बाथरूम या किचन जिन में खिड़की न हो या छोटे कमरों में गीले कपड़े सुखाए जाने पर भी बारिश के मौसम में सीलन बढ़ जाती है.

घर को बनाएं सीलनप्रूफ

– सुनिश्चित करें कि घर में कहीं भी पानी का जमाव न हो. पानी की निकासी होती रहे.

– सुनिश्चित करें कि खिड़कियों और दरवाजों के फ्रैम सीलबंद हैं या नहीं.

– यदि छत थोड़ी भी टपक रही हो तो तुरंत उस की मरम्मत कराएं.

– घर में वैंटिलेशन की सही व्यवस्था रखें. बाथरूम के शावर या रसोईघर से जब भाप बाहर नहीं निकल पाता तो उसे कमरे की दीवारें सोख लेती हैं और फिर उन में सीलन आ जाती है. अत: इस से बचने के लिए वैंटिलेशन का खयाल रखें. ऐग्जौस्ट फैन का प्रयोग करें.

– घरेलू डीह्यूमिडिफायर भी अच्छे विकल्प हैं. ये बाथरूम, गैरेज, कमरों, जहां कपड़े सुखाएं जा रहे हों, में प्रभावी होते हैं. ये छोटे आकार के होते हैं. अत: आसानी से कहीं भी रखे जा सकते हैं. कुछ घरेलू डीह्यूमिडिफायर में बैक्टीरिया और रोगाणुओं को मारने के लिए एक अतिरिक्त यूपी लैंप भी होता है. बहुतों में खराब गंध अवशोषित करने के लिए कार्बन फिल्टर भी होता है.

– सीपेज से बचाव हेतु बाहरी दीवारों पर वाटरपू्रफ कोट्स लगाना अच्छा रहता है. इस से बारिश का पानी और नमी का असर दीवारों पर नहीं होता. इसी तरह छत पर भी वाटरप्रूफ रूफ कोटिंग का इस्तेमाल करें ताकि पानी के सीपेज से बचाव हो सके.

– कई दफा दीवारों के निचले हिस्सों में सीलन के धब्बे नजर आने लगते हैं. इस की वजह ग्राउंड वाटर होता है, जो ऊपर चढ़ने लगता है. इस से बचने के लिए डैंपप्रूफ कोर्स की आवश्यकता पड़ती है. इस में ऐसा मैटीरियल प्रयुक्त होता है जो ग्रांउडवाटर की दीवारों के जरीए ऊपर चढ़ने और घर को नुकसान पहुंचाने से बचाता है.

बदलें किचन का स्टोरेज सिस्टम

– दालें, चावल व इस तरह की रोजाना इस्तेमाल में आने वाली खाने की चीजों को ट्रांसपेरैंट प्लास्टिक या कांच के कंटेनर्स में ही रखें. कंटेनर्स का ऐअर टाइट होना जरूरी है.

– यदि प्लास्टिक कंटेनर्स इस्तेमाल कर रही हैं तो ध्यान रखें कि उन की क्वालिटी अच्छी हो.

– कौफी, चाय की पत्ती, चीनी व खुशबूदार मसालों को नमी से बचाने के लिए छोटे कांच के जार ही इस्तेमाल करें. इन्हें समयसमय पर कुछ देर धूप में भी रखें.

– अचार स्टोर करने के लिए कांच के बड़े बाउल या चीनी मिट्टी के बरतन का इस्तेमाल करें.

– स्टील के कंटेनर्स का इस्तेमाल करती हैं तो इन की साफसफाई का ज्यादा ध्यान रखें. इन का इस्तेमाल आटा इत्यादि रखने के लिए करें.

– गरिमा पंकज द्वारा निकितालाद गुप्ता सीनियर डिजाइनर, बोनिटो के सुझावों पर आधारित

बेटियों के भविष्य के लिये सरकार ने लिया यह फैसला

केंद्र सरकार ने सुकन्या समृद्धि योजना में सालाना न्यूनतम जमा की सीमा 1,000 रुपये से घटाकर 250 रुपये कर दी है. अब अधिक से अधिक लोग इस योजना का लाभ उठा सकेंगे. इसके लिए सरकार ने सुकन्या समृद्धि खाता नियम, 2016 में संशोधन किया है. इस खाते को खोलने के लिए अब 250 रुपये ही जमा कराने की जरूरत होगी. साथ ही सालाना इस खाते में 1,000 रुपये के बजाय 250 रुपये जमा कराने की ही अनिवार्यता होगी.

2015-17 में सवा करोड़ खाते खुले थे

केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने 2018-19 के अपने बजट भाषण में कहा था कि जनवरी, 2015 में शुरू की गई सुकन्या समृद्धि खाता योजना काफी सफल रही है. नवंबर, 2017 तक देशभर में छोटी लड़कियों के नाम पर 1.26 करोड़ खाते खोले गए थे. इन खातों में 19,183 करोड़ रुपए जमा हुए थे. सुकन्या समृद्धि खाते पर ब्याज दरों को अन्य लघु बचत योजनाओं और पीपीएफ की तरह प्रत्येक तिमाही में संशोधित किया जाता है. जुलाई-सितंबर की तिमाही के लिए ब्याज दर 8.1 प्रतिशत तय की गई है. इस योजना के तहत किसी दस साल से कम उम्र की किसी भी लड़की के माता-पिता या कानूनी अभिभावक यह खाता खोल सकते हैं.

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डाकघर या बैंक में खोल सकते हैं खाता

सरकारी अधिसूचना के अऩुसार यह खाता किसी डाकघर शाखा या अधिकृत सरकारी बैंक की शाखा में खोला जा सकता है. इस खाते में जमा और परिपक्वता राशि पर आयकर कानून की धारा 80 सी के तहत कर की पूरी छूट मिलती है. अब इस खाते में न्यूनतम 250 रुपये जमा कराने की जरूरत होगी. खाते में सालाना अधिकतम डेढ़ लाख रुपये जमा कराए जा सकते हैं. एक महीने या वित्त वर्ष में कितनी बार भी इस खाते में पैसा जमा कराया जा सकता है.

खाता 21 साल तक रहेगा वैध

योजना के तहत यह खाता खोलने की तारीख से 21 साल तक वैध रहेगा. उसके बाद यह परिपक्व होगा और और उस लड़की को इसका भुगतान किया जाएगा जिसके नाम पर खाता खोला गया है. खाता खोलने की तारीख से 14 साल तक इसमें राशि जमा कराई जा सकती है. उसके बाद खाते पर उस समय लागू दरों के हिसाब से ब्याज मिलेगा.

चुनाव से पहले व्हाट्सऐप में होंगे ये अहम बदलाव, कंपनी ने दी जानकारी

देश में फर्जी खबरें और अफवाहें फैलने के बाद सामने आर्इं हत्या की घटनाओं से आलोचना झेल रहे व्हाट्सऐप ने अब एक बड़ा कदम उठाने का फैसला किया है. व्हाट्सऐप ने एक संदेश भेजने की सीमा पांच बार तक सीमित करने समेत देश में अपनी सेवाओं पर पाबंदी लगाने का एलान किया. विदेशों में संदेश भेजने की सीमा 20 है. इसका मतलब यह है कि भारत में संदेश भेजने को लेकर जो पाबंदी लगाई जा रही है वह वैश्विक स्तर पर निर्धारित मानदंडों के मुकाबले बेहद कड़ी है. कंपनी ने अगले साल होने वाले आम चुनाव से पहले व्हाट्सऐप के दुरुपयोग को रोकने पर चर्चा के लिए हाल ही में चुनाव आयोग और राजनीतिक संगठनों के साथ बातचीत भी की है.

व्हाट्सऐप ने चुनाव आयोग से कहा है कि वह अपने ‘मेसेज प्लेटफार्म’ के दुरुपयोग को रोकने के लिए चुनावों से पहले कई कदम उठाएगा. कंपनी ने कहा कि वह भारत में फर्जी खबर सत्यापन मौडल लाएगी, जिसका उपयोग दुनिया के दूसरे देशों में किया जा रहा है.

कंपनी ने बयान में कहा कि वह ऐप पर संदेश भेजने की सीमा को निर्धारित करने के लिए परीक्षण शुरू कर रहा है. इसके अलावा उसने कहा कि वह मीडिया संदेशों के बगल में दिखाई देने पर वाले क्विक फारवर्ड बटन को भी हटाएगा. व्हाट्सऐप ने ब्लाग पोस्ट में कहा कि भारत में उसके उपयोगकर्ता अन्य देशों के उपयोगकर्ताओं की तुलना में अधिक संदेश, तस्वीर और वीडियो भेजते हैं. इस बाबत हम संदेश भेजने की सीमा को निर्धारित करने के लिए एक परीक्षण शुरू कर रहे हैं. यह व्हाट्सऐप के हर उपयोगकर्ता पर लागू होगा.

एक सूत्र ने बताया कि व्हाट्सऐप ने चुनाव आयोग से कहा कि वह राज्यों में होने वाले चुनावों व आम चुनावों से पहले स्पैम संदेश तकनीक को लेकर सतर्क रहेगा. उसने कहा कि व्हाट्सऐप के अधिकारियों का एक दल भारत में है और अगले कुछ दिनों में नीति-निर्माताओं के साथ बैठक करेगा. कंपनी ने चुनाव आयोग से यह भी कहा है कि वह भारत में फर्जी खबर सत्यापन मौडल वेरिफिकैडो लाएगी. इसका मेक्सिको चुनाव में उपयोग किया गया है. ब्राजील में भी इसका उपयोग किया गया है. कंपनी के प्रवक्ता ने कहा कि व्हाट्सऐप को व्यक्तिगत और छोटे समूह के बीच बातचीत के लिए तैयार किया गया है और कंपनी ने हमेशा से उन संदेशों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया है, जो व्यवस्था को चोट पहुंचाने की कोशिश करता है. वैसे संदेश भेजने वालों के ‘एकाउंट’ को बंद किया गया है.

इन वेबसाइट से रेलवे टिकट खरीदना आपको पड़ सकता है महंगा

अगर ट्रेन में यात्रा करने के लिए आप अक्सर मेक माई ट्रिप, यात्रा, पेटीएम और क्लियर ट्रिप जैसे पोर्टल से टिकट खरीदते हैं तो यह खबर आपके लिए है. इन वेबसाइट से टिकट बुक कराना अब पहले के मुकाबले महंगा हो सकता है. इंडियन रेलवे एंड कैटरिंग एंड टूरिज्म कौर्पोरेशन (IRCTC) दूसरे पोर्टल के माध्यम से टिकट बुकिंग कराने पर एक्सट्रा चार्ज लगाने का निर्णय लिया है.

12 रुपये और टैक्स अतिरिक्त देना होगा

आईआरसीटीसी की तरफ से कहा गया कि अन्य सर्विस प्रोवाइडर की तरफ से टिकट बुक कराने पर 12 रुपये और इस पर टैक्स भी लगेगा. गौरतलब है कि IRCTC इंडियन रेलवे की सहायक कंपनी है और कैटरिंग, टूरिज्म और औनलाइन टिकटिंग औपरेशन हैंडल करती है. एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित खबर के अनुसार आईआरसीटी का आईपीओ आने से पहले यह कदम रेवेन्यू जुटाने के तरीके के रूप में देखा जा रहा है.

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इस कदम से सर्विस प्रोवाइडर नाखुश

हालांकि आईआरसीटीसी के इस कदम से सर्विस प्रोवाइडर नाखुश हैं. अभी तक IRCTC की तरफ से इन वेबसाइट से सालाना मेंटीनेंस चार्ज लिया जाता था. जिससे ग्राहक पर अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ता था. लेकिन अब प्रत्येक टिकट पर अलग से चार्ज लेने पर टिकट की कीमत बढ़ सकती है. आईआरसीटीसी के इस फैसले पर एक सर्विस प्रोवाइडर का कहना है कि रेलवे टिकट बुकिंग रेवेन्यू नेगेटिव है.

सर्विस प्रोवाइडर का कहना है कि पेमेंट गेटवे पर हमें जो शुल्क देनी पड़ती है. वह ग्राहकों से ली जाने वाली फीस से ज्यादा होती है. अगर यह बोझ ग्राहकों पर डाला गया तो टिकट बुकिंग के काम से हमें नुकसान होगा. कंपनियों का कहना है कि फीस बढ़ाने से उन्हें नुकसान होगा और आईआरसीटीसी की वेबसाइट के मुकाबले हम गैर-प्रतिस्पर्धी हो जाएंगे.

इसके अलावा आईआरसीटीसी ने अपने सिस्टम को सर्विस प्रोवाइडर्स के लिए भी खोलने का फैसला किया है. अब सर्विस प्रोवाइडर पीएनआर स्टेटस और अन्य पूछताछ की सेवाएं कस्टमर फैसिलिटीज मुहैया करा सकते हैं. एक अन्य सर्विस प्रवाइडर ने कहा कि एयरलाइंस के साथ आईआरसीटीसी का दूसरे तरह का करार है. एयरलाइंस की टिकट बुकिंग कराने पर आईआरसीटीसी से उन्हें कमीशन मिलता है. वहीं टिकट की बिक्री पर रेलवे हमसे चार्ज वसूलती है.

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