रेटिंग: डेढ़ स्टार
निर्देशक: सुरेश त्रिवेणी
कलाकारः विद्या बालन, शेफाली शाह, मानव कौल, इकबाल खान, रोहिणी हट्टंगडी, विधात्री बंदी, गुरपाल सिंह, सूर्या काशी भाटला, श्रीकांत यादव, विजय निकम, त्रुशांत इंगले, इमाद, घनश्याम लालसा व अन्य.
अवधिः दो घंटे नौ मिनट
ओटीटी प्लेटफार्म: अमेजॉन प्राइम वीडियो
स्वार्थ, नैतिकता, सही, गलत और अपर्नी ईमेज पर आंच न आने देने के इर्द गिर्द बुनी गयी अपराध कथा वाली फिल्म ‘‘जलसा’’ लेकर फिल्मकार सुरेश त्रिवेणी आए हैं, जो कि 18 मार्च से ‘अमेजॉन प्राइम वीडियो’ पर स्ट्रीम हो रही है.
कहानीः
कहानी के केंद्र में मशहूर चैनल की मशहूर पत्रकार माया मेनन (विद्या बालन) और उनके घर में खाना बनाने का काम करने वाली रूखसाना (शेफाली शाह) है. माया मेनन के घर में उनकी मां रूक्मणी ( रोहिणी हतंगड़ी) के अलावा लगभग दस साल का विकलांग बेटा आयुष मेनन (सूर्या काशी भाटला) भी रहता है.माया मेनन के पति आनंद (मानव कौल) ने एक रूसी औरत से दसूरी शादी कर ली है. आनंद कभी कभी माया के घर आकर बेट आयुष के साथ खेलते हैं. माया व रुखसाना के बीच अति विशस का संबंध है.
कहानी शुरू हाते है माया मेनन द्वारा अपने टीवी चैनल पर जज गुलाटी (गुरपाल सिंह) के इंटरव्यू लेने से जज, माया के सवालों के जवाब देने से इंकार कर देते है. इसी तनाव में चैनल के सीईओ अमर (इकबाल खान) के साथ बैठकर देर रात तक माया मने न शराब पीती हैं. फिर रात में तीन बजे शराब के नशे में खुद ही तेज गति से गाड़ी चलाते हुए घर की ओर रवाना होती हं. रास्ते में उनकी गाड़ी से रूखसाना की 18 वर्षीया बेटी आलिया दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है, जो कि चोरी से अपने प्रेमी के साथ घूमने निकली थी.माया मेनन गाड़ी रोक देखती है और उन्हे लगता है कि वह लड़की मर गयी,इसलिए वह चुपचाप घर चली जाती है.सुबह पता चलता है कि उनकी कार से घायल होने वाली लड़की रूखसाना की बटे थी.तब माया अस्पताल वहां पहुंचती हैं और फिर रूखसाना की बुरी तरह से घायल बेटी को इलाज के लिए बड़े अस्पताल ले जाती है.फिर इस हादसे की जांच शुरू होती है.
ये भी पढ़ें- कटरीना कैफ ने शादी के बाद यूं मनाई पहली होली, देखें Photos
रूखसाना सच जानना चाहती है कि कार चालक कौन था या थी? मगर पुलिस को इस सच तक पहुंचना नहीं है. पुलिस खुद रूखसाना और रूखसाना के पति को समझाना शुरू करती है कि वह ले देकर मामला रफा दफा कर दे. कहानी इसी तरह चलती है. इस बीच माया मेनन के चैनल की ट्रेनी पत्रकार रोहिणी (विधात्री बंदी) इस दुर्घटना की अपनी तरफ से जांच करती रहती है. अंततः कहानी एक मुकाम पर खत्म होती है, जिसमें कुछ भी रोचकता नजर नही आती.
लेखन व निर्देशनः
अति कमजारे कहानी व पटकथा के अलावा अति सुस्त फिल्म है.लेखक व निर्देशक को पत्रकारिता या अपराध की कोई समझ नजर नहीं आती. पूरी फिल्म में न वह पत्रकारिता के दृष्टिकोण को समझा पाए और न ही अपराध कथा को ही ठीक से विस्तार दे सके. हकीकत में एक ट्रेनी पत्रकार सीधे अपने संपादक से नहीं मिल पाती, मगर फिल्म में ट्रेनी पत्रकार तो सीईओ से आसानी से मिलती है.
जिसके पास किराए का मकान लेने के लिए पैसे नही है, वह कार या टक्सी में यात्रा करती है? इतना ही नहीं लेखक व निर्देशक को समाज के रहन सहन की भी कोई जानकारी हो, ऐसा फिल्म देखकर नजर नहीं आता. माया का घर देखकर अहसास हो जाता ह कि उनकी क्या हैसियत है. माया मेनन के घर पर रूखसाना खाना बनाने का काम करती है. दिन भर वहीं रहती है. उसका पति भी फिल्मों में स्पॉटब्वॉय है.
इससे यह तो समझा जा सकता है कि रूखसाना को बहुत कम पैसे नहीं मिलते होंगे. इसके बावजूद फिल्म में रूखसाना का मकान जिस तरह की झोपड़पट्टी इलाके में दिखाया गया है, वह काल्पनिक लगता है.जबकि रूखसाना का पहनावा लगभग माया जैसा ही है. फिल्मकार ने अपनी फिल्म के माध्यम से मोरालिटी का मुद्दा उठाने का असफल प्रयास किया है. फिल्म के कुछ दृश्य देखने के बाद अहसास होता है कि लेखक व निर्देशक को बाल मनोविज्ञान व मानवीय मनोविज्ञान की भी समझ नजर नहीं आती. फिल्म का नाम ‘जलसा’ क्यों है? यह भी समझ में नहीं आता. फिल्म में बेवजह रूढ़िवादिता से ग्रसित किरदारों के अलावा राजनीति, भ्रष्ट पुलिस को भर कर कहानी को टीवी सीरियल की तरह लंबा खीचा गया है. पर किसी भी किरदार में गहराई नहीं है. वहीं अमीर व गरीब के बीच भेद की बात भी की गयी है.
जबकि फिल्म दिखाती है कि रूखसाना का पूरा परिवार माया मेनन के परिवार के सदस्य जैसा है. यानी कि फिल्म में तमाम विरोधाभास हैं. पूरी फिल्म में नैतिकता या सामाजिक असमानता को लेकर कुछ भी नहीं कहा गया है. फिल्म का क्लायमेक्स भी सवाल छोड़ने के अलावा कुछ नहीं करता.यह एक बेहतरीन नारी प्रधान के अलावा भावनात्मक द्वंदों से युक्त फिल्म बन सकती थी. लेकिन लेखक व निर्देशक की अपनी कमजोरियों के चलते फिल्म जटिल बनकर रह गयी है. जिससे दर्शकों का मनोरंजन तो नहीं मिलता मगर उनका सिरदर्द जरूर होता है.
फिल्म बहुत अधूरी सी लगती है. माया और उनके पति आनंद को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं होती. आयुष किसी बीमारी से जूझ रहा है, यह भी पता नहीं चलता. माया की मां उनके साथ क्यों रहती है? ट्रेनी पत्रकार रोहिणी की महत्वाकांक्षा को लेकर भी फिल्म चुप है. वास्तव में कहानी के साथ साथ फिल्म के सभी किरदार भी अधपके हैं.
ये भी पढ़ें- तलाक की अफवाहों के बीच चारु असोपा ने शेयर कीं फैमिली फोटोज
अभिनयः
इमानदार छवि वाली पत्रकार, सख्त बॉस और एक विकलांग बेटे के समाने कमजारे मां, अपनी मां के सामने विद्रोही बेटी माया मेनन के किरदार में विद्या बालन ने न्याय करने का प्रयास किया है, पर उन्हें पटकथा से मदद नहीं मिल पाती. कई दृश्यों में वह ओवर रिएक्ट करते हुए नजर आती है. सच जानने के लिए प्रयासरत रूखसाना के किरदार में शेफाली शाह ने चुप रहकर अपनी आंखों के भावों से बहुत कुछ कहने का प्रयास किया है. मानव कौल ने यह फिल्म क्यों की? यह समझ से परे है. अन्य किरदार ठीक ठाक हैं.