आर्मी पृष्ठभूमि मेें पले बढ़े फिल्मकार रौबी ग्रेवाल ने सबसे पहले 2006 में सुजाय घोष के निर्देशन में कश्मीर की पृष्ठभूमि में फिल्म ‘‘यहां’’ का निर्माण किया था. उसके बाद उन्होने ‘‘मेरा पहला प्यार’’ सहित कुछ फिल्में निर्देशीत की. अब वह एक स्पौय यानी कि अपने वतन के लिए दूसरे देश में रहते हुए जासूसी करने वालों पर फिल्म ‘‘रोमियो अकबर वाल्टर’’ का निर्माण व निर्देशन किया है, जिसमें जौन अब्राहम और मौनी रौय की मुख्य भूमिका है.

पहली फिल्म ‘‘यहां’’ से ‘‘रोमियो अकबर वाल्टर’’ तक की अपनी यात्रा को किस तरह से देखते हैं?

मैंने इस यात्रा को इंज्वाय किया है.मेरा मूल काम विज्ञापन फिल्में बनाना है. तो रोजी रोटी मैं विज्ञापन फिल्म से कमाता हूं. इसलिए मैंने आज तक एक भी फिल्म पैसा कमाने के मकसद से नहीं बनायी.जब मेरा दिमाग मुझ पर किसी कहानी को कहने दबाव बनाता है,तभी मैं बनाता हूं. मुझ पर यह दबाव नही है कि मुझे हर साल फिल्म बनाती है.यही वजह है कि मैंने ‘‘रोमियो अकबर वाल्टरा’’की कहानी को सात साल जिया है. सात साल दिया है. जब फिल्मकार के रूप में आपको घर चलाना हो तो आप समझौता करते हैं. मेरे साथ ऐसा नहीं रहा. जब दिल से आवाज आयी, तो मैंने फिल्म बना डाली.

रौय को लेकर कई फिल्में बन चुकी हैं.क्या आपने उन फिल्मों को देखा हैं. आपकी फिल्म उनसे अलग कैसे है?

मैंने लगभग हर फिल्म देखी हैं. पर मैं किसी अन्य फिल्म के उपर कोई कमेंट नहीं करना चाहता. कुछ फिल्मकारों ने तो बहुत अच्छी फिल्में बनायी हैं. 70-71 के दौर में रौय को लेकर इतनी कहानीयां हैं, जिन पर कई फिल्में बन सकती हैं. राय स्पौय/जासूसों को लेकर इतनी सामग्री उपलब्ध है कि आप सैकड़ों फिल्में बना सकते हैं. कुछ दिन पहले एक महिला स्पौय /जासूस की कहानी पर फिल्म ‘‘राजी’’आयी थी. पर फिल्म‘‘राजी’’और हमारी फिल्म ‘रोमियो अकबर वाल्टर’दोनों का सुर अलग है. उपरी सतह पर आपको दोनों फिल्में 1971 की नजर आएंगी.पर जब फिल्म देखेंगे तो दोनों में कोई समानता नहीं है. हमारी फिल्म के जासूस के काम करने का तरीका अलग है.वह काम भी अलग करता है.इसी तरह की कई कहानीयां हमारे यहां इतिहास में उपलब्ध हैं कि हम राौय को लेकर चाहे जितनी फिल्में बनाना चाहे,बना सकते हैं.

 फिल्म‘‘रोमियो अकबर वाल्टर’’में आपके अपने पिता या पिता के द्वारा सुनायी कहानी का कितना योगदान है?

इस फिल्म के पे्ररणा स्रोत मेेरे पिता कहे जाएंगे.उन्होंने जो कहानी सुनायी, उससे मुझे यह समझ आया कि स्पौय ओर आर्मी की दुनिया क्या है?एक जासूस किसी दूसरे देष में जाकर किस तरह से आपरेट करते हैं.उसके बाद मैंने काफी कुछ पढ़ा.कुछ किताबें भी पढ़ीं. इंटरनेट पर जो सामग्री उपलब्ध थी,उसे पढ़ा .फिर जो लोग उस दौरान आर्मी इंटेलीजेंस में काम कर रहे थे, उनमें से कइयों से मैंने मुलाकात की. हर किसी ने गोपनीयता की षर्त रखकर ही मुझसे मुलाकात की, इसलिए नाम तो उजागर नही कर सकता. जिन लोगों से मैंने बातचीत की,उनसे कमाल की कहानीयां सुनने को मिली,जो कि इंटरनेट पर कहीं नहीं हैं.जब मैंने इन लोगों से बात की,तो मुझे उनके अंदर के एहसास/इमोशंस,जब वह वहां काम कर रहे थे,सहित बहुत ताजा तारीन जानकारी मिली. इसी वजह से मेरी फिल्म में बहुत कुछ ह्यूमन एंगल हावी है. मेरे लिए फैषिनेट यही रहा कि मैंने अपनी रिसर्च ह्यूमन पक्ष को लेकर किया. मैंने रिसर्च के दौरान 70-71 में जो लोग आर्मी इंटेलीजेंस में जुड़े थे उनसे और जो लोग आज काम कर रहे थे,उनसे भी बात की. तो मुझे उस वक्त और आज के वक्त का भी फर्क पता चला.फिर मैंने दोनों के बीच का विश्लेषण किया.

तो ‘‘रोमियो अकबर वाल्टर’’1971 की पृष्ठभूमि पर है?

जी हां! मगर उस वक्त के युद्ध की कहानी नही है. यह पूर्णरूपेण दूसरे देश में कार्यरत ‘रौय’ के जासूसों और उनकी जिंदगी पर है.

रिसर्च के दौरान आपको क्या समझ में आया?1971 में राॅ के एजेंट के रूप में काम करना आसान था या अब?

देखिए,अब आर्मी इंटेलीजेंस यानी कि रौ में दो विभाग हैं एक है ह्यूमन इंटेलीजेंस और दूसरा है ‘टेक इंटेलीजेंस’. आज के माहौल में तकनीक बहुत हावी हो गयी है. जबकि 1971 में तकनीक कमजोर और ह्यूमन इंटेलीजेंस हावी था. इसलिए मैंने 71 के बैकड्राप पर फिल्म ‘रौ’ बनायी. क्योंकि मेरे लिए मानवीय पक्ष बहुत मायने रखता है. हमारी फिल्म की कहानी इंसान के जज्बे,उसके संघर्ष,उसकी दिमागी सोच अपने वतन के प्रति उसका प्रेम आदी की ऐसी कहानी है, जो हर किसी को फैशिनेट करेगी. हम मशीन नही बल्कि इंसान की कहानी बता रहे हैं. अब तकनीक हावी हो जाने से मानवीय पक्ष की रोचकता कम हो गयी है.

क्या फिल्म‘‘रोमियो अकबर वाल्टर’’में राजनैतिक हस्तपक्षेप का भी कही कोई जिक्र हैं?

बिलकुल नही.मेरी फिल्म राजनीति को लेकर कोई बात नही करती. आपके पिता आर्मी में रहे हैं. आपने आर्मी व रौ को लेकर काफी रिसर्च किया. यानी कि आप आर्मी के हालात को समझते हैं. ऐसे में आज जब पुलवामा पर हुए आतंकवादी हमले के बाद भारतीय सेना के द्वारा किए गए हमले के बाद हमारे देश के कुछ राजनीतिज्ञ आरोप प्रत्यारोप कर रहें हैं.

एक फिल्मकार के रूप में आप क्या सोचते हैं?

फिल्मकार की बजाय एक भारतीय होने के नाते मुझे बुरा लग रहा है. एक भारतीय होते हुए मुझे लगता है कि सेना के उठाए कदम पर कोई सवाल नही किया जाना चाहिए. भारतीय सेना इतनी प्रोफेशनल है कि वहां जाति,धर्म वगैरह कुछ मायने नही रखता. देश की सुरक्षा की बात ही हर सैनिक के दिमाग में रहती है. आप जानते हैं कि हम सिख यानी कि सरदार हैं. मेरे पिता जब आर्मी में थे,तो गुरखा रेंजीमेंट में थे. वह प्राउड गुरखा हैं. मेरेपिता आज भी गौखाली भाषा में बात करते हैं,जो कि गोरखा लोगों की भाषा है. यह खूबसूरती है. भारतीय सेना के लिए पांच साल का कोई खेल नहीं होता. सैनिक जब तक जिंदा है, तब तक देश की सुरक्षा के बारे में सोचता है.  एक भी सैनिक किसी तरह का फायदा लेने की बात कभी सोचता. इसलिए भारतीय सेना ने जो कहा, उसको हर नागरिक को आंख मूंदकर कबूल कर लेना चाहिए,उस पर सवाल नही करना चाहिए.

फिल्म‘‘रोमियो अकबर वाल्टर’’में किसने क्या किरदार निभाया है?

फिल्म में जैकी श्राॅफ ने इंटेलीजेंट चीफ यानी कि मुखिया का किरदार निभाया है. जिस इंसान को उठाकर ‘राौ’ एजेंट बनाते हैं, उस किरदार को जौन अब्राहम ने निभाया है, जिसके रोमियो,अकबर और वाल्टर नाम है. सिंकदर खेर ने पाकिस्तानी जासूस का किरदार निभाया है.जौन अब्राहम के अपोजिट मौनी राौय हैं. मौनी राय बैंक में काम करती हैं. सुचित्रा कृष्णमूर्ती एक बहुत बड़े दैनिक अखबार की मैनेंजिंग एडीटर हैं.रघुवीर यादव ने पाकिस्तान में रहने वाले उस इंसान का किरदार निभाया है, जो वहां पर जाॅन अब्राहम की मदद करता रहता है.

इस सीन को फिल्माना आपके लिए सबसे ज्यादा कठिन रहा?

जब बडे़ कलाकार के साथ वास्तविक लोकेशन पर शूटिंग करनी हो, तो तकलीफें आनी स्वभाविक है. हमने सिर्फ गुजरात में नौ शहरों में शूटिंग की. आप खुद अंदाजा लगा लें कि यदि जाौन अब्राहम वास्तविक लोकेशन पर जाएंगे, तो क्या हालत होगी. आम लोग उन्हें देखने के लिए किस तरह से हावी हो सकते हैं.पर मैंने व जाॅन ने पहले दिन से तय कर रखा था कि हमें फिल्म को वास्तविक लोकेशन और रीयल तरीके से ही बनाना है.

पहले इस फिल्म में सुशांत सिंह राजपूत थे. फिर जाौन अब्राहम कैसे आ गए?

आपने एकदम सही कहा.पहले हमने सुषात सिंह को ही जोड़ा था.पर बाद में षूटिंग की तारीखों को लेकर टकराव शुरू हो गया, तो हम आपसी सहमति से अलग हो गए.फिर हम जौन अब्राहम से मिले और बात बन गयी.
यदि फिल्म का निर्माता निर्देशक लेखक एक ही इंसान हो,तो काम करना सहज हो जाता है?

देखिए,यदि निर्माता निर्देशक लेखक एक ही हो, तो फिल्म बनाना आसान हो जाता है. क्योंकि लेखक के तौर पर आपने जो विजन होता है. वह निर्देशक आसानी से समझ जाता है. ऐसे में जब आप निर्माता भी होते हैं तो बजट का मसला भी आपके दिमाग में साफ रहता है. जहां मेरी कहानी,मेरी आवाज और मैं ही दर्षा रहा हूं. खुद निर्माता होने की वजह से मुझे हमेषा याद रहता है कि मुझे यदि कोई सेट बनाना है,तो उतना ही बड़ा बनाउं,जिसे मैं पूरा दिखा सकूं. इससे बेवजह खर्च नहीं बढ़ेगा. मुझे उस वक्त बहुत बुरा लगता है, जब लोग उसका उपयोग नही कर पाते.लेकिन इसका यह मतलब नही कि मैं दूसरे लेखक की कहानी या निर्देषक के साथ काम नहीं करना चाहता. हमारी योजना ‘रौ’ को 49 दिन में फिल्माने की थी,पर हमने इसे 46 दिन में पूरा कर लिया.

कई बार कलाकार शिकायत करता है कि उसने जो स्क्रिप्ट पढ़ी थी और जो फिल्म बनकर आयी,उसमें बहुत अंतर है?

हां!इसकी कई वजह होती हैं. पहली वजह लेखक एक विजन के साथ पटकथा लिखता है,जिसे वह उसी विजन के साथ कलाकार को सुनाता है,पर कई बार निर्देषक,लेखक के विजन को ज्यों का त्यों समझ नहीं पाता और फिल्म अलग बन जाती है. निर्देशक लेखक की तरह हर सीन को विजन कर ले,यह जरूरी नहीं. इसी वजह से कलाकार को पढ़ते समय जो रीयल लगता है,फिल्म देखते समय वह रीयल नहीं लगता. कहानी सुनते समय कलाकार सोचता है कि घर का रंगा पीला होगा,पर निर्देशक घर का रंग लाल कर देता हैं. तब भी एक अलग चेहरा उभर जाता है. दूसरी बात स्क्रिप्ट में एक किसी सीन में कलाकार को चिल्लाना है,अब कलाकार कितना चिल्लाएगा यह लेखक और निर्देशक दोनों अलग अलग ढंग से सोच सकते हैं. सेट पर तो कलाकार को वही करना पड़ता है,जो निर्देशक कहता है.

सिनेमा में आए बदलाव को किस तरह देखते हैं?

मेरे लिए़़ तो यह बदलाव बहुत अच्छा है. मुझे रीयल सिनेमा बनाने में मजा आता है, वह मैं बना पा रहा हूं. आज तो कमर्यशिल सिनेमा भी रीयल हो गया है. अब लाउड नहीं रहा. मल्टीप्लैक्स बनने से दर्शक भी बढ़ गए. पढ़ा लिखा दर्शक हैं,तो हम पूरे देश को नजर में रखकर फिल्म बना पा रहे है. अब यह सोच नही रही कि फिल्म में गाने होंगे,तभी फिल्म चलेगी.

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