महाभारत काल में और आज के समय में समाज, नैतिक मूल्यों, विचारधारा और शिक्षा आदि क्षेत्रों में बहुत बदलाव आया है. कुछ सामाजिक परिस्थितियों के चलते तो कुछ भारतीय समाज के गिरे हुए नैतिक मूल्यों के प्रसार ने शिक्षा जैसे सामाजिक कार्य को भी व्यवसाय बना दिया है. यहां हमारा उद्देश्य शिक्षकों की बदलती स्थिति की चर्चा करना नहीं बल्कि एक ऐसे गुरु की छवि की चर्चा करना है जिसे बरबस ही प्रसिद्धि मिल गई, जिस का प्रमाण है कि आज भी कई लोगों के मुख से यह कहते सुना जा सकता है, ‘आज द्रोणाचार्य जैसे आदर्श गुरु नहीं रहे और अर्जुन जैसे शिष्यों की संख्या भी नाममात्र रह गई है.’ जिन लोगों ने महाभारत नामक ऐतिहासिक ग्रंथ का गंभीरता से अध्ययन किया है उन की नजर में परशुराम के शिष्य और पांडवों व कौरवों के गुरु आचार्य द्रोण की छवि कदापि आदर्श गुरु की नहीं हो सकती. महाभारत को धार्मिक ग्रंथों के बजाय ऐतिहासिक ग्रंथों की श्रेणी में इसलिए रखा गया है, क्योंकि महाभारत में धर्म का पालन अगर कौरवों ने नहीं किया तो पांडव पुत्र भी धर्म के मार्ग से कई बार विचलित हुए हैं. अत: इसे धार्मिक न कहा जाए तो शायद ज्यादा बेहतर होगा.
अब बात आती है गुरु द्रोण की आदर्शता को ले कर प्रमाण की. चलिए, द्रोण के जन्मकाल की विचित्र कथा से शुरू करते हैं. द्रोण, जो जाति प्रथा के कट्टर समर्थक थे, उन के खुद के जन्म की कथा बेहद विचित्र है. मुनि भरद्वाज बहुत कठोर व्रतों का पालन करने वाले थे. एक दिन उन्हें एक खास तरह के यज्ञ का अनुष्ठान करना था. इसलिए वह मुनियों आदि को साथ ले कर गंगा में स्नान करने गए. वहां महर्षि भरद्वाज ने घृताची अप्सरा को देखा जो पहले से ही स्नान कर के नदी के तट पर खड़ी वस्त्र बदल रही थी. वस्त्र बदलते समय उस रूपवती का वस्त्र खिसक गया और उसे उस अवस्था में देख कर भरद्वाज महर्षि का मन डोल गया. ऋषि का मन उस अप्सरा में आसक्त हुआ, इस से उन का वीर्य स्खलित हो गया. ऋषि ने उस वीर्य को द्रोण यानी यज्ञकलश में रख दिया. तब उस कलश से बालक उत्पन्न हुआ. बालक का जन्म द्रोण से हुआ था इसलिए उस का नाम द्रोण ही रख दिया. इस प्रकार द्रोण को ऋषि भरद्वाज की संतान माना जाता है. कितनी विचित्र है यह कथा.
स्पष्ट है द्रोण किसी विवाहेत्तर संबंध से उत्पन्न हुए. द्रोण ने प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता भरद्वाज से प्राप्त की किंतु मूल रूप से वह परशुराम के शिष्य कहलाए. परशुराम जिस समय वन में जाने की इच्छा से अपना सर्वस्व दान कर रहे थे तो द्रोण उन के सामने पहुंचे और बोले, ‘‘मैं भरद्वाज पुत्र द्रोण धन की इच्छा से आया हूं और ऐेसे धन की याचना करता हूं जिस का कभी अंत न हो.’’ किंतु उस समय परशुराम अपना सबकुछ दान कर चुके थे. उन्होंने द्रोण को अस्त्रशस्त्रों का ज्ञान अथवा अपना शरीर दान में लेने के लिए कहा. द्रोण ने उन से अस्त्रशस्त्र का ज्ञान दानस्वरूप ग्रहण किया.’’ इस में कोई शक नहीं कि द्रोणाचार्य एक सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण योद्धा थे किंतु ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध व प्रतिशोध की भावनाओं से भरपूर द्रोण ने भेदभाव और पक्षपात की नीति को अपना कर खुद अपनी छवि पर कई दाग लगा दिए.
बात गुरु द्रोण के विद्याकुल से शुरू की जाए तो इस तथ्य को साबित करने में आसानी हो जाएगी कि द्रोण में प्रतिशोध व क्रोध की भावना शुरू से ही कूटकूट कर भरी हुई थी, जिसे वह जीवन के आखिरी समय तक त्याग नहीं सके. द्रोण व द्रुपद एक ही गुरु महर्षि अग्निवेश के शिक्षार्थी थे. दोनों की गहरी दोस्ती एक मिसाल थी. इसी गहरी दोस्ती के चलते द्रुपद के राजसिंहासन पर बैठने के बाद द्रोण ने अपने दोस्त को उस के वचन की याद दिलाई किंतु द्रुपद ने द्रोण को अपमानित कर दिया. शायद द्रोण, द्रुपद के राज्य न देने को ही अपमान समझ बैठे. उस समय उन के मन में बेहद क्रोध तथा प्रतिशोध की भावना को महाभारत ग्रंथ के संभवपर्व के 12वें श्लोक में इस प्रकार प्रकट किया है : द्रुपदेनैवमुक्तस्तु भारद्वाज: प्रतापवान.।
मुहूर्ते चिंतयित्वा तु मन्युनाभिपरिप्लुत:। स विनिश्चित्य मनसा पांचाल बुद्धिमान।
जगाम कुरु मुख्यानां नगरं नाग साहृयम्॥ (अर्थात राजा द्रुपद के मना करने पर प्रतापी द्रोण क्रोध से जल उठे और दो घड़ी तक गहरी चिंता में डूबे रहे. वे बुद्धिमान तो थे ही, पांचाल नरेश से बदला लेने के बारे में मन ही मन कुछ निश्चय कर के कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर चले गए.)
भीष्म के द्वारा द्रोण को कौरवों तथा पांडवों का गुरु नियुक्त करने पर द्रोण को दु्रपद से प्रतिशोध लेने का मार्ग नजर आने लगा. अपने इस मनोभाव को उन्होंने भीष्म के समक्ष प्रकट भी किया. महाभारत के संभवपर्व के 76वें श्लोक में वह कहते हैं: अभ्यागच्छं कुरुन् भीष्म शिष्यैरर्थी गुणान्वतै:।
ततोऽहं भवत: कामं संवर्धयितुमागत:। इदं नागपुरं रम्यं ब्रूहि किं करवाणि ते।
(अर्थात मैं गुणवान शिष्यों के द्वारा अपने अभीष्ट की सिद्धि चाहता हुआ आप के मनोरथ को पूर्ण करने के लिए ही पांचाल देश से हस्तिनापुर नगर में आया हूं. बताइए, मैं आप का कौन सा प्रिय कार्य करूं.) गुरु द्रोण द्वारा शिक्षा शुरू करने की नींव ही उन का खुद का स्वार्थ था. यह बात किसी से नहीं छिपी कि अर्जुन द्रोण का प्रिय शिष्य था. उसे उन्होंने पूर्ण रूप से शिक्षा दी. किंतु वास्तव में उचित न्याय तो उन्होंने अर्जुन के साथ भी नहीं किया था. यह अलग बात है कि अर्जुन ने अपनी निष्ठा व लगन के आगे द्रोण को वह सबकुछ सिखाने के लिए विवश कर दिया जो सब उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को गुपचुप सिखाने का प्रयास किया था. महाभारत संभवपर्व के 16वें तथा 17वें श्लोक में वर्णित है :
कमण्डलुं च सर्वेषां प्रायच्छच्चिरकारणात। पुत्राय च ददौ कुंभमविलंब चकारणात॥
यावत् ते नोपगच्छन्ति तावदस्मै परां क्रियाम्। द्रोण आचष्ट पुत्राय तत कर्म जिष्णुरौहत॥
(अर्थात द्रोणाचार्य अन्य सब शिष्यों को तो पानी लाने के लिए कमंडल देते जिस से उन्हें लौटने में कुछ विलंब हो जाए, परंतु अपने पुत्र अश्वत्थामा को बडे़ मुंह का घड़ा देते जिस से वह पानी भरने के कार्य से शीघ्र निवृत्त हो जाए. जब तक दूसरे शिष्य लौट नहीं आते, तब तक द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्वत्थामा को अस्त्र संचालन की कोई उत्तम विधि बतलाते थे.) चूंकि अर्जुन ने उन के इस कार्य को जान लिया था अत: वह शीघ्रता से कमंडल भर कर आचार्यपुत्र अश्वत्थामा के साथ ही गुरु के समीप आ जाता जिस से गुरु द्रोण उन्हें गुप्त अस्त्र विद्या सिखाने के लिए विवश हो गए. वास्तव में पुत्र मोह में जितना अंधा धृतराष्ट्र को माना जाता है उतना ही पुत्र मोह द्रोण में भी था. वह अपने पुत्र अश्वत्थामा को संसार का सब से बड़ा धनुर्धर बनाना चाहते थे. किंतु हालात के चलते अर्जुन ने वह स्थान प्राप्त कर लिया.
अर्जुन के बढ़ते हुए धनुष कला कौशल को देख कर द्रोण ने ईर्ष्या भाव से रसोइए से यहां तक कह दिया कि तुम अर्जुन को कभी अंधेरे में भोजन न परोसना और मेरी बात भी अर्जुन से कभी न कहना. ध्यान देने योग्य बात है कि अर्जुन को अंधेरे में धनुष अभ्यास की प्रेरणा अंधेरे में भोजन कर रहे भीम से प्राप्त हुई थी. द्रोण की भेदभाव व पक्षपातपूर्ण नीति से महाभारत के पाठक तब अवगत हो जाते हैं, जब एकलव्य की कथा उभर कर आती है. द्रोणाचार्य का अस्त्र कौशल सुन कर हजारों राजा और राजकुमार धनुर्वेद की शिक्षा लेने के लिए वहां जमा
हो गए. तदनंतर निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य द्रोण के पास आया, पर उसे निषाद पुत्र जान कर धर्मज्ञ आचार्य ने धनुर्विद्या विषयक शिष्य नहीं बनाया. एकलव्य ने द्रोणाचार्य के चरणों में प्रणाम किया और वन में लौट कर उन की मिट्टी की मूर्ति बनाई तथा उसी में आचार्य की परम उच्च भावना रख कर उस ने धनुर्विद्या का अभ्यास शुरू किया. एकलव्य ने अपने निरंतर अभ्यास से धनुर्वेद का ज्ञान अर्जित किया तथा स्वयं को द्रोणाचार्य का शिष्य माना. किंतु द्रोण ने क्या किया? अपने एक ऐसे शिष्य से जिसे शिक्षा देने में उन्होंने जरा भी परिश्रम नहीं किया, गुरु दक्षिणास्वरूप उस के दाहिने हाथ का अंगूठा केवल इस कारण से गुरुदक्षिणा में मांग लिया कि वह उन के प्रिय शिष्य अर्जुन से अधिक निपुण था और अर्जुन को उन्होंने वचन दिया था कि द्रोण का कोई भी शिष्य उस से बढ़ कर नहीं हो सकता. ईर्ष्या तथा द्वेष की भावना से भरा द्रोण का हृदय क्षण भर के लिए नहीं कांपा जब उन्होंने एकलव्य से कहा कि
तमवतीत् त्वयाडंगुष्ठो दक्षिणो दीयतामिति। (अर्थात तुम मुझे गुरुदक्षिणा में दाहिने हाथ का अंगूठा दे दो.)
इतने वर्ष बीत जाने पर भी द्रोण के मन से द्रुपद के प्रति प्रतिशोध की भावना खत्म नहीं हुई. गुरुदक्षिणा के रूप में उन्होंने कौरवों एवं पांडवों से द्रुपद को युद्ध में कैद करने के लिए कहा. पांडवों द्वारा यज्ञसेन द्रुपद को मंत्रियों सहित संग्राम भूमि में बंदी बना कर द्रोणाचार्य को उपहारस्वरूप दे दिया गया. द्रोण ने उस समय द्रुपद का अपमान करने का कोई अवसर नहीं छोड़ा. वह द्रुपद से व्यंग्यपूर्ण बोले : विमृद्य तरसा राष्ट्रं पुरं ते मृदितं मया।
प्राप्य जीवं रिपुवशं सखिपूर्व किमिष्यते॥ (अर्थात मैं ने बलपूर्वक तुम्हारे राष्ट्र को रौंद डाला, तुम्हारी राजधानी मिट्टी में मिला दी. अब तुम शत्रु के वश में पडे़ हुए जीवन को ले कर यहां आए हो. बोलो, अब पुरानी मित्रता चाहते हो क्या?)
ऐसा कह कर द्रोणाचार्य कुछ हंसे. इस के बाद बोले, ‘‘वीर, प्राणों पर संकट आया जान भयभीत न होओ. तुम बचपन में मेरे साथ आश्रम में खेलेकूदे हो उस से तुम्हारे ऊपर मेरा स्नेह व प्रेम बहुत बढ़ गया है. तुम इस राज्य का आधा भाग मुझ से ले लो.’’ इस प्रकार द्रोण ने द्रुपद से प्रति- शोध लिया किंतु प्रतिशोध की भावना यहीं पर समाप्त नहीं हुई. महाभारत युद्ध में सेनापति बनने पर द्रोण ने द्रुपद की हत्या कर के अपने प्रतिशोध को अंतिम रूप दिया.
ऐसा नहीं है कि महाभारत के रचनाकार ने द्रोण के सभी क्रियाकलापों को नजरअंदाज किया है. महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय 190 के 32 से ले कर 40 तक के 9 श्लोकों में द्रोण की आलोचना भी की गई है किंतु यह आलोचना इतनी माने नहीं रखती. महाभारत के इतने श्लोकों में से केवल 9-10 श्लोकों में एक ऐसे व्यक्ति की थोड़ी सी आलोचना की गई जिस ने अपने शिष्यों के होते हुए बुरे कर्म को भी अपनी आंखों के सामने होते देखा किंतु मौन रहे. धृतराष्ट्र की राजसभा में उस समय कौरवों तथा पांडवों के गुरु द्रोण भी उपस्थित थे जब द्रोपदी को चोटी से पकड़ घसीट कर भरी सभा में लाया गया. द्रोपदी उस समय रजस्वला थी और एक ही वस्त्र में थी. ऐसी स्थिति में दुर्योधन का उसे अपनी जंघा पर बैठने के लिए कहना, दुशासन द्वारा उस के चीरहरण का प्रयास करना कोई छोटी बात नहीं थी किंतु ऐसे गंभीर अवसर पर भी गुरु द्रोण चुप रहे. उन्होंने अपने शिष्यों से एक शब्द भी नहीं कहा. वह चाहते तो अपने शिष्यों को ऐसा दुष्कर्म न करने का आदेश दे सकते थे किंतु नहीं. आखिर कैसे गुरु थे वह?
पांडवों को जब वनवास हुआ तो द्रोण जानते थे कि सबकुछ गलत हो रहा है किंतु उन्होंने अपना मौन नहीं तोड़ा. अगर वह चाहते तो कौरवों का साथ छोड़ कर पांडवों के साथ हस्तिनापुर का त्याग कर सकते थे. पितामह भीष्म की तरह वह हस्तिनापुर के साथ किसी बंधन से नहीं जकड़े थे. किंतु शायद राजसी सुख को त्यागना उन्हें गवारा नहीं था. पांडव जब अज्ञातवास का 1 वर्ष पूरा कर रहे थे तो द्रोण कहते हैं सांम्प्रतं चैव यतं कार्य तचक्षिप्रमकालिकम।
क्रियतां साधु संचिनत्य वासश्चैषां प्रचिन्त्यताम॥ यथावत पांडुपुत्राणां सर्वार्थेषु धृतात्मनाम।
(विराटपर्व, श्लोक 7-8) (अर्थात इस समय जो कुछ करना है सोचविचार कर शीघ्र किया जाना चाहिए. इस में विलंब उचित नहीं है. सभी विषयों में धैर्य करने वाले उन पांडवों के निवास स्थान का ही ठीकठाक पता लगाना चाहिए. वे सभी शूर और तपस्या से आवृत्त हैं, अत: उन्हें पाना कठिन है. पा लेने पर भी पहचानना तो और भी कठिन है.)
द्रोण एक ओर तो अपने शिष्य अर्जुन की प्रशंसा करते नहीं थकते थे किंतु दूसरी ओर गोहरणपर्व के 18वें और 19वें श्लोक में दोगलेपन की नीति अपनाते हुए वह कहते हैं: यदेतत प्रथमं वाक्यं भीष्म: शान्तनवोब्रवीत।
तेनैवाहं प्रसन्नो वै नीतिरत्र विधीयताम्॥ यथा दुर्योधनं पार्थों नोपसर्पति संगरे।
साहसाद यदि वा मोहात यथा नीतिर्विधीयताम॥ यानी अब ऐसी नीति से काम लेना चाहिए जिस से अर्जुन इस युद्ध में दुर्योधन के पास तक न पहुंच सके. साहस से अथवा प्रमादवश भी दुर्योधन पर उस का आक्रमण न हो, ऐसी नीति निर्धारित करनी चाहिए.
द्रोण के ही नेतृत्व में अभिमन्यु की जिस निर्ममता से हत्या की गई उसे कैसे भूला जा सकता है. द्रोण के चरित्र पर इतने आक्षेप होने के बावजूद उन्हें शोहरत मिली हुई है. समझ में नहीं आता इस का क्या कारण हो सकता है? शायद परशुराम सरीखे गुरु के शिष्य होने के गौरव से वह खुद गौरवान्वित हो गए या महाभारत युद्ध के कारण, जो उन के शिष्यों की आपसी फूट का परिणाम था या केवल इसी कारण कि उन्होंने राजघराने के बच्चों को ही अपना शिष्य बनाया. कारण चाहे कुछ भी रहा हो, गौरव तो उन्हें मिला ही है.