पंचकूला और सिरसा सहित दीगर इलाकों में बाबा राम रहीम के चेलों ने जो कहर ढाया, उसका कुछ हिस्सा रिपोर्टरों ने कथित तौर पर जान पर खेल कर दिखाया, उसके लिए वे साधुवाद के पात्र होते बशर्ते ऐसे बाबाओं को हीरो बनाने में मीडिया का कोई योगदान न होता. हरेक न्यूज चैनल ने दावा किया कि उसके कैमरामैन और रिपोर्टर ने जिंदगी की परवाह न करते हुये हिंसा का नंगा नाच और तांडव दर्शकों तक पहुंचाया.

पर किसी ने यह कहने या बताने का दुस्साहस नहीं किया कि आधी रात के बाद इन्हीं बाबाओं के चमत्कारी किस्से कहानी वे इश्तिहारों के जरिये दिखाकर तबियत से रेवेन्यू जनरेट करते हैं, यानि करोड़ों अरबों रुपए कमाते हैं. इसी बाबा राम रहीम का प्रचार प्रसार कभी मीडिया ने जमकर किया था और कभी आसाराम के प्रवचन दिखाकर और उसके आश्रम की होली दिखाकर भी टीआरपी बढ़ाई जाती थी. एक और बाबा था और अभी भी है, नाम है निर्मल बाबा जिसने एक वक्त मे टीवी के जरिये हाहाकार मचा दिया था. निर्मल बाबा रोज करोड़ो रुपए के विज्ञापन चेनल्स पर देता था, एवज मे उसके टोटके और कृपा बरसाने वाले उपाय छोटे पर्दे पर लोग देखते थे और उनके झांसे में आकर खूब दक्षिणा उस पर बरसाते थे. उसी दक्षिणा का कुछ हिस्सा निर्मल बाबा विज्ञापनो पर खर्च करता था. इस कारोबार का सीधा गणित यह था कि लोगों को उन्हीं के पैसे के दम पर लूटा जा रहा था और मीडिया अपने इस विज्ञापनदाता की काली करतूतों और ढोंग पाखंडो पर पर्दा डालने को मजबूर था.

आज भी भी चैनल्स पर धर्म, ज्योतिष और प्रवचनों वगैरह के प्रायोजित कार्यक्रम दिखाये जाते हैं. इनका असर लोगों पर कैसे कैसे होता है, इसकी जिम्मेदारी कोई चैनल नहीं लेता. न ले यह ज्यादा हर्ज की बात नहीं, हर्ज की बात है ऐसे बाबाओं को हीरो बनने देने में सहयोग करना, उनके भक्तों और अनुयायियों की तादाद बढ़ाना, फिर पोल खुलने पर उनकी हाय हाय करना और छाती पीट पीट कर नैतिकता और जिम्मेदारी का ढोल बजाना. राम रहीम जैसे रंगीन मिजाज बाबा यूं ही नहीं ब्रांड बन जाते. वे बगैर प्रचार प्रसार के अपना चमत्कारी कारोबार फैला ही नहीं सकते.

हरियाणा सरकार की नाकामी को पानी पी पी कर कोसने वाला मीडिया कभी अपनी गिरहबान में झांककर देखेगा क्या कि कैसे उसने राम रहीम को नाचते गाते और उसकी फिल्म के प्रचार के दौरान करिश्माई तरीके से दिखाया था. किसी रिपोर्टर में यह सोचने लायक बुद्धि नहीं थी क्या कि कैसे राम रहीम ने देखते ही देखते खरबों की अपनी बादशाहत खड़ी कर ली. दिन रात मेहनत कर अपनी जान पर खेलने वाले इन रिपोर्टरों का लालच निश्चित ही अपनी कुछ हजार रूपल्ली  की ग्लेमर भरी नौकरी नहीं बल्कि यह पत्रकारिता का वह जज्बा है जिसने तख्ते भी पलटे हैं और निजाम भी बदले हैं.

अब पत्रकारिता पेशेवर हो गई है, इसलिए पंचकूला की हिंसा के बीच जान पर खेलकर सच दिखाना कोई खोजी पत्रकारिता नहीं, बल्कि एक जोखिम भरा काम था. जरूरत स्टंटबाजी की नहीं, बल्कि ऐसे चमत्कारी बाबाओं की पैदावार में अपना योगदान न देने की है, जरूरत धार्मिक पाखण्डों को हतोत्साहित करने की है, जरूरत बाबाओं का महिमामंडन न करने की है. मीडिया को हर उस जगह एतराज दर्ज कराना होगा जहां आम लोगों को धर्म के नाम पर ठगे और छले जाने के षड्यंत्र रचे जाते हैं, नहीं तो राम रहीम पैदा होते रहेंगे, उन्माद बढ़ता रहेगा.

यहां भोपाल के एक वाकिए का जिक्र गौरतलब है, कोई 6-7 साल पहले कुछ तांत्रिक ठगी के आरोपों में धरे गए थे तो कुछ समाचार पत्रों ने उनके चमत्कारी और भ्रामक विज्ञापन न छापने की कसम खाई थी, जिसने जल्द ही व्यावसायिक विवशताओं और बढ़ती प्रतिस्पर्धा के आगे दम तोड़ दिया था. अब इन बाबाओं के इश्तिहार खूब छप रहे हैं जिनसे नुकसान उस जनता का हो रहा है जो चेतन अचेतन में अभी भी मीडिया को प्रजातन्त्र का चौथा स्तम्भ मानती है. यह भरोसा हालांकि दरकने लगा है, लेकिन पूरी तरह टूट पाया तो देश में मीडिया के माने शुद्ध मनोरंजन रह जाएगा.

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