सुनील अचारकाटे भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर में खुद का प्रिंटिंग प्रैस चलाते हैं. जिस दिन प्रैस में देररात तक काम चलना होता है उस दिन शाम से ही उन की सांसें फूलने लगती हैं. वजह, काम का दबाव या तनाव नहीं, बल्कि दिमाग पर आवारा कुत्तों का छाया आतंक है. सुनील बताते हैं कि एमपी नगर से घर चूनाभट्टी तक जाने में कोई 3 जगहों शिवाजी नगर, टीटी नगर और शाहपुरा पर आवारा कुत्ते समूह बना कर बैठे रहते हैं. जैसे ही वे बाइक की आवाज सुनते हैं, सामूहिक रूप से भूंकना और पीछा करना शुरू कर देते हैं.

शुक्र यह है कि सुनील को अभी तक किसी आवारा कुत्ते ने काटा नहीं है. हालांकि अकेले भोपाल में औसतन रोजाना 30 लोग डौगबाइट यानी कुत्ते के काटने के शिकार होते हैं. इस साल अकेले फरवरीमार्च में कोई 2 हजार लोगों को इन आवारा कुत्तों ने काटा था.

ऐसा ही एक चिंताजनक मामला पुराने भोपाल के घोड़ा नक्कास इलाके में रहने वाली 4 साल की मासूम माहिरा के साथ सामने आया था. बीती 16 मार्च को माहिरा के पिता वकार अली उर्फ विक्की उसे अपने साले के  यहां छोड़ कर गए थे. खेलती हुई माहिरा पर एक आवारा कुत्ता झपट पड़ा. घबराई इस नन्ही बच्ची ने बचने की काफी कोशिश की, लेकिन कुत्ता उसे काट कर ही माना.

अपनी बेटी का इलाज कराते समय विक्की ने नगरनिगम को इस हादसे की खबर फोन पर दी, तो जवाब मिला कुछ ही देर में नगरनिगम कर्मी आएंगे और उस इलाके के आवारा कुत्तों को पकड़ लेंगे. लेकिन इस आश्वासन के बाद भी कोई नहीं आया तो विक्की जैसे लोगों की चिंता और बढ़ गई कि ये आवारा कुत्ते कभी भी किसी को काट सकते हैं.

चिंता सुप्रीम कोर्ट की भी

आवारा कुत्तों यानी स्ट्रीट डौग्स का आतंक इस तरह देशव्यापी होता जा रहा है कि इस पर अदालतें भी वक्तवक्त पर चिंता जताती रहती हैं. मई, 2018 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच ने आवारा कुत्तों की समस्या पर संज्ञान लेते हुए उत्तर प्रदेश सरकार से जवाब तलब किया था कि वह इस से निबटने के लिए क्या कर रही है.

हुआ यों था कि सीतापुर इलाके में कुछ बच्चों को अनियमित अंतराल से आवारा कुत्तों ने काट खाया था. इस पर एक अधिवक्ता द्वारा दायर याचिका पर जस्टिस विक्रमनाथ और अब्दुल मोइन की बैंच ने इसे केवल सीतापुर ही नहीं, बल्कि पूरे राज्य की समस्या बताया था.

इस से पहले सितंबर, 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने केरल सरकार से कहा था कि लोगों को आवारा कुत्तों से बचाने की जिम्मेदारी सरकार की है और सरकार को कानूनी दायरे में रह कर इस का हल निकालना चाहिए. गौरतलब, चिंताजनक और दिलचस्प बात यह है कि अकेले केरल में एक साल में लगभग एक लाख 16 हजार लोग डौगबाइट का शिकार हुए थे.

लेकिन केरल सरकार को नसीहत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि आवारा कुत्तों के पास भी जीने का हक है और यह उन से छीना नहीं जा सकता. इसलिए कुत्तों को मारते वक्त सरकार इस बात का ध्यान रखे कि केवल उन्हीं कुत्तों को मारा जाए जो नियमों के तहत आते हों. सब से बड़ी अदालत का यह कहना भी अहम था कि यह लोगों के जीवन से जुड़ा मामला है लेकिन हम ऐसा कोई आदेश नहीं दे सकते कि सभी आवारा कुत्तों को मार दिया जाए. अगर कोई व्यक्ति कुत्ते के काटने से मर जाता है तो यह एक घटना हो सकती है. ऐसी घटनाओं को ले कर सभी आवारा कुत्तों को मारने की इजाजत नहीं दी जा सकती.

आवारा कुत्तों के काटने की समस्या कितनी विकराल होती जा रही है, इसे सुप्रीम कोर्ट के ही इस आदेश से और समझा जा सकता है कि केरल सरकार जस्टिस एस श्रीजगत की कमेटी की सिफारिशों को लागू करे जिस में कुत्तों के काटने से घायल लोगों को मुआवजा देने की बात कही गई है. जवाब में केरल सरकार के वकील ने माना था कि मुआवजा मांगने वाले ऐसे 752 याचिकाकर्ताओं में से 154 मामले सैटल कर लिए गए हैं.

पुनर्वास हल नहीं

गंभीर मामले पर पहल करते केरल सरकार ने अदालत को बताया था कि सभी पंचायतों से पूछा गया है कि आवारा कुत्तों के लिए पुनर्वास की जगह के बारे में वे सरकार को बताएं.

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गौरतलब यह भी है कि केरल और बौंबे हाईकोर्ट ने अलगअलग फैसलों में आवारा कुत्तों को मारने के फैसले को सही ठहराया था. इन फैसलों में कहा गया था कि लोगों की जिंदगी आवारा कुत्तों से ज्यादा जरूरी है. गौरतलब यह भी है कि कई पशु अधिकार संस्थाओं ने आवारा कुत्तों को मारे जाने के फैसले के खिलाफ याचिकाएं दायर कर रखी हैं. ये संस्थाएं खासतौर से केरल में आवारा कुत्तों को मारने के लिए चलाई जा रही मुहिम पर रोक लगाने की मांग कर रही थीं.

इन मामलों को गंभीरता से लेते सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में नवंबर, 2015 में कहा था कि कुत्तों के लिए 2001 में बने केंद्रीय नियम के तहत ही कार्यवाही की जा सकती है. इस नियम के मुताबिक, लोगों के लिए खतरा बने आवारा कुत्तों को मानवीय तरीके से मारा जा सकता है. इसी बात को अदालत ने इस साल फरवरी में फिर दोहराया था.

दोटूक कहा जाए तो आवारा कुत्तों का आतंक और इस समस्या का हल किसी के पास है ही नहीं. चूंकि यह जिम्मेदारी स्थानीय निकायों के सिर है इसलिए वे भी आएदिन इस समस्या पर मीटिंग किया करते हैं, लेकिन किसी हल या निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाते. सितंबर, 2018 में इंदौर नगरनिगम की एक मीटिंग में इस मसले पर लंबीचौड़ी चर्चा हुई थी. लेकिन निगम अधिकारी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाए थे. हां, इस बात पर सहमति जरूर बनी कि कुत्तों की नसबंदी की जाए, उन्हें रेबीज के इंजैक्शन लगाए जाएं और इस से भी अहम बात, आवारा कुत्तों के लिए अलग बाड़ा बनाया जाए.

आवारा कुत्तों का पुनर्वास असल में उतना आसान काम है नहीं जितना कि लगता है. वजह, हर शहर में जगह कम है. और कुत्तों को पकड़ कर एक जगह रख पाना व्यावहारिक बात भी कहीं से नहीं है. इस की अपनी वजहें भी हैं कि अकसर आवारा कुत्ते रिहायशी इलाकों के आसपास ही रहते हैं. उन्हें एक बार घसीट कर कहीं और ले जाया सकता है, लेकिन कुछ दिनों बाद फिर उन की नई फौज तैयार हो जाती है. फिर अगर पुनर्वासित आवारा कुत्तों को कभी समय पर खानापीना न मिला या वे किसी दूसरे हादसे या बीमारी का शिकार हो कर मरे, तो पशुप्रेमी हायहाय करने का मौका चूकेंगे नहीं, इसलिए भी स्थानीय निकाय पुनर्वास से कतराते हैं.

एक कुत्ते की नसबंदी पर लगभग एक हजार रुपए का खर्च आता है. मिसाल भोपाल की लें, इस शहर में तकरीबन एक लाख आवारा कुत्ते हैं. यानी उन की नसबंदी के लिए 10 करोड़ रुपए चाहिए होंगे. इतनी भारीभरकम राशि का इंतजाम या प्रावधान, वह भी कुत्तों के लिए, कोई नगरनिगम नहीं कर सकता. इसलिए भी यह भीषण होती समस्या ज्यों की त्यों रहती है.

साल 2017 में चंडीगढ़ नगरनिगम ने इस परेशानी से छुटकारा पाने के लिए आम लोगों से अपील की थी कि वे आवारा कुत्तों को गोद लें. नगरनिगम ने उत्साहपूर्वक यह घोषणा भी की थी कि जो भी व्यक्ति या एनजीओ कुत्तों को गोद लेगा उसे नगरनिगम द्वारा हर तीसरे महीने सम्मानित किया जाएगा. लेकिन इस घोषणा का कोई असर नहीं हुआ. सो, वहां की मेयर आशा जसवाल भौचक्की रह गई थीं.

दरअसल, इस के पहले चंडीगढ़ नगरनिगम ने सारे टोटके आजमा लिए थे. मसलन, आवारा कुत्तों को पकड़ कर शहर से बाहर भी छोड़ा गया था और उन का बधियाकरण भी किया गया था लेकिन शहर के 12 हजार आवारा कुत्तों की तादाद कम नहीं हुई. बात बहुत सीधी सी है कि एक कुतिया एक बार में 4-6 पिल्लों को जन्मती है जो देखते ही देखते अपना एक अलग स्वतंत्र अस्तित्व बना लेते हैं और खुद को नए आवारा कुत्ते के रूप में स्थापित कर लेते हैं. कुत्ते की औसत उम्र 12 साल होती है. लिहाजा, नसबंदी के बाद भी उस की आवारगी बनी रहती है.

खानेपीने की इन कुत्तों को कोई कमी नहीं रहती. आजकल घरों से इतनी जूठन बाहर घूरों पर फेंकी जाती है कि ये कुत्ते भूखे नहीं रहते. लोगों का पशुप्रेम इस की वजह है और धार्मिक आस्थाएं भी, कि कुत्तों को खाना देने से पुण्य मिलता है और शनि ग्रह का प्रकोप कम होता है.

एक दूसरी वजह चंडीगढ़ ही नहीं, बल्कि देश के तमाम नगरनिगमों के सामने मुंहबाए खड़ी है, वह है एनिमल वैलफेयर बोर्ड की गाइडलाइन. इस के तहत नगरनिगमों को निर्देश दिए गए हैं कि शहर के सभी सार्वजनिक बागबगीचे और पार्क आवारा कुत्तों के लिए खोले जाएं और कुत्तों पर पाबंदी वाले बोर्ड भी हटाए जाएं.

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अव्वल तो सभी नगरनिगम यह बेकार और बेगार ढोना नहीं चाहते, इसलिए इस गाइडलाइन को वे कवच की तरह इस्तेमाल करते हैं कि हम क्या करें जब सरकारी एजेंसियां ही इस मामले पर हमारे हाथ बांध रही हैं. फैडरेशन औफ सैक्टर्स वैलफेयर एसोसिएशन के सलाहकार चंडीगढ़ के ही दलविंदर सैनी की मानें तो आवारा कुत्तों की समस्या से छुटकारा पाने के लिए डौग पाउंड बनाए जाएं.

यानी बात हर तरह से घूमफिर कर पुनर्वास पर आ कर ठहर जाती है, जो देश में कहीं नहीं हो पा रहा. किसी का ध्यान इस तरफ नहीं जा रहा कि इस समस्या की असल जड़ शहरीकरण है जिस में कुत्तों के रहने का कोई प्रावधान नहीं है. कुत्तों से उन के रहने की जगह और ठिकाने छीन कर इमारतें खड़ी की गईं तो ये कुत्ते वहीं कहीं खाली जगह देख कर बसने लगे.

हर शहर में कालोनियों के बीच के मैदानों और घूरों पर इन कुत्तों का कब्जा है. नालों के आसपास भी ये रहते हैं और रेलवेलाइनों के पास भी इन के आशियाने हैं, क्योंकि वहां कोई ज्यादा रोकटोक इन पर नहीं रहती.

खाने की तलाश में कुत्ते रिहायशी इलाकों में पहुंचते हैं और फिर वहीं के हो कर रह जाते हैं. जब ये कुत्ते बस रहे होते हैं तब किसी के पेट में मरोड़ नहीं उठती. लेकिन जब ये आतंक फैलाने लगते हैं, लोगों को काटने लगते हैं और उन का निकलना दूभर कर देते हैं तो लोग हायहाय करते स्थानीय निकायों और सरकारी दफ्तर पहुंचने लगते हैं.

यह सच है कि गाय के बाद कुत्ता ही ऐसा मवेशी है जो हमेशा से आदमी के साथ है. लोग कुत्तों को सुरक्षा के लिए साथ रखते थे. लेकिन अब पहले से पड़ाव वाला दौर नहीं रहा और न ही लोग घुमंतू रह गए हैं. लिहाजा, कुत्ता उन के साथ तो आज भी है लेकिन वह अब वफादार चौकीदार नहीं रह गया है, बल्कि आतंक का पर्याय बन चुका है. द्य

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मैं बस से जावरा जा रहा था. थोड़ी देर बाद बस चलने से पहले एक युवा मेरी पास की सीट पर आ कर बैठ गया. 10 किलोमीटर बस चलने के बाद कंडक्टर टिकट काटते हुए पैसे लेने आया. युवा ने सेमलिया का टिकट मांगा. यह बस विपरीत दिशा के इस ग्राम में नहीं जाती थी. इसलिए कंडक्टर ने उसे घोंसवाल में उतर जाने को कहा.

युवा झट से वहां उतर गया. उतरते हुए उस यात्री से यहां तक के किराए के पैसे मांगने पर उस ने कहा कि कौन से पैसे, क्या तुम ने सेमलिया में उतारा है? चालक से यह कह कर वह आगे बढ़ गया, और आगे चल कर अपने साथ चल रहे दोस्त से कहा, ‘‘मिलाओ हाथ, इसे कहते हैं आइडिया.’’ वास्तव में ये दोनों युवा दूसरे राज्य के थे और घोंसवाल अकसर आवाजाही करते थे.   एस सी कटारिया

मेरी शादी के बाद पहला त्योहार होली का आया. हमारे यहां यह रिवाज है कि शादी के बाद पहली होली पर सासबहू एकसाथ नहीं रहती हैं. इसलिए होली से पहले मेरे मायके से मुझे लेने आ गए. ससुराल वालों ने मुझे मायके भेज दिया. परंतु मेरा जाना मेरे पति को अच्छा नहीं लगा. नईनई शादी हुई थी.

होली पर मेरी दीदी व जीजाजी भी हमारे यहां आए थे. मायके में सभी ने मिल कर योजना बनाई कि होली पर सासबहू साथ में नहीं रह सकतीं परंतु दामादजी तो यहां आ सकते हैं. इसलिए होली पर इन्हें आमंत्रित कर के हमारे यहां बुलवा लिया.

होली से एक दिन पहले ही मेरे पति आ गए थे. उन्हें बसस्टैंड से सीधे हमारे चाचाजी के यहां ले गए. उन्हें चाचाजी के यहां ठहराया गया. हमारे यहां होली पर दामाद के साथ बहुत हंसीमजाक किया जाता है. इसलिए मेरी बहनें, भाभी व मेरी सहेलियों ने मजाक में इन्हें पकड़ कर इन के नेलपौलिश लगा दी, काजल, बिंदी व मांग में सिंदूर भर कर इन का रूप सुहाना शृंगार कर दिया और होली खेलते समय इन्हें मेरे सामने ला कर मुझे सरप्राइज दिया.

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मुझे इन के आने की पूर्व में कोई जानकारी नहीं थी. मेरे जीजाजी के साथ मेरे पति अचानक मेरे सामने आ कर खड़े हो गए. मैं अचानक इन्हें सामने खड़े देख हतप्रभ रह गई. और इन का रूप सुहाना शृंगार देख कर अपनी हंसी नहीं रोक सकी. हम सभी ठहाके लगा कर हंसने लगे. मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा.

अब हम सभी ने मिल कर खूब होली खेली. होली पर फाग गीत गा कर माहौल को और भी रंगीन बना दिया.

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