Hindi Story : जब श्रावणी घर से निकली तो सुबह के आठ बज रहे थे। साढ़े आठ बजे की ट्रेन थी। ट्रेन समय पर आने से, वह कक्षा शुरू होने से दस मिनट पहले कॉलेज पहुँच गई। डी.डी. की कक्षा के बाद, श्रावणी, पल्लवी और अनुरूप कैंटीन में जाकर बैठ गईं। अगली कक्षा मैडम की थी। मैडम तो छुट्टी पर थीं। मैडम को बच्चा होने वाला था। कक्षा रद्द नहीं होगी, वैकल्पिक रूप से एक अंशकालिक शिक्षक थे। डी.एम.। दीपक मंडल। कई लड़कियाँ उन्हें पीठ पीछे अंडा भी कहती थीं। वे तीनों यह कक्षा नहीं करती थीं।

दरअसल, उन्हें अच्छा नहीं लगता था। सवाल पूछने पर जवाब नहीं देते थे। पढ़ाने का तरीका भी नीरस था। इसलिए बस!
पल्लवी कैंटीन की रूपामसी से बोली:
-मासी, क्या सब्जी गरम होगी?
मासी हँसकर बोलीं- अभी तो उतरी है। कितने दूँ, बच्ची?
-दो-दो दे दो। सॉस और सलाद थोड़ा ज्यादा। पाँच नंबर टेबल पर।
-तीन तो हो।
-हाँ।
-तुम ले जाओ, बच्ची। काम करने वाला लड़का कुछ दिनों से नहीं आ रहा है। आज दोपहर को जाकर देखूँगी। बुखार-वखार तो नहीं हो गया।

खाते-खाते श्रावणी बोली- अगली कक्षा के.पी. की है। आज सब मिलकर पकड़ेंगे। समझी! नोट्स नहीं मिले तो दिक्कत होगी। केमिस्ट्री के पासिंग के लिए विस्तृत पढ़ाई की जरूरत नहीं है, सर के नोट्स रट लो, हो जाएगा।

अनुरूप भड़क उठी- श्रावणी, तू क्या है? कैंटीन में भी पढ़ाई की बातें। यहाँ सिर्फ खाना और प्रेम की बातें होंगी। समझी।

छह नंबर टेबल की दो लड़कियाँ उनकी बातें ध्यान से सुन रही थीं। वे धीरे से हँसीं। श्रावणी उठ गई। उन दोनों लड़कियों के सामने जाकर खड़ी हो गई। धीरे से हँसकर बोली- कौन से साल में हो?

-पहले साल में। उनमें से एक ने कहा।
-ओह! कौन से विषय?
दूसरी ने कहा- वह रेशमी है, उसकी बंगाली है। मैं रितु हूँ, मेरी हिस्ट्री है।
-मैं भी पहले साल में हूँ। फिजिक्स। ये मेरी सहेलियाँ हैं। पल्लवी और अनुरूप। हाथ बढ़ाकर दिखाया। वे भी फिजिक्स हैं। इतना कहकर श्रावणी ने हाथ आगे बढ़ाया।
-आज से हम दोस्त हैं, ठीक है!
वे फिर शरद ऋतु की नदी की तरह हँसीं।

तीन महीने कक्षाएँ हो गईं। श्रावणी को बहुत अच्छा लग रहा था। हर दिन कितने दोस्त बन रहे थे। ऑनर्स की पढ़ाई वैसे भी थोड़ी कठिन होती है। पढ़ाई पर थोड़ा और जोर देना होगा। कम से कम फर्स्ट डिवीजन तो चाहिए ही। वरना यूनिवर्सिटी कैसे जाऊँगी।

कॉलेज के बाद एक ट्यूशन है। वह स्टेशन के पास ही है। अयन चटर्जी। ऑनर्स की ट्यूशन। सप्ताह में तीन दिन। महीने में आठ सौ रुपये दक्षिणा। छोटे-छोटे बैचों में पढ़ाते हैं। पाँच-पाँच के बैच। उन्होंने अभी तक शादी नहीं की है।

अनुरूप फिर दूसरी बात कहती है, शादी नहीं की है, ऐसा नहीं है। पत्नी पागल है। इसलिए मायके में है।

वह गप्प मारने में माहिर है, लेकिन लड़की मिलनसार है। बातों में तेज है। ट्यूशन शुरू हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ था। अचानक बोल पड़ी- सर, आपने शादी नहीं की?

-नहीं। अचानक इस विषय में जिज्ञासा!
-नहीं, बस ऐसे ही!
-ओह, तो यह बात है।
-खाना खुद बनाते हैं?
-खाना बनाना आता तो अच्छा होता।
-किसी तरह होटल में काम चला लेता हूँ।
-रसोईया भी रख सकते हैं।
-रख सकता हूँ, लेकिन उन झंझटों से दूर रहना ही अच्छा है।
-दिक्कत नहीं होती?
-शुरुआत में होती थी, अब नहीं होती।
पल्लवी इशारे से कहने की कोशिश कर रही थी, अनुरूप, यह क्या हो रहा है? अनुरूप को कोई परवाह नहीं थी।
-आपकी उम्र बहुत कम है। शादी कर लीजिए।
-सोच तो रहा हूँ। लेकिन! सर हँसे।
-लेकिन क्या! जल्दी कीजिए। हमें भी एक पार्टी मिल जाएगी।
-इस जन्म में तो नहीं हो रहा है। अगले जन्म में कोशिश करके देखूँगा।
सभी लोग हँस पड़े। बाहर आकर अनुरूप ने कहा, समझी श्रावणी, मैं सर को फँसा लूँगी, देखना। जाल तो डाल दिया है।
-तू कर सकती है।
-कर सकती हूँ, इसलिए तो कह रही हूँ। तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा?
पल्लवी ने कहा, बुरा तो थोड़ा लगेगा ही, लेकिन क्या कर सकते हैं।

ट्यूशन खत्म होते ही काफी देर हो गई। दरअसल, थर्मोडायनामिक्स के नोट्स खत्म होते ही साढ़े पाँच बज गए। स्टेशन पहुँचने में पाँच मिनट लगते हैं। प्लेटफॉर्म पर पहुँचते ही ट्रेन छूट गई। यही शाम की ट्रेन थी। इसके बाद आखिरी ट्रेन साढ़े सात बजे है। कभी-कभी देर भी हो जाती है। लगभग दो घंटे इंतजार करना होगा। भूख भी लग रही थी। स्टेशन की कैंटीन में जाकर बैठी। एग टोस्ट और चाय। सिर हल्का लग रहा था। बाजार से स्टेशन की कैंटीन का खाना थोड़ा महंगा है। कैंटीन के लड़के से बोतल में पानी भरवाकर बाहर आ गई। मैगजीन के स्टॉल से एक साइंस मैगजीन खरीदी। छह बजकर दस मिनट। घर पर फोन करना होगा। टेलीफोन बूथ में गई। बूथ के लड़के ने पूछा- लोकल कॉल या एस.टी.डी.!

-हाँ। लोकल।
-सामने वाले में जाइए।
-हेलो, माँ, मैं श्रावणी बोल रही हूँ।
-हाँ, बोलो।
-शाम की ट्रेन छूट गई।
-क्यों?
-ट्यूशन में देर हो गई।
-ओह, अच्छा, कुछ खाया है?
-हाँ। अगली ट्रेन से आ रही हूँ, नौ बजे तक पहुँच जाऊँगी।
-अच्छा ठीक है। सावधानी से आना।
वेटिंग रूम में बैठते ही आठ-दस साल का एक लड़का हाथ फैलाने आया।
-खुल्ले नहीं हैं, जाओ। किसी और दिन दूँगा।

लड़का खड़ा रहा। सामने बैठी एक महिला ने बैग से खुल्ले निकालकर एक रुपया दिया, तो लड़का दौड़कर चला गया। श्रावणी देखती रही। लाइन के उस पार जाकर लड़का रुक गया।

कुछ देर बाद एक छोटी बच्ची, उससे भी छोटी बच्ची को गोद में लेकर महिला के पास आकर खड़ी हो गई। उन्होंने दोनों को दो-दो रुपये दिए, तो वे चली गईं। कुछ दूर जाकर पहले वाला लड़का आकर रास्ता रोककर खड़ा हो गया। देखना चाहता था कितने हैं? हाथ खोलकर दिखाते ही रुपये छीनकर भाग गया। और बच्ची खड़ी-खड़ी रोने लगी। इस तरह के दृश्य श्रावणी अक्सर देखती है। उन्हें देखकर ही पता चलता है कि कितने दिनों से नहाए नहीं हैं। खाना शायद मिल जाता है। शिक्षा! स्वास्थ्य! इसी तरह वे बड़े होते हैं। फिर…

मैगजीन के पन्ने पलट रहे थे। अब पढ़ने का मन नहीं कर रहा था। बैग में रख लिया। टॉयलेट से होकर आना होगा। टॉयलेट से बाहर आते ही घोषणा सुनाई दी, ट्रेन तीन नंबर प्लेटफॉर्म पर आ रही है।

ट्रेन से उतरते ही घड़ी देखी, आठ बजकर पच्चीस मिनट। रिमझिम बारिश हो रही थी। छाता भी नहीं लाई थी। ऊपर से बिजली भी नहीं थी। प्लेटफॉर्म से निकलते ही रिक्शा लेने का फैसला किया।

-दादा, रवींद्रपल्ली जाओगे?
-रिक्शावाले ने कहा, बीस रुपये लगेंगे।
-दिन में तो दस रुपये देती हूँ।
-वह भड़क गया।
-दस में नहीं होगा। दूसरा देख लो।
-सामने वाले रिक्शावाले ने बुलाया, बैठो, बैठो। दस में ले चलूँगा।
-श्रावणी बैठ गई। चौक बाजार आते ही, उसने पान की दुकान से बीड़ी और माचिस खरीदी। कुछ दूर जाते ही लगा कि रिक्शा दूसरी तरफ जा रहा है।
श्रावणी ने कहा, दादा, रास्ता तो जानते हो?
-जानता हूँ, जानता हूँ। बहुत जानता हूँ। चुपचाप बैठी रहो।

बारिश अभी भी नहीं रुकी थी। बीच-बीच में बिजली चमक रही थी। बिजली की चमक में देखा कि रिक्शा कच्चे रास्ते पर चल रहा है। श्रावणी चिल्ला पड़ी- रिक्शा घुमाओ। मुझे रवींद्रपल्ली जाना है।

रिक्शा रुक गया। वह उसकी तरफ बढ़ रहा था। अलकतरा जैसा गहरा अंधेरा। रिमझिम बारिश और झींगुरों और मेंढकों की आवाज। डर से गले से आवाज नहीं निकल रही थी।

तभी, दूर से एक रोशनी चमकी, और उसने अयन सर का चेहरा देखा। वह उसे ढूँढते हुए आए थे। उनकी आँखों में चिंता और प्यार का मिश्रण था। उन्होंने उसे रिक्शावाले के चंगुल से बचाया और सुरक्षित घर पहुँचाया।

घर पहुंचकर, श्रावणी ने महसूस किया कि अयन सर का साथ उसके लिए कितना महत्वपूर्ण है। उनकी देखभाल और प्यार ने उसके दिल में एक नई उम्मीद जगाई। अगली सुबह, अयन सर उसे कॉलेज लेने आए, और उन्होंने एक साथ दिन बिताया। उन्होंने एक-दूसरे के साथ अपने सपने और आशाएँ साझा कीं।

श्रावणी ने महसूस किया कि अयन सर के साथ, उसका जीवन एक नया मोड़ ले रहा है। उनकी दोस्ती प्यार में बदल गई, और उन्होंने एक साथ एक सुंदर भविष्य की कल्पना की। अठारह साल के चाँद की तरह, उनका प्यार भी चमक रहा था।

उस रात, वे एक-दूसरे की बाहों में खो गए, उनके शरीर गर्मी और प्यार में मिल गए। जैसे अठारह साल का चाँद उनके प्यार की बाढ़ में पिघल रहा था। यहाँ कोई मंदी नहीं है। कोई अशांति नहीं है। दो शरीर अनंत प्रेम के वातावरण में एक साथ विलीन हो गए हैं। मानो चाँद पर चाँद लगा हो।

लेखक : बिस्वजीत लायेक

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