4 जून, 2024 को देश की जनता, खासतौर पर गंगा, यमुना और सरयू के किनारे बसे सैकड़ों तीर्थों के राज्य उत्तर प्रदेश की जनता, के मतदान का जो फैसला आया, उस ने देश को उस गड्ढे में गिरने से बचा दिया है जिस में भारतीय जनता पार्टी और उस की पितामह संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने स्वार्थों के लिए जन्म से ही नहीं, उस से पहले से धकेल रही थी. यह गड्ढा है उस उच्च वर्णवाद का है जिस बारे में हमारे पौराणिक ग्रंथ भरे पड़े हैं और जिस काल्पनिक काल को इन ग्रंथों से पढ़पढ़ कर देश पर थोपने की तैयारी चल रही थी.
देश में कलम से लिखने का अधिकार देश के उन ज्ञानियों, ऋषियों, मुनियों के पास भी बहुत देर से आया था. पहले संस्कृत में बोले गए शब्द पीढ़ियों दर पीढिय़ों याद किए जाते थे, बाद में बौद्धकाल में जन्मी लिपि देवनागरी में उन्हें लिखा गया. इन ग्रंथों के आधार पर ही अंतिम हिंदू बड़े राजा मराठा पेशवाओं ने 50-60 साल राज किया जब घरेलू कारणों से मुगल साम्राज्य छिन्नभिन्न हो गया और एक साधारण किसान शिवाजी ने आज के महाराष्ट्र में अपना राज्य स्थापित किया. बाद में सत्ता पर कब्जा ब्राह्मण ज्ञानी पेशवाओं ने हथिया लिया और उस के बाद इस देश में सामाजिक परिवर्तनों का दौर समाप्त हो गया.
उस के बाद कांग्रेस के दौर में 1947 की आजादी के बाद जो सामाजिक बदलाव आए जिन्होंने बराबरी, स्वतंत्रताओं वाला राज्य स्थापित किया जो शास्त्रों के अनुसार नहीं संविधान के अनुसार चला, उस का श्रेय जवाहरलाल नेहरू को लगभग अकेले जाएगा. संविधान के अंतर्गत हिंदू विवाह कानून, हिंदू विरासत कानून, जमींदार उन्मूलन कानून, श्रम कानूनों, राज्यों में पैसों के बंटवारे के कानून, टैक्स वसूली के कभी कटु तो कभी सरल कानून, लोहे के कारखानों, बिजलीघरों, बांधों, नहरों, सडक़ों के जाल से जो शुरुआत हुई उस का पटाक्षेप 1998 में हुआ जब अटल बिहारी वापजेयी की सरकार बनी.
तब से ले कर 4 जून, 2024 तक देश में पौराणिक भय का माहौल बना रहा कि न जाने कब कौन से कोने से दुर्वासा ऋषि निकल आएं और देर रात को 10,000 शिष्यों को तुरंत खाना खिलाने की मांग करने लगें (महाभारत की कथा, वह भी तब कि जब पांडव जुए में हार कर जंगलों में मारेमारे फिर रहे थे) वरना भस्म करने का आदेश मौजूद है.
पिछले 10 सालों में हर लेखक, हर विचारक, हर आलोचक, हर इतिहासकार, हर न्यायविद और यहां तक कि हर वैज्ञानिक डरासहमा रहा है कि न जाने कब कौन दुर्वासानुमा अफसर दरवाजा खटखटा दे. समझदार पढ़ेलिखे लोग ही नहीं, देश के हर धर्म के अल्पसंख्यक बौद्ध, सिख, जैन, मुसलमान, ईसाई डरेसहमे रहे. सच को सच बोलने वाले, तथ्य को तथ्य की तरह पेश करने वाले, तर्क को तर्क की तरह कहने वालों के मुंह पर टेप लगा रहा था.
जो बोल रहे थे वे ही थे जो उस पौराणिक महिमा का गुणगान करने के विशेषज्ञ बन चुके थे, जिन्होंने सोच लिया था कि उन का ऋषियोंमुनियों वाला सा मुखिया अनंत है और देश को उसी पौराणिक गड्ढे में रहना होगा जिस का वर्णन हर पौराणिक ग्रंथ के हर पृष्ठ पर है.
इन पौराणिक ग्रंथों को साधारण भाषा में परिवर्तित करने वाले तुलसीदास के राज्य उत्तर प्रदेश में पौराणिक पार्टी को बड़ा झटका लगा और उस की 80 में से केवल 34 सीटें रह गईं. यह सुखद आश्चर्य है. यह आश्चर्य क्षण मंगुर है या इस का परिणाम लंबा निकलेगा और उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरा देश इस उस वाले गड्ढे से निकलने में सफल होगा या नहीं, कहना अभी संभव नहीं है.
उम्मीद जरूर बंधी है कि मोदी के नेतृत्व वाली, पहले मूर्तियों के आगे शाष्टांग पसर जाने वाली सरकार अब अपना शासन का काम करेगी, धर्मकर्म, पंडेपुजारियों और दक्षिणा की आस में बैठे दक्षिणापंथियों से अपने को बदलेगी या जनता उसे बदलेगी.
इन 10 सालों में देश ने प्रगति की है, इस में दो राय नहीं पर उस का मुख्य श्रेय उन 135 करोड़ कर्मठ मजदूरों को जाता है जिन्होंने देश में रह कर या देश से बाहर जा कर पैसा कमाया और न केवल सरकार को टैक्स दिया और सरकार के चलाए जा रहे धार्मिक आयोजनों में भी भरभर कर दान दिया. लेकिन यह साफ है कि तमाम प्रवचनों, प्रचार, भक्त चैनलों के धुआंधार कार्यक्रमों, रामायणों, महाभारतों के बारबार दोहराने के बावजूद देश की 50 से अधिक प्रतिशत तो वोट दे कर समझती रही कि उसे लगातार छला जा रहा है. उस से न केवल पैसा छीना जा रहा है बल्कि उस का सम्मान, उस के खेत, उस की उत्पादन और यहां तक कि उस की औरतें छीनी जा रही हैं.
4 जून, 2024 को आम चुनावों का जो पटाक्षेप हुआ उस ने एक नई आशा को जन्म दिया है कि देश में आपसी प्रेम, बराबरी, स्वतंत्रताओं, निष्पक्ष संस्थाओं, सहयोगी, क्रूर नहीं, शासन की उम्मीद को जिंदा रखेगी. थोड़े से प्रयास से वह क्रांति भी हो सकती है जिस के लिए कई देशों के इतिहास में करोड़ों को मरना पड़ा था. यह उस संविधान की देन है जिसे जवाहरलाल नहेरू की सरकार ने 1950 में लागू किया था. वह संविधान उस पैन की ताकत को वापस लौटाएगा क्या जिस की स्याही के नीले या काले रंग को भगवा रंग में बदला जा रहा था, सवाल फिर से खड़ा हो गया है क्योंकि संविधान की आत्मा को तो 10 सालों में हजारों बार कुचला गया है.