जमीन, आसमान, हवा, पानी व आग के मेल से दुनिया बनी है, लेकिन इन महापंचों की नजर टेढ़ी होने पर बनाबनाया खेल बिगड़ जाता है. किसानों को अकसर यह मार सहनी पड़ती है, क्योंकि ज्यादातर खेती कुदरत के भरोसे है. जमीन ऊसर, बंजर, बीहड़ या दलदली हो, आसमान से बिजली, ओले गिरें, आंधी, तूफान, चक्रवात आएं, बादल फटें, पानी न बरसे या पकी फसल जल जाए, किसानों को जानमाल का नुकसान ज्यादा होता है, क्योंकि खेती में जोखिम बहुत हैं. खतरे उठा कर फसलों को महफूज रखना आसान नहीं है. भले ही खेती को देश की रीढ़ व किसान को अन्नदाता कहें, लेकिन सहूलियतों की बरसात कारखानेदारों पर ज्यादा, किसानों पर कम होती है. लिहाजा दूसरों की थाली भरने वाले किसानों की थाली खाली रहती है. ऊपर से सूखे की मार पड़ जाने के कारण किसानों की मुश्किलें बेहिसाब बढ़ जाती हैं.

दरअसल ज्यादातर किसान आज भी मानसून की मेहरबानी पर खेती करते हैं. बारिश कम होने से असिंचित इलाकों में बसे किसानों की परेशानी ज्यादा बढ़ जाती है. मौसम की बेरुखी व राहत में कमी किसानों को खुदकुशी के कगार पर पहुंचा देती है. ज्यादातर किसान सूखा प्रबंधन की तकनीकों से नावाकिफ हैं. बीते 67 सालों में पानी की तरह पैसा बहाने के बावजूद खेती की यह कैसी तरक्की है? पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में बादल तो घिरे, लेकिन इस बार सावन का महीना सूखा चला गया. पिछले साल के मुकाबले इस बार 44 फीसदी कम बारिश हुई है.  मेरठ ही क्या देश के कई राज्यों में बहुत से जिले सूखे की चपेट में हैं. महाराष्ट्र में मराठवाड़ा इलाके में किसान पानी की भयंकर कमी से जूझ रहे हैं. लिहाजा खेती, पानी बचाने, उस के किफायती इस्तेमाल जैसे मुद्दों पर खास व कारगर पहल बेहद जरूरी है, क्योंकि बहुत से किसान जलप्रबंधन की तकनीकों से एकदम नावाकिफ हैं.

कमजोर मानसून

सालाना बारिश में करीब 70 फीसदी जून से सितंबर तक होती है. मौसम महकमे के मुताबिक पिछले दिनों देश के 6 फीसदी हिस्से में सैलाब आया, 44 फीसदी हिस्से में कम पानी बरसा व बाकी में औसत बारिश हुई. जून से सितंबर मध्य तक बारिश का औसत 13-14 फीसदी कम रहा. उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश में 20 फीसदी, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान व महाराष्ट्र वगैरह में 41 फीसदी व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार 44 फीसदी तक कम बारिश रही. देश के 91 बड़े जलाशयों में पानी तकरीबन 16 फीसदी तक घट गया है. जमीन के नीचे का पानी भी लगातार नीचे उतर रहा है. लिहाजा हालत खराब हो रही है. हालांकि पहले ओडिशा का कालाहांडी जिला फसल खराब होने के लिए जाना जाता था, लेकिन सूखे की वजह से देश के कई दूसरे व खुशहाल इलाकों में भी खुश्की के आसार बन रहे हैं.

देश की कुल माली तरक्की में खेती का हिस्सा काफी अहम है, लिहाजा कमजोर मानसून से बारिश व पैदावार में आने वाली कमी का सीधा असर विकास दर पर पड़ता है. लगातार दूसरे साल भी सूखा पड़ने की वजह से पैदावार इस बार भी घटेगी. खासकर खरीफ की फसलों व दूसरी कृषि जिंसों में तेजी आएगी. केंद्र सरकार के कृषि मंत्रालय के मुताबिक 2014-15 के दौरान देश के 96 जिलों में सूखा पड़ा था. इन में हरियाणा के 21, उत्तर प्रदेश के 44, कर्नाटक के 9 व महाराष्ट्र के 22  जिले शामिल थे. इस साल मौसम के महकमे ने पहले ही मानसून की नजाकत व बारिश में 12 फीसदी कमी से आगाह करा दिया था, लिहाजा किसानों व सरकार के पास सूखे से निबटने का मौका था. सरकार ने 3.7 करोड़ की जगह 5.5 करोड़ टन गेहूं व चावल का भंडार कर लिया.

बचाव की तकनीक

पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा व पंजाब वगैरह में नदीनहरों, ट्यूबवैलों और पंपसेटों वगैरह की भरमार है. ऐसे इलाकोें में यदि बारिश कम भी हो तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता, लेकिन महंगे डीजल व बिजली की किल्लत से किसानों को दिक्कत होती है और प्रति हेक्टेयर फसलों की उत्पादन लागत बढ़ती है. छोटे व सीमांत किसान बारिश के भरोसे खेती करते हैं. उन्हें कम पानी से खेती करने की तकनीक मुहैया कराई जाए. मसलन धान व गन्ने को ज्यादा पानी चाहिए. पानी कम हो तो आयरन की कमी से धान के पत्ते पीले हो जाते हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के मुताबिक ऐसे में 1 फीसदी फेरस सल्फेट व 0.25 फीसदी चूने का घोल धान की फसल में डालें. खेत में पानी जमा रहे व 10 दिनों बाद इसे फिर दोहराएं तो फसल बच जाएगी.

उत्तर प्रदेश गन्ना शोध परिषद, शाहजहांपुर ने कोशा 767,07250 व कोसे 01434 वगैरह गन्ने की ऐसी कई किस्में निकाली हैं, जो कम पानी में भी अच्छी पैदावार देती हैं. इस के अलावा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों ने भी सूखे से निबटने के कई तरीके निकाले हैं, जैसे कि छोटे जल भंडारों के लिए किफायती रन आफ सैंपलर, सस्ता जल संचयन व सिंचाई की सूक्ष्म प्रणाली, खेती रन आफ के इस्तेमाल से सीधे जलभराव के लिए फिल्टर और पालीमर के इस्तेमाल से पानी की नमी को ज्यादा देर तक बनाए रखना. सरकारी मुलाजिमों की कामचोरी से ऐसी तमाम जरूरी बातों की जानकारी ज्यादातर किसानों तक नहीं पहुंचती. केंद्र सरकार के कृषि मंत्रालय ने हैदराबाद में केंद्रीय बारानी खेती अनुसंधान संस्थान, सीआरआईडीए और सूखी बागबानी पर रिसर्च व ट्रेनिंग के लिए बीकानेर में केंद्रीय शुष्क बागबानी संस्थान खोल रखा है. इन संस्थानों के वैज्ञानिकों ने फसलों, जानवरों, सिंचाई के तरीकों, मिट्टी की खासीयतों व ढांचागत सहूलियतों को मौसमी बदलाव के पहलुओं पर बांट कर कम पानी से खेती व बागबानी के कारगर उपाय निकाले हैं.

सीआरआईडीए किसानों को सूखे व बाढ़ में होने वाले फसली नुकसान को कम करने की सलाह देगा. इस के लिए इस संस्थान ने देश के 574 जिलों के लिए औचक स्कीमें बनाई हैं, लेकिन ऐसी बातें जमीनी हकीकत से दूर हैं. वे तब तक सिर्फ हवाई, कोरी व कागजी बातें ही मानी जाएंगी, जब तक कि लैब से निकल कर गांवों, खेतों व किसानों तक न पहुंच जाएं.

सरकारी इमदाद

सूखा पड़ने पर सरकारें राहतकारी उपाय करती हैं. खरीफ 2014 के सीजन में हुई कम बारिश के असर को कम करने के लिए डीजल पर छूट, बागबानी फसलों पर माली इमदाद, बीज पर छूट में 50 फीसदी बढ़ोतरी, चाराविकास की स्कीम, तेलखली पर आयात शुल्क माफ जैसे कदम उठाए गए थे, लेकिन हमारे देश में सूखे पर भी राहत कम व राजनीति ज्यादा होती है. सूखा सहायता के लिए राज्यों में विपदा अनुक्रिया निधि एसडीआरएफ व केंद्र में एनडीआरएफ के तहत रकम मौजूद रहती है. इस मद में 2014-15 के दौरान 7,387 करोड़ 1 लाख रुपए थे, जबकि 2015-16 के दौरान 3,693 करोड़ 99 लाख रुपए बढ़ा कर कुल 11,081 करोड़ रुपए एलाट किए गए हैं, लेकिन इस में भी भेदभाव है. लिहाजा सूखा पड़ने पर सभी राज्यों को एक जैसी व बराबर माली इमदाद मयस्सर नहीं होती. देश के 29 में से 18 राज्य आम कैटेगरी के हैं. सूखा राहत में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल को 3 हिस्से केंद्र सरकार के व 1 हिस्सा राज्य सरकार का होता है. बाकी 11 राज्यों अरुणांचल प्रदेश, असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर व उत्तराखंड के लिए 9 हिस्से केंद्र सरकार के व 1 हिस्सा राज्य सरकार का होता है.

मोदी सरकार ने कई नए कदम उठाए हैं. पहले फसल के 50 फीसदी नुकसान पर राहत मिलती थी, अब 33 फीसदी पर मिल जाती है. पहले 1 हेक्टेयर जोत वालों को राहत मिलती थी, अब 2 हेक्टेयर जोत वालों को भी मिलती है. साथ ही दी जाने वाली माली इमदाद भी बढ़ा कर प्रति हेक्टेयर 4,500 रुपए से 18 हजार रुपए कर दी गई है. साथ ही कुदरती आपदा में मरने पर वारिसों को देय मुआवजा डेढ़ लाख रुपए से बढ़ा कर 4 लाख रुपए कर दिया गया है.

हीलाहवाली

सब जानते हैं कि सरकारी राहत किसानों तक आसानी से नहीं पहुंचती. उस में काफी देर लगती है, क्योंकि कागजी खानापूरी का रास्ता काफी लंबा व चाल कछुए जैसी होती है. सूखा पड़ने पर राज्य सरकार नुकसान का अंदाजा लगाती है. फिर केंद्र सरकार से माली इमदाद की मांग करती है. इस के बाद केंद्र सरकार उस की जांच के लिए टीम बनाती है. वे टीमें घूमघूम कर दौरा करती हैं व मौकामुआयना करने के बाद अपनी रिपोर्ट सरकार को देती हैं. इस सारे काम में काफी समय लगता है और तब कहीं जा कर राहत की रकम राज्यों को दी जाती है. फिर उस के बंटने में काफी देर लगती है. लिहाजा सूखा राहत की बूंदें किसानों तक जल्द व पूरी न पहुंच कर रास्ते में ही सूख जाती हैं. पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के सिकंदराबाद इलाके में किसानों को बंटने आए फसली मुआवजे में से 56 लाख रुपए की रकम 2 चेकों के जरीए हड़प ली गई. भांडा फूटने पर तहसीलदार मुकर गया. उस ने अपने दस्तखत ही फर्जी बता दिए. पूरा अमला उसे बचाने में जुट गया, लेकिन स्टेट बैंक ने इस मामले की जांच रिजर्व बैंक से कराई तो पोल खुल गई. जांच रिपोर्ट में चैकों पर किए गए तहसीलदार के हस्ताक्षर असली पाए गए. इस उदाहरण से साफ जाहिर है कि सरकार के भरोसे रहने से कुछ होने वाला नहीं है. किसानों का खुद जागरूक होना बहुत जरूरी है. बारिश कम होने पर पानी की कमी से निबटने के उपायों की जानकारी किसानों को जरूर होनी चाहिए. इस बाबत इच्छुक किसान इन पतों पर संपर्क कर सकते हैं :

निदेशक,

केंद्रीय बारानी खेती अनुसंधान संस्थान, सीआरआईडीए, संतोष नगर, सैदाबाद, हैदराबाद, आंध्र प्रदेश : 500059

निदेशक,

केंद्रीय शुष्क बागबानी संस्थान,

बीकानेर, राजस्थान : 334006.

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