उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का एकसाथ मिल कर 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ना एक पुराने तरीके को फिर से दोहराना तो होगा पर इस बार समझ में फर्क होना चाहिए. पहले 1993 में जब दोनों एकसाथ मिले थे तो मामला सिर्फ बाबरी मसजिद बनाम राम मंदिर था और बचाना मुसलिमों को था. यह बात जरूर मन में थी कि दोनों ही उन हिंदू जातियों की पार्टियां हैं जो सदियों से नीची देखी गई हैं.

इस बार मुसलमानों का नाम कोई नहीं ले रहा. उन की चिंता नहीं है. चिंता तो अपनी है. देशभर में दलितों की जम कर पिटाई हो रही है. किसान जो पिछड़ों में आते हैं कर्ज और फसल के कम दाम के मारे तो हैं ही अब ऊंचे पंडे हिंदुओं की गौपूजा के शिकार हो रहे हैं. भाजपा सरकारों ने गौवध को तो गौरक्षा के नाम पर बंद करा दिया पर सूखी गाय का क्या किया जाए इस का कोई इंतजाम नहीं किया.

किसानों और दलितों को नोटबंदी की मार भी पड़ी थी. तब उन्होंने सोचा था कि इस से अमीर खत्म हो जाएंगे पर अब पता चला कि नोटबंदी से अमीरों को छोटा सा नुकसान हुआ और सरकार को कोई फायदा नहीं हुआ. लाइनों में गरीब लगे. औरतों की छिपी पूंजी गई. आज भी गरीबों के पास 500-1000 के पुराने नोट निकल कर आते हैं और कहते हैं बोलो जय मोदी सरकार की.

भाजपा के असली मालिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पिछले 50-60 साल में बड़ी मेहनत कर के दलितों व पिछड़ों को छोटे छोटे देवी देवता दे कर खुश किया था कि लो, अब तुम भी सवर्णों के बराबर आ गए. भगवा दुपट्टा पहनने के बाद वे अपने को ऊंचों के बराबर मानने लगे थे. वे भाजपा की झंडा ढोने वाली और तोड़फोड़ करने वाली भीड़ के बड़े हिस्से थे. उन्हीं के बल पर भाजपा ने 2014 का लोकसभा और 2017 का उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव जीता था. भाजपा ने उन्हें कुछ देने के बदले द्रोणाचार्य की तरह बिना धनुष चलाने की ट्रेनिंग दिए दक्षिणा में उन का अंगूठा काट लिया, उन्हें और गरीब बना डाला.

मायावती और अखिलेश यादव के लिए यह अब बड़ी चुनौती था. उधर 2014 की तरह चूंकि कांग्रेस भी चुप नहीं बैठ रही थी और राहुल गांधी ने गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में जबरदस्त हमला बोल कर जता दिया कि कांग्रेस मुक्त देश का सपना गलत है. मायावती और अखिलेश यादव ने शायद इसीलिए कांग्रेस को गठबंधन में नहीं रखा कि कांग्रेसी सीटों पर उसे भाजपा से नाराज, कांग्रेस की अपनी पुरानी, सपा, बसपा सब की वोटें मिल सकती हैं. चुनावी गणित कहता है कि भाजपा से नाराज दलित किसान और मायावती व अखिलेश के 2017 के वोटर ही उत्तर प्रदेश में भाजपा को भारी शिकस्त देने के लिए काफी हैं.

जब उपचुनाव में गोरखपुर वाली लोकसभा सीट बिना खास मेहनत के भाजपा हार सकती है तो वह बाकी राज्य में दोहराया जा सकता है यह बसपा और सपा की सोच है और गलत नहीं. कांग्रेस को साथ न मिला कर उन्होंने बहुत गलत काम नहीं किया.

हां, अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल को क्यों छोड़ा, यह थोड़ा अचकचा रहा है. शायद इसलिए कि अजित सिंह ने इस दौरान अमित शाह से भी संपर्क साधे रखा हो. वैसे भी जाटों की पार्टी थोड़ी असमंजस में है. जाट आम पिछड़ों व दलितों से ऊपर हैं और गांवों में अपने को पहले के ठाकुरों जैसा मानते हैं. पर ऊंचे सवर्ण उन्हें अपने बराबर नहीं मानते. उन्हें कहीं आरक्षण मिलता है, कहीं नहीं. गांवों में वे ठाकुरों की तरह ही धौंस जमाते हैं. उन्होंने अपने नएनए देवीदेवता खोज लिए हैं, क्योंकि उन्हें सवर्णों ने पुराने देवीदेवता तो नहीं दिए, पर दलितों को उन को नहीं पूजने देते.

मायावती और अखिलेश के लिए वे बेकार से हैं चाहे धौंस जितनी जमा लें. जाट मुसलमानों का हिस्सा हिंदू जाटों से अब 2014 के बाद भगवाई हुड़दंगियों की वजह से अलग हो गया है. इन्हीं जाट मुसलमानों को गाय मारने वाला कह कर जम कर सताया गया है. इन्हें तो बचाने वाले को वोट देना ही पड़ेगा.

जो बात मायावती और अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में सोची है वह कमीबेशी पूरे देश में होगी. जहां सिर्फ कांग्रेस मौजूद है वहां भाजपा खतरे में है. जहां वोट बंट सकते हैं वहीं भाजपा की जीत पक्की है. हिंदू समाज को बांट कर राज करने की पुरानी तरकीब समाज पर रुतबा बनाने के लिए तो ठीक है पर देश पर शासन करने के लिए ठीक नहीं है.

भाजपा ने अपने बचाव में 10 फीसदी सवर्ण आरक्षण का जो सुदर्शन चक्र चलाया है वह उलटा भी पड़ सकता है. इस से साफ हो गया है कि भाजपा का मतलब सब का साथ सब का विकास तो है ही नहीं वह तो सवर्णों का हित चाहती है. 60 साल के आरक्षण के बावजूद आज भी सरकारी पदों पर सवर्ण ही बने हैं यह पिछड़े दलित जानते हैं. मंडल कमीशन के भारीभरकम 25 फीसदी आरक्षण के 30 साल बाद भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा है. अब बाकी 50 फीसदी में जनरल कैटीगरी में निचली पिछड़ी जातियों के होशियार पूरे न घुस जाएं इसलिए भी यह आरक्षण लाया गया है. यह बात दलितों और पिछड़ों को नहीं मालूम हो, ऐसा नहीं हो सकता. वे अपने पैरों पर क्यों कुल्हाड़ी मारेंगे? लोकसभा, राज्यसभा और अब विधानसभाओं में उन्होंने इस कानून को बनाने पर चुपचाप ठप्पा लगा दिया पर चाहेंगे कि मोदी कहीं और उलझ जाएं.

मायावती व अखिलेश का साथ आना उन की राजनीतिक ही नहीं सामाजिक मजबूरी भी है. आज का युवा बराबरी का हक मांगता है. उसे भाजपा से उम्मीद थी पर 5 सालों में उलटा हुआ. इस का राजनीतिक लाभ तो कोई उठाएगा ही. भाजपा तो सवर्णों को भी आपस में बराबर का नहीं मानती.

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