सरकार का बजट अब मंदिरों में चढ़ावे की तरह होता जा रहा है. भक्त बड़ी मेहनत से सैकड़ों मीलों का सफर कर, पैदल चल कर मंदिर पहुंचते हैं. वे धूप, पानी, वर्षा में लाइनों में खड़े होते हैं और जब चढ़ावा चढ़ा कर उस भगवान से कुछ मांगने का समय आता है तो भक्त को कुछ सैकंड ही दिए जाते हैं और चढ़ावे का माल एक बड़े ढेर में बेदर्दी से फेंक दिया जाता है. फिर भी भक्त बाहर आ कर कहते हैं कि दर्शन बहुत अच्छे हुए, मनोकामना अवश्य पूरी होगी, घर धनधान्य से भर जाएगा. सरकारी टैक्स देने के लिए नागरिक बड़ी मेहनत करते हैं.

काम के लिए रोजाना घंटों लंबी दूरी तक चलते हैं, 8-10 या 12 घंटे खटते हैं और फिर जब जो हाथ में मिलता है उस का बड़ा हिस्सा चढ़ावे के रूप में सरकार को टैक्स में देते हैं. बदले में भक्त सरकार का गुणगान करते हैं और आम नागरिक सरकार को कोसते हैं. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का 7वां और बैसाखी वाली नरेंद्र मोदी की तीसरी बार की सरकार का पहला बजट बेहद उबाऊ और उसी लफ्फाजी से भरा था जैसी मंदिरों में भक्तों को आशीर्वाद के रूप में दी जाती है. वहीं, ऐसा भी नहीं लगा कि चुनावी झटके में राम मंदिर में आए ‘क्रैक’ और अयोध्या की सड़कों को ठीक करने का कोई संकल्प इस बजट में है.

यह एक खोखली सरकार का खोखला बजट है जिस के हर शब्द में, हर प्रपोजल में बाबुओं व अफसरों की पंडों की तरह चूसने की स्कीमें तो हैं पर नागरिकों को देने के नाम पर भक्तों को मिलने वाले थोथे आश्वासन ही हैं. सरकार ने इन्कमटैक्स स्लैब में जो बदलाव किया है वह नाममात्र का है, 650 से 1,500 रुपए तक की छूट का, कैपीटल गेन्स टैक्स बढ़ा दिया गया है. आयात करों में कुछ मामूली रियायतें दी गईं, कुछ पर बढ़ाई गईं. जब मंत्रों के बीच स्वाहा करने की बात आएगी तो पता चलेगा कि फाइनैंस एक्ट में संशोधनों में कहां कितने मगरमच्छों के अंडे हैं. पर पक्का है जैसे कांवडि़यों को मीलों चलने के बाद अपना पानी मंदिरों की नालियों में बहा देना होता है, वैसे ही नागरिकों का पैसा सरकारी गंदगीभरी गंगा में जाएगा जिस में डुबकी तो लगानी होगी ही और फिर कुछ चर्मरोग स्वीकारने होंगे.

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