देशदुनिया में इतनी प्रगति के बावजूद मासिकधर्म को ले कर तरहतरह के पूर्वाग्रह, अंधविश्वास और दुराव की भावना से समाज ग्रस्त है. हालांकि एक हद तक युवतियों की सोच बदली है, लेकिन आज भी पीरियड्स के दौरान युवतियों को अछूत माना जाता है. यह स्थिति हमारे देश की ही नहीं है बल्कि पूरी दुनिया की है.
पश्चिम बंगाल के स्कूलों में सैनिटरी नैपकिन के वितरण और इस्तेमाल को ले कर लंबे समय से बहस चल रही है, लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका है. दरअसल, स्कूल ड्रौप आउट पर लगाम लगाने के लिए राज्य शिक्षा विभाग से स्कूलों में सैनिटरी नैपकिन निशुल्क उपलब्ध कराने की सिफारिश की गई थी, लेकिन विभाग इस में आनाकानी कर रहा है. दिल्ली समेत राजस्थान, बिहार, हरियाणा और उत्तर प्रदेश सहित कई राज्य छात्राओं को यह सुविधा मुहैया करा रहे हैं. लेकिन प्रगतिशील बंगाल में युवतियां यह सुविधा पाने से वंचित हैं जाहिर है मासिक धर्म को ले कर समाज में छूआछूत की भावना ही इस के लिए जिम्मेदार है.
गौरतलब है कि देश में मेघालय, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और असम के बाद पश्चिम बंगाल 5वां ऐसा राज्य है जहां स्कूल ड्रौप आउट बच्चों की संख्या काफी ज्यादा है. एनुअल स्टेटस औफ ऐजुकेशन रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल में 6 से 14 साल की उम्र वाले ड्रौप आउट बच्चों का प्रतिशत साढ़े 4 है जबकि देश में यह प्रतिशत साढ़े 3 है.
बहरहाल, राज्य में ड्रौप आउट का आंकड़ा चिंताजनक है. लड़कियों को स्कूल तक लाने के लिए राज्य सरकार ने कन्याश्री योजना की भी शुरुआत की. बंगाल में धन की कमी के कारण बीच में ही पढ़ाई छुड़ा कर कम उम्र में शादी किए जाने का चलन रहा है. जाहिर है इस योजना का मकसद बाल विवाह पर रोक लगाना है, इसीलिए इस योजना का लाभ 8वीं से ले कर 12वीं कक्षा तक की छात्राओं को ही मिल पाता है. 14 साल तक की उम्र की छात्राओं की स्कूल ड्रौप आउट समस्या का समाधान शिक्षा आयोग ने सैनिटरी नैपकिन में ढूंढ़ा.
कुछ समय पहले आयोग ने स्कूल ड्रौप आउट समस्या के समाधान के मद्देनजर स्कूलों में मुफ्त सैनिटरी नैपकिन के वितरण की सिफारिश की थी. लेकिन राज्य के शिक्षा मंत्री इसे लागू करने में आनाकानी कर रहे हैं. शिक्षा आयोग के चेयरमैन समीर ब्रह्मचारी लंबे समय से केंद्र में काउंसिल औफ साइंटिफिक ऐंड इंडस्ट्रियल रिसर्च से जुड़े रहे हैं. वे कहते हैं कि राज्य में लड़कियों के स्कूल ड्रौप आउट की समस्या के अलावा गर्भाशय कैंसर भी एक बड़ी समस्या के रूप में उभर रहा है. इसीलिए सैनिटरी नैपकिन वितरण के जरिए छात्राओं में पढ़ाई के अलावा स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता लाने की कोशिश भी की गई है. वे बताते हैं कि दिल्ली और हरियाणा समेत कई राज्यों में लड़कियों को यह सुविधा मुहैया कराई जाती है. एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि पीरियड्स के दिनों में लड़कियां स्कूल नहीं जाती हैं.
राज्य के गांवदेहातों में तो मासिकधर्म शुरू होने के बाद लड़कियों का स्कूल छुड़ा दिया जाता है, लेकिन स्कूल अगर सैनिटरी नैपकिन मुहैया करा दे तो उन की समस्या का कुछ समाधान हो जाएगा. दूसरा सैनिटरी नैपकिन से सेहत के प्रति जागरूकता बढ़ेगी, साथ ही संक्रमण का खतरा भी नहीं रहेगा. शिक्षा आयोग के अध्यक्ष के अनुसार सरकार को इस में प्रति छात्रा 18-20 रुपए का खर्च आएगा. सरकार बंगाल में सरकारी योजना के तहत चलाए जा रहे आत्मनिर्भर समूह द्वारा कम कीमत पर सैनिटरी नैपकिन तैयार करती है. ऐसी ही एक संस्था है, ‘एकता,’ जो एक पंथ दो काज में जुटी हुई है. यह संस्था सरकार से 3 लाख 79 हजार रुपए का कर्ज ले कर सैनिटरी नैपकिन बना कर उन्हें कम कीमत पर बेच रही है. वहीं स्थानीय स्तर पर महिलाओं के रोजगार का भी जुगाड़ हो रहा है.
गौरतलब है कि पुराने जमाने से गांवदेहातों में मासिकधर्म के उन 5-6 दिन के दौरान होने वाले रक्तस्राव के प्रबंधन के लिए कई घरेलू उपाय किए जाते हैं. कभी पुराने कपड़े तो कभी फटीपुरानी बोरी के टुकड़े, कभी सूखी घास तो कभी लकड़ी का बुरादा, यहां तक कि कोयले की राख का पैड बना कर भी इस्तेमाल किया जाता है. जाहिर है ऐसी चीजों के पैड का इस्तेमाल कर चलनाफिरना तकलीफदेह होता है. इसीलिए महीने के इन कुछ दिनों में लड़कियां स्कूल नहीं जातीं. लेकिन राज्य का शिक्षा विभाग स्कूलों में शौचालय निर्माण की सिफारिश को खुले मन से स्वीकार नहीं कर पा रहा है. इस संबंध में राज्य के पूर्व शिक्षा मंत्री से पूछने पर उन्होंने माना था कि शिक्षा आयोग की तरफ से ऐसी सिफारिश आई थी, लेकिन इस पर अभी फैसला नहीं लिया जा सका, क्योंकि गांवदेहात में मासिकधर्म को ले कर कई तरह की रोकटोक है. ऐसे में इसे लागू करने में बड़ी दिक्कत होगी, इसीलिए इस के तमाम पक्षों को ले कर सोचविचार किया जा रहा है.
यह बड़ी अजीब बात है कि स्कूलों में सैनिटरी नैपकिन के वितरण को ले कर मंथन चल रहा है, वहीं राज्य के कालेजविश्वविद्यालयों में भी कुछ ही महीने पहले वैंडिंग मशीन लगाने का प्रस्ताव रखा गया था. इस बीच कुछ कालेजविश्वविद्यालयों में तो सैनिटरी नैपकिन की वैंडिंग मशीनें लगाई जा चुकी हैं. हालांकि इस के लिए भी बड़ी लड़ाई लड़ी गई. यादवपुर में छेड़खानी का विरोध सैनिटरी नैपकिन आंदोलन के जरिए किया गया. विरोध व आंदोलन से जुड़े नारे सैनिटरी नैपकिन पर लिखे गए. इस पर भी सवाल उठाए गए.
हाल ही में टोरेंटो से रूपी कौर ने इंस्टाग्राम पर मासिक स्राव से संबंधित एक तसवीर पोस्ट की जिस में बिस्तर पर सोई एक लड़की की जींस पर पीछे की तरफ से मासिक स्राव के धब्बे दिख रहे थे. इंस्टाग्राम ने इन तसवीरों को सैंसर कर दिया था, पूरे कपड़ों में सोई लड़की की तसवीर को आखिर क्यों सैंसर किया गया? इस के बाद एक जरमन लड़की ने प्रोजैक्ट शुरू किया, जिस से जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के छात्र काफी प्रभावित हुए. दरअसल, 19 साल की एक जरमन लड़की ईलोना कास्ट्राटी ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर बलात्कार और महिलाओं के खिलाफ लैंगिक भेदभाव के विरोध के लिए सैनिटरी नैपकिन को चुना था. ईलोना ने सैनिटरी नैपकिन पर बलात्कार और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ नारे लिख कर अपने पूरे शहर भर में चिपकाए थे. इस की तसवीर उस ने इंस्टाग्राम पर भी पोस्ट की. ईलोना के इस अभियान का समर्थन करते हुए जामिया मिलिया इस्लामिया के एक छात्र मजाजुल हक ने इंस्टाग्राम और ईमेल द्वारा उस से संपर्क कर के अभियान को पूरा समर्थन दिया.
उस का कहना था कि मासिकधर्म के दौरान युवतियों को काफी घृणित नजर से देखा जाता है. अकेले मजाजुल हक ही नहीं, बल्कि समीरा मुद्गल, कायनात खान और मोहित जोसेफ ने भी इस का समर्थन किया. अब यह आंदोलन जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय तक फैल गया. ‘मैंस्ट्रुएशन इज नैचुरल, रेप इज नौट’, ‘कन्या कुमारी, गंदी सोच तुम्हारी’ जैसे नारे सैनिटरी नैपकिन पर लिख कर विश्वविद्यालय परिसर से बाहर मैट्रो रेल, बस स्टैंड पर लगवाए गए. सैनिटरी नैपकिन बलात्कार और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ लड़ने का हथियार बन गया.
हालांकि विश्वविद्यालय परिसर में सैनिटरी नैपकिन के जरिए विरोधप्रदर्शन का विरोध भी हुआ. लेकिन असल मुद्दा है पीरियड को ले कर सामाजिक टैबू का. महिलाओं को चूंकि सैक्स की वस्तु के रूप में देखा जाता है, इसलिए समाज में पीरियड्स को ले कर टैबू भी इसी तरह का है.
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