देश के अधिकतर लोग महसूस करते हैं कि देश का मीडिया अब निष्पक्ष नहीं रह गया है. हर कोई सरकार के प्रचार और चापलूसी में लगा है. इसकी कई वजह भी हैं जिनमें से पहला है फंड, अधिकांश मीडिया हाउस सरकारी विज्ञापनों की खैरात से चल पा रहे हैं और इस एहसान का बदला वे सरकार के झूठे सच्चे गुणगान करके चुका भी रहे हैं. अफसोस तो इस बात का भी है कि चुनाव के वक्त में लोकतंत्र का यह चौथा स्तम्भ अपनी भूमिका और जिम्मेदारियों से मुंह मोड़े हुए हैं, जिससे आम लोग गफलत में हैं.

पिछले पांच सालों से मीडिया का एक बड़ा वर्ग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिस पूर्वाग्रही तरीके से उन्हें सुपरमैन बनाने और दिखाने की कोशिश कर रहा हैं, इसके कारण इसे गोदी मीडिया कहा जाने लगा है. इमरजेंसी के दौरान सरकार की तरफ से सच बोलने और लिखने पर पहरा था लेकिन पिछले पांच सालों से सरकार और नरेंद्र मोदी को महिमा मंडित करने वालों को प्रोत्साहित करने वाले को सरकारी विज्ञापनो की मलाई चांदी की तश्तरी में परोस कर चटाई जा रही है. ऐसा लगता है कि मीडिया सरकारी भोंपू बनकर रह गया है.

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मोदी या गोदी मीडिया समर्थित न्यूज चैनल्स और पत्र पत्रिकाएं लगातार अपने दर्शक और पाठकों को खो रहे हैं जिसके दूरगामी घातक नतीजों से उन्हें कोई सरोकार भी नहीं है, क्योंकि सच और घटनाओं को तोड़ मरोड़ कर वे इस तरह से पेश कर रहे हैं कि हर मामले में सरकार उन्हें हीरो ही नजर आती है. मीडिया के इन पंडों को मालूम है कि दक्षिणा अपनी यजमान सरकार से चाहिए तो उसे दोबारा सत्ता में लाने के लिए झूठ बोलने ही पड़ेंगे, नहीं तो दुकान पर ताला जड़ना पड़ेगा. इमरजेंसी के दौरान तो मीडिया सरकारी दमन के बाद भी घुमा फिराकर सच बयान कर ही देता था लेकिन अब ऐसा बहुत अल्प मात्रा में है. इस पर भी जो सरकार की बखिया उधेड़ रहे हैं उन्हें तरह तरह से तंग किया जा रहा है.

प्रेस आजाद है या उसे सच कहने से रोका नहीं जा रहा है इस तथ्य की पुष्टि तरह तरह से होती भी रही है. हाल ही में पेरिस स्थित आरएफएस यानि रिपोर्टर्स सेंस फ़्रंटियर्स ने अपनी सालाना रिपोर्ट जारी करते बताया हैं कि प्रेस की आजादी के मामले में भारत का स्थान 180 देशों में से 140वां है, जो 2 पायदान नीचे खिसका है. और मौजूदा आम चुनावों के दौरान सत्तारूढ़ भाजपा के समर्थकों द्वारा पत्रकारों पर हमले बढ़े हैं. हिन्दुत्व को नाराज करने वाले विषयों पर बोलने या लिखने वाले पत्रकारों के खिलाफ सोशल मीडिया पर घृणित अभियान चलाये जा रहे हैं.

यानि कट्टरवादियों ने अघोषित सेंसर शिप लागू कर रखी है और इसके लिए उसे सरकार का संरक्षण और आशीर्वाद मिला हुआ है. इन भगवावादियों की कोशिश यह है कि जो हिन्दुत्व के बारे में सच बोले उसे इतना प्रताड़ित और परेशान कर दो कि वे हतोत्साहित होकर मैदान छोड़ दें. ऐसे पत्रकारों और संपादकों को बहिष्कृत करने की साजिश भी ये लोग रचते रहते हैं.

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सरकार भी भेदभाव करने में कोई कोताही या कंजूसी नहीं करती, जो लोग उसके तलवे नहीं चाटते उन्हें सरकारी विज्ञापनों के हक से वंचित कर दिया जाता है, जिससे वे परेशान होकर उसकी गोद में आ बैठें या फिर पत्रकारिता छोडकर कहीं पान का ठेला लगा लें या फिर छोले भटूरे का खोमचा चलाने लगें .

दो दिक्कतें इस मामले में बड़ी अहम हैं जिनमें से पहली यह है कि प्रेस की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व आम लोग नहीं समझते कि उनका, देश का भला और भविष्य इसी से तय होता है और दूसरी बात यह कि इलेक्ट्रानिक्स और प्रिंट मीडिया अब अपने दर्शकों और पाठकों के दम पर नहीं बल्कि सरकारी पैसे से जीवित है. जो कुछ लोग जैसे तैसे अपने बूते पर निष्पक्ष पत्रकारिता कर भी रहे हैं सरकार उनके रास्तों में कांटे बिछाने में कोई कसर नहीं छोड़ती.

यह बेहद निराशाजनक स्थिति है. अगर मीडिया पर बंदिशें लगाई जा रहीं हैं तो यह एक तरह की तानाशाही ही है, जिसके प्रति हर स्तर पर उदासीनता पसरी हुई है. पिछले साल देश में कम से कम 6 पत्रकारों की हत्या हुई, इनमें से अधिकांश सरकार और भगवावादियों की पोलपट्टी खोलने बाले थे. ये और इस तरह के पत्रकार चूंकि सरकार के लिए खतरा होते हैं,और किसी भी कीमत पर बिकते नहीं इसलिए हमेशा के लिए मिटा दिये जाते हैं.

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इन हालातों को देखते किसी भी मुंह से नहीं कहा जा सकता कि देश में बोलने की आजादी और लोकतन्त्र कहीं बचा है. बचा वो है जो सरकार और नरेंद्र मोदी की गलतियों और ज़्यादतियों को भी उनकी महानता, बुद्धिमानी, दूरदर्शित, उदारता और दरियादिली साबित करता है. जो भी पसरते पंडावाद और फिर से थोपी जा रही वर्ण व्यवस्था पर एतराज जताता है, उसका तो भगवान भी मालिक नहीं होता जिसके दम पर सरकार चल रही है और धर्म का धंधा दिन दोगुना और रात चार गुना फल फूल रहा है.

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