Superstition : जो विश्वास तर्क पर आधारित नहीं, वह रेत पर बने घर के समान है, जो समय की कसौटी पर टिक नहीं सकता.

तीन मित्र- 2 महिलाएं और एक पुरुष-लोनावला के तुंगार्ली जंगल और बांध की सैर के बाद लौट रहे थे. संकरे और क्षतिग्रस्त रास्ते पर उखड़े हुए पत्थरों पर से उन की एसयूवी धीरेधीरे आगे बढ़ रही थी. रास्ते में स्कूल यूनिफौर्म पहने कुछ लड़कियां शायद तुंगार्ली बांध के आगे राजमाची गांव को लौट रही थीं. वहीं, बांध से रिसने वाले पानी का एक छोटा सा सोता फूट पड़ा था, जिस में से एक लड़की पीने के पानी की बोतल भर रही थी.

2 आदिवासी महिलाएं सिर पर लकड़ी के गट्ठर उठाए सड़क पार करने के लिए उन की गाड़ी के गुजरने का इंतजार कर रही थीं. उन के फटे हुए कपड़े, कृशकाय शरीर और धूप से जली गहरी त्वचा देख कर सैलानियों का दिल करुणा से भर आया.

पुरुष ने गाड़ी रोक कर उन्हें रास्ता पार करने का इशारा किया और अपने मित्रों से बोला, ‘‘यहां तो समय ठहर गया है. ये लोग जैसे पचास या सौ साल पहले की जिंदगी जी रहे हैं.’’

एक महिला ने दार्शनिक लहजे में कहा, ‘‘यह तो महज संयोग है कि उन्हें गरीबी में जन्म मिला और हमें खातेपीते घरों में. यह संभव है कि हम ‘वह’ होते और वे ‘हम’. इसलिए हमारा अपने जीवन पर गर्व करना बेकार है.’’

दूसरी महिला ने तुरंत जोड़ा, ‘‘यह पूर्वजन्म के कर्मों का फल है.’’ फिर इसी विषय पर तीनों में गंभीर चर्चा शुरू हो गई.

पहली महिला की व्याख्या- संयोग या गणितीय प्रायिकता (संभावना) वैज्ञानिक आधार दर्शाती है, भले ही जन्म और मृत्यु विज्ञान के लिए आज भी गूढ़ रहस्य बने हुए हैं. लेकिन ‘पूर्वजन्म के कर्म’ वाली व्याख्या अकसर धार्मिक चर्चाओं में सुनाई देती है. तीनों मित्रों को यह विचार बेमानी लगा कि सिर पर लकड़ी ढोती गरीब महिलाएं पिछले जन्म के पापों का फल भुगत रही हैं. न्याय की बात करें तो अपराध का विवरण सुने बिना दंड मिलना अनुचित है. क्या धर्म के पुरोहित इन गरीबों को उन के कथित अपराधों का विवरण दे सकते हैं?

यह सवाल विज्ञानवादी को अंधविश्वासी से अलग करता है. वैज्ञानिक जानते हैं कि विज्ञान के पास हर प्रश्न का उत्तर नहीं है. इसलिए विज्ञानवादी में एक बौद्धिक विनम्रता होती है. धर्म का भी एक दार्शनिक दृष्टिकोण होता है, जो आस्था और तर्क के बीच एक विचारशीलता का पुल बनाता है. लेकिन आडंबरवादी पुरोहित ब्रह्मांड और जीवनमृत्यु के हर प्रश्न का उत्तर धर्म के ‘विश्वास’ के सहारे दे सकते हैं, भले ही वह तार्किक हो या न. इन की ‘पूर्वजन्म के कर्म’ जैसी व्याख्याओं ने भारतीय समाज पर गहरी छाप छोड़ी है. दुखों को पूर्वजन्म से जोड़ने के बाद समाज और सरकार का दायित्व खत्म हो जाता है और व्यक्ति भी अपनी दशा को पूर्वजन्म का परिणाम मान कर निष्क्रिय हो जाता है.

सैलानियों की गाड़ी अब पक्की सड़क पर पहुंच गई थी. चर्चा को समेटते हुए एक मित्र ने कहा, ‘‘मन, बुद्धि और शरीर की दृष्टि से सारे मनुष्य लगभग समान ही होते हैं. फिर भी देश संपन्न या विपन्न होते हैं. अर्थात गरीबी के लिए गरीबों के पूर्वजन्म के कर्म नहीं, बल्कि समाज और समाज की चुनी हुई सरकारों के बुरे कर्म जिम्मेदार हैं.’’ सच ही है, भारतीय समाज में बदलाव की गति बहुत धीमी है.

आज 21वीं सदी में भी हम जातिवाद और चिंताजनक स्तर तक बड़ी आर्थिक असमानता से जूझ रहे हैं. ‘पूर्वजन्म के कर्म’ जैसी मान्यताएं इन समस्याओं को सहारा देती हैं.

पुर्नजन्म में कर्म का सिद्धांत : बेवकूफ बनाने का जरिया

यह सच है कि व्यक्ति के कर्म उस के वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करते हैं. एक अच्छा बीज (अच्छे कर्म) ही एक स्वस्थ पौधा (अच्छा भविष्य) बनाएगा. लेकिन इस का यह अर्थ नहीं कि हम बिना किसी प्रमाण के पुनर्जन्म या पूर्वजन्म के कर्मों को स्वीकार कर लें. मूलतया धर्मों का कर्म सिद्धांत न नैतिकता और उत्तरदायित्व को प्रोत्साहित करता है और न ही व्यावहारिक है. इस का उद्देश्य केवल एक है और वह है धर्म के कल्पित भगवान के अस्तित्व को स्थापित करना.

धर्मों के भक्त जब अपने साथ हो रहे भेदभाव की शिकायत करते हैं कि भगवान यह भेदभाव कैसे स्वीकार करता है तो हिंदू धर्म के एजेंट कह देते हैं कि यह पिछले जन्मों का फल है जबकि ईसाई और मुसलिम मरने के बाद स्वर्ग में पुनर्जन्म होने की कहानी सुना देते हैं. धर्मों की इन बातों को निश्चित रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता पर आस्था के मामले में धर्म के एजेंटों की बात अंतिम मान ली जाती है.

नैतिकता अवश्य एक महत्त्वपूर्ण कौन्सैप्ट है जिस का एक अर्थ यह है कि व्यक्ति जो कार्य करे, उस का और उस के परिणामों का पूरा उत्तरदायित्व भी ले. आसान शब्दों में कहें तो राह जीवन की हो या शहर की, अगर किसी ने लालबत्ती को लांघा हो तो जुर्माना भी सिर उठा कर भरे. आखिर, हर गलती सीख भी तो दे जाती है. यह कर्म का सिद्धांत नहीं है, बल्कि कानून का और नैतिकता का है.

विज्ञान दुनिया की सब से खुली किताब है जिस में लिखने, पढ़ने व समझने और उस में प्रश्नचिह्न लगाने का अधिकार हर व्यक्ति को है.

आधीअधूरी जानकारी

कुछ शोधकर्ताओं (जैसे डा. वौल्टर सेमकिव) ने बच्चों द्वारा पूर्वजन्म की यादों के दावों का समर्थन किया है. उन के उद्देश्य पर तो संदेह नहीं लेकिन उन के निष्कर्ष वैज्ञानिक कसौटी पर खरे नहीं उतरते. अधिकतर वैज्ञानिक उन्हें मनोवैज्ञानिक स्थितियों, जैसे क्रिप्टोम्नेसिया (अवचेतन स्मृति) या सुझाव का परिणाम मानते हैं. दूसरी ओर, धर्म और पुरोहित ‘पूर्वजन्म’ की व्याख्या को बिना किसी तर्क के पवित्र ग्रंथों के आधार पर करते हैं. धार्मिक कथाओं की जटिल व्याख्या कई बार आम लोगों के लिए कठिन हो जाती है, जिस से वे अनजाने में अंधविश्वास का शिकार हो जाते हैं. जब तक ठोस प्रमाण न मिले, पुनर्जन्म और पूर्वजन्म के कर्मों पर विश्वास करना अंधविश्वास ही रहेगा.

हमारे सैलानियों की चर्चा का रुख अचानक पुनर्जन्म से भविष्य की ओर मुड़ गया था. वे लंच के लिए लोनावला के एक प्रसिद्ध होटल में पहुंचे थे. खाली टेबल का इंतजार करते हुए एक अखबार के ज्योतिष/भविष्य वाले पन्ने को देखते हुए एक महिला ने मुसकरा कर कहा, ‘‘देखें, आज हमारे 140 करोड़ देशवासियों का भविष्य क्या है?’’ तीनों मित्र हंस पड़े. यह उन अखबारों और ज्योतिषियों पर एक व्यंग्य था जो जन्मदिन के आधार पर रची गई 12 राशियों द्वारा दुनिया के 800 करोड़ लोगों का भाग्य रोज बताने का दावा करते हैं.

ज्योतिष एक रुढ़ि है और सभी ज्योतिषी रुढ़िवादी हैं. लेकिन अब उन की भाषा परिष्कृत हो गई है, जैसे आज आप का आशावाद आप को परेशानियों से दूर ले जाएगा. इस प्रत्यक्ष सत्य को जानने के लिए ज्योतिष विद्या जरूरी नहीं, यह जानते हुए भी शिक्षित लोग भविष्यफल वाले पन्ने की ओर आकृष्ट हो ही जाते हैं; हमारे शिक्षित सैलानी भी हुए. क्या आश्चर्य कि मुखपृष्ठ पर बड़े गर्व से ‘स्था:1838’ छापने वाला अखबार पिछले 186 वर्षों से हर रोज पाठकों को राशिफल से अनुग्रहीत करता है. मनुष्य हर दिन जन्म लेते हैं, अर्थात (हमारे ज्योतिषियों के अनुसार) एक ही राशि में जन्मे दुनिया के लगभग 67 करोड़ लोग (या 800 करोड़ का 12वां हिस्सा) हर रोज एक ही भाग्य साझा करेंगे?

दार्शनिक कहते हैं, मनुष्य का सारा जीवन ‘इस पल में’ यानी वर्तमान काल में समाया हुआ है. बीते हुए कल को बदला नहीं जा सकता और आने वाले कल की, बस, कल्पना की जा सकती है. हां, भूतकाल के अनुभवों (जिन में ‘पूर्वजन्म’ के अनुभव निश्चित ही शामिल नहीं हैं) से आने वाले कल को संवारा जा सकता है पर भविष्य की अनिश्चितता जीवन की एक सच्चाई है और जीने का प्रमुख आकर्षण, कुतूहल और रोमांच भी. बल्कि किसी ने कहा है कि सच्चाई कल्पना से भी ज्यादा विलक्षण होती है.

आखिर एक मेज खाली हुई और मित्रों का लंच शुरू हुआ. बातचीत अब गुजराती? व मराठी पाककला पर केंद्रित थी. खाने के बाद मीठा पान प्रस्तुत किया गया. बिल चुका कर तीनों यात्री महानगर की ओर चल दिए. तब तक शायद तुंगार्ली की लकड़ी ढोने वाली महिलाएं भी घर पहुंच कर भोजन कर चुकी होंगी. उन का भोजन बिलकुल अलग ढंग का होगा हालांकि कड़ी मेहनत के बाद स्वादिष्ठ जरूर लगा होगा. सब दिन एक से नहीं होते. आज नहीं तो कल देश की प्रगति में उन का न्यायपूर्ण हिस्सा उन्हें मिलेगा और कोई सुबह उन के जीवन में संपन्नता की बहार जरूर लाएगी.

गाड़ी अब एक्सप्रैसवे पर सरपट दौड़ रही थी. एफएम रेडियो पर नएपुराने गीत बज रहे थे. उन में यह सुप्रसिद्ध गीत भी था- ‘जिंदगी कैसी है पहेली, कभी तो हंसाए, कभी यह रुलाए…’ हम सामान्य लोग कुछ अधिक नहीं तो अपने कर्मों से किसी न किसी तरह दूसरों के जीवन को बेहतर जरूर बना सकते हैं. शायद, यही मानवीयता का सार है.

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