‘‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’’, ‘‘द लंच बाक्स’’, ‘‘बदलापुर’, ‘‘बजरंगी भाईजान’’, ‘‘मांझी द मांउटेनमैन’’ और ‘‘रईस’’ कुछ ऐसी फिल्मे हैं, जिनमें नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने अपने अभिनय के नए नए रंग दिखाएं हैं. कुछ समय पहले प्रदर्शित फिल्म ‘मॉम’ में उनका बहुत अलग रूप नजर आया. अब आज, 21 जुलाई को उनकी टाइगर श्रॉफ के साथ फिल्म ‘‘मुन्ना माइकल’’ प्रदर्शित हुई है. जबकि ‘बाबूमोशाय बंदूकबाज’ और ‘मंटों’ में वह अपने अभिनय के कुछ दूसरे रंग दिखाते हुए नजर आएंगे.
14 साल के संघर्ष के बाद जब सफलता मिली तो आप एक साथ काफी फिल्में करने की बजाय बहुत चुनिंदा फिल्में कर रहे हैं?
‘गैंग्सऑफ वासेपुर’ के प्रदर्शित होते ही मेरे पास 275 फिल्मों की पटकथाएं आयीं थी पर मैंने नहीं की. इनमें से करीबन सौ निर्माताओं ने अपनी फिल्म से जुड़ने के लिए मेरे सामने ब्लैंक चेक यानी कि चेक पर बिना राशि लिखे देकर गए थें, पर मैंने हड़बड़ी नहीं की. उनकी मांग होती थी कि मैं अपनी मर्जी की राशि चेक में भर लूं और उन्हें फिल्म की शूटिंग के लिए तारीखें दे दूं. पर मैंने उस वक्त भी धड़ाधड़ फिल्में साइन कर चेक बैंक में जमा नहीं कराए. उस वक्त मुझे लगा कि अब सही मायने में मेरा इम्तिहान है. यदि उस वक्त मैंने धड़ाधड़ फिल्में साइन की होती, तो अब तक मेरा करियर खत्म हो चुका होता और आज हम दोंनो इस तरह बैठकर सिनेमा पर बात न कर रहे होते. उस वक्त सारी पटकथाएं ‘गैंग्सऑफ वासेपुर’ के इम्पैक्ट में आ रही थीं. मैंने छह माह तक चुप रहना उचित समझा. मैंने सोचा कि यह जो गर्द उड़ी है, उसे ठंडा हो जाने दूं. फिर सोच समझकर फिल्में चुनूंगा. सर जी यहां करियर बनाने में वर्ष लग जाते हैं और एक गलत फिल्म पूरे करियर को चौपट कर देती है.
लीड किरदार मिलने पर आपका कलाकार मन क्या कहता है?
मैं तो यही सोचता हूं कि फिल्म सफल हो जाए. मसलन, केतन मेहता की फिल्म ‘मांझी द माउंनटेनमैन’ दो तीन करोड़ के बजट की फिल्म थी. तीन करोड़ प्रचार पर खर्च किए थे. फिर उस फिल्म ने 18 करोड़ कमा लिए. और वह भी तब जब फिल्म के रिलीज से तीन सप्ताह पहले ही लीक हो गयी थी. आज जब मैं लोगों से मिलता हूं, तो पता चलता है कि लोगों ने जितना ‘बजरंगी भाईजान’ देखा है, उतना ही ‘मांझी द माउंनटेनमैन’ को भी देखा है. भले ही इस फिल्म को थिएटर की बजाय टैब पर ही क्यों न देखा हो. फिल्म की यह सफलता ही है.
फिल्म ‘‘मुन्ना माइकल’’ को लेकर क्या कहेंगे?
एक अलग तरह की फिल्म है. इसमें इस बात को रेखांकित किया गया है कि हर इंसान के अंदर अलग अलग प्रतिभा होती है. उसे उसकी प्रतिभा के अनुसार आगे बढ़ने का अवसर मिलना चाहिए. इस फिल्म में टाइगर श्रॉफ के साथ नृत्य करना मेरे लिए काफी कठिन रहा. मुझे नृत्य नहीं आता, मगर सेट पर टाइगर श्रॉफ ने मुझे सिखाया. मेरे लिए नृत्य करना काफी कठिन है. लेकिन किरदार की मांग को पूरा करना था, इसलिए मैंने नृत्य किया.
किस किरदार ने आपकी निजी जिंदगी पर असर किया?
मेरी जिंदगी पर कई किरदारों ने असर किया. मसलन ‘रमन राघव’ का किरदार. रमन राघव का किरदार निभाने से मुझ पर काफी असर पड़ा क्योंकि जिस थ्योरी पर वह यकीन करता है, उस थ्योरी पर मैं यकीन नहीं करता. जबकि उसके हिसाब से थ्योरी सही थी. जबकि उसमें सब बुराइयां हैं पर कुछ अच्छाई भी है. वह बोलता है कि, ‘मैं इंसान को खाते पीते मारता हूं. मैं तुम लोगों की तरह नही हूं. तुम लोग किसी इंसान को इंसानियत या धर्म का सहारा लेकर मारते हो.’ तो उसकी अपनी एक फिलॉसफी है.
इसी तरह फिल्म ‘मंटो’ में मंटो का किरदार निभाने से मेरे निजी जीवन में बदलाव आया. आज तक मैंने सआदत हसन मंटो जैसा रूथली सच्चा इंसान नहीं देखा. जब मैं इस किरदार को निभा रहा था, तो कहीं न कहीं वह मुझे इस बात का एहसास करा रहा था कि मैं झूठ बोल रहा हूं. जब तक मैं इस किरदार को निभाता रहा, तब तक यह किरदार हर दिन मुझसे लड़ता रहा कि मैं तो कभी झूठ नहीं बोलता, तुम लोग हमेशा झूठ बोलते हो. मंटो कहता था कि मैं जो देखता था, समझता था, वही सच लिखा. मैं आप लोगों की तरह फ्रॉड का जामा पहनकर समाज में नहीं घूमा. वह कहता है, ‘यदि आप में हिम्मत है, तो सच बोलकर समाज में जी कर दिखाएं.’ तो वही फिल्म ‘‘बाबूमोशाय बंदूकबाज’’ के किरदार ने मुझे मेरे अंदर के स्याह पक्ष को तलाशने पर मजबूर किया.
फिल्म ‘‘बाबूमोशाय बंदूकबाज’’ क्या है?
यह अजीब टेढ़ी मेढ़ी फिल्म है. मुझे नहीं पता, इसे कितने लोग पसंद करेंगे क्योंकि हमें सीधी सादी, देशभक्ति या उसूलों वाली, जीवन मूल्यों की बात करने वाली फिल्में देखने की आदत है. लेकिन यह फिल्म तो सभी सीमाएं तोड़ती है. यह पूरी तरह से यथार्थपरक, देसी और बेशरम फिल्म है. हम सभी इससे बचने का प्रयास करते हैं. पर हकीकत में हम सभी पाखंडी हैं, जो यह कहते हैं कि हम ऐसे लोगों को पसंद नही करते. जबकि अकेले में लोग वह सब देखना पसंद करते हैं, जो कुछ बाबूमोशाय करता है. सिर्फ समाज के सामने ‘‘शरीफ’’ बने रहते हैं. मैं तो यही कहूंगा कि यह बहुत ही बेशरम फिल्म है.
इसमें मैंने एक ऐसा किरदार निभाया है, जिसकी अपनी कोई फिलॉसफी न हो, जिसका कोई दीन ईमान न हो. वैसे ऐसे इंसान होते हैं. क्या हमारे इर्द गिर्द दारूबाज, रंडीबाज इंसान नहीं है. ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें देखकर हम घिन करते हैं. पर कुशान नंदी ने अपनी फिल्म में ऐसे किरदार को हीरो बनाया.
क्या सआदत हसन मंटो जैसे इंसान इस दुनिया में हो सकते हैं या उस तरह से जिया जा सकता है?
बहुत मुश्किल होता है. पर मंटो ने तो जिया था.
आपने श्रीदेवी के साथ फिल्म ‘‘मॉम’’ की थी. श्रीदेवी से कभी सिनेमा को लेकर कोई बातचीत हुई?
थोड़ी बहुत हुई. मैंने उनसे पूछा था कि आप अभी भी बहुत चुनिंदा फिल्में करती हैं. ‘इंग्लिश विंग्लिश’ की सफलता के बाद आप ‘मॉम’ कर रही हैं. तब उन्होंने साफ साफ कहा कि वह सिर्फ फिल्में करते जाने का क्या फायदा. फिल्म तभी करनी चाहिए, जब कहानी पढ़कर दिल कहे कि हमें यह फिल्म जरुर करनी चाहिए. ‘इंग्लिश विंग्लिश’ हिट होने पर धड़ाधड़ फिल्में नहीं की. उनकी चयन भी बहुत कमाल का है.