लेखिका -डा. के रानी
“पता नहीं आप की समझ में मेरी बात क्यों नहीं आती?”
“सुधा, आज पढ़ाई के साथ खेल भी जरूरी है. डिंपी एक अच्छी खिलाड़ी है. उसे प्रदर्शन का मौका तो मिलना चाहिए।”
“तुम्हारी छूट के कारण ही तो डिंपी मेरी एक बात नहीं सुनती। तुम से तो कुछ कहना ही बेकार है.”
“तुम टैंशन मत लिया करो सुधा. हर बच्चे का अपना शौक होता है. लड़की अपना शौक मायके में ही तो पूरा करती है,”परेश बोले तो सुधा चुप हो गई.
समय के साथ डिंपी जवान हो रही थी और उस के व्यवहार में भी बहुत खुलापन आ गया था. वह कहीं जाती तो किसी को कुछ बताने की जरूरत तक नहीं महसूस करती.
सुधा ने उसे कई बार टोका,”डिंपी, अब तुम छोटी बच्ची नहीं रही हो.”
“तभी तो कहती हूं मम्मी, अब हर बात पर टोकना छोड़ दें।”
“कम से कम बता तो दिया करो तुम क्या कर रही हो?”
“अपने दोस्तों से मिलने जा रही हूं,” कह कर डिंपी चली गई.
उस के ऐसे व्यवहार के कारण सुधा कभीकभी बहुत परेशान हो जाती.
परेश उसे समझाते,”तुम डिंपी पर विश्वास रखो। वह ऐसा कोई काम नहीं करेगी.”
“मुझ से तो वह सीधी मुंह बात तक नहीं करती.”
“तुम उस के साथ प्यार से पेश आया करो तो वह भी तुम से अच्छे ढंग से बात करेगी। मुझ से तो कभी ऊंची आवाज में नहीं बोलती.”
“मैं मां हूं. मुझे हर वक्त उस की चिंता लगी रहती है.”
“मैं भी उस की फिक्र करता हूं। वह मेरी भी तो बेटी है.”
“वह आप की छूट का बहुत नाजायज फायदा उठा रही है.”
“मैं तो ऐसा नहीं समझता…”
जब कभी डिंपी को ले कर परेश और सुधा में बहस होती, परेश हमेशा बेटी का पक्ष ले कर पत्नी को चुप करा देते. यह बात डिंपी भी बखूबी जानती थी. इसी वजह से वह कोई भी बात मम्मी को बताने की जरूरत तक ना महसूस करती. हां, पापा को अपने प्रोग्राम के बारे में जरूर बता देती.
इंटर पास करते ही बीए में आ कर डिंपी कि नजदीकियां अपनी सहेली जया के भाई राहुल के साथ बढ़ने लगी थीं। जया उस की सहपाठी थी. कभीकभार उस के साथ डिंपी उन के घर चली जाती। वहीं पर उस की मुलाकात राहुल से हुई। मुलाकातें घर तक सीमित न रह कर घर से बाहर भी बढ़ने लगी. जानपहचान पहले दोस्ती में बदली और फिर दोस्ती कब प्यार में बदल गई डिंपी को पता ही नहीं चला.
राहुल ने अपने प्यार का इजहार डिंपी के सामने कर दिया था। पापा की बात को ध्यान में रखते हुए डिंपी ने अभी उसे अपने दिल की बात नहीं बताई थी। वह पहले इस के लिए माहौल बनाना चाहती थी और तब घर वालों से इस बारे में बात करना चाहती थी. वह सही वक्त का इंतजार कर रही थी.
राहुल एक मल्टीनैशनल कंपनी में इंजीनियर था। कभीकभी वह डिंपी को छोड़ने घर भी आ जाता। उस की दोस्ती पर परेश और सुधा को कोई एतराज न था।
यह बात डिंपी पापा को पहले ही कह चुकी थी कि राहुल उस का बहुत अच्छा दोस्त है। तब परेश ने उसे समाज की ऊंच नीच समझा दी थी,”डिंपी तुम एक ब्राह्मण परिवार से हो और राहुल जनजाति समाज से है। बेटी, तुम्हें अपनी सीमाएं पता होनी चाहिए।”
“पापा, मैं छोटी बच्ची थोड़ी हूं. आप के कहने का मतलब मुझे समझ में आ रहा है.”
“मैं तुम से यही उम्मीद करता हूं। कल को ऐसा न हो कि तुम मेरी दी हुई छूट का नाजायज फायदा उठा कर कोई गलत कदम उठा लो.”
“मुझे पता है पापा,” कह कर डिपी ने बात टाल दी थी।
विस्फोट तो उस वक्त हुआ जब एक दिन राहुल डिंपी को घर छोड़ने आया। उस समय रमा भी घर आई हुई थी. डिंपी को राहुल के साथ बेफिक्र हो कर मोटरसाइकिल पर बैठी देख कर सुधा भड़क गई।
रमा को भी अच्छा नहीं लगा। उस के कुछ कहने से पहले ही सुधा बोली,”डिंपी, तुम्हें कुछ खयाल भी है, तुम क्या कर रही हो? सारा मोहल्ला तुम्हें इस हालत में देख कर क्या सोचता होगा?”
राहुल के सामने मम्मी ने जब यह बात कही तो डिंपी उसे सह न सकी और बोली,” आप जानती हैं राहुल मेरा दोस्त है.”
“तो क्या दोस्तों के लक्षण इस तरह के होते हैं?”
“जमाना बहुत बदल गया है मम्मी. अब पहले वाली बात नहीं है. आज लड़के और लड़की की दोस्ती को बुरी नजर से नहीं देखा जाता. वे आपस में बहुत अच्छे दोस्त होते हैं.”