Entertainment : मल्टीप्लैक्स की लत लग जाने के चलते दर्शक अब सिंगल थिएटर में जाना अपनी तौहीन सम झते हैं, तो वहीं मल्टीप्लैक्स के महंगे टिकट खरीद कर फिल्म देखने के लिए उन की जेब गवाही नहीं देती. इस से नुकसान फिल्म इंडस्ट्री का हो रहा है.

अपने जन्म के साथ ही सिनेमा हर आम इंसान के लिए मनोरंजन का अहम साधन रहा है. हकीकत तो यह है कि भारत में हर आम इंसान के लिए सिनेमा देखना पारिवारिक उत्सव की तरह रहा है. गांवों में आम जनता पूरे परिवार के साथ किसी न किसी मेले में जा कर मनोरंजन कर पाती थी. कुछ मेलों में ट्यूरिंग टाकीज के रूप में या शामियाना लगा कर फिल्मों का भी प्रदर्शन हुआ करता था. लेकिन धीरेधीरे ‘मेला’ संस्कृति खत्म होती गई, असम को छोड़ कर ‘ट्यूरिंग टाकीज’ या ‘शामियाना’ लगा कर फिल्मों के प्रर्दशन की संस्कृति भी खत्म हो गई. सबकुछ सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों तक सीमित हो गया. परिणामतया फिल्म संस्कृति पनपती गई.

कुछ लोग हर सप्ताह अपने पूरे परिवार के साथ घर से बाहर आउटिंग के लिए जाने लगे और सिनेमाघरों में फिल्म देखने के साथ ही किसी छोटे रैस्टोरैंट में खानपान कर घर वापस लौटने लगे और पूरा परिवार इस कदर संतुष्ट होता जैसे कि वह मेले का आनंद ले कर आ गया.

उस वक्त फिल्म देखने के लिए टिकट की दरें भी बहुत ज्यादा नहीं थीं. मु झे अच्छी तरह से याद है कि 1976 में मुंबई के विलेपार्ले इलाके में एक सिंगल थिएटर ‘लक्ष्मी’ टाकीज हुआ करती थी. जहां पर डेढ़ रुपए और 2 रुपए के टिकट थे. उस की चारदीवारी लोहे के पतरे की हुआ करती थी, जोकि गरमी में गरम होती थी पर लोग बड़े चाव से फिल्में देखते थे. उस थिएटर के इर्दगिर्द हिंदी, मराठी व इंग्लिश भाषा के निजी और सरकारी मिला कर करीबन 10 स्कूल और 2 बड़े कालेज थे. लोग 15-15 दिनों पहले से टिकट खरीद कर रखते थे. अन्यथा टिकट नहीं मिलता था. यों तो इस थिएटर में ज्यादातर स्कूल व कालेज में पढ़ने वाले बच्चे ही दर्शक हुआ करते थे पर अब यहां पर ‘शान’ नामक मल्टीप्लैक्स है, जहां कई वर्षों से ‘हाउसफुल’ का बोर्ड नहीं लगा पर मल्टीप्लैक्स के प्रादुर्भाव से सिंगल थिएटर खत्म होने लगे.

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