खाप पंचायतें कैसे अपने फैसले थोपती हैं--जो कह दिया मान लो वरना बिरादरी से बाहर. अगर गांव के मुखिया, पंडित, मौलवी ने सहीगलत सोच पर किसी को पीटने, किसी को जुर्माना भरने, किसी का धंधा बदलवाने का चौपाल पर बैठ कर फैसला कर लिया तो कर लिया. जिस ने रोना है, रोए. कोई कुछ नहीं कर सकता.

हमारी लोकतांत्रिक वोटों से चुनी जनप्रिय सरकार अब इसी तरह बरताव करती नजर आती है. हम ने फैसले कर लिए, अब तुम को पड़ता खाता है तो जिंदा रहो वरना मरखप जाओ, नर्क में जाओ. कीचड़ में सड़ो. देश में रहना है तो रहो, वरना दफा हो जाओ. कहने को वित्त मंत्री अरुण जेटली इस तरह की बात दिवालिया होने की कगार पर बैठे धंधों के मालिकों को कह रहे थे कि नए कानून के मुताबिक उन का धंधा लगातार नुकसान में चल रहा है, तो उसे बंद कर दें, पर यह सरकार की असल मंशा को जाहिर करता है.

अब सरकार कहती है हम ने फैसले बंद कमरे में करने हैं और राजतंत्र की तरह मुनादी करानी है. जिसे नहीं मंजूर वह धंधा ही नहीं जिंदगी भी छोड़ने को आजाद है. हमें ऊंचनीच से मतलब नहीं. गाय को बचाने, नोटबंदी, जीएसटी के मामलों में सरकार ने पूरी तरह खाप पंचायती धौंस जमाई है. देश ने इसे मान लिया है, क्योंकि वोटतंत्र तो देश में है, पर लोकतंत्र अभी तक कुछ दिल्ली की कुछ सड़कों तक ही है.

वैसे भी हर गांवकसबे में अकसर नेता, थानेदार, पंडे, मौलवी की ही चलती है. वहां सुनवाई के नाम पर अदालतें चाहे हों, पर ये सब जानते हैं कि अदालत जब तक आखिरी फैसला देगी, तब तक परेशान के बच्चे बूढ़े हो चुकेंगे और परेशान या तो श्मशान में फुंक चुका होगा या कहीं 6 गज नीचे दबा होगा.

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