मक्के की फसल खरीफ व रबी दोनों मौसमों में उगाई जाती है. मक्का ऐसा अनाज है, जिस का इस्तेमाल खासतौर से फास्टफूड व रोटी बनाने के लिए होता है. मक्के का इस्तेमाल सारी दुनिया में होता है. मक्के की खूबियों को देखते हुए वैज्ञानिकों ने अधिक प्रोटीन वाले मक्के को ईजाद किया है. पूरी दुनिया में मक्के की खेती होती है. भारत में अनाजों की पैदावार में मक्के का तीसरा स्थान है. भारत में हर साल 8.17 मिलियन हेक्टेयर रकबे में लगभग 19.72 मिलियन टन मक्के का उत्पादन होता है, जो कि दुनिया के कुल उत्पादन का 2 फीसदी है. कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, उत्तराखंड व राजस्थान मुख्य
मक्का उत्पादक राज्य हैं. मक्का उत्पादन में कर्नाटक पहले स्थान पर है. यह राज्य पूरे देश के मक्के का 15 फीसदी उत्पादन करता है. यहां की तकनीकों को यदि देश भर के किसान अपनाएंगे तो मक्का उत्पादन में काफी सुधार होगा.
मिट्टी का चुनाव : मक्का सभी तरह की मिट्टी में चाहे वह रेतीली हो या भारी, उगाया जा सकता है. लेकिन अम्लीयता व क्षारीयता रहित गहरी काली मिट्टी इस की खेती के लिए मुनासिब होती है. जिस मिट्टी में इस की खेती की जाए उस की पानी समाने की कूवत अच्छी हो और पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच हो तो पैदावार बेहतर होती है.
खेत की तैयारी : खरीफ फसल कटने के बाद 2 बार हैरा कर के 2 बार कल्टीवेटर से जुताई करनी चाहिए व पाटा लगा कर खेत बराबर कर लेना चाहिए.
बोआई का समय : मक्के की बोआई 15 अक्तूबर से 15 नवंबर तक की जा सकती है. मक्के की बोआई के लिए कतार से कतार का फासला 60 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे का फासला 20 सेंटीमीटर रखना चाहिए. मक्के के दाने को 5 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए.
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बीजदर व बीजोपचार : रबी मौसम में अच्छा उत्पादन लेने के लिए प्रति हेक्टेयर में करीब 90,000 पौधे होने चाहिए. इस के लिए 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर डालना फायदेमंद होगा. बोआई से पहले बीजों को रात भर गरम पानी (45 डिगरी सेंटीग्रेड) में भिगो कर रखना चाहिए. फिर सुबह छाया में सुखा कर बोने से जमाव जल्दी हो जाता है. बीज को थायरम या एग्रोसन जीएन या कैप्टान 75 फीसदी दवा से 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए.
बोआई का तरीका : बैलनाडी चौगा की मदद से कतारों में बोआई करें या मेंड़ तैयार कर उस के किनारों पर रोपाई करें. मेंड़ पर बोआई से ज्यादा उपज मिलती है.
किस्मों का चयन : रबी मक्के की उपज व उस से होने वाली आमदनी बहुत हद तक मक्के की किस्मों पर निर्भर करती है. परंपरागत व संकुल किस्मों से रबी में भरपूर उत्पादन नहीं प्राप्त किया जा सकता है. ज्यादा आमदनी के लिए संकर प्रजातियां हैं गंगा सफेद 2, गंगा 11, गंगा 5, गंगा 7, डेक्कन 33-103, पायनियर मक्का 30, आर 77, गंगा कावेरी 50, पूसा हाईब्रिड 1 व 2, पायनियर मक्का 30, व्हीआर 77, प्रोएग्रो 4412, 4432 व 4640, प्रोएग्रो 4642, गंगा कावेरी 5060, सिंजेंटा 6240 व एचक्यूपीएम 5 वगैरह.
खाद व उर्वरक : किसानों को 90 क्विंटल अच्छी पकी हुई गोबर की खाद को खरीफ फसलों की बोआई से पहले प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए. इस से मिट्टी की उर्वरकता लंबे समय तक बनी रहती है. यदि मिट्टी परीक्षण नहीं हुआ हो तो रबी मक्के में 120:60:40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश को डालना चाहिए. 3 साल में 1 बार 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से जिंक सल्फेट का इस्तेमाल करना चाहिए. मिट्टी में यदि बोरान की कमी हो, तो 18 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बोरेक्स पाउडर डालना चाहिए.
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उर्वरक डालने का तरीका
नाइट्रोजन : नाइट्रोजन की एकतिहाई मात्रा जमीन में बोआई के समय डालनी चाहिए व बची हुई मात्रा को खड़ी फसल में 2 बराबर भागों में बांट कर देना चाहिए. पहला भाग बोआई के 25 से 30 दिनों बाद घुटने तक पौधों की ऊंचाई होने पर और दूसरा भाग नर मंजरी निकलते वक्त 50 से 60 दिनों पर पौधों के पास इस्तेमाल करना चाहिए. इस्तेमाल की गई नाइट्रोजन से ज्यादा लाभ पाने के लिए इस्तेमाल के बाद उसे मिट्टी से ढक देना चाहिए.
फास्फोरस व पोटाश : फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय बीज से 5 सेंटीमीटर नीचे बैलनाड़ी या किसी और तरीके से डालनी चाहिए. चूंकि ये उर्वरक मिट्टी में कम घुलती हैं, लिहाजा इन का इस्तेमाल ऐसी जगह करना चाहिए, जहां पर पौधे की जड़ें हों. ऐसा करने से ये मिट्टी में कम स्थिर हो पाते हैं. ध्यान यह रहे कि जस्ता व बोरोन से संबंधित उर्वरकों को भी इसी समय इस्तेमाल करना चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण : मक्के में सब से ज्यादा खरपतवार 25 से 30 दिनों तक फसल के साथसाथ उगते हैं. इसलिए फसल जमने के 15 से 20 व 25 से 30 दिनों तक खरपतवार नियंत्रण व निराईगुड़ाई करनी चाहिए. निराईगुड़ाई के दौरान यह ध्यान रखें कि खरपतवार को जड़ से निकालें, बीच से काटें या तोड़ें नहीं वरना वे और तेजी से बढ़ते हैं.
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जल प्रबंधन : मक्के के पौधों पर जल भराव या सूखे दोनों का असर होता है. इसलिए सोचसमझ कर जल प्रबंध जरूरी है. हलकी मिट्टी में फसल की बढ़वार व विकास के दौरान मिट्टी में 70 फीसदी नमी होने पर सिंचाई करें. भारी जमीन में वानस्पतिक बढ़वार व प्रजनन काल के दौरान नमी की कमी होने पर उपज पर उलटा असर पड़ता है, लिहाजा इन दोनों ही स्थितियों में पानी देना फायदेमंद होता है.
मक्के के प्रमुख कीट
प्ररोह मक्खी (एथेरिगोना सोकाटा) : इस कीट की मादा पत्तियों की निचली परत पर अंडे देती है. 1-2 दिन बाद अंडे फूट जाते हैं, जिन से छोटेछोटे बच्चे निकलते हैं. ये मैगट
रेंग कर पत्ती पर पहुंच जाते हैं और तने में छेद कर के घुस जाते हैं और फिर तने को काट देते हैं, जिस से पौधे में मृत केंद्र बन जाता है और पौधे सूख जाते हैं, ये अंदर ही अंदर तने को खाते रहते हैं और 1-2 हफ्ते बाद तने के ही अंदर या जमीन के अंदर जा कर प्यूपा में बदल जाते हैं. इस कीट का प्रकोप बसंत के मौसम में ज्यादा होता है.
रोकथाम : फसल को बोने से पहले फोरेट 10 जी की 35 किलोग्राम मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलाएं. फिर भी ज्यादा प्रकोप होने पर क्यूनालफास का 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से या इमिडाक्लोप्रिड का 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए. इस के अलावा स्पाइनोसैड 45 एससी व थायोमेंक्जाम 70 डब्ल्यूएससी का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से इस्तेमाल करें.
गुलाबी तना बेधक (सिरपोफेगा इनसरटूलस) : इस कीट की सूंड़ी जमीन के पास पत्ती से तने में घुस कर के पिथ खाती है, जिस से बीच की पत्ती कट जाती है और पत्ती पीली पड़ कर मृत केंद्र बनाती है. खींचने पर अलग हो कर निकल जाती है. तना बेधक (काइलो जोनैलस) : यह मक्के का खास नुकसानदायक कीट है, इस की माद पत्तियों के ऊपर गुच्छों में अंडे देती है. अंडे फूटने के बाद उन से भूरे व मटमैले रंग की सूंडि़यां निकलती हैं. सूंडि़यां पत्तियों को खुरच कर खाती हैं और पत्तियों में छेद कर देती हैं. इस के बाद सूंडि़यां पत्ती के सहारे तने में घुस कर तने को खाती हैं. पौध अवस्था में इस कीट का आक्रमण होने पर ऊपर की पत्तियां सूख जाती हैं और बाद में पूरा पौधा ही सूख जाता है.
बेधक कीटों की रोकथाम : गरमी के मौसम में 2-3 बार खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए. बोआई के समय कार्बोफ्यूरान 3 जी को 33 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाएं. 8 ट्राइकोकार्ड (ट्राइकोकार्ड कीलोनिस/जेपोनिकम) अंड परजीवी के 75000-1,00,000 प्यूपा प्रति हेक्टेयर की दर से 10 दिनों के अंतराल में छोड़ने चाहिए. अधिक प्रकोप होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 1 मिलीलीटर मात्रा व क्विनालफास 25 ईसी की 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से ले कर 800-1000 लीटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से 20 दिनों के अंतर पर 2-4 बार छिड़काव करें. कर्तन कीट (एग्राटिस एप्सिलान) : मादा कीट पत्तियों पर अंडे देती है. इन का जीवन चक्र 1-2 महीने में पूरा होता है. इस की सूंड़ी जमीन में मक्के पौधे के पास मिलती है और जमीन की सतह से पौधे और उस की शाखाओं के अंदर घुस कर 30-35 दिनों में फसल को नुकसान पहुंचाती है.
रोकथाम : खेतों के पास प्रकाश प्रपंच 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगा कर प्रौढ़ कीटों को खींच कर के उन का खात्मा किया जा सकता है. खेतों के बीचबीच में घास फूस के छोटेछोटे ढेर शाम के समय लगा देने चाहिए. रात में जब सूंडि़यां खाने के लिए निकलती हैं तो बाद में इन्हीं में छिपेंगी, जिन्हें घास हटा कर असानी से नष्ट किया जा सकता है. प्रकोप बढ़ने पर क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर या नीम के तेल का 3 फीसदी की दर से छिड़काव करें.
सैनिक कीट (माइथिमना सपेरेटा) : फसल को इस कीट की सूंड़ी ही नुकसान पहुंचाती है. इस कीट की सूंड़ी सब से ज्यादा मार्च के महीने में पाई जाती है. अंडे से निकली सूंड़ी हवा के झोंकों से एक पौधे से दूसरे पौधे तक पहुंचती है. यह पौधे के बीच वाली मुलायम पत्तियों को खाती है. जैसेजैसे यह बढ़ती है तो उस के साथसाथ पुरानी पत्तियों को खाने लगती है और पूरे पौधे की पत्तियों को खा जाती है. पौधा बिना पत्तियों का हो जाता है.
रोकथाम : कीटनाशी रसायन डायक्लोरवास 76 फीसदी 500 मिलीलीटर या क्विनालफास 25 ईसी 1 लीटर या कार्बारिल 50 फीसदी डब्ल्यूपी की 3 किलोग्राम मात्रा को 700 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.
हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा : इस कीट की मादा पत्तियों की निचली सतह पर हलके पीले रंग के खरबूज की तरह धारियों वाले अंडे देती है. ये अंडे 3 से 10 दिनों के अंदर फूट जाते हैं और इन से चमकीले हरे रंग की सूंडि़यां निकलती हैं. शुरू में सूंड़ी मक्के के भुट्टे के मुलायम सिल्क व दाने को खाती है.
रोकथाम : खेत में 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं. खेत में परजीवी पक्षियों के बैठने के लिए 10 ठिकाने प्रति हेक्टेयर के अनुसार लगाएं. छोटी सूंड़ी दिखाई देते ही 250 एलई का एचएएनपीवी को 1 किलोग्राम गुड़ और 0.1 फीसदी टीपोल में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से 10-12 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें. इस के अलावा 1 किलोग्राम बीटी का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. प्रकोप बढ़ने पर क्विनालफास 25 ईसी या क्लोरोपायरीफास 20 ईसी का
2 मिलीमीटर प्रति लीटर या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल का 1 मिलीमीटर प्रति लीटर की दर से छिड़काव करें. स्पाइनोसैड 45 एससी इंडोक्सकार्ब 14.5 एससी व थायोमेंक्जाम 70 डब्ल्यूएससी का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से छिड़काव करें.
मक्के के मुख्य रोग
बीज और पौध अंगमारी : यह रोग पिथियम, फ्यूजेरियम, एक्रीमोनियम, पैनिसिलियम व स्कलेरोसियम प्रजाति के कारण होता है. इस रोग से बीज या निकलता हुआ पौधा सड़ जाता है, जिस से जमाव कम होता है और पौधों की संख्या कम हो जाती है.
रोकथाम : बोआई के समय बीजों का 4 ग्राम थीरम दवा से प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचार करें.
पत्ता अंगमारी : यह रोग बाईपोलैरिस मेडिस ड्रेसलीरा मेडिस नामक फफूंद से होता है. इस रोग से पत्तों पर सलेटी व भूरे रंग के धब्बे बनते हैं, जो किनारों पर गहरे रंग के होते हैं. ये पत्तों को सुखा देते हैं. यदि रोग फसल की शुरुआत में लग जाए, तो उपज में काफी कमी हो सकती है.
रोकथाम : इस रोग के दिखते ही मैंकोजेब दवा 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 200 लीटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें. इस के बाद 8 से
10 दिनों के अंतर पर 1-2 बार और छिड़काव करें. प्रतिरोधी किस्में जैसे एचएम 10, एचक्यूपीएम 4, एचक्यूपीएम 5, एचक्यूपीएम 7 व एचएससी 1 लगाएं.
जीवाणु तना गलन : यह रोग इविनिया क्राईसेथिमी पीवी जया नाम के जीवाणु से होता है. सब से पहले ऊपर के पत्ते सूखने शुरू होते हैं. तने के नीचे की पोरियां नरम व बदरंग हो जाती हैं. छाल अपना हरा रंग खो देती है. तने के सड़ने के बाद उस में से बदबू आने लगती है. बीमार पौधे गिर जाते हैं और आखिर में मर जाते हैं.
रोकथाम : प्रतिरोधी किस्में जैसे एसएचएम 1, एचएम 2, एचएम 4, एचएम 5, एचएम 10, एचएम 11, एचक्यूपीएम 1 और एचक्यूपीएम 4 लगाएं. जब पत्तियों पर स्फोर परस्तूयल पहली बाद दिखाई दे तो मैंकोजेब 0.2 फीसदी 2 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी की दर से 200 लीटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ के हिसाब से 15 दिनों के अंतर पर 3 बार छिड़काव करें.
कटाई : मक्के की कटाई तब करनी चाहिए, जब भुट्टे के ऊपर चढ़ी हुई परतें पूरी तरह सूख जाएं.
गहाई : मक्के के भुट्टे से दाना अलग करना काफी मुश्किल काम है, लेकिन आजकल हाथ से दाना निकालने के लिए मक्का सेलर व शक्ति चालित थ्रेसर मौजूद हैं. शक्ति चालित थ्रेसर में भुट्टे के छिलके भी नहीं
अलग करने पड़ते हैं व 1 घंटे में तकरीबन 2000 किलोग्राम दाने निकल आते हैं.
उपज : मक्के की फसल की औसतन उपज 80 से 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर या इस से भी ज्यादा हो सकती है. खरीफ मक्के के मुकाबले रबी मक्के से अधिक उपज प्राप्त होती है, क्योंकि खरीफ के मुकाबले रबी में खेत की तैयारी अच्छी हो जाती है और कीटबीमारियों का प्रकोप भी कम होता है.
डा. ऋषिपाल व डा. राजेंद्र सिंह