उत्तर प्रदेश राज्य की राजधानी लखनऊ में हर शहर की तरह कई गंदे नाले हैं, जिन के किनारे पीढ़ियों से लोग रह रहे हैं. हैदर कैनाल और कुकरैल नहर के किनारे रहने वालों को देखने से पता चलता है कि गंदे नालों के किनारे बने जिन मकानों को घर कहते हैं, वे केवल छत और दीवारों से घिरे होते हैं. बरसात का मौसम सब से खराब होता है.

इन घरों में रहने वाले लोग अपनी जेब के हिसाब से घर को सजाते हैं. ज्यादातर लोग कपड़े के परदे डालते हैं. ऐसे नालों से कुछ सौ मीटर से भी कम की दूरी पर पौश बाजार और रिहायशी मकान होते हैं, जो पूरी तरह चमकदमक से भरपूर होते हैं.

हैदर कैनाल के किनारे से कुछ दूर बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती का दफ्तर है, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का भी दफ्तर है और राज्यपाल का राजभवन बना है.

सत्ता के गलियारे से इतना करीब होने के बाद भी लोग नाले के किनारे रहने को मजबूर हैं. आम घरों के लोग जहां खड़ा होना भी पसंद नहीं करते हैं, वहां ये लोग पीढि़यां गुजार देते हैं.

किसी भी घर में प्लास्टर नहीं है. कई घरों में खिड़की के लिए जगह जरूर छोड़ी गई है, जिस से हवा और रोशनी आती रहे, पर उस में दरवाजे नहीं लगे हैं. मकान एकमंजिला और दोमंजिला  दोनों ही तरह के बने हैं.

ज्यादातर मकान नाले के किनारे सीमेंट के खंभे दे कर बनाए गए हैं. नीचे के मकानों में बदबूदार सीलन रहती है. शौचालय में भी घर की तरह केवल दीवार और छत ही होती है. कई घरों में शौचालय होता ही नहीं है. लोग नाले के किनारे ही शौच के लिए जाते हैं.

इन घरों की औरतें देर शाम या जल्दी सुबह लोगों के जागने से पहले ही शौच कर लेती हैं. जिन घरों में शौचालय बने भी हैं, उन में भी दरवाजा नहीं होता. टाट की पट्टी या फिर कपड़े का परदा डाल कर काम चलाया जाता है.

यहां रहने वाले ज्यादातर गरीब तबके के लोग होते हैं. इन में मुसलिम, हिंदू सभी धर्मों के लोग शामिल हैं. बहुत से घरों में बंगलादेशी और नेपाली मूल के लोग भी हैं.

कई परिवारों की तो दूसरी पीढ़ी यहां रह रही हैं. गंदे नाले पर बने इन्हींघर में इन के शादीब्याह समेत दूसरी तमाम रस्में पूरी होती हैं.

गरीबों का नरक

नालों के किनारे रहने वालों में ज्यादातर लोग शराब और दूसरे किस्म के नशे के शिकार होते हैं और जुआ खेल कर अपना समय बिताते हैं.

कई घरों के बच्चे जब छोटे होते हैं, तो स्कूल में पढ़ने भी जाते हैं, पर कमाई करने लायक होते ही वे स्कूल छोड़ कर कामधंधे पर लग जाते हैं.

लड़के और लड़कियों दोनों की ही कम उम्र में शादी कर दी जाती है. कम उम्र में मां बनने से जच्चाबच्चा की जान जाने का खतरा बना रहता है. सब से ज्यादा बीमारियां गंदगी से होती हैं.

ऐसे घरों में रसोईघर के नाम पर प्लास्टिक और स्टील के डब्बों में भरा कुछ सामान, बरतन और गैस के चूल्हे होते हैं, जो 5 किलोग्राम वाली गैस से चलते हैं.

कम घरों में गैस का कनैक्शन है. यहां के घरों में पानी के कम, बल्कि बिजली के कनैक्शन ज्यादा होते हैं. ज्यादातर काम जुगाड़ से चलता है.

अब बहुत ही कम घरों में खाना बनाने के लिए लकड़ी के चूल्हे या मिट्टी के तेल से चलने वाले स्टोव का इस्तेमाल होता है. जिन के घर ईंट के नहीं बने होते, वे लोग छप्पर पर प्लास्टिक की बड़ी शीट डाल कर अपने लिए छत बना लेते हैं.

मनोरंजन के लिए टैलीविजन और रेडियो सभी घरों में मिल जाता है. शुरुआत में लोग छप्पर डाल कर रहते हैं, बाद में धीरेधीरे पक्का मकान बनाने में लग जाते हैं.

पहले नाले के किनारे कहींकहीं लोग घर बना कर रहते थे, पर अब पूरे नाले के किनारे कम ही खाली जगह दिखती है, जहां रहने वाले न हों.

ज्यादातर लोगों के पास वोटर कार्ड हैं. वे वोट डालते हैं. अब वे यहां के स्थायी निवासी हो गए हैं. एकसाथ रहने के बाद भी इन में आपस में लड़ाईझगड़ा भी खूब होता है. इस की खास वजह एकदूसरे के साथ सैक्स संबंध होते हैं. सोने से ले कर नहाने तक के लिए लोगों के पास जगह की कमी होती है. ऐसे में बहुतकुछ परदे में नहीं रह पाता है.

सालों से एकसाथ रहने के बाद भी ये लोग अपनी बातें दूसरों को बताने में संकोच महसूस करते हैं. इन्हें डर होता है कि कहीं इन से रहने की यह जगह खाली न करा ली जाए.

ऐसे में ये लोग किसी न किसी लोकल नेता का हाथ पकड़ कर रखते हैं, जो इन की मदद करता है. नेता ही इन के वोटर कार्ड बनवा देते हैं, जिस के बाद ये यहां रहने के हकदार हो जाते हैं.

जब कभी कोई सरकार इन को नाले के किनारे से हटाने की बात करती है, तो लोकल नेता इस का विरोध करते हैं.

गंदे पानी के नाले हर शहर में होते हैं. इन का काम बरसात के पानी को शहर से बाहर ले जाना होता है. इन को गंदा नाला इसलिए कहते हैं, क्योंकि ये शहर के सीवर के पानी को भी बाहर ले जाते हैं.

जब शहरों का बहुत विकास नहीं हुआ था, गरीबी का लैवल ज्यादा था, ऐसे नालों के किनारे बसने वालों की तादाद कम होती थी. जैसेजैसे शहरों का विकास हो रहा है, वैसेवैसे अमीरी का लैवल बढ़ रहा है. देश में सामाजिक तरक्की हो रही है. ऐसे गंदे नालों के किनारे रहने वालों की तादाद भी बढ़ती जा रही है.

पहले जहां झोंपड़पट्टी होती थी, अब वहां पक्के मकान बन गए हैं. गंदे नाले पर कब्जा कर के बने ऐसे मकान दोहरी परेशानी झेलते हैं.

यहां बने मकानों के नीचे या आसपास बदबूदार पानी बहता रहता है, जिस में मक्खी, मच्छर और तमाम तरह के कीड़े रहते हैं, जो सेहत के लिए काफी खतरनाक होते हैं.

गंदे नालों के किनारे मकान बनने से नाले में बरसात और सीवर का पानी बहने में परेशानी होती है, जिस से शहर के बाकी हिस्सों में पानी जमा होता है.

देश के तकरीबन हर बड़े शहर की यही कहानी है. उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मध्य प्रदेश, बिहार, मुंबई जैसे इलाकों में जहां आबादी का बोझ ज्यादा है, वहां यह परेशानी ज्यादा है.

गंदे नाले की कहानी को समझने के लिए लखनऊ की हैदर कैनाल को समझना जरूरी है.

लखनऊ के अलावा बाकी शहरों की कहानी भी बहुत मिलतीजुलती है. हैदर कैनाल राजाजीपुरम से चल कर कालीदास मार्ग से होते हुए गोमती नदी में मिलती है. यह तकरीबन 17 किलोमीटर लंबी है. इस की चौड़ाई 40 मीटर से 70 मीटर के बीच है.

पहले लखनऊ के बरसाती पानी और सीवर को इस के जरीए ही बाहर ले जाया जाता था. उस समय इस का नाम हैदर कैनाल था. इस में केवल बरसात का पानी बहता था. कुछ समय बाद इस में सीवर का गंदा पानी भी बहने लगा. तब से हैदर कैनाल की जगह यह ‘गंदा नाला’ के नाम से जाना जाने लगा.

गंदे पानी का नाला होने के बाद भी लोगों ने इस के किनारे बसना शुरू कर दिया. अब पूरे नाले के किनारे मकान, दुकान और गैराज वगैरह बन गए हैं.

बढ़ रही है आबादी

 हैदर कैनाल पर किए गए कब्जे को हटाने के लिए साल 1998 में एक योजना तैयार की गई थी. कब्जा न हो, इस के लिए उस पर सड़क बनाने का प्रस्ताव रखा गया, जिस से शहर का आवागमन आसान हो जाए और सड़क के नीचे पानी भी बहता रहे.

चारबाग से कालीदास मार्ग तक तकरीबन 9 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने के लिए मायावती सरकार ने 6 सौ करोड़ रुपए का भारीभरकम बजट तैयार किया था.

हैदर कैनाल के किनारे तकरीबन 3 लाख लोग बसे हैं. इन को हटाना किसी भी सरकार के लिए बहुत मुश्किल काम है. ऐसे में मायावती सरकार ने हैदर कैनाल पर सदर से लाल बहादुर शास्त्री मार्ग तक तकरीबन 8 सौ मीटर लंबे नाले पर ही सड़क बनाने का काम किया.

मायावती के लिए मजबूरी यह थी कि यहीं पास में उन की पार्टी का प्रदेश हैडक्वार्टर है. उस के आसपास राजभवन और मुख्यमंत्री सचिवालय भी है.

हैदर कैनाल के बाकी हिस्से पर बसे लोगों को हटाने की हिम्मत किसी सरकार में नहीं हुई. हाल ही में उत्तर प्रदेश में जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी, तो एक बार फिर से हैदर कैनाल के ऊपर से कब्जा हटाने की बात होने लगी है.

दरअसल, योगी आदित्यनाथ की सरकार में उपमुख्यमंत्री बने डाक्टर दिनेश शर्मा पहले लखनऊ के मेयर थे. वे लखनऊ की परेशानियों से रूबरू थे. ऐसे में वे हैदर कैनाल पर से गैरकानूनी कब्जा हटाने की मुहिम में शामिल हो गए.

डाक्टर दिनेश शर्मा ने कहा कि नालों के ऊपर बने मकानों को हटाया जाएगा.  लखनऊ में यह परेशानी केवल हैदर कैनाल के सामने ही नहीं है, बल्कि बहुत सारे दूसरे नालों के किनारे भी लोग बस गए हैं. इन की तादाद कम होने के बजाय बढ़ने लगी है.

मजबूरी है बसना

आज भी देश में ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा है, जिन के पास रहने को घर नहीं हैं. ये लोग ऐसी गंदी जगहों पर ही रहने को मजबूर हैं. शहरों में कामधंधे और रोजगार के लिए आने वाले बहुत से लोगों के पास इतना पैसा नहीं होता कि वे अच्छे मकान बना कर रह सकें.

शहरों में नंबर एक तो जमीन है ही नहीं. जहां है, वहां बहुत महंगी है. जिसे खरीद पाना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं है.

शहर से दूर बसना ऐसे लोगों के लिए महंगा साबित होता है. ऐसे में ये लोग शहर के अंदर बहने वाले नालों के किनारे रहना शुरू कर देते हैं.

गंदे नाले के किनारे बसना बहुत ही मजबूरी का सौदा होता है. वहां रहने वाले लोगों की औसत उम्र साफ जगहों पर रहने वालों से कम होती है.

इतना ही नहीं, वे ज्यादा बीमार भी पड़ते हैं, क्योंकि साफसफाई नहीं होती. शरीर से भी कमजोर रहते हैं. यहां तक कि समय से पहले ही मौत का शिकार हो जाते हैं.

नाकाम स्वच्छता मिशन

 ऐसे लोगों के लिए साफसफाई से जुड़े मिशन बेकार की बातें होती हैं. नाले पर रहने वाले अपनी मरजी से वहां नहीं रहते, बल्कि यह उन की मजबूरी होती है.

सरकारों को ये बातें समझ नहीं आतीं. हर सरकार यह बताती है कि उस ने इतने मकान बना दिए, पर किसी सरकार ने यह नहीं बताया कि उस के समय में गंदे नाले पर रहने वालों की तादाद कितनी ज्यादा हो गई.

शहर की गरीबी और लाचारी को देखना है, तो उस शहर के गंदे नाले और उस के किनारे बसे लोगों और बस्तियों को देखना होगा.

लेकिन दुख की बात यह है कि हर सरकार यह कहती है कि गंदे नाले पर बसे लोगों को वहां से हटा दिया जाएगा, लेकिन कोई भी सरकार यह नहीं कहती कि ऐसे लोगों के लिए कहां घर बनाए जाएंगे.

सरकार की आवास योजनाएं महंगी हैं और रिश्वतखोरी से भरी होती हैं. ऐसे में बहुत से ऐलान के बाद भी गरीबों को रहने के लिए मकान नहीं मिलते.

सरकारी मकान लेने के लिए कम से कम 3 लाख से 8 लाख रुपए खर्च करने होते हैं. इस के बाद भी सरकार ऐसे मकान नहीं बना पाती, जिस से हर जरूरतमंद को घर मिल सके.

जब तक शहरों में रहने के लिए आवास नहीं मिलेंगे, तब तक सामाजिक तरक्की की बातें बेमानी हैं. गंदे नालों पर बसने वाला तबका सरकार के चमकते दावों की पोल खोलता है.

समाज का एक बड़ा हिस्सा ऐसी जगहों पर रह रहा है, जहां पर खड़े होना भी मुश्किल होता है. नेता और अफसर बिना नाक पर कपड़ा रखे वहां ज्यादा देर तक टिक नहीं सकते हैं.

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