Shyam Benegal : एक बार हार्वर्ड बिजनैस स्कूल के एक इंटरव्यू में श्याम बेनेगल ने कहा था, ‘‘मैं ने हमेशा महसूस किया है कि भारतीय ग्रामीण इलाकों को भारतीय सिनेमा में कभी भी ठीक से प्रस्तुत नहीं किया गया. अगर आप वास्तव में भारतीय मानस को समझना चाहते हैं तो आप को ग्रामीण भारत को देखना होगा.’’
अब आप सोचिए कि श्याम बेनेगल जैसे उच्च शिक्षित फिल्मकार किस तरह के विचार रखते थे. श्याम बेनेगल के यह महज विचार नहीं थे, बल्कि वे इन्हीं विचारों के साथ भारतीय सिनेमा में इन सारी बातों को सदैव रखते थे. उन की डाक्यूमैंट्री हो या एड फिल्म या हो फीचर फिल्म, उन्होंने ग्रामीण व गरीब की बात को सर्वाधिक सशक्त अंदाज में पेश किया.
इन दिनों संविधान का मुद्दा काफी गरमाया हुआ है. जबकि, श्याम बेनेगल ने 2014 में ही ‘संविधान’ नामक 10 एपिसोड का एक सीरियल बनाया था. हर एपिसोड की अवधि 52 मिनट थी. यह सीरियल डाक्यूमैंट्री फौर्म में राज्यसभा टीवी पर 2 मार्च, 2014 से 4 मई, 2014 तक प्रसारित हुआ था. वहीं, श्याम बेनेगल ने 53 एपिसोड का सीरियल ‘भारत एक खोज’ 1988 में बनाया था.
श्याम बेनेगल ने ‘भारत एक खोज’ के माध्यम से भारतीय सिनेमा को नई दिशा दी. ‘भारत एक खोज’ में भी महाभारत की कहानी है, कृष्ण भी है. इस के बावजूद इस में धर्म नहीं बल्कि भारतीय सभ्यता, संस्कृति, पहनावा आदि नजर आता है. उसी दौर में बलदेव राज चोपड़ा उर्फ बी आर चोपड़ा ने ‘महाभारत’ सीरियल को पूरी तरह से धार्मिक अंदाज में पेश किया था. बी आर चोपड़ा की ‘महाभारत’ के किरदार राजा रवि वर्मा के कलेंडर की भांति नजर आते हैं, जबकि श्याम बेनेगल के ‘महाभारत’ के किरदार वैसे नजर नहीं आते. यह है सोच का अंतर. यह है देश की बेहतरीन समझ रखने का नतीजा.
अपनी फिल्मों के माध्यम से उन्होंने एक ऐसा सिनेमा प्रस्तुत किया जो न केवल देश की वास्तविकताओं पर आधारित था बल्कि इस की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक जटिलताओं को भी गहराई से दर्शाता था. उन के कार्यों ने जाति, वर्ग, लिंग और शक्ति के मुद्दों को एक दुर्लभ संवेदनशीलता के साथ संबोधित किया, जिस से दर्शकों को उन के आसपास की दुनिया पर एक निसंकोच नजर डालने का मौका मिला.
श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों में महिलाओं को केंद्र में रखते हुए उन्हें सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने की अनुमति दी. उन की फिल्मों ने महिलाओं के आंतरिक जीवन, संघर्ष और आकांक्षाओं का पता लगाया, जिन से वे भारतीय सिनेमा में नारीवादी कहानी कहने की अग्रणी बन गईं.
बेनेगल हमेशा महिलाओं को नायक के रूप में चित्रित करने के प्रति दृढ़ संकल्पित रहे. यह वह दौर था जब मुख्यधारा की हिंदी फिल्में अकसर महिलाओं को सहायक पत्नियों, बलिदान देने वाली माताओं या सजावटी प्रेमरुचियों की भूमिकाओं तक सीमित कर देती थीं.
भारतीय सिनेमा की सब से बड़ी कमजोर कड़ी यह है कि हमारे यहां फिल्मकार की बात को गहराई से समझने के बजाय उस की एकदो फिल्में देख कर उसे कई तरह के ‘वाद’ में विभाजित कर देते हैं. श्याम बेनेगल की फिल्म ‘अंकुर’, निशांत’, ‘मंथन’ व ‘भूमिका’ को देख कर उन पर साम्यवादी होने का आरोप मढ़ कर उन्हें एक अलग हाशिए पर डाल दूसरे फिल्मकार खुद मेनस्ट्रीम सिनेमा का अगुआ होने का राग आलापते रहे.
ऐसे लोगों पर कटाक्ष करते हुए मशहूर रंगकर्मी, निर्देशक व कौस्ट्यूम डिजाइनर, जिन्होंने श्याम बेनेगल के सीरियल ‘भारत एक खोज’ के अलावा ‘सरदार पटेल’ व ‘अतर्नाद’ जैसी फिल्मों में कौस्ट्यूम डिजाइनिंग की, कहते हैं, ‘‘क्या गरीबों की बात करना, मजदूरों की बात करना, शोषित व पीड़ितों के सामाजिक मुद्दे फिल्मों में उठाना साम्यवाद है?’’
श्याम बेनेगल को समानांतर सिनेमा या कला सिनेमा का अग्रणी माना गया और बौलीवुड में मेनस्ट्रीम सिनेमा से जुड़े फिल्मकार कला या समानांतर सिनेमा के फिल्मकारों व उन की फिल्मों में अभिनय करने वाले कलाकारों के साथ अछूत जैसा व्यवहार करते रहें. जबकि ऐसे ही मेनस्ट्रीम के फिल्मकारों ने अपनी असफलता को सफलता में बदलने के लिए श्याम बेनेगल द्वारा अपनी फिल्मों के माध्यम से स्टार व लोकप्रिय कलाकार बनाए गए शबाना आजमी, नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी आदि के आगे नतमस्तक होने पर क्यों मजबूर हुए?
श्याम बेनेगल ने अपनी सोचसमझ व विचारों के अनुरूप ही ‘जुबैदा’, कलियुग’ और ‘जुनून’ जैसी फिल्में बनाई, जिन्हें लोग कमर्शियल या यों कहें कि मेनस्ट्रीम सिनेमा मानते हैं, पर उन की नजर में आज भी श्याम बेनेगल कला या सामानांतर सिनेमा के फिल्मकार ही हैं? ऐसा क्यों, इस तरह की सोच के असल में कौन हैं जिम्मेदार? इस पर सभी को सोचविचार करने की जरूरत है.
क्या यह सच नहीं है कि श्याम बेनेगल ने जिन कहानियों को अपने सिनेमा में परोसा उन्हीं कहानियों ने देश की सिनेमाई पहचान को एक नया आकार दिया. श्याम बेनेगल की प्रतिभा को पहचान उन की पहली ही फिल्म ‘अंकुर’ से देखने को मिली जब उन की इस फिल्म के प्रदर्शित होते ही 40 से ज्यादा अवार्ड और 3 राष्ट्रीय पुरस्कारों से इस को नवाजा गया.
कुछ लोग मानते हैं कि श्याम बेनेगल सदैव धारा के विपरीत बहने का प्रयास करते हुए अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल हुए. पर यह बात हमारी समझ से परे है. माना कि 70 के दशक में तथाकथित हिंदी मेनस्ट्रीम सिनेमा खुद को चकनाचूर होते नहीं देख पा रहा था और वह गुस्से से हथियार हाथ में ले चलने लगा था. मगर इस तरह के मेनस्ट्रीम सिनेमा में गीतसंगीत, पेड़ के इर्दगिर्द नृत्य व रोमांटिक कहानियों का चस्का भी परोसा जा रहा था.
इस तरह की फिल्मों में हीरो व हीरोईन चिकनेचुपड़े थे. कुलमिला कर यह सिनेमा ग्रामीण पृष्ठभूमि से परे महानगरी पृष्ठभूमि के करीब था. माना कि एंग्रीयंगमैन के नाम से मशहूर अमिताभ बच्चन सिनेमाप्रेमियों के दिलोदिमाग पर छा चुके थे. पर इस के पीछे प्रचारतंत्र का भी बहुत बड़ा योगदान था.
भारतीय इतिहास में 70 का दशक राजनीतिक अशांति, आर्थिक संघर्ष और तेजी से सामाजिक परिवर्तनों से चिह्नित एक अशांत युग था, तब श्याम बेनेगल ने एक राष्ट्र की अपनी पहचान के साथ आने वाली आकांक्षाओं और चिंताओं को आवाज दी. उन्होंने मेनस्ट्रीम सिनेमा के फिल्मकारों की तरह पलायनवाद का रास्ता नहीं इख्तियार किया.
उसी दौर में डाक्यूमैंट्री व एड फिल्म बनाने में व्यस्त श्याम बेनेगल को एहसास हुआ कि जिस दर्द को वे बचपन से महसूस करते आए हैं वह बेचारगी, ग्रामीणों का शोषण आदि की तो बात न की जा कर सिर्फ सपने बेचे जा रहे हैं. यह सिनेमा हमारे देश की तसवीर पेश करने के बजाय दर्शक और हर आम इंसान को पलायनवादी बना रहा है. तब उन्होंने एक अतिसाधारण कहानी ‘अंकुर’ लिख कर उस कहानी के किरदारों में अनजान चेहरों शबाना आजमी व अनंत नाग को पिरो कर हैदराबाद में जा कर फिल्माया.
श्याम बेनेगल की यह कहानी 1950 के हैदराबाद में घटित एक सत्य घटनाक्रम से प्रेरित होने के साथ ही सामंतवाद की मुखालफत करती है. इस फिल्म के अंत में एक दृश्य है, जिस में एक छोटा बच्चा, सूर्या के घर की कांच की खिड़की पर पत्थर फेंक कर भाग जाता है. इस दृश्य को लोग भुला नहीं पाते.
सत्य घटना पर आधारित फिल्म ‘अंकुर’ मानवी व्यवहार का विश्लेषण करती अति जटिल फिल्म है. कहानी के केंद्र में दो किरदार लक्ष्मी और सूर्या हैं जिन का सामाजिक स्तर विरोधाभासी है. फिल्म में श्याम बेनेगल ने जातिगत मतभेदों, जातिगत पूर्वाग्रहों के साथ ही सामंतवादी सोच व यौन उत्पीड़न के मुद्दे को पूरी गंभीरता से उठाया है.
दलित जाति से संबंध रखने वाली लक्ष्मी (शबाना आजमी) अपने बहरे व गूंगे, शराबी व अतिगरीब कुम्हार पति किश्तय्या (साधु मेहर) के साथ एक गांव में रहती है. लक्ष्मी की अपनी जिंदगी में एकमात्र इच्छा एक बच्चे की मां बनना है. उधर गांव के जमींदार के शहर में पढ़ाई कर वापस लौटे बेटे सूर्या (अनंत नाग) की अपनी समस्याएं हैं.
सूर्या के पिता (खादर अली बेग) की कौशल्या नामक मालकिन है, जिस से उस का नाजायज बेटा प्रताप है. सूर्या के पिता का दावा है कि उन्होंने कौशल्या को ‘गांव की सब से अच्छी जमीन’ प्यार के तोहफे के रूप में दी है. तो वहीं सूर्या को मजबूरन अपना विवाह नाबालिग सारू (प्रिया तेंदुलकर) से इस शर्त पर करना पड़ता है कि जब तक सारू यौवन में नहीं पहुंच जाती वह सारू के साथ यौनसंबंध स्थापित नहीं कर सकता.
सूर्या अनिच्छा से गांव में अपनी जमीन पर बने पुराने घर में अकेले रहने चला जाता है. लक्ष्मी और किश्तय्या उस के नौकर होते हैं. सूर्या पहली मुलाकात में ही लक्ष्मी की ओर आकर्षित होने लगता है और उसे अपना खाना पकाने व चाय परोसने का काम देता है. इस से गांव के पुजारी नाराज होते हैं.
अब तक पारंपरिक रूप से जमींदार को भोजन पहुंचाने का काम पुजारी ही करते रहे हैं. उधर, सूर्या किश्तय्या को अपनी बैलगाड़ी चलाने के लिए रखता है और किश्तय्या की अनुपस्थिति में वह लक्ष्मी संग शारीरिक संबंध स्थापित करता है. गांव में अफवाहें गरम हो जाती हैं कि बेटा सूर्या भी अपने पिता के ही नक्शेकदम पर चल रहा है.
शराबी किश्तय्या ताड़ी चुराते हुए पकड़ कर सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता है. तब वह शर्मिंदगी के चलते गांव छोड़ देता है. अब सूर्या व लक्ष्मी के बीच कोई नहीं रहता. दोनों एकसाथ सोते हैं. कुछ समय बाद सारू अपने पति के साथ रहने के लिए आ जाती है. सारू दलित लक्ष्मी को पसंद नहीं करती और उसे नौकरी से बाहर का रास्ता दिखा देती है.
सूर्या चुप रहता है क्योंकि गर्भधारण कर चुकी लक्ष्मी सूर्या के कहने पर भी गर्भपात करवाने से इनकार कर देती है. इसी बीच, किश्तय्या शराब की लत को छुड़ा कर वापस आता है, पर सूर्या अपने साथियों की मदद से उस पर कोड़े बरसाता है. लक्ष्मी अपने पति का बचाव करने के लिए दौड़ पड़ती है. वह गुस्से में सूर्या को कोसती है, फिर धीरेधीरे किश्तय्या के साथ घर लौटती है.
अंतिम दृश्य में जब सभी चले जाते हैं, तब एक छोटा बच्चा सूर्या की कांच की खिड़की पर पत्थर फेंकता है और भाग जाता है. यह दृश्य अपनेआप में बहुतकुछ कह जाता है.
निशांतः तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘बैन’ होने से बचाया था
फिल्म ‘अंकुर’ के बाद फिर हैदराबाद की ही एक सत्य घटनाक्रम यानी कि तेलंगाना के 1940 से 1950 के विद्रोह के खिलाफ सामंतवाद की आलोचना करने वाली फिल्म ‘निशांत’ बनाई थी, जिस में उन्होंने सामंतवाद के समय के दौरान ग्रामीण तबके की महिलाओं के यौन शोषण की बात की. जब श्याम बेनेगल ने अपनी इस फिल्म को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के पास पारित करने के लिए भेजा, तब तक देश में इमरजैंसी लग चुकी थी. उस वक्त सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल थे.
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी कि सैंसर बोर्ड ने ‘निशांत’ को बिना कट के प्रमाणपत्र देने का फैसला कर लिया था. लेकिन इस की भनक सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल तक पहुंच गई. माननीय मंत्री महोदय अपना सारा काम छोड़ कर हवाईजहाज पकड़ कर सीधे मुंबई पहुंच गए और सैंसर बोर्ड फिल्म को पारित किए जाने का प्रमाणपत्र श्याम बेनेगल को सौंपता, उस से पहले ही विद्याचरण शुक्ल ने फिल्म ‘निशांत’ देखी और इसे बैन करने का आदेश दे दिया.
देश में वह राजनीतिक उथलपुथल का दौर था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इसी के चलते काफी व्यस्त थीं. पर उन्हें जब पता चला कि ‘निशांत’ को बैन कर दिया गया है तो उन्होंने दिल्ली में एक निजी शो में फिल्म को देखा और फिर फिल्म को बैन किए जाने पर सवाल उठाते हुए कहा था, ‘‘इस से सरकार असंवेदनशील और तुच्छ प्रतीत होती है.’’ उस के बाद ‘निशांत’ पर बैन हट गया था. और श्याम बेनेगल का आत्मविश्वास बढ़ गया था.
मजेदार बात यह है कि बाद में इस फिल्म ने 1977 में हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता. इसे 1976 के कान्स फिल्म महोत्सव में पाल्मे डी’ओर के लिए प्रतिस्पर्धा करने के लिए चुना गया था. 1976 के लंदन फिल्म फैस्टिवल व 1977 के मेलबर्न इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल और 1977 के शिकागो इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में आमंत्रित किया गया था, जहां इसे गोल्डन प्लाक से सम्मानित किया गया था.
फिल्म ‘निशांत’ में जागीरदार व उन के बेटों के अत्याचार का चित्रण है. जागीरदार के बेटों ने प्रथा बना ली है कि वे गांव की किसी भी महिला को अपने साथ सोने के लिए मजबूर कर सकते हैं. गांव के नए टीचर की पत्नी सुशीला को भी वे उठा कर ले जाते हैं और जागीरदार के घर के अंदर उस के साथ हर दिन बलात्कार होता रहता है. शिक्षक पति पुलिस व प्रशासन हर जगह मदद मांगने जाता है, मदद नहीं मिलती, पर वह प्रयास कर सभी पीड़ितों को इकट्ठा करता है. संगठित ग्रामीण अपने उत्पीड़कों का वध करते हैं. ये उन्मादी ग्रामीण निर्दोष रुक्मिणी के साथसाथ सुशीला को भी मार डालते हैं, जिसे खुद उस का पति नहीं बचा पाता.
फिल्म ‘अंकुर’ और ‘निशांत’ की चर्चा करते हुए ब्रिटिश फिल्म और टैलीविजन अकादमी के साथ एक साक्षात्कार में बेनेगल ने कहा था, ‘‘ भारतीय महिला को हमेशा एक पीड़ित के रूप में चित्रित किया गया है. मैं इसे बदलना चाहता था.’’ यह कटु सत्य है. श्याम बेनेगल की फिल्में महिलाओं का अधिक प्रामाणिक प्रतिनिधित्व प्रस्तुत करने में सफल रहीं.
‘मंथन’ में जातिवाद का मुद्दा
इस के बाद श्याम बेनेगल ने 1976 में अमूल नामक दूध सहकारी आंदोलन के वर्गीस कूरियन की सलाह पर नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी, गिरीश कर्नाड और स्मिता पाटिल जैसे कलाकारों को ले कर फिल्म ‘मंथन’ का निर्माण किया, जिस के लिए वर्गीस कूरियन ने 5 लाख डेयरी किसानों से दोदो रुपए एकत्र कर दिए थे.
इस के बावजूद श्याम बेनेगल ने अपनी इस फिल्म में जाति व्यवस्था का अहम मुद्दा उठाया था. 48 साल बाद 2024 में ‘मंथन’ का फिर से कांस फिल्म फैस्टिवल में प्रदर्शन किया गया. इस फिल्म के लिए संयुक्त राष्ट्र ने श्याम बेनेगल और वर्गीज कुरियन को खासतौर पर सम्मानित करने के लिए बुलाया था.
इसे 1977 में हिंदी की सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था. इस के साथ ही इस फिल्म के शीर्षक गीत ‘मेरो गाम कथा परे…’ के लिए सिंगर प्रीति सागर को भी फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था.
सामंती पितृसत्तात्मक सोच व जातिवाद का विरोध करती फेमिनिस्ट फिल्म ‘भूमिका’
70 के दशक में भारतीय सिनेमा में पुरुषों और पुरुषप्रधान फिल्मों का वर्चस्व था. यह वह दौर था जब अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, शशि कपूर, धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा, डैनी जैसे कलाकारों के अभिनय का जलवा था और फिल्मों में महिला पात्र महज शोपीस या ग्लैमरगर्ल मात्र हुआ करती थीं.
ऐसे वक्त में श्याम बेनेगल ने महिलाओं की स्थिति व फेमिनिस्ट सोच वाली फिल्म ‘भूमिका’ बनाई. 11 नवंबर, 1977 को रिलीज हुई यह फिल्म मराठीभाषी अभिनेत्री हंसा वाडकर के जीवन पर लिखी बुक ‘सांगत्ये आइका’ से प्रेरित थी. इस में मराठी अभिनेत्री द्वारा अपनी स्वतंत्रता की खोज के साथ उस की सामाजिक अपेक्षाओं और व्यक्तिगत उथलपुथल का चित्रण किया गया है.
इस फिल्म में स्मिता पाटिल, अमोल पालेकर, अनंत नाग, नसीरुद्दीन शाह और अमरीश पुरी मुख्य किरदार में हैं. फिल्म की कहानी के केंद्र में इतना भर है कि एक नारी के जीवन में किस तरह से पुरुष आते हैं और जिस के चलते उस की जिंदगी में किस तरह के बदलाव आते हैं. किसी कलाकार के अस्तव्यस्त जीवन को ले कर इतनी बेहतरीन बायोपिक फिल्म अब तक कोई अन्य फिल्मकार नहीं बना पाया. यहां तक कि राज कुमार हिरानी ‘संजू’ और दक्षिण में नाग अश्विन ‘महानटी’ में भी फेल हो गए.
‘भूमिका’ फिल्म ने 2 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता. इसे कार्थेज फिल्म फैस्टिवल 1978, शिकागो फिल्म फैस्टिवल में आमंत्रित किया गया था, जहां इसे गोल्डन प्लाक 1978 से सम्मानित किया गया था. 1986 में इसे फैस्टिवल औफ इमेजेज, अल्जीरिया में आमंत्रित किया गया था.
श्याम बेनेगल ने इस फिल्म में जातिवाद और ‘नारी महज भोग्या’ के सिद्धांत का विरोध किया है. तो इस फिल्म में भी सामंती पितृसत्तात्मक सोच का विरोध साफ नजर आता है. फिल्म में पत्नी द्वारा सौतन से कहा गया यह संवाद बहुतकुछ कह जाता है, ‘‘बिस्तर बदल जाते हैं, रसोई बदल जाती है, पुरुषों के मुखौटे बदल जाते हैं लेकिन पुरुष नहीं बदलते हैं.’’
‘भूमिका’ का निर्माण करते हुए श्याम बेनेगल ने बायोपिक फिल्म की शैली यानी कि पारंपरिक उत्थानपतनउदय का पालन नहीं किया. फिल्म में उन के जीवन के प्रमुख घटनाक्रमों का समावेश जरूर है. श्याम बेनेगल ने नारी को उस के हाल पर नहीं छोड़ा है बल्कि फिल्म के अंत में नायिका ऊषा की आंखें जल रही हैं और उस के होंठ एक कड़ी रेखा में खिंचे हुए हैं. वह पूरे दृढ़संकल्प के साथ खुद से वादा करती है, ‘अब मैं वही करूंगी जो मुझे अच्छा लगेगा.’
कोंडराः पितृसत्तात्मक समाज के नैतिक पाखंडों की बात
1978 में आई फिल्म ‘कोंडरा’ पितृसत्तात्मक समाज के सामाजिक और नैतिक पाखंडों की पड़ताल करती है. यहां बेनेगल ने महिलाओं को सौंपी गई प्रतिबंधात्मक भूमिकाओं और पुरुषप्रधान समाजों द्वारा नियंत्रण बनाए रखने के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में हेरफेर करने के तरीकों की आलोचना करने के लिए मिथक और लोककथाओं का उपयोग किया है.
‘कलियुग’ में पूंजीवाद और इंसानी कमजोरी पर प्रहार
1974 से 1980 तक श्याम बेनेगल ने जितनी भी फिल्में बनाईं, सभी फिल्में छोटे बजट की रहीं और इन सभी पर कला या समानांतर सिनेमा का ठप्पा लगता रहा. लेकिन 1981 में श्याम बेनेगल ने ‘कलियुग’ का निर्देशन किया, जिस का निर्माण मेनस्ट्रीम व कमर्शियल सिनेमा के अभिनेता व राज कपूर के भाई शशि कपूर ने किया था. इस फिल्म में राज बब्बर, शशि कपूर, सुप्रिया पाठक, अनंत नाग, रेखा, कुलभूषण खरबंदा, सुषमा सेठ जैसे दिग्गज कलाकारों ने अभिनय किया था.
श्याम बेनेगल ने भले ही शशि कपूर के लिए यह फिल्म बनाई थी मगर इस फिल्म में भी श्याम बेनेगल ने पूंजीवाद और मानवीय कमजोरी पर तीखा प्रहार करते हुए कलियुगी परिवार के बीच कारोबार को ले कर होने वाले विवाद और दुश्मनी की कहानी पेश की. ‘कलियुग’ को फिल्मफेयर का बेस्ट फिल्म अवार्ड मिला. इस के साथ ही ‘कलियुग’ उन 3 भारतीय फिल्मों में से एक थी जिन्हें अकादमी पुरस्कारों में नामित किया गया था.
1982 में प्रदर्शित फिल्म ‘आरोहण’ में किसानों की दुर्दशा का चित्रण किया.
मंडी: सफदेपोश चेहरे हुए बेनकाब
श्याम बेनेगल सिर्फ सभ्य समाज या आम इंसानों तक ही सीमित नहीं रहे. उन्होंने वेश्यायों की जिंदगी पर भी फिल्म बनाई, मगर आम फिल्मों से हट कर. हिंदी सिनेमा में तवायफों के जीवन को हमेशा ही बहुत ग्लैमराइज तरीके से दिखाया जाता रहा है. पर जब श्याम बेनेगल ने 1983 में वेश्यालय पर ‘मंडी’ बनाई तो उन्होंने तवायफों के जीवन के सच के साथ समाज के कई सफेदपोश चेहरों को भी बेनकाब किया.
इस फिल्म में बेनेगल समाज द्वारा अकसर कलंकित और खारिज की जाने वाली महिलाओं का मानवीयकरण कर के दर्शकों को अपने स्वयं के पूर्वाग्रहों और सामाजिक पाखंडों पर सवाल उठाने के लिए मजबूर करते हैं. शबाना आजमी, कुलभूषण खरबंदा, सईद जाफरी, नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी के अभिनय से सजी इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाजा गया था.
सुस्मानः नारी और आर्थिक चुनौतियां
बेनेगल ने अपनी फिल्मों में नारी के समक्ष आने वाले आर्थिक संकट और सामाजिक चुनौतियों पर भी खुल कर बात की. मसलन, 1987 में प्रदर्शित हथकरघा उद्योग के इर्दगिर्द घूमने वाली कहानी पर आधारित फिल्म ‘सुस्मान’. इस में हथकरघा उद्योग और कारीगरों के संघर्ष की मार्मिक दास्तान है. जबकि फिल्म मुख्यरूप से बुनकरों के आर्थिक शोषण पर केंद्रित है. यह प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच अपने परिवारों और समुदायों को बनाए रखने में महिलाओं की भूमिका पर भी रोशनी डालती है.
इन महिलाओं, जिन्हें अकसर स्वीकार नहीं किया जाता है, को अपने घरों की रीढ़ की हड्डी के रूप में चित्रित किया जाता है, जो श्रम और सामाजिक अपेक्षाओं के दोहरे बोझ से निबटती हैं. यों तो 10 साल पहले फिल्म ‘मंथन’ की श्वेतक्रांति में वे महिलाओं की भूमिका का चित्रण कर चुके थे. यह फिल्म दमनकारी व्यवस्थाओं को चुनौती देने और अपने अधिकारों का दावा करने में उन की सामूहिक शक्ति और लचीलेपन को प्रदर्शित करती है. ‘मंथन’ में नारी सशक्तीकरण के माध्यम से ही सहकारी आंदोलन को गति मिलती है.
सूरज का सातवां घोड़ाः साहित्यिक कहानी, मगर बहुत बड़ा राजनीतिक संदेश
श्याम बेनेगल ने साहित्य से भी परहेज नहीं किया. उन्होंने एनएफडीसी की मदद से धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘द सन्स सेवेंथ हौर्स’ पर आधारित फिल्म ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ बनाई. इस फिल्म में उन्होंने पारंपरिक सिनेमाई संरचनाओं को चुनौती दी. अभिनेता रजित कपूर, रघुवीर यादव, राजेश्वरी सचदेव, अमरीश पुरी, पल्लवी जोशी, नीना गुप्ता जैसे कलाकारों के अभिनय से सजी इस फिल्म ने 1993 में हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता था.
आत्मचिंतनशील शैली की इस फिल्म में कहानीकार मानेक मुल्ला (रजित कपूर) अपने दोस्तों को 3 महिलाओं की 3 कहानियां सुनाता है. जिन्हें वे अपने जीवन में अलगअलग समय पर जानते थे. राजेश्वरी सचदेव (मध्यवर्ग के लिए एक रूपक), पल्लवी जोशी (बौद्धिक और समृद्ध) और नीना गुप्ता (गरीब).
तीनों कहानियां एक ही कहानी के तीन अलगअलग पहलू हैं. इस कहानी में बताया गया है कि सूर्य के रथ को खींचने वाले सात घोड़ों की एक निर्धारित भूमिका तय होती है, लेकिन जो सब से कमजोर माना जाता है, वही भविष्य का प्रतिनिधित्व करता है. यह वही घोड़ा है जो लोगों को जीने की उम्मीद देता है.
श्याम बेनेगल ने ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ के माध्यम से इस बात पर रोशनी डालने का प्रयास किया कि किसी समूह या समाज में सब से निचला, सब से धीमा या सब से कमजोर ही समूह की गति या प्रगति निर्धारित करता है.
सरदारी बेगम: पितृसत्तात्मक समाज में पहचान तलाशती शास्त्रीय गायिका
ठुमरी गायिका के जीवन को चित्रित करती फिल्म ‘सरदारी बेगम’ एक शास्त्रीय गायिका की कहानी है जो कि सामाजिक बंधनों और व्यक्तिगत आकांक्षाओं से जूझती है. वह पितृसत्तात्मक समाज में अपनी अलग पहचान के लिए संघर्ष करती है. फिल्म में पारिवारिक रिश्तों, पीढ़ीगत और यौन राजनीति के साथसाथ सामाजिक रीतिरिवाजों पर भी चोट किया गया है. इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है. फिल्म में किरण खेर, अमरीश पुरी, रजित कपूर और राजेश्वरी सचदेव मुख्य भूमिका में हैं.
‘जुबैदा’: आजादखयालों वाली औरत का दर्द
2001 में श्याम बेनेगल ने फिल्म ‘जुबैदा’ में आजादखयालों वाली औरत की दुखद कहानी को परदे पर उतारा. जिस में प्यार, त्याग और महत्त्वाकांक्षा की एक मार्मिक खोज की गई. करिश्मा कपूर, मनोज वाजपेयी, सुरेखा सीकरी, रजत कपूर, लिलेट दुबे, अमरीश पुरी, फरीदा जलाल और शक्ति कपूर के अभिनय से सजी इस फिल्म को भी राष्ट्रीय पुरस्कार तथा करिश्मा कपूर को फिल्मफेयर अवार्ड मिला था.
इस तरह यदि श्याम बेनेगल की फिल्मों पर नजर दौड़ाई जाए तो एक ही बात उभ कर आती है कि श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों के माध्यम से हाशिए पर पड़े व निम्न लोगों को आवाज देने का प्रयास किया. वंचितों और वंचितों के जीवन पर केंद्रित कहानियों के माध्यम से वे आजीवन मुख्यधारा की कहानियों को चुनौती देते हुए विजयी बन कर उभरते रहे.
क्राउडफंडिंग का पहला सफल प्रयोग
इन दिनों ‘क्राउडफंडिंग’ शब्द काफी प्रचलित है. लेकिन सब से पहले श्याम बेनेगल ने ‘क्राउडफंडिंग’ से फिल्म ‘मंथन’ बनाई थी. वैसे उन्होंने ऐसा सीधे तौर पर नहीं किया था. यह फिल्म एनडीटीवी की थी, जिस के लिए दुग्ध व्यापार से जुड़े 5 लाख किसानों ने दोदो रुपए दिए थे. 1976 में दो रुपए की क्या कीमत थी, इस का एहसास किया जा सकता है.
मेनस्ट्रीम के फिल्मसर्जकों की तरह श्याम बेनेगल ने भारत को रोमांटिक बनाने के बजाय पूरे देश को उस के अल्पसंख्यकों और वंचित समुदायों के चश्मे से देखा. उन का सारा ध्यान ग्रामीण भारत, ग्रामीण इलाकों में मौजूद जातिवाद, आम इंसान के शोषण पर था और इसी को उन्होंने अपनी फिल्म में मुद्दा बनाया. उन्होंने वर्ग असमानताओं का एक स्पष्ट चित्रण पेश किया.
तभी एक बार फिल्म समीक्षक चिदानंद दासगुप्ता ने लिखा था, “’सत्यजीत रे के विपरीत, बेनेगल के काम ने जानबूझ कर किसी का पक्ष लिया और पात्रों को उत्पीड़कों और उत्पीड़ितों में विभाजित कर दिया. उन का यथार्थवाद अडिग था और सरलीकृत समाधान पेश करने से इनकार करता था.’’
नेहरूवाद से प्रेरित
बेनेगल की शुरुआती फिल्मों में तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों का चित्रण रहा, जिस के चलते उन पर नेहरूवादी होने के आरोप भी लगे. 1976 में फिल्म ‘मंथन’ ने सहकारी डेयरी आंदोलन का जश्न मनाया. तो वहीं पूरे 20 साल बाद 1996 में आई फिल्म ‘द मेकिंग औफ द महात्मा’ ने दक्षिण अफ्रीका में गांधी के प्रारंभिक वर्षों और उन के अहिंसा के दर्शन के विकास का पता लगाती है. श्याम बेनेगल ने महात्मा गांधी को देवता मानने के बजाय एक ऐसे इंसान के रूप में पेश किया जो उन की परिस्थितियों, व्यक्तिगत संघर्षों और उत्पीड़ितों के साथ बातचीत से आकार लेता है. गांधी की नैतिक दुविधाओं और विकसित होती रणनीतियों पर फिल्म का जोर नेतृत्व में अनुकूलनशीलता और आत्मप्रतिबिंब के महत्त्व पर एक सूक्ष्म टिप्पणी के रूप में भी काम करता है. फिर उन्होंने राजीव गांधी के कार्यकाल में जवाहरलाल नेहरू की किताब ‘द डिस्कवरी औफ इंडिया’ पर आधारित 53 एपिसोड का सीरियल ‘भारत एक खोज’ ले कर आए, जिस में गहराई और निष्पक्षता के साथ भारत के इतिहास का पता लगाया गया.
बेनेगल ने स्रोतसामग्री के प्रति ईमानदारी बरतते हुए भी हुए अंधराष्ट्रवाद को दूर रखा. श्याम बेनेगल ने इस सीरियल को बनाते समय ऐतिहासिक निष्ठा और सामाजिक व राजनीतिक टिप्पणी के बीच संतुलन बरकरार रखा. बौद्ध धर्म के उदय, भक्ति और सूफी आंदोलनों व औपनिवेशिक मुठभेड़ जैसे प्रसंगों की खोज के माध्यम से सीरियल ऐतिहासिक घटनाओं और सांप्रदायिकता, जातिगत भेदभाव और लैंगिक असमानता जैसे समकालीन मुद्दों के बीच समानताएं बनाता है.
अभी भी लैंगिक पूर्वाग्रह और रूढ़िवादिता के मुद्दों से जूझ रहे बौलीवुड में श्याम बेनेगल का सिनेमा सवाल उठाने, चुनौती देने और बदलाव को प्रेरित करने की शक्ति का प्रमाण है. महिलाओं के बारे में अपने सूक्ष्म, सहानुभूतिपूर्ण और निसंदेह ईमानदार चित्रण के माध्यम से बेनेगल ने भारतीय सिनेमा की संभावनाओं को फिर से परिभाषित किया.
उन की फिल्में नारीवादी आख्यानों के लिए एक कसौटी के रूप में काम करती रहती हैं, जिस से यह साबित होता है कि सिनेमा समाज का प्रतिबिंब और इस के परिवर्तन के लिए एक शक्ति दोनों हो सकता है.
उन की फिल्मों की सब से बड़ी खासीयत यह है कि उन की फिल्म की कहानी चाहे ग्रामीण महाराष्ट्र, दक्षिण भारत या गुजरात के बैकड्राप पर हो, पर वह कहानी के अनुसार स्थानीय रीतिरिवाजों, बोलियों और सांस्कृतिक बारीकियों पर सावधानीपूर्वक ध्यान देती है.
यह क्षेत्रीय विशिष्टता उन के आख्यानों में गहराई और यथार्थवाद जोड़ती है. उदाहरण के लिए, ‘मंथन’ में पात्र गुजराती और हिंदी का मिश्रण बोलते हैं, जो क्षेत्र की भाषाई विविधता को दर्शाता है. इसी तरह, ‘कोंडुरा’ में दक्षिण भारत की सांस्कृतिक प्रथाओं और लोककथाओं को कथा में मूल रूप से बुना गया है, जो स्थानीय जीवन की एक समृद्ध टेपेस्ट्री का निर्माण करती हैं.
श्याम बेनेगल ने सत्ता की चाटुकारिता कभी नहीं की. 2015 में उन्होंने कन्नड़ लेखक एम एम कलबुर्गी की हत्या और दादरी मौबलिंचिंग जैसी घटनाओं की निंदा की और असहिष्णुता के खिलाफ एकजुट प्रतिक्रिया का आह्वान किया. 2021 में उन्होंने सिनेमेटोग्राफ अधिनियम में प्रस्तावित संशोधनों की आलोचना की. फिल्म सैंसरशिप में संभावित सरकारी अतिक्रमण की चेतावनी दी. 2024 के अंतिम समय में सरकार ने सैंसर बोर्ड के संदर्भ में उन की ज्यादातर सिफारिशें मान ली हैं.