धार्मिक पूर्वाग्रह खाने के प्रति भी साफसाफ दिखते हैं. हम जिस माहौल में रहते हैं उस में सिखाया यह जाता है कि हम हर लिहाज से विदेशों से बेहतर हैं. हमारा रहनसहन, रीतिरिवाज जीवनशैली, संस्कृति और खानपान तक विदेशों से श्रेष्ठ है.

देशी खाने का बिलाशक अपना जायका और लुत्फ है लेकिन पूर्वाग्रहों के चलते विदेशी खाने को हेय मानना उस के जायके और लुत्फ से वंचित करना है. खाने में भी भेदभाव एक संकीर्ण सोच है. इस से न तो धर्म और संस्कृति को कोई नुकसान होता और न ही कोई भ्रष्ट होता.

खानपान के बाजार पर नजर डालें तो देशभर में देशी के साथसाथ विदेशी आइटम भी इफरात से भरे पड़े हैं. बीते 2 दशकों में एक हद तक देशीविदेशी खाने में भेदभाव कम हुआ है. अगर पकौड़े, समोसे, वड़ापाव, जलेबी, छोलेभठूरे और डोसाइडली हर कहीं मिल रहे हैं तो उन की ही बराबरी से बर्गर, पिज्जा, मंचूरियन, पास्ता, नूडल्स और स्प्रिंगरोल वगैरह भी मिल रहे हैं.

फर्क इतना भर है कि विदेशी कहे जाने वाले आइटमों के स्टौल्स पर युवाओं की भीड़ ज्यादा नजर आती है तो देशी व्यंजन 40 पार की उम्र के लोग ज्यादा खाते नजर आते हैं. यह कोई हर्ज या एतराज की बात नहीं, बल्कि सुखद इस लिहाज से है कि लोग अब खाने की आजादी का बेहिचक इस्तेमाल कर रहे हैं.

बेकार गया विरोध

लंबे अरसे तक गुलाम रहे देशों को सहज होने में वक्त भी लंबा लगता है. गुलामी के दौरान वे हर विदेशी चीज से नफरत करते, उस का बहिष्कार करने लगते हैं. अंगरेज भारत आए तो कई नई चीजें साथ लाए. इस में उन का खाना भी था.

हाल यह था कि लोग ब्रैड और सौस को भी गुलामी का प्रतीक मानते थे. अब हालत उलट है. इन दोनों सहित दर्जनों आइटम भारतीय घरों की जरूरत बन चुके हैं यानी पीढ़ीदरपीढ़ी डर कम हुआ और भारतीयों ने विदेशी फूड आइटमों को अपनाया है. लोग डायनिंग टेबलों और छुरीकांटों का भी धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं. जमीन पर बैठ कर खाना अब पिछड़ेपन और गरीबी की निशानी मानी जाने लगी है.

आजकल के बच्चे और युवा बगैर चाइनीज व्यंजनों के नहीं रह सकते, तो इस की वजह साफ है कि वे खाने के मामले में थोपी गई मान्यताओं व धारणाओं को खोखला समझते हैं. दूसरे, भारतीयों की लाइफस्टाइल भी तेजी से बदली है. लोग तेजी से कामकाजी और व्यस्त हो चले हैं खासतौर से महिलाएं जिन के हिस्से में खाना बनाने और खिलाने का जिम्मा था.

भोपाल की एक नौकरीपेशा महिला पूनम ओझा कहती हैं, ‘‘सुबह बच्चों को स्कूल भेजते वक्त इतनी फुरसत नहीं रहती कि उन्हें रोटी या परांठे रोजरोज दे सकूं. इसलिए अकसर बाजार से फास्ट फूड आइटम खरीद कर दे देती हूं. यह देख कर हैरत होती है कि जिस दिन ये रखे जाते हैं उस दिन बेटे सार्थक का टिफिन खाली मिलता है.’’

पूनम कहती हैं, ‘‘इस में हर्ज क्या है, खाने का पहला मकसद तो पेट भरना है इस के बाद उस के नफानुकसान देखे जा सकते हैं जो कहीसुनी बातों पर आधारित होते हैं.’’

एक बात जो पूनम जैसी करोड़ों मांओं के दिलों में है वह दरअसल, यह है कि विदेशी खाने को ले कर कभीकभार जो होहल्ला मचता है, वह धर्म व संस्कृति के ठेकेदार मचाया करते हैं. इस में उन के आर्थिक स्वार्थ ज्यादा होते हैं, जो अब नजर भी आने लगे हैं कि कोई देशी कंपनी या बाबा मैगी व नूडल्स बनाए तो वे नुकसान नहीं करते लेकिन यही विदेशी कंपनियां बनाएं तो देशप्रेमियों के पेट में मरोड़ें उठने लगती हैं. वे खाने के आइटमों पर तरहतरह के आरोप लगाते रहते हैं. इन का प्रचार बजाय अपनी खूबियों के, दूसरों की आलोचना पर टिका होता है.

खानपान हर दशक में बदलता है और यह मुख्यतया नई पीढ़ी पर निर्भर करता है कि वह क्या खानापीना चाहती है. दौर प्रचार का है जो हर्ज की बात नहीं. लेकिन कभी खाने के आइटमों का भी इतने बड़े पैमाने पर प्रचारप्रसार होगा, यह बात सोची तक नहीं गई थी.

सोची इसलिए नहीं गई थी क्योंकि भारतीय खाने के मामले में संकुचित हैं. उन्हें लगता था कि धर्मसंस्कृति की तरह उन का खाना भी विकल्पहीन है और अगर इसे छोड़ या बदल दिया तो हम फिर से गुलाम हो जाएंगे.

इस मानसिकता को भुनाने के लिए अलगअलग तरीके से कोशिशें हुईं. पहले लोगों ने यह समझा कि घर से बाहर होटलों पर खाना कोई गुनाह नहीं, फिर यह समझा कि खाने से धर्म व संस्कृति को कोई खतरा नहीं.

लेकिन कट्टरवादियों को यह बात कभी रास नहीं आई. लिहाजा, वे लकीर के फकीर बने धर्मग्रंथों व रीतिरिवाजों का राग आज भी अलापते रहते हैं कि विदेशी खाना और खाने के तौरतरीके नई पीढ़ी को तबाह कर रहे हैं. पिज्जा, बर्गर, नूडल्स वगैरह जंक फूड हैं और पचते नहीं हैं, इसलिए बच्चे और युवा ज्यादा बीमार रहते हैं. अहम बात यह भी है कि देश का पैसा विदेशी कंपनियों को जा रहा है.

देश की चिंता में घुले जा रहे महानुभाव शायद ही बता पाएं कि बच्चे कुपोषण और गलत खानपान से ज्यादा मरते हैं. आएदिन कुपोषण के आंकड़े बताते हैं कि बच्चों की बीमारियों की वजह कोई पिज्जाबर्गर नहीं, बल्कि अशिक्षा व जागरूकता का अभाव है, पोषक तत्वों की कमी है और इलाज की सहूलियतें मुहैया न होना है.

यह बात चूंकि लोगों को समझ नहीं आई, आने लगी तो देशी कंपनियां भी बाजार में कूद पड़ीं. यह भी हर्ज या एतराज की बात नहीं थी. खाने का बाजार अगर खरबों का आंकड़ा छू रहा है तो सभी को हक है कि सभी अपने प्रोडक्ट बेचें. लेकिन दुकानदारी चमकाने के लिए विदेशी खाने की अतार्किक आलोचना करने का हक उन्हें नहीं है.

क्या होगा भेदभाव से

अर्थशास्त्र और व्यापार से परे मुद्दे की बात यह है कि अच्छे और मनपसंद खाने का हक सभी को है, इसलिए किसी को भी देशीविदेशी के आधार पर इसे छोड़ना नहीं चाहिए.

यह अधिकार भी हरेक को है कि वह खुद तय करे कि उसे क्या खाना है. इन दिनों खाने पर सब से ज्यादा खर्च हो रहा है. प्रसंगवश यह बात उल्लेखनीय है कि अब से 40-50 वर्षों पहले छोटे शहरों में खाने के होटल बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों तक ही सिमटे रहते थे क्योंकि तब संयुक्त परिवारों में घरों में दिनभर खाना बनता रहता था.

अब देशभर का बाजार खाने से गुलजार है और उस में भी इतनी वैरायटियां हैं कि खुद खाने वाला चकरा जाता है कि क्या खाए. नई पीढ़ी खुद खाने के प्रति सचेत हो रही है. वह कौंटिनैंटल खाने का भी लुत्फ उठाती है और परंपरागत व्यंजनों का भी. इटैलियन, चाइनीज और थाई फूड वगैरह से उसे कोई परहेज या नफरत नहीं है, तो इस में हर्ज क्या. अब हर चीज हर कहीं मिल रही है और देश में ही बन रही हैं.

भारत वैसे भी विविध व्यंजनों वाला देश है. यहां हर सौ किलोमीटर पर स्वाद और व्यंजन बदल जाते हैं. खाने के शौकीन अब धर्म या क्षेत्र के आधार पर खानापीना तय नहीं करते. और अच्छी बात यह है कि यह बात विदेशी कहे जाने वाले खाने पर भी लागू होती है. बड़ी तादाद में युवा नौकरी और रोजगार के लिए विदेश जा रहे हैं. तब वे खाने के बारे में नहीं सोचते कि वहां बैगन का भरता और दालबाटी नहीं मिलेगी. वे सोचते यह हैं कि वहां भी लोग कुछ खाते ही होंगे, वही वे भी खा लेंगे.

यही सोच लोगों को तरक्की के रास्ते पर ले जाती है और दिमाग की खिड़कियां खोलती है. जमाना खाने के शौकीनों का है. खाने के बारे में देशीविदेशी का फर्क दिखावेभर की निशानी है. जो अच्छा लगे और सहूलियत से मिले, वह निसंकोच खाएं.

विदेशी खाना भी कम लजीज नहीं

विदेशी खाने का चलन हमारे देश में अभी शुरू हुआ है, इसलिए लोग उस के बारे में उतना ही जानते हैं जितना उन्हें विज्ञापनों में बताया जाता है. विदेशों में भी तमाम वैरायटियों का खाना मिलता है. विदेश गए भारतीय भले ही वहां भी भारतीय खाना ढूंढे़ और बनाएं लेकिन भारत में अजमेर, पुष्कर, खजुराहो, आगरा और वाराणसी जैसे शहरों में खोमचों से ले कर बड़े होटलों तक में देशवासी विदेशी व्यंजनों का तबीयत से लुत्फ उठाते दिख जाते हैं.

कुछ विदेशी पकवानों की खूबियों पर नजर डालें तो उन्हें जान कर इतना तो समझ आता है कि खाना जलवायु, खेती और मौसम पर निर्भर करता है. इस में देशविदेश ढूंढ़ना एक बेकार की बात है. आइए जानें, कुछ विदेशी खानों के बारे में-

चाइनीज खाना : यह दुनियाभर में मशहूर है. यह बहुत ज्यादा शाकाहारी नहीं होता है. लेकिन इस में सब्जियों की भरमार होती है. आमतौर पर चाइनीज खाना स्टिर फ्राइपिंग तरीके से बनाया जाता है. इस विधि में सामग्री पतली और लच्छेदार काट कर, उसे तेज आंच में कम वक्त के लिए भूना जाता है. ऐसा करने से सब्जियोंं के विटामिन और दूसरे पोषक तत्त्व नष्ट नहीं होते और उन की मूल रंगत व स्वाद भी बना रहता है.

इटैलियन खाना : इस में जैतून के तेल का इस्तेमाल होता है और चीज भी भरपूर मात्रा में होता है. पिज्जा अब अंतर्राष्ट्रीय डिश बन चुकी है. इटैलियन परिवार सहित ताजा खाना पसंद करते हैं.

फ्रैंच खाना : इस के अधिकांश व्यंजन मिठास लिए होते हैं. इन में मक्खन का इस्तेमाल ज्यादा होता है.

पूर्वी एशियाई खाना : इन देशों का खाना स्वास्थ्य के लिए बेहतर माना जाता है. यह खाना या तो उबला हुआ होता है या फिर भाप में बना होता है. इस  में प्रोटीन की मात्रा 60-70 फीसदी तक होती है.

जापानी खाना : इस के बारे में अब हर कोई जानने को उत्सुक रहता है. वजह, वहां के लोगों का दीर्घायु होना और उन की फिटनैस है. जापानी हर तरह का परंपरागत खाना खाते हैं, लेकिन उस में सभी तत्त्व संतुलित मात्रा में होते हैं. मसलन, अनाज, सब्जी, चावल, मांस और मछली, सी फूड भी जापानी शौक से खाते हैं. दही जापानी खाने की अनिवार्य आइटम है.

विदेशी व्यंजनों की बुराई क्यों

लोकपरलोक की तरह खानेपीने के मामले में भी हिंदू पंडेपुजारियों के मुहताज रहे हैं. आएदिन तीजत्योहारों पर घरों में पकवान बनते हैं. उन का भोग पहले भगवान को लगता है, फिर पंडों की बारी आती है त्योहारों पर पकवानों के थाल सजा कर उन्हें दिए जाते हैं.

पितृपक्ष में तो पंडों की बन आती है जिस का मैन्यू भी उन्होंने बना रखा है कि उस में पूरी, हलवा, खीर, पकौड़े और जो मृतक को पसंद था वह बनाया जाए. मृत्युभोज में भी तबीयत से खाना बनता है जो मूलतया धर्म की ही देन है.

पंडों ने वही बनवाया जो उन्हें पसंद था सब्जीपूरी, खीर, गुलाबजामुन और ढेरों मिष्ठान. यही लत यजमानों को लगी तो वे भी तीजत्योहारों पर खूब ठूंसठूंस कर पकवान व मिष्ठान खाते हैं. नतीजा, तरहतरह की बीमारियां. देशी खाना कतई बुरा नहीं. हां, बल्कि उसे धर्म के बताए दिशानिर्देशों पर खाना और न खाना नुकसानदेह है.

ब्राह्मण और पंडे खुद को धर्मरक्षक बताते हैं, इसलिए वे इस बात से डरते हैं कि कल को श्राद्ध पक्ष और तेरहवीं में भी लोग चाउमिनपिज्जा वगैरह परोसने लगे तो ये आइटम उन के गले नहीं उतरने वाले. लोग भी इस बदलाव या स्वीकृति पर सहज विश्वास न करते, धर्म को ही शंका की निगाह से देखेंगे कि यह चलायमान कब से हो गया. लिहाजा, ये लोग विदेशी खाने के अवगुण बताते रहते हैं और इस का प्रचार सोशल मीडिया पर भी करते रहते हैं कि विदेशी खाने के बढ़ते चलन से धर्म व संस्कृति नष्टभ्रष्ट हो रहे हैं, लिहाजा पतन हो रहा है

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