सुप्रीम कोर्ट से लेकर सरकार तक कह चुकी है कि भीड़तंत्र का आतंक खत्म होना चाहिये. बुलंदशहर की घटना ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि ‘भीड़तंत्र’ कानून और प्रशासन दोनों पर हावी है. बुलंदशहर में वहां के कोतवाल को जिस तरह से मारा गया वह ‘भीड़तंत्र’ के दुस्साहस का प्रतीक है. बुलंदशहर की घटना बड़ी जरूर है पर भीड़तंत्र के हावी होने की छोटी छोटी घटनायें कम नहीं हैं.
पुलिस और कानून के पंगु होने से भीड़ का साहस बढ़ता है. भीड़तंत्र का राज कानून और प्रशासन दोनोंके मुंह पर तमाचे जैसा है. उत्तर प्रदेश की योगी सरकार यह कह कर नहीं बच सकती कि इसके पहले की सरकारों में ज्यादा बड़ी घटनायें होतीं थीं.
बुलंदशहर के स्याना कोतवाल सुबोध कुमार सिंह की जीप को बीच खेत में घेरकर हमला किया गया. पुलिस चौकी पर आग लगाने और तोड़फोड़ करने के साथ ही साथ पुलिसकर्मियों को एक किलोमीटर तक दौडाया गया. गौ तस्करों पर काररवाई को लेकर हिन्दू संगठनो के कार्यकर्ताओं ने पुलिस पर तब पथराव किया जब पुलिस ने हवाई फायरिंग की.
इसमें सुमित नामक युवक घायल हो गया इसके बाद बलवाईयों ने पुलिस को घेर लिया. जिसमें कोतवाल सुबोध कुमार सिंह की जान गई. सुबोध की मौत पर सवाल इसलिये भी उठ रहे है क्योकि 28 सितंबर 2015 को बिसाहडा कांड के पहले जांच अधिकारी वही थे. इस घटना में भी गौ हत्या की सूचना के बाद इकलाख की हत्या हुई थी.
दूसरी तरफ इस घटना के राजनीतिक मतलब भी निकाले जा रहे है. कांग्रेस के प्रवक्ता सुरेन्द्र सिंह राजपूत ने कहा कि इस घटना के द्वारा गौरक्षा का मसला उठा कर राजस्थान विधानसभा चुनाव को प्रभावित करने का प्रयास भी किया जा रहा है.
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