धर्म में नामकरण एक तरह का संस्कार होता है, जिस में पूजापाठ के बाद नामकरण किया जाता है. धर्म की राजनीति करने वाली भाजपा शहर को पौराणिक कथा से जोड़ कर उस का नाम बदल रही है. इस में महाभारत और रामायण की कथाओं को प्रमुखता के साथ प्रयोग किया जा रहा है. राम और रामायण का राजनीतिकरण हो चुका है.
अब वोट पाने के लिए शहरों के नामों को बदला जा रहा है. दीवाली की पूजा के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने फैजाबाद का नाम बदल कर अयोध्या रख दिया. अयोध्या जिला मुख्यालय फैजाबाद से करीब 11 किलोमीटर दूर सरयू नदी के किनारे बसा है. पहले यह फैजाबाद जिले में आता था. अयोध्या को महत्त्व देने के मकसद से
योगी सरकार ने जिले का नाम बदल कर अयोध्या रख दिया. जिला होने के साथ ही फैजाबाद मंडल यानी कमिश्नरी भी था.
अयोध्या से पहले योगी सरकार ने इलाहाबाद का नाम बदल कर प्रयागराज रख दिया. प्रयाग नाम की जगह इलाहाबाद शहर के समीप ही है. अब प्रयागराज नाम रखने के बाद इलाहाबाद का अस्तित्व खत्म हो गया है. धार्मिक शहरों के नाम बदलने का विरोध विरोधी दल भी नहीं कर पाएंगे और सत्ता बदलने के बाद भी इन शहरों का नाम नहीं बदला जा सकेगा.
धर्म से जुड़ी नामकरण की राजनीति को बढ़ाते हुए उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का नाम बदल कर लखनपुर करने की मांग तेज हो गई है. पौराणिक कथा के अनुसार, लखनऊ को राम के भाई लक्ष्मण ने बसाया था. ऐसे में अब इस का नाम बदल कर लखनपुर करने की मांग तेज हो गई है. ऐसे ही आगरा और मुजफ्फरपुर का नाम बदल कर अग्रवन और लक्ष्मीनगर करने की मांग बढ़ रही है.
आगरा में ताजमहल को ले कर हिंदुत्व की राजनीति जोर पकड़ती जा रही है. ऐसे में वहां का नाम और पहचान बदलने की मांग तेज हो गई है. नामकरण की राजनीति में इस बात का खास खयाल रखा जा रहा है कि मुसलिम नाम बदल कर हिंदू नाम रख दिए जाएं. इस बात का विरोध भाजपा के सहयोगी नेता ही कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश सरकार में सहयोगी सुहेलदेव पार्टी के मुखिया ओम प्रकाश राजभर ने कहा, ‘‘भाजपा को शहरों के नाम बदलने के पहले अपने मुसलिम नेताओं के नाम बदलने चाहिए.’ नामकरण की राजनीति पर उठे सवालों का जवाब देते मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा, ‘मुझे जो नाम सही लगा वह किया. यह जनता की मांग भी थी.’’
नाम नहीं काम बदलिए
उत्तर प्रदेश में नाम बदलने की राजनीति पुरानी है. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की आलोचना करने वाली भारतीय जनता पार्टी भी उसी राह पर चल रही है. योगी सरकार ने मुगलसराय से ले कर फैजाबाद तक के तमाम नाम बदल दिए हैं. इस के बाद भी इस समस्या का कोई छोर दिखाई नहीं पड़ रहा है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ सहित कई जिलों के नाम बदलने की मांग भी चल रही है. संभव है कि योगी सरकार चुनाव सामने देख कुछ और शहरों के नाम भी बदल दे.
असल में शहरों के नाम बदलने के पीछे की मंशा केवल अपने वोटबैंक को खुश रखने की होती है. इस से उस शहर की दशा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. ऐसे बहुत से शहरों के उदाहरण सामने हैं.
राजनीतिक दल इस बहाने यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि अगर उन की सरकार रही तो राजतंत्र की तरह वह कोई भी फैसला ले सकते हैं. जिस तरह से मायावती और अखिलेश मूर्तियां, पार्क और जिलों के नाम बदलने में लगे थे, अब वही योगी सरकार भी कर रही है. योगी सरकार को देखना चाहिए कि पार्क और मूर्तियां बनवाने के बाद भी उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती हाशिए पर चली गईं.
भाजपा की राममंदिर राजनीति भी इस प्रदेश के लोगों ने पसंद नहीं की थी. 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा ढहने के बाद 2017 तक भाजपा बहुमत की सरकार बनाने से दूर रही थी. प्रदेश की जनता ने राममंदिर की राजनीति को नकार दिया था. ऐसे में फिर से राममंदिर की राजनीति भाजपा को राजनीति से कहीं बाहर न कर दे, यह उसे सोचना चाहिए.
फेल है नाम की राजनीति
उत्तर प्रदेश के इतिहास को देखें तो 1990 के बाद से यह चलन तेज हो गया है. 1990 के पहले कांग्रेस के कार्यकाल में भी ऐसे बदलाव कहींकहीं देखने को मिलते हैं. उस समय यह कभीकभी ही होता था.
जब मंडल और मंदिर की राजनीति शुरू हुई, इस चलन ने जोर पकड़ लिया. बसपा नेता मायावती ने कई शहरों के नाम बदले और कुछ नए जिले भी बना दिए. सपा की सरकार ने मायावती के कुछ फैसलों को बदला और पुराने शहरों के नाम बहाल भी हो गए. अपनीअपनी सरकार में ये बदलाव होने लगे. दलित विचारक रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘राजशाही के जमाने में जब एक राजा दूसरे राजा के राज्य में कब्जा करता था तो वहां पर अपनी प्रभुसत्ता को दिखाने के लिए जीत का स्तंभ बनाता था. उसी तरह लोकतंत्र में राजनीतिक दल अपना वोटबैंक बनाने के लिए ऐसे फैसले लेने लगे हैं.’’
बसपा ने अपने वोटरों को खुश करने के लिए अंबेडकर पार्क, रमा बाई पार्क, कांशीराम पार्क अपने राज में बनवाए और प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अपनी मूर्ति के साथ ही कई दलित महापुरुषों की मूर्तियां भी लगवाईं.
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और दिल्ली के करीबी नोएडा में ऐसे पार्क आज भी मौजूद हैं. मायावती के समय में अंबेडकर नगर, संतकबीर नगर, सिद्धार्थ नगर, गौतमबुद्ध नगर जैसे कई नाम इस का उदाहरण हैं. नए जिले बनने के बाद भी यहां के हालात नहीं सुधरे. अखिलेश सरकार ने अपने समय में जनेश्वर पार्क बनाया और कई जिलों के नाम बदले. इस के बाद भी वे अपने को खुश नहीं रख पाए और उन की बहुमत की सरकार अगले चुनाव में धराशायी हो गई थी. भाजपा की ही तरह 2007 में मायावती और 2012 में अखिलेश बहुमत से मुख्यमंत्री बने और अगला ही चुनाव हार गए.
सबक नहीं सीखा
योगी सरकार ने पहले की सरकारों के कामों से कोई सबक नहीं सीखा और सत्ता में आने के बाद विकास की जगह पर नाम बदलने वाले काम करने लगी. सब से पहले योगी सरकार ने मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदल कर दीनदयाल उपाध्याय नगर कर दिया. इस के बाद इलाहाबाद का नाम बदल कर प्रयागराज कर दिया. अब फैजाबाद का नाम बदल कर अयोध्या कर दिया. लखनऊ के इकाना क्रिकेट स्टेडियम का नाम बदल कर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर रख दिया. यह सिलसिला अभी चल रहा है. सत्ता से जुड़े कुछ लोगों द्वारा आगरा, लखनऊ और कई दूसरे शहरों के नाम भी बदलने की मांग उठाई जा रही है.
जिस तरह से बसपा और सपा ने दलित और पिछडे़ वर्ग को खुश करने के लिए नाम बदलने की राजनीति की, उसी तरह योगी सरकार अपने हिंदुत्व के वोटबैंक को खुश करने के लिए काम कर रही है. ऐसे में यह देखना जरूरी है कि जिस तरह से सपाबसपा के कामों से दलितपिछड़ों को कुछ हासिल नहीं हुआ वैसे ही इस तरह की दिखावे की राजनीति से हिंदुओं को भी कुछ हासिल नहीं होगा.
राजनीतिक दल केवल सत्ता में बने रहने की राजनीति करते हैं. उन का मकसद किसी भी तरह से सत्ता में बने रहने और राज करने का होता है. लोकतंत्र में जनता का जागरूक होना जरूरी है. उसे सरकारों पर विकास की राह पर चलने के लिए दबाव डालना चाहिए. सरकार जनता को विकास, नौकरी, सड़क, पानी, शिक्षा, भ्रष्टाचार और सेहत के मुददों से दूर मूर्तियां, पार्क और नाम बदलने जैसे काम करने का दिखावा कर खुश करने का प्रयास करती है. कई बार सरकारों को लगता है कि वे जनता को बरगलाने में सफल हो गई हैं पर हकीकत में ऐसा नहीं होता. अगर मूर्तियां, पार्क और जिलों के नाम बदलने से सरकार बनती और लोग वोट देते तो बसपा नेता मायावती कभी चुनाव न हारतीं.
मायावती 1995 से 2007 तक 4 बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. इस के बाद 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद लगातार उन को हार का सामना करना पड़ा. 2012 के विधानसभा चुनाव में हार का सिलसिला 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में जारी रहा. बसपा के गठन के बाद से सब से खराब हालत में बसपा और मायावती पहुंच गई हैं.
भाजपा के 1991 में बहुमत की सरकार बनाने के बाद जब उस पर अयोध्याकांड का दाग लगा तो 15 साल वह बहुमत से दूर रही. 2014 में उसे बहुमत मिला. अब अगर भाजपा
वापस अपने दिखावे की राजनीति पर जाएगी तो उस के लिए आगे का सफर मुश्किल हो जाएगा. राजनीतिक दलों को अपने विरोधी दलों की हार से सबक लेना चाहिए.
भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बना कर प्रदेश के हिंदुत्व वोटबैंक को खुश रखने की कोशिश की. योगी आदित्यनाथ प्रदेश को विकास की राह पर ले जाने की जगह वोटबैंक को खुश करने की राजनीति कर रहे हैं. इस का यह परिणाम हुआ कि योगी के गढ़ गोरखपुर में भाजपा लोकसभा का उपचुनाव हार गई. यह सीट खुद योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से खाली हुई थी. इसी तरह उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की सीट फूलपुर भी भाजपा उपचुनाव में हारी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कैराना विधानसभा सीट और नूरपुर की लोकसभा सीट भी भाजपा के हाथ से निकल गईं. ऐसे में योगी सरकार की छवि का अंदाजा लगाया जा सकता है.
2019 के लोकसभा चुनाव में योगी सरकार के कामकाज का प्रभाव चुनाव पर पड़ेगा. जिस तरह से योगी सरकार का प्रदर्शन है, उस से भाजपा के लिए 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले आधी सीटें भी हासिल कर पाना मुश्किल नजर आ रहा है.