सत्ता की कुर्सियों पर सदियों से धर्म विराजमान रहा है. राजा पुरोहितों के कहे अनुसार राज संचालित करते रहे पर यूरोप में धर्म से जब लोग उकता गए तो नवजागरण आंदोलन छेड़ा गया और फ्रांस में चर्च की विलासिता और व्याभिचार के चलते क्रांति का बिगुल फूंका गया. इस तरह की क्रांतियों के असर से विश्व भर में लोकतंत्रों का विकास होने लगा.
लेकिन भारत में सत्ता प्रतिष्ठान जिस व्यग्रता से धर्म की स्थापना में जुटा दिखाई दे रहा है वहीं यूनान से प्रकाश की एक चमचमाती लौ दिखाई दे रही है. एथेंस में एक ऐतिहासिक समझौता हुआ है जो पुरोहितों और बिशपों की स्थिति सिविल सेवकों के रूप में समाप्त कर देगा और ग्रीक को चर्च और राज्य से अलग करने के लिए एक कदम आगे लाएगा.
समझौते के तहत यूनान की सरकार ने चर्चों को दिया जाने वाला सरकारी खर्च बंद करने का निर्णय लिया है. इस में पादरियों को मिला सिविल सेवक का दर्जा खत्म होगा. हालांकि ग्रीक में चर्च और राज्य के अलग होने का यह पहला कदम है और रास्ता अभी बहुत लंबा है. इसे चर्च के नेताओं के साथसाथ सरकार और सांसदों द्वारा अनुमोदन किया जाना है.
यूनान के प्रधानमंत्री एलेक्सिस सिप्रास और आटोसेफर्नियस और्थोडौक्स चर्च के प्रमुख आर्कबिशप लेरोनिमोस के बीच इस संबंध में संयुक्त समझौता हुआ है.
समझौते के अनुसार चर्च की संपत्तियों, कब्जे और निवेशों का प्रबंधन करने के लिए यूनान राज्य और चर्च एक संयुक्त निधि तैयार करेंगे. इस में मौजूदा चर्च के 10 हजार पादरियों का वेतन शामिल होगा, जो अभी सिविल सेवक पेरोल का हिस्सा हैं. यानी इन का वेतन सरकारी खजाने से जा रहा है.
प्रधानमंत्री सिप्रास ने कहा है कि 79 साल बाद चर्च की संपत्ति का मुद्दा हल हो गया है. सरकार ने 1939 में चर्च की संपत्तियों के बदले पादरियों को वेतन देना स्वीकार किया था.
उन्होंने यह भी कहा कि एक तरफ डाक्टरों को वेतन नहीं दिया जा रहा था लेकिन 10 हजार पादरियों को सरकार वेतन दे रही है जबकि डाक्टरों की तादाद पादरियों से कम है. इस से हर कोई नाखुश था.
कई पादरी और नेता प्रधानमंत्री सप्रास और आर्कबिशप के बीच हुए समझौते की आलोचना कर रहे हैं. यूनानी क्लेरिक्स संघ ने शिकायत की है कि पादरियों की सिविल सेवकों की स्थिति खत्म होने से उन के मौजूदा अधिकार भी समाप्त हो जाएंगे. उन का कहना है कि पुरोहितों को धोखा दिया गया है. इस समझौते के बारे में उन से कोई सलाहमशविरा तक नहीं किया गया.
दुनिया को लोकतंत्र का पाठ सिखाने वाले यूनान में हालांकि यूनानी रूढिवादी चर्च यहां की सरकार के अनेक हिस्सों में सर्वव्यापी है. यहां रूढिवादी चर्च सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. स्कूलों में छात्र आज भी प्रार्थना के साथ अपने दिन की शुरुआत करते हैं और 12वीं तक की पढाई में अनिवार्य रूप से धर्म की शिक्षा जारी हैं. यूनान की अदालतों में न्यायाधीश की सीट के ऊपर एक धार्मिक आइकन लटका रहता है.
यहां की कुछ सार्वजनिक सेवाओं का स्वरूप ऐसा है जिस में अभी भी नागरिकों के धर्म को जानने की अनिवार्यता है. दशकों से यहां की सरकारें चर्च की उपस्थिति में शपथ लेती आई हैं. हालांकि इस बार मार्च में यूनानी मंत्रियों ने पहली बार चर्च के बिना शपथ ली थी.
चर्च शताब्दियों तक फलतेफूलते रहे हैं. ये रोमन कैथोलिक थे. इन में से ज्यादातर रोम के चर्च से अलग हो गए. सभी ईसाई इस बात से सहमत हैं कि ईसा ने केवल एक ही चर्च की स्थापना की थी पर कई कारणों से ईसाइयों में एकता नहीं रह पाई और उन के बहुत से चर्च और संगठन बन गए. वे एकदूसरे से पूरी तरह स्वतंत्र हैं.
यूरोपीय देशों में राज्य और चर्च के बीच सत्ता को ले कर लंबे समय से जद्दोजेहाद चला है. 1517 में लूथर ने कैथोलिक चर्च की बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाई. उन्होंने कुछ परंपरागत ईसाई धर्म सिद्धांतों का विरोध किया. इस में लूथर को जर्मन शासकों का संरक्षण भी मिला. बाद में कालविन ने लूथर के सिद्धांतों को विकसित करते हुए एक दूसरे प्रोटेस्टैंट संप्रदाय का प्रवर्तन किया जो स्विट्जरलैंड, स्काटलैंड, हालैंड तथा फ्रांस के कुछ भागों में फैला. अंत में हेनरी अष्टम ने भी इंग्लैंड को रोम के अधिकार से अलग कर लिया पर वहां एंग्लिकन चर्च प्रारंभ हो गया.
लूथर ने दो साम्राज्यों के सिद्धांतों ने चर्च और राज्य को अलग करने की आधुनिक धारणा की शुरुआत की.
16वीं शताब्दी में पोप के नेतृत्व में चर्च के शासन को फिर प्राथमिकता मिलने लगी. बाद की शताब्दियों में सारे पश्चिम यूरोप में नास्तिकता तथा अविश्वास व्यापक रूप से फैल गया. फ्रांस की क्रांति के फलस्वरूप चर्च की अधिकांश संपत्ति जब्त हुई और चर्च तथा सरकार का गहरा संबंध टूट गया.
यूनान ने दुनिया को लोकतंत्र, सभ्यता और धर्मों को आदर देने का विचार दिया. आज की जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का प्रारंभ यूनान से होता है. यूनान ने सुकरात, प्लेटो, अरस्तू जैसे दार्शनिक दिए. उन की शिक्षा ने विश्व को रास्ता दिखाया. गणित, भौतिक विज्ञान, जीवविज्ञान का जन्म भी यूनान में ही हुआ.
इतिहासकारों का मानना है कि करीब 4 हजार साल ईसापूर्व यूनान में मानव आबादी बस चुकी थी. यह भी मान्य तथ्य है कि ईसापूर्व 1000-499 में यूनान के नगर राज्यों की स्थापना हो चुकी थी जहां अनेक राजाओं का शासन चलता था. ईसापूर्व 683 में एथेंस में राजतंत्र समाप्त हो गया और अपने ढंग का जनतंत्र अस्तित्व में आया. बाद में यूनान पर रोम का आधिपत्य हो गया. सन् 380 में सम्राट थियोडोसियस के शासन में ईसाई धर्म रोम का राजधर्म बन गया. 467 में जब रोमन साम्राज्य का पतन हुआ तब रोम के पतन का कारण ईसाई धर्मावलंबी होना बताया गया.
अब फिर मुस्लिम देशों को छोड़ दें तो विश्व के बाकी देशों में धर्म का असर शिक्षा की वजह से कम हो रहा है. यूरोप में सैंकड़ों साल पुराने चर्च बंद हो रहे हैं. उन की जगह बड़ेबड़े शौपिंग मौल, डिपार्टमेंटल स्टोर, शिक्षण संस्थान बन रहे हैं. पादरियों के कुकर्मों के चलते कई चर्च तो पीड़ितों के मुआवजे की भेंट चढ़ गए या नीलाम कर दिए गए.
दुनिया में धर्म का रुतबा घट रहा है. नास्तिकों की संख्या बढ़ रही है क्योंकि वहां लोगों को धर्म, ईश्वर की सच्चाई समझ आ रही है लेकिन भारत धर्म, अध्यात्म में अपनी मुक्ति का मार्ग तलाश रहा है. यहां की भाजपा सरकार देश में वैज्ञानिक तकनीक ज्ञान को आगे बढ़ाने की बजाय हिंदुत्व के खोखले काल्पनिक सहारे में भविष्य देख रही है. यह मार्ग आगे बढ़ने की बजाय पीछे मध्यकाल के अंधकार की ओर जा रहा है.
देश में मूर्तियां और मंदिर निर्माण पर पूरी शक्ति खर्च की जा रही है. स्कूलों, कालिजों, विश्वविद्यालयों में वेद, पुराण, गीता, योग, आयुर्वेद अनिवार्य किए जा रहे हैं. इस ज्ञान पर सत्ता प्रतिष्ठान आत्ममुग्ध हो रहा है. सरकार देश को धार्मिक राज्य बनाने पर तुली हुई है. धार्मिक संगठनों से सरकार मिली हुई है. नीतियां बनाने और क्रियान्वयन में धर्म की चलती है. शासन धार्मिक अभिव्यक्ति में डूबा दिखाई दे रहा है.
कई राज्यों के मंत्री भगवाधारी हैं. उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री एक मठ के प्रधान हैं. यानी धर्म के प्रतिनिधि सत्ता में मौजूद हैं जो धार्मिक एजेंडा लागू कर रहे हैं. शहरों, महल्ले के पौराणिक नामकरण का दौर चल रहा है. अयोध्या में मंदिर निर्माण की पूरी तैयारी की जा रही है.
लेकिन इस से नुकसान यह है कि सरकारी संस्थानों, सार्वजनिक कार्यालयों में धार्मिंक संस्थाओं के विचार लागू होने लगेंगे. एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का मौडल धार्मिक संस्थाओं और राज्य को एकदूसरे के हस्तक्षेप से बचाता है पर व्यवहार में ऐसा कहीं नहीं है. इस का उद्देश्य सार्वजनिक संस्थानों को विशेष रूप से सरकारी कार्यालयों को धार्मिक संस्थानों के प्रभाव से बचाने का है क्योंकि धार्मिक विचारों में सार्वजनिक जिम्मेदारी का कोई विचार नहीं है. धार्मिक संस्थाएं अपने स्वयं के धर्म के बारे में भी नहीं सोचतीं. क्या हम हिंदू तालिबान बन रहे हैं? धर्म के सहारे राज करने का सपना देखने वाले अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सीरिया, सूडान के हालात सामने हैं. भारत की जनता को तरक्की, आजादी चाहिए या धर्म की थोपी गुलाम जिंदगी.