रैस्टोरैंटों में लाइव बैंड पर लड़कियों का नाच नैतिक है या अनैतिक, इस पर लंबी बहस चल रही है. मुंबई पहले डांस बारों से भरा हुआ था पर कुछ नैतिकता के नाम पर, कुछ शोरशराबे की वजह से, कुछ अपराधी किस्म के लोगों के जमा होने की वजह से, तो कुछ आपसी मारपीट से पैदा हुई लौ ऐंड और्डर की समस्या के कारण एकएक कर के सभी राज्यों में इन पर रोक लग गई है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने 2005 के कर्नाटक पुलिस नियमों को सही ठहराया जिन में इन पर इतनी रोकटोक के नियम बना दिए गए थे कि कोई रैस्टोरैंटों में लाइव बैंडों के साथ कैबरे डांस करा ही नहीं सकता था.

सुप्रीम कोर्ट ने नैतिकता की बात तो कम की है पर सारी जिम्मेदारी पुलिस पर छोड़ कर और पुलिस को खुली छूट दे कर इन कैबरे डांसों को बंद कराने का फैसला दे दिया.

बार के डांसों या रैस्टोरैंटों के कैबरे डांसों की वकालत करना मुश्किल है जबकि ये बंद हालों में होते हैं. इस के उलट आजकल गांवों और कसबों में खुले में पंडाल लगा कर भड़काऊ नाच कराए जा रहे हैं और कुछ तो हिंदू त्योहारों या भजनों, जागरणों के नाम पर भी भड़काऊ डांस कराए जा रहे हैं. यूट्यूब इस तरह के डांसों से भरा पड़ा है. 5-7 साल पहले तक हिंदी फिल्मों में जब तक एक ऐसा डांस न हो उसे पूरा नहीं माना जाता था.

नाचना या नाच देखना बहुत ही पुरानी परंपरा है और यह तकरीबन कुदरती है. आदिवासियों और अफ्रीका के कबीलों में हर छोटे मौके पर नाच जरूरी है. इनसान ने नाचना क्यों शुरू किया, इस बहस में न जा कर यह देखा जाना चाहिए कि मंदिरों में होने वाले नाचों या सड़क पर होने वाले नाचों का नैतिकता से या कानून व्यवस्था से क्या लेनादेना है? नैतिकता तो बहुत ही उलझी बात है. एक समय सिर पर बिना पल्ला डाले जवान लड़कियां अनैतिक मानी जाती थीं, आज बौबकट बाल नैतिकता की ही सीमा में हैं. एक समय भारत में टांगें दिखाना अनैतिक था, आज स्कर्ट पहनना नैतिक है. नैतिकता का असल में न पोशाक से लेनादेना है, न नाचनेगाने से.

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