लेखक-डा. आरके आनंद,  डा. सिया राम, डा. एके यादव

पर्यावरण असंतुलित हो गया और कई वृक्ष प्रजातियां खत्म होने के कगार पर पहुंच गईं. इन्हीं में से चिरौंजी भी एक है बढ़ती हुई जनसंख्या, पर्यावरण असंतुलन और प्राकृतिक संसाधनों का अनुचित दोहन आज हमारे समाज के लिए सब से बड़ी चुनौती है. विकास के इस युग में वन संपदा क्षीण होती जा रही है, क्योंकि हम सभी ने अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई की, नतीजतन पर्यावरण असंतुलित हो गया और कई वृक्ष प्रजातियां खत्म होने के कगार पर पहुंच गईं, इन्हीं में से चिरौंजी भी एक है.

दशकों पहले उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर व सोनभद्र जिले, मध्य प्रदेश, ?ारखंड और छत्तीसगढ़ के जंगलों में चिरौंजी के वृक्षों की प्रचुरता थी, लेकिन जैसेजैसे जनंसख्या बढ़ती गई लोगो नें अपनी बढ़ती जरूरतों के लिए वृक्षों की अंधाधुंध कटाई की और वृक्षों से चिरौंजी हासिल करने के लिए वृक्षों का अनुचित दोहन किया. नतीजतन ये वृक्ष खत्म होते गए जिस के कारण चिरौंजी का फल महंगा व दुर्लभ होता गया और यह वृक्ष प्रजाति विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई है, इसलिए आज जरूरत हैं इस क्षेत्र में जो वृक्ष बचे हैं उन को प्राथमिकता के आधार पर संरक्षित करें व नए वृक्षों का कृषि वानिकी पद्धति में रोपण कर के प्रजाति को विनाश की ओर जाने से रोक सकें.

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चिरौंजी, जिस का वानस्पतिक नाम बुचनेनिया लंजन है, एनाकार्डिएसी कुल का वृक्ष है. विभिन्न क्षेत्रों में इस को विभिन्न नामों जैसे चिरौंजी, पियार, चार, चरौली, प्रियाल, मोरडा आदि से पुकारते हैं. जल भराव व पाला बरदाश्त न कर पाने वाला यह वृक्ष शुष्क व अर्द्ध शुष्क जलवायु वाली लाल मृदायुक्त पहाडि़यों और मैदानों में साल, सागौन व अन्य मिश्रित शुष्क पर्णपाती वनों में पाया जाता है.

यह एक मध्यम आकार का वृक्ष है, जिस का वितान और शाखाएं छोटी होती हैं. इस की छाल गहरे धूसर (ग्रे) रंग की होती है जो छोटेछोटे आयताकार प्लेटों में विभाजित रहती है. इस की  पत्तियां मोटी रोएंदार, खुरदरी, 10-25 सैंटीमीटर लंबी गोलाई लिए हुए व 4-8 सैंटीमीटर तक चौड़ी होती हैं. इस के पौधों में फलत 12-13 सालों में शुरू होती है.

आम जैसा बौर इस में जनवरीमार्च में आता है, जिन पर मार्चअप्रैल में फल लग जाते हैं जो मईजून में पक कर तैयार हो जाते हैं.

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फल छोटे आकार के आम की तरह गुठलीदार, गोलाकार 1.0-1.3 सैंटीमीटर व्यास के होते है, जिन पर 2-3 मिलीमीटर मोटी गूदे की परत होती है. कच्चे फल हरे रंग के तथा पकने पर गहरे कत्थई भूरे रंग के हो जाते हैं. गुठली चटकाने पर 2 भागों में बंट जाती है, जिस के अंदर चिरौंजी गिरी निकलती हैं.

 खात्मे की वजह  और बचाव

चिरौंजी के धीरेधीरे खात्मे के निम्नलिखित प्रमुख कारण माने जाते हैं :

* अराष्ट्रीयकृत लघु वनोपज होने के कारण जंगलों से इस के एकत्रीकरण की पूरी स्वतंत्रता है जंगलों व आसपास के निवासियों खास कर आदिवासियों द्वारा चिरौंजी फल एकत्र कर बिचौलियों को बेचे जाते हैं, जिन से थोक व्यापारी संपर्क कर एकत्र करते हैं.

जल्दी से जल्दी व ज्यादा से ज्यादा मात्रा में फल एकत्र करने की कोशिश में इस व्यवसाय में लगे लोग फलों के पूरी तरह से पकने के पहले ही, फलों को एकएक न तोड़ कर पूरी की पूरी शाखाएं ही तोड़ देते हैं जिस से पेड़ों का फलत क्षेत्र हर साल कम होता जा रहा है.

* फलों के असमय तोड़ लेने, गिरे फलों को गिलहरियों व चूहों द्वारा खा लिए जाने और गिरे फलों के धूप में पड़े रहने के कारण प्राकृतिक जनन भी रुक जाता है.

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* खराब अंकुरण क्षमता, धीमी वृद्धि व बीमारियों और पाले के प्रति संवेदनशीलता भी इस के खराब प्राकृतिक जनन की वजह है. इन्हीं वजहों से जंगलों के इस के पौधों की संख्या दिनप्रतिदिन कम होती जा रही है और नए पौधे यदाकदा ही देखने मे आते हैं. यही वजह है इस के नए पौधों को वनीकरण के अंतर्गत रोपित न किया जाना भी है.

इतना उपयोगी पेड़ होने के बावजूद देश के किसी भी हिस्से में इस वृक्ष के संगठित बाग नहीं हैं और न ही इस दिशा में अभी तक ठोस प्रयास किए जा रहे हैं. बताई गई सभी वजह से इस की संगठित बागबानी के प्रति लोगों में उत्साह कम है, जिस से दिनोंदिन चिरौंजी के वृक्षों की संख्या में कमी हो रही है और प्रजाति खात्मे के कगार पर खड़ी हो गई है. चिरौंजी की गिरती दशा को सुधारने के लिए यह सही समय है वरना बहुत देर हो जाएगी.

तेजी से विनाश की ओर अग्रसर चिरौंजी को बचाने के लिए ठोस व प्रभावशाली उपाय तत्काल शुरू किए जाने की जरूरत है. इन में से प्रमुख उपाय ये हैं :

* चिरौंजी के मिलने वाली जगहों के आसपास रहने वाले किसानों व आदिवासियों को चिरौंजी संरक्षण के प्रति जागरूक किया जाना चाहिए जिस से वे फल तोड़ते समय पौधों को नष्ट न करें. चिरौंजी में नई वृद्धि कम व धीमी होती है, इसलिए मोटी शाखाओं को कटने से बचाया जाना जरूरी है. नए उग रहे पौधों को संरक्षित किए जाने की कोशिश की जानी चाहिए. इस तरह के उपायों को यथास्थान सरंक्षण कहते हैं.

* किसान अपने खेतों की मेंड़ों पर इन पौधों को कृषि वानिकी के अंतर्गत रोपित कर इस के संरक्षण में योगदान कर सकते हैं तथा इन वृक्षों को घर के आसपास व बाग के रूप में रोपित कर भी संरक्षित किया जा सकता है. इन सब के लिए जरूरी है कि अच्छी क्वालिटी वाले पौधों की और नवीनतम वृक्षारोपण तकनीकि की. इस के रोपण हेतु नर्सरी व कर्षण क्रियाएं इस तरह हैं :

बीज एकत्रीकरण व भंडारण

बीज एकत्रीकरण के लिए हमेशा मध्यम आयु तथा अच्छे वितान वाले वृक्षों का चयन करना चाहिए. मईजून महीने में केवल ताजे गिरे हुए या हाथ से तोड़ फलों को ही एकत्र करना चाहिए. पके हुए फलों को 24 घंटे पानी मे भिगो कर ऊपरी गूदा निकाल देना चाहिए और बीज को धो कर छाया में सुखा लें व तुरंत नर्सरी में बोआई कर दें. इस का बीच अंकुरण बहुत ही कम होता है, इसलिए ज्यादा बीज की जरूरत होती हैं.

नर्सरी तैयार करना

इस की नर्सरी को हमेशा जल निकास युक्त व हलकी छाया वाली जगह पर बनाना चाहिए इस के लिए पौलीथिन की थैलियों में 1-2 बीज प्रति पालीबैग मईजून के महीने में बोआई कर देना चाहिए.

चिरौंजी बीज के ऊपर एक कठोर आवरण होता है जिस वजह से अंकुरण बहुत ही कम होता है. चिरौंजी के अंकुरण पर किए गए अध्ययन से यह पता चला है कि बीज अंकुरण हेतु बोआई से पहले बीज के खोल को छोटी हथौड़ी की मदद से हलका सा चिटका लेना चाहिए, उस के बाद चिटके बीज को 6 से 7 घंटे तक ठंडे पानी में भिंगो कर ही बोआई की जानी चाहिए.

चूंकि इस की नर्सरी तैयार होने में तकरीबन 1 साल का समय लगता है, इसलिए बड़े आकार की पौलीथिन की थैलियों में नर्सरी तैयार करना ज्यादा उचित होगा. इस के लिए पौलीथिन की थैलियों में लाल मिट्टी, बालू व सड़ी गोबर की खाद 1:1:1.5 के अनुपात में मिला कर भरनी चाहिए और यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पौलीथिन की थैलियों के निचले हिस्से में छोटेछोटे छेद जरूर हों. अंकुरण पूरा होने में तकरीबन एक महीने का समय लगता है. गरमी के मौसम में पौधों को गरम हवा व तेज धूप से बचा कर रखना चाहिए व समयसमय पर सिंचाई का खास ध्यान रखना चाहिए. सर्दी में पाले से भी बचाव जरूरी है.

पौधों की पत्तियों मे कवकजनित रोगों  का भी प्रकोप देखा गया है, इसलिए ऐसी हालात में तत्काल फफूंदनाशी/कवकनाशी रसायन का छिड़काव करना सही रहता है.

पौधों का रोपण व कर्षण क्रिया

कृषि वानिकी के तहत चिरौंजी के रोपण हेतु 12 मीटर×12 मीटर की दूरी पर, अप्रैलमई महीने में गड्ढों की खुदाई करनी चाहिए. गड्ढों का आकार 1 मीटर × 1 मीटर × 1 मीटर होना चाहिए. गरमी में खुदाई करने से गड्ढों की मिट्टी का सूरज के प्रकाश द्वारा उपचार हो जाता है व दीमक और अन्य हानिकारक कीट नष्ट हो जाते हैं.

जून के पखवारे में गोबर की सड़ी हुई खाद, मिट्टी व नीम की खली के मिश्रण से गड्ढों की भराई कर देनी चाहिए.

बारिश शुरू होने के तकरीबन एक हफ्ते बाद उक्त विधि से तैयार गड्ढे में तकरीबन 2 साल उम्र के पौधों को गड्ढों के केंद्र में रोपित कर देते हैं. शुरू के सालों में पौधों की निराईगुड़ाई जरूरी है. पौधों के आसपास थाला बना कर सड़ी हुई गोबर की खाद व उर्वरक देने से अच्छी फसल आती है.

कृषि वानिकी में चिरौंजी

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर व सोनभद्र जनपदों और ?ारखंड, छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश में किसानों के खेतों में चिरौंजी के वृक्ष प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं, जिन के साथ फसलों को उगाया जाता है. पर वृक्षों की कम संख्या तथा चिरौंजी की बढ़ती मांग को देखते हुए विंध्य क्षेत्र या पूर्वी उत्तर प्रदेश के दूसरे हलकी मृदा व ऊंची भूमि वाले क्षेत्रों में चिरौंजी युक्त कृषि वानिकी को व्यवस्थित व वैज्ञानिक रूप से अपनाने की जरूरत है. इस के लिए खेतों में बृहद रूप से चिरौंजी वृक्षारोपण की जरूरत है.

कृषि वानिकी पद्धति में चिरौंजी का रोपड़ 12 मीटर × 12 मीटर की दूरी पर किया जा सकता है, और 2 पंक्तियों के बीच खाली पड़ी जगह पर कृषि फसलों जैसे, तिल, चना, अलसी, उर्द, मूंग सरसों व वातावरण के अनुकूल कम पानी की जरूरत वाली सब्जियों की खेती सफलता पूर्वक पहले 8-10 सालों तक की जा सकती है. उस के बाद जब चिरौंजी के पौधे ज्यादा उम्र के हो जाएं तथा छाया देने लगें तब छाया प्रिय औषधीय फसलों जैसे, अवश्वगंधा, सतावर, कालमेघ, कलिहारी आदि की खेती भी की जा सकती है, जिस से चिरौंजी फल के साथ औषधीय उत्पाद भी हासिल कर अच्छी आय ली जा सकती है.

रोपण के तकरीबन 7-8 साल बाद पौधों से बौर व फल निकलना शुरू हो जाता है तथा 11.12 सालों बाद  चिरौंजी का अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है. माध्यम आयु के एक वृक्ष से हर साल तकरीबन 4.5 किलोग्राम से ज्यादा चिरौंजी गिरी हासिल की जा सकती है, जिस से अच्छी आमदनी होती है.

इस तरह यदि किसान चिरौंजी युक्त कृषि वानिकी को अपनाएं व इस का वनीकरण करें एवं प्राकृतिक वनों में इस के वृक्षों से सावधानीपूर्वक फल एकत्र करें, उपलब्ध वृक्षों में खादपानी दें और उन का संरक्षण करें तो हम इस के वृक्षों को क्षेत्र से खत्म होने से बचाने के साथसाथ खेती से अच्छी आमदनी भी हासिल कर सकते हैं.   न

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