एक निदेशालय के हिंदी अधिकारी महेंद्र द्वारा पेश किए गए अपनी ‘गृह पत्रिका’ के प्रतिवर्ष प्रकाशित किए जाने के प्रस्ताव व बजट खर्च के अनुमोदन हेतु अपनी मेज पर पड़ी हुई फाइल निदेशक महोदय ने जैसे ही खोल कर देखी तो तुरंत हिंदी अधिकारी को अपने कक्ष में बुला कर उन से कहा, ‘‘महेंद्रजी, बंद करो यह रोनाधोना. प्रतिवर्ष छपने वाली इस सरकारी गृह पत्रिका पर लाखों रुपए का फुजूल खर्च होता है और किसी काम की नहीं होती यह पत्रिका. गृह पत्रिका में होता ही क्या है? अपने ही कर्मचारी इधरउधर से चुरा कर दूसरे प्रतिष्ठित लेखकों की छपीछपाई रचनाएं आप को अपने नाम के साथ ला कर दे जाते हैं और आप उन को उन के रंगीन फोटो व संक्षिप्त परिचय के साथ औफसैट पर सप्तरंगी छपवा देते हैं. आखिर क्या फायदा ऐसी पत्रिका के प्रतिवर्ष प्रकाशन का? हां, इतना जरूर है कि इस बहाने आप की सांठगांठ स्थानीय पिं्रटर से अवश्य हो जाती होगी. वह आप को इस के बदले में प्रतिवर्ष कम से कम एक छोटी गाड़ी तो भेंटस्वरूप दे ही देता होगा या फिर यदि जरूरत से ज्यादा समझदार हुआ तो आप की बेटी के नाम से कुछ रकम एफडी कर देता होगा. मैं ने खुद अपनी आंखों से देखा है कि महंगे पेपर पर औफसैट पिं्रटिंग में छपी हुई यह गृह पत्रिका प्रतिवर्ष तमाम दिनों तक अपने ही प्रेषण विभाग में पड़ीपड़ी धूल चाटती रहती है. इस वर्ष नहीं छपेगी यह गृह पत्रिका. मैं इस वर्ष इस को प्रकाशित करवाने की आप को विभागीय अनुमति नहीं देता हूं. ले जाइए वापस अपनी इस फाइल को.’’

निदेशक महोदय द्वारा कही हुई बात पर अमल करते हुए महेंद्रजी ने उन की टेबल से फाइल उठा कर उसे व्यवस्थित ढंग से बांधा और नमस्कार कर के वे वापस अपने कक्ष की तरफ चले गए. कुछ ही दिनों में उन्हें पता चला कि निदेशक महोदय ने अपने बजट अनुभाग के एक अधिकारी के साथ मिल कर नई मासिक पत्रिका के सरकारी खर्च पर प्रकाशित किए जाने हेतु टिप्पणी लिख कर उस को छपवाने तथा अपने निदेशालय में ही एक नए पत्रिका प्रकाशन अनुभाग को खोले जाने का अनुमोदन मंत्रालय से यह कह कर करवा लिया कि राजभाषा हिंदी को बढ़ावा देने हेतु जिस गृह पत्रिका को प्रतिवर्ष छपवाने हेतु होने वाले व्यय का हमारे निदेशालय के हिंदी विभाग द्वारा अनुमोदन मांगा जाता था, मैं ने उसे मना कर दिया है. उसी पत्रिका को अब नए नाम से प्रतिमाह यानी मासिक रूप में प्रकाशित करवाने की कृपया मुझे अनुमति दी जाए ताकि समाज के सभी वर्गों को राजभाषा हिंदी की नई दिशा हेतु उपयुक्त सामग्री पढ़ने को मिल सके. इस पत्रिका के बाजार में बिकने के कारण निदेशालय की अतिरिक्त आमदनी अलग से होगी.

आजकल सभी सरकारी मंत्रालयों में राजभाषा हिंदी को बढ़ावा देने और उस की प्रगति के संबंध में जो भी पत्र आता है उसे बहुत ध्यान से देखासमझा जाता है. यहां भी ऐसा ही हुआ और मंत्रालय से उन निदेशक महोदय को अपने निदेशालय में ही एक नया प्रकाशन अनुभाग खोलने के साथ अपने निदेशालय के पते पर ही राजभाषा हिंदी की प्रतिमाह एक नई मासिक पत्रिका प्रकाशित करने हेतु अनुमति मिल गई. मंत्रालय की अनुमति मिलते ही निदेशक महोदय हरकत में आ गए और निदेशालय का अन्य सभी कार्य छोड़ कर जल्दी से जल्दी एक संपादक की नियुक्ति करने हेतु उन्होंने मंत्रालय से अपना प्रपोजल पास करवा कर अपने यहां इस पद की भरती हेतु विज्ञापन देश के सभी समाचारपत्रों में प्रकाशित करवा दिया.

विज्ञापन छपते ही उन के निदेशालय में तमाम सारे अनुभवी संपादकों के बायोडाटा की तमाम सारी डाक आनी शुरू हो गई. निर्धारित तिथि को छटे हुए कुशल अनुभवी संपादकों का इंटरव्यू लिया गया. निदेशक महोदय ने किसी एक भी संपादक को इस लायक नहीं समझा जो उन की नई मासिक पत्रिका का संपादन कर सके तो इस बारे में उन के उपनिदेशक उल्लासजी ने एक बार अपनी हिम्मत कर के उन से पूछ ही लिया, ‘‘सर जी, आप को अपनी पत्रिका के संपादक के अंदर ऐसा क्या चाहिए जो देशभर से अपने निजी खर्चे पर यहां इंटरव्यू देने आए हुए तमाम सारे संपादकों में से एक भी नजर नहीं आया?’’ वे बोले, ‘‘उल्लास, ये सब जान कर तुम क्या करोगे? तुम तो मेरे खास आदमी हो. अब तुम ही बन जाओ इस पत्रिका के संपादक. अपने यहां संपादक की भरती हेतु दिखावटी इंटरव्यू लिए जाने की प्रक्रिया तो मैं ने लगभग पूरी कर ही ली है.’’

उल्लासजी धीरे से बोले, ‘‘सर जी, मैं तो इस निदेशालय का सरकारी कर्मचारी हूं. भला संपादक कैसे बन सकता हूं?’’ निदेशक महोदय बोले, ‘‘उल्लास, तुम बन सकते हो संपादक. बस, तुम्हें इस कार्य हेतु अतिरिक्त वेतन नहीं मिलेगा. तुम्हारा पद अवैतनिक होगा. तुम अवैतनिक संपादक कहलाओगे.’’ उल्लासजी बोले, ‘‘सर, वह तो ठीक है मगर मुझे तो हिंदी साहित्य के बारे में बिलकुल ज्ञान नहीं है. कहीं पत्रिका के किसी अंक में प्रेमचंद की जगह चंदनचंद छप गया तो बहुत बुरा होगा, सर जी.’’ निदेशक महोदय बोले, ‘‘उल्लास, तुम्हारा सारा जीवन इस निदेशालय के ही कामकाज करतेकरते बीत गया. फिर भी इतनी चिंता करते हो. तुम छोटीछोटी बातों को भी गंभीरता से सोचते हो, इसलिए तुम्हारा अब तक वारान्यारा नहीं हो सका. तुम मेरे सामने आज भी वही कोट पहनते हो जो तुम ने अपनी शादी के समय सिलवाया था. आजकल इतना सीधा होने वाले को मूर्ख कहा जाता है. अपनेआप को बदलो. जीना सीखो. अपनी नहीं तो अपने परिवार की आधुनिक जरूरतों को समझो. खुद अपने 30 साल पुराने स्कूटर पर चलते हो तो इस का मतलब यह नहीं कि तुम्हारा पुत्र नई गाड़ी में अपने कालेज नहीं जा सकता. समझदार पिता बनो. उस की और अपने परिवार के अन्य सदस्यों की इच्छाओं व उत्साह को दफन मत करो. कमाना सीखो. अपौरच्युनिटी बारबार नहीं आती. हमारे निदेशालय द्वारा निकाली जाने वाली नई मासिक पत्रिका का संपादक बन कर तुम्हें करना ही क्या है. तुम्हें तो केवल एक बार 50 हजार डाक के पतों का ही संपादन कर के सूची तैयार करनी है, बस. तुम्हें पता है कि जब मैं ने अपने यहां इंटरव्यू देने हेतु आए हुए देशभर के संपादकों से अपना प्रश्न किया कि क्या आप 50 हजार डाक के पतों की सूची का तत्काल संपादन कर सकते हैं? तो मेरे इस प्रश्न के उत्तर में एक संपादक भी अपनी ‘हां’ नहीं भर पाया. सब की टांयटांय फिस हो गई. इसलिए सब के सब खुद ही निरस्त हो कर चले गए.’’

इस बार उल्लासजी ने गंभीरता से कहा, ‘‘सर जी, वास्तव में 50 हजार डाक के पतों की सूची तैयार करना कोई आसान बात तो है नहीं और फिर इस से अपनी पत्रिका के संपादक बनने का अर्थ भी तो पूरा नहीं होता. संपादक को तो अपनी पत्रिका में प्रकाशित होने वाली रचनाओं के प्रकाशन का दायित्व व जिम्मेदारी भी निभानी पड़ती है, उस का क्या होगा?’’ उत्तर मिला, ‘‘उल्लास, तुम तो संपादक बन जाओ, बस. तुम तो अपने खास आदमी हो, इसलिए इतना प्रैशर दे रहा हूं. रही पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं की जिम्मेदारी के संबंध में बात, तो हम अपनी पत्रिका के अंदर स्पष्ट रूप में छपवा देंगे कि हमारी पत्रिका में प्रकाशित विचार एवं रचनाएं लेखकों के अपने हैं, इन से निदेशालय का सहमत होना अनिवार्य नहीं है.’’

‘‘सर जी, लेकिन किसी भी पत्रिका का संपादक बनना तो बहुत ही मेहनत का काम होता है. भला मैं कैसे कर पाऊंगा?’’ उल्लासजी बोले. उन के इस प्रश्न पर निदेशक महोदय अपना दृढ़विश्वास जताते हुए बोले,  ‘‘भाई, आज तक कोई भी सरकारी निदेशक अपने अधीनस्थ कर्मचारी से ले कर अधिकारी तक किसी से भी मेहनत का काम करवा पाया है जो मैं तुम से करवा लूंगा. तुम्हारा मूल काम तो उपनिदेशक का ही रहेगा, जो तुम पिछले कई सालों से यहां करते ही आ रहे हो, यह नाम तो केवल पत्रिका के आवरण पृष्ठ पर आप के पूरे नाम के साथ प्रकाशित होगा, बस.’  ‘‘सर, प्रकाशक और मुद्रक का भी तो चयन करना पड़ेगा?’’ उल्लासजी ने अपना अलग प्रश्न किया.

‘‘तुम उस की चिंता मत करो. मैं ने उपनिदेशक (बजट) परमिंदर सिंह को इस काम के लिए पहले से ही तैयार कर लिया है. वैसे भी वह बजट संबंधित सारे लफड़े बखूबी निपटा लेता है, ऊपर से सब को खुश भी रखता है. बहुत ही समझदार है,’’ निदेशक महोदय ने उल्लासजी से कहा. उल्लासजी फिर बोले, ‘‘सर जी, वह आप को पत्रिका में प्रकाशन के लिए रचनाओं से पहले 50 हजार डाक के पते आखिर क्यों चाहिए, जरा स्पष्ट रूप से बताएं?’’ सुन कर निदेशक महोदय ने उत्तर दिया,  ‘‘उल्लास, हमारी शीघ्र प्रकाशित होने वाली सरकारी मासिक पत्रिका को बाजार में बेचा जाए या नहीं, फिर भी हमें उस की खपत दिखाने हेतु मंत्रालय को जस्टीफाई करना पड़ेगा कि हमारी पत्रिका के प्रवेशांक की प्रति निम्नलिखित 50 हजार पतों पर मौजूद भारतीय परिवारों के हाथों पहुंच गई है. इसलिए अब इस के आगामी अंकों की प्रतिमाह 50 हजार से अधिक प्रतियां छापने की अनुमति प्रदान की जाए.’’

‘‘सर जी, तो क्या वास्तव में हमेशा ही 50 हजार से ज्यादा प्रतियां प्रतिमाह छपा करेंगीं?’’ उल्लासजी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा. ‘‘उल्लास, तुम तो एकदम बुद्धू हो, नासमझ हो. यदि वास्तव में 50 हजार से अधिक प्रतियां प्रतिमाह छपेंगीं तो हमें क्या फायदा होगा? एकदो माह लगातार अपनी इस नई पत्रिका के प्रकाशन हेतु हुए व्यय के सरकारी बजट का मंत्रालय से अनुमोदन मिल जाने के बाद फिर किसी नए मंत्री की भी इतनी आसानी से हिम्मत नहीं होगी जो अपनी राजभाषा हिंदी की इस नई मासिक पत्रिका के बजट को आगामी किसी भी माह में देने से मना कर सके. हां, कम भले ही कर सकता है. बस, अपनी बात बन जाएगी. अपने निदेशालय की फाइलों पर इस के प्रकाशन हेतु होने वाले व्यय का भुगतान तो 50 हजार प्रतियों से अधिक की संख्या दिखाते हुए प्रतिमाह मिलता रहेगा और छपेंगीं अपनी मनमरजी के अनुसार. इसीलिए तो मैं ने इस नई पत्रिका के प्रकाशन अनुभाग में अपने खासखास आदमियों का ही चयन किया है. जो मेरे अनुसार काम करेगा वह कभी नुकसान में नहीं जा सकता. अब इस से ज्यादा और स्पष्ट क्या कहूं,’’ निदेशक महोदय बोले.

अपने निदेशक महोदय की समझदारी भरी बातें सुन कर भी उल्लासजी असमंजस में थे और बोले,  ‘‘सर जी, मैं थोड़ा सोचसमझ कर बताता हूं कि मैं आप की नई मासिक पत्रिका का संपादक बनने हेतु तैयार हूं या नहीं.’’ उल्लासजी को सीट से उठ कर चलते हुए देख निदेशक महोदय ने कहा, ‘‘बैठो उल्लास, बैठो, अभी कहीं मत जाओ. बैठो, मैं तुम्हारी चिंता का अभी समाधान कर देता हूं. तुम मेरी सरकारी गाड़ी ले जा कर तुरंत निर्वाचन आयोग के कार्यालय चले जाओ. वहां से अपने देश में अब तक बने हुए वोटर्स कार्डों की सूची अपनी पैनड्राइव में ले आओ. इस संबंध में मैं ने पहले ही वहां के अपने एक पुराने परिचित अधिकारी से बात कर रखी है. वोटर्स कार्डों की सूची को ला कर तुम्हें सिर्फ इतना करना है कि उसे अपने कंप्यूटर पर लोड कर के उस में दर्शाए हुए प्रत्येक पते के मुखिया के नाम में थोड़ी सी फेरबदल करने के बाद उस नए नाम के बाद कौमा लगा कर बड़ेबड़े पद लगाने हैं

जैसे अपरमहानिदेशक, उपमहानिदेशक, डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफैसर आदि. इस प्रकार से तुम्हारे पास 50 हजार पतों की कोई कमी नहीं रहेगी. फिर भी यदि किसी माह में इस सूची में फेरबदल करना चाहो तो मैं अपने देश के स्कूलों की एक सूची, शिक्षा निदेशालय से निकलवा कर तुम्हें दे दूंगा. तुम उन सब स्कूलों के पतों पर प्रधानाचार्या को भी नई मासिक पत्रिका को प्रेषित करने का योगदान विभागीय रजिस्टरों में दिखा कर अपनी संपादकी सुरक्षित रख सकते हो. अब बताओ, तुम्हारी समस्या क्या है?’’

‘‘सर, अब मेरी मसझ में यह नहीं आ रहा कि आखिर अपनी इस मासिक पत्रिका में प्रकाशन हेतु नईनई रचनाएं कहां से आएंगी?’’ उल्लासजी ने कहा.

‘‘अरे भाई, उस की भी तुम बिलकुल चिंता मत करो. मैं कई ऐसे लेखकों को जानता हूं जो बिना पारिश्रमिक लिए हुए प्रतिमाह अनी नईनई रचनाएं हमें प्रकाशन हेतु हमेशा भेजते रहेेंगे. चलो भाई, इस बात की गारंटी भी मेरी,’’ निदेशक महोदय ने इस बार हंसते हुए कहा. तब तक चपरासी चायबिस्कुट ले आया. चाय पीतेपीते निदेशक महोदय ने कहा,  ‘‘उल्लासजी, आज का दोपहर का खाना मेरे साथ ही खाइएगा. अपनी इस नई पत्रिका के लिए प्रकाशक और मुद्रक का पदभार संभाले हुए परमिंदर सिंह आज मुझे ओबराय होटल में पार्टी दे रहे हैं. इस बहाने आप भी पांचसितारा होटल का खूबसूरत नजारा देख लेंगे. आप भी साथ चलिएगा, मैं वहीं पर आप को अपनी नई मासिक पत्रिका का समझदार संपादक घोषित किए जाने का उन्हें सरप्राइज दूंगा. वैसे भी कुछ खास बातें निदेशालय की चारदीवारी से बाहर ही तय हों तो ठीक रहता है, क्योंकि मैं ने सुना है कि दीवारों के भी कान होते हैं. अब तो मैं भी हिंदी साहित्य पर विश्वास करने लगा हूं. राजभाषा हिंदी के प्रचारप्रसार में बहुत दम है और मैं तो खांमखां ही अब तक अंगरेजी के पीछे पड़ा हुआ था.’’

निदेशक महोदय से हो रही वार्त्तालाप के मध्य इस बार ‘उल्लास’ से ‘उल्लासजी’ कहे जाने वाले आदरसूचक सम्मानमय शब्दों के अचानक हुए सुधार को सुन कर उल्लासजी भी सहजदिल हो गए और फिर वे उन्हें अपने अवैतनिक संपादक पदभार को संभालने हेतु मना नहीं कर पाए. अब उन को अपने अति समझदार निदेशक महोदय की सारी भावी योजनाएं अच्छी तरह से समझ आ चुकी थीं कि भविष्य में नई मासिक पत्रिका की चाहे केवल 50 ही प्रतियां प्रतिमाह छपें मगर उस के खर्च पर होने वाले मासिक व्यय के सरकारी अनुमोदन व छापने की अनुमति प्रतिमाह 50 हजार से अधिक प्रतियों के हिसाब से उन के निदेशालय को मंत्रालय द्वारा मिलती ही रहेगी. किसी भी नई पत्रिका प्रकाशन हेतु संपादक, प्रकाशक व मुद्रक ही तो चाहिए और क्या? ये सभी अपने ही खास आदमी हों तो फिर चिंता किस बात की. केवल 50 प्रतियों के प्रकाशन पर आने वाले मूल खर्चे के भुगतान के बाद बची हुई धनराशि का निबटारा कहां और किसकिस के हिस्से में कैश या उपहारस्वरूप जाना है, वह तो तय होते देर नहीं लगेगी. पांचसितारा होटलों में सुईट भी होते हैं जहां पर खुफिया कैमरे नहीं होते. वहीं पर हंसीखुशी के वातावरण में सरकारी आला अधिकारियों के साथ अधिकांश प्राइवेट डीलें होती हैं.

कुछ महीने बाद रविवार के दिन समस्त सरकारी कार्यालयों की जब छुट्टी रहती है, उस उपयुक्त दिन का लाभ उठाते हुए उल्लासजी के संपादन में निदेशालय के छठे तल पर स्थित सभागार में संस्कृति, मेलमिलाप, साहित्य और विचार का मासिक ‘मध्यांतर’ नामक पत्रिका के प्रवेशांक का विमोचन कर दिया गया. निदेशालय द्वारा प्रकाशित की जाने वाली इस नई मासिक पत्रिका के विमोचन समारोह में आने हेतु कब और किसेकिसे, निमंत्रणपत्र बांटे गए, किसी भी कर्मचारी को कानोंकान खबर तक नहीं लगी. कर्मचारियों को कौम्प्लीमैंट्री फ्री में मिलने वाली नई पत्रिका की एक प्रति भी नहीं मिली. बस, उन्हें नोटिस बोर्ड पर नई ‘मध्यांतर’ नामक मासिक पत्रिका के संपन्न हुए विमोचन समारोह की कुछ रंगीन फोटो लगी हुई अवश्य दिखाई दीं. प्रकाशन अनुभाग से अधिक पूछताछ करने पर निदेशालय के कर्मचारियों को पता चला कि शीघ्र ही इस के अंक बाजार में पत्रपत्रिकाओं वाली बुकस्टालों पर बिकते हुए दिखाई देंगे. वहां पर अपनी नजर बनाए रखें और कृपया यहां बारबार आ कर इस पत्रिका की एक भी फ्री प्रति पाने की चेष्टा बिलकुल भी न करें क्योंकि एक भी अतिरिक्त प्रति यहां के इस नए प्रकाशन अनुभाग में है ही नहीं. यहां तो केवल अपने विभागीय रजिस्टरों में उन देशभर के लोगों के डाक के पतों का रिकौर्ड रखा जाता है जिन को प्रतिमाह एकएक प्रति डाक द्वारा भेजी जा रही है तथा अब तक प्रकाशित हुई पत्रिका की एक प्रति निदेशालय के रिकौर्ड हेतु एक लोहे की अलमारी में ताला लगा कर सुरक्षित रखी जाती है और अलमारी की चाबी उपनिदेशक पद के साथ अतिरिक्त रूप से इस नई पत्रिका के संपादक का पदभार ग्रहण किए हुए उल्लासजी के पास ही रहती है. इसलिए हम तो आप को इस नई पत्रिका की प्रति को दिखा भी नहीं सकते. बाजार में ही खोजिए, शायद कहीं मिल जाए.

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