Social Media : भारत में युवाओं को रील्स के जाल में फंसाने में सब से बड़ा हाथ सरकारों का ही है. क्योंकि युवाओं के लिए पेश किया गया सरकारों द्वारा यही आत्मनिर्भर भारत का मौडल है. हाथ में एक मोबाइल और इंटरनेट पर छा जाने का सपना. यही मेक इन इंडिया भी है और यही स्किल इंडिया भी.
क्या हो जब एक पूरी जेनरेशन एक ऐसे सपने को पाने के लिए खप जाए जिस के पूरे होने की उम्मीद न के बराबर हो? क्या हो जब युवा खुद की एनर्जी और समय ऐसे काम में खर्च करे जिस का भविष्य चंद महीनों या दिनों का हो? और अधिक संभावना यह हो कि भविष्य कुछ हो ही न. बात सोशल मीडिया की और इस में गहरे तक नप चुके युवाओं की.
भारत में सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है. रिपोर्ट की मानें तो इन की संख्या 25 लाख से अधिक है. कुछ और रिपोर्ट 40 लाख पार बताती हैं. ये युवा हर दिन उठ कर इसी उम्मीद में रील्स बनाए जा रहे हैं कि काश, सामने दिख रहे बड़े इंफ्लुएंसर की जिंदगी वे भी जी पाएं, काश एक वीडियो कैसे भी कर के वायरल हो जाए, इस के लिए चाहे जो कुछ करना हो फौलोवर्स बढ़ जाएं.
मगर हकीकत यही है कि रील्स बना कर कमाई करने की चाहत रखने वालों में से 90 फीसदी के करीब इंफ्लुएंसर्स ढेला भर भी नहीं कमा पा रहे हैं. जी, ढेला भर. ऐसी नपीतुली जानकारी बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप (बीसीजी) की एक रिसर्च में सामने आई है.
वेव्स समिट 2025 के अनुसार, भारत में तकरीबन 25 लाख इंफ्लुएंसर्स हैं, जिन के कम से कम 1,000 से अधिक फौलोअर्स हैं. लेकिन, इन में से बहुत कम ही अपनी क्रिएटिविटी से कमाई कर पाते हैं. वहीं मात्र 10 फीसदी इंफ्लुएंसर्स ही पैसा छाप रहे हैं. कमाई करने वाले ये इंफ्लुएंसर्स का प्रभाव बहुत बड़ा है. ये क्रिएटर्स देश के 30% से अधिक उपभोक्ताओं को प्रभावित कर रहे हैं और लगभग 33 लाख करोड़ के उपभोक्ता खर्च पर असर डालते हैं.
मगर इन के उलट बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की रिपोर्ट बताती है, कि भारत में करीब 50% नैनो और माइक्रो इंफ्लुएंसर्स हैं, जो 18,000 रुपए प्रति माह से भी कम कमाते हैं. देखा जाए तो एक इंफ्लुएंसर अकेला वीडियो नहीं बनाता, उस के साथ सहायक कलाकारों से ले कर, कैमरा संभालने वाला और एडिट करने वाला तक होते हैं. कम से कम 4 – 5 युवाओं की एक टीम रील्स बनाती है और 18000 रुपए प्रति माह से भी कम कमाती है.
उस पर तुर्रा यह कि इन रील्स को बनाने के लिए इन्हें नई नई लोकेशन, अच्छा फोन, ट्रेंड के हिसाब से नएनए या सेकंड हेंड कपड़े खरीदने होते हैं. ऐसे में सवाल यह कि बगैर प्रोडक्टिविटी वाली ये रील्स आखिर इन का या देश का क्या भला कर रही हैं? और अगर देश का युवा रील बनाने लगेगा तो औफिसों, कारखानों, रिसर्च सेंटरों, विद्यालयों, अस्पतालों में काम कौन करेगा?
बीसीजी की इस रिपोर्ट ने कंटेंट से कमाई करने वाले इंफ्लुएंसर्स को 6 खांचों में बांटा है. सब से बड़ा खांचा “द ट्रस्ट एंबेसेडर्स” की है. इस में 14 से 17 लाख नैनो क्रिएटर्स आते हैं. इन के 10,000 से 50,000 फौलोअर्स हैं. ये ब्रांड अवेयरनेस और कन्वर्जन दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. 4 से 6 लाख “निश क्रिएटर्स” हैं. ये किसी विशेष क्षेत्र में विशेषज्ञता रखते हैं. ये सीमित दर्शकों को बहुत प्रभावित करते हैं. वहीं “इनक्विजिटर्स” श्रेणी में 75,000 से 1 लाख क्रिएटर्स ऐसे हैं जो सवाल उठा कर चर्चा को जन्म देते हैं. “इन्फ्लुएंसर आइकन्स” श्रेणी के 60,000 से 80,000 क्रिएटर्स नए प्रोडक्ट्स के लिए उत्साह पैदा करने में माहिर हैं.
“डिसेमिनेटर्स” की श्रेणी में 10,000 से 15,000 क्रिएटर्स आते हैं जो बड़े स्तर पर लोगों तक जानकारी पहुंचाने का काम करते हैं. वहीं “ट्रेंड सेटर्स” श्रेणी के 2,000 से 4,000 क्रिएटर्स ब्रांड की विश्वसनीयता बनाए रखने और लौयल्टी बढ़ाने में सहायक होते हैं.
इन फेन्सी नामों को एक पल के लिए भूल भी जाएं तो सवाल खड़ा होता है कि युवा आखिर कर क्या रहा है? इन में सब से बड़ी संख्या उन की है जो चिंदी पैसों में अपने उस समय को जाया कर रहा है जिस में वह कुछ बुनियादी कामों को कर सकता था. समस्या इसी बड़ी संख्या की है जिन के पास कोई स्किल नहीं, न क्रिएटिविटी है, वह बस रील इसलिए बना रहा है क्योंकि सब बना रहे हैं.
यही युवा व्यूअर भी हैं और यही रीलमेकर्स भी. जिस उम्र में इन्हें दूसरे प्रोडक्टिव स्किल्स सीखने चाहिए थे, उस उम्र में इन का जीवन मोबाइल के इर्दगिर्द ही घूमने लगा है. समस्या यह भी है कि इन युवाओं को रील्स के जाल में फंसाने में सब से बड़ा हाथ सरकारों का ही है. क्योंकि युवाओं के लिए पेश किया गया सरकारों द्वारा यही आत्मनिर्भर भारत का मौडल है. हाथ में एक मोबाइल और इंटरनेट पर छा जाने का सपना. यही मेक इन इंडिया भी है और यही स्किल इंडिया भी.
इस से सरकारें अपनी जिम्मेदारियों से आसानी से पल्ला झाड़ लेती हैं. फिर क्यों ही अच्छी यूनिवर्सिटी और स्कूल चाहिए. क्यों ही बढ़िया रिसर्च सेंटर चाहिए? फिर क्यों ही देश को वैज्ञानिक और इनोवेटर चाहिए? भला रील बनाने में इन सब का क्या ही काम? यहां तक कि इन में से कुछ इंफ्लुएंसर्स को अवार्ड या विज्ञापन दे कर बाकी युवाओं की फौज को इस फील्ड में उतार आने का प्रोत्साहन भी सरकार ही देती है.
आज भारत टैकनोलोजी में अपने पड़ोसी देश चीन से मीलों पीछे है, इतना कि उस के वर्तमान तक पहुंचने में भारत को 20 साल खर्चने पड़ेंगे. कारण सीधा है, वहां की सरकार अपनी जीडीपी का ढाई प्रतिशत से ज्यादा रिसर्च डिवेलपमेंट में खर्च करती है, वहीं भारत लगभग 1 प्रतिशत से भी कम यानी 0.69 प्रतिशत खर्च करती है. चीन में जहां 25 लाख से अधिक रिसर्चर हैं, वहीं भारत में 9 लाख के आसपास ही हैं. करोड़ों की आबादी वाले देश में उंगलियों पर गिन सकने लायक ही आईआईटी हैं. और इस से बड़ी दिक्कत यह कि यहां से पढ़ कर निकलने वालों का सपना किसी बड़ी एमएनसी से जुड़ना होता है.
परिणाम यह कि वहां स्टार्टअप्स बड़ी संख्या में होते हैं और यहां उन स्टार्टअप्स के कंज्यूमर्स. वहां के युवा रील बनाने वाली एप्लीकेशन तैयार करते हैं और यहां उन रील्स पर नाचने वाले युवा तैयार हो रहे हैं. वहां प्रोडक्टिव फोर्स तैयार हो रही है यहां रील फोर्स.
कुछ महीने पहले ही चीन के आम से परिवार के 39 साल के लियांग ने डीपसीक एआई बना कर दुनियाभर को हिला दिया. यहां तक कि अमेरिकी शेयर बाजार में भारी हलचल मचा दी. समस्या यह है कि भारत में नेता ग्लोबल पावर बनने के लिए भाषण पर ज्यादा जोर देते हैं, न कि ग्लोबल पावर बनाने में. यही कारण भी है यहां युवा इनोवेशन के नाम पर रील बनाने तक ही सीमित रह गए हैं. वे हर एंगल से रील बना रहे हैं, हर तरह की रील बना रहे हैं, और जो नहीं बना रहे वे उन्हें अपने मोबाइल फोन से देख रहे हैं.