तानाशाही ज्यादा दिन चलती नहीं है और तानाशाहों का अंत बहुत दर्दनाक होता है. हिटलर हों, स्टालिन हों, ईदी अमीन हों, फ्रांसिस्को फ्रैंको हों या सद्दाम हुसैन, सबका अंत दर्दनाक था. इतने उदाहरणों के बाद भी दुनिया यह नहीं समझ रही कि लोकतांत्रिक तरीके से देश को चलाना ही शासन का बेहतर तरीका है.
सीरिया में इस्लामिक विद्रोहियों ने 24 वर्षों से चले आ रहे राष्ट्रपति बशर अल-असद के शासन को उखाड़ फेंका. बीते पांच दशकों से एक ही परिवार के केंद्र में रही सत्ता की परिपाटी बदल गई और सीरिया में भी तानाशाही का दौर ख़त्म हुआ. सीरिया में बशर अल-असद शासन का खात्मा ऐसे समय में हुआ है जब माना जा रहा था कि उन्होंने सालों से जारी विद्रोह पर काबू पा लिया है.
सीरिया एक समय अरब संस्कृति का समृद्ध केंद्र था, पर बीते एक दशक से वह दुनिया के सबसे खतरनाक युद्ध क्षेत्रों में से एक बना हुआ था. साल 2011 में राष्ट्रपति बशर अल-असद की तानाशाही के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन गृहयुद्ध में तब्दील होकर मल्टी-फ्रंट वॉर में बदल चुका था. करीब 2 करोड़ की आबादी वाले सीरिया में पिछले 13 सालों में 5 लाख से ज्यादा लोगों की जाने जा चुकी हैं. लाखों लोग विस्थापित हुए हैं और अनेक देशों में शरणार्थियों के रूप में त्रासदी से भरी जिंदगी जी रहे हैं. सोशल मीडिया पर ऐसे अनेक विज्ञापन देखे जा रहे थे जहां माँ बाप अपने बच्चों को गोद देने के लिए बेचैन थे. वे नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे सीरिया में रह कर युद्ध की विभीषिका या भुखमरी झेलें अथवा माँ बाप की आकस्मिक मौत के बाद लावारिस हालत में भटकें क्योंकि सीरिया के हालात इतने खराब हो चुके थे कि कोई भी अपने को सुरक्षित नहीं समझ रहा था.
दुनिया के अधिकांश इस्लामिक देश तानाशाहों के नेतृत्व में बर्बाद हुए हैं और जहां जहां तानाशाही जारी है वहां वहां जनता बदहाल है. औरतें और बच्चे असुरक्षा और भुखमरी का शिकार हैं. अशिक्षित युवाओं के हाथों में बंदूकें हैं और निशाने पर निर्दोष लोग हैं. ट्यूनेशिया, बेहरीन, लीबिया, लेबनान. सीरिया जैसे देश सदियों से जल रहे हैं. जनता में आक्रोश है. आक्रोश विद्रोह में बदल रहा है. जगह जगह गृहयुद्ध छिड़े हुए हैं.
सीरिया की बात करें तो तानाशाही की शुरुआत वहां सत्तर के दशक में हुई थी. बात 13 नवंबर 1970 की है. हाफिज अल असद सीरियाई एयरफोर्स के चीफ थे. सेना में उनकी अच्छी पकड़ थी. इसी का फायदा उठाते हुए 13 नवंबर 1970 को हाफिज असद ने तब की सरकार को गिरा कर तख्तापलट करते हुए खुद को सीरिया का राष्ट्रपति डिक्लेयर कर दिया. हालांकि तब लोगों को उम्मीद नहीं थी की हाफिज ज्यादा दिनों तक तानाशाह रह पाएंगे. उसकी वजह यह थी की सीरिया शुरू से सुन्नियों की आबादी वाला देश रहा है.
सीरिया में सुन्नियों की आबादी करीब 74 फीसदी है. जबकि शियाओं की आबादी 16 फीसदी है. हाफिज असद शिया थे. उन्हें भी पता था कि सुन्नी कभी भी विरोध कर सकते हैं. इसलिए तख्तापलट करने के बाद से ही हाफिज असद ने सुन्नियों को कुचलना शुरू कर दिया. उन्होंने नौकरी, सेना और दूसरी पॉलिसी में शियाओं को फेवर दिया और सुन्नियों को निकाल बाहर किया. इससे सुन्नियों में गुस्सा तो पैदा हुआ, मगर फौज पर चूंकि असद की पकड़ काफी मजबूत थी लिहाजा उनकी सत्ता बनी रही.
करीब 30 साल तक सीरिया पर हुकुमत करने के बाद साल 2000 में हाफिज अल-असद की मौत हो गई. उनके बाद उनके बेटे बशीर अल-असद बतौर राष्ट्रपति सीरिया की गद्दी पर बैठ गए. अगले 10 सालों तक पिता की पॉलिसी और हथकंडों के चलते बशर अल-असद भी हर विरोध को दबाते रहे. बाप-बेटे ने मिलकर विपक्ष खत्म कर दिया था. साल 2006 से 2010 तक सीरिया में कम बारिश की वजह से सूखा पड़ गया. लोग भूखे मरने लगे.
सरकार ने जनता की कोई मदद नहीं की. जनता को लगने लगा कि तानाशाही ना होती तो शायद उनकी जिंदगी बेहतर होती. पहली बार बशर के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूटा और लोग सड़कों पर उतरे. इत्तेफाक से ठीक इसी वक्त अरब में एक आंदोलन शुरू हो गया, जिसे अरब स्प्रिंग नाम से जाना जाता है. ये आंदोलन उन देशों में शुरू हुआ, जहां लंबे वक्त से तानाशाही थी. देखते ही देखते ट्यूनीशिया, लीबिया, इजिप्ट, लेबनान, जॉर्डन में लोग सड़कों पर उतर आए. इस आक्रोश और विद्रोह का नतीजा दुनिया के लिए हैरान करने वाला था.
पहला अरब स्प्रिंग सरकार विरोधी प्रदर्शनों, विद्रोहों और सशस्त्र विद्रोहों की एक श्रृंखला थी जो 2010 के दशक की शुरुआत में अरब दुनिया के अधिकांश हिस्सों में फैल गयी. यह भ्रष्टाचार और आर्थिक स्थिरता के जवाब में ट्यूनीशिया में शुरू था. ट्यूनीशिया से शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन पाँच अन्य देशों लीबिया, मिस्र, यमन, सीरिया और बहरीन में फैल गया. शासकों को पदच्युत कर दिया गया. 2011 में ट्यूनीशिया के ज़ीन एल अबिदिन बेन अली, 2011 में लीबिया के मुअम्मर गद्दाफी, 2011 में मिस्र के होस्नी मुबारक और 2012 में यमन के अली अब्दुल्ला सालेह का तख्तापलट हो गया. 23 साल से ट्यूनीशिया की सत्ता पर काबिज बेन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा. लीबिया में कर्नल गद्दाफी को जनता ने मार दिया. 30 साल तक इजिप्ट के तानाशाह रहे हुस्नी मुबारक को भी देश छोड़कर भागना पड़ा.
कई जगह बड़े विद्रोह और दंगे हुए. कुछ देशों में गृहयुद्ध या उग्रवाद सहित सामाजिक हिंसा हुई. मोरक्को, इराक, अल्जीरिया, लेबनान, जॉर्डन, कुवैत, ओमान और सूडान में लगातार सड़क पर जनता ने उग्र प्रदर्शन किया. जिबूती, मॉरिटानिया, फिलिस्तीन, सऊदी अरब और पश्चिमी सहारा में छोटे-मोटे विरोध प्रदर्शन हुए. अरब दुनिया में प्रदर्शनकारियों का एक प्रमुख नारा था – अश-शा’ब युरीद इस्कात अन-नियाम यानी लोग शासन को गिराना चाहते हैं.
अब चूंकि ये सब कुछ सीरिया के इर्द-गिर्द हो रहा था. इसलिए पहली बार बशर अल असद को भी इस खतरे का अहसास हुआ. उनको लगा कि सीरिया में भी लोग बगावत ना कर दें. असद डरे हुए थे. उसी वक्त उन्होंने अपनी सेना को यह हुक्म दिया कि पूरे सीरिया पर पैनी नजर रखी जाए. जो भी सरकार के खिलाफ आवाज उठाए उसे कुचल दिया जाए. हालांकि तब तक सीरिया शांत था.
14 साल के एक बच्चे ने दीवार लिखा – अब तुम्हारी बारी है डॉक्टर!
साल 2010 खत्म होते होते असद को लगा कि अब सब कुछ ठीक है, लेकिन तभी 14 साल के एक बच्चे ने कुछ ऐसा कर दिया कि सीरिया में विद्रोह की ऐसी चिंगारी फूट पड़ी जिसने अंततः 13 साल बाद बशर अल असद को सीरिया छोड़कर भागने के लिए मजबूर कर दिया.
26 फरवरी 2011 को उत्तरी सीरिया के दारा में 14 साल के एक बच्चे मुआविया सियास ने अपने स्कूल की दीवार पर लिखा – ”अब तुम्हारी बारी है डॉक्टर…” चूंकी बशर अल-असद को उनके करीबी डॉक्टर भी बुलाते थे, इसलिए दारा शहर में जिसने भी ये लाइन पढ़ी वो इसका मतलब समझ चुका था.
तानाशाही सरकार की बच्चे से दरिंदगी
अरब देशों के कई तानाशाहों के खात्मे के बाद बच्चे द्वारा लिखी इस लाइन का साफ मतलब यही था कि अब बारी बशर अल-असद सरकार की है. जैसे ही दारा के लोगों ने दीवार पर यह लाइन पढ़ी सभी डर गए. मुआविया के पिता ने तो अपने बेटे को ही छुपा दिया. लेकिन दारा के सिक्योरिटी चीफ को दीवार पर लिखे इस लाइन के बारे में जानकारी मिल गई. अगले ही दिन यानी 27 फरवरी 2011 को स्कूल के कुल 15 बच्चों को असद की आर्मी ने उठा लिया. इनमें मुआविया भी था. इसके बाद इन बच्चों पर जो जुल्म ढाए गए उसकी कोई इंतिहा नहीं थी. उनके नाखून नोच दिए गए. मासूम बच्चों को पानी से भिगोकर करंट दिए गए.
कई बच्चों को उल्टा लटकाया गया. इन बच्चों की रिहाई की मांग को लेकर दारा के लोगों ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया. सरकार से बच्चों को छोड़ने की अपील की लेकिन बच्चों को नहीं छोड़ा गया. उल्टे असद की सेना ने बच्चों के मां-बाप से एलानिया यह कह दिया कि अपने बच्चों को भूल जाओ. दूसरे बच्चे पैदा करो और नहीं कर सकते तो अपनी औरतों को हमारे पास छोड़ जाओ.
बच्चों पर हो रहे जुल्म, दीवार पर लिखी वो लाइनें, दारा से निकलकर सीरिया के अलग-अलग शहरों में भी पहुंच चुकी थी. चूंकि बच्चे छोटे थे इसलिए हर एक को हमदर्दी थी. फिर क्या था देखते ही देखते पूरे सीरिया में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया. जो कि बहुत जल्द बड़ा होता गया.
बशर अल असद को तब पहली बार अहसास हुआ कि इस विरोध प्रदर्शन को रोकना जरूरी है. आखिरकार पूरे 45 दिन बाद अप्रैल 2011 में सभी बच्चों को छोड़ दिया गया. लेकिन यहीं से कहानी पलट गई. जब बच्चे कैद से बाहर आये तो उनके साथ उन पर ढाए गए जुल्मों की निशानियां और कहानियां भी सामने आईं. मासूम बच्चों पर सेना की हिंसा के चिन्ह देख कर और उनकी जुबान से हिंसा की दर्दनाक दास्तां सुनकर आंदोलन रुकने की बजाय और तेज हो गया. बच्चों की रिहाई के अगले ही शुक्रवार यानि 22 अप्रैल 2011 को दारा की एक मस्जिद में नमाज के बाद खुलकर असद के खिलाफ नारेबाजी हुई. इस शोर को कुचलने के लिए आर्मी ने लोगों पर गोलियां चलाईं जिसमें दो लोग मारे गए और अनेक घायल हुए. फिर तो मामला और गर्म हो गया और इसने विद्रोह का रूप ले लिया.
मारे गए दोनों लोगों के जनाजे के साथ लोग सड़कों पर उतर आये. असद की आर्मी ने फिर हिंसा का नंगा नाच किया और असद सरकार ने अपनी ही जनता को कुचलने के लिए सड़कों पर टैंक उतार दिए. आसमान में हेलीकॉप्टर से गोलियां बरसाई जाने लगीं. यह पहली बार था जब सीरिया में एक साथ दर्जनों लोग मारे गए. दारा की कहानी अब सीरिया के शहर शहर की कहानी बन चुकी थी. हर शहर हिंसा की चपेट में था. सीरिया के लोग असद की सेना की गोलियों का सामना डंडों और पत्थरों से कर रहे थे. हर दिन लाशों की तादाद बढ़ती ही जा रही थी. हालात ऐसे हो गए थे कि असद की सेना में भी बगावत शुरू हो गयी.
तानाशाह की क्रूरता देख कर हजारों सैनिक सरकार का साथ छोड़कर आम लोगों से जा मिले. असद के ऐसे ही सैनिकों को अपने साथ लेकर सीरिया की जनता ने सेना का मुकाबला करने के लिए अपनी सेना बनाने का फैसला किया. आखिरकार 29 जुलाई 2011 को फ्री सीरियन आर्मी की बुनियाद रखी गई. इसमें ऐसे हजारों अलग अलग छोटे छोटे गुट आ मिले जो असद के खिलाफ थे. सीरिया के पड़ोसी सुन्नी देशों ने भी फ्री सीरियन आर्मा की मदद करनी शुरू कर दी. यह वही दौर था जब बहती गंगा में बगदादी ने भी हाथ साफ करने की ठानी थी. बगदादी की आईएसआई भी फ्री सीरियन आर्मी की मदद के लिए ईराक से सीरिया पहुंच गयी.
अभी तक जो आईएसआई यानि इस्लामिक स्टेर ऑफ ईराक था वो अब ISIS यानि इस्लामिक स्टेट ऑफ ईराक एंड सीरिया बन गया. सीरिया में एक बड़ी आबाद कुर्द की भी है. खासकर नॉर्थ ईस्ट सीरिया में. फ्री सीरियन आर्मी की तर्ज पर अब कुर्द ने भी असद सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. असल में कुर्दों की मांग एक अलग देश की थी. यानि अब सूरत-ए-हाल कुछ यूं था कि सीरिया के अंदर एक साथ चार मोर्चे खुल गए थे. एक असद की सरकार का. एक बगदादी की आईएसआई का. फ्री सीरियन आर्मी की और कुर्द फोर्स का. अब सीरिया सचमुच गृहयुद्ध की आग में झुलस रहा था.
हुआ तख्तापलट, भागने पर मजबूर हुए बशर अल-असद
देखते ही देखते अब बाहरी देश भी अपने अपने फायदे के लिए सीरिया के अखाड़े में कूदने लगे. कई अरब देश सीधे फ्री सीरियन आर्मी की मदद के लिए आगे आये. वजह ये थी कि वो सीरिया में सुन्नियों को सपोर्ट करना चाहते थे. यह देख ईरान भी इस लड़ाई में कूद पड़ा. लेकिन असद के विरोधियों का साथ देने के लिए नहीं बल्कि असद सरकार को बचाने के लिए, क्योंकि ईरान शियाओं का सबसे बड़ा देश है. उधर रूस को इस इलाके में एक दोस्त चाहिए था. पुतिन को असद के रूप में एक दोस्त नजर आया, तो रूस भी असद की ढाल बनकर सामने आ गया. अब जहां रूस होगा तो उसके खिलाफ अमेरिका को तो आना ही था.
अमेरिका ने भी सीरिया में असद सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. कुल मिलाकर सीरिया अब एक बड़ा अखाड़ा बन चुका था जहां कई देश दंगल खेल रहे थे. मगर अब भी किसी तरह असद अपनी सरकार बचाए हुए थे. सीरियाई सेना के खिलाफ लड़ाई जारी थी, फिर हुआ यूं कि असद जिस ईरान और पुतिन के भरोसे बैठे थे, उन दोनों देशों की स्थिति भी काफी डगमगा गयी. रूसी राष्ट्रपति पुतिन का सारा ध्यान यूक्रेन में जंग की तरफ था. यूक्रेन के साथ जंग में उन्हें भारी क्षति हो रही थी. दूसरी तरफ ईरान भी हिज्बुल्लाह के चक्कर में इजरायल से उलझा हुआ था. ऐसे वक्त में पुतिन और ईरान दोनों ने ही असद की और मदद करने से इंकार कर दिया. हालत ऐसी हो गयी कि असद की सेना के पास सिर्फ तीन दिन का राशन बचा था. फिर क्या था असद को अपने अंजाम का अहसास हो गया. और वह बच निकलने की योजना बनाने लगे.
11 दिन पहले सीरिया में फिर से विद्रोह ने जोर पकड़ा. सीरियाई सैनिक चौकी, पोस्ट छोड़-छोड़ कर भागने लगे. देखते ही देखते इन्हीं 11 दिनों में असद के हाथों से सीरिया की राजधानी दमिश्क समेत 5 बड़े शहर अलेप्पो, हमा, होम्स और वह दारा भी निकल गया जहां से इस क्रांति की शुरुआत हुई थी. 8 दिसंबर को बशर अल-असद सीरिया पर 20 साल हुकुमत करने के बाद दमिश्क से एक प्लेन में बैठ कर चुपचाप रूस चले गए. अपने परिवार को वह पहले ही वहां शिफ्ट कर चुके थे. पुतिन ने भी अपनी दोस्ती निभाई और असद को अपने घर में पनाह दी. मगर कब तक. पुतिन जिस तरह यूक्रेन को लेकर जंग छेड़े हुए हैं उससे उनकी भी आतंरिक हालत खस्ता है. कब पुतिन का सितारा अस्त हो जाए और रूस भी तानाशाही की गुलामी से आजाद हो जाए कहा नहीं जा सकता है. मगर जल्दी ही यह होना है. क्योंकि तानाशाही ज्यादा दिन चलती नहीं है और तानाशाहों का अंत बहुत दर्दनाक होता है. हिटलर हों, स्टालिन हों, ईदी अमीन हों, फ्रांसिस्को फ्रैंको हों या सद्दाम हुसैन, सबका अंत दर्दनाक था. इतने उदाहरणों के बाद भी दुनिया यह नहीं समझ रही कि लोकतंत्र ही शासन का सबसे बेहतर तरीका है.
भले लोकतंत्र बहुत मजबूत ना हो, भले उसमें कमीबेशी हो, भले भ्रष्टाचार हो मगर जनता द्वारा चलाया जाने वाला शासन ही जनता की जरूरतों को समझता है और जनता को भी समझ में आता है. भारत हो, नेपाल हो, पाकिस्तान हो या बांग्लादेश यहां उस तरह के हालात नहीं हैं जैसे तानाशाही हुकूमत वाले देशों के हैं. यहां लचर लोकतंत्र ही सही मगर उसने देश को बर्बाद होने से बचाया हुआ है.
अरब स्प्रिंग या जैस्मिन क्रांति के 13 साल में मिट गया तानाशाहों का राज
साल 2011 अरब जगत के देशों के लिए भारी उथल-पुथल भरा था. ट्यूनीशिया में एक सब्जी बेचने वाले के आत्मदाह से भड़की आग में इस क्षेत्र के कई देश झुलस गए. आलम ये था कि ट्यूनीशिया से निकली विद्रोह की ये चिंगारी मिस्र, लीबिया, यमन और सीरिया कई देशों तक फैली. विद्रोह की इस चिंगारी को जैस्मीन क्रांति या फिर अरब स्प्रिंग भी कहा गया. इस क्रांति ने कई तानाशाहों की चूल्हें हिला दी और उन्हें गद्दी से उतार फेंका.
इस फेहरिस्त में पहला नाम मिस्र के तानाशाह होस्नी मुबारक का है. होस्नी मुबारक 1981 में अनवर सदत की हत्या के बाद मिस्र के राष्ट्रपति बने थे. वह 1981 से 2011 तक मिस्र में एकछत्र राज करते रहे. लेकिन
2011 में ट्यूनीशिया से निकली विद्रोह की चिंगारी में उन्हें गद्दी से उतरना पड़ा.
जनवरी 2011 में मिस्र की राजधानी काहिरा के तहरीर स्क्वायर में हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारी इकट्ठा हुए, जिन्होंने राजनीतिक सुधारों और मुबारक के इस्तीफे की मांग की. सोशल मीडिया और इंटरनेट के जरिए आंदोलन को व्यापक समर्थन मिला, जिसने सरकार के दमन के प्रयासों को चुनौती दी.
होस्नी मुबारक सरकार ने शुरुआत में इन विरोधों को दबाने की कोशिश की लेकिन जनता के भारी समर्थन और वैश्विक दबाव के सामने उनकी रणनीति असफल रही. पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प के बावजूद प्रदर्शनकारियों ने अपनी मांगों को जारी रखा. लेकिन 18 दिनों तक हुए हिंसक प्रदर्शन के बाद होस्नी मुबारक को अपना पद छोड़ना पड़ा, और सत्ता सेना के हाथ में चली गई. यह पहली बार था जब मिडिल ईस्ट में सोशल मीडिया से शुरू होकर सड़क तक पहुंचे एक आंदोलन ने किसी निरंकुश शासक को सत्ता से उखाड़ फेंका था. इस प्रोटेस्ट में 239 प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई थी.
क्रूर कर्नल गद्दाफी का खौफनाक अंत
जैस्मिन क्रांति की आग में ही लीबिया के क्रूर तानाशाह मुअम्मर अल गद्दाफी की गद्दी भी जल गई थी. 2011 में विद्रोही लड़ाकों ने राजधानी त्रिपोली में गद्दाफी के बाब अल-अजीजिया पर कब्जा कर लिया था. इस दौरान गद्दाफी की मूर्तियां ढहा दी गईं. 25 एकड़ में फैले गद्दाफी के महल में घुसकर विद्रोहियों ने जमकर लूटपाट की. इसके बाद गद्दाफी को पकड़ लिया गया.
मुअम्मर अल गद्दाफी ने लीबिया पर 42 सालों तक राज किया था. उन्होंने मात्र 27 साल की उम्र में तख्तापलट कर दिया था. 7 जून 1942 को लीबिया के सिर्ते शहर में जन्मा गद्दाफी हमेशा से अरब राष्ट्रवाद से प्रभावित रहा और मिस्र के नेता गमाल अब्देल नासिर का प्रशंसक रहा.
गद्दाफी बेहद क्रूर था. उसे लोग सनकी तक कहते थे. विद्रोहियों ने राजधानी त्रिपोली पर कब्जा कर लिया. जून 2011 में मामला अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत पहुंचा. यहां अत्याचार करने के लिए गद्दाफी, उसके बेटे सैफ अल इस्लाम और उसके बहनोई के खिलाफ वारंट जारी किया गया. जुलाई में दुनिया के 30 देशों ने लीबिया में विद्रोहियों की सरकार को मान्यता दे दी. 20 अक्टूबर 2011 को गद्दाफी को उसके गृहनगर सिर्ते में मार गिराया गया. हालांकि मौत कैसे हुई इस पर संशय रहा.
कई रिपोर्ट्स के मुताबिक, जब विद्रोही गद्दाफी को मार रहे थे तो वह उनसे गुहार लगा रहा था कि उसे गोली न मारी जाए. मारे जाने के बाद गद्दाफी की कई तस्वीरें सामने आई थीं. उनके मरने की खबर सुनने के बाद लीबिया में लोगों ने जमकर जश्न मनाया था.
बता दें कि ट्यूनीशियाई क्रांति 28 दिन तक चलने वाला एक विद्रोह था. नागरिकों के इस विरोध के कारण जनवरी 2011 में लंबे समय तक राष्ट्रपति पद पर रहे जीन अल आबिदीन बेन अली को पद से हटने लिए मजबूर होना पड़ा. इसके बाद देश में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई.
बशर अल असद का तख्तापलट
इस फेहरिस्त में नया नाम बशर अल असद का है. कई मोर्चों पर जंग के बीच सीरिया पर विद्रोहियों का कब्जा हो चुका है. राष्ट्रपति बशर अल असद ने अपने परिवार सहित रूस में राजनीतिक शरण ले ली है. इस बीच सीरिया से ऐसी कई तस्वीरें और वीडियो सामने आए, जिसमें लोगों को राष्ट्रपति भवन के भीतर लूटपाट करते और हुड़दंग मचाते देखा गया. इसी तरह की लूटपाट श्रीलंका के राष्ट्रपति भवन, बांग्लादेश के बंगभवन और काबुल से भी देखने को मिली थी.
एक हफ्ते में विद्रोहियों ने राजधानी दमिश्क के अलावा सीरिया के चार बड़े शहरों पर कब्जा कर लिया है, अब सवाल ये है कि सीरिया में अब आगे क्या होगा? विद्रोहियों की जीत के साथ ही सीरिया में बशर अल-असद के 24 साल के शासन और देश में 13 साल से चल रहे गृह युद्ध का अंत हो गया है. अब सीरिया की राजधानी दमिश पर हयात अल-शाम का कब्जा है.
सीरियाई शरणार्थियों की घर वापसी
सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद के सत्ताच्युत होने और देश छोड़ने के बाद से जॉर्डन और लेबनान समेत तमाम देशों से सीरियाई शरणार्थी अपने मुल्क वापस लौट रहे हैं. यूनाइटेड नेशन्स के डेटा के अनुसार, दुनियाभर में सबसे ज्यादा शरणार्थियों में एक सीरियाई रिफ्यूजी हैं. साल 2011 में सीरिया में गृह युद्ध शुरू हुआ. लड़ाई विद्रोही समूहों और असद सरकार के बीच थी. सरकार विरोधी गुटों का कहना था कि वे महंगाई, हिंसा और भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं. पहले सड़कों पर आंदोलन शुरू हुआ, जिसे अरब स्प्रिंग कहा गया. जल्द ही इसमें मिलिटेंट्स शामिल हो गए, जिन्हें विदेशी ताकतों का सपोर्ट था. हालात बिगड़ने लगे. पहले तो सीरियाई नागरिक अपने ही देश में विस्थापित होने लगे. जल्द ही वहां भी असुरक्षा बढ़ने पर वे पड़ोसी देशों की शरण लेने लगे. और फिर वे यूरोप और अमेरिका तक चले गए. पांच सालों से ज्यादा चली लड़ाई में शरणार्थियों ने देश लौट सकने की उम्मीद खो दी थी लेकिन अब असद सरकार के गिरने के साथ वे दोबारा लौट रहे हैं.
यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीज की मानें तो सीरिया के भीतर ही 7 मिलियन से ज्यादा नागरिक विस्थापित हैं, जबकि लगभग इतने ही लोग दूसरे देशों में शरण ले चुके. इनमें से तुर्की में सबसे ज्यादा लगभग साढ़े तीन करोड़ सीरियाई शरणार्थी हैं. इसके बाद लेबनान, जॉर्डन, जर्मनी और फिर ईराक है. इनमें से लगभग सारे ही मिडिल ईस्टर्न देश लगातार सीरिया के मामले में मध्यस्थता करने की कोशिश करते रहे ताकि उनके अपने देश से रिफ्यूजियों की आबादी घट सके. अब पड़ोसी देशों से उनकी वापसी शुरू हो चुकी है.
ज्यादातर देशों में सीरिया के शरणार्थियों को लेबर मार्केट में औपचारिक एंट्री नहीं है. वे काम तो कर रहे हैं लेकिन छुटपुट या फिर थर्ड पार्टी के जरिए. सरकारी कामों या बड़े कामों से योग्यता के बाद भी उन्हें दूर रखा जाता है. अगर वे लेबर फोर्स में शामिल होना चाहें तो इसकी सजा भी है. मसलन लेबनान वैसे तो सीरिया का मददगार है लेकिन अपने यहां शरण देने वालों के सामने उसने शर्त रख दी कि वे तभी अपना शरणार्थी स्टेटस रिन्यू करवा सकते हैं, जब वे वर्कफोर्स से दूर रहें. द गार्जियन की रिपोर्ट के अनुसार, इसके लिए उनसे बाकायदा दस्तखत करवाया जाता है.
शरणार्थियों के लिए फंड की कमी
इन देशों के पास शरणार्थियों को देने के लिए कुछ खास नहीं है. आमतौर पर यूनाइटेड नेशन्स की तरफ से इनके लिए कई प्रोग्राम चलते हैं. सीरिया को भी मदद मिल रही है. लेकिन ये समस्या एक दशक से भी ज्यादा लंबे समय तक खिंच गई और रिफ्यूजियों की आबादी भी काफी ज्यादा है. ऐसे में यूएनएचसीआर को भी फंडर्स की कमी होने लगी. कुछ साल पहले जब वर्ल्ड फूड प्रोग्राम ने हजारों शरणार्थियों को खाना पहुंचाने से इनकार कर दिया था, तब इस बात पर पहली बार ध्यान गया था. इसी के बाद कैंप्स से निकलकर रिफ्यूजी बाहर घूमने लगे और स्थानीय लोगों और उनके बीच तनाव बढ़ने लगा.
ज्यादातर देशों में सीरियाई रिफ्यूजियों के लिए मेडिकल सुविधाएं भी काफी नहीं. जैसे जॉर्डन में बहुत से लोगों के पास फ्री हेल्थकेयर नहीं है, खासकर वयस्कों के लिए. स्वास्थ्य सुविधाओं के अलावा, उनके बच्चों के पास फॉर्मल एजुकेशन की भी गुंजाइश कम है. इंटरनेशनल सपोर्ट के बगैर शरण दे चुके देश सीधे-सीधे उन्हें हटा नहीं रहे थे, लेकिन उन्होंने शरणार्थियों पर तमाम ऐसी बंदिशें लाद दी थीं कि वे खुद ही देश छोड़ना चाहें. ऐसे में असद सरकार के जाते ही रिफ्यूजी, खासकर पड़ोसी देशों में बसे लोग घर वापसी कर रहे हैं.