सरकारी दफ्तरों में आजकल धूमकेतु समस्या बढ़ती जा रही है. धूमकेतु शब्द तब लाइमलाइट में आया था जब कुछ साल पहले हेलीस धूमकेतु के दर्शन हुए थे. उस समय कहा गया था कि यह 76 सालों में सिर्फ एक बार दिखता है, मतलब कि इस के दर्शन दुर्लभ होते हैं. एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में एक बार ही इस के दर्शन कर पाता है. हालांकि कुछ अन्य धूमकेतु 2-4 सालों में एक बार या 10 सालों में एक बार दिखाई देते हैं. अर्थात जो तारे कभीकभी दिखते हैं वे धूमकेतु के समान हैं.

धूमकेतु केवल आसमान में ही नहीं बल्कि जमीं पर भी दिखाई देते हैं. अरे, जिस की सरकारी नौकरी लग गई वह तारा ही क्या, सितारा बन जाता है. ऐसे में उस के एकाध लक्षण तो स्वाभाविक रूप से आएंगे ही. यकीन नहीं आता तो आप चले जाएं किसी भी जिले में कुछ सरकारी दफ्तरों में. वहां ऐसे सरकारी अधिकारी मिल जाएंगे जो साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक आधार पर नौकरी करते हैं. वे सप्ताह दो सप्ताह में एक दिन आ गए तो समझ लीजिए उन्होंने बहुत बड़ा एहसान कर दिया है सरकार पर. आज उन्हें 20-25 साल हो गए हैं सरकारी नौकरी करते हुए और वे इस से भी ज्यादा लंबी अवधि के बाद अपने कार्यालय में उपस्थित होते रहे हैं. ये सरकारी क्षेत्र के धूमकेतु हैं जो कभीकभी दिखते हैं. जिसे देखना है देख ले वरना ये दिन के 4 बजतेबजते अदृश्य होने लगते हैं, मतलब अपनी बस या ट्रेन को पकड़ने के लिए दफ्तर से रवाना हो चुके होंगे.

हां, यदि इन से कोई वरिष्ठ पूछ ले कि भाईसाहब कल कहां थे? तो भाईसाहब को यह पूछना बड़ा गरिष्ठ लगेगा. जवाब मिलेगा, ‘सर, यहीं तो था, थोड़ा फील्ड में चला गया था, लौटने में लेट हो गया था.’ अगर अफसर यह पूछ ले कि परसों भी तो नहीं दिखे थे? तो बोलेंगे, ‘सर, कहां से दिखूंगा, उच्च न्यायालय के काम से बाहर गया था.’

और अगर उस के पहले का पूछा तो कहेंगे कि वे पुराने जिले में एक पेशी में गए थे. अब आप पता करते रहो कि कौन सी पेशी थी. ‘पिछले हफ्ते भी तुम 3 दिन गायब थे?’

‘सर, संभागीय बैठक थी.’

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अब अगर अफसर ज्यादा ढीठ निकला और ज्यादा पूछ लिया तो कहेगा, ‘सर, आप तो मेरे पीछे पड़े रहते हैं. आप के पहले भी अफसर थे, कोई इतनी पूछताछ नहीं करता था. उन्हें तो बस काम से मतलब रहता था.’ मतलब, ये मौजूदा अफसर को यह जताना चाह रहे थे कि आप को काम की चाह नहीं है, केवल पूछताछ की पड़ी है. आजकल सरकारी दफ्तरों में धूमकेतुओं की बहुतायत है. मैं ऐसे एक धूमकेतु को जानता हूं जो अपने शहर से दूसरे शहर, जहां वे नौकरी करते थे, को जाने के लिए सुबह 11 बजे की ट्रेन से रवाना होते थे और 4 बजे की ट्रेन से वापस चल देते थे. यह ट्रेन सप्ताह में 3 बार चलती थी तो ये धूमकेतु भी 3 दिन चलते थे. ऐसे धूमकेतु भी हैं जो कि दफ्तर में इसलिए नहीं आ पाते हैं क्योंकि नौकरी से ज्यादा जरूरी नौकरी वे अपने धंधे की कर रहे होते हैं. ये नौकरी से ज्यादा अपने धंधे को समय देते हैं. कई बार दफ्तरी धूमकेतु सिंडीकेट टाइप का भी बना लेते हैं और फिर यदि ऐसा हो गया तो इन के साहब साहबी भूल जाते हैं. दरअसल, ये एक ही समय आते हैं जो कि दफ्तर खुलने से काफी लेट होता है और एक ही समय चले जाते हैं जो कि दफ्तर बंद होने से काफी पहले होता है. क्योंकि बात ट्रेन के टाइम व उस के मासिक पास की रहती है या साझा व्यवस्था वाली मोटरकार की रहती है.

धूमकेतु समस्या सब से ज्यादा बड़े शहरों के पास के छोटे शहरों के दफ्तरों को झेलनी पड़ती है. क्योंकि यहां वही लोग पदस्थापना करवा लेते हैं जिन के मकान परिवार सहित बड़े शहर में रहते हैं. गाहेबगाहे ये धौंस देते रहते हैं कि मजबूरी में यहां नौकरी कर रहे हैं, जब चाहेंगे, वापस चल देंगे. ये बातें सुन कर इन का बौस भी घबराता रहता है कि यदि ये चले गए तो फिर जो थोड़ाबहुत सहयोग मिल रहा है वह भी बंद हो जाएगा क्योंकि रिप्लेसमैंट तो मिलना नहीं है. इस तरह धूमकेतु समस्या एक नया आयाम ले लेती है. यदि दफ्तर का साहब भी इस से ग्रसित हो, वह भी अपडाउन कर रहा हो तो फिर तो इन में बड़ा भाईचारा रहता है. ऐसे में साहब के लिए सीट रोकने का काम मातहत करेंगे. और यदि चारपहिया वाला सिस्टम है तो फिर साहब के लिए एकल सीट ड्राइवर के पास वाली रिजर्व रखी जाएगी. रास्ते में एकाध जगह चाय भी औफर की जाएगी. चाय पीने वाले ये बाबू दफ्तर में आधा घंटा भी बिना चाय के नहीं रह पाते हैं. जैसे बेरोजगारी, महंगाई, कुपोषण, दहेज, महिला उत्पीड़न आदि समस्याओं को सरकार जितना भी रोकने की कोशिश करती है, वे उतना ही बढ़ती जाती हैं. ठीक वही स्थिति धूमकेतु समस्या के साथ है. पता नहीं कब यह समाप्त होगी?

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