आम धारणा है कि हिंदू समाज 4 वर्गों में बराबर बंटा है. लोगों को ‘ज्ञानी’ बारबार यही समझाते हैं कि गीता और पुराणों में वर्णित ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों बराबर हैं और ब्राह्मणों का यदि सत्ता और शिक्षा में बोलबाला है तो वह उन की योग्यता व संख्या के अनुरूप है, ज्यादा नहीं. आम ऊंची जाति वाला, जिस ने न गीता कभी पढ़ी न पुराणों को कभी देखा और जिस का धार्मिक ज्ञान केवल प्रवचनों से होता है, इसे सत्य मान लेता है.

भारतीय समाज असल में 3,000 से ज्यादा जातियों और उपजातियों में बंटा है. 1931 तक जनगणना में जाति पूछी जाती थी पर 1951 में हुई जनगणना में केवल अछूतों की संख्या, 1932 के गांधी-अंबेडकर पैक्ट के अनुसार लिखे गए संविधान के कारण, पूछी गई.

1931 के आंकड़ों से अनुमान लगाया जाता रहा है कि पिछड़े यानी शूद्रों की संख्या 50 से 60 प्रतिशत है. अछूत यानी दलित या शैड्यूल्ड कास्ट और मुसलमानों को हटा दें तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मुश्किल से 10 प्रतिशत बैठेंगे, इसीलिए सत्ताएं व संवादों पर हावी ऊंची जातियों के लोग इस सवाल को पिछले 70-75 साल से दबाए बैठे हैं.

बिहार में अब जाति जनगणना किए जाने का फैसला नीतीश कुमार की सरकार ने किया है पर यह पूरी तरह सफल होगी, इस में संदेह है क्योंकि इस काम में उन्हीं 5 लाख सरकारी कर्मचारियों को लगाया जाएगा जो इस समय ऊंची जातियों के हैं या अपने को अब ऊंची जाति का समझने लगे हैं.

हमारे समाज में ऊंचनीच की भावना देशप्रेम से भी बड़ी है. इसलिए गरीबों और विज्ञान व तकनीक में पीछे रह गए लोगों के समूह की गिनती करने में हमारे सरकारी कर्मचारी हर तरह से अड़ंगा लगाएंगे चाहे यह देशहित में हो. प्रश्नावली तैयार करने, घरों का सर्वे करने, मुसलिमों व ईसाईयों की गिनती करने में भारी हेरफेर की जाएगी.

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