Illegal Immigrants : इन दिनों बिहार के चुनाव में भी घुसपैठियों का मुद्दा जोरों पर है. वोटर लिस्ट की जांच चल रही है ताकि घुसपैठियों को पहचाना जा सके. महाराष्ट्र में देश के दूसरे राज्यों के मजदूरों को घुसपैठिया बता कर उन्हें खदेड़ने की राजनीति लंबे समय से चलती आ रही है. घुसपैठियों के नाम पर यह नैरेटिव सैट करने की कोशिश की जाती है कि दूसरे देशों या राज्यों से आने वाले लोग बोझ की तरह होते हैं जो संसाधनों पर डाका डालते हैं और क्षेत्र के आम नागरिकों के लिए खतरा बन जाते हैं. क्या यह नैरेटिव उचित है?

पूरी दुनिया में हमेशा से लोग माइग्रेट करते आए हैं. एक सदी पहले तक पूरी दुनिया में लोग बेरोकटोक इधर से उधर आतेजाते और बसते रहे हैं. पूरी दुनिया में कला, संस्कृति और व्यापार के आदानप्रदान में माइग्रेशन की अहम भूमिका रही. किसी ने मजबूरी में तो किसी ने अवसरों की तलाश में दूसरी जगहों को खोजा और वहां पर प्रवास किया. कोलंबस ने अमेरिका को खोजा और फिर यूरोप से अमेरिका की ओर प्रवास का सिलसिला शुरू हुआ. इन्हीं माइग्रेट करने वाले लोगों ने अमेरिका को बनाया और बसाया. भारत समेत तमाम एशियाई देशों की भी यही सच्चाई है.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया में औपनिवेशिक ताकतें कमजोर हुईं और उन्होंने उन देशों को अपने शिकंजे से मुक्त कर दिया जो वर्षों से इन औपनिवेशिक शक्तियों की गुलामी को झेल रहे थे. नए बने राष्ट्रों में राष्ट्रवाद कुलांचें मारने लगा जिस से उन्होंने अपनी सीमाओं की घेराबंदी शुरू कर दी. इस का नतीजा यह हुआ कि माइग्रेशन बंद हो गया. राष्ट्रवाद के नाम पर दुनिया के तमाम देश आइसोलेट हो कर अपनीअपनी सीमाओं में बंद हो गए.

यह मानव विकास के खिलाफ एक राजनीतिक षड्यंत्र था. मानवता के संपूर्ण इतिहास में यह सब से बड़ी त्रासदी थी. जिस माइग्रेशन की वजह से दुनियाभर में संस्कृतियों और सभ्यताओं का आदानप्रदान व विकास हुआ था वह अचानक रुक गया और इस से मानवता की सांस्कृतिक गति भी रुक गई.

वर्ष 1947 से पहले के भारत में लोग कहीं भी जा सकते थे और कोई भी भारत में आ सकता था. कोई रुकावट नहीं थी. व्यापारी, कलाकार और खानाबदोश जनजातियां भारत से निकल कर यूरोप तक पहुंचती रहीं तो यूरोप और चीन से भी बड़ी संख्या में लोग भारत में आते रहे. इस तरह के माइग्रेशन से फायदा सभी को होता है लेकिन आज सभी देशों ने अपनीअपनी सीमाओं की ऐसी घेराबंदियां की हैं कि इंसान तो क्या, जानवर भी इन सीमाओं को नहीं लांघ सकता.

पिछले हजारों वर्षों से भारत में जो भी आया वह यहीं का हो कर रह गया. शक भारत में दूसरी शताब्दी ईसापूर्व के आसपास आए. मध्य एशिया का यह कबीला भारत को लूटने आया था लेकिन यहीं का हो कर रह गया. शक कबीले से ही भारत में महेश्वर और रुद्रदामन जैसे महान राजा हुए जिन्होंने पहली और दूसरी शताब्दी ईसवी में पश्चिमी भारत में शासन किया.

कुषाण भारत में पहली सदी ईस्वी में आए. कुषाण कबीला भी मध्य एशिया से भारत में आया और इस कबीले ने उत्तरपश्चिमी भारत में अपना साम्राज्य स्थापित किया. इसी कबीले से कनिष्क जैसे महान शासक पैदा हुए जिन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया और एशिया में भारतीय संस्कृति के विस्तार में अहम भूमिका निभाई.

भारत में 5वीं शताब्दी की शुरुआत में हूण आए. यह भी खानाबदोश जनजाति थी जो मध्य एशिया से भारत में आई थी. हूणों ने गुप्त शासक स्कंदगुप्त (455-467 ईस्वी) के शासनकाल में भारत पर आक्रमण किया और मिहिरकुल के नेतृत्व में उत्तर भारत में अपनी शक्ति स्थापित की. इन कबीलों के अलावा कई छोटीबड़ी जनजातियां यूरोप और मध्य एशिया से भारत में दाखिल हुईं और यहां के कल्चर में समा कर यहीं की हो कर रह गईं. भारत में आने वाला कोई कबीला भारत से वापस नहीं गया और न ही उन्हें किसी ने यहां से भगाने की कोशिश की.

भारत में घुसपैठिए समस्या हैं या समाधान

पिछले साल हुए झारखंड के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने घुसपैठियों का मुद्दा जोरशोर से उठाया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने चुनावी भाषणों में इस मुद्दे को हवा दी थी. बीजेपी का आरोप था कि झारखंड में आदिवासियों की जमीन बंगलादेशी घुसपैठिए हड़प रहे हैं.

झारखंड में घुसपैठ के मुद्दे को राजनीतिक दृष्टिकोण से संवेदनशील बनाया गया है तो इस के पीछे कुछ कारण भी हैं. झारखंड के संथाल परगना में 1951 में आदिवासी आबादी 44.67 फीसदी थी, जो 2011 में घट कर 28.11 फीसदी रह गई.

बीजेपी का आरोप है कि इलाके में आदिवासियों की घटती जनसंख्या के लिए बंगलादेशी घुसपैठिए जिम्मेदार हैं. घुसपैठियों द्वारा आदिवासी लड़कियों से शादी की जाती है. इस तरह वे आदिवासी समाज में घुसपैठ कर उन की जमीनें हथिया लेते हैं.

छोटानागपुर टेनेंसी और संथाल परगना में इसी तरह आदिवासियों की जमीनें हथियाने की घटनाएं सामने आई हैं. इस तरह की घटनाओं को ले कर बीजेपी ने इसे आदिवासियों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने की तरह पेश किया. झारखंड चुनावों में बीजेपी ने घुसपैठिये के मुद्दे को ‘रोटी, बेटी, माटी’ की सुरक्षा के नारे के साथ जोड़ दिया जबकि सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोरचा (जेएमएम) सरकार ने घुसपैठ के दावों को खारिज कर दिया.

असम में घुसपैठियों का मुद्दा लंबे समय से चल रहा है. असम में यह मुद्दा महत्त्वपूर्ण इसलिए भी रहा है क्योंकि असम की बड़ी सीमा बंगलादेश से लगती है. इस सीमा से बंगलादेशियों की लगातार घुसपैठ हुई है. ब्रिटिश शासन के दौरान पूर्वी बंगाल (वर्तमान बंगलादेश) से लोगों को असम में खेती और श्रम के लिए लाया गया, जिस से प्रवास का एक पैटर्न शुरू हुआ और यह लगातार चलता रहा.

1971 में बंगलादेश की स्थापना के बाद वर्षों तक बंगलादेश में आर्थिक और सामाजिक अस्थिरता बनी रही जिस के कारण बड़ी संख्या में लोग भारत-बंगलादेश सीमा के माध्यम से असम में घुसपैठ करते रहे.

बोड़ो उग्रवादी गुट ने 3 दशकों तक बंगलादेशी घुसपैठियों के खिलाफ संघर्ष किया. असम की अस्मिता बचाने के नाम पर चले इस संघर्ष में हजारों लोग मारे गए. असम की राजनीति में लंबे समय से घुसपैठिए मुख्य मुद्दा रहे हैं और जब से असम में बीजेपी सत्ता में आई है उस के लिए सब से जरूरी काम घुसपैठियों को उखाड़ फेंकना ही है.

जुलाई 2025 को असम के धुबरी जिला थर्मल पावर प्रोजैक्ट की 3,500 बीघा जमीन पर बने करीब 1,700 घरों को बुल्डोजर से ढहाया गया. इस कार्रवाई में 1,400 परिवार विस्थापित हुए. कई संगठनों ने इस कार्यवाही का विरोध किया जिस के बाद बिस्वा सरमा सरकार ने आश्वासन दिया कि जिन के पास जमीन के वैध कागजात हैं, उन्हें मुआवजा या वैकल्पिक जमीन दी जाएगी.

जून 2025 को असम के गोलपारा में लगभग 1,500 एकड़ वन भूमि पर बने 667 घरों को ध्वस्त किया गया, जिन में ज्यादातर बंगलादेशी मूल के लोग रहते थे. सरकार ने इसे अवैध कब्जा हटाने का अभियान बताया. पिछले कुछ महीनों में असम के नलबाड़ी और लखीमपुर जैसे जिलों में भी ऐसी कार्रवाइयां हुईं, जिन में 2,300 से अधिक परिवार बेघर हुए.

असम और झारखंड की तरह ही दिल्ली में भी घुसपैठियों का मुद्दा जबतब गरमाता रहता है. 2020 में उत्तरपूर्वी दिल्ली और 2022 में जहांगीरपुरी में हुई हिंसा में दिल्ली पुलिस ने रोहिंग्या और बंगलादेशी मुसलमानों की संलिप्तता पाई जिस से दिल्ली के ये घुसपैठिए दक्षिणपंथ की राजनीति में अहम मुद्दा बन गए.

असम में सरकार ने घुसपैठियों की बस्तियों पर बुल्डोजर चलाया तो दिल्ली में बीजेपी की सरकार बनने के बाद से सरकारी बुल्डोजर लगातार ऐक्शन में है.

जून 2025 में दिल्ली के अशोक विहार में 200 से अधिक अवैध मकानों को ध्वस्त किया गया. गोविंदपुरी में 300 से अधिक झुग्गियों को तोड़ा गया. कालकाजी में 300 से ज्यादा घरों को ध्वस्त किया गया. निजामुद्दीन इलाके में 600 से अधिक मकानों को तोड़ा गया. तैमूर नगर में अवैध झुग्गियों पर बुल्डोजर कार्रवाई की गई.

इस के अलावा यमुना पुस्ता, बवाना, जहांगीरपुरी, सीमापुरी और कालिंदी कुंज जैसे इलाकों में भी घुसपैठियों की बस्तियों पर कार्रवाई की गई. इन में से कुछ डीडीए की जमीनों पर अवैध कब्जे को हटाने की कार्रवाई थीं. ज्यादातर बस्तियों को रोहिंग्या और बंगलादेशी घुसपैठियों को खदेड़ने के नाम पर तोड़ा गया.

घुसपैठियों की समस्या को नफरत से हल करना मानवता नहीं है. वर्षों की मेहनत से बनाए लोगों के घरों को रातोंरात धूल में मिला देने में कौन सी इंसानियत है. जो लोग भारत में पहले ही आ चुके हैं उन्हें डिटैंशन कैंपों में ठूंस देना भी इंसानियत नहीं है. रातोंरात जिन घरों को तोड़ा गया वे कहां जाएंगे?

घुसपैठियों के प्रति बेशक हमदर्दी मत रखिए लेकिन इस तरह की नफरत की भावना रखना भी उचित नहीं है. नफरत के नजरिए से देखें तो पड़ोसी देशों से भारत में आए लोग भी घुसपैठिए ही हैं लेकिन इसे तार्किक और मानवीय नजरिए से सम?ों तो यह आधुनिक प्रवास या मौडर्न माइग्रेशन है.

माइग्रेशन करने वाले लोग, जो बंगलादेश और म्यांमार की सीमाओं से भारत में आते हैं, ज्यादातर वह गरीब तबका होता है जिस के लिए अपना देश ही पराया हो जाता है. बेहद मजबूरी में ही कुछ लोग जोखिमभरा ऐसा कदम उठाते हैं और अपने देश की सीमाओं को लांघ कर भारत में घुसपैठ करते हैं. भारत में आ कर वे ?ाग्गियां बनाते हैं और यहां निम्न श्रेणी के कार्यों से अपने परिवार का पेट पालते हैं.

इन घुसपैठियों की औरतें शहरों में लोगों के घरों में काम करती हैं तो मर्द कूड़ा बीनने से ले कर रिकशा चलाने तक का काम करते हैं. इस में दोराय नहीं कि इन में कुछ चोरी या नशे के कारोबार में भी संलिप्त हो जाते हैं जिस से ये लोग आम नागरिकों के लिए खतरा बन जाते हैं. ऐसे में इन घुसपैठियों के प्रति नकारात्मक वातावरण पैदा होना भी स्वाभाविक बात है लेकिन इस का समाधान बुल्डोजर और डिटैंशन कैंप तो कतई नहीं है.

झुग्गीझोपड़ियों में बसर करने वाले ये लोग, जिन्हें सरकार घुसपैठिया कहती है, शहरों और शहरियों की जरूरत हैं. इन घुसपैठियों के खिलाफ माहौल खड़ा करने और इन्हें सब से बड़ी समस्या बताने के पीछे सिर्फ राजनीति है. वरना शहरों में महज 5 हजार में घर का झाड़ूबरतन करने वाली मेड किस की जरूरत नहीं.

क्या है घुसपैठियों की त्रासदी का समाधान

एशिया और मिडिल ईस्ट के ज्यादातर देश लंबे वक्त तक औपनिवेशिक ताकतों के गुलाम रहे हैं. इन देशों को आजादी तो मिली लेकिन इस आजादी के साथ सीमा विवाद के गहरे जख्म भी मिले. इसी सीमा विवाद के चलते एक भूभाग में रहने वाले लोग कई देशों में बंट गए. रातोंरात सब बदल गया. सदियों जिस जगह को लोग अपना सम?ाते रहे वे उन से छीन ली गई. लाखों लोग विस्थापित हुए और विस्थापित लोगों को नई जगह पर नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा.

इन देशों में दशकों तक राजनीतिक अस्थिरता बनी रही जिस का खमियाजा आम लोगों को ही भुगतना पड़ा. कुछ लोगों ने भविष्य की बेहतरी के लिए तो कुछ लोगों ने जान के डर से पलायन किया और देशों की सीमाओं को लांघ कर घुसपैठिए बन गए. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विस्थापन होता रहा और यूनाइटेड नैशन देखता रहा. घुसपैठ और घुसपैठिए किसी भी देश के लिए समस्या नहीं बल्कि समाधान होते हैं. यह माइग्रेशन की स्वाभाविक प्रक्रिया है जो सदियों से चलती आई है.

गौरतलब यह है कि 1937 तक बर्मा (म्यांमार) ब्रिटिश भारत का हिस्सा था. उस समय व्यापार और रोजगार के लिए भारतीय मूल के लोग म्यांमार गए थे और आज भी वहां 25 लाख भारतीय समुदाय के लोग निवास करते हैं. वर्ष 2021 में भारत में घुसपैठ करने वाले लोगों में बड़ी तादाद भारतीय मूल के लोगों की भी है जो ब्रिटिश काल में म्यांमार चले गए थे.

आज के समय घुसपैठ और घुसपैठियों को ले कर बीजेपीशासित राज्यों ने सख्त कदम तो उठाए हैं लेकिन घुसपैठियों के खिलाफ बीजेपी की कार्रवाई सिर्फ राजनीति से प्रेरित नजर आती है. बीजेपी के पास इस समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं है. अगर बीजेपी सरकार ऐसा सोचती है कि बुल्डोजर से घुसपैठियों की बस्तियों को तबाह कर देने से यह समस्या खत्म हो जाएगी तो यह सिर्फ जनता को बेवकूफ बनाने का तरीका भर है.

घुसपैठ कोई समस्या नहीं है. यह माइग्रेशन की सामान्य प्रक्रिया है जो वर्षों से चलती आई है. अगर इसे समस्या मान भी लें तो इस समस्या का समाधान करना राज्यों का काम नहीं है. इस के लिए केंद्र सरकार को विवेकपूर्ण नीतियां बनानी होंगी और इस समस्या के समाधान के रास्ते में इंसानियत का भी खयाल रखना होगा.

केंद्र सरकार को बंगलादेश और म्यांमार सरकारों से घुसपैठियों को वापस भेजने के लिए प्रत्यर्पण नीतियों को मूर्त रूप देना होगा. इस के अलावा कोई रास्ता नहीं है. फिर भी जो लोग भारत में रह जाएं उन्हें नागरिकता प्रदान कर शिक्षा व रोजगार के जरिए मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास करना होगा. यही इस जटिल समस्या का एक विवेकपूर्ण और मानवीय समाधान हो सकता है.

भारत की संस्कृति हमेशा से समावेशी रही है. ‘वसुधैव कुटुंबकम’, ‘पूरा विश्व एक परिवार’ है’ यह वाक्य भारतीय दर्शन और संस्कृति की महानता साबित करने वाले लोग बारबार दोहराते हैं. अपने अंतर्राष्ट्रीय दौरों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अकसर इस वाक्य की विवेचना करते नजर आते हैं. आरएसएस के मोहन भागवत भी वसुधैव कुटुंबकम को भारत की आनबानशान बताते हैं लेकिन बीजेपी भारत की इस आनबानशान को बुलडोज करने में लगी हुई नजर आती है.

घुसपैठियों के खिलाफ डोनाल्ड ट्रंप

वर्ष 1492 में क्रिस्टोफर कोलंबस ने अमेरिका की खोज की. आधुनिक अमेरिका का इतिहास कोलंबस की इसी खोज से शुरू होता है. कोलंबस के बाद स्पेन, पुर्तगाल, फ्रांस और इंग्लैंड के व्यापारियों ने अमेरिका को बनाया व बसाया. इस तरह देखा जाए तो आज अमेरिका में बसे 95 फीसदी लोग घुसपैठिए ही हैं. दुनिया की सब से बड़ी आर्थिक महाशक्ति होने के कारण आज पूरी दुनिया से लोग अमेरिका जाने का ख्वाब देखते हैं. बाहरी लोगों की मेहनत से ही अमेरिका बना है लेकिन जब से डोनाल्ड ट्रंप सत्ता में आए हैं उन्होंने घुसपैठियों के खिलाफ मोरचा खोल दिया है.

ट्रंप ने अवैध प्रवासियों को बड़े पैमाने पर देश से निकालने की शुरुआत की. इसी क्रम में 100 से अधिक भारतीय नागरिकों को बेहद शर्मनाक तरीके से डिपोर्ट कर दिया. ट्रंप ने शपथ लेते ही सब से पहले रिफ्यूजी रिसैटलमैंट प्रोग्राम को रद्द कर दिया और हजारों शरणार्थियों को अमेरिका से खदेड़ दिया.

अमेरिका में प्रवासियों के लिए इस वक्त हालात बुरे हैं. इस बीच भारतीयों के खिलाफ नस्लीय भेदभाव की घटनाएं भी बढ़ी हैं. प्रवासियों के खिलाफ ट्रंप की नीतियों से अमेरिकी समाज के अंदर दबी हुई ‘वाइट सुप्रीमेसी’ वाली नस्लीय मानसिकता ने एक बार फिर उभार मारना शुरू कर दिया है. इस का खमियाजा अमेरिका में बसे लोगों को भुगतना पड़ रहा है.

विदेश नीति से जुड़े भारत सरकार के तमाम दावों के बावजूद ट्रंप सरकार ने भारतीयों के साथ कोई रियायत नहीं बरती. ट्रंप भारतीयों को घुसपैठिया मान रहे हैं. यही कारण है कि भारतीयों के खिलाफ नस्लीय घटनाओं में भी तेजी आई है.

जौर्जिया में 3 भारतीय डाक्टरों (डा. कपिल पारीक, डा. ज्योति मानेकर और डा. अनिशा पटेल) ने नौर्थईस्ट जौर्जिया हैल्थ सिस्टम पर नस्लभेद का मुकदमा दायर किया है. इन डाक्टरों का आरोप है कि उन के भारतीय मूल के होने के कारण उन की कार्यक्षमता पर सवाल उठाए गए और उन के काम में जानबूझ कर रुकावटें डाली गईं. कुछ भारतीय डाक्टर्स पर बेहद संगीन आरोप भी लगे हैं. इन घटनाओं को अमेरिकी मीडिया ने व्यापक रूप से उछाला जिस से भारतीय मूल के डाक्टर्स के खिलाफ ऐसा माहौल बना कि सैकड़ों डाक्टर्स को अमेरिका छोड़ कर भारत आना पड़ रहा है.

न्यू जर्सी के डा. रितेश कालरा पर मरीजों को अवैध नशीली दवाएं (जैसे औक्सीकोडोन) देने और दवाओं के बदले यौन संबंध बनाने की मांग करने के आरोप लगे हैं. इस के अलावा, डा. उमैर एजाज पर महिलाओं व बच्चों के नग्न वीडियो बनाने जैसे गंभीर आरोप हैं. इन मामलों ने भारतीय डाक्टरों की छवि को काफी नुकसान पहुंचाया है.

अमेरिका में 38 फीसदी डाक्टर भारतीय मूल के हैं. अगर अमेरिका में घुसपैठियों का मुद्दा और गरमाता है तो इस से सब से बड़ा नुकसान उन डाक्टरों को उठाना पड़ सकता है जिन्होंने बहुत मेहनत से अमेरिका में जगह बनाई है. अगर भारतीय मूल के डाक्टरों का यह हाल है तो जो भारतीय अमेरिका में छोटेमोटे कामों में लगे हैं उन्हें कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा होगा.

आगे का अंश बौक्स के बाद 

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घुसपैठियों के खिलाफ ईरान

ईरान ने महज 16 दिनों में 5 लाख से ज्यादा अफगान नागरिकों को देश से बाहर निकाल दिया है. यह कार्रवाई 24 जून से 9 जुलाई के बीच हुई है. यानी, हर दिन औसतन 30,000 से ज्यादा अफगानों को देश से निकाला गया. संयुक्त राष्ट्र ने इसे दशक की सब से बड़ी जबरन निकासी में से एक करार दिया है. इजराइल के साथ युद्ध के बाद देश की सुरक्षा के नाम पर ईरान ने यह कदम उठाया है.

अफगानिस्तान से बड़ी तादाद में बेरोजगार ईरान की ओर रुख करते हैं. अफगानिस्तान से निकलने वाले लोगों का यह माइग्रेशन दशकों से चल रहा है. कई अफगानी लोगों ने ईरान में दुकानें खोलीं तो कई छोटेमोटे रोजगार में लगे हुए थे. इन में बड़ी तादाद मजदूरों की थी जो अब वापस अफगान भेजे जा रहे हैं. एक मुसलिम देश को दूसरे देश के मुसलिम बरदाश्त नहीं लेकिन स्वीडेन जैसे गैरइसलामिक देशों ने इंसानियत दिखाते हुए मुसलिम देशों के आंतरिक कलह से बरबाद हुए लोगों को अपने देशों में शरण दी.

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माइग्रेशन को रोकना मानवता के विरुद्ध एक षड्यंत्र ही है

अफ्रीका से बाहर निकलने वाले पहले मानव प्रवास से ले कर आज तक के प्रवास में कोई विशेष अंतर नहीं है. 74 हजार साल पहले अफ्रीका से बाहर निकलने वाले लोगों को भी अवसरों की तलाश थी, आज भी लोग इसी कारण माइग्रेट करते हैं. पूरी दुनिया को माइग्रेट करने वाले लोगों ने ही बनाया और बसाया है. लेकिन आज राष्ट्रवाद की आड़ में देशों ने अपनीअपनी घेराबंदियां कर दीं हैं जिस से माइग्रेशन के द्वार बंद हो गए हैं. कहीं हजारों किलोमीटर लंबी कंटीली तार बिछा दी गई है तो कहीं ऊंची दीवारें खड़ी कर दी गई हैं.

हैरानी की बात यह है कि यह सब पहले से सभ्य मानी जानी वाली दुनिया में किया जा रहा है और लोगों को माइग्रेट करने से रोकने के लिए यह सब हो रहा है. क्या यह मानवता का हृस नहीं है? जो लोग किन्ही भी कारणों से देशविहीन हो गए हों, क्या उन्हें धरती पर रहने का हक नहीं है? 2 देशों की लड़ाई में विस्थापित होने वाले लोगों का ठिकाना क्या है?

अगर वे अपने परिवार की खातिर किसी दूसरी दुनिया की तलाश करें तो इस में गलत क्या है? अपने लिए थोड़ी सी जमीन की तलाश करते, इधरउधर भटकते परिवारों को घुसपैठिया कहें तो क्या यह सभ्यता की निशानी है?

इस धरती पर रहने वाले हर इंसान को दुनिया में कहीं भी रहने और बसने का अधिकार होना चाहिए. माइग्रेशन मानवता के इतिहास और उस के विकासक्रम का सब से जरूरी हिस्सा रहा है, इसे रोकना मानवता के विरुद्ध एक षड्यंत्र ही है. यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी आधुनिक और सभ्य दुनिया को बनाने व बसाने में उन लोगों का सब से बड़ा योगदान रहा है जिन्हें आज हम घुसपैठिया कहते हैं. Illegal Immigrants

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