Donald Trump : राष्ट्र चाहे छोटा हो, उस की संप्रभुता और सम्मान किसी बड़े राष्ट्र से कमतर नहीं होता. पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरह दुनिया का स्वयंभू बाप बनने की कोशिश में यूक्रेन पर अपने तेवर झाड़े और यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदिमिर जेलेंस्की को वाइट हाउस में बुला कर अपमानित किया, उस से दुनियाभर में हलचल मची हुई है.
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने पागल समर्थकों, गोरे धर्मभीरुओं को मेक अमेरिका ग्रेट अगेन का नारा दे कर सत्ता में दोबारा आए हैं पर उस ग्रेट मेकिंग में वे अमेरिका को दुनिया से अलगथलग करने में लग गए हैं, साथ ही, अमेरिकी जनता की धुनाई करने में भी लग गए हैं. अपने को चक्रवर्ती सम्राट समझने के चक्कर में वे अपने ही देश के लोगों पर बाहरी देशों के सस्ते सामान पर टैक्स का भारी बोझ थोप रहे हैं.
यही नहीं, सरकारी काम में फालतू खर्च कम करने के चक्कर में वे लाखों को सरकारी नौकरियों से निकाल रहे हैं और दशकों से दूसरे देशों को दी जाने वाली सहायता बंद कर रहे हैं.
वे कहने को तो अमेरिका को बेहतर देश बना रहे हैं पर जिस देश के अपने पड़ोसियों कनाडा और मैक्सिको से संबंध बिगड़ जाएं, दशकों पुराने यूरोप से दुश्मनी सी हो जाए, अफ्रीका, दक्षिणी अमेरिका, दक्षिण एशिया के देशों की गरीबी और बीमारी से उसे कोई लेनादेना न रह जाए तो उस देश के बड़प्पन का मतलब क्या रह जाएगा?
अमेरिका ट्रंप के नेतृत्व में एक अलग ईरान, उत्तर कोरिया जैसा देश बन कर रह जाएगा जहां न कोई बिजनैस करने आएगा, न घूमनेफिरने और न पढ़ाई करने. यहां आ कर बसने की बात तो छोड़ ही दें क्योंकि जो बसे हुए हैं उन्हें अमेरिका चेनों में बांध कर अपने मिलिट्री हवाई जहाजों से उन के देशों में भेज रहा है, बिना किसी अदालती आदेश के.
ग्रेटनैस के चक्कर में अमेरिका दुनिया से अलगथलग हो रहा है. यह एक सैटेलाइट सा देश बन रहा है जिस की 30 करोड़ की जनसंख्या का दुनिया की 6 अरब जनता से कोई लेनादेना नहीं है. इस का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि अमेरिका पर सिर्फ गोरे चर्च जाने वाले प्रोटेस्टैंटों या कैथोलिकों का राज हो जिन की अपनी औरतें कालों, ब्राउनों और पीलों जैसे उन के घरों में रह कर सेवा करें, रसोई संभालें, बच्चे पैदा करें. लेकिन वे राष्ट्रपति बनने के ख्वाब न देखें.
यह ग्रेट, महान, अमेरिका अमीर रह पाएगा, इस में शक है. जिस भी देश ने अपने दरवाजे बाहर वालों के लिए बंद रखे, वह सड़ गया. समाज तभी उन्नति करता है जब उस में हर तरह की सोच आए, हर तरह के विचार आएं और जहां ‘मागा’, ‘मागा’ जैसे नारे नहीं बल्कि खेतखलिहानों, फैक्ट्रियों और रिसर्च सैंटरों में लोग काम कर रहे हों. अब जो सूरत दिख रही है उस में अमेरिका एक विशाल टापू जैसा बनने वाला है जिस के रास्ते बंद हैं और जो अपनी सड़न में खुश रहने वाला है.
अमेरिकी इतिहास में यह पहली बार हुआ जब वाइट हाउस के ओवल औफिस में अमेरिकी राष्ट्रपति ने किसी दूसरे देश के राष्ट्रपति से न सिर्फ तेज आवाज में बात की, बल्कि उन पर हावी होते हुए उन को अपमानित भी किया. उन पर तानाशाही करने का दोष मढ़ा और उन्हें उंगली दिखाई और फिर उन को वहां से चले जाने को कहा.
पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिस ढंग से दुनिया का स्वयंभू बाप बनने की कोशिश करते हुए यूक्रेन पर अपने तेवर झाड़े, यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदिमिर जेलेंस्की को रूस-यूक्रेन युद्ध समाप्ति पर बात करने के लिए वाइट हाउस में बुला कर हड़काया और जिस तरह उन्हें अपमानित कर के वाइट हाउस से जाने के लिए कहा, वह घटना दुनिया में हलचल मचाने वाली है. ट्रंप इस से पहले भी कई देशों के प्रमुखों से बदतमीजी कर चुके हैं. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के साथ उन की जो बहस हुई उस के भी वीडियो काफी वायरल हुए थे और दुनियाभर में ट्रंप की आलोचना हुई थी.
अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रंप पर दुनिया का आका बनने का ऐसा भूत सवार है कि उन्होंने कूटनीतिक शालीनता का लबादा उतार फेंका है. वैसे भी जबरदस्ती के ओढ़े गए इस लबादे को ट्रंप संभाल नहीं पा रहे थे. यूक्रेन के बहाने ही सही आखिरकार यह दिखावटी लबादा उतरा और दुनिया ने अमेरिका का असली चेहरा ठीक से देखा.
यूके्रन के समर्थन में आए यूरोपीय देश
जेलेंस्की व ट्रंप विवाद के बाद अमेरिका में दक्षिणपंथी राजनीति का घिनौना चेहरा सामने आया है. इस चेहरे पर सत्तालोलुपता तो पहले भी झलकती थी, मगर अच्छी कूटनीतिक भाषा और शालीनता के परदे में काइयांपन कुछ छिपा हुआ था, लेकिन अब जो असलियत सामने आई है तो दूसरे देशों को यह समझ में आने लगा है कि अमेरिका की कूटनीति दरअसल दूसरे देशों को कूटने की नीति ही ज्यादा है. इस में बड़प्पन वाली कोई बात नहीं है. बस, सब के बाप बन जाओ, सब को हड़काओ, सब की बेइज्जती करो और अपने को श्रेष्ठ बताने का हल्ला करो.
मेक अमेरिका ग्रेट अगेन (मागा) नारे के जरिए भी ट्रंप यही जताना चाहते हैं कि जब वे सत्ता में नहीं थे तब अमेरिका ग्रेट नहीं था, पिछले सारे राष्ट्रपति निकम्मे थे, उन्होंने अमेरिका की भलाई के लिए कुछ नहीं किया. अब ट्रंप को उस को फिर से वैसे ही ग्रेट बनाना है जैसे अमेरिका ट्रंप के पहले कार्यकाल में था.
यह बिलकुल वैसे ही है जैसे भारत में आरएसएस और उस की जन्मी पार्टी भाजपा के लिए आजादी के बाद से ले कर 2014 तक भारत में कुछ भी नहीं हुआ, जो कुछ हुआ वह मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद हुआ. आरएसएस के आधार पर खड़ी भाजपा के सत्ता में आने के बाद ही भारत ने तरक्की देखी और मोदी के कठिन श्रम और फैसलों से ही भारत विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर हुआ. कहना गलत नहीं कि जैसे भारत में आरएसएस है वैसे ही अमेरिका में ‘वाइट आरएसएस’ यानी ट्रंप का ‘मागा’ है.
ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में अमेरिका में चीजें बड़ी तेजी से बदल रही हैं. दुनिया पर हावी होने की कोशिश, अनेक राष्ट्रों को नीचा दिखाने का प्रयास, औरतों के शरीर पर अधिकार स्थापित करने और काले लोगों को यह बताने की कोशिश कि वे सिर्फ और सिर्फ गुलाम हैं, ट्रांसजैंडर्स को इंसान की श्रेणी से निकाल बाहर करने का ऐलान, धर्म (चर्च) का प्रचार बढ़ाने और उस की आड़ में अपनी संकीर्ण सोच से सब को प्रभावित करने व दबाने के प्रयास में ट्रंप जीजान से जुटे हैं.
क्रैडिट पाने की लालसा
दरअसल सत्ता जब किसी दक्षिणपंथी व कट्टरपंथी के हाथ में आती है तो उस का पहला शिकार कमजोर जनता और औरतें ही बनती हैं. दक्षिणपंथी मानसिक रूप से संकीर्ण होते हैं. उन में श्रेष्ठता का भाव अहं की हद तक होता है. धर्म का औजार हाथ में ले कर वे दूसरों के जीवन पर आधिपत्य जमाने और उन के मूल अधिकार छीन लेने को आतुर होते हैं. ट्रंप ने भी सत्ता में आते ही कई ऐसे फैसले किए जिन से महिलाएं, ट्रांसजैंडर, छोटे देश और दूसरे देशों से आ कर अमेरिका में काम करने वाले या पढ़ाई करने वाले छात्र बुरी तरह भयभीत हैं.
जेलेंस्की और उन के देश यूक्रेन का मामला बिलकुल ताजा है. लिहाजा, ट्रंप की संकुचित सोच और संकीर्ण मानसिकता पर यहीं से बात शुरू करते हैं. ट्रंप जब राष्ट्रपति पद के लिए प्रचार में जुटे थे तभी से कह रहे थे कि वे सत्ता में आते ही इसराइल-फिलिस्तीन युद्ध और रूस व यूक्रेन युद्ध समाप्त करवा देंगे. उन्होंने पिछले राष्ट्रपति पर आरोप लगाए कि जो बाइडेन ने इस संबंध में कोई कदम नहीं उठाया. खैर, इसराइल व फिलिस्तीन युद्ध में फिलहाल कुछ समय से शांति है और अब ट्रंप किसी भी तरह रूस व यूक्रेन जंग खत्म कराने का श्रेय हासिल करने की कोशिश में हैं.
यह बात अच्छी है कि युद्ध खत्म हो. युद्ध कभी भी मानव जाति का उद्धार नहीं करते. युद्ध में जानें जाती हैं, देश तबाह होते हैं, पीढि़यां बरबाद हो जाती हैं, धरती और पर्यावरण को घातक नुकसान पहुंचता है. युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं है मगर दुनिया के किसी न किसी कोने में हर वक्त कोई न कोई युद्ध चलता रहता है.
रूस व यूक्रेन युद्ध को चलते हुए 3 साल बीत चुके हैं और इस में हजारों लोग मारे जा चुके हैं. शहर के शहर तबाह हो चुके हैं. अरबोंखरबों की संपत्ति मिट्टी में मिल चुकी है और दोनों देशों की नागरिक आबादी को लगभग हर रोज हमलों का सामना करना पड़ रहा है. अगर ट्रंप इस युद्ध को खत्म कराने की कोशिश में हैं तो यह एक अच्छी बात है मगर इस के लिए दोनों देशों के प्रमुखों से बातचीत करते वक्त उन का रवैया न सिर्फ ठीक होना चाहिए, बल्कि दोनों देशों के प्रमुखों के साथ एक सा होना चाहिए.
अमेरिका की स्वयंभू बनने की कोशिश
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से ट्रंप की बातचीत के वीडियो देखें. आप पाएंगे कि ट्रंप किस शालीनता से उन से झुकझुक कर मीठी आवाज में बात करते हैं. चीन के राष्ट्रपति शी जिंगपिंग से भी बात करते वक्त ट्रंप की बौडी लैंग्वेज ऐसी ही होती है. ऐसा क्यों? क्योंकि ये दोनों बड़े देश हैं, ताकतवर हैं, ट्रंप को पलट कर जवाब देने का दम रखते हैं. मगर वहीं छोटे देशों के प्रमुखों से बात करते समय ट्रंप का अंदाज देखिए, लगता है जैसे कोई बाप अपने बच्चों के कान उमेठ रहा हो.
राष्ट्र चाहे छोटा हो, उस की संप्रभुता और सम्मान किसी बड़े राष्ट्र से कमतर नहीं होता. फिर यूक्रेन के राष्ट्रपति से युद्ध समाप्ति की बात करते वक्त राष्ट्रपति ट्रंप और अमेरिका के उपराष्ट्रपति जेडी वेंस जिस तरह जेलेंस्की पर हावी हुए, उस की घोर निंदा होनी चाहिए. वे न सिर्फ जेलेंस्की पर हावी हुए बल्कि उन को अपमानित कर वाइट हाउस से बाहर जाने के लिए भी बोला. उस देश के राष्ट्रपति से ऐसा गंदा बरताव जिस ने अपने देश को बचाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा रखी है, जो यूक्रेन के अस्तित्व के लिए लंबे समय से लड़ रहा है, बमों, मिसाइलों और गोलियों का सामना कर रहा है, अपने लोगों को मरते देखने के बाद भी पूरी दिलेरी से अपने देश को रूस से बचाने की कोशिश में है.
स्वीडिश प्रधानमंत्री उल्फ क्रिस्टरसन ने एक्स पर लिखा कि, जेलेंस्की आप न केवल अपनी बल्कि पूरे यूरोप की आजादी के लिए लड़ रहे हैं. आस्ट्रेलिया, चेक गणराज्य, डेनमार्क, फिनलैंड, फ्रांस, लातविया, लिथुआनिया, नौर्वे, पोलैंड और स्पेन के यूरोपीय अधिकारियों ने भी यूक्रेन को अपना समर्थन देने की पेशकश की. उस जेलेंस्की का वाइट हाउस में इतनी बुरी तरह अपमान हुआ. निसंदेह इस वीडियो को देख कर पुतिन को बड़ा आनंद आया होगा.
मदद की कीमत वसूलता ट्रंप
गौरतलब है कि अभी तक अमेरिका ही यूक्रेन को लड़ाई के लिए हथियार और पैसा मुहैया कराता रहा है. अन्य देशों ने भी मदद की मगर अमेरिका ने सब से ज्यादा की और यूक्रेन को लड़ने के लिए वह उकसाता भी रहा. अमेरिकी मदद के लिए राष्ट्रपति जेलेंस्की आभार भी जता चुके हैं. वे जानते हैं कि अमेरिका की मदद के बिना वे इतने लंबे समय तक रूस का सामना नहीं कर सकते थे. वे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कहने पर युद्ध रोकने को तैयार भी हैं मगर इस के बदले में वे सुरक्षा की गारंटी चाहते हैं.
जेलेंस्की का कहना है कि हम से ज्यादा शांति और किस को चाहिए? हम युद्धविराम के लिए तैयार हैं मगर रूस हम पर फिर हमला नहीं करेगा, हमें इस बात की गारंटी चाहिए. इस से पहले भी रूस ने कई बार युद्धविराम को धता बता कर धोखे से हमला किया और सैकड़ों लोगों को मार कर हमारे क्षेत्रों पर कब्जा किया. तो अब अगर अमेरिका के कहने पर हम युद्ध खत्म करते हैं तो हमें इस बात की गारंटी भी मिलनी चाहिए कि हम सुरक्षित हैं.
जेलेंस्की की मांग बिलकुल वाजिब है. अगर अमेरिका बाप बना है तो दोनों देशों में शांति और सुरक्षा का जिम्मा भी उसी का है. इस में कोई दोराय नहीं, मगर ट्रंप यूक्रेन को सुरक्षा की गारंटी देने को तैयार नहीं हैं बल्कि इस के बदले में वे यूक्रेन से बहुतकुछ जबरदस्ती हासिल करने की फिराक में हैं. ट्रंप चाहते हैं कि जेलेंस्की अपने बहुमूल्य खनिज की खदानें और पहाड़ अमेरिका को दे दें. जेलेंस्की इस के लिए भी तैयार हो गए हैं, मगर फिर भी ट्रंप इस बात की गारंटी नहीं देना चाहते कि जेलेंस्की और उन का देश भविष्य में सुरक्षित रहेगा. फिर भला काहे का बाप? और ऐसे खोखले व्यक्ति की बातों का भरोसा कर यूक्रेन अपने पांव पर कुल्हाड़ी क्यों मारे?
आप किसी की मदद करें, युद्ध में साथ दें, हथियार दें, पैसा दें, लड़वाने के लिए हवा भरते रहें और फिर बाद में उस पर एहसान जताते हुए उस से मदद की भरपाई करने के लिए कहें. यह कहें कि वह अपने बहुमूल्य खनिज की खदानें और पहाड़ उसे दे दे. क्या यह सही है? क्या परेशानी आने पर एक देश दूसरे देश की मदद इस तरीके से करता है?
यह बात जेलेंस्की भी समझ रहे हैं कि बात सम्मान और मदद की नहीं, बल्कि ट्रंप जो ‘डील डील’ की माला जपते रहते हैं, वह सिर्फ एक डील है. ट्रंप में कोई बड़प्पन नहीं है. वे कोई उदार नेता नहीं बल्कि एक बिजनैसमैन हैं जिन्हें सिर्फ डील, बिजनैस और पैसे से मतलब है.
वाइट हाउस में मीटिंग के दौरान ट्रंप ने जेलेंस्की को कौमेडियन कहा, डिक्टेटर कहा, उन के कद पर टिप्पणी की, कपड़ों पर टिप्पणी की. यह सब कहीं से भी कूटनीति की भाषा नहीं है. वाइट हाउस में घेर लिए जाने के बाद जेलेंस्की ने जिस तरह से जवाब दिया, तन कर खड़े हो गए, अमेरिका को आड़े हाथों लिया और न सिर्फ अपना बचाव किया बल्कि अमेरिका से सवाल भी किया, इस के लिए पूरी दुनिया में उन की तारीफ हो रही है. दुनिया के कई नेताओं की जहां ट्रंप के सामने घिग्घी बंध जाती है, वहीं जेलेंस्की ने जवाब देने की हिम्मत की. उन्होंने वाइट हाउस में अपनी और अपने देश के स्वाभिमान की रक्षा की.
ट्रंप एक के बाद एक ग्लोबल लीडरों की बेइज्जती कर रहे हैं. गनीमत है कि ट्रंप ने इस तरह का बरताव प्रधानमंत्री मोदी के साथ नहीं किया, लेकिन उन के सामने भी भारत की नीतियों को भलाबुरा कहने से नहीं चूके.
भारत की बेइज्जती ट्रंप ने इस तरह की कि जब मोदी अमेरिका दौरे पर जाने वाले थे उस से पहले ही ट्रंप ने अवैध भारतीय प्रवासियों को जंजीरों और हथकडि़यों में जकड़ कर सेना के विमान से भारत भेजा. उन के साथ अमानवीय बरताव किया. यह भारत और मोदी सरकार के लिए कोई सम्मानजनक बात नहीं थी.
ट्रंप ने भरी सभा में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री से पूछ लिया कि क्या आप अमेरिका के बिना युद्ध जीत सकते हैं? वहां बैठे लोग इस बात पर हंस दिए और कीर स्टार्मर खिसियानी हंसी हंस कर रह गए. ट्रंप ने यूरोपियन यूनियन के प्रमुख से भी कह दिया कि आप का गठन तो अमेरिका की नकेल कसने के लिए हुआ था, आज आप की हालत यह हो गई है. सोचिए उन को कितना अपमान महसूस हुआ होगा. तो ट्रंप का रवैया एक तानाशाह का रवैया है जो अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझता. उन का ऐसा रवैया न सिर्फ वर्ल्ड वार 3 की तरफ दुनिया को धकेलेगा बल्कि अमेरिका के पतन का भी जिम्मेदार होगा.
खैर, वाइट हाउस से अपमानित हो कर बाहर निकले जेलेंस्की के लिए यह राहत की बात रही कि यूरोपीय देश उन के समर्थन में दिखे. लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि सभी यूरोपीय देश यदि एकसाथ भी आ जाएं तो भी फिलहाल इस स्थिति में नहीं हैं कि जेलेंस्की के साथ खड़े हो कर ट्रंप को चुनौती दे सकें या उन की सामने से आलोचना कर सकें. यूरोपीय देशों की आधी ताकत चूंकि अमेरिका ही है, इसलिए कूटनीति यह कहती है कि ट्रंप को किसी ऐसे समझते पर मनाया जाना चाहिए जो जेलेंस्की को तो राहत दे ही, स्वयं यूरोप को भी उस के भविष्य के प्रति आश्वस्त करे.
ट्रंप ने सत्ता में आने के बाद से खुद को श्रेष्ठ जताने का जो शो चला रखा है उस से नहीं लगता कि वे यूरोप की खातिर अपने किसी भी घोषित कदम से पीछे हटने के बारे में सोचेंगे भी. चाहे वह पेरिस जलवायु समझता हो या अन्य कोई ऐसी अंतर्राष्ट्रीय साझा नीति जिस में अब तक अमेरिका प्रमुखता से सहभागी रहा हो. ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट की नीति अगर यूरोप की कीमत पर भी होती है तो इस का खमियाजा यूरोपीय देशों को ही ज्यादा भुगतना पड़ेगा. यूरोपीय देश यह भी जानते हैं कि यूक्रेन भी लंबे समय तक अमेरिका का विरोध नहीं झेल सकता, इसलिए बीच का रास्ता निकालना होगा. कोई ऐसा समझता जिस पर अमेरिका सहमत हो जाए.
जेलेंस्की भी ऐसे समझते के लिए तैयार हैं क्योंकि वे भी जानते हैं कि अमेरिका का विरोध यूक्रेन नहीं झेल सकता. विशेषकर ऐसा विरोध जिस में अमेरिका का रुझान जेलेंस्की के शत्रु पुतिन के पक्ष में दिखता हो. दूसरे, जेलेंस्की यह भी जानते हैं कि अमेरिका के बिना यूरोप भी अपने दम पर उन के साथ ज्यादा दिनों तक खड़ा नहीं रह सकता. जाहिर है जेलेंस्की भी अब किसी ऐसे सम्मानजनक रास्ते की तलाश में हैं जिस से युद्ध भी रुक जाए और उन का सम्मान भी बचा रह सके. इसलिए वे चाहते हैं कि उन्हें सुरक्षा की गारंटी मिले और यह गारंटी अमेरिका की ओर से आए. फिलहाल ट्रंप ने मारे गुस्से के यूक्रेन को दी जाने वाली सारी सैन्य मदद रोक दी है. इस से रूसी राष्ट्रपति पुतिन के चेहरे पर बड़ी मुसकान खिंच आई है.
टैरिफ से वैश्विक बाजार पर असर
ट्रंप का सनकी नेतृत्व और तानाशाही रवैया दुनिया के लिए खतरा बनता जा रहा है. दुनिया के देशों पर आयात शुल्क बढ़ा कर ट्रंप ने दुनियाभर में सनसनी फैला दी है. चीन, कनाडा और मैक्सिको पर जवाबी शुल्क लागू करने से वैश्विक स्तर पर युद्ध की आशंका को बढ़ा दिया है. जवाब में इन देशों ने भी अमेरिका पर शुल्क बढ़ा दिया है. इन फैसलों से भारत समेत पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा. इस से वैश्विक बाजारों में अनिश्चितता बढ़ेगी, जिस का असर भारत पर भी दिखेगा. इस से निर्यात प्रभावित होगा और देश के अंदर वस्तुओं के दाम तेजी से बढ़ेंगे. महंगाई दर बढ़ेगी तो आर्थिक विकास की दर धीमी हो जाएगी.
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से लगाए गए भारीभरकम टैरिफ की आलोचना की है और इसे बेहद बेवकूफी भरा कदम बताया है. उन्होंने ट्रंप पर पलटवार करते हुए कहा है कि टैरिफ के बहाने ट्रंप कनाडा पर कब्जा करने की कोशिश में हैं. ट्रूडो ने अपने देश की अर्थव्यवस्था की रक्षा के लिए बिना थके लड़ाई जारी रखने की कसम खाई है. ट्रंप ने कनाडा और मैक्सिको से अमेरिका आने वाले उत्पादों पर 25 फीसदी टैरिफ लगा दिया है. जवाब में कनाडाई प्रधानमंत्री ने भी अमेरिकी उत्पादों पर टैरिफ बढ़ा दिया है और चेतावनी दी है कि ट्रेड वार दोनों देशों के लिए महंगा साबित होगा.
गौरतलब है कि टैरिफ युद्ध बढ़ने की आशंका से दुनियाभर में लोग सुरक्षित निवेश के रूप में सोने की खरीदारी शुरू कर चुके हैं. इस से सोने के दाम दुनियाभर में बढ़ गए हैं. दिल्ली में सोने की कीमतें नई रिकौर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई हैं. भारत में इस का उदाहरण भी सामने आ चुका है. 5 मार्च को कन्नड़ और तमिल फिल्मों की अभिनेत्री रान्या राव को राजस्व खुफिया विभाग ने दुबई से लौटते समय 14.8 किलोग्राम सोने के साथ गिरफ्तार किया है. इस सोने की कीमत लगभग 12 करोड़ रुपए बताई जा रही है. अभिनेत्री रान्या राव कर्नाटक के पुलिस महानिदेशक के पद पर कार्यरत एक आईपीएस अधिकारी की बेटी हैं.
ट्रंप की नीतियों और फैसलों को ले कर अब चीन ने भी मोरचा खोल दिया है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कह दिया है कि टैरिफ वार हो या युद्ध, हम अंत तक लड़ने को तैयार हैं. ट्रंप सरकार ने कनाडा और मैक्सिको के साथ ही चीन पर भी अतिरिक्त टैरिफ लगाया है. वाशिंगटन के इस कदम से चीन आगबबूला है. चीन भी अब अमेरिका से इंपोर्ट होने वाले प्रोडक्ट्स पर 10 से 15 फीसदी तक का टैरिफ लगाने जा रहा है. इस से अब दुनिया की 2 महाशक्तियों के बीच खुल्लैमखुल्ला ट्रेड वार शुरू हो गया है. इस के साथ ही ड्रैगन ने ट्रंप सरकार को खुलेतौर पर युद्ध की भी धमकी दे डाली है.
चीन का कहना है कि अगर अमेरिका युद्ध चाहता है (चाहे वह टैरिफ युद्ध हो, व्यापार युद्ध हो या कोई और युद्ध) तो हम अंत तक लड़ने के लिए तैयार हैं. चीन के इस कदम के बाद अब हालात और भी खराब होने के आसार हैं.
दुनिया के टौप अरबपति वारेन बफेट ने डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ नीति पर गहरी चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि उन का यह कदम दुनियाभर में महंगाई बढ़ाने वाला साबित हो सकता है और सीधेतौर पर इस का असर आम उपभोक्ताओं पर पड़ेगा. ऐसा नहीं है कि दुनिया के देशों को परेशान कर के ट्रंप अमेरिका के हित में कोई काम कर रहे हैं. दरअसल वे अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मार रहे हैं.
नस्लभेदी मानसिकता अमेरिका को ले डूबेगा
प्रवासियों को अमेरिका से बाहर खदेड़ने के ट्रंप के फैसले से अमेरिका की कंपनियां और बड़े व्यापारी खुश नहीं हैं. अमेरिका में बड़ी संख्या में चीनी, भारतीय और अन्य देशों के लोग काम करते हैं. बड़ीबड़ी कंपनियों के सीईओ भारतीय मूल के हैं, जिन से नस्लभेदी मानसिकता में ग्रस्त श्वेत अमेरिकी जलन रखते हैं. लेकिन इन कंपनियों में श्रेष्ठता के भाव में ग्रस्त श्वेत अमेरिकी से तीनगुनी तादाद काली और सांवली चमड़ी के वर्कर्स की है, जिन की मेहनत पर ये कंपनियां टिकी हुई हैं. इन में बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जिन के पास अमेरिका में रहने के लिए जरूरी दस्तावेज नहीं हैं. इन को अमेरिका से बाहर खदेड़ने से ये कंपनियां भारी नुकसान उठाएंगी.
वर्तमान समय में कोई 3 लाख भारतीय छात्र अमेरिका में पढ़ते हैं. वे अपने कमजोर रुपए से मजबूत डौलर खरीद कर अमेरिका का खजाना भरते हैं. वर्ष 2023 में भारतीय छात्रों ने अमेरिका की अर्थव्यवस्था में करीब 12 अरब डौलर का योगदान दिया. पिछले साल अमेरिका में छात्र वीजा की फीस और पढ़ाई का खर्च भी काफी बढ़ा दिया गया है. बावजूद इस के बच्चे वहां पढ़ने के लिए जा रहे हैं.
एक अनुमान के अनुसार एक छात्र अमेरिका में पढ़ने के लिए औसतन 40 से 60 लाख रुपए खर्च करता है. उस के परिजन उस के लिए एजुकेशन लोन लेते हैं. अनेक मांबाप अपनी जमीनजायदाद बेच कर बच्चों को पढ़ने के लिए अमेरिका भेजते हैं. इन छात्रों से अमेरिका खूब कमाई कर रहा है. ऐसे में यदि ट्रंप के आदेश जमीन पर उतरने लगे तो अमेरिका की यूनिवर्सिटीज खाली हो जाएंगी. उन की मोटी कमाई, जो वे प्रवासी छात्रों से करते हैं, खत्म हो जाएगी. क्या अमेरिका अपनी इतनी बड़ी कमाई हाथ से जाने देगा?
ट्रंप घुसपैठिए का आरोप लगा कर जिस मैक्सिको को दिनरात धमकाते रहते हैं, उसी मैक्सिको से आने वाले खेतिहर मजदूर अमेरिका की जमीनों पर अन्न उगा कर उन का पेट भरते हैं क्योंकि उजले कपड़े पहन कर गिटरपिटर इंग्लिश हांकने वाले अमेरिकियों के बाजुओं में तो इतना दम नहीं है कि वे खेती जैसा मेहनत का काम कर सकें. कई अमेरिकी ऐसे हैं जिन के पास दोदो हजार एकड़ जमीन है. इतनी बड़ी जमीनों पर खेती करना आसान नहीं है. इस के लिए अमेरिका को सस्ते मजदूर चाहिए.
मैक्सिको से अगर खेतिहर मजदूर न आएं तो अमेरिका में खेती बंद हो जाएगा. अमेरिका यह बात अच्छी तरह जानता है. उस के अमीर किसान मैक्सिको के सस्ते मजदूर ही चाहते हैं और वे उन के अवैध रूप से अमेरिका में घुसने के रास्ते तैयार करते हैं.
आज मैक्सिको से आए लोगों को ट्रंप अवैध घुसपैठिया बता रहे हैं मगर दूसरे विश्वयुद्ध के समय जब लेबर की कमी हो गई थी तो अमेरिका को इसी मैक्सिको से बड़ी संख्या में लेबर बुलाने पड़े थे.
वर्ष 1942 से 1964 के बीच लाखों मैक्सिकन किसानों को अस्थायी वीजा दिया गया था ताकि वे अमेरिका आ कर खेती कर सकें. आज भी अमेरिका की खेती मैक्सिको से आने वाले किसानों पर निर्भर करती है. अमेरिका के खेतों में काम करने वाले दोतिहाई किसान और मजदूर मैक्सिको मूल के हैं. क्या अमेरिका के धनी किसान अपने खेतों से मैक्सिको के सस्ते लेबर को निकाल कर अपना बेड़ा गर्क करने को तैयार हैं?
सस्ते मजदूर तो हर देश को चाहिए. सस्ते मजदूर के चक्कर में ही अमेरिका की कितनी ही कंपनियों ने अपनी फैक्ट्रियां भारत, चीन और अन्य देशों में स्थापित कीं. क्या ट्रंप सारी फैक्ट्रियां वापस अमेरिका ला कर उन में काम करने के लिए अमेरिकी वर्कर्स रखने का आदेश भी जारी करेंगे? ट्रंप के शपथ समारोह में नाचने वाले एलन मस्क क्या चीन से अपनी टेस्ला कंपनी बंद कर उसे अमेरिका लाएंगे? क्या आईफोन अपनी फैक्ट्री चीन से निकाल कर कैलिफोर्निया में लगाएगा?
याद रखना चाहिए कि ट्रंप के साथ जितने भी खरबपति अमेरिका में हैं, सब के सब सस्ते श्रम के कारण ही खरबपति बने हैं. वे तो हमेशा से इस जुगाड़ में लगे रहे कि उन्हें ऐसे लेबर मिलें जो कम से कम पैसे में ज्यादा से ज्यादा काम करें ताकि उन के बिजनैस फलतेफूलते रहें.
हर किसी को सस्ते लेबर चाहिए और ऐसे लेबर जिन के पास जरूरी दस्तावेज न हो ताकि उन का शोषण करना आसान हों. इस सिस्टम का लाभ अमेरिका में ब्यूरोक्रेट समर्थक बिजनैसमैनों ने भी खूब उठाया है और रिपब्लिकन समर्थक अमीरों ने भी खूब उठाया है. यही लोग एआई के समर्थक भी हैं ताकि मजदूरों की संख्या कम की जा सके और मजदूरी कम देनी पड़े और ट्रंप जैसे व्यक्ति के हाथ सत्ता की चाबी सौंपने वाले अमेरिकी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि वे अवैध प्रवासियों को बाहर निकालने के बाद अमेरिकी लोगों को काम देंगे. हंसी आती है ऐसी सोच पर.
समाज को तोड़ रहे अमेरिका और भारत
अमेरिका भारत की तरह रस्साकशी में फंसा है. इन 2 बड़े लोकतंत्रों के नेताओं ने अपनेअपने देशों की कुछ ढकीछिपीं, कुछ दिखतीं, कुछ गहरी खाइयों को सब के सामने नंगा कर दिया है और ये खाइयां वैसी ही हैं जैसी 1920 के बाद जरमनी में दिखनी शुरू हुईं और 1933 तक आतेआते ये इतनी चौड़ी हो गईं कि पूरे जरमनी को ही नहीं बल्कि पूरे यूरोप को लील गईं.
अमेरिका नया देश है, महज 400 साल पुराना. चारपांच सौ साल पहले इतालवी अन्वेषक व नाविक क्रिस्टोफर कोलंबस के यूरोप से जहाजों के जरिए एटलांटिक पार करने से पहले उत्तर अमेरिका लगभग आदिवासियों की तरह रह रहे वाशिंदों का घर था जिन्हें बाद में रैड इंडियन कहा गया क्योंकि कोलंबस सोच रहा था कि वह मुगल साम्राज्य के आर्थिक समृद्ध भारत, इंडिया, में पहुंच गया.
यूरोप के अलगअलग देशों, अलगअलग संप्रदायों, अलगअलग इतिहासों वाले लोगों ने एक ब्रिटिश कालोनी बनाई और मोटा काम करने के लिए भारी संख्या में अफ्रीका के गुलामों को जबरन बुलाया. चीनियों को लालच दे कर लाया गया. फिर उन्होंने लोकतंत्र, बराबरी की पतली चादर से ढक कर, मेहनत, नईनई खोजों से ब्रिटेन से आजादी पा कर उसे एक अद्भुत देश बनाया. वहां कालेसफेद का भेदभाव था लेकिन बोलने और काम करने की आजादी थी. वहां गोरों का प्रभुत्व था लेकिन इन्हीं गोरों ने दूसरे गोरों से गृहयुद्ध लड़ा कि कालों को गुलाम नहीं रखा जा सकता.
भारत में पहले मुगलों ने, फिर अंगरेजों ने बिखरे हुए छोटेछोटे राजाओं, धर्मों, संप्रदायों, भाषाओं, बोलियों, रीतिरिवाजों वालों को एक चादर से ढक दिया जिस के तीनों भेदभाव छिप गए. एक जगह यूनाइटेड स्टेट्स औफ अमेरिका ने 1945 के बाद बेहद उन्नति की और एक जगह यूनियन औफ स्टेट्स वाले इंडिया ने टुकड़ों में बंटे देश की जगह एक विशाल भारत बना डाला.
इन दोनों देशों में समानताएं और विभिन्नताएं दोनों हैं. एक बेहद गरीब है, जहां प्रति व्यक्ति आय अमेरिकी डौलरों में 250 के आसपास है. दूसरा बेहद अमीर है, जहां प्रति व्यक्ति आय 70,000 डौलर है. एक में हर जगह गंदगी है, बेकारी है, बिखराव है, दूसरे में सफाई है, रोजगार के अपार अवसर हैं, ढंग से चलता जीवन है, बेहद संपन्नता है.
पर दोनों देशों में इस चमकधमक या काले अंधकार के नीचे गहराई तक गया जना का भेद है. अमेरिका में अफ्रीका से आए या ले आए गए कालों के साथ आज भी दुर्व्यवहार आम है, तो भारत में शूद्रों और अछूतों के साथ उसी तरह का भेदभाव आम है. एक में चर्च के माध्यम से जम कर गोरों की श्रेष्ठता का पाठ पढ़ाया जाता है तो दूसरे में धार्मिक कार्यक्रमों के माध्यम से हिंदूमुसलिम भेद के साथ सवर्ण, शूद्र और दलित भेद भी हर रोज फैलाया जा रहा है. दोनों देशों के कुछ नेता लगातार इन भेदों को पाटने में लगे हैं तो कुछ इन को भुनाने में. आज दोनों देशों में ऐसा नेतृत्व आ गया है जो सत्ता में भेदभाव, घृणा, ऊंचनीच, जन्मजात श्रेष्ठता के अहं को भुना कर एक नई शासन पद्धति स्थापित करना चाहता है, चाहे इस के लिए वर्षों की एकता की चादर को सीने की कोशिशों पर पानी फिर जाए.
अमेरिका और भारत दोनों में नेता, प्रशासनिक अधिकार, पुलिस, मिलिट्री, प्रैस खेमों में बंट गए हैं. एक तरफ वे लोग हैं जो भेदभाव को जीवन का पहला लक्ष्य मानते हैं और उन्हें विश्वास है कि उन्नति केवल श्रेष्ठ, जन्म से श्रेष्ठ लोगों के हाथों से हो सकती है. दोनों में पैसे वालों का बोलबाला हो गया है. दोनों देशों में जन्म से श्रेष्ठ लोग हर उस व्यक्ति को गुलामी के तहखानों में धकेल देना चाहते हैं जो उन से भिन्न दिखता है या नाम, धर्म, मूल देश से अलग है. वहीं दूसरी, एक तरफ वे लोग हैं जो मानव समाज में मोहब्बत, सौहार्द्र बनाए रखने की वकालत करते हैं.
दोनों देशों के संपन्न लोगों ने अपने भेद भुला दिए हैं. अमेरिका में गोरे लोग भूल गए हैं कि वे कहां से आए थे, फ्रांस से, पोलैंड से, इटली से, रूस से, इंग्लैंड से या और कहीं से. भारत में सवर्णों ने अपने भेद भुला दिए हैं. ब्राह्मणों ने अपने ऊंचनीच के भेद खत्म कर ही दिए, उन्होंने क्षत्रिय और वैश्य कही जानी वाली जातियों को मिला कर एक बड़ा संपन्न वर्ग तैयार कर लिया है जो चाहे आबादी का 10 फीसदी हो, लेकिन 90 फीसदी पर वह भारी है. अमेरिका में गोरे चाहे आज 60 फीसदी से भी कम हैं, और अनुमान है कि 2042 तक 50 फीसदी से भी कम हो जाएंगे, डोनाल्ड ट्रंप को जिता कर उन्होंने यह संदेश दिया है कि सत्ता और संपन्नता की चाबी उन्हीं के हाथों में थी, है और रहेगी.
इन दोनों देशों को एक करने, विशाल बनाने, अमेरिका को संपन्नता दिलाने और भारत को मुगलों व अंगरेजों से आजादी दिलाने में दबेकुचलों का मुख्य योगदान है. आज उन के योगदान को लगातार भुलाया जा रहा है. वह न टैक्स्ट बुक्स में प्रकाशित हो रहा है, न ऊंची जातियों या ऊंचे रंग वाले इतिहासकारों, लेखकों, पत्रकारों, शिक्षकों की जबान/कलम से निकल रहा है. अमेरिका और भारत के समाज आज यह साबित करने में लगे हैं कि गोरों और सवर्णों की बदौलत उन की पहचान है जबकि दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएं कालों, निचलों, अछूतों, सत्ता से बाहर रहे अधपढ़ों व अनपढ़ों पर निर्भर हैं.
अमेरिका अब पहले दौर में अवैध इमिग्रैंट्स को निकाल रहा है. फिर वह हर तरह के लैटिनों, चीनियों, भारतीयों, अफ्रीकी अरब लोगों को या तो निकालेगा या उन्हें इस कदर भयभीत रखेगा कि वे गुलामों की तरह गुलामी करते रहें.
यही भारत में हो रहा है. पिछले 50 सालों के दौरान यहां हिंदूहिंदू कर के मुसलिमों को ही नहीं, सिखों और ईसाइयों को भी दूसरे दर्जे का नागरिक होना महसूस कराया गया. इसी दौरान दलितों और पिछड़ों की हैसियत भी छीन ली गई. वहीं, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, चौधरी देवीलाल, चौधरी चरण सिंह, प्रकाश सिंह बादल, रामविलास पासवान जैसे नेताओं को हाशिए पर ला पटक दिया गया. इन की जातियों के बौनों को पुतला बना कर खड़ा कर दिया और इन वर्गों से कहा गया कि इन बौने पुतलों की तरह जूते चाटते रहो.
अमेरिका ने जिस तरह भारतीय नागरिकों को अमेरिका में बिना अनुमति के घुसने पर उन के हाथपैरों में जंजीरें डाल कर उपहार में भारत को भेजा है वह अमेरिकी मानसिकता दर्शाता है. जिस तरह भारत सरकार ने इन लोगों को सहज स्वीकारा वह भारतीय मानसिकता दर्शाता है क्योंकि इन में से अधिकांश निचली जातियों के थे. उन को जन्म के कारण नीचा दर्शाया गया. दोनों देश एक सा बन रहे हैं. भारत अमेरिका जैसा अमीर बनेगा, यह तो नहीं हो सकता लेकिन अमेरिका अगर नहीं सुधरा तो उस का पतन अवश्य हो सकता है. अमेरिका के ‘मागा’ लोग विध्वंसक हैं, निर्माणक नहीं, तो वहीं भारत के कट्टरपंथी भी विध्वंसक हैं, विनाश करना जानते हैं. सरकारी बलबूते पर कुछ दिखावटी निर्माण कर लेना उन्नति नहीं है.