हम एक संस्था में मेरे द्वारा लिखे एक नाटक का रिहर्सल कर रहे थे. नाटक में मैं बहू की भूमिका में थी. दृश्य में मेरे सासससुर मेरे पास आते हैं तो मुझे और मेरे पति को उन के पैर छूने थे.

नाटक में ससुर की भूमिका निभाने वाली महिला की तबीयत खराब हो जाने की वजह से वह भूमिका एक नई महिला को दे दी गई. उसे बताया गया कि जब बेटेबहू पैर छुएंगे तब उन्हें अपने मन से कुछ भी अशीष देना है और उस के बाद आगे स्क्रिप्ट में लिखा डायलौग बोलना है.

चूंकि उन महिला को वह भूमिका अचानक से दी गई थी और आशीष बोलने वाली पहली लाइन को अपने मन से बोलने को कहा गया, तो वह हड़बड़ा सी गई. सो जब मैं ने झुक कर उन के पैर छुए तो ममेरी बलाएं लिए बोली, ‘नहाओ धोओ, नहाओ धोओ.’

मैं अचंभित सी खड़ी उन का मुंह देखने लगी कि यह क्या बोल रही  है? अगले ही पल एक जोरदार ठहाका कमरे में गूंज उठा. सब हंसहंस कर लोटपोट हो गए क्योंकि समझ में आ गया था कि दरअसल वह कहना क्या चाह रही थी. वह महिला मुझे ‘दूधो नहाओ पूतो फलो’ बोलना चाह रही थीं पर हड़बड़ी में उस के मुंह से ‘नहाओ धोओ, नहाओ धोओ’ निकल गया था. शन्नो श्रीवास्तव

मैं खंडवा से अकोला ट्रेन से सफर कर रहा था. ज्यादा भीड़ न होने से सामने वाली खिड़की के पास बैठी महिला से पहचान हुई. वह मुझ से खुल कर बातें करने लगी. थोड़ी देर में एक छोटे से स्टेशन में गाड़ी रुकी. अपने दोनों हाथों में दूध की कैन लिए एक बड़े मूंछ वाले भैया हमारे सामने, खाली जगह देख कर बैठ गए. उस महिला ने चेहरे पर घूंघट ओढ़ लिया और वह चुपचाप बैठी रही.

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