प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिना अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों या मुख्यमंत्रियों की सहायता केअकेले धुआंधार प्रचार और रैलियां कर के एक बार फिर बहुमत हासिल कर अपने पर लगाए गए सारे आरोपों और अपनी प्रशासनिक व नीतिगत नीतियों की गलतियों पर आम वोटरों के समर्थन का मोटा लेप लगा लिया है. आम वोटर नोटबंदी व जीएसटी की तकलीफों और दलित उत्पीड़न व किसान आत्महत्याओं की घटनाओं के बीच एक सुरक्षित, परंपरावादी हुकूमत चाहता है क्योंकि उसे जो उन की कीमत देनी पड़ रही है वह महसूस ही नहीं हो रही.
नरेंद्र मोदी को पिछले एक साल से काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था. कई राज्यों के विधानसभा चुनाव हार गए थे. कई लोकसभा उपचुनाव भी हार गए थे. प्रेस से बात करने से कतराते थे. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की आक्रामक होती शैली उन्हें परेशान कर रही थी. पर उन्होंने ये सब अपनी वाककला से बुरी तरह धो डाला कि अब कोई भी विपक्षी दल अपने गढ़ में सुरक्षित नहीं रह पाएगा.
इतिहास में ऐसे समय बहुत आए हैं जब राजाओं ने लंबे समय तक राज किया और उन के स्थिर स्थायी राज में चाहे उन्नति हुई या न हो, जनता अपना आम काम करती रही है. आज भी दुनिया के कई देश एक ऐसा शासक पसंद कर रहे हैं जो सामाजिक स्थायित्व दे चाहे वैयक्तिक स्वतंत्रताएं हों या न हों. रूस के व्लादिमीर पुतिन, तुर्की के रजब तैयब इरदुगान, चीन के शी जिनपिंग उन शासकों में से हैं जो जबरन बंदूक के बल पर शासक नहीं बने हैं, पर खासे स्वीकार किए जाते हैं.
मौलिक स्वतंत्रता, संस्थाओं की स्वायत्तता, नियमोंकानूनों का पालन, नई सोच आदि हो या न हो, जब तक एक सा शासन मिले, जनता को सहज स्वीकार हो जाता है. और यहां तो साथ में धर्म की मुहर भी लगी मिल रही है. जब धर्म को देश की गरीब व अमीर जनता ही नहीं, अल्पसंख्यक भी अपना अस्तित्व मानते हों तो स्वाभाविक है कि धर्मनिष्ठ सरकार के पीछे भागा जाएगा.
नरेंद्र मोदी के सामने अब राजनीतिक चुनौतियां न के बराबर रह गई हैं. यह पक्का है कि विपक्षी दल हताशा के शिकार हो जाएंगे क्योंकि इन चुनावों में उन्होंने अपना पूरा जोर लगा दिया था. राज्यों के आने वाले चुनावों में जब तक कोई चमत्कार न हो, भारतीय जनता पार्टी की सरकारें बनेंगी. देश की जनता ने लोकतंत्र के जानेपहचाने तरीके से यह फैसला लिया है.
धर्म की धाक धमेगी
भारतीय जनता पार्टी की विजय का एक अर्थ यह भी है कि अब देश में तार्किक, वैज्ञानिक और विश्लेषणवादी लोगों की कोई जगह नहीं. पिछले
100-150 वर्षों से देश जहां एक तरफ विज्ञान, फिलौसफी, तर्क, मौलिक स्वतंत्रताओं की निरंतर खोज में लगा था वहीं दूसरी तरफ सुनियोजित ढंग से देश पर पुरातनवादी सोच लादी जा रही थी. कहा जा रहा है कि भारतीय सोच विश्व में अनूठी है, अकेली है और अंतिम सत्य है.
कर्मकांडों, पूजापाठों, ध्यानों, मंत्रोच्चारणों वाली उबाऊ, निरर्थक प्रक्रियाएं पूरे देश पर लादी जा रही हैं. लोगों का पहनावा धार्मिक आदेशों के अनुसार बदला जा रहा है. तर्क की जगह आस्था ले रही है. कुछ मामलों को छोड़ दें तो आज फिर इस देश के लोग मानसिक रूप से 18वीं शताब्दी से पहले वाले तरीके से जीने को मजबूर हैं.
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भारतीय जनता पार्टी का उद्देश्य केवल संसद और विधानसभाओं में बैठ कर शासन करना नहीं है, वह जीवन के हर हिस्से में परोक्षअपरोक्ष रूप से दखल दे रही है. असल में उस की सफलता का राज ही यह है कि उस ने वोटरों पर राजनीतिक प्रभुत्व के साथ भावनात्मक प्रभुत्व भी स्थापित किया है. लोगों को यह विश्वास दिला दिया गया है कि वे चाहे मर्सिडीज गाड़ी खरीदें या हवाई जहाज, जब तक विधिवत पूजापाठ न होगा, शुभ न होगा. इसे हर रोज कहने वाले ही पार्टी के सब से बड़े प्रचारक हैं.
इन के मुकाबले तर्क और स्वतंत्रता की बात करने वाले अपनी बात लिख कर या इधरउधर कहीं बोल कर इतिश्री कर लेते हैं. अब तक तर्क की जगह थी, पर क्या अब यह रहेगी? खिंची लकीर पर चलना सब से सुगम होता है क्योंकि उस में सोचविचार नहीं करना पड़ता. नियत प्रक्रियाएं यानी रीतिरिवाज निभाने पर सामाजिक समर्थन मिलता है. आदमी अकेला नहीं पड़ता. उसे कुछ नया करने के लिए प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं होती जिस में 100 में से एक ही सफल होता है.
क्या इस देश में अब अलग सोच रखने वालों की जरूरत नहीं रहेगी? चाहे अपनेअपने धर्मों के अनुष्ठानों को मानने की छूट हो पर क्या अपने धर्म या समाज की सड़ीगली मान्यताओं से हटने की छूट होगी?
चेहरारहित विपक्ष हारा
भाजपा को मिली जीत की एक वजह यह भी है कि दूसरे दल पूरे देश में एक झंडे के नीचे राज देने की बात करने में मतदान के समय सफल नहीं हो पाए. व्यक्तिपूजा करने की आदी देश की जनता को नरेंद्र मोदी के सामने एक चेहरा चाहिए था, जो साफ न था.
ममता बनर्जी अपने अहंकार में थीं. मायावती अपने कोकून में बंद थीं. जगन मोहन रेड्डी और चंद्रबाबू नायडू अपनेअपने रोब में थे. नवीन पटनायक को लग रहा था उन्हें कोई छू नहीं पाएगा. भाजपा का सुनियोजित पैसे और साधनों से लैस संगठन तितरबितर विपक्ष पर बुरी तरह हावी रहा. अगर विपक्षी दल एकतरह की बातें कर रहे थे तो एकसाथ काम करने में उन्हें क्या मुश्किल थी. सो, अब भुगतो 5 साल और.
पुलिस की मरजी
दिल्ली की सड़कों पर एक नजारा आम है. चौराहों पर जहां ट्रैफिक जाम लगा होगा वहां वरदीधारी ट्रैफिक पुलिस वाला न होगा. पर इंडिया इंटरनैशनल सैंटर या शंगरीला होटल के सामने, जहां ट्रैफिक सामान्य होता है,
4-5 सफेद वरदी वाले ट्रैफिक सबइंस्पैक्टर के साथ दिख जाएंगे जो वाहन रोक कर कभी किसी कारण तो कभी किसी वजह के चलते ट्रैफिक में रोकटोक करते रहते हैं. उन के हाथ में इंस्टैंट चालान करने वाली हैंड हैल्ड मशीन होती है जो पूरा डाटा ऐक्सैस कर सकती है.
ये अगर दहशत पैदा कर के ट्रैफिक सैंस लाते हों तो भूल जाएं. जहां ये खड़े होते हैं वहां से आधा किलोमीटर की दूरी पर अफरातफरी रहती है. पटरियों पर बाइक, बीच सड़क पर सवारियां भरती बसें, चौराहे पर सवारियों का इंतजार करते औटो देखे जा सकते हैं. पर ये ट्रैफिक कौंस्टेबल वहां पर नहीं दिखेंगे. कारण साफ है, हर बार गाड़ी रोकने पर कुछ झटका जाता है. 5-7 वाहनों का चालान किया.
10-15 लोगों से 100-500 रुपए ले कर जेब में रखे. दरअसल, चौराहे पर टै्रफिक कंट्रोल करना टेढ़ा काम है. नोएडा पुलिस ने इसी तर्ज पर 4 मई को नोएडा के एक फार्महाउस पर 40-50 जवान जमा कर युवाओं की रेव पार्टी पर रेड मारी. क्या वे हुड़दंग मचा रहे थे? किसी को परेशान कर रहे थे? डाका डालने की योजना बना रहे थे? नहीं, वे कुछ अनैतिक लगने वाला काम कर रहे थे जिस के लिए पुलिस वालों के पास समय था व जवान खाली बैठे थे. कारण यहां भी स्पष्ट है. रेव पार्टी पर रेड मार कर
कुछ लाख रुपए वसूलने आसान हैं. कानूनव्यवस्था सुचारु बनाए रखने में परेशानी होती है. नोएडा कोई अपराधमुक्त शहर नहीं कि पुलिस को भटके युवाओं को राह पर लाने का काम करने की फुरसत हो.
यह देशभर में होता है. सरकार अपनी शक्ति का दंभ वहां दिखाती है जहां सामने वाला कमजोर हो, अकेला हो. जहां भीड़ हो, वहां सरकार चुप रहती है. कांवडि़ए रास्ता रोक लें, तो मजाल है पुलिस वाले कुछ कह सकें. जरा सा ओवरलोड ट्रक हो, कानून टूट जाता है. सड़क पर गड्ढे कर के तंबू लगा कर निर्जला एकादशी को प्रसाद बांटा जाए, यह पुलिस को न दिखेगा. मकानमालिक ने 50 ईंटें रख लीं अपना मकान ठीक करने के लिए, आननफानन पुलिस वाले पहुंच जाएंगे.
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रेव पार्टी करना न गुनाह है, न गुनाह माना जाना चाहिए. यह गलत हो सकता है पर जब तक इस से किसी को नुकसान न हो, इस पर आपत्ति न हो, तब तक पुलिस के दखल का सवाल भी नहीं उठता. हमारी पुलिस अपनी जेब भरती है. उसे बहाना चाहिए, वह साबित कर ही देगी कि आप गलत हैं.
नकल पर अनजाना जोर
परीक्षाओं के मौसम में नकल कराने के लिए बिहार के उस फोटो, जिस में बीसियों लोग परीक्षा केंद्र की खिड़कियों से लटके अपने अजीजों को परचियां देते दिखे थे, की तर्ज पर सब राज्यों में वैसा ही हो रहा है. परीक्षा का मखौल उड़ाया जा रहा है. किसी तरह अंक आ जाएं, इस के लिए विद्यार्थियों को उन के मातापिता व अभिभावक जम कर हर तरह की बेईमानी करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, क्योंकि कुछ परीक्षाएं ऐसी होती हैं जो भविष्य का दरवाजा खोलती हैं.
परीक्षाओं में पढ़ कर अच्छे नंबर लाना हरेक के लिए संभव नहीं है. इसलिए कुछ को तो बेईमानी करनी ही पड़ेगी. पूरा सिस्टम ऐसा बन गया है, या बना डाला गया है कि नकल को जैसे पूरी तरह संस्थागत मान लिया जाए और कम से कम प्रमाणपत्रों तक हरेक को योग्य मान लिया जाए. सरकारी फैसले इस के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं जो निर्धारित करते हैं कि कुछ पदों के लिए न्यूनतम आधार मैट्रिक, बीए या एमए है. अब यह आधार पाना है तो जैसेतैसे डिगरी या सर्टिफिकेट तो चाहिए ही न.
देश की बहुत सी नौकरियों में लंबीचौड़ी शिक्षा की नहीं बल्कि मेहनत, लगन और ईमानदारी की जरूरत होती है. कुछ में अनुभव चाहिए. कुछ में जोखिम लेने की क्षमता की आवश्यकता होती है. तो कुछ में शारीरिक बल ही जरूरी होता है.
ऐसी नौकरियों में न्यूनतम शिक्षा का प्रावधान कर डाला गया है. वैसे, यह हमारी वर्णव्यवस्था की सोच के आधार पर किया गया है जिस में शिक्षा का मौलिक अधिकार तो ब्राह्मण को ही था. अब चूंकि 5वीं पास अछूत जाति के भी आने लगे हैं, सो, ये प्रमाणपत्र उन्हें रिजैक्ट करने का काम करते हैं. सफाई इंस्पैक्टरों को किसी भी शहर में देख लें. उन्होंने कभी झाड़ू तक नहीं उठाई होगी. वे प्रमाणपत्रों के बल पर इंस्पैक्टर बने, जबकि यह नौकरी मिलनी चाहिए केवल उन को जो सफाई का काम 8-10 साल कर चुके हैं.
परीक्षाओं में नकल करने के पीछे लालच भी है. अच्छी नौकरी यदि नकल कर के मिल जाए तो पौबारह. सरकारी नौकरी मिलने के बाद ऊपरी कमाई से कोई भी नकल पर किया खर्च निकाल सकता है. वैसे भी यहां ज्ञान की आवश्यकता किसे है? यहां ज्ञानी व विद्वान तो वह होता है जो 2 घंटे तक 2000 साल पुराने निरर्थक संस्कृत श्लोक सुना सके. वह ज्ञान नहीं है जो भारत की जरूरत के अनुसार एक साइकिल ईजाद कर सके. यहां के टाटा, अंबानी, अडानी, बिड़ला की कोई चीज विश्वभर में नहीं बिकती. इन का सारा पैसा नकल पर ही आधारित है.